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आचार्य कुन्दकुन्द-रचित पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(मूलपाठ-डॉ. ए.एन.उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद)
संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी
अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन
पाणुज्जीवी जीवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी।
राजस्थान
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आचार्य कुन्दकुन्द-रचित पंचास्तिकाय (खण्ड-1)
द्रव्य-अधिकार
(मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद)
संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी
निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी
अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन
सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
M
णाशुज्जीवी जी जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष - 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004
दूरभाष - 0141-2385247 __ प्रथम संस्करण : अगस्त, 2014
सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य -400 रुपये
ISBN 978-81-926468-4-8 पृष्ठ संयोजन फॅण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष - 0141-2562288
मुद्रक
जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001
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अनुक्रमणिका
पृष्ठ संख्या
11
107
119
क्र.सं. विषय
प्रकाशकीय सम्पादक की कलम से संकेत सूची द्रव्य-अधिकार मूल पाठ परिशिष्ट-1 (i) संज्ञा-कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त-कोश (iv) विशेषण-कोश (v) सर्वनाम-कोश (vi) अव्यय-कोश परिशिष्ट-2 छंद परिशिष्ट-3 सहायक पुस्तकें एवं कोश
132
135
140
149
150
156
159
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प्रकाशकीय
आचार्य कुन्दकुन्द-रचित 'पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार' हिन्दी-अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
__ आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण के कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती
आचार्य कुन्दकुन्द-रचित उपर्युक्त कृतियों में से पंचास्तिकाय' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित एक रचना है। इसके पहले द्रव्य-अधिकार में 1 से 96 तक की गाथाएँ तथा दूसरे नव पदार्थअधिकार में 105 से 153 तक की गाथाएँ ही आचार्य द्वारा रचित हैं। 97 से 104 तक की गाथाएँ आचार्य जयसेन द्वारा रचित हाने के कारण अनुवाद में सम्मिलित नहीं की गई है। प्रथम अधिकार में द्रव्य और सत्ता, द्रव्य-गुण-पर्याय, पाँच अस्तिकायः जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश का विशेष प्ररूपण है। इन पाँच द्रव्यों के अतिरिक्त छठे काल द्रव्य का भी कथन किया गया है। दूसरे अधिकार में नव पदार्थ का निरूपण है।
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‘पंचास्तिकाय' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के शब्दों का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रियाकोश, कृदन्त-कोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक ‘पंचास्तिकाय' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है।
प्रस्तुत कृति के दो अधिकारों में से 'द्रव्य-अधिकार' प्रकाशित किया जा रहा है। जैन दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में पंचास्तिकाय का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं।
पुस्तक-प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने पंचास्तिकाय(खण्ड1) द्रव्य-अधिकार'का हिन्दी-अनुवाद करके जैन दर्शन व शौरसेनी प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादार्ह है।
___ मंत्री
न्यायाधिपति नरेन्द्र मोहन कासलीवाल महेन्द्र कुमार पाटनी डॉ. कमलचन्द सोगाणी अध्यक्ष
संयोजक प्रबन्धकारिणी कमेटी
जैनविद्या संस्थान समिति दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी जयपुर
वीर निर्वाण संवत्-2540
3.08.2014
(vi)
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ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार
संपादक की कलम से
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश (पंचहं समवाओ) तथा काल (समयो) से लोक निर्मित है। लोक के बाद परिमाण-रहित (अमिओ) अलोक (अलोओ) नामक आकाश (खं) है। लोक के ये घटक अस्तित्व स्वभाववाले हैं, परिणमन - लक्षण - युक्त होते हुए शाश्वत हैं तथा गुण-पर्यायसहित है, इसलिए द्रव्य कहे जा सकते हैं। ये घटक किसी से संरचित नहीं है (अमया) और लोक के आधार हैं।
इस लोक में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी हैं, इसलिए अस्तिकाय कहे जाते हैं। काल द्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है इसलिये अस्तिकाय नहीं है।
आचार्य का कथन है कि यद्यपि ये सभी द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे के लिए स्थान देते हैं और सदैव मिलते हैं, किन्तु अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।
यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि द्रव्यों में परिणमन का निमित्त काल है जो स्वयं अमूर्त और वर्तनालक्षणवाला (स्वयं परिणमनशील) है। यह द्रव्य काल स्वाधीन/शाश्वत है । काल की पर्यायें समय, दिन-रात, मास, वर्ष आदि पराधीन है, नश्वर हैं।
द्रव्य और सत्ता / अस्तित्वः
द्रव्य स्वयं सत्ता है। द्रव्य कि उत्पत्ति तथा विनाश नहीं होता है, किन्तु
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
(1)
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द्रव्य तो अस्तित्व ही है। द्रव्य के विविध लक्षणों में से एक लक्षण सब पदार्थों में स्थित अस्तित्व है। सत्ता/अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है। द्रव्य की परिणमनशीलता के कारण पर्यायें उत्पन्न और विनष्ट होती हैं। आचार्य कहते हैं कि सामान्य सत्ता सब पदार्थों में स्थित है, उनके नाना स्वरूपों में विद्यमान है, उनकी अनन्त पर्यायों में है। उन पर्यायों की उत्पत्ति और व्यय में तथा उन ध्रुव पदार्थों में है। विशेष सत्ता विशिष्ट पदार्थों में स्थित है। उसके नाना स्वरूपों में विद्यमान है। उसकी पर्यायों में है। उस एक पर्याय की उत्पत्ति उसके व्यय में तथा उस ध्रुव पदार्थ में है। द्रव्य, गुण और पर्यायः
___द्रव्य सत् लक्षणवाला है, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त है तथा गुणपर्याय का आधार है। दूसरे शब्दों में, द्रव्य की उत्पत्ति अथवा विनाश नहीं है, किन्तु द्रव्य का अस्तित्व है। पर्यायें उसमें ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यता को करती है। फलस्वरूप पर्याय-रहित द्रव्य नहीं है और द्रव्य-रहित पर्याय नहीं है, द्रव्य और पर्याय अपृथकता से युक्त है। इसी प्रकार, द्रव्य के बिना गुण नहीं है
और गुण के बिना द्रव्य नहीं है, द्रव्य और गुणों में अपृथकता है। कहा जा सकता है कि सत् पदार्थ का नाश नहीं है, असत् पदार्थ की उत्पत्ति नहीं है, पदार्थ गुणपर्यायों में ही उत्पाद-व्यय करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार द्रव्य और गुण में अविभाजित अपृथकता है। उनमें धन और धनी की तरह प्रदेश-भिन्नता नहीं है किन्तु ज्ञान और ज्ञानी की तरह प्रदेश-एकता है। कहने का अभिप्राय है कि उनमें विभाजित पृथकता और तादात्म्य को स्वीकार नहीं किया गया है।
द्रव्य और गुण प्रदेश-रूप से अपृथक होते हुए भी नाम, संरचना, संख्या और उद्देश्य के दृष्टिकोण से पृथक है। अपृथकता में ये पृथकताएँ
( 2 )
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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विद्यमान रहती है। यदि प्रश्न किया जाए कि द्रव्य और गुणों को पृथक मानने में क्या आपत्ति है? इसके उत्तर में कहा गया है कि यदि द्रव्य गुण से पृथक होता है तो अनंत द्रव्य घटित होंगे अथवा यदि गुण द्रव्य से पृथक होते हैं तो द्रव्य ही
अभाव को हासिल/प्राप्त करते हैं (करेंगे)। चूँकि गुण आश्रयरहित नहीं रहते हैं, अतः पृथक अनन्त गुणों के लिए आश्रयरूप अनन्त द्रव्यों की कल्पना करनी होगी जो अर्थहीन होगी अथवा चूँकि द्रव्य गुणों का समूह होता है, अतः गुण की पृथक कल्पना करने से द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। अतः कहा गया है कि द्रव्य और गुण का संबंध प्रदेश-भेद-रहित है और अपृथक्करणीय है। इस तरह उनके संबंध में अनादि वैधता प्रतिपादित है। पाँच अस्तिकायिक (बहुप्रदेशी) द्रव्यः
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश बहुप्रदेशी हैं तथा सत्ता से अपृथक हैं, गुण-पर्याय सहित हैं, परिणमन-लक्षण से युक्त हैं। काल एक प्रदेशी है, इसलिए अस्तिकाय में सम्मिलित नहीं है। जीवः
जीव चेतन व ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी है, प्रभु (अपने उत्थान के लिए स्वयं समर्थ) है, कर्ता, भोक्ता और स्वदेह परिमाणवाला होते हुए भी अमूर्त है
और वह कर्मों से संयुक्त है। जो जीव कर्मरूपी मैल से छुटकारा पाया हुआ है वह स्वयं सर्वज्ञ हुआ है, सबको जानने-देखनेवाला होकर आत्मोत्पन्न, अखंडित, अतीन्द्रिय/अमूर्त अनन्त सुख को प्राप्त करता है। इस तरह जीव कर्मों का नाश करके सिद्ध होता है और आचार्य कहते हैं कि यह एक अपूर्व घटना है। चार प्राणों (आयु, बल, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास) से जीता हुआ संसारी
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(कर्मयुक्त) जीव जब सिद्ध होता है तो कर्म-जनित द्रव्य प्राणों से मुक्त होता है
और अपनी स्वाभाविक ज्ञानात्मक चेतना का अनुभव करता है। सिद्ध विच्छिन्न देह वाले होते हैं तथा वे वाणी की पहुंच से बाहर हो जाते हैं।
यहाँ यह जानना चाहिये कि समस्त एकेन्द्रिय जीव कर्मों के सुखदुखरूप फल का ही अनुभव करते हैं और दो इन्द्रियादि जीव इष्ट-अनिष्ट कार्यों से युक्त होकर कर्मों के सुख-दुखरूप फल का अनुभव करते हैं। कर्मों से पूर्णतया मुक्त जीव ज्ञान का ही अनुभव करते हैं। वे लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाते हैं।
__ जीव कर्ता और भोक्ता है। अनादिकालीन कर्म-बंध से उत्पन्न आत्मविस्मरण के कारण जीव/आत्मा राग द्वेषादि अशुद्ध भावों को करता है
और कर्म पुद्गल समय आने पर अलग होते हुए सुख-दुख देते हैं और जीव उनको भोगता है। इस प्रकार मोह से आच्छादित जीव/आत्मा कर्ता या भोक्ता होता है। आत्मस्मरणमय जीव अपने स्वरूप को ही करता है और उसको ही भोगता है।
पुद्गलः
लोक में पुद्गल परमाणु और स्कन्धरूप में अवस्थित होता है। परमाणुओं के मेल का समूह स्कन्ध है और स्कन्धों का अन्तिम भेद परमाणु है। पुद्गल परमाणु मूर्तिक होता है। इसमें एक वर्ण, एक रस, एक गंध तथा दो स्पर्श होते हैं। वह स्कन्ध अवस्था में रूपान्तरित होने पर शब्द का कारण होता है, स्कन्धों से पृथक होने पर स्वयं शब्दरहित होता है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि सभी द्रव्य इन्द्रिय, द्रव्य मन, सभी प्रकार के शरीर, द्रव्य कर्म, इन्द्रियों द्वारा भोगे जाने योग्य पदार्थ सब ही पुद्गल हैं। परमाणु नित्य है, विभाजन रहित है, तथा चार धातुओं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का कारण है।
( 4 )
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धर्म, अधर्म और आकाशास्तिकायः
धर्म द्रव्य गमन क्रिया से युक्त जीव और पुद्गलों के लिए कारण है, किन्तु स्वयं किसी कारण का परिणाम नहीं है। लोक में जैसे मछलियों के लिए जल गमन में उपकारी है, वैसे ही जीव और पुद्गलों के लिए धर्म द्रव्य है। अधर्म द्रव्य ठहरने की क्रिया से युक्त जीव और पुद्गलों के लिए पृथ्वी के समान कारण है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि जीव और पुद्गल स्वपरिणमन से ही गमन और ठहरना करते हैं। लोक में जो सब द्रव्यों को स्थान देता है वह लोकाकाश है किन्तु लोक से अन्य आकाश अलोकाकाश अन्त-रहित है।
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पंचास्तिकाय को अच्छी तरह समझने के लिए गाथा के प्रत्येक शब्द जैसे-संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि के लिए व्याकरणिक विश्लेषण में प्रयुक्त संकेतों का ज्ञान होने से प्रत्येक शब्द का अनुवाद समझा जा सकेगा।
संकेत-सूची अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म- कर्मवाच्य नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भूक - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग
(6)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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•()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। •[()+()+()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। [()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर -' चिह्न समास का द्योतक है। • {[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। 'जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द संज्ञा' है। 'जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर ‘अनि' भी लिखा गया है।
क्रिया-रूप निम्नप्रकार लिखा गया है
1/1 अक या सक - उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक - उत्तम पुरुष/बहुवचन 2/1 अक या सक - मध्यम पुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक - मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक - अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक - अन्य पुरुष/बहुवचन
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विभक्तियाँ निम्नप्रकार लिखी गई हैं
1/1 - प्रथमा/एकवचन 1/2 - प्रथमा/बहुवचन 2/1 - द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1 - तृतीया/एकवचन 3/2 - तृतीया/बहुवचन 4/1 - चतुर्थी/एकवचन 4/2 - चतुर्थी/बहुवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 - पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 - सप्तमी/एकवचन 7/2 - सप्तमी/बहुवचन
( 8 )
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पंचास्तिकाय
(पंचत्थिकायो)
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पंचास्तिकाय (पंचत्थिकायो) ( खण्ड - 1 )
द्रव्य-अधिकार
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1.
इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं। अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।।
सौ इन्द्रों द्वारा वंदित तीन लोक में हितकारी, मधुर और स्पष्ट वचनों को
इंदसदवंदियाणं' [(इंद)-(सद) वि
(वंद) भूकृ 4/2] तिहुअणहिदमधुर- [(तिहुअण)-(हिद) विविसदवक्काणं' (मधुर) वि-(विसद) वि
(वक्क) 4/2] अंतातीदगुणाणं' [(अंत)+ (अतीदगुण)]
[(अंत)-(अतीद) वि(गुण) 4/2]
अव्यय जिणाणं (जिण) 4/2 जिदभवाणं [(जिद) भूक अनि
(भव) 4/2]
अन्त-रहित गुणों को
णमो
नमस्कार जिनेन्द्रों को जीत लिया संसार को
अन्वय- इंदसदवंदियाणं जिणाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं अंतातीदगुणाणं जिदभवाणं णमो।
___ अर्थ- सौ इन्द्रों द्वारा वंदित जिनेन्द्रों को, तीन लोक में (उनके) हितकारी, मधुर और स्पष्ट वचनों को, (उनके) अन्त-रहित गुणों को (तथा) (जिन्होंने) संसार को जीत लिया (है) (उनको) नमस्कार। 1. णमो' के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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2.
समणमुदम
चदुग्गदिणिवारणं
समणमुहुग्गदमट्टं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं । एसो पणमिय सिरसा समयमियं सुणह वोच्छामि । ।
सणिव्वाणं
एसो
पणमिय
सिरसा
समयमियं
सुणह वोच्छामि
(12)
[(समणमुह) + (उग्गदं) + (अहं) ]
[(समण) - (मुह) -
( उग्गद) 2 / 1 वि
अट्ठ (अट्ठ) 2/1 [(चदुग्गदि)-(णिवारण) 2/1 fa]
(स- णिव्वाण) 2/1 वि
(ए) 1 / 1 सवि
(पणम) संकृ
(सिरसा) 3/1 अनि
[(समय) + (इयं ) ]
समयं (समय) 2/1
इयं (इम) 2/1 सवि
(सुण) विधि 2/2 सक (वोच्छ ) भवि 1 / 1 सक
श्रमण के निकला हुआ
मुख से
सार तत्त्व
चारों गतियों को
हटानेवाला
निर्वाण-सहित
यह
प्रणाम करके
सिर से
सिद्वान्तको
इस
सुनो
कहूँगा
अन्वय- एसो इयं समयं समणमुहुग्गदमङ्कं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं सिरसा पणमिय वोच्छामि सुणह ।
के
अर्थ- यह (मैं) (कुन्दकुन्दाचार्य) इस सिद्वान्त को (जो ) श्रमण ( महावीर ) मुख से निकला हुआ सार तत्त्व ( है ), ( फलस्वरूप ) चारों गतियों को हटानेवाला (है) (तथा) (जो ) निर्वाण - सहित ( प्रदाता) ( है ) (उसको) सिर से प्रणाम करके कहूँगा। (तुम सब ) सुनो।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - अधिकार
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3.
समवाओ पंचण्हं समओ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं। सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं।।
समवाओ पंचण्हं समओ त्ति
जिणुत्तमेहिं
पण्णत्तं
(समवाअ) 1/1
समूह (पंच) 6/2 वि
पाँच का [(समओ) + (इति)] समओ (समअ) 1/1
समय (एक प्रदेशी
काल द्रव्य) इति (अ) =
शब्दस्वरूपद्योतक [(जिण)+ (उत्तमेहिं)] [(जिण)-(उत्तम) 3/2 वि] जिनों में श्रेष्ठ द्वारा (पण्णत्त) भूकृ 1/1 अनि कहा गया (त) 1/1 सवि
अव्यय (हव) व 3/1 अक होता है (लोअ) 1/1
लोक अव्यय
उसके बाद (अमिअ ) 1/1 वि परिमाण-रहित (अलोअ) 1/1
अलोक (ख) 1/1
आकाश
वह
हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ
अन्वय- जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं पंचण्हं समवाओ समओ त्ति सो चेव लोओ हवदि तत्तो अमिओ अलोओ खं।
अर्थ- जिनों में श्रेष्ठ (तीर्थंकर) द्वारा (यह) कहा गया (है) (कि) (जो) पाँच (बहुप्रदेशी द्रव्यों) का समूह (और) समय (एक प्रदेशी काल द्रव्य) (है) वह ही लोक होता है। उसके बाद परिमाण-रहित अलोक (नामक) आकाश (होता
है)।
नोटः
संपादक द्वारा अनूदित इसका अनुवाद परम्परा से भिन्न किया गया है, विद्वान विचार करें।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(13)
Page #21
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4.
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं ।
अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ।।
जीवा
पुग्गलकाया
धम्माधम्मा
तहेव
आयासं
अत्थित्तम्हि
य
णियदा
अणण्णमइया
अणुमहंता
(14)
(जीव) 1 / 2
[ ( पुग्गल ) - (काय) 1/2 ]
[ ( धम्म) + (अधम्मा)]
[ ( धम्म ) - ( अधम्म) 1 / 2]
अव्यय
(आयास) 1/1
(अत्थित्त) 7/1
अव्यय
(forra) fa 1/2
(अणण्णमइय) 1/2 वि
[(अणु) अ- (महंत )
1/2 fa]
जीव
पुद्गल-समूह
धर्म, अधर्म
उसी प्रकार
आकाश
अस्तित्व में
और
ध्रुव
अपृथक/अभिन्न
बने हुए
अत्यधिक बड़े
अन्वय- जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं अत्थित्तम्हि
अणण्णमइया णियदा य अणुमहंता ।
अर्थ - जीव, पुद्गल - समूह, धर्म, अधर्म उसी प्रकार आकाश अस्तित्व (सत्ता) में ( हैं ) अर्थात् सत् हैं। (वे) (सत्ता से ) अपृथक / अभिन्न बने हुए हैं, ध्रुव (हैं) और अत्यधिक बड़े (बहुप्रदेशी ) ( हैं ) ।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
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5.
जेसिं अस्थिसहाओ गुणेहि सह पज्जएहि विविहेहि। ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहि तइलोक्कं।।
जेसिं
अत्थिसहाओ
गुणेहि
सह पज्जएहि विविहेहि
पर्यायों
(ज) 6/2 सवि
जिनका [(अत्थि) अ-(सहाअ) 1/1] अस्तित्व स्वभाव (गुण) 3/2
गुणों अव्यय
सहित (पज्जअ) 3/2 (विविह) 3/2 वि
नाना प्रकार के (त) 1/2 सवि (हो) व 3/2 अक होते हैं (अत्थिकाय) 1/2
अस्तिकाय (णिप्पण्ण) भूकृ 1/1 अनि । संपन्न (ज) 3/2 सवि
जिनके द्वारा (तइलोक्क) 1/1
तीन लोक
होति ।
अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहि तइलोक्कं
अन्वय- जेसिं विविहेहि गुणेहि पज्जएहि सह अत्थिसहाओ ते अत्थिकाया होंति जेहि तइलोक्कं णिप्पण्णं।
___ अर्थ- जिन (बहुप्रदेशी द्रव्यों) का नाना प्रकार के गुणों व पर्यायोंसहित अस्तित्व स्वभाव है, वे अस्तिकाय (बहुप्रदेशी अस्तित्ववाले) होते हैं, जिनके द्वारा तीन लोक संपन्न (है)।
1.
'सह' के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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6. ते चेव अत्थिकाया तेक्कालियभावपरिणदा णिच्चा।
गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता।।
।
अत्थिकाया तेक्कालियभाव- परिणदा
(त) 1/2 सवि अव्यय (अत्थिकाय) 1/2 वि [(तेक्कालिय) वि-(भाव)- (परिणद) भूकृ 1/2 अनि]
निश्चय ही अस्तिकाय । तीन काल में उत्पन्न पर्यायों में परिवर्तित
हुए
णिच्चा गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंग- संजुत्ता
(णिच्च) 1/2 वि (गच्छ) व 3/2 सक [(दविय)-(भाव) 2/1] [(परियट्टण)-(लिंग)- (संजुत्त) भूकृ 1/2 अनि]
शाश्वत प्राप्त करते हैं द्रव्य के स्वभाव को परिणमन लक्षण से युक्त
अन्वय- तेक्कालियभावपरिणदा ते अत्थिकाया परियट्टणलिंगसंजुत्ता णिच्चा चेव दवियभावं गच्छंति।
अर्थ- तीन काल में उत्पन्न पर्यायों में परिवर्तित हुए वे अस्तिकाय (बहु प्रदेशी अस्तित्ववाले पदार्थ) परिणमन लक्षण (चिह्न) से युक्त (हैं) (और) शाश्वत (है)। (इसलिए) निश्चय ही द्रव्य के स्वभाव को प्राप्त करते हैं।
1.
संपादक द्वारा अनूदित
(16)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #24
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________________
7.
अण्णोणं'
पविसंता'
देता
ओगासमण्ण
मण्णस्स
य
णिच्चं
सगं
सभावं
ण
विजहंति
अण्णोण्णं पविसंता देंता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्वं सगं सभावं ण विजहंति ।।
1.
मेलंता* (मिलन्ता) (मिल) वकृ 1 / 2
वि
अव्यय
अव्यय
अव्यय
( सग) 2 / 1 वि
( सभाव) 2 / 1
*
(अण्णोण्ण) 2/1-7/1 वि परस्पर / एक दूसरे में प्रवेश करते हुए
( पविस) वक्र 1 / 2
देते हुए
(दे) वकृ 1/2
[(ओगासं)+(अण्णमण्णस्स )] ओगासं (ओगास) 2/1
-
स्थान
अण्णमण्णस्स(अण्णमण्ण) 4 / 1 वि एक दूसरे के लिए
मिलते हुए
अव्यय
(विजह ) व 3 / 2 सक
अन्वय
मेलंता वि सगं सभावं ण विजहंति ।
अर्थ- (द्रव्य) परस्पर / एक दूसरे में प्रवेश करते हुए, एक दूसरे के लिए स्थान देते हुए और सदैव मिलते हुए भी (वे) अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते
हैं।
भी
और
सदैव
अपने
स्वभाव को
नहीं
छोड़ते हैं
अण्णोणं पविसंता अण्णमण्णस्स ओगासं देंता य णिच्चं
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3 - 137 ) या गत्यार्थक क्रिया के योग में द्वितीया भी होती है।
यहाँ पाठ मिलन्ता होना चाहिए।
(17)
Page #25
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________________
8.
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का।।
सत्ता
सव्वपयत्था सविस्सरूवा
(सत्ता) 1/1 (सव्वपयत्थ) 2/2-7/2 (सविस्सरूव) 2/2-7/2
सत्ता सब पदार्थों में नाना स्वरूपों में विद्यमान अनन्त पर्यायों में
अणंतपज्जाया
भंगुप्पादधुवत्ता
[(अणंत)-(पज्जाय) 2/2+7/2] [(भंग)-(उप्पाद)(धुवत्ता) 2/2+7/2] (सप्पडिवक्खा) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक (एक्का) 1/1 वि
सप्पडिवक्खा हवदि एक्का
उत्पत्ति, व्यय और ध्रौव्यताओं में प्रतिपक्ष-सहित होती है सामान्य
अन्वय- एक्का सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि।
अर्थ- सामान्य सत्ता सब पदार्थों में (स्थित है), (उनके) नाना स्वरूपों में विद्यमान (है), (उनकी) अनन्त पर्यायों में (है) (उन पर्यायों) की उत्पत्ति, और व्यय में तथा (उन) ध्रौव्यताओं (ध्रुव पदार्थों) में (है)। (वह) सत्ता प्रतिपक्षसहित होती है। अर्थात् विशेष सत्ता विशिष्ट पदार्थों में स्थित है, (उसके) नाना स्वरूपों में विद्यमान (है), (उसकी) पर्यायों में (है), उस एक पर्याय की उत्पत्ति उसके व्यय में तथा (उस) ध्रुव पदार्थ में हैं।
नोटः
संपादक द्वारा अनूदित
(18)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #26
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________________
9.
दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भाव-पज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो।।
दवियदि (दविय) व 3/1 सक गति करता है गच्छदि (गच्छ) व 3/1 सक प्राप्त करता है ताई (त) 2/2 सवि
उन ताई (त) 2/2 सवि
उन सब्भाव-पज्जयाई [(सब्भाव)-(पज्जय) स्वभाव पर्यायों को
2/2]]
अव्यय दवियं
(दविय) 1/1 (त) 1/1 सवि
वह भण्णंते । (भण्ण) व कर्म 3/2 अनि कहा जाता है अणण्णभूदं (अणण्णभूद) भूकृ 1/1 अनि अपृथक बना हुआ अव्यय
और सत्तादो (सत्ता) 5/1
सत्ता से
द्रव्य
अन्वय- जं ताई ताई सब्भावपज्जयाइं गच्छदि दवियदि तं दवियं तु सत्तादो अणण्णभूदं भण्णंते।
अर्थ- जो (पदार्थ) उन-उन (अपने) स्वभाव पर्यायों को प्राप्त करता है (उनमें) गति करता है, वह द्रव्य कहा जाता है। और (वह) (द्रव्य) सत्ता से अपृथक बना हुआ (होता है)।
1.
नाम क्रिया (संज्ञात्मक क्रिया) अभिनव प्राकृत व्याकरणः पृष्ठ 313 यहाँ ‘पज्जय' शब्द नपुंसकलिंग की तरह प्रयुक्त हुआ है। संपादक द्वारा अनूदित
2.
नोटः
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(19)
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
10.
दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।।
दव्वं
सल्लक्खणयं
उप्पादव्वयधुवत्त
संजुत्त
गुणपज्जा
वा
जं
तं
भण्णंति
सव्वण्हू
(20)
(दव्व) 2/1
(सल्लक्खणय) 2/1 वि
'य' स्वार्थिक
[(उप्पाद) - (व्वय) - (धुवत्त) -
(संजुत्त) भूकृ 2 / 1 अनि ]
[(गुण) - (पज्जय) -
( आसय) 2 / 1 वि]
अव्यय
(ज) 2/1 सवि
(त) 2/1 सवि
(भण्ण) व 3/2 सक
(सव्वण्हु) 1 / 2 वि
द्रव्य
सत् लक्षणवाला
अन्वय- सव्वण्हू ं
उत्पाद,
व्यय और
व्यता से युक्
गुण- पर्याय का
आधार
तथा
जो
उस (पदार्थ) को
कहते हैं
सर्वज्ञ देव
तं दव्वं भण्णंति जं सल्लक्खणयं उप्पादव्वय
धुवत्तसंजुत्तं वा गुणपज्जयासयं ।
अर्थ- सर्वज्ञ देव उस (पदार्थ) को द्रव्य कहते हैं- जो सत् लक्षणवाला (है), (जो) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यता से युक्त (है) तथा (जो ) गुण- पर्याय का
आधार (है)।
-अधिकार
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - 3
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________________
11. उप्पत्तीव विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो।
विगमुप्पाद-धुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।।
उत्पत्ति अथवा विनाश द्रव्य की
दव्वस्स
किन्तु
अव्यय
नहीं है
उप्पत्तीव . (उप्पत्ति) 1/1
व (अ) = अथवा विणासो (विणास) 1/1
(दव्व) 6/1
अव्यय णत्थि अत्थि
अव्यय सब्भावो (सब्भाव) 1/1 विगमुप्पाद-धुवत्तं [(विगम)-(उप्पाद)
(धुवत्त) 2/1] करेंति
(कर) व 3/2 सक तस्सेव [(तस्स)+ (एव)]
तस्स' (त) 6/1-7/1 सवि एव (अ) = ही (पज्जाय) 1/2
अस्तित्व उत्पाद, विनाश,
और ध्रौव्यता को करती हैं
उसके/उसमें
ही
पज्जाया
पर्यायें (परिणमन)
अन्वय- दव्वस्स उप्पत्ती व विणासो णत्थि य सब्भावो अत्थि पज्जाया तस्सेव विगमुप्पाद-धुवत्तं करेंति।
· अर्थ- द्रव्य की उत्पत्ति अथवा विनाश नहीं है किन्तु(द्रव्य का) अस्तित्व है। पर्यायें (परिणमन) उसके/उसमें ही उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यता को करती हैं।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(21)
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________________
12. पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूवेंति।।
पज्जयविजुदं
दव्वं
दव्वविजुत्ता
पज्जया
[(पज्जय)-(विजुद) पर्याय-रहित भूकृ 1/1 अनि] (दव्व) 1/1
द्रव्य [(दव्व)-(विजुत्त) द्रव्य-रहित भूकृ 1/2 अनि] अव्यय
और (पज्जय) 1/2 अव्यय
नहीं है (दो) 6/2 वि
दोनों के (अणण्णभूद) भूकृ 2/1 अनि अपृथक बने हुए (भाव) 2/1
भाव को (समण) 1/2 (परूव) व 3/2 सक प्रतिपादित करते हैं
पर्यायें
णत्थि
दोण्हं अणण्णभूदं भावं
समणा
श्रमण
परूवेंति
अन्वय- पज्जयविजुदं दव्वं य दव्वविजुत्ता पज्जया णत्थि समणा दोण्हं अणण्णभूदं भावं परूवेंति।
अर्थ- पर्याय-रहित द्रव्य (नहीं है) और द्रव्य-रहित पर्यायें नहीं है। श्रमण दोनों (द्रव्य और पर्याय) के अपृथक बने हुए भाव को प्रतिपादित करते हैं।
(22)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #30
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13. दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि।
___ अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा॥
(दव्व) 3/1
द्रव्य के
दव्वेण विणा
अव्यय
बिना
गुणा
गुणेहि
गुणों के
द्रव्य
विणा
अव्यय (गुण) 1/2 (गुण) 3/2 (दव्व) 1/1 अव्यय अव्यय (संभव) व 3/1 अक (अव्वदिरित्त) 1/1 वि (भाव) 1/1 [(दव्व)-(गुण) 6/2] (हव) व 3/1 अक अव्यय
संभवदि अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि
बिना नहीं संभव होता है अपृथक भाव द्रव्य और गुणों का होता है इसलिए
तम्हा
अन्वय- दव्वेण विणा गुणा ण गुणेहिं विणा दव्वं ण संभवदि तम्हा दव्वगुणाणं अव्वदिरित्तो भावो हवदि।
अर्थ- द्रव्य के बिना गुण नहीं (होते हैं) और गुणों के बिना द्रव्य संभव नहीं होता है। इसलिए द्रव्य और गुणों का अपृथक भाव होता है।
1.
'बिना' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(23)
Page #31
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________________
14. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं।
दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि।।
सिय
अव्यय
अत्थि णत्थि
किसी प्रकार से अस्ति नास्ति दोनों अवक्तव्य इसके अनन्तर
उहयं
अव्वत्तव्वं
पुणो
अव्यय अव्यय (उहय) 1/1 वि (अव्वत्तव्व) 1/1 वि अव्यय अव्यय (तत्तिदयं) 1/1 वि अनि (दव्व) 1/1 अव्यय (सत्तभंग) 2/1-7/1 [(आदेस)-(वस) 3/1 वि]
तत्तिदयं
और वह तीन का समूह
दव्वं
वस्तु
सत्तभंग आदेसवसेण
ही सात वाक्यों में प्रयोजनों/प्रश्न-उत्तर के कारण/अधीन प्रकट होती है
संभवदि
(संभव) व 3/1 अक
प्रव
अन्वय- दव्वं आदेसवसेण सत्तभंगं खु संभवदि सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं य पुणो तत्तिदयं।
__ अर्थ-वस्तु प्रयोजनों/प्रश्न-उत्तर के कारण/अधीन सात वाक्यों में ही प्रकट होती है। किसी प्रकार से अस्ति,(किसी प्रकार से) नास्ति,(किसी प्रकार से) दोनों (अस्तिनास्ति), (किसी प्रकार से) अवक्तव्य और इसके अनन्तर वह तीन का समूह (अस्ति अवक्तव्य,नास्ति अवक्तव्य,अस्तिनास्ति अवक्तव्य)(होती
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(24)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
15.
भावस्स
णत्थि
णासो
णत्थि
भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो ।
गुणपज्ज
उप्पादवए
पकुव्वंति।।
अभावस्स
चेव
उप्पादो
गुणपज्ज
भावा
उप्पादवए
पकुव्वंति
भावा
(भाव) 6 / 1
अव्यय
( णास) 1 / 1
अव्यय
(अभाव) 6/1
अव्यय
( उप्पाद) 1 / 1
[ ( गुण) - (पज्जय) 7 /2]
(भाव) 1 / 2
[ ( उप्पाद) - ( अ ) 2/2]
( पकुव्व) व 3 / 2 सक
गुणपज्जयेसु एव उप्पादवए पकुव्वंति ।
सत् पदार्थ का
नहीं है
नाश
नहीं है
असत् पदार्थ का
ही
है। पदार्थ गुण-पर्यायों में ही उत्पाद - व्यय करते हैं।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
उत्पाद
गुण-पर्यायों में
पदार्थ
अन्वय- भावस्स णासो णत्थि च अभावस्स उप्पादो णत्थि भावा
उत्पाद-व्यय
करते हैं
अर्थ- सत् पदार्थ का नाश नहीं है और असत् पदार्थ का उत्पाद नहीं
(25)
Page #33
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________________
16. भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा।।
पदार्थों में
भावा जीवादीया
जीव
जीवगुणा
चेदणा
(भाव) 2/2-7/2 [(जीव)+(आदी)+ (इया)] *जीव (जीव) 1/1 (मूलशब्द)
आदी (आदि) 1/1 वि इया (इ) 2/2-7/2 भूक [(जीव)-(गुण) 1/2] (चेदणा) 1/1 अव्यय (उवओग) 1/1 [(सुर)-(णर)-(णारय)(तिरिय) 1/2] (जीव) 6/1 अव्यय (पज्जय) 1/2 (बहुग) 1/2 वि
प्रथम/प्रमुख ज्ञात जीव के गुण चेतना
और उपयोग देव, मनुष्य, नारकी
और तिर्यंच जीव की और
उवओगो सुरणरणारयतिरिया
जीवस्स
पज्जया
पर्याय
बहुगा
अनेक
अन्वय- इया भावा जीव आदी जीवगुणा चेदणा य उवओगो य जीवस्स सुरणरणारयतिरिया बहुगा पज्जया।
अर्थ- ज्ञात पदार्थों में जीव प्रथम/प्रमुख (है)। (उस) जीव के गुण चेतना और उपयोग (हैं) और जीव की देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यंच अनेक पर्यायें (हैं)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517)
(26)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #34
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17. मणुसत्तणेण णट्टो देही देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो ।।
मसत्त
देही
देवो
वेदि
इरो
वा
उभयत्थ
जीवभावो
ण
सदि
ण
जायदे
अण्णो
( मणुसत्तण) 3 / 1
(ण) भूकृ 1 / 1 अनि
(देहि) 1/1
(देव) 1/1
( हव) व 3 / 1 अक
(इदर) 1 / 1
वि
अव्यय
अव्यय
[ (जीव ) - (भाव) 1 / 1]
अव्यय
( णस्स) व 3 / 1 अक
अव्यय
(जाय) व 3 / 1 अक
( अण्ण) 1 / 1 वि
मनुष्यता से नष्ट हुआ
जीव
देव
होता है
अन्य
अन्वय
उभयत्थ अण्णो ण जायदे ण णस्सदि ।
अथवा
दोनों अवस्थाओं में
जीवपदार्थ
न
नष्ट होता है
न
उत्पन्न होता है
अन्य / नया
मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि वा इदरो जीवभावो
अर्थ- मनुष्यता से नष्ट हुआ जीव देव होता है अथवा अन्य (मनुष्य, नारकी तथा तिर्यंच होता है) । जीवपदार्थ दोनों अवस्थाओं में ( रहता है)। अन्य / नया (जीव के अलावा) न उत्पन्न होता है न नष्ट होता है।
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
(27)
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________________
18. सो चेव जादि मरणं जादि ण णो ण चेव उप्पण्णो।
उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसो त्ति पज्जाओ।।
वह
उत्पन्न होता है मरण को प्राप्त करता है
न
नष्ट हुआ
न
उप्पण्णो
(त) 1/1 सवि अव्यय (जा) व 3/1 अक (मरण) 2/1 (जा) व 3/1 सक अव्यय (णट्ठ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय अव्यय (उप्पण्ण) भूक 1/1 अनि (उप्पण्ण) भूक 1/1 अनि अव्यय (विणट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (देव) 1/1 [(मणुसो)+ (इति)] मणुसो (मणुस) 1/1 इति (अ) = अतः (पज्जाअ) 1/1
उप्पण्णो
उत्पन्न हुआ उत्पन्न हुआ
और नष्ट हुई
य
विणट्ठो देवो मणुसो त्ति
देव
मनुष्य
अतः
पज्जाओ
पर्याय
अन्वय- सो चेव जादि मरणं जादि ण उप्पण्णो य ण चेव भट्ठो देवो पज्जाओ उप्पण्णो च मणुसो त्ति विणट्ठो।
अर्थ- वह ही (जीव) उत्पन्न होता है (जो) मरण को प्राप्त करता है। (किन्तु) (वह जीव) न उत्पन्न हुआ (है) और न ही नष्ट हुआ (है)। अतः देव पर्याय ही उत्पन्न हुई (है) और मनुष्य (पर्याय) नष्ट हुई (है)।
(28)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #36
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________________
19. एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो।
तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो॥
एवं
सदो
विनाश
विणासो असदो
जीवस्स
उत्पाद
णत्थि उप्पादो तावदिओ जीवाणं
अव्यय
पूर्वोक्त रीति से (सदो) 6/1 वि अनि . सत् का (विणास) 1/1 (असदो) 6/1 वि अनि असत् का (जीव) 6/1
जीव का अव्यय
नहीं है (उप्पाद) 1/1 (तावदिओ) 1/1 सवि अनि वास्तव में यह (जीव) 6/2-7/2
जीवों में (देव) 1/1 [(मणुसो)+ (इति)] मणुसो (मणुस) 1/1 मनुष्य इति (अ) = क्योंकि (गदिणाम) 1/1
गतिनाम
देवो
देव
मणुसो त्ति
क्योंकि
गदिणामो
अन्वय- एवं जीवस्स सदो विणासो णत्थि असदो उप्पादो जीवाणं देवो मणुसो त्ति तावदिओ गदिणामो।
अर्थ- पूर्वोक्त रीति से जीव के सत् (स्वभाव) का विनाश नहीं है (और) (जीव के) असत् (स्वभाव) का उत्पाद (नहीं है) क्योंकि जीवों में यह देव (और) मनुष्य वास्तव में गतिनाम (कर्म) (है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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________________
20.
णाणावरणादीया'
भावा
जीवेण
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुटु अणुबद्धा । तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो ।।
सुटु
अणुबद्धा
सिमभावं
किच्चा
अभूदपुव्वो
हवदि
सिद्धो
[(णाणावरण) + (आदीया ) ]
[( णाणावरण) - (आदिय) 1/2] ज्ञानावरण वगैरह
'य' स्वार्थिक
(30)
(भाव) 1/2
(जीव ) 3 / 1
अव्यय
(अणुबद्ध) भूक 1/2 अनि [(तेसिं)+(अभावं)]
तेसिं (त) 6/2 सवि
अभाव (अभाव) 2/1
(किच्चा) संकृ अनि
(अभूदपुव्व) 1 / 1 वि
(हव) व 3 / 1 अक
(सिद्ध) 1 / 1
1. यहाँ छन्द की पूर्ति हेतु 'आदि' का 'आदी' हुआ है।
द्रव्यकर्म
जीव के द्वारा
भली-भाँति बाँधे हुए
अन्वय- जीवेण णाणावरणादीया भावा सुट्टु अणुबद्धा तेसिमभावं किच्चा सिद्धो हवदि अभूदपुव्वो ।
हुए
अर्थ- जीव के द्वारा ज्ञानावरण वगैरह द्रव्यकर्म भली-भाँति बाँधे ( हैं ) उनका नाश करके (जीव) सिद्ध होता है (जो) अपूर्व (घटना है)।
उनका
नाश
करके
अपूर्व
होता है
सिद्ध
पंचास्तिकाय (खण्ड- 1 ) द्रव्य - अधिकार
Page #38
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________________
21. एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च।
गुणपज्जयेहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो।।
अव्यय
इस प्रकार
भावमभावं
भावाभावं अभावभावं
[(भाव)+(अभाव)] भावं (भाव) 2/1 अभावं (अभाव) 2/1 [(भाव)-(अभाव) 2/1] [(अभाव)-(भाव) 2/1] अव्यय [(गुण)-(पज्जय) 3/2] (सहिद) 1/1 वि (संसर) वकृ 1/1 (कुण) व 3/1 सक (जीव) 1/1
विद्यमान को
अविद्यमान को विद्यमान का नाश अविद्यमान की उत्पत्ति
और गुणपर्यायों से युक्त परिभ्रमण करता हुआ करता है जीव
गुणपज्जयेहि सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो
अन्वय- गुणपज्जयेहिं सहिदो जीवो संसरमाणो अभावभावं च भावाभावं कुणदि एवं भावमभावं।
अर्थ- गुणपर्यायों से युक्त जीव परिभ्रमण करता हुआ अविद्यमान (पर्याय) की उत्पत्ति और विद्यमान (पर्याय) का नाश करता है। इसप्रकार विद्यमान (पर्याय) का (नाश करता है) (और) अविद्यमान (पर्याय) को (उत्पन्न करता
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(31)
Page #39
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________________
22.
जीवा
पुग्गलकाया
आयासं
अत्थिकाइया
सा
अमया
जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइया सेसा ।
अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स ।।
अत्थित्तमया
कारणभूदा
हि
लोगस्स
(जीव ) 1/2
( पुग्गलकाय) 1/2
(32)
(आयास) 1/1
( अत्थिकाइय) 1/2 वि
(सेस) 1/2
(अ-मय) 1/2 वि
( अत्थित्तमय) 1 / 2 वि
[(कारण) - (भूद)
भूकृ 1/2 अनि ]
अव्यय
(लोग) 6/1
जीव
पुद्गलकाय
आकाश
अस्तिकायिक
शेष
(किसी से ) संरचित
नहीं
अस्तित्व से युक्त
आधार बने हुए
निश्चय ही
लोक के
अन्वय- जीवा पुग्गलकाया आयासं सेसा अत्थिकाइया अमया अत्थित्तमया हि लोगस्स कारणभूदा ।
अर्थ - जीव (द्रव्य), पुद्गलकाय (द्रव्य), आकाश (द्रव्य) (और) शेष (धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य) अस्तिकायिक (बहुप्रदेश - सहित) ( हैं ) (ये) (किसी से) संरचित नहीं (है), अस्तित्व से युक्त ( हैं ) निश्चय ही लोक के आधार बने हुए हैं)।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य -
-अधिकार
Page #40
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________________
23. सब्भावसभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च।
परियट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो।।
सब्भावसभावाणं जीवाणं
[(सब्भाव)-(सभाव) 6/2 वि] अस्तित्व स्वभाववाले (जीव) 6/2
जीवों के अव्यय
उसी प्रकार
तह
अव्यय
और
पोग्गलाणं
परियट्टणसंभूदो
(पोग्गल) 6/2 अव्यय [(परियट्टण)-(संभूद)
भूकृ 1/1 अनि] (काल) 1/1 (णियम) तृतीयार्थक अव्यय
पुद्गलों के पादपूरक परिणमन में उपस्थित रहा काल नियमपूर्वक/ आवश्यकरूप से कहा गया
कालो णियमेण
पण्णत्तो
(पण्णत्त) भूकृ 1/1 अनि
अन्वय- सब्भावसभावाणं जीवाणं य तह पोग्गलाणं च परियट्टणसंभूदो णियमेण कालो पण्णत्तो।
अर्थ- अस्तित्व स्वभाववाले जीवों के और उसी प्रकार पुद्गलों के परिणमन में (जो) उपस्थित रहा (है) (वह) नियमपूर्वक/आवश्यकरूप से काल कहा गया (है)।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(33)
Page #41
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________________
24.
ववगदपणवण्णरसो [ ( ववगद ) भूक अनि
ववगददोगंध
अफसो
य
ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंध अट्ठफासो य । अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति ।।
अगुरुलहुगो
अमुत्तो
वट्टणलक्खो
य
कालो
1.
(34)
पाँच वर्ण और
( पण ) वि - ( वण्ण ) - (रस) 1 / 1 ] पाँच रस रहित [(ववगद) भूक अनि
गंध और
(दो) वि- (गंध) -
आठ स्पर्श रहित
(313) fa-(14) 1/1]
अव्यय
(अगुरुलहुग) 1/1 वि
( अमुत्त) 1 / 1 वि
[ ( वट्टणा → वट्टण ) - (लक्ख)
1/1 fa]
अव्यय
[(कालो) + (इति)] कालो (काल) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार
और
अगुरुलघुगुण संयुक्त
अमूर्त
वर्तना लक्षणवाला
अन्वय- ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंध अट्ठफासो अगुरुलहुगो अमुत्तोय वट्टणलक्खो य कालो त्ति ।
अर्थ - (जो ) पाँच वर्ण और पाँच रस रहित, दो गंध और आठ स्पर्श रहित, अगुरुलघुगुण संयुक्त, अमूर्त और वर्तना लक्षणवाला (है) (वह) (स्वाधीन) काल ( है ) । इस प्रकार ( जानो ) ।
प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ-21
पादपूरक
काल
इस प्रकार
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - अ
-अधिकार
Page #42
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25. समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती।
मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो।।
समओ णिमिसो का
समय निमिष
काष्ठा
कला
णाली तदो दिवारत्ती मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति
(समअ) 1/1 (णिमिस) 1/1 (कठ्ठा) 1/1 (कला) 1/1
अव्यय (णाली) 1/1 अव्यय (दिवा) अ-(रत्ति)1/1] [(मास)+ (उदुअयण)(संवच्छरो)+ (इति)] [(मास)-(उदु)-(अयण)- (संवच्छर) 1/1] इति (अ) = इस प्रकार (काल) 1/1 (परायन) 1/1 वि
कला
और नाली उससे दिनरात्रि
मास, ऋतु, अयन,
वर्ष
इस प्रकार
कालो परायत्तो
काल पराधीन
अन्वय- समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति परायत्तो कालो।
अर्थ- समय, निमिष, काष्ठा, कला और नाली उससे दिनरात्रि, मास, ऋतु, अयन, वर्ष (होते हैं)। इस प्रकार पराधीन काल (वर्णित) है।
नोटः टीका से व्याख्या देखें।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(35)
Page #43
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26.
णत्थि
चिरं
वा
खिप्पं
मत्तारहिदं
तु
सा
वि
खलु
मत्ता
पोग्गलदव्वेण
विणा
तम्हा
कालो
पडुच्चभवो
णत्थि चिरं वा खिप्पं मत्तारहिदं तु सा वि खलु मत्ता । पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्चभवो ||
1.
2.
(36)
अव्यय
(चिर ) 1/1
.
नहीं है
दीर्घकाल
अथवा
शीघ्र
परिमाण के बिना
अव्यय
( खिप्प ) 1 / 1 वि
[ ( मत्ता) - (रहिद)
भूकृ 1/1 अनि]
अव्यय
(ता) 1 / 1 सवि
अव्यय
अव्यय
( मत्ता) 1 / 1
[ ( पोगल ) - ( दव्व ) 3 / 1]
अव्यय
अव्यय
इस कारण
(काल) 1/1
काल
[ ( पडुच्च) अ - ( भव) 1 / 1 वि] आश्रय करके उत्पन्न
अन्वय- मत्तारहिदं चिरं वा खिप्पं णत्थि तु सा मत्ता वि खलु पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्चभवो ।
अर्थ- परिमाण के बिना दीर्घकाल अथवा शीघ्र नहीं ( कहा जा सकता) है और वह परिमाण भी निश्चय ही पुद्गल द्रव्य के बिना (संभव) (नहीं है)। इस कारणसे (जाना गया) काल (पुद्गल द्रव्य का) आश्रय करके उत्पन्न ( है ) ।
प्रायः समास के अन्त में 'के बिना' अर्थ को प्रकट करता है ।
'बिना' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
और
वह
भी
निश्चय ही
परिमाण
पुद्गल द्रव्य के
बिना
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #44
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27. जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता।
भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो।।
जीव शब्दस्वरूपद्योतक होता है चेतना गुणवाला उपयोग से परिभाषित
जीवो त्ति [(जीवो)+ (इति)]
जीवो (जीव) 1/1
इति (अ) = हवदि (हव) व 3/1 अक चेदा (चेद) 1/1 वि उवओगविसेसिदो [(उवओग)-(विसेसिद)
भूकृ 1/1 अनि] (पहु) 1/1 वि
(कत्तु) 1/1 वि भोत्ता
(भोत्तु) 1/1 वि
अव्यय देहमत्तो (देहमत्त) 1/1 वि
अव्यय
अव्यय मुत्तो (मुत्त) 1/1 वि कम्मसंजुत्तो [(कम्म)-(संजुत्त)
भूक 1/1 अनि]
कत्ता
प्रभु (समर्थ) कर्ता भोक्ता और देह परिमाणवाला
कर्मों से युक्त
. अन्वय- जीवो त्ति चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता भोत्ता देहमत्तो हि मुत्तो ण य कम्मसंजुत्तो हवदि।
अर्थ- जीवः चेतना गुणवाला, उपयोग से परिभाषित, (अपने उत्थान के लिए) प्रभु (समर्थ), कर्ता, भोक्ता (और) देह परिमाणवाला (होते हुए) भी मूर्त नहीं (है) अर्थात् अमूर्त (है) और कर्मों से युक्त होता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(37)
Page #45
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28. कम्ममलविप्पमुक्को उड्डे लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाणदरसी लहदि सुहमणिंदियमणंत।।
उड
कम्ममलविप्पमुक्को [(कम्म)-(मल)- कर्मरूपी मैल से
(विप्पमुक्को) भूकृ 1/1 अनि] छुटकारा पाया हुआ अव्यय
ऊपर की ओर लोगस्स (लोग) 6/1
लोक के अंतमधिगंता [(अंत)+(अधिगंता)]
अंतं(अंत) 2/1-7/1 अंत में अधिगंता (संकृ अनि) पहुँचकर (त) 1/1 सवि
वह सव्वणाणदरसी (सव्वणाणदरसी) 1/1 वि अनि सबको जानने
देखनेवाला (लह) व 3/1 सक रखता है सुहमणिंदियमणंतं [(सुह)+(अणिंदियं)+(अणंत)]
सुहं (सुह) 2/1 सुख को अणिंदियं (अणिंदिय) 2/1 वि अतीन्द्रिय अणंतं (अणंत) 2/1 वि अनन्त
लहदि
अन्वय- कम्ममलविप्पमुक्को सो सव्वणाणदरसी उड़े लोगस्स अंतमधिगंता अणिंदियं अणंत सुहं लहदि।
____अर्थ- (जो) (जीव) कर्मरूपी मैल से छुटकारा पाया हुआ (है) वह सबको जानने-देखनेवाला (हो जाता है)। (और) ऊपर की ओर लोक के अंत में पहुँचकर (भी) अतीन्द्रिय (और) अनन्त सुख को (बनाये) रखता है।
|
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 'लहदि' पाठ विचारणीय है। संपादक द्वारा अनूदित
2. नोटः
(38)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #46
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________________
29. जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य। पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं
सगममुत्तं । ।
जादो
सयं
स
चेदा
सव्वण्हू
सव्वलोगदरसी
य
पप्पोदि
सुहमणतं
अव्वाबाधं
सगममुत्तं
(जा) भूकृ 1/1
अव्यय
(त) 1/1 सवि
(चेद) 1/1
(सव्वण्हु) 1 / 1 वि
[ ( सव्व) सवि - (लोग) -
(दरसी) 1 / 1 वि अनि
अव्यय
(पप्पोदि) व 3 / 1 सक अनि
[(सुहं) + (अनंतं)]
सुहं (सुह) 2 / 1
अणंतं (अणंत) 2/1 वि
( अव्वाबाध) 2 / 1 वि
[(सगं) + (अमुत्तं)]
सगं (ग) 2 / 1 वि
अमुतं ( अमुत्त) 2 / 1 वि
हुआ
स्वयं
वह
आत्मा
सर्वज्ञ
समस्त लोक को
देखनेवाला
और
प्राप्त करता है
सुख को
अनन्त
अखंडित
आत्मीय (आत्मोत्पन्न)
अमूर्त
अन्वय- स चेदा सयं सव्वण्हू सव्वलोगदरसी जादो य सगं अव्वाबाधं अमुत्तं अनंत सुहं पप्पोदि ।
अर्थ- वह आत्मा स्वयं सर्वज्ञ (और) समस्त लोक को देखनेवाला (है) और (वह) आत्मीय (आत्मोत्पन्न), अखंडित (और) अमूर्त (इन्द्रिय रहित) अनन्त सुख को प्राप्त करता है ।
पंचास्तिकाय (खण्ड- 1 ) द्रव्य - अधिकार
(39)
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________________
30. पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं ।
सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो।।
पाणेहिं
प्राणों से
चदुहिं
चार
जीवदि जीविस्सदि
जीता है जीवेगा
जीविदो
निश्चय ही जीया विगत काल में
पुवं
(पाण) 3/2 (चदु) 3/2 वि (जीव) व 3/1 अक (जीव) भवि 3/1 अक (ज) 1/1 सवि अव्यय (जीव) भूकृ 1/1 अव्यय (त) 1/1 सवि (जीव) 1/1 (पाण) 1/2 अव्यय [(बलं)+ (इंदियं)+(आउ)] बलं (बल) 1/1 इंदियं (इंदिय) 1/1 *आउ (आउ) 1/1 (मूल शब्द) (उस्सास) 1/1
वह जीव
जीवो पाणा
प्राण
पुण
बलमिंदियमाउ
बल
इन्द्रिय
आयु
उस्सासो
श्वासोच्छवास
अन्वय- जो हु चदुहिं पाणेहिं जीवदि जीविस्सदि पुव्वं जीविदो सो जीवो पुण पाणा बलमिंदियमाउ उस्सासो।
___ अर्थ- जो निश्चय ही चार प्राणों से जीता है, जीवेगा, विगतकाल में जीया (है) वह जीव (द्रव्य है) और (वे) प्राण- बल, इन्द्रिय, आयु (और) श्वासोच्छवास (हैं)।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517)
(40)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #48
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________________
31. अगुरुलहुगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे।
देसेहिं असंखादा सियलोगं सव्वमावण्णा।।
अगुरुलहुगा अणंता
अगुरुलघुगुण से युक्त अनन्त
तेहिं
उन
(अगुरुलहुग) 1/2 वि (अणंत) 1/2 वि (त) 3/2 सवि (अणंत) 3/2 वि (परिणद) भूकृ 1/2 अनि (सव्व) 1/2 सवि (देस) 3/2 (असंखाद) 1/2 वि [(सिय) अ-(लोग) 2/1]
अनन्त के द्वारा रूपान्तरित
अणंतेहिं परिणदा सव्वे देसेहिं असंखादा सियलोगं
समस्त
प्रदेशों की दृष्टि से असंख्यात किसी एक प्रकार से लोक को
सव्वमावण्णा
[(सव्वं)+ (आवण्णा)] सव्वं (सव्व) 2/1 सवि आवण्णा (आवण्ण) भूकृ 1/2 अनि
समस्त प्राप्त हुए
अन्वय- अणंता अगुरुलहुगा तेहिं अणंतेहिं सव्वे परिणदा देसेहिं असंखादा सियलोगं सव्वमावण्णा।
' अर्थ- (जीव) अनन्त अगुरुलघुगुण से युक्त (है), उन अनन्त (अगुरुलघुगुणों) के द्वारा समस्त (जीव) रूपान्तरित (हैं) (और) (वे जीव) प्रदेशों की दृष्टि से असंख्यात (प्रदेशी) है अर्थात् प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशवाला होता है (किन्तु) किसी एक प्रकार से (कई जीव) समस्त लोक को प्राप्त हुए (हैं)।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(41)
Page #49
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________________
32. केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा।
विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा॥
केचित्तु
जीव
किन्तु
.
अणावण्णा
नहीं, प्राप्त हुए
[(के)+ (चित्त)+(उ)] के (क) 1/2 सवि *चित्त (चित्त) 1/2 (मूलशब्द) उ (अ) = किन्तु [(अण)+(आवण्णा)] [(अण) अ-(आवण्ण)
भूकृ 1/2 अनि मिच्छादसणकसाय- [(मिच्छादसण)जोगजुदा (कसाय)-(जोग)
(जुद) भूक 1/2 अनि विजुदा (विजुद) भूकृ 1/2 अनि य
अव्यय तेहिं
(त) 3/2 सवि बहुगा (बहुग) 1/2 वि सिद्धा
(सिद्ध) 1/2 वि संसारिणो (संसारि) 1/2 वि जीवा
(जीव) 1/2
मिथ्यादर्शन, कषाय और योग से युक्त
रहित
और उनसे अनेक
सिद्ध
संसारी
जीव
अन्वय- केचित्तु अणावण्णा मिच्छादसणकसायजोगजुदा बहुगा जीवा संसारिणो य तेहिं विजुदा सिद्धा।
अर्थ- किन्तु कई जीव (जो) (समस्त लोक को) प्राप्त नहीं हुए (हैं) (उन जीवों में से) मिथ्यादर्शन, कषाय और योग से युक्त अनेक जीव संसारी हैं और उन (मिथ्यादर्शन, कषाय और योग) से रहित (जीव) सिद्ध (हैं)।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
(पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) नोटः संपादक द्वारा अनूदित
(42)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #50
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33.
जह
जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं ।
तह देही देहत्थो सदेहमेत्तं
पभासयदि । ।
पउमरायरयणं
खित्तं
खीरे
भासयदि
खीरं
तह
देही
देहत्थो
सदेहमेत्तं
भासयदि
अव्यय
[ ( पउमराय) - ( रयण) 1 / 1 ]
(खित्त) भूकृ 1 / 1 अनि
(खीर) 7/1
(पभास+य) व प्रे 3/1 सक
(खीर) 2/1
अव्यय
(देहि) 1/1
( देहत्थ ) 1 / 1 वि
[( स ) वि - (
देहमेत्त) 2 / 1]
( पभास + य) व प्रे 3 / 1 सक
जिस प्रकार
लाल रत्न
डाला हुआ
दूध में
प्रकाशित करता है
अन्वय- जह खीरे खित्तं पउमरायरयणं खीरं पभासयदि तह देहत्थो
-अधिकार
दूध को
उसी प्रकार
जीव
देह में स्थित
अपनी देहमात्र को ही
प्रकाशित करता है
देही सदेहमेत्तं पभासयदि ।
अर्थ - जिस प्रकार दूध में डाला हुआ लाल रत्न (अपनी प्रभा से) दूध को प्रकाशित करता है उसी प्रकार देह में स्थित जीव अपनी देहमात्र को ही
प्रकाशित करता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड- 1 ) द्रव्य - 3
(43)
Page #51
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34.
सव्वत्थ
अत्थि•
जीवो
ण
य
एक्को
एक्का
एक्कडो
सव्वत्थ अस्थि जीवो ण य एक्को एक्ककाए एक्कट्ठो । अज्झवसाणविसिट्ठो चेट्ठदि मलिणो
रजमलेहिं । ।
चेदि
मलिणो
रजमलेहिं
अव्यय
(अस) व 3/1 अक
(जीव) 1/1
अव्यय
अज्झवसाणविसि [ ( अज्झवसाण) - (विसिह)
भूक 1 / 1 अनि
(चेट्ठ) व 3/1 अक (मलिण) 1/1 वि
[ (रज) - (मल) 3 / 2]
अव्यय
(एक्क) 1/1 वि
[ ( एक्क) वि - (काअ ) 7/1] [(aah) fa-(318) 1/1]
(44)
सभी जगह/पर्यायों में
रहता है
जीव
नहीं
परन्तु
समरूप
एक शरीर में
एकरूप/उसी पर्याय
रूप
मानसिक संकल्पों से
युक्त
रहता है
मलिन
कर्मधूलरूपी मैल से
अन्वय- जीवो एक्ककाए सव्वत्थ एक्कट्ठो अस्थिय एक्को अज्झवसाणविसिट्ठो रजमलेहिं मलिणो चेट्ठदि ।
अर्थ - (संसारी) जीव एक शरीर में सभी जगह / पर्यायों में एकरूप / उसी पर्यायरूप (होकर) रहता (है), परन्तु ( वह) समरूप नहीं ( है / होता है)। (जीव जब) (उस पर्याय में) (रागद्वेषात्मक) मानसिक संकल्पों से युक्त (होता है) (तब) कर्मधूलरूपी मैल से मलिन रहता है।
• नोटः 'अत्थि' अस्तित्वसूचक अव्यय के रूप में भी माना जाता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
Page #52
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35. जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स।
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा।।
जेसिं
होंति
(ज) 6/2-7/2 सवि जिनमें जीवसहावो [(जीव)-(सहाव) 1/1] (द्रव्य) प्राण-धारण
स्वभाव णत्थि अव्यय
नहीं है अभावो (अभाव) 1/1
सर्वथा अस्तित्वरहित/
अनुपस्थित अव्यय
किन्तु सव्वहा अव्यय
बिल्कुल तस्स (त) 6/1 सवि
उसका (त) 1/2 सवि
(हो) व 3/2 अक होते हैं भिण्णदेहा [(भिण्ण) भूकृ अनि- विछिन्न देहवाले
(देह) 1/2 वि] सिद्धा (सिद्ध) 1/2
सिद्ध वचिगोयरमदीदा [(वचिगोयरं)+ (अदीदा)] (वइ) वचिगोयरं (वचिगोयर) 2/1 वाणी की पहुँच को अदीदा (अदीद) 1/2 भूकृ अनि पार किये हुए/
__शब्दातीत अन्वय- जेसिं जीवसहावो सव्वहा णत्थि य तस्स अभावो ते सिद्धा होंति भिण्णदेहा वचिगोयरमअदीदा।
अर्थ- जिनमें (संसारी जीवों की तरह) (कर्मजनित) (द्रव्य) प्राणधारण-स्वभाव बिल्कुल नहीं है किन्तु (जिनमें) उसका (मूल चेतन-स्वभाव) सर्वथा अस्तित्वरहित/अनुपस्थित (नहीं है) वे सिद्ध हैं (जो) विछिन्न देहवाले (तथा) वाणी की पहुँच को पार किये हुए/शब्दातीत (हैं)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) नोटः संपादक द्वारा अनूदित
देखें गाथा 27 से 30
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(45)
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36. ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो सिद्धो।
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि।।
नहीं किसी से
कुदोचि (कुओइ)
भी
उत्पन्न हआ
उप्पण्णो जम्हा कज्ज
चकि
.
कार्य
नहीं
तेण
सिद्धो उप्पादेदि
अव्यय अव्यय अव्यय (उप्पण्ण) भूक 1/1 अनि अव्यय (कज्ज) 1/1 अव्यय अव्यय (त) 1/1 सवि (सिद्ध) 1/1 (उप्पाद) व 3/1 सक अव्यय अव्यय अव्यय [(कारणं)+(अवि)] कारण (कारण) 1/1 अवि (अ) = भी अव्यय अव्यय (त) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक
इसलिए वह सिद्ध उत्पन्न करता है
नहीं
किंचि
कुछ
कारणमवि
कारण
EFF
इसलिए नहीं वह होता है
अन्वय- जम्हा कुदोचि वि उप्पण्णो ण तेण सो सिद्धो कज्जं ण किंचि वि ण उप्पादेदि तेण स कारणमवि ण होदि।
अर्थ- चूँकि (सिद्ध जीव) किसी से भी उत्पन्न नहीं हुआ (है) इसलिए वह सिद्ध कार्य नहीं (है) (और)(चूँकि) (सिद्ध) कुछ भी उत्पन्न नहीं करते हैं इसलिए वह (सिद्ध जीव) कारण भी नहीं है।
(46)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #54
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37. सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च।
विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सम्भावे।।
सस्सदमध
उच्छेदं भव्वमभव्वं
च
सुण्णमिदरं
[(सस्सद)+ (अध)] सस्सदं (सस्सद) 2/1 वि शाश्वत को अध (अ) = और
और (उच्छेद) 2/1
नाश को [(भव्वं)+ (अभव्वं)] भव्वं (भव्व) 2/1 वि भव्य को अभव्वं (अभव्व) 2/1 वि अभव्य को अव्यय
और [(सुण्णं) + (इदरं)] सुण्णं (सुण्ण) 2/1 वि शून्य को इदरं (इदर) 2/1 वि विपरीत (पूर्ण) को अव्यय
और [(विण्णाणं)+(अविण्णाणं)] | विण्णाणं (विण्णाण) 2/1 वि ज्ञान को । अविण्णाणं (अविण्णाण) 2/1 वि अज्ञान को अव्यय
नहीं अव्यय (जुज्ज) व 3/1 सक जोड़ता है (असदि) 7/1 वि अनि अभाव होने पर (सब्भाव) 7/1
अस्तित्व में
च . विण्णाणमविण्णाणं
भी
जुज्जदि असदि सब्भावे
अन्वय- सब्भावे असदि सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि ।
अर्थ- अस्तित्व में (जीव का) अभाव होने पर (जीव के) (द्रव्यरूप से) शाश्वत को और (पर्यायरूप से) नाश (होने) को, भव्य (मोक्षगामी) को
और अभव्य (मोक्ष के अयोग्य) (होने) को, शून्य को और विपरीत (पूर्ण को), ज्ञान को और अज्ञान को (कोई) भी नहीं जोड़ेगा। 1. हेम-प्राकृत-व्याकरणः 4/109
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(47)
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38.
कम्माणं
फलको
एक्को
कज्जं
तु
णाणमध
एक्को चेदयदि
जीवरासी
चेदगभावेण
तिविहेण
कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जं तु णाणमध एक्को ।
चेदयदि
जीवरासी
चेदगभावेण
तिविहेण ।।
1.
(48)
(कम्म) 6/2 [(फलं) + (एक्को)]
फलं (फल) 2/1
एक्को (एक्क) 1 / 1 वि
(एक्क) 1 / 1 वि
(कज्ज) 2/1
अव्यय
[ ( णाणं) + (अध)]
गाणं (जाण) 2/1
अध (अ) = और
( एक्क) 1 / 1 वि
(चेदयदि) व 3 / 1 सक अनि
[(जीव) - (रासि) 1/1] [(चेदग) वि -
(भाव) 3 / 1-7 / 1 ]
[(fa) fa-(fag) 3/1]
कर्मों के
फल
कोई
कोई
कर्म
और
ज्ञान
और
कोई
अनुभव करता है जीवों का समूह
चेतनावाला जीव,
अन्वय- एक्को जीवरासी कम्माणं फलमेक्को कज्जं तु एक्को णाणमध चेदयदि चेदगभावेण तिविहेण ।
अर्थ- कोई जीवों का समूह (तो) (केवल) कर्मों के ( सुखदुखरूप ) फल का (अनुभव करता है) और कोई (जीवों का समूह) (इष्ट-अनिष्ट) कर्म का (अनुभव करता है) और कोई (जीवों का समूह ) (केवल) ज्ञान का अनुभव करता है। (इस प्रकार) चेतनावाला जीव (अपने ) स्वरूप में/अस्तित्व में तीन प्रकार (कर्मफल, कर्म और ज्ञान ) से ( वर्णित है ) ।
स्वरूप में/अस्तित्व में
तीन प्रकार से
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-137 )
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
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39. सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं।
पाणित्तमदिक्कंता णाणं विदंति ते जीवा।।
सव्वे
खलु कम्मफलं
(सव्व) 1/2 सवि अव्यय [(कम्म)-(फल) 2/1] [(थावर)-(काय) 1/2]
समस्त निश्चय ही कर्मों का फल स्थावरकाय/एकेन्द्रिय
थावरकाया
जीव
तसा (तस) 1/2
त्रस/दो इन्द्रियादि जीव अव्यय
निश्चय ही कज्जजुदं [(कज्ज)-(जुद) कार्यों से युक्त
भूकृ 1/1 अनि] पाणित्तमदिक्कंता [(पाणित्तं)+ (अदिक्कता)]
पाणित्तं (पाणित्त) 2/1 प्राणीपन से/ द्वितीयार्थक अव्यय
प्राणित्व से अदिक्कंता (अदिक्कंत)1/2 वि रहित णाणं (णाण) 2/1
ज्ञान (विंद) व 3/2 सक अनुभव करते हैं (त) 1/2 सवि (जीव) 1/2
विदंति
जीवा
जीव
अन्वय- खलु सव्वे थावरकाया कम्मफलं तसा हि कज्जजुदं पाणित्तमदिक्कंता ते जीवा णाणं विंदंति।
अर्थ- निश्चय ही समस्त स्थावरकाय/एकेन्द्रिय जीव कर्मों के (सुखदुखरूप) फल का (अनुभव करते हैं), त्रस/दो इन्द्रिय आदि जीव निश्चय ही (कर्मों का सुखदुखरूप जो फल है उसको इष्ट अनिष्ट पदार्थों में) कार्यों से युक्त (होकर) (अनुभव करते हैं) (और) प्राणीपन से/प्राणित्व से रहित वे जीव ज्ञान का अनुभव करते हैं।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(49)
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40. उवओगो खलु दुविहोणाणेण य दंसणेण संजुत्तो।
जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि।।
उवओगो
(उवओग) 1/1
खलु
अव्यय
दुविहो
उपयोग वाक्यालंकार दो प्रकार ज्ञान
और
णाणेण य दसणेण संजुत्तो जीवस्स सव्वकालं
दर्शन
[(दु) वि-(विह) 1/1] (णाण) 3/1 अव्यय (दसण) 3/1 (संजुत्त) भूक 1/1 अनि (जीव) 6/1 [(सव्व) सवि-(काल)
2/1-7/1] [(अणण्ण) वि-(भूद) भूक 2/1 अनि] (वियाणीहि) विधि 2/1 सक अनि
सहित जीव का सब काल में
अणण्णभूदं
एकमेक हुए
वियाणीहि
जानो
अन्वय- जीवस्स उवओगो दुविहो णाणेण य सणेण संजुत्तो खलु सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि।
अर्थ- जीव का उपयोग दो प्रकार का (है)- ज्ञान-सहित (ज्ञानोपयोग) और दर्शन-सहित (दर्शनोपयोग) (है)। (जीव के साथ) सब काल में एकमेक हुए (उपयोग को) जानो। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(50)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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41. आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि।
कुमदिसुदविभंगाणि य तिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते।।
ज्ञान
आभिणिसुदोधिमण- [(आभिणिसुद)+ केवलाणि (ओधिमणकेवलाणि)]
[(आभिणि)-(सुद)-(ओधि)- मति, श्रुत, अवधि
(मण)-(केवल) 1/2] मनःपर्यय और केवल णाणाणि (णाण) 1/2
[(पंच) वि-(भेय) 1/2] पाँच प्रकार कुमदिसुदविभंगाणि [(कु-मदि)-(कु-सुद)-] कुमति, कुश्रुत और (विभंग) 2/2]
कुअवधि अव्यय
तथा तिण्णि (ति) 2/2 वि
तीनों को अव्यय
पादपूरक णाणेहिं (णाण) 3/2
ज्ञानों के साथ (संजुत्त) भूक 2/2 अनि सम्मिलित हुए
संजुत्ते
अन्वय- णाणाणि पंचभेयाणि आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि य कुमदिसुदविभंगाणि तिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते।
अर्थ- ज्ञान पाँच प्रकार का (होता है)- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल। तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि (इन) तीनों को (पूर्वोक्त पाँच) ज्ञानों के साथ सम्मिलित हुए (जानो)।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(51)
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42. दंसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं।
अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं।।
दंसणमवि [(दसणं)+(अवि)]
दंसणं (दंसण) 1/1 दर्शन
अवि (अ) = भी चक्खुजुदं [(चक्षु)-(जुद) भूकृ चक्षुसहित
1/1 अनि] अचक्खुजुदमवि [(अचक्खुजुदं)+(अवि)]
[(अचक्खु)-(जुद) भूक अचक्षुसहित 1/1 अनि] अवि (अ) = और और अव्यय
तथा ओहिणा (ओहि) 3/1
अवधि सहियं (सहिय) भूकृ 1/1 अनि सहित अणिधणमणंतविसयं [(अणिधणं)+(अणंतविसयं)]
अणिधणं (अ-णिधण) 1/1 वि अन्तरहित
[(अणंत)-(विसय) 1/1 वि] अनन्त विषयवाला केवलियं (केवलिय) 1/1 वि केवल संबंधी चावि
[(च)+(अवि)] च (अ) = और
अवि (अ) = पादपूरक पादपूरक पण्णत्तं
(पण्णत्त) भूकृ 1/1 अनि कहा गया
और
अन्वय- दंसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि ओहिणा सहियं य अणिधणं च अणंतविसयं अवि केवलियं पण्णत्तं।
अर्थ- दर्शन भी चक्षुसहित और अचक्षुसहित, अवधिसहित तथा अन्तरहित और अनन्त विषयवाला केवल संबंधी (दर्शन) कहा गया (है)।
(52)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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43. ण वियप्पदिणाणादो णाणी णाणाणि होति णेगाणि।
तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियं ति णाणीहि।।
वियप्पदि णाणादो णाणी णाणाणि होति णेगाणि तम्हा
अव्यय (वियप्प) व 3/1 सक (णाण) 5/2 (णाणि) 1/1 वि (णाण) 1/2 (हो) व 3/2 अक (णेग) 1/2 वि अव्यय अव्यय (विस्सरूव) 1/1 वि (भण) भूकृ 1/1 [(दवियं) + (इति)] दवियं (दविय) 1/1 इति (अ) = ही (णाणि) 3/2 वि
नहीं संशय करता है ज्ञानों के कारण ज्ञानी ज्ञान होते हैं अनेक इसलिए किन्तु/तो भी अनेक प्रकारवाला कहा गया
विस्सरूवं भणियं दवियं ति
द्रव्य
णाणीहि
ज्ञानियों द्वारा
अन्वय- णाणाणि णेगाणि होति दु णाणी णाणादो ण वियप्पदि तम्हा णाणीहि विस्सरूवं दवियं ति भणियं।
अर्थ- ज्ञान अनेक होते हैं किन्तु/तो भी ज्ञानी (विभिन्न) ज्ञानों के कारण (आत्मा की उनसे) (अपृथकता में) संशय नहीं करता है। इसलिए ही ज्ञानियों द्वारा अनेक प्रकारवाला द्रव्य कहा गया (है) (तो भी ज्ञानी द्रव्यों में भेदों के कारण उनमें व्याप्त अस्तित्व की अपृथकता में संशय नहीं करता है)।
1. नोटः
हेम-प्राकृत-व्याकरणः 1/42 संपादक द्वारा अनूदित
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(53)
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44. जदि हवदि दव्वमण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे।
दव्वाणतियमधवा दव्वाभावं . पकुव्वंति।
यदि
जदि हवदि दव्वमण्ण
होता है
द्रव्य पृथक
गुणदो
गुण से
य
पादपूरक
गुणा
गण
रा
अव्यय (हव) व 3/1 अक [(दव्वं)+(अण्णं)] दव्वं (दव्व) 1/1 अण्णं (अण्ण) 1/1 वि (गुण) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय अव्यय (गुण) 1/2
अव्यय (दव्व) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय (अण्ण) 1/2 वि [(दव्व)+(अणत)+ (इयं)+ (अधवा)] [(दव्व)-(अणंत) वि(इ) भूक 1/1] अधवा (अ) = अथवा [(दव्व)-(अभावं) 2/1] (पकुव्व) व 3/2 सक
पादपूरक द्रव्य से
दव्वदो
अण्णे
पृथक
दव्वाणंतियमधवा
अनन्त द्रव्य घटित .
