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53. जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो।
सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य॥
जीवा अणाइणिहणा
(जीव) 1/2 (अणाइणिहण) 1/2 वि
णंता
(स-अंत) 1/2 वि [(ण) अ-(अंत) 1/2 वि] अव्यय [(जीव)-(भाव) 5/1]
जीव आदिअंतरहित/ शाश्वत अंतसहित अंतरहित
और जीवों में भावों की अपेक्षा स्वभाव से
जीवभावादो
सब्भावदो
अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा
(सब्भाव) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय (अणंत) 1/2 वि [(पंच) वि -(अग्ग) वि- (गुण)-(प्पधाण) 1/2 वि] अव्यय
अनन्त पाँच सर्वोपरि भाव प्रधान
अन्वय- जीवा अणाइणिहणा पंचग्गगुणप्पधाणा जीवभावादो संता य णंता सब्भावदो अणंता य।
अर्थ- जीव (तो) आदिअंतरहित/शाश्वत (है)। (किन्तु जीवों के भाव शाश्वत-अशाश्वत होते हैं)। (जीवों में) पाँच प्रधान भाव (औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक) सर्वोपरि हैं। (जिनमें औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव कर्म सापेक्ष है और पारिणामिक भाव कर्म निरपेक्ष है)(कर्म सापेक्ष) भावों की अपेक्षा जीवों में अन्तसहित (भाव भी होते हैं) और अन्तरहित (भाव होते हैं)। स्वभाव से (कर्म निरपेक्ष दृष्टि से) (जीव में) अनन्त (भाव) ही (होते हैं)।
नोटः
संपादक द्वारा अनूदित
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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