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29. जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य। पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं
सगममुत्तं । ।
जादो
सयं
स
चेदा
सव्वण्हू
सव्वलोगदरसी
य
पप्पोदि
सुहमणतं
अव्वाबाधं
सगममुत्तं
(जा) भूकृ 1/1
अव्यय
(त) 1/1 सवि
(चेद) 1/1
(सव्वण्हु) 1 / 1 वि
[ ( सव्व) सवि - (लोग) -
(दरसी) 1 / 1 वि अनि
अव्यय
(पप्पोदि) व 3 / 1 सक अनि
[(सुहं) + (अनंतं)]
सुहं (सुह) 2 / 1
अणंतं (अणंत) 2/1 वि
( अव्वाबाध) 2 / 1 वि
[(सगं) + (अमुत्तं)]
सगं (ग) 2 / 1 वि
अमुतं ( अमुत्त) 2 / 1 वि
हुआ
स्वयं
वह
आत्मा
सर्वज्ञ
समस्त लोक को
देखनेवाला
और
प्राप्त करता है
सुख को
अनन्त
अखंडित
आत्मीय (आत्मोत्पन्न)
अमूर्त
अन्वय- स चेदा सयं सव्वण्हू सव्वलोगदरसी जादो य सगं अव्वाबाधं अमुत्तं अनंत सुहं पप्पोदि ।
अर्थ- वह आत्मा स्वयं सर्वज्ञ (और) समस्त लोक को देखनेवाला (है) और (वह) आत्मीय (आत्मोत्पन्न), अखंडित (और) अमूर्त (इन्द्रिय रहित) अनन्त सुख को प्राप्त करता है ।
पंचास्तिकाय (खण्ड- 1 ) द्रव्य - अधिकार
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