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(कर्मयुक्त) जीव जब सिद्ध होता है तो कर्म-जनित द्रव्य प्राणों से मुक्त होता है
और अपनी स्वाभाविक ज्ञानात्मक चेतना का अनुभव करता है। सिद्ध विच्छिन्न देह वाले होते हैं तथा वे वाणी की पहुंच से बाहर हो जाते हैं।
यहाँ यह जानना चाहिये कि समस्त एकेन्द्रिय जीव कर्मों के सुखदुखरूप फल का ही अनुभव करते हैं और दो इन्द्रियादि जीव इष्ट-अनिष्ट कार्यों से युक्त होकर कर्मों के सुख-दुखरूप फल का अनुभव करते हैं। कर्मों से पूर्णतया मुक्त जीव ज्ञान का ही अनुभव करते हैं। वे लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाते हैं।
__ जीव कर्ता और भोक्ता है। अनादिकालीन कर्म-बंध से उत्पन्न आत्मविस्मरण के कारण जीव/आत्मा राग द्वेषादि अशुद्ध भावों को करता है
और कर्म पुद्गल समय आने पर अलग होते हुए सुख-दुख देते हैं और जीव उनको भोगता है। इस प्रकार मोह से आच्छादित जीव/आत्मा कर्ता या भोक्ता होता है। आत्मस्मरणमय जीव अपने स्वरूप को ही करता है और उसको ही भोगता है।
पुद्गलः
लोक में पुद्गल परमाणु और स्कन्धरूप में अवस्थित होता है। परमाणुओं के मेल का समूह स्कन्ध है और स्कन्धों का अन्तिम भेद परमाणु है। पुद्गल परमाणु मूर्तिक होता है। इसमें एक वर्ण, एक रस, एक गंध तथा दो स्पर्श होते हैं। वह स्कन्ध अवस्था में रूपान्तरित होने पर शब्द का कारण होता है, स्कन्धों से पृथक होने पर स्वयं शब्दरहित होता है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि सभी द्रव्य इन्द्रिय, द्रव्य मन, सभी प्रकार के शरीर, द्रव्य कर्म, इन्द्रियों द्वारा भोगे जाने योग्य पदार्थ सब ही पुद्गल हैं। परमाणु नित्य है, विभाजन रहित है, तथा चार धातुओं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का कारण है।
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पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार