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65. अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहि।
गच्छंति कम्मभावं अण्णण्णोगाहमवगाढा।।
अत्ता
सभावं
तत्थ
(अत्त) 1/1
आत्मा कुणदि (कुण) व 3/1 सक करता है (सभाव) 2/1
स्वभाव को अव्यय
वहाँ गदा
(गद) भूकृ 1/2 अनि स्थित पोग्गला (पोग्गल) 1/2
पुद्गल सभावेहिं (सभाव) 3/2
अपनी प्रकृति से गच्छंति (गच्छ) व 3/2 सक प्राप्त करते हैं
कम्मभावं [(कम्म)-(भाव) 2/1] द्रव्यकर्म-प्रकृति को . अण्णण्णोगाहमवगाढा [(अण्णण्ण)+(ओगाह)+
(अवगाढा)] [(अण्णण्ण) वि-(ओगाह) परस्पर एक क्षेत्र में 2/1-7/1] अवगाढा (अवगाढ) 5/1 वि व्याप्त होने के कारण
अन्वय- अत्ता सभावं कुणदि तत्थ गदा पोग्गला अण्णण्णोगाहमवगाढा समावेहिं कम्मभावं गच्छंति।
अर्थ- (संसार अवस्था में अनादि कर्मबंध से उत्पन्न आत्मविस्मरण के कारण) आत्मा (अशुद्ध) स्वभाव (राग-द्वेष-मोह) को करता है (तब) वहाँ (उनके साथ) स्थित (वे) पुद्गल एक क्षेत्र में परस्पर व्याप्त होने के कारण अपनी प्रकृति से द्रव्यकर्म-प्रकृति को प्राप्त करते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
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