दव्वाभावं पकुव्वंति
अथवा द्रव्य अभाव को हासिल/प्राप्त करते हैं
अन्वय- जदि दव्वं गुणदो अण्णं हवदि दव्वाणंतियमधवा य गुणा य दव्वदो अण्णे दव्वाभावं पकुव्वंति।
अर्थ- यदि द्रव्य गुण से पृथक होता है (तो) अनन्त द्रव्य घटित (होंगे) अथवा (यदि) गुण द्रव्य से पृथक (होते हैं) (तो) द्रव्य (ही) अभाव को हासिल/ प्राप्त करते हैं (करेंगे)। (चूँकि गुण आश्रयरहित नहीं रहते हैं अतः पृथक अनन्त गुणों के लिए आश्रयरूप अनन्त द्रव्यों की कल्पना करनी होगी जो अर्थहीन होगी अथवा चूँकि द्रव्य गुणों का समूह होता है अतः गुण की पृथक कल्पना करने से द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित
(54)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #62
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45. अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं।
णेच्छंति णिच्चयण्हू तब्विवरीदं हि व तेसिं।।
अविभत्तमणण्णत्तं [(अविभत्तं)+(अणण्णत्तं)]
अविभत्तं (अविभत्त) 1/1 वि अविभाजित
अणण्णत्तं (अणण्णत्त) 1/1 अपृथकता दव्वगुणाणं
[(दव्व)-(गुण) 6/2-7/2] द्रव्य और गुणों में विभत्तमण्णत्तं [(विभत्तं)+ (अण्णत्तं)]
विभत्तं (विभत्त) 2/1 वि विभाजित
अण्णत्तं (अण्णत्त) 2/1 पृथकता को णेच्छंति [(ण)+ (इच्छंति)] ण (अ) = नहीं
नहीं इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक स्वीकार करते हैं (णिच्चयण्हु) 1/1 वि वास्तविक स्वरूप के
जाननेवाले तविवरीदं (तव्विवरीदं) 2/1 वि अनि उसके विपरीत
(तादात्म्य को) अव्यय
इसलिए अव्यय
पादपूरक तेसिं (त) 6/2-7/2 सवि उनमें
णिच्चयाहू
New
अन्वय- दव्वगुणाणं अविभत्तमणण्णत्तं हि व तेसिं विभत्तमण्णत्तं तव्विवरीदं णिच्चयण्हू णेच्छंति ।
। अर्थ- द्रव्य और गुणों में अविभाजित अपृथकता (है)। इसलिए उन (द्रव्य और गुणों) में विभाजित पृथकता को (तथा) उसके विपरीत (तादात्म्य को) वास्तविक स्वरूप के जाननेवाले (जो) (ज्ञानी) (हैं) (वे) स्वीकार नहीं करते हैं।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(55)
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46. ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा।
ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते।।
नाम
ववदेसा संठाणा संखा
संरचना/आकार संख्या उद्देश्य
विसया
और
होति
होती हैं
बहुगा
अनेक
(ववदेस) 1/2 (संठाण) 1/2 (संखा) 1/2 (विसय) 1/2
अव्यय (हो) व 3/2 अक (त) 1/2 सवि (बहुग) 1/2 वि 'ग' स्वार्थिक (त) 1/2 सवि [(तेसिं)+ (अणण्णत्ते)] तेसिं (त) 6/2 सवि अणण्णत्ते (अणण्णत्त) 7/1 (अण्णत्त) 1/2 [(च)+ (अवि)] च (अ) = तथा अवि (अ) = भी (विज्ज) व 3/2 अक
तेसिमणण्णत्ते
उनकी अपृथकता में पृथकताएँ
अण्णत्ते
चावि
तथा
विज्जते
विद्यमान होती हैं
अन्वय- ववदेसा संठाणा संखा य विसया ते अण्णत्ते बहुगा होंति च ते तेसिमणण्णत्ते अवि विज्जते।
अर्थ- (वस्तुओं का) नाम, (उनकी) संरचना/आकार, (उनकी) संख्या और (उनके) उद्देश्य- वे पृथकताएँ अनेक (होती हैं), तथा वे (पृथकताएँ) उनकी (द्रव्य और गुणों की) अपृथकता में भी विद्यमान होती हैं। नोटः संपादक द्वारा अनूदित
(56)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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47. णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाणिणं च दविधेहिं।
भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्ह।।
ज्ञान
धन
और बनाता है धनी
कुव्वदि धणिणं
जह
णाणिणं
दुविधेहिं भण्णंति
(णाण) 1/1 (धण) 1/1 अव्यय (कुव्व) व 3/1 सक (धणिणं) 2/1 वि अनि अव्यय (णाणिणं) 2/1 वि अनि अव्यय [(दु) वि-(विध) 3/2] (भण्ण) व 3/2 सक अव्यय (पुधत्त) 2/1 (एयत्त) 2/1 [(च)+(अवि)] च (अ) = और अवि (अ) = भी (तच्चण्हु) 1/2 वि
ज्ञानी पादपूरक दो प्रकारों से कहते हैं
वैसे
पुधत्तं
पृथकत्व एकत्व
और
भी
तच्चण्हू
तत्वज्ञ
• अन्वय- जह धणं धणिणं च णाणं णाणिणं च कुव्वदि तह तच्चण्हू दुविधेहिं पुधत्तं च एयत्तं अवि भण्णंति। ___अर्थ- जैसे धन (व्यक्ति को) धनी (बनाता है) (यहाँ प्रदेशभिन्नता है) और ज्ञान (व्यक्ति को) ज्ञानी बनाता है (यहाँ प्रदेशएकता है) वैसे (ही) तत्वज्ञ दो प्रकारों से पृथकत्व (प्रदेशभिन्नता) और एकत्व (प्रदेशएकता) को भी कहते हैं।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
__ (57)
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48. णाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदा दु अण्णमण्णस्स।
दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।।
णाणी णाण
ज्ञानी ज्ञान
और सदा अर्थ में भिन्न
सदा अत्यंतरिदा
तो
अण्णमण्णस्स दोण्हं अचेदणतं पसजदि
(णाणि) 1/1 वि (णाण) 1/1 अव्यय अव्यय (अत्यंतरिद) 1/2 वि अव्यय (अण्णमण्ण) 6/1-7/1 वि (दो) 6/2-7/2 वि (अचेदणत्त) 1/1 (पसज) व 3/1 अक अव्यय [(जिण)+(अवमदं)] [(जिण)-(अवमद) भूकृ 1/1 अनि]
परस्पर में दोनों में अचेतनता प्राप्त होती है यथार्थरूप से
सम्म
जिणावमदं
जिनेन्द्र द्वारा स्वीकृत
अन्वय- णाणी च णाणं सदा अण्णमण्णस्स अत्यंतरिदा दु दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।
अर्थ- (यदि) ज्ञानी (आत्मा) और ज्ञान सदा परस्पर में अर्थ में भिन्न (हों) तो दोनों (आत्मा और ज्ञान) में अचेतनता (जानने रूप क्रिया शून्यता) प्राप्त होती है। (अर्थात् बिना ज्ञान के आत्मा कैसे जानेगा? और बिना आत्मा के ज्ञान निराश्रय हो जायेगा तो वह भी कैसे जानेगा?)। यथार्थरूप से (यह बात) जिनेन्द्र द्वारा स्वीकृत (है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
(58)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #66
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49. ण हि सो समवायादो अत्थंदरिदो दुणाणादो णाणी।
अण्णाणि त्ति य वयणं एगत्तपसाधगं होदि।।
नहीं
अव्यय
वह
समवायादो
अत्थंदरिदो
णाणादो णाणी अण्णाणि त्ति
अव्यय
निश्चय ही (त) 1/1 सवि (समवाय) 5/1
अविच्छिन्न संयोग के
कारण (अत्थंदरिद) 1/1 वि अर्थ में भिन्न अव्यय (णाण) 5/1
ज्ञान से (णाणि) 1/1 वि ज्ञानी (आत्मा) [(अण्णाणी)+(इति)] अण्णाणी (अण्णाणि) 1/1 वि अज्ञानी इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार अव्यय (वयण) 1/1
कथन [(एगत्त)-(पसाधग) 1/1 वि] एकत्व को साधनेवाला (हो) व 3/1 अक होता है
और
वयणं एगत्तपसाधगं
हादि
अन्वय- णाणी हि समवायादो णाणादो अत्थंदरिदो ण य सो अण्णाणि त्ति दु वयणं एगत्तपसाधगं होदि।
अर्थ- ज्ञानी (आत्मा) निश्चय ही अविच्छिन्न संयोग के कारण ज्ञान से अर्थ में भिन्न नहीं (है) और (यदि कहो कि) वह (आत्मा) (ज्ञान से पूर्व) अज्ञानी (है) तो (स्वभाव से वह अज्ञानी हो जायेगा)। इस प्रकार का कथन (अज्ञान से) एकत्व को साधनेवाला होता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(59)
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50. समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो य अजुदसिद्धो य।
तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिद्दिवा।।
समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो
(समवत्ति) 1/1 (समवाअ) 1/1 (अपुधब्भूद) 1/1 वि
साथ-साथ रहना समवाय अपृथक बना हुआ और अपृथक्करणीय
अव्यय
अजुदसिद्धो
और
य
तम्हा दव्वगुणाणं
(अजुदसिद्ध) 1/1 वि अव्यय अव्यय [(दव्व)-(गुण) 6/2] (अजुदा) 1/1 वि [(सिद्धि)+ (इति)] सिद्धि (सिद्धि) 1/1 इति (अ) = (णिद्दिट्ठा) भूक 1/1 अनि
इसलिए द्रव्य और गुणों का अनादि
अजुदा
* सिद्धि त्ति
वैधता वाक्यार्थद्योतक प्रतिपादित की गई ।
णिद्दिट्टा
अन्वय- दव्वगुणाणं समवत्ती समवाओ य अपुधब्भूदो य अजुदसिद्धो तम्हा अजुदा सिद्धि त्ति णिहिट्ठा।
अर्थ- द्रव्य और गुणों का साथ-साथ रहना (जिनधर्म में) समवाय (घनिष्ट संबंध) (है) और (वह संबंध) अपृथक बना हुआ (प्रदेशभेदरहित) (है)
और अपृथक्करणीय (जानना चाहिए)। इसलिए (जिनेन्द्र द्वारा) (द्रव्य और गुण के संबंध में) अनादि वैधता प्रतिपादित की गई (है)।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517)
(60)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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51. वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा विसेसेहि।
दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा होति।।
वण्णरसगंधफासा
वर्ण, रस, गंध
और स्पर्श परमाणु कहे गये
परमाणुपरूविदा
[(वण्ण)-(रस)-(गंध)(फास) 1/2] [(परमाणु)-(परूव) भूकृ 1/2] (विसेस) 3/2 (दव्व) 5/1
विशेषों से युक्त
विसेसेहि दव्वादो
द्रव्य से
अव्यय
और
अणण्णा
अण्णत्तपगासगा
(अणण्ण) 1/2 वि [(अण्णत्त)-(पगासग) 1/2 वि] (हो) व 3/2 अक
अभिन्न पृथकताओं को प्रकाशित करनेवाले
होति
होते हैं
___ अन्वय- वण्णरसगंधफासा विसेसेहि परमाणुपरूविदा य दव्वादो अणण्णा अण्णत्तपगासगा होति।
अर्थ- वर्ण, रस, गंध और स्पर्श- (इन) विशेषों से युक्त परमाणु कहे गये (हैं) और (ये चारों गुण) द्रव्य (पुद्गल) से अभिन्न (पृथक नहीं) है। (किन्तु) (पूर्व कथित) पृथकताओं को प्रकाशित करने वाले (भी) होते हैं।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(61)
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52. दंसणणाणाणि जहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि।
ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो।।
दसणणाणाणि
दर्शन और ज्ञान
जहा
जैसे जीव से संयुक्त .
जीवणिबद्धाणि
णण्णभूदाणि
पृथक नहीं हुए
[(दसण)-(णाण) 1/2] अव्यय [(जीव)-(णिबद्ध) भूकृ 1/2 अनि] [(ण) अ-(अण्णभूद) भूकृ 1/2] (ववदेस) 5/1 पंचमीअर्थक ‘दो' प्रत्यय (पुधत्त) 2/1 (कुव्व) व 3/2 सक
ववदेसदो
कथन से
पुधत्तं
कुव्वंति
पृथकता/भेदभाव को करते हैं निश्चय ही
अव्यय
अव्यय
नहीं
सभावादो
(सभाव) 5/1
स्वभाव से
अन्वय- जहा जीवणिबद्धाणि दंसणणाणाणि णण्णभूदाणि ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि सभावादो णो।
अर्थ- जैसे (वर्ण, रस गंध और स्पर्श गुण द्रव्य से अभिन्न/पृथक नहीं है) (वैसे) (ही) जीव से संयुक्त दर्शन और ज्ञान (भी) पृथक नहीं हुए (हैं) (आचार्य नाम आदि भेद के) कथन से पृथकता/भेदभाव करते हैं (फिर भी) निश्चय ही स्वभाव से (भेद) नहीं (है)।
(62)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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53. जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो।
सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य॥
जीवा अणाइणिहणा
(जीव) 1/2 (अणाइणिहण) 1/2 वि
णंता
(स-अंत) 1/2 वि [(ण) अ-(अंत) 1/2 वि] अव्यय [(जीव)-(भाव) 5/1]
जीव आदिअंतरहित/ शाश्वत अंतसहित अंतरहित
और जीवों में भावों की अपेक्षा स्वभाव से
जीवभावादो
सब्भावदो
अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा
(सब्भाव) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय (अणंत) 1/2 वि [(पंच) वि -(अग्ग) वि- (गुण)-(प्पधाण) 1/2 वि] अव्यय
अनन्त पाँच सर्वोपरि भाव प्रधान
अन्वय- जीवा अणाइणिहणा पंचग्गगुणप्पधाणा जीवभावादो संता य णंता सब्भावदो अणंता य।
अर्थ- जीव (तो) आदिअंतरहित/शाश्वत (है)। (किन्तु जीवों के भाव शाश्वत-अशाश्वत होते हैं)। (जीवों में) पाँच प्रधान भाव (औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक) सर्वोपरि हैं। (जिनमें औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव कर्म सापेक्ष है और पारिणामिक भाव कर्म निरपेक्ष है)(कर्म सापेक्ष) भावों की अपेक्षा जीवों में अन्तसहित (भाव भी होते हैं) और अन्तरहित (भाव होते हैं)। स्वभाव से (कर्म निरपेक्ष दृष्टि से) (जीव में) अनन्त (भाव) ही (होते हैं)।
नोटः
संपादक द्वारा अनूदित
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(63)
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54. एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो।
इदि जिणवरेहि भणिदं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं।।
सदो विणासो
असदो
जीवस्स
उप्पादो
इदि
अव्यय
इस प्रकार (सदो) 6/1 वि अनि विद्यमान का (विणास) 1/1
नाश (असदो) 6/1 वि अनि अविद्यमान का (जीव) 6/1
जीव का (हो) व 3/1 अक होता है (उप्पाद) 1/1
उत्पाद अव्यय
इस प्रकार (जिणवर) 3/2 जिनेन्द्रों के द्वारा (भण) भूकृ 1/1
कहा गया [(अण्णोण्ण)-(विरुद्ध)+ (अविरुद्धं)] [(अण्णोण्ण) वि
परस्पर/आपस में . (विरुद्ध)-भूकृ 1/1 अनि] दिखाई देनेवाला विरोध अविरुद्धं (अविरुद्ध)भूकृ1/1 अनि अविरोध
जिणवरेहिं
भणिदं
अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं
अन्वय- एवं सदो जीवस्स विणासो असदो उप्पादो होइ इदि जिणवरेहिं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं भणिदं।
अर्थ- इस प्रकार (पूर्व कथनानुसार) (कर्म सापेक्ष भावों के कारण) विद्यमान जीव (मनुष्यादिक पर्याय) का नाश और अविद्यमान (देवादिक जीव पर्याय) का उत्पाद होता है (जीव तो शाश्वत है)। इस प्रकार जिनेन्द्रों के द्वारा परस्पर/आपस में (दिखाई देनेवाला) विरोध (भी) अविरोध (ही) कहा गया (है)।
(64)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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55. णेरइयतिरियमणुया देवा इदि णामसंजुदा पयडी।
कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पाद।।
णेरइयतिरियमणुया
नारकी, तिर्यंच,
मनुष्य
देवा
देव
इस प्रकार नामों से युक्त
णामसंजुदा
पयडी
[(णेरइय) वि-(तिरिय) वि- (मणुय) 1/2] (देवा) 1/2 अव्यय [(णाम) अ-(संजुद) भूक 1/2 अनि (पयडि) 1/2 (कुव्व) व 3/2 सक (सदो) 6/1 वि अनि (णास) 2/1 (असदो) 6/1 वि अनि (भाव) 6/1 (उप्पाद) 2/1
कुव्वंति
सदो णासं असदो
कर्म प्रकृतियाँ करती हैं विद्यमान का नाश अविद्यमान का पर्याय का
भावस्स उप्पादं
उत्पाद
अन्वय- इदि णेरइयतिरियमणुया देवा णामसंजुदा पयडी सदो भावस्स णासं असदो उप्पादं कुव्वंति।
अर्थ- इस प्रकार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव नामों से युक्त कर्म प्रकृतियाँ विद्यमान पर्याय का नाश (और) अविद्यमान (पर्याय) का उत्पाद करती
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(65)
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56. उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा।।
उदयेण
उदय से
उवसमेण
खयेण
दुहिं
मिस्सिदेहिं परिणामे
(उदय) 3/1 (उवसम) 3/1
उपशम से अव्यय (खय) 3/1
क्षय से (दु) वि 3/2
दोनों से (मिस्सिद) भूकृ 3/2 अनि मिले हुए (परिणाम) 7/1+3/1 स्वभाव से (जुत्त) भूकृ 1/2 अनि (त) 1/2 सवि [(जीव)-(गुण) 1/2] जीव के आश्रित (बहु) 7/2 वि
अनेक अव्यय
और (अत्थ) 7/2
अर्थों में (वित्थिण्ण) भूक 1/2 अनि विस्तार लिये हुए
जुत्ता
संयुक्त
जीवगुणा बहुसु
अत्थेसु वित्थिण्णा
अन्वय- उदयेण उवसमेण खयेण मिस्सिदेहिं दुहिं य परिणामे जुत्ता ते जीवगुणा य बहुसु अत्थेसु वित्थिण्णा।
___ अर्थ- (जो भाव) (कर्मों के) उदय से, उपशम से, क्षय से, (उपशम और क्षय) मिले हुए दोनों से और (अपने) स्वभाव से संयुक्त (है) वे (पाँचों भाव) जीव के आश्रित (है) और (वे) (भाव) अनेक अर्थों में विस्तार लिये हुए हैं)।
1.
यहाँ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग तृतीया अर्थ में हुआ है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(66)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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57.
कम्म
वेदयमाणो
जीवो
भावं
करेदि
जारिसयं
सो
तेण
तस्स
कत्ता
दि
कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं । सो तेण तस्स कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं ।।
य
सास
पढिदं
(कम्म) 2 / 1 (वेदयमाण) वकृ 1 / 1 अनि
(जीव ) 1 / 1
(भाव) 2 / 1
(कर) व 3 / 1 सक
(जारिस) 2 / 1 वि
'य' स्वार्थिक
(त) 1 / 1 सवि
अव्यय
(त) 6/1 सवि
( कत्तु ) 1/1 वि
[(हवदि) + (इति)]
हवदि (हव) व 3 / 1 अक
इति (अ) = इस प्रकार
अव्यय
(सासण) 7/1 (पढ) भूकृ 1/1
कर्म को
भोगता हुआ
जीव
भाव
करता है
जैसे
वह
उस कारण से
उसका
करनेवाला
होता है
इस प्रकार
पादपूरक
आगम में
कहा गया
अन्वय- कम्मं वेदयमाणो जीवो जारिसयं भावं करेदि सो तेण तस्स कत्ता हवदित्तिय सासणे पढिदं ।
अर्थ-कर्म को भोगता हुआ जीव जैसे भाव करता है (वैसे ही) वह उस कारण से उस (भाव) का करनेवाला होता है। आगम में इस प्रकार (यह ) कहा गया (है)।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
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58. कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा।
खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।।
कम्मेण विणा उदयं
जीवस्स
नहीं
विज्जदे उवसमं
(कम्म) 3/1
(द्रव्य) कर्म के अव्यय
सिवाय (उदय) 2/177/1 उदय में
(औदयिक भाव में) (जीव) 4/1
जीव के लिए अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक विद्यमान होता है (उवसम) 2/1+7/1 वि उपशम में
(औपशमिक भाव में) अव्यय
अथवा (खइय) 2/1-7/1 वि क्षायिक (भाव) में (खओवसमिय)2/177/1 वि क्षायोपशमिक (भाव)
वा
खइयं
खओवसमियं
तम्हा भावं
अव्यय (भाव) 1/1 अव्यय [(कम्म)-(कद) भूकृ 1/1 अनि ]
इसलिए भाव समूह निश्चय ही
कम्मकद
(द्रव्य) कर्म द्वारा उत्पन्न किये गये
अन्वय- कम्मेण विणा जीवस्स उदयं उवसमं खइयं वा खओवसमियं ण विज्जदे तम्हा भावं तु कम्मकदं।
अर्थ- (द्रव्य) कर्म के सिवाय जीव के लिये उदय में (औदयिक भाव में), उपशम में (औपशमिक भाव में), क्षायिक (भाव) में अथवा क्षायोपशमिक (भाव) में (अन्य कुछ भी) विद्यमान नहीं होता है। इसलिए (चारों) भाव समूह (द्रव्य) कर्म द्वारा निश्चय ही उत्पन्न किये गये (हैं)। 1. 'बिना' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) नोटः संपादक द्वारा अनूदित
(68)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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59. भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता।
ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सगं भावं।।
भाव
भावो जदि कम्मकदो
यदि
अत्ता
होदि किध
(भाव) 1/1 अव्यय [(कम्म)-(कद) भूकृ 1/1 अनि] (अत्त) 1/1 (कम्म) 6/1 (हो) व 3/1 अक अव्यय (कत्तु) 1/1 वि अव्यय (कुण) व 3/1 सक (अत्त) 1/1 अव्यय अव्यय (मुत्ता) संकृ अनि (अण्ण) 2/1 वि (सग) 2/1 वि (भाव) 2/1
(द्रव्य) कर्म द्वारा उत्पन्न किया गया आत्मा (द्रव्य) कर्म का होता है कैसे कर्ता नहीं करता है आत्मा कुछ
कत्ता
कुणदि
अत्ता . किंचि
भी
मुत्ता
अण्णं
छोड़कर अन्य निजी भाव
सगं भावं
__ अन्वय- जदि भावो कम्मकदो अत्ता कम्मस्स कत्ता किध होदि अत्ता सगं भावं मुत्ता अण्णं किंचि वि ण कुणदि।
अर्थ- यदि (पूर्व कथित औदयिकादि) (आत्मा का) भाव (द्रव्य) कर्म द्वारा उत्पन्न किया गया (है) (तो) (प्रश्न है कि) आत्मा (द्रव्य) कर्म का (या) (उससे उत्पन्न भाव का) कर्ता कैसे होगा? (क्योंकि) (जिन सिद्धान्त में कहा गया है कि) आत्मा निजी भाव को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता है।
1.
प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(69)
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60. भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि।
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं।।
भावो कम्मणिमित्तो कम्म पुण भावकारणं
भाव कर्म के कारण कर्म
और भाव के कारण. होता है नहीं
हवदि
किन्तु
SEBE
(भाव) 1/1 [(कम्म)-(णिमित्त) 1/1] (कम्म) 1/1 अव्यय [(भाव)-(कारण) 1/1] (हव) व 3/1 अक अव्यय अव्यय (त) 6/2+7/2 सवि अव्यय (कत्तु) 1/1 वि अव्यय अव्यय (भूद) भूकृ 1/2 अनि अव्यय (कत्तार) 2/1 वि
उनमें निश्चय ही कर्ता
नहीं
ण विणा
बिना
किन्तु
कत्तारं
कर्ता
अन्वय- भावो कम्मणिमित्तो पुण कम्मं भावकारणं हवदि दु तेसिं खलु कत्ता ण दु कत्तारं विणा ण भूदा।
अर्थ- (औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक) भाव (द्रव्य) कर्म के कारण (होता है) और (द्रव्य) कर्म (औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक) भाव के कारण होता है, किन्तु उनमें (भाव और द्रव्यकर्मों में) निश्चय ही (कोई भी) कर्ता नहीं (है) किन्तु (यह मानना संगत होगा कि) (वे) (भाव और कर्म) कर्ता के बिना (भी) नहीं हुए हैं।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) 'बिना' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
2.
(70)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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61. कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स । हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं । ।
कुव्वं
सगं
सहावं
अत्ता
कत्ता
सगस्स
भावस्स
que
हि
पोलकम्माणं
इदि
जिणवणं
मुणेयव्वं
(कुव्वं) वकृ 2/1 अनि
(सग) 2 / 1 वि
(सहाव ) 2 / 1
(अत्त) 1 / 1
( कत्तु ) 1 / 1 वि
(सग) 6/1 वि
(भाव) 6/1
अव्यय
अव्यय
[ ( पोग्गल ) - (कम्म) 6 / 2]
अव्यय
[( जिण) - (वयण) 1/1]
(मुण) विधि 1/1
करता हुआ
निजी
स्वभाव को
आत्मा
कर्ता
निजी
भाव का
नहीं
निश्चय ही
पुद्गल कर्मों का
इस प्रकार
जिन - वचन
समझा जाना चाहिये
अन्वय- सगं सहावं कुव्वं अत्ता सगस्स भावस्स कत्ता हि पोग्गलकम्माणं ण इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ।
अर्थ-निजी स्वभाव को करता हुआ आत्मा निजी भाव का (ही) कर्ता ( है ) | ( वह) निश्चय ही पुद्गल - कर्मों का (कर्ता) नहीं ( है ) । इस प्रकार जिनवचन समझा जाना चाहिए।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
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62. कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं।
जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण।।
कम्म
(द्रव्य) कर्म निश्चय ही अपने को करता है निजी स्वभाव से
कुव्वदि
।
सेण
सहावेण सम्ममप्पाणं
(कम्म) 2/1 अव्यय (सग) 2/1 वि (कुव्व) व 3/1 सक (स) 3/1 वि (सहाव) 3/1 [(सम्म)+(अप्पाणं)] सम्मं (अ) = सम्यक् अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 (जीव) 1/1 अव्यय अव्यय (तारिसअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (कम्मसहाव) 3/1 वि (भाव) 3/1
जीवो वि
सम्यक् स्वरूप को जीव भी निस्सन्देह वैसे ही
तारिसओ
कम्मसहावेण भावेण
कर्म-स्वभाववाली प्रकृति से
अन्वय-कम्मं पि कम्मसहावेण भावेण सगं कुव्वदि तारिसओ जीवो वि सेण सहावेण य सम्ममप्पाणं।
अर्थ- (द्रव्य) कर्म निश्चय ही कर्म-स्वभाववाली प्रकृति से अपने को (ही) करता है (और) वैसे (ही) जीव भी निजी स्वभाव से निस्सन्देह (अपने) सम्यक् स्वरूप को (करता है)।
(72)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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63. कम्मं कम्मं कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं।
किध तस्स फलं भुंजदि अप्पा कम्मं च देदि फलं।।
कम्म कम्म
कुव्वदि
जदि
अप्पा
करेदि
(द्रव्य) कर्म (द्रव्य) कर्म को करता है यदि वह आत्मा करता है स्वरूप को कैसे उसका फल भोगता है आत्मा (द्रव्य) कर्म
अप्पाणं
(कम्म) 1/1 (कम्म) 2/1 (कुव्व) व 3/1 सक
अव्यय (त) 1/1 सवि (अप्प) 1/1 (कर) व 3/1 सक (अप्पाण) 2/1
अव्यय (त) 6/1 सवि (फल) 2/1 (भुंज) व 3/1 सक (अप्प) 1/1 (कम्म) 1/1
अव्यय (दे) व 3/1 सक (फल) 2/1
किध
तस्स
फलं भुंजदि अप्पा
.
परन्तु
. .
देता है फल
अन्वय- जदि कम्मं कम्मं कुव्वदि सो अप्पा अप्पाणं करेदि च कम्मं फलं देदि अप्पा तस्स फलं किध भुंजदि। . अर्थ- यदि (द्रव्य) कर्म (अपने) (द्रव्य) कर्म को करता है (और) (यदि) वह आत्मा (अपने) स्वरूप को करता है, परन्तु (जब) (द्रव्य) कर्म फल देता है (तो) आत्मा उस (द्रव्यकर्म) का फल कैसे भोगेगा? 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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64. ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो।
सुहमेहिं बादरेहिं य यंताणंतेहिं विविधेहिं।।
लोक
ओगाढगाढणिचिदो [(ओगाढ) वि-(गाढ) (अ)- गहरा, अत्यधिक
(णिचिद) भूकृ 1/1 अनि] भरा हुआ पोग्गलकायेहिं [(पोग्गल)-(काय) 3/2]
पुद्गल-समूहों से सव्वदो अव्यय
सब ओर से लोगो (लोग) 1/1 सुहुमेहि (सुहुम) 3/2 वि सूक्ष्म बादरेहिं (बादर) 3/2 वि स्थूल अव्यय
और णताणतेहिं (णंताणत) 3/2 वि विविधेहिं (विविध) 3/2 वि अनेक प्रकारों सहित
अनन्तानन्त
अन्वय- लोगो सव्वदो पोग्गलकायेहिं ओगाढगाढणिचिदो सुहमेहिं बादरेहिं णंताणंतेहिं य विविधेहिं।
अर्थ- (यह समस्त) लोक सब ओर से पुद्गल-समूहों से अत्यधिक गहरा भरा हुआ (है) (जो) सूक्ष्म, स्थूल, अनन्तानन्त और अनेक प्रकारों सहित (होते हैं)।
(74)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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65. अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहि।
गच्छंति कम्मभावं अण्णण्णोगाहमवगाढा।।
अत्ता
सभावं
तत्थ
(अत्त) 1/1
आत्मा कुणदि (कुण) व 3/1 सक करता है (सभाव) 2/1
स्वभाव को अव्यय
वहाँ गदा
(गद) भूकृ 1/2 अनि स्थित पोग्गला (पोग्गल) 1/2
पुद्गल सभावेहिं (सभाव) 3/2
अपनी प्रकृति से गच्छंति (गच्छ) व 3/2 सक प्राप्त करते हैं
कम्मभावं [(कम्म)-(भाव) 2/1] द्रव्यकर्म-प्रकृति को . अण्णण्णोगाहमवगाढा [(अण्णण्ण)+(ओगाह)+
(अवगाढा)] [(अण्णण्ण) वि-(ओगाह) परस्पर एक क्षेत्र में 2/1-7/1] अवगाढा (अवगाढ) 5/1 वि व्याप्त होने के कारण
अन्वय- अत्ता सभावं कुणदि तत्थ गदा पोग्गला अण्णण्णोगाहमवगाढा समावेहिं कम्मभावं गच्छंति।
अर्थ- (संसार अवस्था में अनादि कर्मबंध से उत्पन्न आत्मविस्मरण के कारण) आत्मा (अशुद्ध) स्वभाव (राग-द्वेष-मोह) को करता है (तब) वहाँ (उनके साथ) स्थित (वे) पुद्गल एक क्षेत्र में परस्पर व्याप्त होने के कारण अपनी प्रकृति से द्रव्यकर्म-प्रकृति को प्राप्त करते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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66. जह पुग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती।
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणीहि।।
जह
जैसे
पुग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहि
खंधणिव्वत्ती अकदा परेहिं दिय
अव्यय [(ग्गल)-(दव्व) 6/2] पुद्गल द्रव्यों के [(बहु) वि-(प्पयार) अनेक भेदों में 3/2-7/2] [(खंध)-(णिव्वत्ति) 1/1] स्कंधों का उत्पादन (अ-कदा) भूक 1/1 अनि नहीं किया हुआ (पर) 3/2 वि
अन्य किन्हीं के द्वारा (दिठ्ठा) भूकृ 1/1 अनि
देखा गया अव्यय
वैसे ही (कम्म) 6/2
कर्मों के (वियाणीहि)
जानो विधि 2/1 सक अनि
कम्माणं वियाणीहि
अन्वय- जह पुग्गलदव्वाणं खंधणिव्वत्ती बहुप्पयारेहिं परेहिं अकदा दिट्ठा तह कम्माणं वियाणीहि।
अर्थ- जैसे पुद्गलद्रव्यों के स्कंधों का अनेक भेदों में उत्पादन अन्य किन्हीं के द्वारा (प्रेरित) नहीं किया हुआ देखा गया (है), वैसे ही कर्मों के (उत्पादन को) जानो।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(76)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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67. जीवा पुग्गलकाया अण्णण्णोगाढगहणपडिबद्धा।
काले विजुज्जमाणा सुहदुक्खं देंति भुंजंति।।
जीवा (जीव) 1/2
जीव पुग्गलकाया [(पुग्गल)-(काय) 1/2] पुद्गलसमूह अण्णण्णोगाढ- [(अण्णण्ण)+(ओगाढगहणपडिबद्धा)] गहणपडिबद्धा
[(अण्णण्ण)-(ओगाढ) वि- परस्पर में गहरी (गहण)-(पडिबद्ध) पकड़ से संबद्ध भूकृ 1/2 अनि] (काल) 7/1
समय आने पर विजुज्जमाणा' (विजुज्ज) वकृ 3/1 अलग होते हुए
[(सुह)-(दुक्ख) 2/1] सुख और दुख (दे) व 3/2 सक देते हैं
(भुंज) व 3/2 सक भोगते हैं ___अन्वय- जीवा पुग्गलकाया अण्णाण्णोगाढगहणपडिबद्धा काले विजुज्जमाणा सुहदुक्खं देंति भुंजंति।
- अर्थ- जीव (और) (कर्म) पुद्गलसमूह (अनादिकाल से) परस्पर में गहरी पकड़ से संबद्ध (है)। (वे) (कर्म पुद्गलसमूह) समय आने पर अलग होते हुए सुख और दुख देते हैं और (जीव) भोगते हैं। 1. वि+जु+ज्ज+माण = विजुज्जमाण
सुहदुक्खं
भुंजंति
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(77)
Page #85
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68. तम्हा कम्मं कत्ता भावेण हि संजुदोध जीवस्स।
भोत्ता दु हवदि जीवो चेदगभावेण कम्मफलं।।
तम्हा कम्म
कर्ता
कत्ता भावेण
क्योंकि
संजुदोध
अव्यय
इसलिए (कम्म) 1/1
कर्म (कत्तु) 1/1 वि (भाव) 3/1
भाव/परिणाम से अव्यय [(संजुदो)+(अध] संजुदो (संजुद) भूकृ 1/1 अनि संयुक्त अध (अ) = तब (जीव) 6/1
जीव के (भोत्तु) 1/1 वि भोक्ता अव्यय
और (हव) व 3/1 अक होता है (जीव) 1/1
जीव [(चेदग) वि-(भाव) 3/1] सचेतन रीति से [(कम्म)-(फल) 2/1] (द्रव्य)कर्म फल को
तब
जीवस्स
भोत्ता
हवदि जीवो चेदगभावेण कम्मफलं
अन्वय- तम्हा कम्मं जीवस्स कत्ता हि भावेण संजुदोध कम्मफलं दु जीवो चेदगभावेण भोत्ता हवदि।
अर्थ- इसलिए (द्रव्य) कर्म जीव के (अशुद्ध भावों का) कर्ता (है) क्योंकि तब (अशुद्ध रागादिरूप) भाव/परिणाम से संयुक्त होता है (समय आने पर) (द्रव्य) कर्म (सुख-दुख) फल को (देते हैं) और जीव सचेतन रीति से (उसका) भोक्ता होता है।
(78)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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69.
एवं
कत्ता
भोत्ता
होज्जं *
अप्पा
सहिं
कम्मेहिं'
हिंडदि
पारमपारं
संसारं मोहसंछण्णो
एवं कत्ता भोत्ता होज्जं अप्पा सगेहिं कम्मेहिं ।
हिंडदि पारमपारं
संसारं
मोहसंछण्णो ।।
1.
अव्यय
( कत्तु ) 1/1 वि (भोत्तु) 1 / 1 वि
( होज्ज) व 3 / 1 अक
2.
( अप्प ) 1 / 1
(सग) 3 / 2 वि
'ग' स्वार्थिक
(कम्म) 3/2
(हिंड) व 3/1 सक
[(पारं) + (अपारं)]
पारं (पार) 2/17/1
इस प्रकार
कर्ता
भोक्ता
होता है
[(मोह) - (संछण्ण) भूक 1 / 1 अनि
आत्मा
अपने
कर्मों के कारण
भ्रमण करता है
समुद्र में अपारं (अपार) 2/17/1 वि अनन्त (संसार) 2 / 1-7 / 1
संसार
मोह से आच्छादित
अन्वय- एवं मोहसंछण्णो अप्पा सगेहिं कम्मेहिं कत्ता भोत्ता होज्जं पारमपारं संसारं हिंडदि ।
अर्थ - इस प्रकार मोह से आच्छादित आत्मा अपने कर्मों के कारण कर्ता (और) भोक्ता होता है (और) (अपने ही कर्मों के कारण) अनन्त संसार समुद्र में भ्रमण करता है ।
यहाँ पाठ 'होज्ज' होना चाहिये ।
कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
( प्राकृत - व्याकरण, पृष्ठ 36 )
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-137 )
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
(79)
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70. उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो।
णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि धीरो।।
उवसंतखीणमोहो
मगं जिणभासिदेण
{[(उवसंत)-(खीण)(मोह)] 1/1 वि} (मग्ग) 2/1-7/1 [(जिण)-(भास) भूकृ 3/1-7/1] (समुवगद) भूकृ 1/1 अनि [(णाण)-(अणु) अ(मग्गचारी) 1/1 वि
समुवगदो णाणाणुमग्गचारी
दमन किया गया, नष्ट किया गया मोह मार्ग पर जिनेन्द्र द्वारा । उपदिष्ट भली प्रकार से गया ज्ञान के अनुरूप सम्मत मार्ग पर चलनेवाला मोक्ष नगर में जाता है धैर्यवान (व्यक्ति)
णिव्वाणपुरं वजदि
(णिव्वाणपुर) 2/1-7/1 (वज) व 3/1 सक (धीर) 1/1 वि
धीरो
अन्वय- उवसंतखीणमोहो जिणभासिदेण मग्गं समुवगदो णाणाणुमग्गचारी धीरा णिव्वाणपुरं वजदि।
अर्थ- (जिसके द्वारा) मोह (पूर्णरूप से) दमन किया गया (है) (या) नष्ट किया गया (है), (जो) जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट (मार्ग पर) भली प्रकार से गया (है) (ऐसा) ज्ञान के अनुरूप (ज्ञान) सम्मत मार्ग पर चलनेवाला धैर्यवान (व्यक्ति) मोक्ष नगर में जाता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(80)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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71. एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो होदि।
चदु-चंकमणो भणिदो पंचग्गगुणप्पधाणो य।।
एक
एक्को चेव महप्पा
(एक्क) 1/1 वि अव्यय [(मह) वि-(अप्प) 1/1] (त) 1/1 सवि (दु-वियप्प) 1/1 वि (ति-लक्खण) 1/1 वि (हो) व 3/1 अक (चदु-चंकमण) 1/1 वि
दवियप्पो तिलक्खणो होदि चदु-चंकमणो
ही श्रेष्ठ आत्मा वह दो भेदवाला तीन प्रकारवाला होता है चार गतियों में परिभ्रमण करनेवाला कहा गया पाँच सर्वोपरि मुख्य भाववाला और
भणिदो पंचग्गगुणप्पधाणो
(भण) भूकृ 1/1 (पंच-अग्ग-गुण-प्पधाण) 1/1 वि अव्यय
य
- अन्वय- सो महप्पा चेव एक्को दुवियप्पो तिलक्खणो होदि चदुचंकमणो य पंचग्गगुणप्पधाणो भणिदो।
अर्थ- (छह द्रव्यों में आत्म द्रव्य मूल्यात्मक दृष्टि से श्रेष्ठ है इसलिए आत्मा को महान कहा गया है)। आत्मा को विभिन्न दृष्टि से समझा जा सकता है-(1) वह श्रेष्ठ आत्मा ही एक (लक्षणवाला है) (चैतन्य स्वरूप)। (2) (वह) (जीव द्रव्य) दो भेदवाला (संसारी और मुक्त) (है)। (3) (वह) तीन प्रकारवाला है (कर्मचेतना, कर्मफलचेतना, ज्ञानचेतना से युक्त) (तथा) (उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त) होता है। (4) (वह) (संसारी आत्मा) चार गतियों (मनुष्य, देव, नरक, तिर्यंच) में परिभ्रमण करनेवाला और (5) (वह) (कर्मसापेक्ष और कर्मनिरपेक्ष भाव सहित होता है अर्थात् सर्वोपरि पाँच मुख्य (औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक) भाववाला कहा गया (है)।
1.
संपादक द्वारा अनूदित
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(81)
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72.
छक्कापक्कमजुत्तो [(छक्क-अपक्कम) वि(जुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
छक्कापक्कमजुत्तो उवउत्तो सत्तभंगसब्भावो । अट्ठासओ णवट्ठो जीवो दसठाणगो भणिदो ||
उत्तो सत्तभंगस भावो
अट्ठासओ
वो
जीवो
सठाणग
भणिदो
(82)
( उवउत्त) भूक 1 / 1 अनि (सत्त-भंग-सब्भाव)
1/1 fa
(अट्ठ - आसअ ) 1 / 1 वि
(णव-अट्ठ) 1/1 वि
(जीव) 1 / 1
(दस - ठाणग) 1 / 1 वि
( भण) भूक 1 / 1
क्रमरहित (वक्र) छह
प्रकार की दिशाओं से
युक्त
तर्कोचित
सात प्रकार के कथन
स्वभाववाला
आठ कर्म/गुणा
आधार
प्रकार से कर्म
विवेचनवाला
जीव
दस भेवाला
कहा गया
अन्वय- जीवो छक्कापक्कमजुत्तो उवउत्तो सत्तभंगसब्भावो अट्ठासओ वट्ठो दसठाणगो भणिदो ।
अर्थ- जीव क्रमरहित छह प्रकार की दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व नीचे) से युक्त, तर्कोचित सात प्रकार (अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, अवक्तव्य, अस्ति- अवक्तव्य, नास्ति - अवक्तव्य और अस्ति - नास्तिअवक्तव्य) के कथन स्वभाववाला, आठ कर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय) या आठ गुण (अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य, सूक्ष्मत्व गुण, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्याबाधत्व) का आधार, नौ प्रकार (जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप) से कर्म विवेचनवाला, दस (पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय) भेदवाला कहा गया है।
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
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73. पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को।
उडुं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदि जंति।।
मुक्को
मुक्त
पयडिट्ठिदिअणुभाग- [(पयडि)-(द्विदि)-(अणुभाग) प्रकृति, स्थिति, प्पदेसबंधेहिं (प्पदेसबंध) 3/2] अनुभाग तथा प्रदेश
बंध से सव्वदो अव्यय
सर्वथा/पूर्णरूप से (मुक्क) भूकृ 1/1 अनि (उड्ढ) 2/1
ऊर्ध्व/सिद्ध (गति) को गच्छदि (गच्छ) व 3/1 सक गमन करता है सेसा (सेस) 1/2
शेष विदिसावज्जं (विदिसा)' 2/2 विदिशाओं के
वज्जं (अ) = सिवाय सिवाय/बिना (गदि) 2/1 (जा) व 3/1 सक करते हैं
गति
गति
अन्वय- पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को उटुं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गर्दि जंति।
____ अर्थ- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध से सर्वथा/पूर्णरूप से मुक्त (जीव) ऊर्ध्व/सिद्ध (गति) को गमन करता है। (मुक्त जीवों को छोड़कर) शेष (जीव) विदिशाओं के सिवाय/बिना (अन्य छह दिशाओं में) गति करते हैं।
1.
'बिना' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(83)
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74. खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू।
इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा।।
खंधा
(खंध) 1/2
स्कंध
अव्यय
पादपूरक
खंधदेसा खंधपदेसा
(खंधदेस) 1/2 (खंधपदेस) 1/2
स्कंधदेश स्कंधप्रदेश
अव्यय
और
होंति
होते हैं
(हो) व 3/2 अक (परमाणु) 1/2
परमाणू
परमाणु
इदि
अव्यय
इस प्रकार
चदुब्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा
(त) 1/2 सवि [(चदु) वि-(ब्वियप्प) 1/2] चार प्रकार के (पुग्गलकाय) 1/2 पुद्गलास्तिकाय (मुण) विधिकृ 1/2 समझे जाने चाहिए
अन्वय- खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य परमाणू होंति इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा।
अर्थ- स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणु (पुद्गलद्रव्य के भेद) हैं। इस प्रकार वे चार प्रकार के पुद्गलास्तिकाय समझे जाने चाहिए।
(84)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #92
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75. खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति। ___ अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी॥
स्कंध पूरे मिले हुए/संयुक्त
सयलसमत्थं
तस्स
उसका
द
(खंध) 1/1 [(सयल)-(समत्थ) भूकृ 1/1 अनि (त) 6/1 सवि
अव्यय (अद्ध) 1/1 वि (भण) व 3/2 सक [(देसो)+ (इति)] देसो (देस) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार (अद्धद्ध) 1/1 वि
और आधा
अद्धं
भणंति देसो त्ति
कहते हैं
देश
अद्धद्धं
इस प्रकार आधे का आधा/ चौथाई
पदेसो
अव्यय (पदेस) 1/1 (परमाणु) 1/1. अव्यय (अविभागी) 1/1 वि अनि
फिर प्रदेश परमाणु
परमाणू चेव अविभागी
पादपूरक विभाजन-रहित
अन्वय- सयलसमत्थं खंधं तस्स दु अद्धं देसो त्ति अद्धद्धं च पदेसो चेव अविभागी परमाणू भणंति।
अर्थ- पूरे मिले हुए/संयुक्त (परमाणु) स्कंध (है), उस (स्कंध) का आधा (स्कंध) देश (है) फिर (उस स्कंध के) आधे का आधा/चौथाई (स्कंध) प्रदेश (है) और विभाजन-रहित परमाणु (है)। (जिनेन्द्र देव) इस प्रकार कहते हैं।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(85)
Page #93
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76. बादरसुहुमगदाणं खंधाणं पुग्गलो त्ति ववहारो।
ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं।।
बादरसुहुमगदाणं
बादर और सूक्ष्म में विभाजित स्कंधों के लिए
खंधाणं पुग्गलो त्ति
[(बादर) वि-(सुहुम)-वि (गद) भूक 4/2 अनि] (खंध) 4/2 [(पुगलो)+ (इति)] पुग्गलो (पुगल) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार (ववहार) 1/1 (त) 1/2 सवि (हो) व 3/2 अक [(छ) वि-(प्पयार) 1/2] (तेलोक्क) 1/1 (ज) 3/2 सवि (णिप्पण्ण) भूकृ 1/1 अनि
पुद्गल इस प्रकार व्यवहार
ववहारो
वे
होति छप्पयारा तेलोक्कं
होते हैं छ प्रकार
तीन लोक
जेहिं
जिनसे संपन्न
णिप्पण्णं
अन्वय- बादरसुहुमगदाणं खंधाणं पुग्गलो त्ति ववहारो ते छप्पयारा होंति जेहिं तेलोक्कं णिप्पण्णं।
अर्थ- बादर (स्थूल) और सूक्ष्म में विभाजित स्कंधों के लिए पुद्गल (शब्द का) व्यवहार (है)। इस प्रकार वे (पुद्गल) छ प्रकार के (बादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म और सूक्ष्मसूक्ष्म) होते हैं, जिनसे तीन लोक संपन्न
(86)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #94
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77. सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू।
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो।।
सव्वेसिं खंधाणं
समस्त स्कंधों में
अंतो
वियाण
(सव्व) 6/2+7/2 सवि (खंध) 6/2-7/2 (ज) 1/1 सवि (अंत) 1/1 वि (त) 2/1 सवि (वियाण) विधि 2/1 सक (परमाणु) 1/1 (त) 1/1 सवि (सस्सद) 1/1 वि (अ-सद्द) 1/1 वि (एक्क) 1/1 वि (अविभागी) 1/1 वि अनि [(मुत्ति)-(भव) 1/1 वि]
अंतिम उसको जानो परमाणु
परमाणू
सो
वह
सस्सदो
असद्दो
एक्को अविभागि मुत्तिभवो
शाश्वत शब्द-रहित एक विभाजन-रहित मूर्त भाव में रहनेवाला/होनेवाला
अन्वय- सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो परमाणू तं वियाण सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो।
अर्थ- समस्त स्कंधों में जो अंतिम (भेद) (है) (वह) परमाणु (है) उसको जानो। वह (परमाणु) शाश्वत (है), शब्द-रहित (है), एक (प्रदेशी) (है), विभाजन-रहित (है) (और) मूर्त भाव (रूप, रस, गंध, स्पर्श गुण) में रहनेवाला/ होनेवाला (है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'अविभागी' का 'अविभागि' किया गया है।
2.
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(87)
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78. आदेसमेत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु।
सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो।।
आदेसमेत्तमुत्तो
मूर्तिक
धादुचदुक्कस्स कारणं
4 64
किन्तु
[(आदेस)-(मेत्त)- उपदेश मात्र से (मुत्त) 1/1 वि] [(धादु)-(चदुक्क) 6/1 वि] चार धातुओं का (कारण) 1/1
कारण (ज) 1/1 सवि जिन अव्यय (त) 1/1 सवि (णेअ) विधिकृ 1/1 अनि जानने-योग्य (परमाणु) 1/1 (परिणामगुण) 1/1 वि परिणमन स्वभाववाला __ [(सयं)+(असद्द)] सयं (अ) = स्वयं स्वयं असद्दो (असद्द) 1/1 वि शब्द-रहित
वह
णेओ
परमाणु
परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो
अन्वय- परमाणू जो आदेसमेत्तमुत्तो दु धादुचदुक्कस्स कारणं परिणामगुणो सयमसद्दो सो णेओ।
अर्थ- परमाणु जिन उपदेश मात्र से मूर्तिक (रूप, रस, स्पर्श, गंधवाला) (कहा गया है) किन्तु (जो) चार धातुओं (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) का कारण (है), (जो) परिणमन स्वभाववाला (है), स्वयं शब्द-रहित (है) (किन्तु शब्द का कारण) (है) वह जानने-योग्य (है)।
(88)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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79. सद्दो खंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो।
पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादगो णियदो।।
खंधप्पभवो'
(सद्द) 1/1 [(खंध)-(प्पभवो) 1/1]
खंधो परमाणुसंगसंघादो
शब्द स्कंध से उत्पन्न होनेवाला/उत्पादित स्कंध परमाणुओं के मेल का समूह छुआ हुआ होने पर उनसे उत्पन्न होता है शब्द फलोत्पादक निश्चित
(खंध) 1/1 [(परमाणु)-(संग)(संघाद) 1/1] . (पुट्ठ) भूक 7/2 अनि (त) 7/2-5/2 सवि (जाय) व 3/1 अक (सद्द) 1/1 (उप्पादग) 1/1 वि (णियद) भूकृ 1/1 अनि
तेसु
जायदि
सद्दो
उप्पादगो णियदो
अन्वय- सद्दो खंधप्पभवो परमाणुसंगसंघादो खंधो तेसु पुढेसु णियदो उप्पादगो सहो जायदि।
अर्थ- शब्द स्कंध से उत्पन्न होनेवाला/उत्पादित (है)। परमाणुओं के मेल का समूह स्कंध (है)। उन (स्कंधों) से (आपस में) छुआ हुआ होने पर निश्चित (विभिन्न प्रकार का) फलोत्पादक शब्द उत्पन्न होता है।
प्रायः समास के अन्त में 'उत्पन्न होनेवाला' अर्थ को प्रकट करता है। 2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
1.
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(89)
Page #97
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80.
णिच्चो
ाणवकास
ण
सावकासो
पदो
भेत्ता
खंधाणं
P
पि
य
णिच्चो णाणवकासोण सावकासो पदेसदो भेत्ता । खंधाणं पिय कत्ता पविहत्ता कालसंखाणं ।।
नित्य
नहीं
स्थान- रहि
कत्ता
पविहत्ता
कालसंखाणं'
1.
(90)
( णिच्च) 1 / 1 [(ण) + (अणवकासो)]
ण (अ) = नहीं अणवकासो (अणवकास)
1/1 fa
अव्यय
( स - अवकास) 1 / 1 वि
(पदेस) 5/1
पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय
(भेत्तु) 1 / 1 वि
(खंध) 6/2
अव्यय
नहीं
स्थान-सहित प्रदेश के कारण
भेद करनेवाला
स्कंधों का
अन्वय- णिच्चो णाणवकासो पदेसदो सावकासो ण खंधाणं भेत्ता पिय कत्ता कालसंखाणं पविहत्ता ।
अर्थ - (परमाणु) नित्य (है), (गुणों के लिए) स्थान -रहित नहीं ( है ), एक प्रदेशी होने के कारण ( अन्य प्रदेशों के लिए) स्थान-सहित भी नहीं (है), (एक प्रदेशी के कारण ही) स्कंधों का भेद करनेवाला भी (है), (स्कंधों का ) निर्माता (है) और (परमाणुओं ने) काल की गणनाओं को भिन्न किया ( है ) ।
भी
अव्यय
और
( कत्तु ) 1 / 1 वि
निर्माता
( पवित्त ) 1 / 2 भूक अनि
भिन्न कि
[ (काल) - ( संखा ) 6 / 2- 2/2] काल की गणनाओं को
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - अधिकार
Page #98
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81. एयरसवण्णगंधं दोफासंसद्दकारणमसहं।
खंधंतरिदं दव्वं परमाणुं तं वियाणेहि।।
एयरसवण्णगंधं
एक रस, वर्ण,
गंध दो स्पर्श
दोफासं सद्दकारणमसदं
. [(एय) वि-(रस)-(वण्ण)
(गंध) 1/1] [(दो) वि-(फास) 1/1] [(सद्दकारणं)+(असई)] [(सद्द)-(कारण) 1/1] असदं (असद्द) 1/1 वि [(खंध)-(अंतरिद) भूकृ 1/1 अनि] (दव्व) 2/1 (परमाणु) 2/1 (त) 2/1 सवि (वियाण) विधि 2/1 सक
खधंतरिदं
शब्द का कारण शब्द-रहित स्कंधों से भेद किया हुआ द्रव्य को परमाणु उस जानो
दव्वं परमाणु
वियाणेहि
अन्वय- तं दव्वं परमाणुं वियाणेहि एयरसवण्णगंधं दोफासं खंधंतरिदं सद्दकारणमसइं।
अर्थ- उस द्रव्य को परमाणु जानो (जिस) (द्रव्य में) (पाँच रस में से) एक रस, (पाँच वर्ण में से) (एक) वर्ण, (दो गंध में से) (एक) गंध, (चार' स्पर्श में से) दो (अविरोधी) स्पर्श (होते हैं)। (यह परमाणु) (स्वभाव में) स्कंधों से भेद किया हुआ (है)। (स्कन्ध अवस्था में रूपान्तरित होने पर) शब्द का कारण (बन जाता है)। (स्कंधों से पृथक होने पर) (स्वयं) शब्द-रहित (रहता है)। 1. परमाणु अवस्था में स्पर्श के आठ गुणों में से चार गुणः शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध ही पाये
जाते हैं। मृदु, कठोर, हल्का, भारी गुण स्कन्ध अवस्था में होते हैं। नोटः संपादक द्वारा अनूदित
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(91)
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४. उपयोति विकास या मालिक
82. उवभोज्जमिदिएहि य इंदियकाया मणो य कम्माणि।
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे।।
भोगे जाने योग्य
इन्द्रियों के द्वारा
और इन्द्रियाँ, शरीर
मन
य
तथा
कम्माणि
उवभोज्जमिंदिएहि [(उवभोज्जं)+ (इंदिएहि)]
उवभोज्जं (उवभोज्ज) विधिकृ 1/1 अनि इंदिएहि (इंदिअ) 3/2
अव्यय इंदियकाया [(इंदिय)-(काय) 1/2] मणो
(मणो) 1/1 अव्यय (कम्म) 1/2
(ज) 1/1 सवि हवदि
(हव) व 3/1 अक मुत्तमण्णं [(मुत्तं)+(अण्णं)]
मुत्त (मुत्त) 1/1 वि अण्णं (अण्ण) 1/1 वि
(त) 1/1 सवि सव्वं
(सव्व) 1/1 सवि पुग्गलं
(पुग्गल) 1/1 (जाण) विधि 2/1 सक
5 ne
अन्य वह सब पुद्गल जानो
जाणे
अन्वय- इंदिएहि उवभोज्जं य इंदियकाया मणो य कम्माणि जं मुत्तमण्णं हवदि तं सव्वं पुग्गलं जाणे।
अर्थ- इन्द्रियों के द्वारा भोगे जाने योग्य (पदार्थ), इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण), शरीर (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस
और कार्माण) (द्रव्य) मन और (द्रव्य) कर्म तथा जो अन्य मूर्त (पदार्थपरमाणु व स्कंध) है, वह सब पुद्गल (है) (तुम) जानो। 1. प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पिशल, पृ.सं. 679) नोट- संपादक द्वारा अनूदित
(92)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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83.
धम्मत्थिकायमरसं [ ( धम्मत्थिकायं) + (अरसं)]
धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असहमप्फासं । लोगोगाढं पुठ्ठे पिहुलमसंखादियपदेसं ।।
अवण्णगंध
असद्दमप्फासं
लोगोगाढं
पुट्ठ
धम्मथिका (धम्मत्थिकाय) धर्मास्तिकाय को 2/1
अरसं (अ-रस) 2/1 वि [(अ-वण्ण) - (अ-गंध)
2/1 fa]
[(असद्दं) + (अप्फासं)]
असद्दं (अ-सद्द) 2/1 वि अप्फासं (अ-प्फास) 2/1 वि
[(लोग) + (ओगाढं)] [(लोग) - (ओगाढ)
शब्द-रहित
स्पर्श-रहित
लोक में व्याप्त
पहुँचा हुआ
पिहुलमसंखादियपदेसं [ (पिहुलं) + (असंखादियपदेसं)]
पिहुलं (पिहुल) 2/1 वि
फैला हुआ
असंखादियपदेसं (असंखादियपदेस) असंख्यात प्रदेशवाला 2/1 fa
भूक 2 / 1 अनि ] (पुट्ठ) भूक 2 / 1 अनि
रस-रहित
वर्ण-रहित और
गंध-रहित
अन्वय- धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं लोगोगाढं पुठ्ठे पिहुलमसंखादियपदेसं ।
अर्थ - ( उस ) धर्मास्तिकाय को (जो ) रस-रहित, वर्ण-रहित, गंधरहित, शब्द-रहित, स्पर्श-रहित, लोक में व्याप्त, ( सब ओर) पहुँचा हुआ, (तथा) फैला हुआ असंख्यात प्रदेशवाला ( है ) ( उसको ) (तुम जानो)।
नोट
संपादक द्वारा अनूदित
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - 3
-अधिकार
(93)
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84. अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं।
गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्ज।।
सदैव
णिच्वं
शाश्वत
अगुरुगलघुगेहिं (अगुरुगलघुग) 3/2 वि अगुरुलघुगुणों से युक्त सया
अव्यय तेहिं (त) 3/2 सवि
उन अणंतेहिं (अणंत) 3/2 वि
अनन्त परिणदं (परिणद) भूकृ 1/1 अनि रूपान्तरित/परिवर्तित
(णिच्च) 1/1 वि गदिकिरियाजुत्ताणं [(गदि)-(किरिया)(जुत्त) भूकृ 4/2 अनि] गमन क्रिया से युक्त
(जीव और पुद्गलों) के
लिए कारणभूदं [(कारण)-(भूद) कारण हुआ
भूकृ 1/1 अनि] सयमकज्ज [(सयं)+(अकज्ज)]
सयं (अ) = स्वयं स्वयं अकज्ज (अकज्ज) 1/1 वि किसी कारण का
परिणाम नहीं (किसी
से उत्पन्न नहीं) अन्वय- तेहिं अणंते हिं अगुरुगलघुगेहिं सया परिणदं णिच्वं गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्ज।
अर्थ- (धर्म द्रव्य) उन अनन्त अगुरुलघुगुणों से युक्त सदैव रूपान्तरित/ परिवर्तित (होता है), (वह) शाश्वत (है), गमन क्रिया से युक्त (जीव और पुद्गलों) के लिए कारण हुआ (है) (किन्तु) स्वयं किसी कारण का परिणाम नहीं (है) अर्थात् किसी से उत्पन्न नहीं है।
(94)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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85. उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकर हवदि लोए।
तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि।।
उदयं
जल
जह
जैसे मछलियों के लिए
मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं
गमन में उपकारी
(उदय) 1/1 अव्यय (मच्छ) 4/2 [(गमण)+(अणुग्गहकरं)] [(गमण)-(अणुग्गहकर)
1/1 वि] (हव) व 3/1 अक (लोअ) 7/1 अव्यय [(जीव)-(पुग्गल) 4/2]
होता है
लोक में
वैसे ही जीव और पुद्गलों के
जीवपुग्गलाणं
लिए
धम्म
धर्म
दव्वं
(धम्म) 2/1 (दव्व) 2/1 (वियाण) विधि 2/1 सक
द्रव्य को जानो
वियाणेहि
____ अन्वय- लोए जह मच्छाणं उदयं गमणाणुग्गहकरं हवदि तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि।
___ अर्थ- लोक में जैसे मछलियों के लिए जल गमन में उपकारी होता है वैसे ही जीव और पुद्गलों के लिए धर्म द्रव्य को जानो।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(95)
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86.
जह
हवदि धम्मदव्वं
जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु
पुढवीव ।।
अव्यय
( हव) व 3 / 1 अक
[ ( धम्म ) - (दव्व) 1 / 1]
अव्यय
(त) 2/1 सवि (जाण) विधि 2/1 सक [(दव्वं) + (अधमक्खं) ] दव्वं (दव्व) 2/1 अधमक्खं (अधमक्खा) 2/1 fa ठिदिकिरियाजुत्ताणं [ ( ठिदि) - (किरिया ) -
(जुत्त) भूकृ 4 / 2 अनि ]
तह
तं
जाणेह दव्वमधमक्खं
कारणभूदं
तु पुढवीव
1.
*
(96)
[(कारण) - (भूद) भूकृ 1 / 1 अनि ]
अव्यय
[(पुढवी) + (इव)] पुढवी* (पुढवी) 6/1 इव (अ) = समान
1
जैसे
होता है
धर्म द्रव्य
वैसे ही
उस
जानो
द्रव्य को अधर्म-नामवाले/
नामक
ठहरने की क्रिया-युक्त (जीव और पुद्गलों) के
लिए
कारण हुआ
अन्वय- जह धम्मदव्वं हवदि तह तं दव्वमधमक्खं जाणेह ठिदिकिरियाजुत्ताणं तु पुढवीव कारणभूदं ।
अर्थ- जैसे धर्म द्रव्य होता है वैसे ही उस अधर्म नामवाले/नामक द्रव्य को जानो। ठहरने की क्रिया - युक्त (जीव और पुद्गलों) के लिए पृथ्वी के समान कारण हुआ ( है ) ।
पादपूरक
पृथ्वी के
समान
समास के अन्त में अर्थ होता है नामवाला या नामक ।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517 )
पंचास्तिकाय (खण्ड- 1 ) द्रव्य - 3
-अधिकार
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87. जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य॥
जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो
उत्पन्न हुआ अलोक और लोक जिनके अस्तित्व से
(जा) भूकृ 1/1 [(अलोग)-(लोग) 1/1] (ज) 6/2 सवि (सब्भाव) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय अव्यय [(गमण)-(ठिदि) 1/2] अव्यय अव्यय (मय) भूकृ 1/2 अनि (विभत्त) भूकृ 1/2 अनि (अविभत्त) भूकृ 1/2 अनि (लोयमेत्त) 1/2 वि अव्यय
तथा गमन और स्थिति दोनों ही
गमणठिदी दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता
और
माने गये भिन्न अभिन्न लोकमात्र और
अन्वय- जेसिं सब्भावदो अलोगलोगो जादो य गमणठिदी दो वि विभत्ता य अविभत्ता मया य लोयमेत्ता।
अर्थ-जिन (धर्म और अधर्म द्रव्य) के अस्तित्व से लोक और अलोक उत्पन्न हुआ (है) तथा (जिनसे) गमन और स्थिति (होती है) (वे) दोनों ही (स्वभाव अपेक्षा) भिन्न और (प्रदेश अपेक्षा) अभिन्न माने गये (हैं) और लोकमात्र (असंख्यात प्रदेशी) (है)।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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88. ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गदिस्स य पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च॥
और
गच्छदि धम्मत्थी गमणं
गति करता है धर्मास्तिकाय गमन
M
करेदि अण्णदवियस्स
करता है अन्य द्रव्यों में
अव्यय अव्यय (गच्छ) व 3/1 सक (धम्मत्थि) 1/1 वि (गमण) 2/1 अव्यय (कर) व 3/1 सक [(अण्ण) वि-(दवियस्स) 6/1+7/1] (हव) व 3/1 अक (गदि) 6/1-7/1
अव्यय (पसर) 1/1 (जीव) 6/2 (पुग्गल) 6/2 अव्यय
हवदि
होता है गति में
गदिस्स य पसरो जीवाणं पुग्गलाणं
पादपूरक फैलाव जीवों की पुद्गलों की और
अन्वय- धम्मत्थी ण गच्छदि य ण अण्णदवियस्स गमणं करेदि जीवाणं च पुग्गलाणं गदिस्स पसरो हवदि य।
अर्थ- धर्मास्तिकाय न (तो) (स्वयं) गति करता है और न अन्य द्रव्यों में गमन (उत्पन्न) करता है। (इससे) जीवों और पुद्गलों की गति में फैलाव होता
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। __(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134)
(98)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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89. विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि।
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।।
विज्जदि
जेसिं
होता है जिनका
गमणं
गमन
ठाणं
ठहरना फिर
तेसिमेव
उनका
(विज्ज) व 3/1 अक (ज) 6/2 सवि (गमण) 1/1 (ठाण) 1/1 अव्यय [(तेसिं) + (एव)] तेसिं (त) 6/2 सवि एव (अ) = ही (संभव) व 3/1 अक (त) 1/2 सवि [(सग) वि-(परिणाम) 3/2] अव्यय (गमण) 2/1 (ठाण) 2/1 अव्यय (कुव्व) व 3/2 सक
संभवदि
घटित होता है
ते
सगपरिणामेहि
गमणं
स्व परिणमन से किन्तु गमन ठहरना
और करते हैं
ठाणं
कुव्वंति
अन्वय- जेसिं गमणं विज्जदि पुण तेसिमेव ठाणं संभवदि दु ते सगपरिणामेहिं गमणं च ठाणं कुव्वंति।
___अर्थ- जिन (जीव और पुद्गलों) का गमन होता है फिर उन (जीव और पुद्गलों) का ही ठहरना घटित होता है, किन्तु वे स्व परिणमन से ही गमन और ठहरना करते हैं।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(99)
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90. सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च।
जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं।।
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं
समस्त जीवों के लिए शेष (द्रव्यों) के लिए वैसे ही
और पुद्गलों के लिए पादपूरक
पुग्गलाणं
(सव्व) 4/2 सवि (जीव) 4/2 (सेस) 4/2 अव्यय अव्यय (पुग्गल) 4/2 अव्यय (ज) 1/1 सवि (दे) व 3/1 सक [(विवरं)+ (अखिलं] विवरं (विवर) 2/1 अखिलं (अखिल) 2/1 वि (त) 1/1 सवि (लोअ) 7/1 (हव) व 3/1 अक (आयास) 1/1
देता है
विवरमखिलं
लोए हवदि आयासं
स्थान पूरा वह लोक में होता है आकाश
अन्वय- सव्वेसिं जीवाणं तह सेसाणं य पुग्गलाणं च जं विवरमखिलं देदि तं लोए आयासं हवदि।
अर्थ- (जैसे) सब जीवों के लिए वैसे ही शेष (धर्म, अधर्म और काल द्रव्यों) के लिए और पुद्गलों के लिए जो पूरा स्थान देता है, वह लोक में आकाश होता है।
(100)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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________________
91. जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा।
तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं।।
जीवा पुग्गलकाया
धम्माधम्मा
अव्यय
लोगदोणण्णा
(जीव) 1/2
जीव [(पुग्गल)-(काय) 1/2] पुद्गल-समूह [(धम्म)-(अधम्म) 1/2] धर्म, अधर्म द्रव्य
और [(लोगदो)+(अणण्णा)] लोगदो (लोग) 5/1 लोक से पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय अणण्णा (अणण्ण) 1/2 वि अभिन्न/अपृथक (त) 5/1 सवि उससे [(अण)+(अण्णं)+ (अण्णं)] अण (अ) = नहीं अण्णं (अण्ण) 1/1 वि अन्य अण्णं (अण्ण) 1/1 वि अन्य (आयास) 1/1
आकाश [(अंत)-(वदिरित्त) 1/1 वि] अंत से वियुक्त (रहित)
तत्तो
अणण्णमण्ण
आयासं अंतवदिरित्तं
अन्वय- जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा आयासं तत्तो अणण्णमण्णं अंतवदिरित्त।
अर्थ- जीव, पुद्गलसमूह, धर्म और अधर्म द्रव्य लोक से अभिन्न/अपृथक (है)। (लोकवाला) आकाश (भी) उस (लोक) से अन्य नहीं (है), (किन्तु) (लोक से) अन्य (आकाश) (अलोकाकाश) अंत से वियुक्त (रहित) (है)।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(101)
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92.
आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि। उडुंगदिप्पधाणा सिद्धा चिटुंति किध तत्थ।।
आकाश द्रव्य
आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहि
ठौर
गमन और स्थिति के
आधार में
।
देदि
प्रदान करता है
(आगास) 1/1 (अवगास) 2/1 [(गमण)-(द्विदि)(कारण) 3/2→7/2] (दे) व 3/1 सक अव्यय [(उढं) अ (गदि)(प्पधाण) 1/2 वि] (सिद्ध) 1/2 (चिट्ठ) व 3/2 अक
जदि
यदि
उड्डंगदिप्पधाणा
सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ
ऊपर की ओर गमन करने में प्रमुख सिद्ध/मुक्त ठहरते हैं कैसे
अव्यय
अव्यय
वहाँ
अन्वय- जदि आगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं अवगासं देदि उड्डेगदिप्पधाणा सिद्धा तत्थ किध चिट्ठति।
अर्थ- यदि आकाश द्रव्य गमन और स्थिति के आधार में ठौर प्रदान करता है (तो) ऊपर की ओर गमन करने में प्रमुख सिद्ध/मुक्त (जीव) वहाँ (लोक के अग्रभाग में) कैसे ठहरेंगे? 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 2. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता
(102)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #110
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93. जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति।
अव्यय
चूँकि
जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं
ऊपर, स्थान सिद्धों का जिनवरों के द्वारा कहा गया इसलिए गति और स्थिति आकाश के कारण जानो
तम्हा
[(उवरि) अ-(ट्ठाण) 1/1] (सिद्ध) 6/2 (जिणवर) 3/2 (पण्णत्त) भूकृ 1/1 अनि अव्यय [(गमण)-(ट्ठाण) 1/1] (आयास) 7/1+3/1 (जाण) विधि 2/1 सक [(णत्थि)+ (इति)] णत्थि (अ) = नहीं है इति (अ) = इस प्रकार
गमणट्ठाण आयासे
जाण णत्थि त्ति
नहीं है इस प्रकार
अन्वय- जम्हा सिद्धाणं उवरिट्ठाणं तम्हा गमणट्ठाणं आयासे णत्थि त्ति जिणवरेहिं पण्णत्तं जाण।
. अर्थ- चूँकि सिद्धों का (निवास) स्थान (लोक के) ऊपर (है) इसलिए गति और स्थिति आकाश (द्रव्य) के कारण नहीं है। इस प्रकार जिनवरों के द्वारा कहा गया (है) (तुम) जानो। 1. यहाँ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग तृतीया अर्थ में हुआ है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(103)
Page #111
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94. जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं।
पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिवुड्डी।।
जदि
हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं
अव्यय
__यदि (हव) व 3/1 अक होता है [(गमण)-(हेदु) 1/1] गति का कारण (आगास) 1/1
आकाश द्रव्य [(ठाण)-(कारण) 1/1] ठहरने का कारण (त) 4/2 सवि उनके लिए (पसज) व 3/1 अक होता है [(अलोग)-(हाणि) 1/1] अलोकाकाश का
अभाव (लोग) 6/1
लोक की अव्यय
और [(अंत)-(परिवुड्डि) 1/1] चरम सीमा की बढ़ोतरी
पसजदि
अलोगहाणी
लोगस्स
अंतपरिवुड्डी
अन्वय- जदि आगासं तेसिं गमणहेदू ठाणकारणं हवदि लोगस्स अंतपरिवुड्डी य अलोगहाणी पसजदि।
अर्थ- यदि आकाश द्रव्य उन (जीव और पुद्गलों) के लिए गति का कारण (या) ठहरने का कारण होता है (तो) लोक की (प्रतिपादित) चरम सीमा की बढ़ोतरी (माननी होगी) और (उस कारण से) अलोकाकाश का अभाव हो जायेगा।
(104)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #112
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95. तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं।
इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणताणं।।
तम्हा
इसलिए
गति और स्थिति में कारण
णागासं
अव्यय धम्माधम्मा [(धम्म)-(अधम्म) 1/2] गमणट्टिदिकारणाणि [(गमण)-(छिदि)
(कारण) 1/2] [(ण)+(आगासं)] ण (अ) = नहीं आगासं (आगास) 1/1
अव्यय जिणवरेहिं (जिणवर) 3/2 भणिदं . (भण) भूकृ 1/1 लोगसहावं [(लोग)-(सहाव) 1/1]
(सुण) वकृ 4/2
नहीं आकाश द्रव्य इस प्रकार जिनवरों के द्वारा कहा गया लोक-स्वभाव सुनते हुए (श्रद्धालुओं) के लिए
सुणंताणं
अन्वय- तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि आगासं ण इदि जिणवरेहिं सुणंताणं लोगसहावं भणिदं।
अर्थ- इसलिए धर्म, अधर्म द्रव्य (क्रमशः) गति और स्थिति में कारण (है) (तथा) आकाश द्रव्य (गति और स्थिति में कारण) नहीं (है)। इस प्रकार जिनवरों के द्वारा सुनते हुए (श्रद्धालुओं) के लिए लोक-स्वभाव कहा गया (है)। नोटः यहाँ ‘सहाव' शब्द नपुंसकलिंग की तरह प्रयुक्त हुआ है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(105)
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96. धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा।
पुधगुवलद्धिविसेसा करेन्ति एगत्तमण्णत्तं।।
धम्माधम्मागासा
[(धम्म)-(अधम्म)- धर्म, अधर्म और
(आगास) 1/2] आकाश द्रव्य अपुधब्भूदा [(अपुध)-(भूद) अभिन्न बने हुए
भूक 1/2 अनि समाणपरिमाणा [(समाण)-(परिमाण) 5/1] समान परिमाण के
कारण पुधगुवलद्धिविसेसा [(पुधग) वि-(उवलद्धि)- पृथक गुण के कारण
(विसेस) 1/2 वि विशिष्ट करेन्ति (कर) व 3/2 सक (उत्पन्न) करते हैं एगत्तमण्णत्तं [(एगत्तं)+(अण्णत्तं)]
एगत्तं (एगत्त) 2/1 एकरूपता को अण्णत्तं (अण्णत्त) 2/1 पृथकता को
अन्वय- धम्माधम्मागासा समाणपरिमाणा अपुधब्भूदा पुधगुवलद्धिविसेसा एगत्तं अण्णत्तं करेन्ति।
अर्थ- धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य समान परिमाण के कारण अभिन्न बने हुए (हैं) (तथा) पृथक गुण के कारण विशिष्ट (हैं) (इसलिए) (वे) (परिमाण के कारण) एकरूपता को (और) (गुण के कारण) पृथकता को (उत्पन्न) करते हैं।
नोटः
संपादक द्वारा अनूदित
(106)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #114
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1. इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं । अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं ।।
2.
3.
4.
5.
6.
7.
मूल पाठ
8.
समणमुहुग्गदमट्टं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं । एसो पणमिय सिरसा समयमियं सुणह वोच्छामि ।।
समवाओ पंचण्हं समओ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं ।।
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं । अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ।।
जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहि सह पज्जएहि विविहेहि । ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहि तइलोक्कं ।।
ते चैव अस्थिकाया तेक्कालियभावपरिणदा णिच्चा । गच्छंत दवियभावं
परियट्टणलिंगसंजुत्ता।।
अण्णोणं पविसंता देंता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति । ।
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ।।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - अधिकार
(107)
Page #115
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________________
9. दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भाव-पज्जयाई जं।
दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो।।
10. दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्ह।।
11. उप्पत्तीव विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो।
विगमुप्पाद-धुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।।
12. पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूवेंति।।
13. दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि।
अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा।।
14. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं।
दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि।।
15. भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति।।
16. भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा।
(108)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #116
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________________
17. मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा।
उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो।।
18. सो चेव जादि मरणं जादि ण णट्ठो ण चेव उप्पण्णो।
उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसो त्ति पज्जाओ।।
19. एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो।
तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो।।
20. णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठ अणुबद्धा।
तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो।।
21. एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च।
गुणपज्जयेहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो।।
22. जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइया सेसा।
अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स।।
23. सब्भावसभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च।
परियंट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो।।
24.
ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्टफासो य। अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।।
चास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(109)
Page #117
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25. समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती।
मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो॥
26. णत्थि चिरं वा खिप्पं मत्तारहिदं तु सा वि खलु मत्ता।
पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्चभवो।
27. जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता।
भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो।।
28. कम्ममलविप्पमुक्को उड़े लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाणदरसी लहदि सुहमणिंदियमणंत।।
29. जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य। .
पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं सगममुत्तं।। .
30. पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं।
सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो।।
31. अगुरुलहुगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे।
देसेहिं असंखादा सियलोगं सव्वमावण्णा।।
32. केचित्तु अणावण्णा मिच्छादसणकसायजोगजुदा।
विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा।।
(110)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #118
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33. जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं ।
तह देही देहत्थो सदेहमेत्तं पभासयदि ।
34. सव्वत्थ अस्थि जीवो ण य एक्को एक्ककाए एक्कट्ठो । अज्झवसाणविसिट्ठो चेट्ठदि मलिणो रजमलेहिं । ।
35. जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।।
36. ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो सिद्धो । उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि । ।
37. सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च । विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे ।।
38. कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जं तु णाणमध एक्को । चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहेण ।।
39. सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं । पाणित्तमदिक्कंता णाणं विंदंति ते जीवा ।।
40. उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो । जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ।।
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
(111)
Page #119
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________________
41. आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुमदिसुदविभंगाणि यतिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते । ।
42. दंसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं । अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ।।
43.
ण वियप्पदि णाणादो णाणी णाणाणि होंति णेगाणि । तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियं ति णाणीहि । ।
44. जदि हवदि दव्वमण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे । दव्वाणंतियमधवा दव्वाभावं
पकुव्वंति।।
45. अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं । णेच्छंति णिच्चयण्हू तव्विवरीदं हि व तेसिं । ।
46. ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा । ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते ।।
47. णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाणिणं च दुविधेहिं । भण्णंति तह पुधत्तं यत्तं चावि तच्चहू ।।
48. णाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदा द अण्णमण्णस्स । दु दोहं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ।।
(112)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - 3
-अधिकार
Page #120
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49.
ण हि सो समवायादो अत्थंदरिदो द णाणादो णाणी । अण्णाणि त्तिय वयणं एगत्तपसाधगं होदि ।।
50. समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो य अजुदसिद्धो य । तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिद्दिट्ठा ||
51. वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा विसेसेहि। दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा होंति । ।
52. दंसणणाणाणि जहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि । ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो ||
53. जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो । सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य।।
54. एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होड़ उप्पादो । इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं । ।
55. णेरइयतिरियमणुया देवा इदि णामसंजुदा पयडी । कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ।।
56. उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा।।
पंचास्तिकाय (खण्ड
-
द्रव्य-अधिक
(113)
Page #121
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57. कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं।
सो तेण तस्स कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं ॥
58. कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा।
खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।।
59. भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता।
ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सगं भावं।।
60. भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि।
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं।।
61. कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स।
ण हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ।।
62. कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं।
जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण।।
63. कम्मं कम्मं कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं।
किध तस्स फलं भुंजदि अप्पा कम्मं च देदि फलं।।
64. ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो।
सुहमेहिं बादरेहिं य णंताणतेहिं विविधेहि।।
(114)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #122
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________________
65. अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावहिं।
गच्छंति कम्मभावं अण्णण्णोगाहमवगाढा।।
66. जह पुग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती।
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणीहि।।
67. जीवा पुग्गलकाया अण्णण्णोगाढगहणपडिबद्धा।
काले विजुज्जमाणा सुहदुक्खं देंति भुंजंति॥
68. तम्हा कम्मं कत्ता भावेण हि संजुदोध जीवस्स।
भोत्ता दु हवदि जीवो चेदगभावेण कम्मफलं।।
69. एवं कत्ता भोत्ता होज्जं अप्पा सगेहिं कम्मेहिं।
हिंडदि पारमपारं संसारं मोहसंछण्णो।।
70. उवसंतखीणमोहो मगं जिणभासिदेण समुवगदो।
णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि धीरो।।
71. एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो होदि। - चदु-चंकमणो भणिदो पंचग्गगुणप्पधाणो य॥
72. छक्कापक्कमजुत्तो उवउत्तो सत्तभंगसब्भावो।
अट्ठासओ णवठ्ठो जीवो दसठाणगो भणिदो।।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(115)
Page #123
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________________
73. पयडिटिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को।
उडुं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदिं जंति।।
74. खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू।
इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा।।
75. खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्ध भणंति देसो त्ति।
अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।।
76. बादरसुहुमगदाणं खंधाणं पुग्गलो त्ति ववहारो।
ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं।।
77. सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू। .
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो।।
78. आदेसमेत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु।
सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसदो।।
79. सद्दो खंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो।
पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादगो णियदो।।
80. णिच्चो णाणवकासो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता।
खंधाणं पि य कत्ता पविहत्ता कालसंखाणं।।
(116)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #124
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________________
81. एयरसवण्णगंधं दोफासं सद्दकारणमसहं।
खंधंतरिदं दव्वं परमाणुं तं वियाणेहि।।
82. उवभोज्जमिंदिएहि य इंदियकाया मणो य कम्माणि।
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे।।
83. धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं।
लोगोगाढं पुटुं पिहुलमसंखादियपदेसं।।
84. अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं।
गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्ज।।
85. उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए।
तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि।।
86. जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव।।
87. जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य।।
88. ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गदिस्स य पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(117)
Page #125
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________________
89. विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि।
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।।
90. सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च।
जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं।।
91. जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा।
तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्त।।
92. आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि।
उडुंगदिप्पधाणा सिद्धा चिटुंति किध तत्थ।।
93. जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि ति।।
94. जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं।
पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिवुड्डी।।
95. तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं।
इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणताणं।।
96. धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा।
पुधगुवलद्धिविसेसा करेन्ति एगत्तमण्णत्तं।।
(118)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
संज्ञा शब्द
अंत
अचक्खु
अचेदणत्त
अज्झवसाण
अट्ठ
अणण्णत्त
अणुभाग
अण्णत्त
अत्त
अत्थ
अत्थिकाय
अथित्त
अधम्म
अप्प
अप्पाण
अर्थ
चरम सीमा
अचक्षु
अचेतनता
मानसिक संकल्प
सार तत्त्व
रूप
विवेचन
अपृथकता
अनुभाग
पृथकता
आत्मा
अर्थ
परिशिष्ट- 1
संज्ञा - कोश
अस्तिकाय
अस्तित्व
अधर्म
आत्मा
स्वरूप
स्वरूप
लिंग
गा.सं.
अकारान्त पु.
94
उकारान्त पु., नपुं. 42
अकारान्त नपुं.
48
अकारान्त नपुं.
34
अकारान्त पु., नपुं. 2
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
34
72
अकारान्त पु.
अकारान्त पु., नपुं. 56
पंचास्तिकाय (खण्ड- 1 ) द्रव्य - अधिकार
45, 46
73
45, 46, 51, 96
59, 61, 65
5,6
4, 22
4, 91, 95, 96
63, 69, 71
63
62
(119)
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
L
अयण
अवगास
ठौर
आउ
अभाव असत् पदार्थ अकारान्त पु. 15
नाश
अविद्यमान सर्वथा अस्तित्व रहित/अनुपस्थित 35 अभाव
44 अयन अकारान्त पु., नपुं. 25 अलोअ अलोक अकारान्त पु. 3 अलोग अलोक अकारान्त पु.
87, 94 अकारान्त पु. 92 आयु अकारान्त नपुं. 30 आगास आकाश अकारान्त पु., नपुं. 92, 94, 95, 96 आदि वगैरह इकारान्त पु. 20 आदेस प्रयोजन/प्रश्न-उत्तरअकारान्त पु. 14
उपदेश आभिणि मतिज्ञान इकारान्त नपुं. 41 आयास आकाश अकारान्त पु., नपुं. 4, 22, 90, 91, 93 आसअ आधार अकारान्त पु. 72 आसय आधार अकारान्त पु. 10
अकारान्त पु. 1 इंदिय/इंदिअ इन्द्रिय अकारान्त पु., नपुं. 30, 82 उच्छेद नाश अकारान्त पु. 37
ऊर्ध्व अकारान्त नपुं. 73 उदय उदय अकारान्त पु. 56, 58
अकारान्त पु., नपुं. 85
उड्ड
उदय
जल
(120)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदु
उप्पत्ति उप्पाद
उवओग उवलद्धि उवसम उस्सास एगत्त
एयत्त ओगास ओगाह ओधि ओहि कज्ज
ऋतु उकारान्त पु.,नपुं., 25
स्त्री. उत्पत्ति इकारान्त स्त्री. 11 उत्पाद अकारान्त पु. 8, 10, 11, 15,
19, 54, 55 उपयोग अकारान्त पु. 16, 27, 40 गुण
इकारान्त स्त्री. 96 उपशम
अकारान्त पु. 56,58 श्वासोच्छवास अकारान्त पु. एकत्व अकारान्त नपुं. एकरूपता
96 एकत्व अकारान्त नपुं. स्थान अकारान्त नपुं. 7 एक क्षेत्र अकारान्त पु. 65 अवधिज्ञान इकारान्त पु., स्त्री., 41 अवधिज्ञान
इकारान्त पु., स्त्री., 42 कार्य अकारान्त नपुं. 36, 39 कर्म
38 काष्ठा
आकारान्त स्त्री. 25 अकारान्त पु., नपुं. 27, 28, 38, 39,
57, 58, 59, 60, 61, 62, 63, 65,
66, 68, 69, 82 कला
आकारान्त स्त्री. कषाय
अकारान्त पु. शरीर अकारान्त पु. 34
कट्ठा
कम्म
कर्म
कला
कसाय
का
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(121)
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
काय
अकारान्त पु.
4, 64, 67, 91
समूह काय शरीर कारण
कारण
कारण
आधार
काल
काल
समय
क्रिया
काल किरिया कुमदि कुसुद केवल
कुमति
कुश्रुत केवलज्ञान
39, 82 अकारान्त नपुं. 36, 60, 78, 81,
84,86, 94, 95 अकारान्त नपुं. 22, 92 अकारान्त पु. 23, 24, 25, 26,
40, 80 अकारान्त पु. 67 आकारान्त स्त्री. 84,86 इकारान्त स्त्री. ____41 अकारान्त नपुं. ____41 अकारान्त नपुं. 41 अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. 66, 74, 75, 76,
77, 79, 80, 81 अकारान्त पु. 56 अकारान्त नपुं. 33 अकारान्त पु. 24, 51 इकारान्त स्त्री. 2, 73, 88
84, 92 अकारान्त पु., नपुं. 19 अकारान्त नपुं. 85, 87, 88, 89,
आकाश
स्कंध
खय
गमन गतिनाम
गदिणाम
गमण
गमन
92
(122)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
गमण
गहण
गति पकड़ गुण
अकारान्त नपुं. 93, 94, 95 अकारान्त नपुं. 67 अकारान्त पु., नपुं. 1,5,10,13, 15,
___16,21, 44, 45, 50 अकारान्त पु., नपुं. 53, 71
भाव आश्रित स्वभाव पहुँच
78
परिभ्रमण
गोयर चंकमण चक्खु चित्त
चिर
अका
चेद
7
चक्षु जीव दीर्घकाल चेतना आत्मा चेतना जिनेन्द्र जिन जिनेन्द्र जिनवर
चेदणा जिण
अकारान्त पु. 35 अकारान्त नपुं. 71 उकारान्त पु., नपुं. 42 अकारान्त नपुं. ___32 अकारान्त नपुं. 26 अकारान्त पु.
29 आकारान्त स्त्री. 16 अकारान्त पु. 1, 48, 70 अकारान्त पु. 3, 61 अकारान्त पु. 54
93, 95 अकारान्त पु., नपुं. 4, 16, 17, 19, 20,
21,22,23,27,30, 32,34,38,39,40, 52, 53,54,56,57, 58,62,67,68,72,
85, 88, 90, 91 अकारान्त पु., नपुं. 35
जिणवर
जीव
जीव
जीव
प्राण-धारण
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(123)
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोग
ट्ठाण
ठाण
हिदि
ठिदि
णर
णाण
णाण
णाणावरण
णाली
णास
णिमित्त
तस
तिरिय
तिहुअण
योग
स्थान
स्थिति
(124)
ठहरना
स्थिति
ठहरना
स्थिति
णिमिस
निमिष
णिव्वत्ति
उत्पादन
णिव्वाणपुर मोक्ष नगर
तडलोक्क
तीन लोक
मनुष्य
जानना
ज्ञान
ज्ञानावरण
नाली
नाश
कारण
त्रस /
दो इन्द्रियादि जीव
तिर्यंच
तीन लोक
अकारान्त पु.
32
अकारान्त पु., नपुं. 93
अकारान्त पु., नपुं. 93
अकारान्त पु., नपुं.
इकारान्त स्त्री.
इकारान्त स्त्री.
इकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
ईकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
पु. की तरह प्रयुक्त
अकारान्त पु.
इकारान्त स्त्री.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
89, 94
73, 92, 95
86
87
16
28, 38, 39
40, 41, 43, 47,
48, 49, 52, 70
20
25
15, 55
60
25
66
70
5
39
16, 55
1
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - अधिकार
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
थावर
द्रव्य
तेलोक्कतीन लोक अकारान्त नपुं. 76
. स्थावरकाय/ अकारान्त पु. 39
एकेन्द्रिय जीव दसण दर्शन अकारान्त पु., नपुं. 40, 42, 52 दविय द्रव्य अकारान्त पु., नपुं. 6, 9, 43, 88 दव्व
अकारान्त पु., नपुं. 10, 11, 12, 13,
14, 26, 44, 45, 50, 51, 66, 81,
85, 86 दश्व वस्तु अकारान्त पु., नपुं. 14
अकारान्त पु., नपुं. 67 अकारान्त पु., नपुं. 17, 18, 19, 55 अकारान्त पु. 31
74,75 अकारान्त पु., नपुं. 27, 35 इकारान्त पु. 17, 33
अकारान्त नपुं. 47 धम्म
अकारान्त पु., नपुं. 4, 85, 86, 91, 95,
दुक्ख
9 HREF
धम्मत्थि धर्मास्तिकाय । धम्मत्थिकाय धर्मास्तिकाय धादु धातु धुवत्त ध्रौव्यता
अकारान्त पु. अकारान्त पु. उकारान्त पु. अकारान्त नपुं.
10,
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(125)
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
8, 18
11
प्रकृति
धुवत्ता ध्रौव्यता
आकारान्त स्त्री. 8 पउमराय लाल अकारान्त पु. 33 पज्जअ/पज्जय पर्याय
अकारान्त पु.
5, 9, 10, 12,
15, 16, 21 पज्जाय/ पर्याय
अकारान्त पु. पज्जाअ पर्याय/परिणमन अकारान्त पु. पदेस प्रदेश अकारान्त पु. 74, 75, 80, 83 पयडि
इकारान्त स्त्री. 55, 73 पयत्थ पदार्थ अकारान्त पु. 8 परमाणु परमाणु उकारान्त पु. 51, 74, 75, 77,
78, 79, 81 परिणाम स्वभाव अकारान्त पु. 56 परिणाम/परिणमन
78, 89 परिमाण परिमाण अकारान्त नपुं. 96 परियट्टण परिमाण
अकारान्त नपुं. 6, 23 परिवुडि
बढ़ोतरी इकारान्त स्त्री. 94 पसर
अकारान्त पु. 88
उकारान्त पु. 27 प्राण अकारान्त पु., नपुं. 30 पाणित्त प्राणीपन/ अकारान्त नपुं. 39
प्राणित्व पार
अकारान्त पु. 69 पुद्गल अकारान्त पु., नपुं. 4,22, 66, 67,76,
82, 85,88,90,91
फैलाव
प्रभु
पाण
समुद्र
पुग्गल
(126)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुग्गलकाय पुढवी
पुधत्त
पोग्गल
प्पदेस
प्पभव
प्पयार
फल
སྦྲ ཐྭ ཨྰཿ ཤྲཱ སྒྲ
बंध
भव
भाव
पुद्गलास्तिकाय
पृथ्वी
पृथकत्व
पृथकता / भेदभाव
पुद्गल
प्रदेश
उत्पन्न
(समास के अन्त में)
भेद
प्रकार
फल
स्पर्श
बंध
बल
व्यय
कथन
संसार
भाव
पर्याय
स्वभाव
भाव
74
86
47
52
अकारान्त पु., नपुं. 23, 26, 61, 64,
65
73
79
अकारान्त पु.
ईकारान्त स्त्री.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
66
76
अकारान्त पु., नपुं. 38, 39, 63, 68
अकारान्त पु., नपुं. 24, 51, 81
अकारान्त पु.
73
अकारान्त पु.
30
अकारान्त पु.
8
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
122
72
1
77
6, 55
6
12, 13, 53, 57,
58, 59, 60, 61,
68
(127)
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
पदार्थ
मण
म
भाव सत् पदार्थ अकारान्त पु. 15
15, 16, 17 द्रव्यकर्म विद्यमान उत्पत्ति स्वरूप/अस्तित्व प्रकृति रीति प्रकार अकारान्त पु., न. 41
मार्ग अकारान्त पु. 70 मच्छ मछली अकारान्त पु. 85
मनःपर्ययज्ञान अकारान्त पु., नपुं. 41 मन
अकारान्त पु. 82 मणुय मनुष्य ___ अकारान्त पु. 55 मणुस मनुष्य अकारान्त पु. 18, 19 मणुसत्तण मनुष्यता अकारान्त नपुं. 17 मत्ता
परिमाण आकारान्त स्त्री. 26
मरण अकारान्त पु., नपुं. 18 मल
अकारान्त पु.,नपुं. 28, 34 मास
मास अकारान्त पु. 25 मिच्छादसण मिथ्यादर्शन अकारान्त नपुं. 32 मुह
अकारान्त नपुं. 2 मेत्त
अकारान्त नपुं. 78
अकारान्त पु. 69, 70 (128)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
मरण
मैल
मुख
मोह
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
रयण
रस
रासि
समूह
रूव
प्रकार
प्रकार
लक्खण लिंग लोअ
लक्षण
लोक लोक
अकारान्त पु., नपुं. 34 इकारान्त स्त्री. 25 अकारान्त पु., नपुं. 33 अकारान्त पु., नपुं. 24, 51, 81 इकारान्त पु., स्त्री.38 अकारान्त पु., नपुं. 43 अकारान्त पु., नपुं. 71 अकारान्त नपु. 6 अकारान्त पु. 3, 85 अकारान्त पु. 22, 28, 29, 31,
64, 83, 87 अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 1 इकारान्त स्त्री. 35 आकारान्त स्त्री. 24 अकारान्त पु. 24, 51, 81 अकारान्त पु., नपुं. 49
.. लोग
.लोय
लोक
87
व
व्यय
15
वक्क वचि
वचन वाणी वर्तना
वट्टणा
वण्ण
वर्ण
वयण
कथन वचन
ववदेस
नाम
अकारान्त पु.
