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38. जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं।
तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण।।
4.
अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं
जिस अज्ञानी कर्म को क्षय करता है । सौ हजार करोड़ भवों
(ज) 2/1 सवि (अण्णाणि) 1/1 वि (कम्म) 2/1 (खव) व 3/1 सक [(भव)-(सय)-(सहस्स)(कोडि) 3/2+7/2] (त) 2/1 सवि (णाणी) 1/1 वि (ति) 3/2 वि (गुत्त) भूक 1/1 अनि (खव) व 3/1 सक [(उस्सास)-(मेत्त) 3/1+7/1 वि]
णाणी
उसको आत्मज्ञानी तीनों द्वारा रक्षित क्षय कर देता है उच्छवास मात्र में
गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण
अन्वय-अण्णाणी जं कम्मं भवसयसहस्सकोडीहिं खवेदि तिहिं गुत्तो णाणी तं उस्सासमेत्तेण खवेदि।
____ अर्थ- अज्ञानी (व्यक्ति) जिस कर्म को सौ हजार करोड़ भवों में क्षय करता है तीनों (मन, वचन और काय) द्वारा रक्षित आत्मज्ञानी (व्यक्ति) उस (कर्म) को उच्छवास मात्र में क्षय कर देता है।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 37) यहाँ छन्दपूर्ति के लिए 'तीहिं' के स्थान पर 'तिहिं किया गया है। किन्तु यहाँ पाठ 'तिहिं' के स्थान पर 'तिहि' होना चाहिये।
2.
(48)
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार