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43. ण वियप्पदिणाणादो णाणी णाणाणि होति णेगाणि।
तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियं ति णाणीहि।।
वियप्पदि णाणादो णाणी णाणाणि होति णेगाणि तम्हा
अव्यय (वियप्प) व 3/1 सक (णाण) 5/2 (णाणि) 1/1 वि (णाण) 1/2 (हो) व 3/2 अक (णेग) 1/2 वि अव्यय अव्यय (विस्सरूव) 1/1 वि (भण) भूकृ 1/1 [(दवियं) + (इति)] दवियं (दविय) 1/1 इति (अ) = ही (णाणि) 3/2 वि
नहीं संशय करता है ज्ञानों के कारण ज्ञानी ज्ञान होते हैं अनेक इसलिए किन्तु/तो भी अनेक प्रकारवाला कहा गया
विस्सरूवं भणियं दवियं ति
द्रव्य
णाणीहि
ज्ञानियों द्वारा
अन्वय- णाणाणि णेगाणि होति दु णाणी णाणादो ण वियप्पदि तम्हा णाणीहि विस्सरूवं दवियं ति भणियं।
अर्थ- ज्ञान अनेक होते हैं किन्तु/तो भी ज्ञानी (विभिन्न) ज्ञानों के कारण (आत्मा की उनसे) (अपृथकता में) संशय नहीं करता है। इसलिए ही ज्ञानियों द्वारा अनेक प्रकारवाला द्रव्य कहा गया (है) (तो भी ज्ञानी द्रव्यों में भेदों के कारण उनमें व्याप्त अस्तित्व की अपृथकता में संशय नहीं करता है)।
1. नोटः
हेम-प्राकृत-व्याकरणः 1/42 संपादक द्वारा अनूदित
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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