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________________ 47. वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समावणओ ण णिदिदा रायचरियम्हि।। स्तुति और नमन सहित वंदणणमंसणेहिं [(वंदण)-(णमंसण) 3/2] अब्भुट्ठाणाणुगमण- [(अब्भुट्ठाण)+(अणुगमणपडिवत्ती पडिवत्ती)] [(अब्भुट्ठाण)-(अणुगमण)- (पडिवत्ति) 1/2] सम्मान के लिए खड़े होना, पीछे-पीछे चलने की प्रवृत्तियाँ श्रमणों में समणेसु समावणओ (समण) 7/2 [(सम) + (अवणओ)] [(सम)-(अवणअ) 1/1] कष्टों का निराकरण करना नहीं अस्वीकृत सरागचारित्र अवस्था अव्यय (णिंद) भूकृ 1/2 [(राय)-(चरिया) 7/1] णिंदिदा रायचरियम्हि' अन्वय- समणेसु समावणओ वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती रायचरियम्हि ण जिंदिदा। अर्थ- श्रमणों में (विद्यमान) कष्टों का निराकरण करना, स्तुति और नमन सहित (उनके आगमन पर) सम्मान के लिए खड़े होना, (उनके जाने पर) उनके पीछे-पीछे चलना-(ये सब) प्रवृत्तियाँ (शुभोपयोगी श्रमण की) सरागचारित्र अवस्था में अस्वीकृत नहीं (है)। 1. कभी-कभी ‘आकारान्त' शब्दों के रूप तृतीया और पंचमी को छोड़कर 'अकारान्त' की . तरह चल जाते हैं। अभिनव प्राकृत व्याकरणः पृष्ठ 154 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (57)
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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