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44. जदि हवदि दव्वमण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे।
दव्वाणतियमधवा दव्वाभावं . पकुव्वंति।
यदि
जदि हवदि दव्वमण्ण
होता है
द्रव्य पृथक
गुणदो
गुण से
य
पादपूरक
गुणा
गण
रा
अव्यय (हव) व 3/1 अक [(दव्वं)+(अण्णं)] दव्वं (दव्व) 1/1 अण्णं (अण्ण) 1/1 वि (गुण) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय अव्यय (गुण) 1/2
अव्यय (दव्व) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय (अण्ण) 1/2 वि [(दव्व)+(अणत)+ (इयं)+ (अधवा)] [(दव्व)-(अणंत) वि(इ) भूक 1/1] अधवा (अ) = अथवा [(दव्व)-(अभावं) 2/1] (पकुव्व) व 3/2 सक
पादपूरक द्रव्य से
दव्वदो
अण्णे
पृथक
दव्वाणंतियमधवा
अनन्त द्रव्य घटित .
दव्वाभावं पकुव्वंति
अथवा द्रव्य अभाव को हासिल/प्राप्त करते हैं
अन्वय- जदि दव्वं गुणदो अण्णं हवदि दव्वाणंतियमधवा य गुणा य दव्वदो अण्णे दव्वाभावं पकुव्वंति।
अर्थ- यदि द्रव्य गुण से पृथक होता है (तो) अनन्त द्रव्य घटित (होंगे) अथवा (यदि) गुण द्रव्य से पृथक (होते हैं) (तो) द्रव्य (ही) अभाव को हासिल/ प्राप्त करते हैं (करेंगे)। (चूँकि गुण आश्रयरहित नहीं रहते हैं अतः पृथक अनन्त गुणों के लिए आश्रयरूप अनन्त द्रव्यों की कल्पना करनी होगी जो अर्थहीन होगी अथवा चूँकि द्रव्य गुणों का समूह होता है अतः गुण की पृथक कल्पना करने से द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित
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पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार