SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 57. अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु। जुटुं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु॥ और अविदिदपरमत्थेसु [(अविदिद) भूकृ- ज्ञानशून्य (परमत्थ) 7/2] आत्मस्वरूप में य अव्यय विसयकसायाधिगेसु [(विसयकसाय)+(अधिगेसु)] [(विसय)-(कसाय)- विषयकषायों की (अधिग) 7/2-2/2 वि] अधिकतावाले पुरिसेसु (पुरिस) 7/2-2/2 मनुष्यों को (जुट्ठ) 1/1 वि की गई सेवा (कद) 1/1 अव्यय (दत्त) भूक 1/1 अनि दिया गया फलदि (फल) व 3/1 अक फलित होती है कुदेवेसु (कुदेव) 7/2 कुदेवों में मणुवेसु (मणुव) 7/2 कुमनुष्यों में . लाभ अथवा A. 4 __ अन्वय- अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु दत्तं कदं जुटुं कुदेवेसु व मणुवेसु फलदि। अर्थ- आत्मस्वरूप में ज्ञानशून्य और विषयकषायों की अधिकतावाले मनुष्यों को (कई प्रकार से) दिया गया लाभ, तथा (उनकी) की गई सेवा कुदेवों में अथवा कुमनुष्यों में फलित होती है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (67)
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy