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________________ 33. आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणंतो अटे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।। आगमहीणो आगम (ज्ञान) के बिना श्रमण समणो णेवप्पाणं नहीं आत्मा को [(आगम)-(हीण) भूकृ 1/1 अनि (समण) 1/1 [(णेव)+(अप्पाणं)] णेव (अ) = नहीं अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 (पर) 2/1 वि (वियाण) व 3/1 सक (अ-विजाण) वकृ 1/1 (अट्ठ) 2/2 (खव) व 3/1 सक (कम्म) 2/2 अव्यय (भिक्खु) 1/1 वियाणादि अविजाणतो पर को जानता है. न जानता हुआ पदार्थों को नाश करता है कर्मों अढे खवेदि कम्माणि किध कैसे भिक्खू श्रमण अन्वय- आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि अटे अविजाणंतो भिक्खू कम्माणि किध खवेदि। - अर्थ- आगम (ज्ञान) के बिना श्रमण आत्मा (स्व) को (और) पर को नहीं जानता है। पदार्थों को न जानता हुआ श्रमण कर्मों का कैसे नाश करेगा? 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। 2. प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (43)
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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