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________________ 69. एवं कत्ता भोत्ता होज्जं * अप्पा सहिं कम्मेहिं' हिंडदि पारमपारं संसारं मोहसंछण्णो एवं कत्ता भोत्ता होज्जं अप्पा सगेहिं कम्मेहिं । हिंडदि पारमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।। 1. अव्यय ( कत्तु ) 1/1 वि (भोत्तु) 1 / 1 वि ( होज्ज) व 3 / 1 अक 2. ( अप्प ) 1 / 1 (सग) 3 / 2 वि 'ग' स्वार्थिक (कम्म) 3/2 (हिंड) व 3/1 सक [(पारं) + (अपारं)] पारं (पार) 2/17/1 इस प्रकार कर्ता भोक्ता होता है [(मोह) - (संछण्ण) भूक 1 / 1 अनि आत्मा अपने कर्मों के कारण भ्रमण करता है समुद्र में अपारं (अपार) 2/17/1 वि अनन्त (संसार) 2 / 1-7 / 1 संसार मोह से आच्छादित अन्वय- एवं मोहसंछण्णो अप्पा सगेहिं कम्मेहिं कत्ता भोत्ता होज्जं पारमपारं संसारं हिंडदि । अर्थ - इस प्रकार मोह से आच्छादित आत्मा अपने कर्मों के कारण कर्ता (और) भोक्ता होता है (और) (अपने ही कर्मों के कारण) अनन्त संसार समुद्र में भ्रमण करता है । यहाँ पाठ 'होज्ज' होना चाहिये । कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। ( प्राकृत - व्याकरण, पृष्ठ 36 ) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-137 ) पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार (79)
SR No.002306
Book TitlePanchastikay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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