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49. उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स । कायविराधणरहिदं सो वि
सरागप्पधाणो से ।।
उवकुणदि
जो
वि
णिच्चं
चादुव्वण्णस्स
समणसंघस्स
कायविराधणरहिदं'
सो
वि
#
गप्पधाण
1.
( उवकुण) व 3 / 1 सक
(ज) 1/1 सवि
अव्यय
अव्यय
( चादुव्वण्ण) 6 / 1 - 2 / 1 वि
1
[ ( समण) - (संघ) 6/1 - 2 / [(काय) - (विराधण) -
( रहिद ) 2 / 1 वि]
(त) 1 / 1 सवि
अव्यय
[ ( सराग) वि - ( प्पधाण )
1/1 fa]
अव्यय
]
उपकृत करता है
जो
ही
सदैव
चार प्रकार के
श्रमण संघ को
छ काय के जीवों की
पीड़ा के बिना
अन्वय- चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स जो णिच्वं कायविराधणरहिदं उवकुणदि सो सरागप्पधाणो विवि से ।
अर्थ- चार प्रकार के श्रमण संघ को जो सदैव छ काय के जीवों की पीड़ा
बिना उपकृत करता है, वह राग सहित चर्या में मुख्य (सर्वोत्तम) (होकर) भी
-
(शुभोपयोगी) ही है।
प्रवचनसार ( खण्ड - 3) चारित्र अधिकार
वह
भी
राग-सहित चर्या में
मुख्य
वाक्य का उपन्यास
'बिना ' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
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