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48. णाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदा दु अण्णमण्णस्स।
दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।।
णाणी णाण
ज्ञानी ज्ञान
और सदा अर्थ में भिन्न
सदा अत्यंतरिदा
तो
अण्णमण्णस्स दोण्हं अचेदणतं पसजदि
(णाणि) 1/1 वि (णाण) 1/1 अव्यय अव्यय (अत्यंतरिद) 1/2 वि अव्यय (अण्णमण्ण) 6/1-7/1 वि (दो) 6/2-7/2 वि (अचेदणत्त) 1/1 (पसज) व 3/1 अक अव्यय [(जिण)+(अवमदं)] [(जिण)-(अवमद) भूकृ 1/1 अनि]
परस्पर में दोनों में अचेतनता प्राप्त होती है यथार्थरूप से
सम्म
जिणावमदं
जिनेन्द्र द्वारा स्वीकृत
अन्वय- णाणी च णाणं सदा अण्णमण्णस्स अत्यंतरिदा दु दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।
अर्थ- (यदि) ज्ञानी (आत्मा) और ज्ञान सदा परस्पर में अर्थ में भिन्न (हों) तो दोनों (आत्मा और ज्ञान) में अचेतनता (जानने रूप क्रिया शून्यता) प्राप्त होती है। (अर्थात् बिना ज्ञान के आत्मा कैसे जानेगा? और बिना आत्मा के ज्ञान निराश्रय हो जायेगा तो वह भी कैसे जानेगा?)। यथार्थरूप से (यह बात) जिनेन्द्र द्वारा स्वीकृत (है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
(58)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार