________________
45. अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं।
णेच्छंति णिच्चयण्हू तब्विवरीदं हि व तेसिं।।
अविभत्तमणण्णत्तं [(अविभत्तं)+(अणण्णत्तं)]
अविभत्तं (अविभत्त) 1/1 वि अविभाजित
अणण्णत्तं (अणण्णत्त) 1/1 अपृथकता दव्वगुणाणं
[(दव्व)-(गुण) 6/2-7/2] द्रव्य और गुणों में विभत्तमण्णत्तं [(विभत्तं)+ (अण्णत्तं)]
विभत्तं (विभत्त) 2/1 वि विभाजित
अण्णत्तं (अण्णत्त) 2/1 पृथकता को णेच्छंति [(ण)+ (इच्छंति)] ण (अ) = नहीं
नहीं इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक स्वीकार करते हैं (णिच्चयण्हु) 1/1 वि वास्तविक स्वरूप के
जाननेवाले तविवरीदं (तव्विवरीदं) 2/1 वि अनि उसके विपरीत
(तादात्म्य को) अव्यय
इसलिए अव्यय
पादपूरक तेसिं (त) 6/2-7/2 सवि उनमें
णिच्चयाहू
New
अन्वय- दव्वगुणाणं अविभत्तमणण्णत्तं हि व तेसिं विभत्तमण्णत्तं तव्विवरीदं णिच्चयण्हू णेच्छंति ।
। अर्थ- द्रव्य और गुणों में अविभाजित अपृथकता (है)। इसलिए उन (द्रव्य और गुणों) में विभाजित पृथकता को (तथा) उसके विपरीत (तादात्म्य को) वास्तविक स्वरूप के जाननेवाले (जो) (ज्ञानी) (हैं) (वे) स्वीकार नहीं करते हैं।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
(55)