कथन
विगम
11
ववहार व्यवहार अकारान्त पु.
विनाश अकारान्त पु. विणास विनाश
अकारान्त पु. नाश पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
11, 19
(129)
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
विदिसा विध विभंग
विदिशा प्रकार कुअवधि
आकारान्त स्त्री. 73 अकारान्त पु. . 47 अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. 42
वियप्प
विसय
विषय
उद्देश्य
विशेष
विसेस विह
प्रकार
व्यय
व्वय व्वियप्प
अकारान्त पु., नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त पु. 10 अकारान्त पु. 74 आकारान्त स्त्री.
प्रकार
संखा
सख्या
गणना
मेल
संग संघाद संठाण संवच्छर संसार सत्तभंग
संसार
अकारान्त पु., नपुं. समूह अकारान्त पु. संरचना/आकार अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
____ अकारान्त पु. 69 सात वाक्य अकारान्त पु. 14 सत्ता आकारान्त स्त्री. 8, 9 शब्द अकारान्त पु., नपुं. 79, 81 स्वभाव अकारान्त पु. 9, 53, 72 अस्तित्व अकारान्त पु. 11, 23, 37, 87 स्वभाव अकारान्त पु. 7, 23, 52, 65
सत्ता
सद्द
सब्भाव
सभाव
(130)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
65
3, 25
समण
सभाव अपनी प्रकृति अकारान्त पु. समअ/समय समय अकारान्त पु.
सिद्धान्त अकारान्त पु. श्रमण
अकारान्त पु. ____2, 12 समवत्ति साथ-साथ रहना इकारान्त पु. समवाअ समूह अकारान्त पु.
समवाय (घनिष्ट संबंध) समवाय
अविच्छिन्न संयोग अकारान्त पु. सहाअ स्वभाव अकारान्त पु. सहाव स्वभाव अकारान्त पु. 35, 61, 62, 95 सासण आगम
अकारान्त नपुं. 57 सिद्धि वैधता इकारान्त स्त्री. 50 श्रुतज्ञान अकारान्त नपुं.
___41 सुर
अकारान्त पु. 16 सुख अकारान्त नपुं. 28, 29, 67 हाणि
अभाव इकारान्त स्त्री. 94 कारण अकारान्त पु. 94
अनियमित संज्ञा
सिरसा 3/1 सिर से
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(131)
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रिया-कोश अकर्मक
क्रिया
अर्थ
गा.सं.
अस
रहना
34
चिट्ठ
92
34
18
17, 79
30
णस्स
17
पसज
ठहरना रहना उत्पन्न होना उत्पन्न होना जीना नष्ट होना प्राप्त होना होना विद्यमान होना होना संभव होना प्रकट होना घटित होना होना
विज्ज
46, 58
89
संभव
13
14
हव
3, 8, 13, 17, 20, 27, 44, 57, 60, 68, 85, 86, 90,
ना
हा
5, 35, 36, 43, 46, 49, 51, 54, 59, 71, 74, 76 69
होज्ज
(132)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रिया-कोश सकर्मक
अर्थ
गा.सं.
स्वीकार करना
45
उत्पन्न करना
36
क्रिया इच्छ उप्पाद कर कुण कुव्व
करना
11, 57, 63, 88, 96 21, 59, 65
करना
बनाना
47
करना
52, 55, 62, 63, 89 6, 65
गच्छ
प्राप्त करना
प्राप्त करना
गमन करना गति करना
जा
प्राप्त करना
जाण
जुज्ज दविय
करना जानना
82, 86, 93 जोड़ना
37 गति करना देना
63, 67, 90 प्रदान करना करना
15 हासिल/प्राप्त करना प्रकाशित करना (प्रेरणार्थक) 33 प्रतिपादित करना 12
92
पकुव्व
AA
पभासय
परूव
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(133)
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
भण
कहना
भण्ण
कहना
75 10, 47. 63, 67
28
भोगना रखना जाना अनुभव करना
वज
70
39
विंद विजह
छोड़ना
संशय करना
वियप्प वियाण वोच्छ
जानना
77, 81, 85
कहना
हिंड
सुनना भ्रमण करना
अनियमित क्रिया चेदयदि अनुभव करना पप्पोदि प्राप्त करना ___29 वियाणीहि जानना
40, 66
__38
1.
अनियमित कर्मवाच्य कहा जाता है
9
भण्णंते
(134)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृदन्त शब्द
अधि
किच्चा
पण म
मुत्ता
अंतरिद
अ-कद
अणुबद्ध
अण्णभूद
अदीद
अवमद
अविभत्त
अविरुद्ध
आवण्ण
इय
उप्पण्ण
उवउत्त
ओगाढ
अर्थ
पहुँच कर
करके
प्रणाम करके
छोड़कर
प्राप्त हुआ
ज्ञात
घटित
कृदन्त-कोश संबंधक कृदन्त
भेद किया हुआ भूकृ
नहीं किया हुआ भूकृ
बाँधा हुआ
पृथक हुआ
पार किया हुआ
कृदन्त
संकृ अनि
संकृ अनि
संक्र
संकृ अनि
भूतकालिक कृदन्त अनि
उत्पन्न हुआ
चित
व्याप्त
भूक अनि स्वीकृत भूक अनि
अभिन्न
भूक अनि
अविरोध
अनि
भूक अनि
भूक अनि
भूकृ
भूक अनि
भूक
भूकृ
अनि
पंचास्तिकाय (खण्ड- 1 ) द्रव्य - अधिकार
भूकृ
अनि
भूक अनि
भूक अनि
गा.सं.
28
20
2
59
1 2 3 1 0 5 39
81
66
20
52
35
48
87
54
31, 32
16
44
18, 36
72
83
(135)
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
कद
खित्त गद
भूकृ अनि भूकृ अनि भूक अनि भूक अनि
58 33 65 76
जाद
किया गया डाला हुआ स्थित विभाजित हुआ उत्पन्न हुआ जीत लिया जीया संयुक्त
जिद
भूक अनि
जीविद
जुत्त
भूकृ अनि
युक्त
72, 84,86 32,39
17, 18
ण? णिचिद
णिद्दिष्ट
युक्त सहित नष्ट हुआ भरा हुआ प्रतिपादित किया गया संपन्न संयुक्त
णिप्पण्ण णिबद्ध णियद
दिट्ठ
पडिबद्ध पढिद पण्णत्त
निश्चित देखा गया संबद्ध कहा गया कहा गया
भूक अनि
3, 23, 42, 93
(136)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिणद
परूविद पविहत्त
परिवर्तित हुआ भूकृ अनि रूपान्तरित रूपान्तरित/परिवर्तित कहा गया भूक भिन्न किया
भूक अनि पहुँचा हुआ छुआ हुआ कहा गया कहा गया उपदिष्ट
भूकृ अनि
भणिद
54, 71, 72, 95
भणिय भासिद भिण्ण ब्भूद
विछिन्न
बना हुआ बना हुआ हुआ माना गया मिला हुआ
9, 12, 22 40, 60, 84, 86
मिस्सिद मुक्क रहिद
भूक अनि
26
बिना वंदित
वंदिय ववगद विजुद विजुत्त विण?
रहित
रहित ___नष्ट हुआ
भूकृ अनि भूक अनि
12, 32 12 18
18
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(137)
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
वित्थिण्ण
56
विप्पमुक्क
28
भिन्न
विभत्त विरुद्ध
भूकृ अनि
विसिट्ठ
विस्तार लिया भूकृ अनि हुआ छुटकारा पाया भूक अनि हुआ
भूक अनि विरोध
भूकृ अनि परिभाषित ___ भूकृ अनि आच्छादित भूकृ अनि युक्त सहित सम्मिलित हुआ युक्त भूकृ अनि
युक्त
27
विसेसिद संछण्ण संजुत्त
भूकृ अनि
6, 10, 27
संजुद
संयुक्त
संभूद
उपस्थित रहा मिले हुए/
भूकृ अनि भूकृ अनि
समत्थ
संयुक्त
समुवगद
।
भली प्रकार से भूकृ अनि गया सहित
भूकृ अनि
सहिय
(138)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
विधि कृदन्त
उवभोज्ज णे मुणेयव्व
भोगे जाने योग्य विधिकृ अनि 82 जानने योग्य विधिकृ अनि 78 समझा जाना विधिकृ
61, 74 चाहिये
वर्तमान कृदन्त
कुव्वं
वक
करता हुआ वकृ अनि देंत
देता हुआ पविसंत प्रवेश करता वकृ
हुआ मिलन्त मिलता हुआ वक विजुज्जमाण अलग होता वकृ
हुआ वेदयमाण भोगता हुआ वकृ अनि संसरमाण परिभ्रमण करता वकृ
हुआ सुणंत सुनता हुआ वक
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(139)
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंत
1
विशेषण-कोश शब्द अर्थ
गा.सं. अन्त
1, 28, 53, 91 अंतिम अकज्ज परिणाम-नहीं (उत्पन्न नहीं)84 अखिल पूरा
90 अगंध गंध-रहित अगुरुगलघुग अगुरुलघुगुण से युक्त अगुरुलहुग अगुरुलघुगुण-संयुक्त अगुरुलहुग अगुरुलघुगुण से युक्त अग्ग सर्वोपरि
53, 71 अजुद (अजुदा) अनादि
50 अजुदसिद्ध अपृथक्करणीय .. अणंत अनन्त
8, 28, 29, 31, 42, 44,
53,84 अणण्ण अपृथक
9, 12 एकमेक अभिन्न
अभिन्न/अपृथक अणण्णमइय अपृथक/अभिन्न बने हुए 4
स्थान-रहित 80 अणाइणिहण आदि अंत-रहित/शाश्वत 53 अणिंदिय अतीन्द्रिय
So
अणवकास
28
(140)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
अणिधन अणुग्गहकर
अन्तरहित उपकारी अन्य/नया अन्य
अण्ण
59, 82, 88,91
44 65, 67
अण्णण्ण
अण्णमण्ण
पृथक परस्पर एक दूसरे में
परस्पर अण्णाणि अज्ञानी अण्णोण्ण परस्पर/एक दूसरे में
परस्पर/आपस में अतीद रहित अत्यंतरिद अर्थ में भिन्न अत्थिकाइय अस्तिकायिक अदिक्कंत रहित अद्ध
आधा
आधे का आधा/चौथाई अधमक्खा अधर्म नामवाले/नामक
क्रमरहित
अद्धद्ध
अपक्कम
अपार
अनन्त
अपुध अपुधब्भूद
अभिन्न अपृथक बना हुआ (प्रदेशभेद-रहित)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(141)
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्फास
अभव्व
स्पर्श-रहित अभव्य अपूर्व किसी से संरचित नहीं परिमाण-रहित अमूर्त रस-रहित
व्याप्त
अभूदपुव्व अमय अमिअ अमुत्त अरस अवगाढ अवण्ण अविण्णाण अविभत्त अव्वत्तव्व अव्वदिरित्त अव्वाबाध असंखाद असंखादिय
वर्ण-रहित अज्ञान अविभाजित
अवक्तव्य
अपृथक अखंडित असंख्यात असंख्यात शब्द-रहित प्रथम/प्रमुख
असद्द
77, 78, 81, 83
आदि
इदर
अन्य
विपरीत (पूर्ण) निकला हुआ
उग्गद
उत्तम
श्रेष्ठ
उप्पादग
फलोत्पादक
(142)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
70
उवसंत उहय एक्क
दमन किया गया दोनों
___14
सामान्य
34
64, 67
ओगाढ कत्तार
60
कत्तु
27, 59, 61, 68, 69 57, 60
समरूप कोई गहरा करनेवाला कर्ता करनेवाले निर्माता केवल संबंधी क्षायिक क्षायोपशमिक शीघ्र नष्ट किया गया चेतनावाला जीव सचेतन
केवलिय
खइय
खओवसमिय खिप्प खीण चेदग
जैसा
जारिस ठाणग णंताणंत णाणि णारय णिच्च
भेदवाला अनन्तानन्त ज्ञानी नारकी
43, 48, 49
16
शाश्वत
6, 80, 84
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(143)
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
णिच्चयण्हु
45
णियद णिवारण
निश्चय स्वरूप को जाननेवाले ध्रुव हटानेवाला अनेक
णेग
नारकी
णेरड्य तच्चण्हु तारिस तेक्कालिय देहत्थ धीर
पगासग
तत्त्व ज्ञ वैसे ही तीन काल में उत्पन्न देह में स्थित धैर्यवान प्रकाशित करनेवाला अन्य पराधीन पूर्वापर साधनेवाला फैला हुआ पृथक
पर
परायत्त
परावर
पसाधग
पिहुल पुधग
प्पधाण
53,71
मुख्य प्रमुख
अनेक अनेक
56, 66 16, 32, 46
बहुग बादर
स्थूल
64
10
बादर
(144)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोत्त
भव
भव्व
भेत्तु
मग्गचारी
मधुर
मय
मलिण
मह
महंत
मत्त
मुत्त
मेत्त
लक्ख
वस
वदिरित्त
विणाण
भोक्ता
27, 68, 69
उत्पन्न
26
भव्य
37
भेद करनेवाला
80
सम्मत मार्ग पर चलनेवाला 70
1
22
34
71
विभत्त
विविध
मधुर
युक्त
मलिन
श्रेष्ठ
बड़े
परिमाणवाला
मूर्त
मूर्तिक
मात्र
लक्षणवाला
के कारण (अधीन)
वियुक्त
ज्ञान
विभाजित
अनेक प्रकार
विविह
नाना प्रकार
विसद
स्पष्ट
विसेस
विशिष्ट
विस्स
अनेक
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
4
27
27, 82, 77
78, 97
≈ 2 3 4 $ in
87
24
14
91
37
45
64
5
1
96
43
(145)
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
संसारि संसारी स
निजी स-अंत अंत-सहित स-अवकास स्थान-सहित सग
अपना आत्मीय निजी
59, 61, 62
अपना
स्व स-णिव्वाण निर्वाण-सहित स-देहमेत्त अपनी देह मात्र स-प्पडिवक्ख प्रतिपक्ष-सहित समाण समान
सयल
सल्लक्खणय सत् लक्षणवाला स-विस्सरूव नाना स्वरूपों
में विद्यमान सव्वण्हु सर्वज्ञ देव सस्सद शाश्वत
युक्त सिद्ध
10, 29
37, 77
सहिद सिद्ध
20, 32, 35, 36, 92, 93
सुण्ण
शून्य
सुहुम
सूक्ष्म
64, 76
(146)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
सेस
हिद
असदि 7/1
असदो 6/1
शेष
हितकारी
अविभागी 1 / 1 विभाजन - रहित
अभाव होने पर
दरसी 1/1
णणणं 2 / 1
धणिणं 2 / 1 सदो 6/1
अनियमित विशेषण
असत्
अविद्यमान
वह तीन का समूह
तत्तिदयं 1 / 1 तावदिओ 1 / 1 वास्तव में यह
तव्विवरीदं 2/1उसके विपरीत
देखनेवाला
ज्ञानी
धनी
सत्
विद्यमान
22, 73, 90
1
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
75, 77
37
19
54, 55
14
19
45
28, 29
47
47
19
54, 55
(147)
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
अट्ठ
एक्क
एय
चदु
छक्क
छ
णव
ति
दस
दु
पंच
पण
सत्त
सद
(148)
आठ
एक
एक
चार
छ प्रकार
छ
西礻丽丽aaš响丽a
नौ
तीन
दस
दो
दो
पाँच
पाँच
सात
सौ
संख्यावाची विशेषण
24, 72
71, 77
81
2, 30, 71, 74, 78
72
76
72
38, 41, 71
72
40, 47, 56, 71
12, 24, 48, 81, 100
3, 41, 53, 71, 103
24
72
1
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वनाम शब्द अर्थ लिंग
यह
पु., नपुं.
यह
पु., नपुं.
कई
पु., नपुं.
जो
पु., नपुं.
इम
एत
क
ज
त
ता
सव्व
वह
वह
सब
समस्त
सर्वनाम - कोश
पु., नपुं.
स्त्री.
पु., नपुं.
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - 3
-अधिकार
गा.सं.
2
2
32
5, 10, 30, 35, 76, 77,
78, 82, 87, 89, 90
3, 5, 6, 9, 10, 11, 18, 20, 28, 29, 30, 31, 32,
35, 36, 39, 45, 46, 49,
56, 57, 60, 63, 71, 73,
74, 75, 76, 77, 78,79,
81, 82, 84, 86, 89,90,
91, 94
26
8, 28, 40, 82
29, 31, 39, 77, 90
(149)
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय-कोश
अव्यय
अण
अणु
अर्थ नहीं अत्यधिक अनुरूप अस्तित्व
अत्थि
अस्ति
अध
तब
अथवा
अधवा अवि
36, 42, 46, 47
और पादपूरक शब्द स्वरूपद्योतक
इति
3, 27
अतः क्योंकि
इस प्रकार
वाक्यार्थद्योतक इस प्रकार
24,25,49,57,75,76, 93 43 50 54, 55, 61, 74, 95 86
समान
(150)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
32
28, 92
1/
ऊपर
93
एवं
किन्तु उड्ढे ऊपर की ओर उभयत्थ दोनों अवस्थाओं में उवरि एव
पूर्वोक्त रीति से
इस प्रकार किंचि कुछ
कैसे कुदोचि(कुओइ) किसी से
निश्चय ही वाक्यालंकार
11, 89 19 21, 54, 69 36,59 59, 63, 92
किध
खलु
26, 39, 60
गाढ
अत्यधिक और
21, 37, 42, 47, 48, 88,
पादपूरक
23, 90, 47
तथा
परन्तु
फिर
3, 15, 18, 71
निश्चय ही पादपूरक
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(151)
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
4.
जो
जम्हा
चूँकि
जह
जिस प्रकार
जैसे
44, 59, 63, 92, 94 36,93 33 47, 66, 85, 86 52 7, 13, 27, 34, 36, 37, 43, 45, 49, 52, 58, 59, 60, 61, 80, 95 17, 18, 88
53
णत्थि
नहीं (रहित) नहीं है
11, 12, 15, 19, 26, 35,
नास्ति
नमस्कार
नाम
णमो णाम णिच्चं णियमेण
सदैव
नियमपूर्वक/
आवश्यकरूप से नहीं उसके बाद
BEE
वहाँ
___65, 92
उससे
(152)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
तम्हा
इसलिये
13, 43, 50, 58, 68, 93, 95
26
इस कारण से उसी प्रकार
23, 33
66, 85, 86, 90
तहेव
9, 26, 38
वैसे ही उसी प्रकार
और निश्चय ही पादपूरक इसलिए
उस कारण से
दिन किन्तु/तो भी
किन्तु
60, 78, 89 48, 49 68, 75
दोवि
87
और दोनों ही आश्रय करके निश्चय ही
पडुच्च
26
पि
62
80
पुण
30, 60
और फिर
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(153)
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुणो
14
इसके अनन्तर विगत काल में
30 .
और
4, 7, 12, 14, 16, 18, 23, 24, 25, 27, 29, 32, 40, 46, 49, 50, 51, 53, 56, 64, 71, 74, 80, 82, 87, 88, 90, 91, 94 11, 35 24, 44, 57, 74, 88
किन्तु
पादपूरक परन्तु तथा
34
41, 42, 87
निस्सन्देह
अथवा
१
पादपूरक सिवाय/बिना
तथा
अथवा
17, 26, 58 7, 26, 36, 37, 59, 62
41
विणा
पादपूरक बिना सिवाय
13, 26, 60
सदा
सदा
(154)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
Page #162
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________________
सम्म
सयं
29,78,84
सया
सव्वत्थ सव्वदो
यथार्थ रूप से सम्यक् स्वयं सदैव सभी जगह/सभी पर्याय सब ओर से सर्वथा/पूर्ण रूप से बिल्कुल सहित किसी प्रकार से किसी एक प्रकार से भली-भाँति निश्चय ही
सव्वहा
सह
20
22, 39, 49, 52, 61
भी
इसलिए क्योंकि निश्चय ही
hon
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(155)
Page #163
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________________
छंद के दो भेद माने गए है1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद
परिशिष्ट - 2
1. मात्रिक छंद - मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को 'मांत्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैंह्रस्व और दीर्घ । ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती हैं
छंद'
लघु (ल) (1) (हस्व)
गुरु (ग) (5) (दीर्घ)
(1) संयुक्त वर्णों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/ गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा।
(2) जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/ गुरु माना जायेगा। जैसे - रामे । यहाँ शब्द में 'रा' और 'मे' दीर्घ वर्ण है।
1.
(3) अनुस्वार - युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/ गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (S) माना जायेगा । (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/ गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा।
देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
(156)
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
Page #164
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________________
2. वर्णिक छंद - जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्णों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है
। ऽ ऽ
SSS
ऽ ऽ ।
SIS
। ऽ।
ऽ । ऽ
यगण
मगण
तगण
रगण
जगण
भगण
नगण
सगण
लक्षण
-
-
-
-
।। ऽ
पंचास्तिकाय में मुख्यतया गाहा छंद का ही प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ गाहा छंद के लक्षण और उदाहरण दिये जा रहे हैं।
गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ,
तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं।
पंचास्तिकाय (खण्ड-1 ) द्रव्य - अधिकार
द्वितीया
में 18
(157)
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदाहरण
51115155 इंदसदवंदियाणं 555 ॥ 55 अंतातीदगुणाणं
।।।।।।।।।।।। 5 5 5 तिहअणहिदमधुरविसदवक्काणं। is 15 s 11155 णमो जिणाणं जिदभवाणं।।
55 51155 55 55 I SI S 55 जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं। 55 । ।।।ऽ । ऽ ।।। ।।। 55 अस्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता।।
ऽ ऽ।। । । ।ऽ ।ऽऽ ऽऽ ।ऽ । ऽ॥। दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि। 5 ॥ 55 55 5।।55 ।।। 55 अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा।।
1155555 ववदेसा संठाणा ऽ ऽ।। ऽ ऽ ऽ ते तेसिमणण्णत्ते
ऽ ऽ ।ऽ । ऽ । ऽ ।। ऽ संखा विसया य होंति ते बहुगा। 555 51 sss अण्णत्ते चावि विज्जंते।।
(158)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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________________
सहायक पुस्तकें एवं कोश
1.
पंचास्तिकाय
: हिन्दी अनुवादक-पन्नालाल बाकलीवाल (श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, चतुर्थ आवृत्ति, 1985) : Edited and Translated
2.
Pañcāstikāya-Sāra
by
Prof. A. Chakravarti Nayanar
and
Prakrir text etc.
edited in the present form
by
3.
4.
Dr. A.N. Upadhye
(Bharatiya Jnanpith, New Delhi,2001) पाइय-सद्द-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ
(प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी,1986) कुन्दकुन्द-शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन
(श्री दिगम्बर जैन साहित्य-संस्कृति संरक्षण
समिति, दिल्ली, 1989) प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन
(न्यु भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, दिल्ली,
2005) संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे
(कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996)
5.
6.
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(159)
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
7.
8.
9.
10.
11.
12.
13.
14.
15.
(160)
भाग 1-2
हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज (श्री जैन दिवाकर - दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006)
: लेखक - डॉ. आर. पिशल हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958)
: डॉ. कमलचन्द सोगाणी
प्राकृत भाषाओं का
व्याकरण
प्राकृत रचना सौरभ
प्राकृत अभ्यास सौरभ
प्रौढ
भाग- 1
प्राकृत रचना सौरभ,
अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
(छंद एवं अलंकार) प्राकृत- हिन्दी-व्याकरण
(भाग - 1, 2)
(अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2003)
: डॉ. कमलचन्द सोगाणी
( अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2004)
: डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर,
स्त्रीप्रत्यय-अव्यय)
सवार्थसिद्धि
1999)
: डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन संपादक - डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर,
2012, 2013)
प्राकृत-व्याकरण
: डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(संधि- समास- कारक-तद्धित - ( अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर,
2008)
: सम्पादन-अनुवाद
सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री
( भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य - अधिकार
Page #168
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