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________________ 52. दंसणणाणाणि जहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि। ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो।। दसणणाणाणि दर्शन और ज्ञान जहा जैसे जीव से संयुक्त . जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि पृथक नहीं हुए [(दसण)-(णाण) 1/2] अव्यय [(जीव)-(णिबद्ध) भूकृ 1/2 अनि] [(ण) अ-(अण्णभूद) भूकृ 1/2] (ववदेस) 5/1 पंचमीअर्थक ‘दो' प्रत्यय (पुधत्त) 2/1 (कुव्व) व 3/2 सक ववदेसदो कथन से पुधत्तं कुव्वंति पृथकता/भेदभाव को करते हैं निश्चय ही अव्यय अव्यय नहीं सभावादो (सभाव) 5/1 स्वभाव से अन्वय- जहा जीवणिबद्धाणि दंसणणाणाणि णण्णभूदाणि ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि सभावादो णो। अर्थ- जैसे (वर्ण, रस गंध और स्पर्श गुण द्रव्य से अभिन्न/पृथक नहीं है) (वैसे) (ही) जीव से संयुक्त दर्शन और ज्ञान (भी) पृथक नहीं हुए (हैं) (आचार्य नाम आदि भेद के) कथन से पृथकता/भेदभाव करते हैं (फिर भी) निश्चय ही स्वभाव से (भेद) नहीं (है)। (62) पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
SR No.002306
Book TitlePanchastikay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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