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________________ छ आवश्यक- (16) सामायिक (17) वंदना (18) स्तुति (19) प्रतिक्रमण (20) स्वाध्याय (21) कायोत्सर्ग अन्य मूलगुण- (22) केशलोंच (23) दिगम्बर अवस्था (24) अस्नान (25) भूमि पर सोना (26) दाँतौन नहीं करना (27) खड़े होकर भोजन करना (28) एक बार भोजन करना। श्रमणों के लिए प्रेरक दिशाएँ: जो श्रमण है वह भोजन में अथवा उपवास में अथवा आवास में अथवा विहार में अथवा शरीररूप परिग्रह में अथवा अन्य श्रमण में तथा विकथा में ममतारूप संबंध को स्वीकार नहीं करता है (15)। श्रमण की जागरूकता-रहित चर्या यदि सोने, बैठने, खड़े होने, परिभ्रमण आदि क्रियाओं में सबकाल में होती है तो वह निश्चय ही निरन्तर हिंसा मानी गई है (16)। श्रमण थोड़े परिग्रह को ग्रहण करे जो संयम के लिए आवश्यक है और आगमों द्वारा अस्वीकृत नहीं है, संयम-रहित मनुष्यों द्वारा अप्रार्थनीय है तथा ममत्व आदि भावों की उत्पत्ति-रहित है (23)। यदि श्रमण आहार-चर्या में अथवा विहार में क्षेत्र, काल, श्रम, सहनशक्ति तथा परिग्रहरूप शरीरावस्था- उन सबको जानकर आचरण करता है तो वह थोड़े से कर्म से ही बँधनेवाला होता है (31)। जो श्रमण पाँच प्रकार से सावधान है अर्थात् सावधानीपूर्वक पाँच (ईया, भाषा, एषणा आदि) समितियों का पालन करनेवाला है, तीन प्रकार से संयत है अर्थात् मन, वचन और काय के संयम के कारण तीन गुप्ति सहित है, जिसके द्वारा पाँचों (स्पर्शन, रसना आदि) इन्द्रियाँ नियंत्रित की गई हैं, कषायें जीत ली गयी हैं तथा जो दर्शन (शुद्धात्म-श्रद्धा) और ज्ञान (स्व-दृष्टि) से पूर्ण है, वह श्रमण संयमी कहा गया है (40)। (4) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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