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44. अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । समणो जदि सोणियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ।।
अट्ठेसु जो
1555 d
मुज्झदि
ण
हि
रज्जदि
व
दोसमुवयादि
समणो
दि
सो
णियदं
खवेदि
कम्माण
विविहाणि
(अट्ठ) 7/2
(ज) 1 / 1 सवि
अव्यय
(मुज्झ ) व 3/1 अक
अव्यय
(54)
पदार्थों के मध्य
जो कोई
नहीं
(खव) व 3 / 1 सक
(कम्म) 2/2 (विविह) 2 / 2 वि
मोहित होता है
नहीं
भी
अव्यय
(रज्ज) व 3 / 1 अक
अव्यय
[(दोसं) + (उवयादि)]
द्वेष भाव
दो (दोस) 2/1 उवयादि (उवया) व 3/1 सक रखता है
(समण) 1 / 1
अव्यय
(त) 1/1 सवि
अव्यय
आसक्त होता है
नहीं
श्रमण
यदि
वह
आवश्यक रूप से
क्षय करता है
कर्मों को अनेक प्रकार के
अन्वय- जदि जो समणो अट्ठेसु ण मुज्झदि ण रज्जदि णेव दोसमुवयादि हि सो णियदं विविहाणि कम्माणि खवेदि ।
अर्थ- यदि जो कोई श्रमण (पर) पदार्थों के मध्य मोहित नहीं होता है अर्थात् उनके मध्य आत्मविस्मरण किया हुआ नहीं रहता है (उनमें ) आसक्त नहीं होता है (तथा) (उनमें ) द्वेष भाव भी नहीं रखता है (तो) वह आवश्यकरूप से अनेक प्रकार के कर्मों का क्षय करता है।
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र - अधिकार