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17. मणुसत्तणेण णट्टो देही देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो ।।
मसत्त
देही
देवो
वेदि
इरो
वा
उभयत्थ
जीवभावो
ण
सदि
ण
जायदे
अण्णो
( मणुसत्तण) 3 / 1
(ण) भूकृ 1 / 1 अनि
(देहि) 1/1
(देव) 1/1
( हव) व 3 / 1 अक
(इदर) 1 / 1
वि
अव्यय
अव्यय
[ (जीव ) - (भाव) 1 / 1]
अव्यय
( णस्स) व 3 / 1 अक
अव्यय
(जाय) व 3 / 1 अक
( अण्ण) 1 / 1 वि
मनुष्यता से नष्ट हुआ
जीव
देव
होता है
अन्य
अन्वय
उभयत्थ अण्णो ण जायदे ण णस्सदि ।
अथवा
दोनों अवस्थाओं में
जीवपदार्थ
न
नष्ट होता है
न
उत्पन्न होता है
अन्य / नया
मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि वा इदरो जीवभावो
अर्थ- मनुष्यता से नष्ट हुआ जीव देव होता है अथवा अन्य (मनुष्य, नारकी तथा तिर्यंच होता है) । जीवपदार्थ दोनों अवस्थाओं में ( रहता है)। अन्य / नया (जीव के अलावा) न उत्पन्न होता है न नष्ट होता है।
पंचास्तिकाय ( खण्ड - 1 ) द्रव्य - अधिकार
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