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32. केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा।
विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा॥
केचित्तु
जीव
किन्तु
.
अणावण्णा
नहीं, प्राप्त हुए
[(के)+ (चित्त)+(उ)] के (क) 1/2 सवि *चित्त (चित्त) 1/2 (मूलशब्द) उ (अ) = किन्तु [(अण)+(आवण्णा)] [(अण) अ-(आवण्ण)
भूकृ 1/2 अनि मिच्छादसणकसाय- [(मिच्छादसण)जोगजुदा (कसाय)-(जोग)
(जुद) भूक 1/2 अनि विजुदा (विजुद) भूकृ 1/2 अनि य
अव्यय तेहिं
(त) 3/2 सवि बहुगा (बहुग) 1/2 वि सिद्धा
(सिद्ध) 1/2 वि संसारिणो (संसारि) 1/2 वि जीवा
(जीव) 1/2
मिथ्यादर्शन, कषाय और योग से युक्त
रहित
और उनसे अनेक
सिद्ध
संसारी
जीव
अन्वय- केचित्तु अणावण्णा मिच्छादसणकसायजोगजुदा बहुगा जीवा संसारिणो य तेहिं विजुदा सिद्धा।
अर्थ- किन्तु कई जीव (जो) (समस्त लोक को) प्राप्त नहीं हुए (हैं) (उन जीवों में से) मिथ्यादर्शन, कषाय और योग से युक्त अनेक जीव संसारी हैं और उन (मिथ्यादर्शन, कषाय और योग) से रहित (जीव) सिद्ध (हैं)।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
(पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) नोटः संपादक द्वारा अनूदित
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पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार