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________________ 68. णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि। लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि।। कषाय णिच्छिदसुत्तत्थपदो [(णिच्छिदसुत्त)+(अत्थपदो)] [(णिच्छिद) भूकृ-(सुत्त)- समझ लिया गया है (अत्थपद) 1/1] सिद्धान्त का सार/मर्म समिदकसाओ [(समिद) भूक - नियंत्रित की गई है (कसाअ) 1/1] तवोधिगो [(तव)+(ओ)+(अधिग)] तवोधिगो [(तव)-(ओ) अ-(अधिग) आश्चर्य है! तप में 1/1 वि] विशिष्ट चावि अव्यय तो भी लोगिगजणसंसगं [(लोगिग) वि-(जण)- लौकिक मनुष्यों से (संसग्ग) 2/1] मेल-जोल अव्यय चयदि (चय) व 3/1 सक छोड़ता है अव्यय यदि संजदो (संजद) भूकृ 1/1 अनि संयमी अव्यय नहीं हवदि (हव) व 3/1अक होता है नहीं जदि ण अन्वय- णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि जदि लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि संजदो ण हवदि। अर्थ- (जिसके द्वारा) सिद्धान्त का सार/मर्म समझ लिया गया है (तथा) कषाय नियंत्रित की गई है (और) (जो) तप में विशिष्ट है तो भी आश्चर्य है! यदि (वह) लौकिक मनुष्यों से मेल-जोल नहीं छोड़ता है (तो) (वह) संयमी नहीं होता है/हो सकता है। (78) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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