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________________ 92. आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि। उडुंगदिप्पधाणा सिद्धा चिटुंति किध तत्थ।। आकाश द्रव्य आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहि ठौर गमन और स्थिति के आधार में । देदि प्रदान करता है (आगास) 1/1 (अवगास) 2/1 [(गमण)-(द्विदि)(कारण) 3/2→7/2] (दे) व 3/1 सक अव्यय [(उढं) अ (गदि)(प्पधाण) 1/2 वि] (सिद्ध) 1/2 (चिट्ठ) व 3/2 अक जदि यदि उड्डंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ऊपर की ओर गमन करने में प्रमुख सिद्ध/मुक्त ठहरते हैं कैसे अव्यय अव्यय वहाँ अन्वय- जदि आगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं अवगासं देदि उड्डेगदिप्पधाणा सिद्धा तत्थ किध चिट्ठति। अर्थ- यदि आकाश द्रव्य गमन और स्थिति के आधार में ठौर प्रदान करता है (तो) ऊपर की ओर गमन करने में प्रमुख सिद्ध/मुक्त (जीव) वहाँ (लोक के अग्रभाग में) कैसे ठहरेंगे? 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 2. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता (102) पंचास्तिकाय (खण्ड-1) द्रव्य-अधिकार
SR No.002306
Book TitlePanchastikay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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