SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 50. जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से।। जदि कुणदि अव्यय (कुण) व 3/1 सक [(काय)-(खेद) 2/1] यदि करता है षट्काय जीवों में कायखेदं श्रमण धम्मो . वेज्जावच्चत्थमुज्जदो [(वेज्जावच्चत्थं)+(उज्जदो)] वेज्जावच्चत्थं (अ) = वैयावृत्ति के लिए उज्जदो(उज्जद) भूक 1/1अनि लगा हुआ समणो (समण) 1/1 अव्यय नहीं हवदि (हव) व 3/1 अक होता है हवदि (हव) व 3/1 अक होता है अगारी (अगारि) 1/1 वि गृहस्थ (धम्म) 1/1 जीवन-पद्धति (त) 1/1 सवि वह सावयाणं (सावय) 6/2 श्रावकों की अव्यय वाक्य का उपन्यास अन्वय- वेज्जावच्चत्थमुज्जदो जदि कायखेदं कुणदि समणो ण हवदि अगारी हवदि सो सावयाणं धम्मो से। अर्थ-(अन्य श्रमणों की) वैयावृत्ति के लिए लगा हुआ (जो) (शुभोपयोगी श्रमण है) (वह) यदि षट्काय जीवों में दुख (उत्पन्न) करता है (तो) (वह) श्रमण नहीं है गृहस्थ है (क्योंकि) वह श्रावकों (गृहस्थों) की (जीवों को दुख देने की) (विवशता पूर्ण) जीवन-पद्धति (है)। 1. 'अत्थं' अव्यय का प्रयोग के लिए' अर्थ में होता है। (60) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy