Book Title: Khartar Gacchha Bruhad Gurvavali
Author(s): Jinpal Upadhyaya, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000 सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला [ ग्रन्थांक ४२] संस्थापक स्व० श्रीमद् बहादुर सिंह जी सिंघी 00000 संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी वि. सं. २०१३] प्रधान संपादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि BERI DAICHAND JE SINGH श्री 000 00000 45 श्री जिनपालोपाध्यादि - सङ्कलित खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि संपादक जिन विजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य .[. अधिष्ठाता - सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ] [प्रकाशक ] सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पी ठ भारतीय विद्या भवन, बंबई 節 Good 00000 0000 0000000 [ मूल्य ७-०-० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GA. RasinilmmuniLB mamimatmi मा वर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्यश्लोक पिता जन्म-वि. सं. १९२१, मार्ग, वदि६) स्वर्गवास-वि. सं. १९८४, पोष सुदि । INDIA FISHMAHARIDAIANDARI itentiommunitunition Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T umsm Himmunitmendments" FImamimicair SuhRamai दानशील-साहित्यरसिक - संस्कृतिप्रिय ख० बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी अजीमगंज-कलकत्ता जन्म ता. २८-६-१८८५) [मृत्यु ता. ७-७-१९४४ . Theppamoryamane Thromittimoniu e DormindianSamm Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला ***************[ ग्रन्थांक ४२ ]************** श्री जिनपालोपाध्यादि- सङ्कलित खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि SRI DALCHAND JI SINGHI 卐 श्री डानचटजी सिंधी 卐 SINGHI JAIN SERIES ***************[ NUMBER 42]*********** KHARATARA GACCHA BRIHAD GURVAVALI (A COLLECTION OF WORKS OF JINAPALA UPADHYAYA AND OTHERS RELATING TO THE SPIRITUAL LINEAGE OF THE EMINENT ACARY AS OF THE KHARATARA GACCHA) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF IMPORTANT JAIN CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE AND OTHER WORKS IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD RAJASTHANI. GUJARATI LANGUAGES, AND OF NEW STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS ESTABLISHED IN THE SACRED MEMORY OF THE SAINT LIKE LATE SETH SRI DALCHANDJÍ SINGHI OF CALCUTTA BY HIS LATE DEVOTED SON DANASILA-SAHITYARASIKA-SANSKRITIPRIYA SRI BAHADUR SINGH Singhi DIRECTOR AND GENERAL EDITOR ACHARYA JINA VIJAYA MUNI PUBLISHED UNDER THE EXCLUSIVE PATRONAGE OF SRI RAJENDRA SINGH SINGHI AND SRI NARENDRA SINGH SINGHI BY THE DIRECTOR OF SINGHI JAIN SHASTRA SHIKSHAPITH BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KHARATARA GACCHA BRIHAD GURVAVALI (A COLLECTION OF WORKS OF JINAPALA UPADHYAYA AND OTHERS RELATING TO THE SPIRITUAL LINEAGE OF THE EMINENT ACARYAS OF THE KHARATARA GACCHA) COLLECTED AND EDITED FROM VARIOUS OLD MANUSCRIPTS V. E. 2012] ACHARYA, JINA VIJAYA MUNI (Honorary Member of the German Oriental Society, Germany; Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona; Vishveshvranand Vaidic Research Institute, Hosiyarpur; and Gujarat Sahitya Sabha, Ahmedabad.) Honorary Director, Rajasthan Oriental Research Institute, Jaipur. General Editor, Rajasthan Puratan Granthamala; etc. Vol. 42] BY RIVALCANO JISING ਅਰਦਲੀ ਜਿਹੀ PUBLISHED BY THE ADHISTHATĀ Singhi Jain Shastra Shikshapith BHARATIYA VIDYA BHAVAN BOMBAY (First Edition) [1956 A. D. [Price Rs. 7-0-0 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता निवासी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला [जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर - राजस्थानी आदि नानाभाषानिबद्ध सार्वजनीन पुरातन वाङ्मय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि] प्रतिष्ठाता श्रीमद्-डालचन्दजी-सिंघीसत्पुत्र ख० दानशील-साहित्यरसिक-संस्कृतिप्रिय श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी co BANDAR PISO BE VLEE वाकचर मिजी मिश्रा प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य, जिन विजय मुनि अधिष्ठाता-सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी प्रकाशनकर्ता-अधिष्ठाता सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई प्रकाशक - जयन्तकृष्ण, ह. दवे, ऑनररी डॉयरेक्टर भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बम्बई, नं. ७ मुद्रक- लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभाट स्ट्रीट, बम्बई, नं, २ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनपालोपाध्यायादि-विद्वत्कर्तृक खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि सङ्ग्राहक एवं संपादक आचार्य, जि न वि जय मुनि ऑनररी मेंबर जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी; भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना, (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात); विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर (पञ्जाब) __ ऑनररी डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जयपुर (राजस्थान) निवृत्त सम्मान्य नियामक भारतीय विद्या भवन, बम्बई . G - . भा - 4 . roy OSE प्रकाशनकर्ता- अधिष्ठाता सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई विक्रमाब्द २०१२] प्रथमावृत्ति [ख्रिस्ताब्द १९५६ ग्रन्यांक ४२] सर्वाधिकार सुरक्षित [मूल्य रू.७-०-० Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ Bison I अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ यहयो निवसम्पन्न जैना उकेशवंशजाः धनाच्या नृपसम्मान्या धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेप्येको बहुभाग्यवान् साधुवत् सहरियो यः सिंकुल प्रभाकरः ॥ बाल्य एव गतो यश्च कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यां धृतधर्मार्थनिश्वयः ॥ कुशाग्रीया सद्य सत्या च सनिष्ठया उपाय विपुलां लक्ष्मी कोट्यधिपोऽजनिष्ट सः ॥ तस्य मनुकुमारीति सवारीकुलमण्डना जाता पतिव्रता पत्नी शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीवहादुरसिंहायो गुणवास्तनयस्तयोः सञ्जातः सुकृती दानी धर्मप्रियक्ष धीनिधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवता तेन पक्षी तिलकसुन्दरी । यखाः सौभाग्यचन्द्रेण भासितं ताम्वरम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्र सिंहोऽस्य ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः यः सर्वकार्यत्वात् दक्षिणबाहुत् पितुः ॥ नरेन्द्र सिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुर्वीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति प्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुमनुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवस्तस्याभवन् स्वस्त्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धः सन् स राजेव व्यराजत ॥ अन्यच्च - ॥ 1 1 सरस्वत्यां सदायको भूत्वा लक्ष्मीधियोऽध्ययम् । तयाप्यासीत् सदाचारी चित्रं विदुषां नाहंकारो न दुर्भावो न विलासो न दुर्व्ययः । दृष्टः कदापि यद्गेहे सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भक्तो गुरुजनानां स विनीतः सज्जनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽभूत् प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-काल स्थितिज्ञोऽसो विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादि-साहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ॥ समुझत् समाजस्य धर्मस्योत्कर्ष हेतवे । प्रचाराय च शिक्षाया दस तेन धनं धनम् ॥ गत्या सभा-समिवादरी भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः । दच्या दानं यथायोग्यं प्रोत्साहिता कर्मठाः ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया मकरोत् स यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृति कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं स कार्य मनखचिन्तयत् ॥ पूज्य पिता सदैवासीत् सम्यग- ज्ञानरुचिः स्वयम् । तस्मात् तज्ज्ञानार्थं यतनीयं मयाऽप्यरम् ॥ विचार्येवं स्वयं पिते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रदेवानां स्वमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति निकेतने सिंधीपदाडि जैन ज्ञानपीठ मतीहिपद श्रीजिनविजयः प्राज्ञो मुनिनाना च विश्रुतः। खीकर्तुं प्रार्थितेन तस्याधिष्ठायकं पदम् ॥ तस्य सौजन्य - सौहार्द - स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूय मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ कवीन्द्रेण रवीन्द्रेण स्त्रीयपावनपाणिना । रस-नागा-देव्यतिष्ठापीत ॥ प्रारम्भं सुनना चापि कार्य तदुपयोगिकम् । पाटने ज्ञानलिप्सूनां प्रन्यानां प्रधने तथा तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंपीककेतुना । स्वपितृसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ उदारचेतसा तेन धर्मशीलेन दानिना । व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्य सुसिद्धये ॥ छात्राणां वृत्तिदानेन नैकेषां विदुषां तथा । ज्ञानाभ्यासाय निष्कामसाहाय्यं स प्रदत्तवान् ॥ जावादिकानां तु प्रतिकृत्यादसो मुनिः कार्य विवार्षिक तत्र समाप्यान्यप्रायासितः ॥ तत्रापि सततं सर्वं साहाय्यं तेन यच्छता । ग्रन्थमालाप्रकाशाय महोत्साहः प्रदर्शितः ॥ नदेन कृता पुनः सुयोजना प्रन्यान्याः स्थिरत्वा विस्तराय च नूतना ततो मुनेः परामर्शात् सिंघीवंशनभस्वता । भा विद्याभवना येयं प्रन्यमा समर्पित भासस्य मनोवान्छाऽपूर्वग्रन्थप्रकाशने। तदर्थं व्ययितं तेन लक्षावचि हि रूप्यकम् ॥ दुर्विलासा विधेत ! दोर्भाग्याचात्मवन्धूनाम् । स्वश्वेनैवाथ कालेन स्वर्गं स सुकृती व इन्दु-शून्यं नेत्रान्दे मासे आपादसन्हके कलिकाताख्पस प्राप्तवान् परमां गतिम् ॥ पितृम तत्पुत्रैः प्रेयसे पितुरात्मनः । तथैव प्रपितुः स्त्यै प्रकाश्यतेऽधुना तथा ॥ इयं ग्रन्थावलिः श्रेष्ठा प्रेष्ठा प्रज्ञावत प्रथा भूयाद् भूयै सत सिंघीकुलकीर्तिप्रकाशिका विकृताह्लादा सचिदानन्ददा सदा चिरं नन्दत्खियं लोके श्रीसंधी प्रयपद्धतिः ॥ I ३ ४ ७ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघी जैन ग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः ॥ स्वस्ति श्रीपादाय देशो भारतविधुतः । रूपाहेलीति सहानी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः श्रीमचतुरसिंहोऽय राठोडाम्य भूमिपः ॥ श्रीवृद्धिसिंहोऽभूद् राजपुचः प्रसिद्धिमाह । क्षात्रधर्मधनो पक्ष परमारकुलाणीः ॥ मुख-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ॥ पत्नी राजकुमारीति तथाभूद् गुणसंहिता चातुर्य रूप लावण्या सौजन्यभूषिता ॥ क्षत्रियाण प्रभापूर्ण शौरीमुखाकृतिम् यां जनो मेने राजन्यकुलजा विषम् ॥ पुत्रः किसनसिंहाल्यो जातस्तपोरतिप्रियः रणम इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवी हंसनामाऽय राजपूज्यो यतीश्वरः । उयोतिषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः ॥ आगतो मरुदेशाद् यो भ्रमन् जनपदान् बहून् जातः श्रीवृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ सेनाधाप्रतिमप्रेरणा स तत्सूनुः स्वविधौ रक्षितः शिक्षितः सम्यक, कृतो जैनमतानुयः ॥ दौर्भाग्यात् तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढः स्वगृहात् सोऽथ यदृच्छया विनिर्गतः ॥ 1 तथा च | भ्रमवा नैकेषु देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् दीक्षितो मुण्डितो भूय जातो जैनमुनिस्ततः ॥ ज्ञातान्यनेकशाखाणि नानाधर्ममतानि च मध्यस्थवृतिना तेन तवातवगयेषिणा । अचीता विविधा भाषा भारतीया युरोषजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रय-नूतन कालिकाः || येन प्रकाशिता नैके ग्रन्था विसिताः । लिखिता बहवो लेखा ऐतितव्यगुम्फिताः ॥ बहुभिः सुविहितमण्डलेख स सत्कृतः जिनविजयनानाऽयं विख्यातः सर्वाभवद् ॥ तस्यां विज्ञात्वा श्रीमद्गान्वीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयः शिक्षणालयः । विद्यापीठ इति ख्यात्या प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ भाचार्यत्वेन तत्रोर्नियुक्तः स महात्मना। रस-नि-निधीन्द्वेदे पुरावा रूपमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूप्य तत् पदं ततः । गत्वा जर्मन राष्ट्रे स तत्संस्कृतिमभीतवान् ॥ तत भागो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन खाम्यरे ॥ क्रमात् ततो विनिर्मुक्तः स्थितः शान्ति निकेतने विश्ववीरवीन्द्रनाथ भूषिते ॥ निशान पी सदाश्रितम् स्थापितं तन सिंघीडालचन्द सूनुना श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठित तस्यासौ पदेऽधिष्ठातुसरह के अध्यापयन् बरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवाकयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंपीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे होपा प्राख्धा प्रथमालिका ॥ धै विगतं तस्य वर्षाणामष्टकं पुनः । प्रन्थमालाविकासार्थित्रवृत्तिषु प्रयस्यतः ॥ वा-र-मुंबाईनगरीस्थितः। मुंशीति विरुदख्यातः कन्हैयालालीः ॥ प्रवृत्तो भारतीयानां विद्यानां पीडनिर्मिती । कर्मनिस्तथाभूत् प्रयतः सफलोऽचिरात् ॥ विदुषां श्रीमतां योगात् पीठो जातः प्रतिष्ठितः। भारतीय पदोपेत विद्याभवन सम्झया ॥ आहूतः सहकार्यार्थ स मुनिस्तेन सुहृदा । ततःप्रभृति तत्रापि तत्कार्ये सुप्रवृत्तवान् ॥ सद्भवनेऽन्यदा तस्य सेवाऽधिका अपेक्षिता स्वीकृता च सद्भावेन साऽप्याचार्यपदाश्रिता ॥ नन्दे-निध्यङ्के - चन्द्राब्दे वैक्रमे विहिता पुनः । एतद्ग्रन्थावली स्थैर्यकृत् तेन नव्ययोजना ॥ परामर्शात् ततस्तस्य श्रीसिंघीकुल भास्वता । भा विद्याभ व ना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ प्रदत्ता दशसाहस्री पुनस्तस्योपदेशयः । खपितृरतिमन्दिरकरणाय सुकीर्तिता ॥ देवा गते काले संघीय दिवंगतः । यस्य ज्ञानसेवायां साहाय्यमकरोत् महत् ॥ पितृकार्य प्रगत्यर्थं यत्नशीलैस्तदात्मजैः । राजेन्द्र सिंहमुख्यैश्च सत्कृतं तद्वचस्ततः ॥ पुण्यश्लोक पितुना प्रन्थागारकृते पुनः । बन्धुक्षं धनं ददौ ॥ ग्रन्थमालाप्रसिद्ध्यर्थं पितृवत् तस्य कांक्षितम् । श्री सिंघीसत्पुत्रैः सर्वं तद्गिराऽनुविधीयते ॥ बिजनकृताद्वारा सचिदानन्ददा सदा चिरं लोके जिन बिजय भारती ॥ ६ ८ १० ง १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ-बृहद्गुर्वावलि-विषयानुक्रम ६-८ प्रास्ताविकवक्तव्य खरतरगच्छपट्टावलिसंग्रह - किश्चिद्वक्तव्य खरतरगच्छगुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व वर्द्धमानाचार्यवर्णन २ जिनेश्वरमूरिवर्णन ३ जिनचन्द्रसरि- अभयदेवसरिवर्णन ४ जिनवल्लभसरिवर्णन ५ जिनदत्तसूरिवर्णन ६ जिनचन्द्रसूरिवर्णन ७ जिनपतिसूरिवर्णन ८ जिनेश्वरसूरिवर्णन जिनपालोपाध्यायग्रथितग्रन्थभागपूर्ण ९ जिनप्रबोधसूरिवर्णन १० जिनचन्द्रसूरिवर्णन ११ जिनकुशलमूरिवर्णन १२ जिनपद्मसूरिवर्णन ८-१४ १४-२० २०-२३ २३-४८ ४८-५४ (५०) ५४-५८ ५९-६९ ६९-८५ ८५-८८ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलि १ वर्द्धमानसरिप्रबन्ध २ जिनेश्वरमरिप्रबन्ध ३ अभयदेवसू रिप्रबन्ध ४ जिनवल्लभरिप्रबन्ध ५ जिनदत्तसरिप्रबन्ध ६ जिनचन्द्रसूरिप्रबन्ध ७ जिनपतिसूरिप्रबन्ध ८ जिनेश्वररिप्रवन्ध ९ जिनसिंघसूरिप्रबन्ध १० जिनप्रभसरिप्रबन्ध खरतरगच्छ-गुर्वावलिगतविशेषनाम्नां सूचिः ९३- ९६ ९७-११२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रंथमाला मविला वाजवायला यायती पचास हालात मारय, सनसनात्यावईमाननिननावईमाननिानारामाइनिनचंदाव्यालयादवसनाश्चराश्रीक्षा नव मदनम्ररयायतोऽनिनबंधारव्यानिनपतिमूरयः।।पातपार्वरिततिचिन्मदमत्यायच्याताशह) त्यातलमान्मकघयताष्णाशयालादादामिनयंत्राचायादवदनिवाशिनतरवातिस्वावलकनाया काशासनतिघावहमाननामाशिध्यातस्पवमिहातबावनाकतवरसानिरासोतनासमायातााताद्ययरिसावा यश्यतावनामनमिसममनिायायतारमाननदान तवर्तिवतासुराचानावादतरुणाचितवममामानानमाना हमितिाज्ञाचारिपादस्वापित तयापितस्यमानानरमाता वित्ययहवासस्तावातानाशारा सम्मेत्यानित्यकतिचिन्य निामामातादिल्लीवादलाप्रतिादाशसमायान तम्मिा नवनानिविाद्यातनाचायनरिवस्त्रामात्र स्पया सम्पगगमतबंबामपसंपदग्रहीनवानातदनंतरश्री वहमाननाररियविनाजाताअस्यारिमंत्रस्पाकामि ष्टातातस्यज्ञानाायायवामवयमकाशितगायापवास धराण समागतःतानाम्नरिमंत्रस्वादमाधष्ठावातता। श्वमावधीनरिमनपदानाप्रात्यकफलनिवदितीततस स्फरनाजायमिात्राजातःतनवसंस्करा सपरिवारावधमा नम्ररायाजनिारयस्मिन्प्राविविज्ञप्पडितनिनिश्चरगणिनालगवनवासस्पलिनमतपकिंफलंयदिकवाचिगवानप्रका स्यातायजरचाादाप्रलातादिवरहवाम्यायायव्याश्यानांचनम्नवगम्यानायकपरवानचिमिन्नादिपरिमाय तित्ततासर्वचनातावालामवदत्सवातसहिताश्रात्माचाट्याश्नलिनाक्रामपयनीयाघाबहिस्तमिगतस्यपंडितलिानी स्वरमणिमदितवमानस्सारक्षमामधालानामात्रटाचारामिलिताननसाष्टागाष्टालालानन्प्राध्यादृष्ट्राधान्यानर पताकादोगत्यविनाशिनादारविरिफयतवाचाचाकावल्लभाकायपनायातवपचिकिरत्यावारणप्रम: चाटयतिमदि सायनाम्माकमपिसलाघोद्यासक्चानक नियासितांततासवीपिरामयात्मिनधनाननतोड नाटयंताग्रीहरजयराजश्रीम दुपाधसयमिश्राह्मणवानिपरायानातवानीराख्य:श्रीराममहाराजवानिनाकालिकाययाविदायातमादिविहिनमुवा मारगालातिनापियाद्धितरामायानलका साधनादादश्रीवरासादाशितनामावापिसतावमकतानिने श्रीराम णश्रीसिद्वासनप्रमुखावायीन्ममोकायतिसत्यश्रीएज्यपाकायसीकाहनविकरारकाव्यमालव्यतानवश्रा पूज्यतनहष्टराजसंज्ञायामपिधारावालिलिवशिमकवावयित्रास्पचमारवनाममालामनवबिनवाएपायाय बैंकसमालख्यतालाकश्मावळपियाड्यानाममाखाबवावानपिएकारयकरणाझाकस्पयायकामकामका मसरवावायद्यासकायमपाशीबवयित्वाश्री ज्यिकखसितापवाडलायवारहतायवारमित्यादिया। बतानाकवयसवर्णमिननिष्टाततःश्रीशाजानि प्रतिमज्ञायाघावाशघमालिलिःमापरिक्षाका जयपहाकलपवितन्यसमीण विधवायपिम्पका यानाकराजदमारवलनाघीपविततःमवापिरासस साध्या विविधमकलिकालविलौनकलकलवधिलाकशुश्रीजिनवासानशिलाक्यरत:तिशायिकलाकलाप कालता:श्रीनरिवरातिश्रीश्ययणगणवर्णनपराजाज्ञाश्रीज्याश्चमराजगजमनावितश्चमकारसमुत्पाद्यत्रासाघपादा वक्षारयावकःतवडावत्यादिमायणाचवविधमाघनवरिवस्यमानाःत्रीज्यानजडीबानयादावधारयामासातच चनिदिधासमानारणानिनिदानस्वहिप्पवस्त्राश्चप्रमुखवसवितानमहादानप्रदानयात्रताकतामयम्बकाया स्वायातयमासंघमुरुषमाधामाघादवसमावकसाारणाश्रीउदयसिहमहारानावराजालाकनागरिकाला कसपुरयागमान पामाानवर अफ्विाद्यषुश्रीसंघसदिनादिवालयस्पनावताकमहामादाचा खरतरगच्छ बृहदगुर्वावलि की प्रतिके आद्यंत पत्र । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । सिंघी जैन ग्रन्थमालाके ४२ वें गुच्छकके रूपमें, प्रस्तुत होने वाली इस 'खरतर गच्छीय युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' (संक्षेपमें - खरतर बृहद् गुर्वावली) की प्राचीन हस्तलिखित प्रति, मूलतः बीकानेर निवासी श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटाको, वहांके सुप्रसिद्ध क्षमाकल्याणजीके ग्रन्थभंडारमें उपलब्ध हुई थी। कोई १९-२० वर्ष पहले, इनने उस प्रतिको हमें देखनेके लिए भेजा । ग्रन्थको देखनेसे, हमें ऐतिहासिक दृष्टिसे यह बहुत महत्त्वका मालूम दिया. अतः प्रस्तुत ग्रन्थमालामें इसे प्रकाशित करनेका हमने निश्चय किया । तदनुसार प्रेसमें देने योग्य ग्रन्थकी प्रतिलिपि (प्रेसकॉपी) कर वाई गई। प्रतिलिपिके पढने पर ज्ञात हुआ कि मूल प्रति बहुत ही अशुद्ध रूपमें लिखी गई है। प्रत्येक पंक्ति अशुद्धप्राय ज्ञात हुई । अतः इसका कोई प्रत्यन्तर कहींसे उपलब्ध हो तो उसे प्राप्त करनेका प्रयत्न किया गया पर उसमें हमें सफलता नहीं मिली । तब उसी प्रतिको वारंवार आद्योपान्त पढ पढ कर, उसकी अशुद्धियोंका तारण किया गया, तो ज्ञात हुआ कि, जिस लहिया (लिपिकारक) ने यह प्रति लिखी है, उसने अपने सन्मुखवाली मूलाधार प्रतिके कुछ अक्षरोंको, भ्रमसे कुछ अन्य ही अक्षर समझ समझ कर उनके स्थान पर, अपने अक्षर ज्ञानके मुताबिक, अन्य अक्षर लिख डाले हैं; और इससे, ग्रन्थ बहुत ही अशुद्ध हो गया है । ग्रन्थगत विषय हमारे लिये सुपरिचित था और इस प्रकारकी अन्यान्य अनेक छोटी-बडी गुर्वावलियां - पट्टावलियां भी हमारे संग्रहमें उपलब्ध थीं; अतः तदनुसार हमने सारे ग्रन्थके पाठको शुद्ध करनेका यथाशक्य प्रयत्न किया । कई महिनोंके परिश्रमके बाद हम इस ग्रन्थकी शुद्ध प्रतिलिपि करनेमें सफल हुए। बादमें हमें इस गुर्वावलिकी एक अन्य त्रुटित और अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई, जिसके साथ मिलान करने पर हमें ज्ञात हुआ कि हमने जो पाठकी शुद्धि की है वह ठीक उस प्रतिमें उसी तरह मिल रहा है । उस अपूर्ण प्रतिमें कुछ पाठभेद भी दृष्टिगोचर हुए, जिनको हमने इस मुदित पाठके नीचे, पाद-टिप्पनीमें दे दिये हैं । वह अपूर्ण प्रति केवल ५ पन्नेकी थी, जो प्रस्तुत ग्रन्थके २३ वें पृष्ठ पर छपी हुई १२ वीं पंक्तिके 'श्री जिनपतिसूरिरिति नाम कृतम् ।' इस वाक्यके साथ खण्डित हो जाती है। गुर्वावलिकी उक्त मूल प्रतिके दो पृष्ठोंका ब्लाक बनवा कर, उनका प्रतिचित्र साथ दिया जा रहा है, जिससे मूल प्रतिके आकार-प्रकारका एवं लिपिके स्वरूपका तादृश ज्ञान हो सकेगा। इस ग्रन्थका मुद्रण कार्य बहुत समयसे समाप्त हुआ पडा है पर विधिके किसी अज्ञात संकेतानुसार हम अभी तक इसको प्रसिद्धि में रख नहीं सके। हमारी इच्छा रही कि इस विशिष्ट प्रकारकी ऐतिहासिक गुर्वावलिसे संबद्ध, तत्कालीन जैन श्वेताम्बर संप्रदायों और गच्छोंके बारेमें भी, विस्तृत ऊहापोहात्मक निबन्ध लिखा जाय और यथाज्ञात सब प्रकारकी ऐतिहासिक सामग्रीका संकलन कर दिया जाय । इस विषयकी बहुत सी सामग्री हमने संचित कर रखी है। और इसी लिये कई वर्षों तक इसकी प्रसिद्धि रुकी रही । पर हमारे लिये वैसा करना अब संभव नहीं रहा, अतः इसको इसी मूल रूपमें ही प्रसिद्धिमें रख देना उचित समझा है। प्रस्तुत 'गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व' बतलाने वाला श्री अगरचन्दजी नाहटाका एक लेख, हमारी संपादित भारतीय विद्या' नामक त्रैमासिकी शोधपत्रिकाके, प्रथम वर्षके ४ थे अंकमें प्रकाशित हुआ है । इस लेखके प्रारंभमें, गुर्वावलिकी परिचायक एक छोटी-सी नोंध (नोट) हमने लिखी थी जिसको यहां उद्धृत करते हैं। साथमें आगेके पृष्ठोंमें नाहटाजीका वह लेख भी मुद्रित किया जाता है, जिससे पाठकोंको प्रस्तुत ग्रन्थके ऐतिहासिक तथ्योंके बारेमें योग्य जानकारी प्राप्त हो सकेगी। ["सिंघी जैन ग्रन्थमालामें खरतरगच्छ-युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली नामक एक संस्कृत गद्य ग्रन्थ छप रहा है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा । इस ग्रन्थमें विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके प्रारंभमें होने वाले आचार्य वर्द्धमान सूरिसे ले कर १४ में शताब्दीके अन्तमें होने वाले जिनपद्म सूरि तकके खरतर गच्छके मुख्य आचार्योंका विस्तृत चरितवर्णन है। गुर्वावली Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर वृहद्गुर्वावलि-प्रास्ताविक वक्तव्य अर्थात् गुरुपरम्पराका इतना विस्तृत और विश्वस्त चरितवर्णन करने वाला ऐसा कोई और ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ । प्रायः ४००० श्लोक परिमाण यह ग्रन्थ है और इसमें प्रत्येक आचार्यका जीवनचरित्र इतने विस्तारके साथ दिया गया है, कि जैसा अन्यत्र किसी ग्रन्थमें, किसी भी आचार्यका नहीं मिलता। पिछले कई आचार्योंका चरित्र तो प्रायः वर्षवारके क्रमसे दिया गया है और उनके विहार-क्रमका तथा वर्षा-निवासका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । किस आचार्यने कब दीक्षा ली, कब आचार्य पद्वी प्राप्त की, किस किस प्रदेशमें विहार किया, कहां कहां चातुर्मास किये, किस जगह कैसा धर्मप्रचार किया, कितने शिष्य-शिष्याएं आदि दीक्षित किये, कहां पर किस विद्वानके साथ शास्त्रार्थ या वादविवाद किया, किस राजाकी सभामें कैसा सम्मान आदि प्राप्त किया – इत्यादि बहुत ही ज्ञातव्य और तथ्य-पूर्ण बातोंका इस ग्रन्थमें बडी विशद रीतिसे वर्णन किया गया है । गुजरात, मेवाड, मारवाड, सिन्ध, वागड, पंजाब, और नेक देशोंके. अनेक गांवों में रहने वाले सेंकडों ही धर्मिष्ठ और धनिक श्रावक-श्राविकाओंके कटंबोंका और व्यक्तियोंका नामोल्लेख इसमें मिलता है और उन्होंने कहां पर, कैसे पूजा-प्रतिष्ठा एवं संघोत्सव आदि धर्मकार्य किये, इसका निश्चित विधान मिलता है । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह ग्रन्थ, अपने ढंगकी एक अनोखी कृति जैसा है । हम इसका हिन्दी अनुवादके साथ संपादन कर रहे हैं । इस ग्रन्थके आविष्कारक बीकानेर निवासी साहित्योपासक श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा हैं और इन्होंने ही हमें इस प्रन्यके संपादनकी सादर प्रेरणा की है। साथमें दिये गये लेखमें नाहटाजीने इस ग्रन्थका ऐतिहासिक महत्त्व क्या है और सार्वजनिक दृष्टिसे भी किन किन ऐतिहासिक बातोंका ज्ञातव्य इसमें प्राप्त होता है, यह संक्षेपमें बतानेका प्रयत्न किया हैं।" - भारतीय विद्या, पुस्तक १, अंक ४, पृष्ठ २९९] इस 'गुर्वावलि' के पीछे हमने एक और ऐसी ही गुर्वावलिरूप ‘वद्धाचार्य प्रबन्धावलि' नामक कृति मुद्रित की है । यह कृति प्राकृत भाषामें प्रथित है । इसमें वर्द्धमान सूरिसे ले कर जिनप्रभ सूरि तकके १० आचार्योंका वर्णन दिया गया है। ज्ञात होता है कि 'विविध तीर्थकल्प' आदि अनेक ग्रन्थोंके प्रणेता जिनप्रभ सृरिकी शिष्यपरंपराके किसी शिष्यने इस प्रबन्धावलिका प्रणयन किया है। पाटणके भण्डारमें उपलब्ध प्राचीन प्रति परसे इसका संपादन किया गया है । जिनप्रभ सूरिने दिल्लीके बाहशाह महम्मुशाहकी समामें विशेष सम्मान प्राप्त किया था जिसका उल्लेख, इनसे संबद्ध कई पट्टावलियों एवं प्रबन्धत्मक कृतियोंमें उपलब्ध होता है । हमारी संपादित 'विधिप्रपा' तथा 'विविधतीर्थ कल्प' नामक कृतिकी प्रस्तावना आदिमें इन जिनप्रभ सूरिके बारेमें यथायोग्य वर्णन लिखा गया है। जिनप्रभ सूरि अपने समयमें एक बहुत प्रभावशाली और प्रतिभासंपन्न आचार्य हुए। पर उनके बारे में, प्रस्तुत बृहद् गुर्वावलिमें नामोल्लेख तक भी नहीं किया गया है । यद्यपि वे खरतर गच्छान्तर्गत एक शाखाके ही प्रसिद्ध आचार्य थे। इससे सूचित होता है कि बृहद्गुर्वावलिके संकलनकर्ताका मुख्य लक्ष्य अपनी गुरुपरंपराका महत्त्व मात्र आलेखित करना रहा है और इससे उसने अन्य गच्छीय एवं अन्य शाखीय आचार्योंके बारेमें विशेष रूपसे उपेक्षात्मक और कहीं कहीं तो आक्षेपात्मक वाक्यों एवं विचारोंका उल्लेख करनेमें अपना अधिक गौरव समझा है । उपकेशगच्छीय आचार्य पद्मप्रभ तथा बृहद्गच्छीय आचर्य प्रद्युम्नसूरिके साथ जिनपति सूरिके वाद-विवादके प्रसंग अतिरंजित और अतिबालिश शैलीमें लिखे गये हैं । तथापि उस समयके जैन समाजके प्रभाव और संघटनके बारमें इस ग्रन्थमें ऐसी बहुत सी महत्त्वकी बातें लिखीं मिलती हैं, जो इतिहास और संस्कृतिके ज्ञानमें वृद्धिकारक हो कर मनोरंजक एवं प्रेरणादायक भी हैं। इस सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा, जैन इतिहास एवं संस्कृतिके आलेखनमें आधारभूत समझी जाने वाली विविध प्रकारकी साहित्यिक सामग्रीका प्रकाशन करनेका हमरा मुख्य लक्ष्य रहा है, और तदनुसार हमने अब तक अनेकानेक ऐतिहासिक प्रबन्धात्मक ग्रन्थ, एवं प्रशस्तिसंग्रहात्मक संकलन प्रकाशित करनेका प्रयत्न किया है। प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातन प्रबन्धसंग्रह, प्रबन्धकोश, प्रभावकचरित्र, भानुचन्द्रगणी चरित्र, देवानन्द महाकाव्य, दिग्विजय महाकाव्य, जैनपुस्तक प्रशस्तिसंग्रह, विविधतीर्थकल्प आदि नाना ग्रन्थ इतःपूर्व प्रकाशित किये गये हैं; तथा कुमारपालचरित्र Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर बृहद्गुळवलि-प्रास्ताविक वकव्य ३ संग्रह, वस्तुपालप्रशस्त्यादिकृतिसंग्रह, हमीरमहाकाव्य, विज्ञप्तिलेखसंग्रह - आदि कई ग्रन्थ प्रायः छप कर तैयार पडे हैं जो यथाशक्य शीघ्र ही प्रसिद्ध होने वाले हैं । इसी प्रकारके ऐतिहासिक ग्रन्थोंमें प्रस्तुत गुर्वावलिके समानविषय वाली विविध गच्छीय पट्टावलियों-गुर्वावलियोंके २-३ संग्रह भी प्रकट करनेका आयोजन किया गया है, जिनमेंसे यह एक प्रस्तुत गुर्वावलि, इस प्रकार विद्वानोंके सम्मुख उपस्थित हो रही है । बहद्दच्छ. उपकेश गच्छ, पूर्णिमा गच्छ, आंचलिक गच्छ, कटकमति गच्छ आदि अन्य कई गच्छोंका इतिहास बताने क पट्टावलियोंका एक ऐसा ही अन्य संग्रह प्रेसमें छप रहा है । तपागच्छसे संबद्ध पट्टावलियोंका एक विशाल संग्रह भी तैयार हुआ पडा है । खरतर गच्छीय पट्टावलियोंका एक छोटा सा संग्रह, सबसे पहले हमने, सन् १९२०-२१ में पूनामें रहते हुए जब 'जैनसाहित्य संशोधक' नामक त्रैमासिक पत्रका प्रकाशन शुरू किया तब, संकलित करनेका प्रयास किया था। बादमें हमारा कार्यकेन्द्र पूनासे हट कर, अहमदाबादका गुजरात - पुरातत्त्व - मन्दिर बना, तब वह संग्रह उपेक्षित दशामें पड़ा रहा। बादमें कलकत्तेके प्रसिद्ध जैन धनिक और विद्वान श्रावक स्व० बाबू पूरण चन्दजी नाहारके सौहार्दपूर्ण प्रयत्नके फलरूप सन् १९३२ में, कलकत्तसे वह संग्रह प्रकाशित हो पाया। हम उस समय शान्तिनिकेतनमें 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' के अधिष्ठाता हो कर पहुंचे थे और 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के प्रकाशनका कार्य बडे उत्साह पूर्वक प्रारंभ करना चाहते थे । उस समय बाबू पूरणचन्दजी नाहारको उक्त 'खरतरगच्छ पट्टावलि संग्रह' के बारेमें ज्ञात हुआ तो उनने उस संग्रहको, अपनी श्रद्धालु धर्मपत्नी श्रीमती इन्द्रकुमारीके ज्ञानपंचमी तप उद्यापन निमित्त प्रकाशित करनेका अपना मनोभाव प्रकट किया । हमने उनकी इच्छानुसार वह संग्रह उन्हें प्रकाशित करनेको दे दिया और उस पर एक प्रास्ताविक 'किञ्चिद् वक्तव्य' भी लिख दिया । पट्टावलियोंके संग्रह आदिके बारेमें ३०-३५ वर्ष पूर्व, हमने कैसे प्रयत्न आरंभ किया और ऐसे संग्रहोंका इतिहास की दृष्टि से क्या उपयोग है, इस बारेमें जो हमारा अभिमत रहा उस का कुछ उल्लेख उक्त वक्तव्यमें किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थके संपादन के साथ उसका कुछ ऐतिहासिक संबन्ध सा जुडा हुआ है, अतः उस वक्तव्यको आगेके पृष्ठों में उद्धृत कर देना उचित समझा है । आज जुलाई मासकी ७ तारीख है। हमारे लिये एक प्रकारसे यह शोकसूचक दिन है। ग्रन्थमालाके संस्थापक और हमारी साहित्योपासनाके प्रमुख सहायक बाबू श्रीबहादुर सिंहजी सिंघीकी आज १२ वीं स्वर्गमन-वर्षग्रन्थि है। प्रतिवर्ष हम आजके दिन, स्वर्गस्थ सिंघीजीकी कल्याण-कामना चाहते हुए अपनी हार्दिक श्राद्धक्रिया करते रहते हैं । तदनुसार, आज हम उनके दिवंगत भव्य आत्माकी पुण्यस्मृतिको, इस ग्रन्थरूपमें संपादित हमारी यह कृति समर्पण करते हैं। भने कान्त विहार । अहमदाबाद ७, जुलाई, सन १९५६ मुनि जिन विजय Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ -पट्टावलि संग्रह संग्राहक एवं संपादक मुनि जिनविजय, अधिष्ठाता-सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन । (प्रकाशक-बाबूपूरण चन्दजी नाहार, इण्डियन मिरर स्ट्रीट, कलकत्ता।) संपादकीय किश्चित् वक्तव्य । लगभग ६७ वर्षसे खरतरगच्छीय पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह छप कर तैयार हुआ था, लेकिन विधिके किसी अज्ञेय संकेतानुसार आज तक यह यों ही पड़ा रहा और यदि विद्वद्वर बाबू पूरणचंदजी नाहारकी उपालंभ भरी हुई मीठी चुटकियोंकी लगातार भरमार न होती तो शायद कुछ समय बाद यह संग्रह साराका सारा ही दीमकके पेटमें जा कर विलीन हो जाता। पूनामें रह कर जब हम 'जैनसाहित्य-संशोधक' का प्रकाशन करते थे उस समय अहमदाबाद-निवासी साहित्य-रसिक विद्वान् श्रावक श्री केशवलाल प्रे० मोदी B. A. LL. B. ने खरतरगच्छ की एक पुरानी पट्टावलीकी लिखित प्रति हमें ला कर दी-जिसमें इस संग्रहमें की प्रथम ही छपी 'खरतरगच्छ-सृरिपरंपरा-प्रशस्ति' लिखी हुई थी। उस समय तक खरतरगच्छ की जितनी पट्टावलियां हमारे देखने अथवा संग्रह करनेमें आई उन सबमें यह प्रशस्ति हमें प्राचीन दिखाई पड़ी इसलिये हमने इसकी तुरंत नकल कर, 'जैन सा० सं०' के परिशिष्ट रूपमें छपवा देनेके विचारसे प्रेसमें दे दी। कुछ समय बाद मोदीजीने एक और पट्टावली भेजी जो गद्यमें थी और साथमें उन्होंने यह भी इच्छा प्रदर्शित की कि इसे भी यदि उसी प्रशस्तिके साथ छपवा दिया जाय तो अच्छा होगा । हमने उसकी भी नकल कर प्रेसमें छपनेको दे दी। जब ये प्रेससे कंपोज हो कर आई तो पूरे फार्म होनेमें कुछ पृष्ठ खाली रहते दिखाई दिये, तब हमने सोचा कि यदि इसके साथ ही साथ उपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी की बनाई हुई बृहत्पावलि भी दे दी जाय तो खरतरगच्छके आचार्योंकी परंपराका १९ वीं शताब्दि पर्यंतका वृत्तान्त, प्रकट हो जायगा और इतिहास प्रेमियोंको उससे अधिक लाभ होगा । इस पट्टावलीकी प्रेस कापी की हुई हमारे संग्रहमें बहुत प.ले ही से पड़ी हुई थी; अतः हमने उसे भी प्रेसमें दे दिया। इसी तरह की, लेकिन इससे प्राचीन एक और पट्टावली हमारे पास थी उसे भी, प्रत्यंतर होनेसे विशेष उपयोगी समझ कर, इसी संग्रहमें प्रकट करनेका हमें लोभ हो आया और उसे भी छपने दे दिया। इस प्रकार चार पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह जब तैयार हो गया, तब हमने इसे 'जैन सा० सं०' के परिशिष्ट रूपमें न दे कर स्वतंत्र पुस्तकाकार प्रकट करनेका विचार किया और यह स्वतंत्र पुस्तकका विचार मनमें घुसते ही हमारे दिल में एक नया भूत आ घूसा । हम सोचने लगे कि जब पुस्तक ही बनाना है तब फिर क्यों नहीं विशेष रूपसे एक संकलित ऐतिहासिक ग्रंथके आकार में इसे तैयार कर दिया जाय और खरतर गच्छके इतिहासके जितने मुख्य मुख्य और महत्वके साधन हों उन्हें एकत्र रूपमें संगृहीत कर दिया जाय।क्यों कि हमारे संग्रहमें इस विषयकी कितनी ही सामग्री - इन पट्टावलियोंके अतिरिक्त कई अन्य भाषाकी पट्टावलियां, ग्रंथप्रशस्तियां तथा ख्यात आदि विविध प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री - इकट्ठी हुई पड़ी थी। उस सब सामग्रीको संकलित कर ऐतिहासिक ऊहापोह करनेवाली विस्तृत भूमिका और टीका टिप्पणी आदि साथमें लगा कर इस संग्रहको परिपूर्ण बना दिया जाय तो श्वेताम्बर जैन संघके एक बड़े भारी शाखा-समुदायका अच्छा और प्रामाणिक इतिहास तैयार हो जाय । इस भूतके आवेशानुसार हमने उस सब सामग्रीका संकलन करना शुरू किया । ऐसा करनेमें हमें कुछ अधिक समय लग गया और अहमदाबादके पुरातत्त्व मंदिरके आचार्यपदके भारने हमारी पूनाकी विशेष स्थितिको अस्थिर बना दिया। इसलिये इस संग्रहके विस्तृत-संकलनका जो विचार हुआ था वह शिथिल होने लगा और चिरकाल तक कुछ कार्य न हो सका। इधर जिस प्रेसमें यह संग्रह छपा उसके मालिकने छपाईके खर्च आदिका तकाजा करना शुरू किया। जिस विस्तृत रूपमें इसे प्रकाशित करनेका सोचा था उसमें बहुत कुछ समय और अर्थव्ययकी आवश्यकता अनुभूत हुई और शीघ्र ही इस कार्यको परिपूर्ण करने जैसे संयोग दिखाई न दिये, अतः हमने उस विचारको स्थगित किया और यह संग्रह जो इस रूपमें छप गया था, इसे ही प्रकाशित कर देना उचित समझा। इसी बीचमें बाबूवर्य श्री पूरणचंदजी नाहारके अवलोकनमें यह छपा हुआ संग्रह आया और आपने इसे अपने खर्चसे प्रकाशित कर अपनी धर्मपत्नी श्रीमती इंद्रकुमारीजीके ज्ञान पंचमी तपके उद्यापन निमित्त वितीर्ण कर देनेका अभिप्राय प्रकट किया। तदनुसार पूनासे यह छपा हुआ ग्रंथ-भाग कलकत्ते मंगवा लिया गया और प्रेसका बिल इत्यादि चुकता किया गया। इस संग्रहके साथमें हम कुछ दो शब्द लिख दें तो इसे प्रकाशित कर दिया जाय ऐसी बाबूजीकी इच्छाको हमने सादर स्वीकार कर, हम इस विषयमें कुछ सोचते ही थे कि कुछ ऐसे प्रसंग, एकके बाद एक, उपस्थित होते गये जिससे वर्षों तक हम उनकी उस आज्ञाका पालन नहीं कर सके और २४ घंटेके कामको २।४ वर्ष तक ठेलते रहना पड़ा। सन् १९२८ के प्रारम्भमें महात्माजीने गुजरात-विद्यापीठकी पुनर्घटना की, और विद्यापीठका ध्येय 'विद्या' नहीं 'सेवा' निश्चित किया और साथमें कई प्रतिज्ञाओंका बन्धन भी लगाया। हमारा उसमें कुछ विशेष मतभेद रहा और हमने अपने विचारोंको स्थिर करनेके लिए कुछ समय तक, विद्यापीठके वातावरणसे दूर रहना चाहा । इसीके बाद तुरंत हमारा इरादा युरोप जानेका हुआ। युरोपमें सामाजिक और औद्योगिक तंत्रोंका विशेषावलोकन करनेका हमें अधिक मौका मिला और उसमें हमें अत्यधिक रुचि उत्पन्न हुई । हमारा जो आजीवन अभ्यस्तविषय संशोधनका है, उसमें तो हमें वहां कोई नवीन सीखनेकी बात नहीं दिखाई दी, क्यों कि जिस पद्धति और दृष्टिसे युरोपियन पण्डितगण संशोधन कार्य करते हैं, वह हमें यथेष्ट ज्ञात थी और उसी पद्धति तथा दृष्टिसे हम बहुत समयसे अपना संशोधन-कार्य करते भी आते थे। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर बृहद्गुर्वावलि-प्रास्ताविक वक्तव्य केवल वहांके विद्वानोंका उत्साह और एकाग्रभाव विशेष अनुकरणीय मालुम हुआ।हमें जो खास अध्ययन करनेके विशेष विचार मालुम दिये, वे वहांके समाजवाद-विषयक थे। इन विचारोंका अध्ययन करते हुए हमारी जीवनाभ्यस्त जो संशोधन-रुचि है, वह शिथिल हो चली। समाजजीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाली बातोंने मस्तिष्कमें अड्डा जमाना शुरू किया। इन बातोंका विशिष्ट अध्ययन करनेके लिये हमारी इच्छा वहां पर कुछ अधिक काल तक ठहरनेकी थी, लेकिन संयोगवश हमको जल्दी ही भारत लौट आना पडा । इधर आने पर नाहारजीने इस संग्रहकी सर्वप्रथम ही याद दिलाई, लेकिन सत्याग्रहके नूतन युद्ध में जुड जानेके कारण और फिर जेलखाने जैसे एकान्तवासके विलक्षण अनुभवानन्दमें निमग्न हो जानेके कारण इन, पुरानी बातोंका स्मरण करना भी कब अच्छा लगता था । एक तो यों ही मस्तिष्कमें समाज-जीवनके विचारोंका आन्दोलन घुडदौड कर रहा था, और उसमें फिर भारतकी इस नूतन राष्ट्रकान्तिके आंदोलनने सहचार किया । ऐसी स्थितिमें हमारे जैसे नित्य परिवर्तनशील प्रकृति वाले और क्रान्तिमें ही जीवनका विकाश अनुभव करने वाले मनुष्यके मनमें, वर्षों तक पुराने विचारोंका संग्रह कर रखना, और फिर जब चाहें तब उन्हें अपने सम्मुख एकदम उपस्थित हो जानेकी आदत बनाये रखना दुःसाध्य-सा है। जेलमुक्ति होने पर विधाता हमें शान्तिनिकेतन खींच लाया। विश्वभारतीके ज्ञानमय वातावरणने हमारे मनको फिर ज्ञानोपासनाकी तरफ खींचना शुरू किया और हमारी जो स्वाभाविक संशोधन-रुचि थी, उसको फिर सतेज बनाया। वर्षों से हमने २।४ ऐतिहासिक ग्रन्थोंके सम्पादन और संशोधनका संकल्प कर रखा था और उसका कुछ काम हो भी चुका था, इसलिये रह-रह कर यह तो मनमें आया ही करता था कि यदि इस संकल्पके पूरा करनेका कोई मनःपूत साधन सम्पन्न हो जाय, तो एक बार इसको पूरा कर लेना अच्छा है। बाबू श्री बहादुरसिंहजी सिंघीके उत्साह, औदार्य, सौजन्य और सौहार्दने हमारे इस संकल्पको एकदम मूर्तिमन्त बना दिया और हम जो सोचते थे, उससे भी कहीं अधिक मनःपूत साधनकी संप्राप्ति देख कर, परिणाममें हमने सिंघी जैन ज्ञानपीठ और सिंघी जैन ग्रन्थमाला का कार्यभार उठाना स्वीकार कर लिया। जबसे हम यहां आये, तभीसे इस संग्रहके लिये श्री नाहारजीका बराबर स्मरण दिलाना चालू रहा। हम भी आज लिखते हैं, कल लिखते हैं, ऐसा जवाब दे कर उन्हें आशा दिलाते रहते थे। बहुत समय बीत जानेके कारण इस विषयमें जो कुछ हमारे पुराने विचार थे और जो कुछ हमने लिखना सोचा था, वह स्मृति-पट परसे अस्पष्ट सा हो गया । जिन प्रतियों परसे यह संग्रह मुद्रित हुआ था, वे मी पासमें नहीं रहनेसे, इस विषयमें क्या लिखें, कुछ सूझ नहीं पड़ती थी। 'विज्ञप्ति त्रिवेणि', 'कृपारस कोष', 'शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रबन्ध' इत्यादि पुस्तकोंके संपादन के बाद हमारा हिन्दी-लेखन प्रायः बन्द-सा ही है। पिछले कई वर्षोंसे निरन्तर गुजराती भाषा ही में चिन्तन, मनन, लेखन, और वाग्व्यवहार चलते रहनेसे हिन्दी-भाषाका एक तरहसे परिचय ही छूट गया। इस कारण से कुछ हिन्दी लिखनेका ठीक ठीक चित्तैकाग्र्य न हो पाता था। लेकिन पिछले कुछ दिनोंमें हमारा साहित्य-संग्रह हमारे पास पहुंच गया और वर्षोंसे संदूकोंमें बंद पड़े हुए पुराने कागजों और टिप्पणों को उथल पुथल करते समय, इस विषयके कुछ साधन भी हाथमें आ गये, जिससे ये पंक्तियां लिखनेका मनमें कुछ विचार हो आया । बस यही इस संग्रहके बारेमें हमारा किञ्चित् वक्तव्य है। श्वेताम्बर जैन संघ जिस खरूपमें आज विद्यमान है, उस स्वरूपके निर्माणमें, खतरतर गच्छके आचार्य, यति और श्रावक-समूहका बहुत बड़ा हिस्सा है। एक तपागच्छको छोड़ कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरवकी बराबरी नहीं कर सकता। कई बातोंमें तपागच्छसे भी इस गच्छका प्रभाव विशेष गौरवान्वित है । भारतके प्राचीन गौरवको अक्षुण्ण रखने वाली राजपूतानेकी वीर भूमिका, पिछले एक हजार वर्षका इतिहास, ओसवाल जातिके शौर्य, औदार्य, बुद्धि-चातुर्य और वाणिज्य-व्यवसाय-कौशल आदि महद् गुणोंसे प्रदीप्त है और उन गुणोंका जो विकाश इस जातिमें, इस प्रकार हुआ है, वह मुख्यतया खरतरगच्छके प्रभावान्वित मूल पुरुषोंके सदुपदेश तथा शुभाशीर्वादका फल है। इसलिये खरतरगच्छका उज्वल इतिहास यह केवल जैन संघके इतिहासका ही एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण नहीं है, बल्कि समग्र राजपूतानेके इतिहासका एक विशिष्ट प्रकरण है । इस इतिहासके संकलनमें सहायभूत होने वाली विपुल साधन-सामग्री इधर-उधर नष्ट हो रही है । जिस तरहकी पट्टावलियां इस संग्रहमें संगृहीत हुई हैं, वैसी कई पट्टावलियां और प्रशस्तियां संगृहीत की जा सकती हैं और उनसे विस्तृत और शृंखलाबद्ध इतिहास तैयार किया जा सकता है। यदि समय अनुकूल रहा, तो 'सिंधी जैन ग्रंथमाला' में एक-आध ऐसा बडा संग्रह जिज्ञासुओंको भविष्यमें देखनेको मिलेगा। बाबू श्री पूरणचंदजी नाहारने बड़ा परिश्रम और बहुत द्रव्य व्यय करके जैसलमेरके जैन शिलालेखोंका एक अपूर्व संग्रह प्रकाशित कर इस विषयमें विद्वानों और जिज्ञासुओंके सम्मुख एक सुन्दर आदर्श उपस्थित कर दिया है । इसके अवलोकनसे, राजपूतानेके जूने पुराने स्थानों में जैनोंके गौरवके कितने स्मारक-स्तंभ बने हुए हैं तथा उनसे हमारे देशके ज्वलन्त इतिहासकी कितनी विशाल-समृद्धि प्राप्त हो सकती है उसकी कुछ कल्पना आ सकती है। इस ग्रंथमें प्रायः खरतरगच्छके ही इतिहासकी बहुत सामग्री संगृहीत है जो इस पट्टावलिवाले संग्रहकी बातोंको पुष्टि करती है तथा कई बातोंकी पूर्ति करती है। इन सब बातोंके दिग्दर्शनकी यह जगह नहीं है। ऐसे संग्रहों के संकलन करनेमें कितना परिश्रम आवश्यक है वह इस विषयका विद्वान् ही जान सकता है 'विद्वानेव जानाति विद्वजनपरिश्रमः'।। जैसलमेरके लेखोंका ऐसा सुन्दर संग्रह प्रकाशित कर तथा इस पट्टावली संग्रहको भी प्रकट करवा कर श्रीमान् नाहारजीने खरतरगच्छकी अनमोल सेवा की है । एतदर्थ आप अनेक धन्यवादके पात्र हैं। आपका इस प्रकार जो स्नेहपूर्ण अनुरोध हमसे न होता तो यह संग्रह यों ही नष्ट हो जाता और इसके तैयार करनेमें जो कुछ हमने परिश्रम किया था वह अकारण ही निष्फल जाता। अतः हम भी विशेष रूपसे आपके कृतज्ञ हैं। सिंघी जैन शान पीठ शान्ति निकेतन मुनि जिन विजय पर्युषणा प्रथम दिन, सं. १९८७ ) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ - गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व [लेखकः-श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा - संपादक राजस्थानी ] ऐतिहासिक साहित्यकी दृष्टिसे खरतरगच्छ गुर्वावली एक अत्यन्त महत्त्वका और अपने ढंगका अद्वितीय ग्रन्थ है। कुछ वर्ष पूर्व, बीकानेरके प्राचीन जैन ज्ञान भंडारोंका अन्वेषण करते हुए हमें यह निधि उपलब्ध हुई थी। इसमें विक्रमकी ग्याहरवीं शताब्दीके उत्तरार्द्धसे ले कर वि० सं० १३९३ तकके खरतरगच्छीय जैनाचार्योंका विस्तृत और विश्वसनीय इतिवृत्त लिखा हुआ है। इस वृत्तान्तसे तत्कालीन भारतीय इतिहासकी और और बातों पर भी अच्छा प्रकाश पडता है । जो लोग कहते हैं कि भारतमें संवतानुक्रमसे शृंखलाबद्ध इतिहास लिखनेकी प्रणाली सर्वथा नहीं थी उन्हें निरुत्तर करनेके लिये यह ग्रन्थ एक पर्याप्त उदाहरणरूप है । [-प्रस्तुत गुर्वावलीमें सं० १३०५आषाढ सु० १० तकका वृत्तान्त तो श्रीजिनपति सूरिजीके विद्वान शिष्य श्रीजिनपालोपाध्यायने दिल्ली निवासी सेठ साहुलीके पुत्र हेमचंद्रकी अभ्यर्थनासे संकलित किया है। इसके पश्चात्का वर्णन भी पट्टधर आचार्योंके साथमें रहने वाले व दफ्तर रखनेवाले विद्वान् मुनियों द्वारा लिखा गया प्रतीत होता है। यह प्रति पत्र ८६ की है और प्रायः पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दीमें लिखी होकर बीकानेरस्थ श्रीक्षमाकल्याण ज्ञानभंडारमें विद्यमान है। इसमें सं०१३९३ तकका इतिवृत्त है। इसके पीछेका इतिहास जाननेके लिये हमें कोई भी इस कोटिकी गुर्वावली उपलब्ध नहीं है, परन्तु शृंखलाबद्ध इतिहास लिखनेकी प्रणाली तो पीछे भी बराबर रही है। सं० १८६० की एक सूचीके अनुसार, जेसलमेरके सुप्रसिद्ध ज्ञानभंडारमें, उस समय ३१२ पत्र जितनी विस्तृत एक गुर्वावली वहां विद्यमान थी। यदि यह गुर्वावली प्राप्त हो जाय तो अनेकों नवीन ज्ञातव्य मिले। खेद है कि अभीतक तो वर्तमान श्रीपूज्योंके पास प्राचीन दफ्तर भी नहीं मिलते । पाठकोंको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि इसका सम्पादन पुरातत्त्वचार्य श्री जिनविजयजी जैसे विद्वान् द्वारा हो रहा है। यह ग्रन्थ दो तरहकी शैलीमें संकलित किया हुआ है । श्री जिनेश्वर सूरिजीसे श्री जिनदत्त सूरिजीके खर्गवास सं० १२११ तकका वृत्तान्त तो, सं० १२९५ में सुमतिगणि द्वारा रचित 'गणधरसार्द्धशतक-बृहद्वृत्ति' के अनुसार ही प्राचीन शैलीका है। पर इसके पश्चात्की प्रत्येक घटना संवतानुक्रम और शुखलाबद्ध रूपसे लिखी गई है, जो घटना ओंके साथ साथ लिखी हुई डायरी-सी प्रतीत होती है । जैनाचार्योंका विहारानुक्रम, मार्गवर्ती ग्राम-नगर, दीक्षाएं, प्रतिष्ठाएं तत्तत् ग्रामवासी श्रावकोंके नाम, राजसभाओंमें किये गये शास्त्रार्थ, तीर्थयात्रा वर्णन - इत्यादि सभी बातें इतनी विशदताके साथ लिखी गई हैं कि तत्कालीन परिस्थिति आंखोंके सामने आ जाती है । भ्रमणशील जैनाचार्योंके प्रवास मार्गका वर्णन तो भारतीय साहित्यमें एक नवीन वस्तु है । क्यों कि भारतके साहित्यमें प्रायः इसका अभाव ही है । हमारे पास, जो कुछ विदेशी विद्वानोंने भ्रमणवृत्तान्त लिखे, वे ही उपलब्ध हैं। पर उनमें स्थानोंके नामादिमें कई भूलें हुई हैं; किन्तु इसमें विशुद्ध भौगोलिक वर्णन मिलता है। प्रस्तुत निबन्धमें हम, इस गुर्वावलीमें उपलब्ध राजकीय इतिहास सामग्री और भौगोलिक बातोंका संक्षिप्त परिचय देना चाहते हैं । आशा है, विद्वानोंको इससे कुछ नवीन ज्ञातव्य मिलेगा। राजकीय इतिहास-सामग्री पाटणके दुर्लभराज चौलुक्यका उल्लेख । श्री वर्द्धमान सूरिके शिष्य श्री जिनेश्वर सूरिने अणहिल्ल पत्तनमें गूर्जरेश्वर दुर्लभराजकी सभामें चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ कर उनको पराजित किया जिसका विस्तृत वर्णन इस पट्टावलिमें दिया गया है । धारानरेश नरवर्मका निर्देश । श्रीजिनवल्लभ सूरि [ खर्ग सं० ११६७] जब चित्तौड़में थे तब, धाराधीश नरवर्मकी सभामें दो दक्षिणी पण्डितोंने “ कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः" यह समस्यापद रखा। स्थानीय विद्वानों व राजपण्डितोंने अपनी अपनी गुर्वावलीके आधार पर, पं० दशरथजी शर्मा एम्. ए. ने, इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टी, वॉ० ११, नं. ४, और पूना ऑरिएन्टलिस्ट, वॉ० २, पृ० ७५ में, संक्षिप्त नोट लिखे थे जिनमें इसके ऐतिहासिक महत्त्वका अतिसंक्षेपसे दिग्दर्शन कराया था। यहां पर हम यथावश्यक पूर्ण ज्ञातव्य प्रकाशित करते हैं। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ - गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व बुद्धि के अनुसार समस्यापूर्ति की; पर उससे उन दक्षिणी विद्वानोंको सन्तोष नहीं हुआ । तब किसीसे श्रीजिनवल्लभ सूरिजी की प्रतिभाका परिचय पा कर राजाने यह समस्यापद उनके पास भेजा । सूरिजीने तत्काल ही सुन्दरता के साथ उसकी पूर्ति कर दी, जिससे समग्र विद्वान संतुष्ट हुए । फिर जब सूरिजी चित्तौड़से विहार कर धारा पधारे, तब नृपतिने उन्हें अपने प्रासादों में बुला कर उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया। राजा सूरिजीका भक्त हो गया और उसने ३ लाख रुपये और ३ ग्राम उन्हें भेंट किये । परन्तु सूरिजी निरीह थे । उन्होंने उस दानका ग्रहण करना अस्वीकार किया, तब उनके उपदेशानुसार उसने चित्तौड़ के दो जैन मन्दिरोंमें २ लाख रूपयोंसे पूजाके लिये मण्डपिकाएं बनवा दीं । अजमेर के अर्णोराजका उल्लेख । श्री जिनदत्त सूरिजी जब अजमेर में पधारे तो वहांका राजा अर्णोराज स्वयं दर्शनार्थ आया और उनके उपदेशसे अतीव प्रसन्न हो कर उन्हें सर्वदा अजमेर में ही रहने की विज्ञप्ति की । परन्तु सूरिजीने साध्वाचारका स्वरूप बतलाया और समय समय पर वहां आते रहने का कह कर राजाको सन्तुष्ट किया । इस नृपतिने अजमेर के दक्षिणी भाग में पहाडी नीचे श्रावकोंको मन्दिर व निवासगृह बनानेके लिये यथेच्छ भूमि दी । હ त्रिभुवनगिरिका राजा कुमारपाल । श्री जिनदत्त सूरिजीने त्रिभुवनगिरि पधार कर वहांके महाराजा कुमारपालको प्रतिबोध दिया। श्रीशान्तिनाथ मन्दिरकी प्रतिष्ठा की और उधर के प्रदेशमें प्रचुरताके साथ अपने शिष्यों को विहार कराया । दिल्ली के महाराजा मदनपाल । सं० १२२३ में श्री जिनदत्त सूरिजीके शिष्य श्री जिनचंद्र सूरिजी दिल्लीके निकटवर्ती ग्राम में पधारे । उनको वन्दनार्थ जाते हुए श्रावक समुदायको राजप्रासादस्थित महाराजा मदनपालने देखा और मंत्रियोंसे सूरिजी के पधारने की खबर पाकर महाराजाने समस्त मुसाहिबों और सेनाको एकत्र किया और बड़े समारोह पूर्वक सूरिजी के पास गया । उनसे धर्मोपदेश श्रवण कर महाराजा अत्यन्त प्रमुदित हुआ और उनको अपने नगर में पधारनेकी अत्यन्त आग्रहपूर्वक विनंति की । सूरिजी अनिच्छाके होते हुए भी राजाके आग्रहसे दिल्ली पधारे। बड़े भारी समारोहसे उनका प्रवेशोत्सव हुआ । महाराजा मदनपाल स्वयं सूरिजी का हाथ पकड़े हुए उनकी पेशवाई में चल रहा था । राजाकी प्रार्थनासे उन्होंने वहीं चातुर्मास किया पर दुर्भाग्यवश उनका वहीं स्वर्गवास हो गया । आशिका नरेश भीमसिंह | श्री जिनपति सूरिजी सं० १२२८ में बब्बेर नगरको पधारे । संवाद पा कर अशिकाके श्रावक लोग राजा भीमसिंहके साथ सूरिजीके दर्शनार्थ आए । सूरिजी के उपदेशसे प्रसन्न हो कर उन्हें आशिका पधारनेकी वीनति की । राजाके विशेष अनुरोधसे श्री पूज्य आशिका आए । भूपति भीमसिंहके साथ पूर्वोक्त दिल्लीके प्रवेशकी भांति आशिका में प्रवेशोत्सव हुआ । सूरिजीने स्थानीय दिगम्बराचार्यके साथ शास्त्रार्थ किया और उसमें सूरिजीका विजय हुआ । इससे आशिका ( हांसी) नरेश बहुत प्रसन्न हो कर सूरिजी के प्रति श्रद्धालु बना । सं० १२३२ में मन्दिरकी प्रतिष्ठा करनेके हेतु सूरिजी फिर आशिका पधारे। उस समय आशिकाका वैभव दर्शनीय था । नगरके बाहर राजा भीमसिंहके आज्ञावर्त्ती राजाओंके तंबू-डेरे लगे हुए थे, राजकीय फौज - पलटनका जमघट लगा हुआ था । राजप्रासादों और बाग-बगीचों के मनोहर दृश्यसे आशिका नगरी चक्रवर्तीकी राजधानी सी प्रतीत होती थी । अजमेरका महाराजा पृथ्वीराज चौहान । श्री जिनपति सूरिजी सं० १२३९ में अजमेर पधारे। राजसभा में चैत्यवासी उपकेशगच्छीय पं० पद्मप्रभके साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें सूरिजीकी विजय हुई | महाराजा पृथ्वीराजने स्वयं नरानयनके राजप्रासादोंसे अजमेर आ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ खरतरगच्छ - गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व कर सूरिजीको “जय पत्र" समर्पण किया । इस वर्णन में यह भी बताया गया है कि उसी वर्ष में महाराजाने भादानक देशको जीता था । इस शास्त्रार्थका वृत्तान्त बडे विस्तारके साथ इस गुर्वावली में दिया गया है जिसमें बहुत सी अन्य ऐतिहासिक बातें भी हैं । विशेष जाननेके लिये ' हिन्दुस्तानी' नामक त्रैमासिक पत्रिकामें प्रकाशित “पृथ्वीराजकी सभा में जैनाचार्योंका शास्त्रार्थ” नामक हमारा विस्तृत निबन्ध पढ़ना चाहिये । लपुर (पाटण) का राजा भीमदेव । सं० १२४४ में, अणहिलपुरका कोट्याधिपति श्रावक अभयकुमार तीर्थयात्राके हेतु संघ निकालने की इच्छासे महाराजाधिराज भीमदेव और प्रधान मंत्री जगदेव पड़िहारके पास गया और उनसे अरज करके स्वयं राजाके हाथसे अजमेर निवासी खरतर संघके नामका आज्ञापत्र लिखवा लाया। फिर एक विनंतिपत्र अपनी ओरसे श्री जिनपति सूरिजीको लिख कर अजमेर भेजा । सूरिजीने निमन्त्रण पा कर अजमेरी संघके साथ विहार कर दिया । तीर्थयात्राके अनन्तर बापस I लौटते हुए सूरिजी आशापल्ली पधारे। वहां चैत्यवासी प्रद्युम्न्नाचार्य से उनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें विजयलक्ष्मी सूरिजीको मिली । इससे प्रतिपक्षीके भक्त अभयड़ दण्डनायकने कुटिलतासे संघको यह कह कर अटका लिया कि - 'महाराजाधिराज भीमदेवकी आज्ञा है कि आप लोग हमारी आज्ञा बिना यहाँसे नहीं जा सकेंगे ।' इतना ही नहीं उसने संघकी चौकी के लिये १०० सैनिकोंकी गारद डाल दी । इस प्रकार १४ दिन संघ अटके रहा । इधर अपने बचाव के लिये अभयड़ दंडनायकने प्रतिहार जगदेवके पास, ( जो उस समय गुर्जर कटकके साथ मालव देशमें गया हुआ था ) पत्रके साथ, अपना सेवक भेज कर कहलाया - 'यहां सपादलक्ष - अजमेर का एक विशाल और वैभवशाली संघ आया हुआ है; यदि आपकी आज्ञा हो तो सरकारी घोडोंके लिये दाल-दानेका प्रबन्ध करलूंअर्थात् लूट कर या तंग कर द्रव्य एकत्र करूं ।' जगदेव अपने कर्मचारीसे पत्र सुन कर आगबबूला हो गया, और उसी क्षण अपने आज्ञाकारी व्यक्तिके हाथसे एक आज्ञापत्र लिखा भेजा कि - " मैंने बडे कष्टसे अजमेर नरेश पृथ्वीराज के साथ सन्धि की है; यह संघ भी वहीं का अतः इस संघकी तनिक भी छेडछाड मत करना । यदि करोगे तो तुम्हें गधेकी खालमें सिला दिया जायगा ।' जब अभयडको यह आज्ञा मिली तो उसने फौरन संघसे क्षमा मांग कर उसे खाने किया । लवणखेडाका राणा केल्हण । सं० १२४९ में श्रीजिनपति सूरिजी लवणखेडासे विहार करके पुष्करिणी, विक्रमपुर आदिमें विचरते हुए सं० १२५१ में अजमेर गये । दो मास वहां पर मुसलमानोंके उपद्रवके कारण बडे कष्टसे बीते । फिर पाटण, भीमपल्ली, कुहियप हो कर पुनः राणा केल्हण के आग्रहसे लवणखेटक पधारे । वहां 'दक्षिणावर्त्तआरात्रिकावतारणोत्सव' ast धूमधाम से मनाया । नगरकोटका राजा पृथ्वीचन्द्र । सं० १२७३ में (बृहद्वार) में गंगादशहरे पर गंगास्नान के लिये बहुतसे राणाओंके साथ महाराजाधिराज श्री पृथ्वीचंद्र नगरकोट से आया । उसके साथ पं० मनोनानन्द नामक एक काश्मीरी पण्डित भी था । उसने श्री जिनपति सूरिके उपाश्रय पर शास्त्रार्थके चैलैञ्जका नोटिश लगा दिया । तब सूरिजीके शिष्य जिनपालोपाध्याय आदि शास्त्रार्थ लिये महाराजा पृथ्वीचन्द्रकी सभा में आये, और वाद-विवाद में उक्त पण्डितको परास्त कर दिया । महाराजाने पण्डित चैलेखको फाड़ कर उपाध्यायजीको जयपत्र दिया । पालनपुरका राजकुमार जगसिंह । सं० १२८८ में पालनपुरके सेठ भुवनपालने, राजकुमार जगसिंहकी उपस्थितिमें ध्वजारोपणका उत्सव बड़े समारोह से मनाया । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ -गुर्वाषलिका ऐतिहासिक महत्त्व जावालिपुरका राजा उदयसिंह। सं० १३१० वैशाख सुदि १३ शनिवार स्वाति नक्षत्रके दिन, श्रीमहावीर विधिचैत्यमें, राजा व प्रधान पुरुषोंकी उपस्थितिमें राजमान्य महामन्त्री जैत्रसिंहके तत्वावधानमें, पालनपुर, वागडदेश आदिके श्रावकोंके एकत्र होने पर श्रीचौवीस जिनालय आदिकी प्रतिष्ठा, दीक्षादि महामहोत्सवपूर्वक हुई। ___सं० १३१४ में माघ शु० १३ को राजा उदयसिंहके प्रमोदपूर्ण सान्निध्यसे कनकगिरिके मुख्य मन्दिर पर ध्वजारोप हुआ । वर्णगिरिका चाचिगदेव । ___ सं० १३१६ के माघ सुदि ६ को, राजा चाचिगदेवके राजत्वकालमें स्वर्णगिरिके शान्तिनाथ मन्दिर पर खर्णमय ध्वजदंड व कलश स्थापित किये गये। भीमपल्लीका राजा माण्डलिक । सं० १३१७ वैशाख सुदि १० सोमवारको, मीमपल्लीमें राजा माण्डलिकके राजत्वकालमें दण्डनायक श्रीमीलगण (2) के सान्निध्यसे महावीर जिनालय पर स्वर्णदण्ड-कलशादि चढाये गये। चित्तौडका महाराजा समरसिंह । सं० १३३५ फा० कृ० ५ को, महाराजा समरसिंहके रामराज्यमें, चित्तौडके चौरासी मुहल्लेमें जलयात्रापूर्वक स्थानीय ११ मन्दिरोंके ११ छत्र व मुनिसुव्रत, आदिनाथ, अजितनाथ, वासुपूज्य प्रभुकी प्रतिमाएं स्थापित की गई। चित्तौडके युवराज अरिसिंह। सं० १३३५ फाल्गुन शुक्ल ५ को, सकल राज्यधुराको धारण करने वाले राजकुमार अरिसिंहके सान्निध्यसे आदिनाथ मन्दिर पर ध्वजारोप हुआ। बीजापुर नरेश सारंगदेव । सं० १३३७ ज्येष्ठ कृष्ण ४ शुक्रबारको, महाराजाधिराज सारंगदेवके रामराज्यमें, महामात्य मल्लदेव व उपमंत्री विन्ध्यादित्यके कार्यकालमें, बीजापुरमें श्रीजिनप्रबोध सूरिजीका नगरप्रवेश बडे समारोहसे हुआ । मं० विन्ध्यादित्य सूरिजीकी स्तुति करता था। शम्यानयन (सिवाना) का राजा श्रीसोम । श्रीजिनप्रबोध सूरिजीने (सं० १३४० में ) सन्मुख आये हुए श्रीसोम महाराजाकी वीनति स्वीकार कर शम्यानयनमें चातुर्मास किया । जेसलमेर नरेश कर्णदेव । . सं० १३४० के फाल्गुनमें श्रीजिनप्रबोध सूरिजी जेसलमेर पधारे । नगर प्रवेश बड़े समारोहसे हुआ। राजा कर्ण ससैन्य दर्शनार्थ सामने आया। महाराजाके आग्रहसे चातुर्मास भी उन्होंने वहीं किया । जावालिपुरका राजा सामन्तसिंह । सं० १३४२ ज्येष्ठ कृष्णा ९ को, जालौर में सुप्रसन्न महाराजा सामन्तसिंहके सानिध्यसे अनेक जिन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा और इन्द्रमहोत्सव सम्पन्न हुआ। शम्यानयनका महाराजा सोमेश्वर चौहान । सं० १३४६ फाल्गुन शुक्ल ८ को, महाराजा सोमेश्वरकारित विस्तृत प्रवेशोत्सवसे श्रीजिनचन्द्र सूरिजी शम्यानयन पधारे । सा० बाहड, भा० भीमा, जगसिंह, खेतसिंह सुश्रावकोंके बनवाए हुए प्रासादमें उन्होंने शान्तिनाथ प्रभुकी स्थापना की। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A १० खरतरगच्छ- -गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व जेसलमेर नरेश जैत्रसिंह । सं० १३५६ में राजाधिराज जैत्रसिंहकी प्रार्थनाको मान दे कर, श्रीजिनचंद्र सूरिजी मार्गशीर्ष शुक्ला ४ को जैसलमेर पधारे । पूज्यश्री के स्वागतार्थ महाराजा ८ कोश सम्मुख गया था । सं० १३५७ मार्गशीर्ष कृष्णा ९ को, महाराजा जैत्रासिंहके भेजे हुए वाजित्रोंकी ध्वनिके साथ मालारोपण व दीक्षा महोत्सव संपन्न हुआ । शम्यानयन नरेश शीतलदेव । संवत् १३६० में महाराजा शीतलदेवकी वीनति और मन्त्री नाणचन्द्र आदिकी अभ्यर्थनासे श्रीजिनचन्द्र सूरिजी शम्यानयन पधारे और शान्तिनाथ भगवान के दर्शन किये । - सुलतान कुतुबुद्दीन | सं० १३७४ में, मन्त्रिदलीय ठक्कर अचलसिंहने बादशाह कुतुबुद्दीनसे सर्वत्र निर्विघ्नतया यात्रा करनेके लिये फरमान प्राप्त कर, नागौरसे संघ निकाला । जब मारवाड़ और वागड़ देशके नाना नगरोंको पार कर संघ दिल्लीके समीपवर्त्ती तिलप्रंथ नामक स्थानमें पहुंचा तो इर्ष्यालु द्रमकपुरीय आचार्य ( चैत्यवासी) ने यह कह कर उकसाया कि- 'जिनचन्द्र सूरि नामक साधु खर्णका छत्र सिंहासन धारण करता है।' बादशाहने संघको रोक लिया और ठक्कर अचलसिंहादिके साथ सूरिजीको अपने पास बुलाया । सूरिजीकी शान्त मुद्रा देख कर सम्राट् अत्यन्त प्रभावित हुआ और बातचीत होने पर उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि द्रमकपुरी आचार्य मिथ्याभाषी है । अलाउद्दीनके पुत्र सुलतान कुतुबुद्दीन ने कहा- 'इन श्वेताम्बर मुनियोंमें उसके कथनानुसार एक भी बात नहीं पाई जाती' - अतः दिवानको हुक्म दिया कि इनके आचार व्यवहारकी अच्छी तरह परीक्षा कर अन्यायीको दण्ड दिया जाय । राज्याधिकारियोंने सूरिजीको निर्दोष पा कर दमकपुरीय आचार्यको गिरफ्तार कर लिया । दयालु सूरिजीने श्रावकोंसे कह कर उसे छुड़वा दिया । सूरिजीने दिल्लीकी खण्डासराय में चातुर्मास किया । पश्चात् सुलतान व संघके कथनसे प्राचीन तीर्थस्थान मथुराकी यात्रा करने पधारे । मेडताका राणा मालदेव चौहान | सं० १३७६ में राणा मालदेवकी प्रार्थनासे श्रीजिनचन्द्र सूरिजी मेड़ता पधारे और वहां राणा व संघकी प्रार्थनासे २४ दिन ठहरे । दिल्लीपति गयासुद्दीन बादशाह । सं० १३८० में दिल्ली निवासी सेठ रयपतिके पुत्र सा० धर्मसिंहने प्रधान मन्त्री नेब साहबकी सहायतासे सम्राट् ग्यासउद्दीन द्वारा तीर्थयात्राका फरमान निकलवाया, और श्रीजिनकुशल सूरिजी के नेतृत्वमें शत्रुंजयादि तीर्थोंका संघ निकाला । सं० १३८१ में भीमपल्लीके सेठ वीरदेवने भी सम्राटसे तीर्थयात्राका फरमान प्राप्त कर श्रीजिनकुशल सूरिजी के उपदेशसे शत्रुंजयादि तीर्थों के लिये संघ निकाला । विशेष जाननेके लिए हमारी 'दादा जिनकुशलसूरि' नामका पुस्तक देखना चाहिये । सौराष्ट्र नरेश महीपालदेव । सं० १३८० में शत्रुंजय यात्राके प्रसंगमें, सेठ मोखदेवको, सौराष्ट्रमहीमंडनभूपाल महीपाल देवकी दूसरी देह सदृश अर्थात् अत्यंत प्रभावशाली लिखा है । बाडमेरनरेश राणा शिखरसिंह | सं० १३९१ में श्रीजिनपद्म सूरिजी वाग्भटमेरु पधारे। उस समय चौहानकुलप्रदीप राणा शिखरसिंह, राजपुरुष व नागरिक जनों के साथ, सूरिजीके सन्मुख गया और महोत्सवपूर्वक उनका नगरप्रवेश कराया । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ -गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व साचोर ( सत्यपुर) का राणा हरिपालदेव । ____सं० १३९१ में श्रीजिनपद्म सूरिजी बाहड़मेरसे सत्यपुर पधारे उस समय राणा हरिपालदेव आदि उनके खागतार्थ सन्मुख गये। आशोटाका राजा रुद्रनन्दन । ___ सं० १३९३ में पाटणसे नारउद्र होते हुए श्रीजिनपद्म सूरिजी आशोटा पधारे । उस समय वहांका राजा रुद्रनन्दन, राज० गोधा सामन्तसिंहादिके साथ स्वागतार्थ पूज्यश्रीके सन्मुख आया । बूजद्रीका राजा उदयसिंह । सं० १३९३ में श्रीजिनपद्म सूरिजी बूजद्री पधारे । वहां सुश्रावक मोखदेवने राजा उदयसिंह एवं समस्त नागरिकोंके साथ सूरिजीका बड़े समारोहसे नगर प्रवेश कराया। इसके बाद अन्यत्र विहार करके सूरिजी फिर वहां पधारे तब भी राजा उदयसिंह प्रवेशोत्सबमें सम्मीलित हुआ था। त्रिशृङ्गम नरेश रामदेव। संवत् १३९३ में, श्रीजिनपद्म सूरिजी त्रिशृङ्गम पधारे । मन्त्रीश्वर सांगणके पुत्र मण्डलिकादिकने, महाराजा महीपालके अंगज महाराजा रामदेवकी आज्ञासे राजकीय वाजित्रोंके साथ बड़े समारोहपूर्वक प्रवेशोत्सव किया। सूरिजीको संघके साथ चैत्यपरिपाटी करते समय उनकी प्रशंसा सुन कर महाराजाके चित्तमें उनके दर्शनकी उत्कण्ठा जागृत हुई। महाराजाने सेठ मोखदेव और मन्त्री मण्डलिक आदिको कहा-'छोटी उम्रवाले होते हुए भी आपके गुरु बड़े चमत्कारी सने जाते हैं, मुझे उनके दर्शनोंकी अभिलाषा है। आप कहें तो मैं उनके पास चलूं या वे कृपा कर मेरी सभामें पधारें।' . श्रावकोंकी प्रार्थनासे सूरिजी राजसभामें पधारे । नृपतिने उन्हें आते देख कर, राजसिंहानसे नीचे उतर कर, उनकी चरणवन्दना की । पूज्यश्री आशीर्वाद दे कर चौकी पर विराजे । महाराजा सारंगदेवके व्यासने अपनी रचना पढ कर सनाई, जिसमें श्री लब्धिनिधान उपाध्यायजीने कई त्रुटियां बतलाई। महाराजा रामदेव कहने लगे-'उपाध्यायजीका वचनचातुर्य और शास्त्रीय ज्ञान असाधारण है । इन्होंने तो हमारे व्यासजीकी भी त्रुटियां बतलाई !' इसी प्रकार अन्य सभासदोंने उपाध्यायजीकी भूरि भूरि प्रशंसा की। सूरिजीने तात्कालिक कवितामें राजा रामदेवका वर्णनात्मक श्लोक कहा । जिसे सुन कर राजसभामें उपस्थित सभ्यगण आश्चर्य निमग्न हो गये । राजा रामदेवने सिद्धसेन आदि पण्डितोंसे उस श्लोकको विकटाक्षरोंमें लिखवाया । सूरिजीने नानार्थक नाममाला कोषके बलसे उसके अनेक अर्थ कह सुनाये, जिससे सब लोग एक नजर हो कर पूज्य श्रीके मुखकमलकी ओर निहारने लगे। इसके बाद सूरिजीने लहियोंसे प्रत्येक श्लोकके एक एक अक्षरको भिन्न भिन्न लिखवा कर और उन्हें मिटा कर तीसरी वार तीन श्लोकोंको सम्पूर्ण करवा दिया । फिर उन तीनों श्लोकोंको एक पट्टी पर लिखवा कर नृपतिके मनोरञ्जनार्थ राजहंसमय चित्रकाव्यकी रचना की । सूरिजीकी इस प्रतिभा और बुद्धिवैभवको देख कर राजा और सभाके सारे लोगोंके चित्तमें चमत्कृति उत्पन्न हुई। महामन्त्री वस्तुपालका उल्लेख। सं० १२८९ में श्रीजिनेश्वर सूरिजीके खंभात पधारने पर महामात्य वस्तुपालने बड़े समारोहसे उनका नगर प्रवेशोत्सव किया था । गुर्वावलीमें, श्रीजिनकुशल सूरिजीके खंभात पधारने पर भी इस उत्सवकी याद दिलाई गई है। राजकीय हलचलें और उपद्रव । म्लेच्छोपद्रव होनेका उल्लेख । सं० १२२२ में श्रीजिनचन्द्र सूरिजीने रुद्रपल्लीसे विहार कर बोरसिदा ग्रामके पास संघके साथ पड़ाव डाला । सूरिजीने साथ वालोंको आकुल व्याकुल देख कर पूछा - 'आप लोग भयभीत क्यों हो रहे हैं ?' उन लोगोंने कहा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . खरतरगच्छ-गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व 'भगवन् ! देखिये न इस ओर आकाश धूलिसे आच्छादित हो गया है - मालूम देता है समीप ही में कोई म्लेच्छ कटक है। पूज्यश्रीने कहा – महानुभावो ! धैर्य रखो, अपने बैल आदि चतुष्पदोंको एकत्र कर लो; प्रभु श्रीजिनदत्त सूरिजी सबका भला करेंगे। पूज्यश्रीने मन्त्र- ध्यान पूर्वक अपने दण्डेसे संघके पड़ावके चारों तरफ कोटके आकार वाली रेखा खींच दी । सब लोग उसमें छिप गये। संघके लोगोंने आस-पाससे जाते हुए हजारों म्लेच्छोंको देखा पर सूरिजीके प्रभावसे वे लोग संघको न देख सके; केवल कोटको देखते दूर चले गये, जिससे सब लोग निर्भय हुए। ___ सं० १२५१ में माण्डव्यपुरस अजमेरके लिये श्रीजिनपति सूरिजीने विहार किया। वहां म्लेच्छोंका उपद्रव होनेसे २ मास बडे कष्टसे बीते । सं० १२५३ में मुसलमानोंने पाटणका भंग कर दिया। गुर्वावलीमें “पत्तनभंगानन्तरं धाटीग्रामे चतुर्मासी कृता" लिखा है। ___ सं० १३७१ ज्येष्ठ वदि १० को, जावालिपुरमें कलिकाल-केवली श्रीजिनचन्द्र सूरिजीकी विद्यमानतामें दीक्षा, मालारोपणादि उत्सव हुए। फिर म्लेच्छोंने उस नगरका भंग कर दिया - " ततो म्लेच्छकृतो भंगः श्रीजाबालपुरे जातः ।" सं० १३७७ में, पाटणको ' म्लेच्छबहुलेऽपि समग्रजनपदे" लिखा है और सं० १३८० के वर्णनमें “प्रभूतम्लेच्छव्यवहारीसमूहसंकुले श्रीपत्तने श्रीमहाराजाधिराजसैन्यलीलायमान आवासितः" लिखा है। सं० १३८४ में श्रीजिनकुशलसूरिजीने सिन्ध प्रांतमें विहार किया । उस समय सिन्ध देशको “ महाम्लेच्छकुलाकुलगुरुतरश्रीसिन्धुमण्डलोपरि" लिखा है। उच्च नगरके प्रवेशोत्सवके समयमें " हिन्दूराज्यकालमें श्रीजिनपति सूरिजी पधारे थे" लिखा है, इससे निश्चित है कि उस समय वहां मुसलमानोंका शासन हो चुका था। पाटणमें भीषण दुष्काल। सं० १३७७ में श्रीजिनकुशल सूरिजीके महोत्सवके समय पाटणमें महादुर्भिक्ष था। लिखा है कि- “ श्रीपत्तने समागताः, तत्र च विषमकाले महादुर्भिक्षप्रवर्त्तमानेऽपि" । इस प्रकार इस पट्टावलिमें ऐतिहासिक दृष्टिसे अनेक महत्त्वकी बातोंका उल्लेख मिलता है जो अन्यत्र अज्ञात हैं । पट्टावलि -साहित्यमें यह एक बहुत ही विशिष्ट प्रकारकी रचना है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वा व ली। नमो युगप्रधानमुनीन्द्रेभ्यः। वर्धमानं जिनं नत्वा, वर्धमानजिनेश्वराः । मुनीन्द्रजिनचन्द्राख्याऽभयदेवमुनीश्वराः ॥१॥ श्रीजिनवल्लभसूरिः, श्रीजिनदत्तसूरयः। यतीन्द्रजिनचन्द्राख्यः, श्रीजिनपतिसूरयः ॥२॥ एतेषां चरितं किञ्चिन्मन्दमत्या यदुच्यते । वृद्धेभ्यः श्रुत[वेत्तृभ्य]स्तन्मे कथयतः शृणु ॥३॥ १. अ भो ह र दे शे' जिनचन्द्राचार्या देवगृहनिवासिनश्चतुरशीतिस्थावलकनायका आसन् । तेषां वर्धमाननामा शिष्यः। तस्य च सिद्धान्तवाचनां गृह्णतश्चतुरशीतिराशातनाः समायाताः। ताश्च परिभावयत इयं भावना मनसि समजनि-'यद्येता रक्ष्यन्ते तदा भद्रं भवति'। व्रतगुरोश्च निवेदितम् । गुरुणा चिन्तितम्-'अस्य मनो न मनोहरम्' इति ज्ञात्वा सूरिपदे स्थापितः । तथापि तस्य मनो न रमते चैत्यगृहवासे स्थातुम् । ततो गुरोः सम्मत्या निर्गत्य कतिचिन्मुनिसमेतो ढिल्ली वा द ली प्रभृतिदेशेषु समायातः। तस्मिन् प्रस्तावे, तत्रैवोद्योतनाचार्यसूरिवर आसीत् । तस्य पार्थे सम्यगागमतत्त्वं बुद्धवा, उपसम्पदं गृहीतवान् । तदनन्तरं श्रीवर्धमानसूरेरियं चिन्ता जाता-'अस्य मूरिमन्त्रस्य कोऽधिष्ठाता' । तस्य ज्ञानायोपवासत्रयमकारि । तृतीयोपवासे धरणेन्द्रः समागतः । तेनोक्तं सूरिमन्त्रस्याहमधिष्ठाता। ततश्च सर्वेषां सूरिमत्रपदानां प्रत्येकं फलं निवेदितम् । ततश्च संस्फुर्र आचार्यमत्रो जातः । तेन च संस्फुराः सपरिवारा वर्धमानसूरयो जज्ञिरे। २. अस्मिन् प्रस्तावे विज्ञप्तं पण्डितजिनेश्वरगणिना-'भगवन् ! ज्ञातस्य जिनमतस्य किं फलम् , यदि कुत्रापि गत्वा न प्रकाश्यते । गूर्जरत्रादेशः प्रभूतो देवगृहवास्याचार्यव्याप्तः श्रूयते । अतस्तत्र गम्यते' । 'युक्तमुक्तं परं शकुननिमित्तादि परिभाव्यते, ततः सर्वे शुभम् । ततो भामहबृहत्संघातसहिता आत्माष्टादशाश्चलिताः प्राप्ताः । बहिर्भूमिगतस्य पण्डितजिनेश्वरगणिसहितवर्धमानसूरेः सोमध्वजो नाम जटाधरो मिलितः। तेन सहेष्टगोष्ठी जज्ञे । तन्मध्ये गुणं दृष्ट्वा प्रश्नोत्तरः कृतः का दौर्गत्यविनाशिनी हरिविरञ्च्युग्रप्रवाची च को, वर्णः को व्यपनीयते च पथिकैरत्यादरेण श्रमः। चन्द्रः पृच्छति मन्दिरेषु मरुतां शोभाविधायी च को, दाक्षिण्येन नयेन विश्वविदितः को वा भुवि भ्राजते॥ १ प्रत्यन्तरे-आभोहर० । २ व्रतं। ३ आयातः । ४ सस्फुर । ५ वर्द्धमानाचार्याः। * एतद्वितारकान्तर्गतः पाठो नोपलभ्यते प्रत्यन्तरे। पा पली Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार " सो म ध्वजः " । स जटाधरस्तुष्टः । भक्तिर्बह्वी कृता । ततस्तेनैव संघातेन चलिताः क्रमेणा ने हि लपत ने प्राप्ताः । उत्तरिता मण्डपिकायाम् । तस्मिन् प्रस्तावे तत्र प्राकारो नास्ति, सुसाधुभक्तः श्रावकोऽपि नास्ति यः स्थानादि याच्यते । तत्रोपविष्टानां घर्मो निकटीभूतः । ततः पैंण्डितजिनेश्वरेणोक्तम्- 'भगवन्नुपविष्टानां किमपि कार्य न भविष्यति' । 'तर्हि सुशिष्य, किं क्रियते ?' । 'यदि यूयं वदथ तदोच्चैर्गृहं दृश्यते तत्र व्रजामि' । व्रज । ततो वन्दिखा सुगुरुपादपद्मा गतस्तत्र । तच्च गृहं श्रीदुर्लभराज्ञैः पुरोहितस्य । तस्मिन् प्रस्तावे स उपरोहितः शरीराभ्यङ्गं कारयस्तिga, dears स्थित्वा श्रिये कृतनतानन्दा विशेषवृषसङ्गताः । भवन्तु तव विप्रेन्द्र ! ब्रह्म - श्रीधर - शङ्कराः ॥ [२] इत्याशिर्वादं पठितवान् । ततस्तेन तुष्टो वक्तिं । विचक्षणो व्रती कश्चित् । तस्यैव गृहमध्यप्रदेशे छात्रान् वेदपा - उपरिचिन्तनं कुर्वतः श्रुखा 'इत्थं मा भणत वेदपाठान्' । 'किं तर्हि ?" ' इत्थम्' । ततः पुरोहितेनोक्तम्- 'अहो ! शूद्राणां वेदेऽधिकारो नास्ति' । ततः पण्डितेनोक्तम्- 'वयं चतुर्वेदिनो ब्राह्मणाः, सूत्रतोऽर्थतश्च' । ततस्तुष्टः 'पुरोहितः । 'कस्माद्देशादागताः ?' 'ढिल्ली देशा त्' । 'कुत्र स्थिताः स्थ ?' शुङ्कशालायाम् । अन्यत्र स्थानं न लभ्यते, विरोधिरुद्धत्वात् । मदीया गुरवः सन्ति सर्वे ] अष्टादश यतिन:' । 'चतुःशालमगृहे परिच्छदां बद्धा, एकस्मिन् द्वारे प्रविश्यैकस्यां शालायां तिष्ठतः (थ) सर्वे सुखेन । भिक्षावेलायां मदीये मानुषेऽग्रे कृते ब्राह्मणगृहेषु सुखेन भिक्षा भविष्यति' । ततः प त्त ने लोके उच्छलिता वार्ता ' वसतिपाला यतयः समायाताः । ततो देवगृहनिवासिवतिभिः श्रुतम् । नैर्विदितं नैषामागमनं श्रेयस्करम् । कोमलो व्याधियदि च्छिद्यते तदा कुशलम् । ते चाधिकारिपुत्रान् पाठयन्ति । तैश्च वर्षोपलादिदानेन ते चट्टाः सुखिनः कृत्वा भणिताः - 'युष्माभिर्लोकमध्ये भणनीयम् - " एते केचन परदे - शान्मुनिरूपेण श्रीदुर्लभराजराज्यहेरिका आगताः सन्ति" । सा च वार्ता सर्वजने प्रवृत्ता । सा च प्रसरन्ती राजसभायामपि 'प्रवृत्ता । राज्ञाऽभाणि - ' यद्यत्रैवंविधाः क्षुद्रा आयाताः, तर्हि तेषामाश्रयः केन दत्तः १' केनाऽप्युक्तम्- 'देव ! वैव गुरुणा स्वगृहे धारिताः । ततो राज्ञोक्तमाकारय तम् । आकारित उपरोहितः, भणितश्च - ' यद्येवंविधा एते किमिति स्थानं दत्तम् ?' । तेन भणितम्- 'केनेदं दूषणमुद्भावितम् १, यद्येषां दूषणमस्ति तदा लक्षपारुस्थैः कर्पटिकाः प्रक्षिप्ताः । यद्येषां मध्ये दूषणमस्ति तदा छुपन्तु तां भणितारः' । परं न सन्ति केचन । ततो भणितं राज्ञः पुर उपरोहितेन - 'देव ! सन्ति ते दृष्टा मूर्तिमन्त एव धर्मपुञ्जा लक्ष्यन्ते न तेषां दूषणमस्ति' । तत इमां वार्तामाकर्ण्य सर्वैरपि सूरा - चार्यप्रभृतिभिः परिभावितम् -' वादे निर्जित्य निस्सारयिष्यामः परदेशागतान् मुनीन्" । ततस्तरुपरोहित उक्तः - 'खगृहधृतयतिभिः सह विचारं कर्तुकामा आस्महे । तेषां पुरस्तेनोक्तम्- 'तान् पृष्ट्वा यत्स्वरूपं तद्भणिष्यामि । तेनापि खसदने गत्वा भणितास्ते- 'भगवन्तो ! विपक्षाः श्रीपूज्यैः सह विचारं कर्तुं समीहन्ते' । तैरुक्तम्- 'युक्तमेव परं त्वया न भेतव्यम्' । इदं भणितव्यास्ते - 'यदि यूयं तैः सह विवदितुकामास्तदा ते श्रीदुर्लभराजप्रत्यक्षं यत्र भणिष्यथ तत्र विचारं करिष्यन्ति' । तैश्चिन्तितं सर्वेऽधिकारिणोऽस्माकं वशंगता न तेभ्यो भयम् भवतु राजसमक्षं विचारः । ततोऽस्मिन् दिने पञ्चाशय बृहद्देवगृहे विचारो भविष्यतीति निवेदितं सर्वेषां पुरः । उपरोहितेनाप्येकान्ते नृपो भणितः - 'देव ! 1 २ १' अनघिल' इति आदर्शे । २ श्राद्धोऽपि । ३ 'पण्डित' शब्दो नास्ति प्र० । ४ नास्ति पदमेतत् प्र० । ५ प्र० राजपुरोहितस्य । ६ मूलादर्शे 'उपरोहित' इति सर्वत्र । ७वो भवन्तु च । ८ तुष्टश्चित्ते । ९° पादपरावर्तनं । १० पदान् । ११ किं नहीत्थम् । १२ पदमिदं नास्ति प्र० । १३ प्र० 'स तुष्टः' इत्येव पदम् । कोष्ठकान्तर्गता पतिः पतिता मूलादर्शे, प्रत्यन्तरादत्रानुसन्धिता । १४ ' पत्तने' नास्ति प्र० । १५ सुखकरम् । १६ मूलादर्शे 'वर्षोलकादि' । १७ 'राजकुले प्रसृता' इत्येव प्र० । १८ तत उक्त राज्ञोऽग्रे । १९ 'मुनीन्' नास्ति प्र० । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । ३ आगन्तुकमुनिभिः सह स्थानस्थिता मुनयो विचारं विधातुकामास्तिष्ठन्ति । स च विचारो न्यायवादिराजप्रत्यक्षं क्रियमाणः शोभते । ततः पूंज्यैः प्रत्यक्षैर्भवितव्यं विचारप्रस्तावे प्रसादं कृत्वा' । ततो राज्ञाऽभाणि - 'युक्तमेव कर्तव्यमस्माभिः । ततश्चिन्तिते दिने तस्मिन्नेव देवगृहे श्री सूरा चार्य प्रभृतिचतुरशीतिराचार्याः स्वविभूत्यनुसारेणोपविष्टाः । राजाऽपि प्रधानपुरुषैराकारितः । सोऽप्युपविष्टः । राज्ञोक्तम्- 'उपरोहित ! आत्मसम्मतानाकारय' । ततः स तत्र गत्वा 'विज्ञपयति श्रीवर्धमानसूरीन्-'सर्वे मुनीन्द्रा उपविष्टाः सपरिवाराः । श्रीदुर्लभराजश्च पञ्चाशरीयदेवगृहे । युष्माकमागमनमालोक्यते । तेऽप्याचार्याः पूजितास्ताम्बूलदानेन राज्ञा' । तच्छुखोपरोहितमुखात् पश्चाच्छ्रीवर्द्धमानसूरयः श्रीसुधर्मस्वामिजम्बूस्वामिप्रभृतिचतु न् युगप्रधानान् सूरीन् + हृदये धृत्वा पण्डित श्रीजिनेश्वरेंप्रभृतिकतिचिद्गीतार्थसुसाधुभिः सह चलिताः सुशकुनेन । तत्र प्राप्ताः, नृपतिना दर्शिते स्थान उपविष्टाः, पण्डित जिनेश्वरदत्त निषद्यायाम् । आत्मना च गुरुभणितोचितासने गुरुपादान्त उपविष्टः । राजा च ताम्बूलदानं दातुं प्रवृत्तः । ततः सर्वलोकसमक्षं भणितवन्तो गुरवः - 'साधूनां ताम्बूलग्रहणं न युज्यते राजन् !" । यत उक्तम् ब्रह्मचारियतीनां च विधवानां च योषिताम् । ताम्बूलभक्षणं विप्रा ! गोमांसान्न विशिष्यते ॥ [ ३ ] ततो विवेकिलोकस्य समाधिर्जाता गुरुषु विषये । गुरुभिर्भणितम् - एष पण्डितजिनेश्वर उत्तरप्रत्युत्तरं यद्भणिष्यति तदस्माकं सम्मतमेव ।' सर्वैरपि भणितं 'भवतु' । ततो मुख्यसूराचार्येणोक्तम्- 'ये वसतौ वसन्ति मुनयस्ते षड्दर्शन बाह्याः प्रायेण । षड्दर्शनानीह क्षपणकजटिप्रभृतीनि - इत्यर्थनिर्णयाय नूतनवादस्थल पुस्तिक वाचनार्थं गृहीता करे । तस्मिन् प्रस्तावे “भाविनि भूतवदुपचारः" इति न्यायाच्छ्रीजिनेश्वरसूरिणा भणितम् -'श्रीदुर्लभमहाराज ! युष्माकं लोके किं पूर्वपुरुषविहिता नीति: प्रवर्तते, अथवा आधुनिकपुरुषदर्शिता नूतना नीति: १' । । ततो राज्ञा भणितम् -'अस्माकं देशे पूर्वजवणिता राजनीतिः प्रवर्तते नान्या' । ततो जिनेश्वरसूरिभिरुक्तम्- 'महाराज ! अस्माकं मतेऽपि यद् गणधरैश्चतुर्दश पूर्वधरैश्च यो दर्शितो मार्गः स एव प्रमाणीकर्तुं युज्यते, नाऽन्यः । ततो राज्ञोक्तं युक्तमेव । ततो जिनेश्वरसूरिभिरुक्तम्- 'महाराज ! वयं दूरदेशादागताः, पूर्वपुरुषविरचित स्वसिद्धान्त पुस्तकवृन्दं नानीतम् । एतेषां मठेभ्यो महाराज ! यूयमानयत पूर्वपुरुषविरचित सिद्धान्तपुस्तकगण्डलकं येन मार्गामार्गनिश्चयं कुर्मः" । तैंतो राज्ञोक्तास्ते- 'युक्तं वदन्त्येते, स्वपुरुषान् प्रेषयामि, यूयं पुस्तकसमर्पणे निरोपं ददध्वम्' । ते च जानन्त्येषामेव पक्षो भविष्यतीति, तूष्णीं विधाय स्थितास्ते । ततो राज्ञा स्वपुरुषाः प्रेषिताः - शीघ्रं सिद्धान्त पुस्तकगण्डलकमानयत । शीघ्रमानीतम् । आनीतमात्रमेव छोटित । तत्र देवगुरुप्रसादाद् दशवैकालिकं चतुर्दशपूर्वधरविरचितं निर्गतम् । तस्मिन् प्रथममेवेयं गाथा निर्गता अन्नहं पगडं लेणं, भइज्ज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं, इत्थीपसुविवज्जियं ॥ [४] एवंविधायां वसतौ वसन्ति साधवो न देवगृहे । राज्ञा भावितं युक्तमुक्तम् । +सर्वेऽधिकारिणो विदन्ति निरुत्तरी १ 'विचारं करिष्यन्ति' इत्येव प्र० । २ 'पूज्याः प्रत्यक्षा भवितव्यं' इति मूला ० | + दण्डान्तर्गतपाठस्थाने प्र० 'विज्ञप्ता वर्द्धमानाचार्याः सर्वे उपविष्टाः सन्ति' इत्येव वावयविन्यासः । ३ 'पश्चात् ' नास्ति प्र० । + प्र० ' सुधर्मस्वाम्यादियुग प्रधानानन्' इत्येव । ४ जिनेश्वरगणि प्रभृति' । ५ जिनेश्वरगणिदत्त' । ६ 'पुस्तिका करे धृता' इत्येव प्र० । ७ 'प्रस्तावे जिनेश्वरसूरिणा भणितं भो राजन् ' इत्येव प्र० । ८ 'पूर्वराजनीतिः' प्र० । ९ 'जिनेश्वरेणोक्तं राजन् ' । १० 'विरचितानि पुस्तकादीनि नानीतानि । ११ ° सिद्धान्तपुस्तकं येन मार्गनिश्चयं कुर्मः । १२ 'ततो' नास्ति । १३ तूष्णीं स्थिताः । १४ ' राज्ञा स्वपुरुषाः प्रेषिताः । शीघ्रं पुस्तकान्यानीतानि । छोटितानि' इत्येष पाठः प्रत्यन्तरे । १५ तत्रेयं गाथा । + एतच्चिहाङ्कितपाठस्थाने प्र०-६ - 'सर्वैरधिकारिपुरुषैर्विदितं निरुत्तरीभूता अस्मद्गुरवः । ततः सर्वै राजप्रत्यक्षं गुरुत्वेन वर्द्धमानसूरयोऽङ्गीकृताः । येनास्मान् बहुमन्यते राजा' । इत्येषा पंक्तिः । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार भूता अस्माकं गुरवः । ततः सर्वेऽधिकारिणः श्रीकरणप्रभृतयः पटवपर्यन्ता वदन्ति प्रत्येकमस्माकमेते गुरव - इति गुरुनिवेदनं राजप्रत्यक्षं कुर्वन्ति । येन राजाऽस्मान् बहु मन्यते, अस्माकं कारणेन गुरूनपि । राजा च न्यायवादी । तस्मिन् प्रस्तावे श्रीजिनेश्वरसूरिभिरुक्तम्- 'महाराज ! कचिद्गुरुः श्रीकरणाधिकारिणः, कश्चिन्मत्रिणः, किं बहुना कश्चिपटवानाम् । या नाठिः (१) सा कस्य सम्बन्धिनी भवति ?' राज्ञोक्तं मदीया । 'तर्हि महाराज ! कः कस्याऽपि सम्बन्धी जातो वयं न कस्यापि ' । ततो राज्ञाऽऽत्मसम्बन्धिनो गुरवः कृताः । ततो राजा भणति - 'सर्वेषां गुरूणां सप्त सप्त का रत्नपटनिर्मिताः, किमित्यस्मद्गुरूणां नीचैरासने उपवेशनं, किमस्माकं गब्दिका न सन्ति ?' । ततो जिने - श्वरसूरिणा भणितम् -'महाराज ! साधूनां गब्दिकोपवेशनं न युज्यते । यत उक्तम् ४ भवति नियतमेवासंयमः स्याद्विभूषा, नृपतिककुद ! एतल्लोकहासश्च भिक्षोः । स्फुटतर इह सङ्गः सातशीलत्वमुच्चैरिति न खलु मुमुक्षोः सङ्गतं गन्दिकादि ॥ [4] इतिवृत्तार्थः कथितः । राज्ञोक्तम्- 'कुत्र यूयं निवसत ?' तैरुक्तम्- 'महाराज ! कथं स्थानं विपक्षेषु सत्सु । अहो syaगृहं कर डि हट्टी मध्ये बृहत्तरमस्ति, तत्र वसितव्यम् ।' तत्क्षणादेव लब्धम् । 'युष्माकं भोजनं कथम् ?' तदपि पूर्ववद्दुर्लभम् । 'यूयं कति साधवः सन्ति ?' - 'महाराज ! अष्टादश' । 'एकहस्तिपिण्डेन सर्वे तृप्ता भविष्यन्ति' । ततो भणितं जिनेश्वरसूरिणा - 'महाराज ! राजपिण्डो न कल्पते, साधूनां निषेधः कृतो राजपिण्डस्य' । ' तर्हि मम मानुषेऽग्रे भू भिक्षाsपि सुलभा भविष्यति' । ततो वादं कृत्वा विपक्षान् निर्जित्य राज्ञा राजलोकैश्च सह वसतौ प्रविष्टाः । वसतिस्थापना कृता प्रथमं गूर्जरत्रा देशे । ३. द्वितीयदिनेऽचिन्ति विपक्षैरुपायद्वयं निरर्थकं जातम्, अन्योऽपि निस्सारणोपायो मन्त्रयते । पट्टराज्ञीभक्तो राजा विद्यते सा च यद्भणति तत् करोति । सर्वेऽप्यधिकारिणः स्वगुरु- स्वगुरुवचनेनाम्रकदलीफलद्राक्षादिफलभृतभाजनान्याभरणयुक्तप्रधानवसनादीनि च ढौकनानि गृहीत्वा गता राज्ञीसमीपे । तस्या अग्रे वीतरागस्येव बलिविरचनं चक्रिरे । राज्ञी च तुष्टा प्रयोजनविधानेऽभिमुखीभूता । तस्मिन्नेव प्रस्तावे राज्ञः प्रयोजनमुपस्थितम् । राज्ञीसमीपे ततो दिल्ली देश सम्बन्धी पुरुष आदेशकारी राज्ञा तत्र प्रेषितः इदं प्रयोजनं राज्ञ्या निवेदय । देव ! निवेदयामीति भणित्वा शीघ्रं गतः । राजप्रयोजनं निवेदितं राज्ञ्याः । अनेकेऽधिकारिणो नानाढौकनिकाश्च विलोक्य तेन चिन्तितम् - 'ये मम देशादागता आचार्यास्तेषां निस्सारणोपायः संभाव्यते, परं मयाऽपि किञ्चित्तेषां पक्षपोषकं राज्ञः पुरो भणनीयम्' । गतस्तत्र । 'देव ! प्रयोजनं निवेदितं भवताम्, परं देव ! बृहत् कौतुकं तत्र गतेन दृष्टम्' । 'कीदृशं भद्र ?" । 'राज्ञी अर्हद्रूपा जाता, यथाऽर्हतामग्रे बलिविरचनं क्रियत एवं राज्ञ्या अध्यग्रे' । राज्ञा चिन्तितम् -'ये मया न्यायवादिनो गुरुत्वेनाऽङ्गीकृताः, अद्यापि तेषां पृष्ठिं न मुञ्चन्ति' । राज्ञा भणितः सोऽपि पुरुषः - शीघ्रं गच्छ राज्ञीपार्श्वे, गत्वा भणनीयम् - राजा भाणयति राज्ञीं 'यद्दत्तं भवत्या अग्रे तन्मध्यादेकमपि पूगीफलं यदि लास्यसि तदा न त्वं मम नाऽहं तव' इति श्रुखा भीता राज्ञी, भणितं च 'भो ! यद् येनाssनीतं तत्तेन स्वगृहे नेतव्यम् ; मम नास्ति प्रयोजनम्' । सोऽप्युपायो निरर्थको जज्ञे । ४. चतुर्थ उपायचिन्तितः - यदि राजा देशान्तरीयमुनीन्द्रानं बहु मंस्यते तदा सर्वाणि देवसदनानि शून्यानि मुक्तत्वा देशान्तरेषु गमिष्यामो वयम् । केनापि ' राज्ञो निवेदितम् । राज्ञाऽभाणि 'यदि तेभ्यो न रोचते तदा गच्छेन्तु' । देव * एतच्चिह्नान्तर्गतो वाक्यविन्यासो नास्ति प्र० । १ प्र० परं वयं न कस्यापि सम्बन्धिनः । २ ' आचार्याणां' । ३ ' तद्देयम्' । ४ जिनेश्वरेणोक्तं राजपिण्डो न कल्पते । ५ ' चिन्तित ः ' । ६ 'लात्वा' । तारकान्तर्गतः पाठो नास्ति प्र० । ७-७ 'बलिढौकनेनेति' इत्येव पदम् । ८ 'समीपे' । ९ 'पूगीफलं न ग्राह्यं यदि' । १० देशान्तरादागतान् मुनीन् मंस्यते । ११ नास्ति प्र० 'केनापि' । १२ 'राज्ञोक्तं गच्छन्तु' इत्येव प्र० । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। गृहपूजका वृत्त्या बटुका धारिताः । सर्वे देवाः पूजनीयाः। परं देवगृहमन्तरेण [तैः] बहिःस्थातुं न शक्यते, ततः कोऽपि केनाऽपि व्याजेनागतः । किं बहुना, सर्वेऽप्यागता देवगृहेषु स्थिताः।। ५. श्रीवर्द्धमानसूरिरपि सपरिवारो राजसन्मानेन सर्वत्र देशे विहरति, कोऽपि किमपि कथयितुं न शक्नोति । ततः श्रीजिनेश्वरसूरिः शुभलग्ने स्वपट्टे निवेशितः। द्वितीयोऽपि तद्भाता बुद्धिसागर आचार्यः कृतः। तयोभगिनी कल्याणमतिनाम्नी महत्तरा कृता । पैंश्वाच्छ्रीजिनेश्वरसूरिणा विहारक्रम कुर्वता जिनचन्द्र-अभयदेव-धनेश्वर-हरिभद्र-प्रसन्नचन्द्र-धर्मदेव-सहदेव-सुमतिप्रभृतयोऽनेके शिष्याः कृताः । ततो वर्द्धमानसूरिः सिद्धान्तविधिना श्री अर्बु द शि ख र तीर्थे देवत्वं गतः ।। ६. पश्चाच्छ्रीजिनेश्वरसूरिभिः श्रीजिनचन्द्राभयदेवी गुणपात्रं ज्ञात्वा सूरिपदे निवेशितौ, क्रमेण युगप्रधानौ जातौ । *अन्यौ च द्वौ सूरी धनेश्वरो जिनभद्रनामा, द्वितीयश्च हरिभद्राचार्यः, तथोपाध्यायत्रयं कृतं धर्मदेव-सुमतिविमलनामानः । धर्मदेवोपाध्यायः सहदेवगणी च द्वावपि भ्रातरौ । धर्मदेवोपाध्यायेन हरिसिंह-सर्वदेवगणिभ्रातरौ सोमचन्द्रपण्डितश्च शिष्या विहिताः । सहदेवगणिनाऽशोकचन्द्रः शिष्यः कृतः। स चातीववल्लभ आसीत् । स च श्रीजिनचन्द्रमरिणा विशेषेण पाठयित्वाऽऽचार्यपदे निवेशितः । तेन च स्वपदे हरिसिंहाचार्यो विहितः । अन्यौ च द्वौ सूरी प्रसन्नचन्द्र-देवभद्राख्यौ । देवभद्रः सुमत्युपाध्यायशिष्यः। प्रसन्नचन्द्राचार्यप्रभृतयश्चत्वारोऽभयदेवसरिणा पाठितास्तर्कादिशास्त्राणि । यत उक्तम् सत्तर्कन्यायचर्चार्चितचतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दसरिः, सूरिः श्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनिर्देवचन्द्रः। इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवसकलभुवः सञ्चरिष्णूरुकीर्तिः स्तम्भायन्तेऽधुनाऽपि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ।। [६] ७. श्रीजिनेश्वरसूरय आ शा पल्ल्यां विहृताः । तत्र व्याख्याने विचक्षणा उपविशन्ति । तत्र लीलावतीकथा कृता अनेकार्थवर्णनसमेता । तथा डि ण्डि या णा ग्रा मे कथानककोशः कृतो व्याख्यानाय । प्रथम स्थानस्थितदेवगृहनिवास्याचार्याणां समीपे व्याख्यानाय पुस्तकयाचनं कृतम् । तैनं दत्तम् । पश्चात् , पश्चिमप्रहरद्वये विरच्यते, प्रभाते व्याख्यायते । इत्थं कथानककोशश्चतुर्मास्यां कृतः । तथा मरुदेविगणिन्याऽनशनं गृहीतं, चत्वारिंशदिनानि स्थिता । श्रीजिनेश्वरसूरिणा समाधानमुत्पादितं भणितं च-'यत्रोत्पत्स्यसे तत्स्थानं निवेदनीयम् । भणितं 'निवेदयिष्यामि । श्रावक एको युगप्रधाननिश्चयाभावे उ ज य न्ते गत्वा तस्य निश्चयार्थमुपवासान् कर्तुमारब्धः। तसिन् प्रस्तावे ब्रह्मशान्तिस्तीर्थङ्करवन्दनार्थ म हा वि दे हे" गतः । तस्याऽयं मरुदेविदेवेन सन्देशो भणितःमरुदेविनामअन्जा गणिणी जा आसि तुम्ह गच्छंमि । सग्गंमि गया पढमे, देवो जाओ महिड्डीओ।। टक्कलयंमि विमाणे दुसागराऊ सुरो समुप्पन्नो। समणेससिरिजिणेसरसूरिस्स इमं कहिजासु॥ टक्कउरे जिणवंदणनिमित्तमिहागएणं संदिढें । चरणमि उज्जमो भे, कायव्वो किं व सेसेसु॥ [९] तेनापि स्वयं गवा न कथितं गाथात्रयम् । स श्रावक उपवासं प्रवृत्त उत्थाप्य कथितम् , अञ्चलेऽक्षराणि लिखितानि १ सूरयोऽपि सपरिवाराः' । २ 'विहरन्ति' । ३ 'न कथयति' । ४ 'ततो पश्चा०' । ५ विहारं' । ६ वर्द्धमानसूरिविधिनाऽर्बुदे देवत्वे गतः' । * एतच्चिदान्तर्गताः पंक्तयो नोपलभ्यन्ते प्रत्यन्तरे । ७ प्र० 'डिण्डियाणकग्रामे' । ८ 'कथ्यं' । ९ तयाप्यङ्गीकृतं'। १० नास्ति पदमेतत् प० । ११ 'तस्याग्रे । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ खरतरगच्छालंकार 'मसट सटच' । प त्त ने गत्वा यस्याssचार्यस्य हस्तेन प्रक्षालितानि यास्यति स युगप्रधानः । सर्वासु वसतिषु गतः, दर्शितान्यक्षराणि, न केनापि बुद्धानि । श्रीजिनेश्वरसूरिवसतौ गतः । दर्शितान्यक्षराणि । चिन्तयित्वा प्रक्षालितानि, गाथात्रयं चालेखि । तेन चिन्तितम् - एष युगप्रधानः । विशेषेण गुरुत्वेनाऽङ्गीकृतः । इत्यादितीर्थकरमहावीरदर्शितधर्मप्रभावनां कृत्वा श्रीजिनेश्वरसूरिर्देवत्वं गतः । ८. पश्चजिनचन्द्रसूरिः सूविर आसीत्, यस्याष्टादश नाममालाः सूत्रतोऽर्थतश्च मनस्यासन् । सर्वशास्त्रविदा येनाऽष्टादशसहस्रप्रमाणा ‘संवेग रंगशाला' मोक्षप्रासादपदवी भव्यजन्तूनां कृता । येन जा वा लिपु रे विहृतेन श्रावकाणामग्रे 'चीवंदणमावस्सय' इत्यादिगाथाया व्याख्यानं कुर्वता, ये सिद्धान्तसंवादाः कथितास्ते सर्वे सुशिष्येण लिखिताः । शतत्रयप्रमाणो 'दिनचर्याग्रन्थो' जातः श्राद्धानामुपकारी । सोऽपि श्रीवीरधर्म याथातथ्यं प्रकाश्य दिवं गतः । 1 ९. तदनन्तरं श्रीमदभयसूरिर्नवाङ्गवृत्तिकर्ता युगप्रधान आसीत् । स कथं नवाङ्गवृत्तिकर्ता, तत्राह - तस्य शम्भा ग्रामे शरीरकार बभूव । यथा यथौषधादिः प्रयुज्यते तथा रोगो वृद्धिं याति, न निवर्तते । लोकः पृथग्ग्रामेषु भक्तः, यदा यदा चतुर्दशीप्रतिक्रमणं भवति ततश्चतुर्योजनदूरक्षेत्रादागत्य प्रतिक्रामन्ति श्रावकास्तत्र । कदाचिदतीव रोगाक्रान्तं शरीरं ज्ञात्वा दुष्कृतनिमित्तं समाहूताः सर्वे श्राद्धाः । त्रयोदशीदिने पश्चाद्रात्रौ प्रहरद्वये शासनदेवता समाजगाम । तयाsभाणि - 'स्वपिषि जागर्षि वा ?' । ततो मन्दं मन्दं भणितम् - 'जागमिं' । तया भणितम् - 'शीघ्रमुत्तिष्ठ, सूत्रकुक्कुटिका नवोन्मोचय' । भणति - ' न शक्रोमि' । 'कथं न शक्नोषि ? अद्यापि बहुकालं जीविष्यसि, नवाङ्गवृत्तौ प्रतिविधास्यसि' | 'कथं विधास्याम्येवंविधे शरीरे ?' । तत उपदेशं ददति देवता - 'स्तम्भ न क पु रे से ढी नद्युपकण्ठे खंखरापलाशमध्ये पार्श्वनाथप्रतिमा स्वयम्भूर्विद्यते । तस्या अग्रे देवान् वन्दख येन स्वस्थशरीरो भवसि । पश्चाद्देवताऽदर्शनी भूता । प्रभाते मिथ्यादुष्कृतं दास्यन्ति गुरवः - इत्यभिप्रायेणाऽऽगन्तुकाः स्थानस्थिताश्च सर्वे मिलित्व समययुः । पूज्या वन्दिताः । वन्दितैः सद्भिर्भणितम्- 'स्तम्भ न क पु रे श्रीपार्श्वनाथदेवो वन्दनीयः । ततोऽज्ञायि श्राद्धैःश्री पूज्यानामुपदेशो जातः । ततो भणितं तैर्वयमप्यागमिष्यामः । ततो गुरूणां वाहनं कृतम् । बुभुक्षा सर्वथैव नष्टाssसीत् । प्रथमेऽपि प्रयाण के रसविषयेऽभिलाषोऽभूत् । क्रमेण ध व ल कं यावत् प्राप्तस्य शरीरं स्वस्थं जातम् । पश्चात् पादैः स्तम्भ न क पुरे विहृतः । श्रावकाः श्रीपार्श्वनाथप्रतिमामवलोकयितुं प्रवृत्ताः । कुत्राऽपि न दृष्टा । पश्चाद् गुरवः पृष्टाः, तैरभाणि - 'खंखरापलाशमध्येऽवलोकयत' । ततोऽवलोकिता दृष्टा देदीप्यमानी । प्रतिदिनं गौरेका स्नानाय दुग्धं क्षरति । ततस्तैस्तुष्टैरागत्यं भणितं गुरोः पुरः - 'भगवन् ! दृष्टा यथा भणिता' । ततो भगवान् वन्दनाय भक्त्या चलितः । दृष्टा तत्र, वन्दिता भक्त्या । तत ऊर्द्ध स्थितेन देवप्रभावात् तदैव 'जय तिहुयणे 'त्यादि नमस्कारद्वात्रिंशिका कृता । देवताभिर्भणितम् -'नमस्कारद्वयमुत्तारय; तस्मिन् ध्याते सर्वस्यापि प्रत्यक्षीभवनं भविष्यति । तदपि कष्टम् । त्रिंशताऽपि नमस्कारैर्ध्या तैः सर्व भद्रं विधास्यामः । तत उत्तारितम् । समुदायेन सह देववन्दनं कृतम् । समुदायेनें विस्तरेण स्नानाद्याभरणपूजा कृता । तत्र स्थापना विहिता । देवगृहं जातम् । सर्वलोकवाञ्छितेपूरणेन श्रीमदभयदेवसूरिस्थापितं श्रीपार्श्वनाथतीर्थं नाम प्रसिद्धिं गतम् । * एतत् स्थाने 'तीर्थं प्रभाव्य' इत्येव प्र० । १ ' ततः' । २ नास्ति पदमेतत् प्र० । ३ ' वीरशासनं ' । ४ ततोऽभयदेवसूरि' । ५ 'आसीत्' नास्तिं प्र० । ६ पतितं मूलादर्शे पदमेतत् । ७ ' तदा तदा' । ८ 'वपुः' । ९ 'समागता' । १० 'शक्ष्यसि' । ११ ‘ददते' । १२ 'अदृश्यी' । १३ ' लास्यन्ति' । १४ 'मिलिताः । १५ 'गताः । १६ 'श्राद्धाः । १७ 'तैः । १८ नास्ति पदमेतत् प्र० । १९ ' आगत्योक्तं भगवन्' । २० 'पूज्या वन्दनाय चलिताः । २१ 'करिष्यामः' । २२ 'संघेन' । २३ सर्वलोकेप्सित' । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । १०. तत्स्थानात् पत्त ने समायाताः । क र डि ह ट्टी वसतौ स्थिताः । तत्र स्थितैनवाङ्गानां स्थानप्रभृतीनां वृत्तयः कृताः । यत्र सन्देह उत्पद्यते तत्र स्मरणप्रस्तावे, जया-विजया-जयन्ती-अपराजिता देवताः स्मृताः सत्यस्तीर्थकरपार्श्व महाविदेहे गत्वा तान् पृष्ट्वा निस्सन्देहं तत्स्थानं कुर्वन्ति । ११. तस्मिन् प्रस्तावे देवगृहनिवास्याचार्यमुख्यो द्रोणाचार्योऽस्ति । तेनाऽपि सिद्धान्तो व्याख्यातुं समारब्धः । सर्वेऽप्याचार्याः कपलिकां गृहीत्वा श्रोतुं समागच्छन्ति । तथाऽभयदेवसरिरपि गच्छति । स चाचार्य आत्मसमीपे निषद्यां दापयति । यत्र यत्र व्याख्यानं कुर्वतस्तस्य सन्देह उत्पद्यते, तदा नीचैः स्वरेण तथा कथयति यथाऽन्ये न शृण्वन्ति । अन्यस्मिन् दिने यद् व्याख्यायते सिद्धान्तस्थानं तवृत्तिरानीता। एतां चिन्तयित्वा व्याख्यानयन्तु भवन्तः । यस्ता पश्यति सार्थकां, तस्याऽऽश्चर्यं भवति; विशेषेण व्याख्यातुराचार्यस्य । से चिन्तयति-किं साक्षाद्गणधरैः कृताऽथवाऽनेनाऽपि, तस्मिन् विषये ऽतीवादरो मनसि विहितः । द्वितीयदिने सम्मुखमुत्थातुं प्रवृत्तः । ततस्तादृशं सुविहिताचार्यविषयमादरं दृष्ट्वा, रुष्टा व्युत्थिताः सन्तो वसतौ गता भणन्ति देवर्गृहनिवास्याचार्याः-'केन गुणेनैषोऽधिकः, येनाऽस्माकं मुख्योऽप्येवंविधमादरं दर्शयति; पश्चात् के वयं भविष्यामः । द्रोणाचार्योऽपि बृहत्तरः सदर्थो विशेषज्ञो गुणपक्षपाती सन् नूतनं वृत्तं कृत्वा सर्वेषु देवगृहनिवास्याचार्यमठेषु प्रेषितम् आचार्याः प्रतिसद्म सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतै तुं नाऽध्यवसीयते सुचरितैस्तेषां पवित्रं जगत् । एकेनापि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाधनाः साम्प्रतं, यो धत्तेऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम् ।। [१०] तत उपशान्ताः सर्वे । द्रोणाचार्येणाऽभाणि श्रीमदभयदेवसूरीणामग्रे-'या वृत्तीः सिद्धान्ते करिष्यसि ताः सर्वा मया शोधनीया लेखनीयाश्च ।' तथा तत्र स्थितेन पारिग्रहिकद्वयं प्रतिबोधितम् , सम्यक्त्वद्वादशव्रतस्थितं कारितम् । तच्च समाधिना श्रावकत्वं प्रतिपाल्य देवलोकं गतम् । देवलोकात् तीर्थकरवन्दनार्थ महाविदेहे गतम् । सीमन्धरस्वामि-युगन्धरस्वामिनौ वन्दितौ, धर्म श्रुत्वा पृष्टौ-'मम गुरुः श्रीमदभयदेवसूरिः कतिथे भवे मुक्तिं गमिष्यति ?' भगवद्भयां भणितम्-'तृतीये भवे सेत्स्यती'ति श्रुत्वा तुष्टौ देवौ स्वगुरुपायें गतौ जिनवार्ता कथिता । वन्दित्वा गच्छद्भयामिमा गाथा पठिता भणियं तित्थयरेहिं महाविदेहे भवंमि तइयंमि । तुम्हाण चेव गुरवो मुत्ति सिग्धं गमिस्संति ॥ [११] सा च स्वाध्यायं कुर्वत्या तिन्या श्रुताऽऽनायिता च गुरूणां निवेदिता । भणितम्-ज्ञाता चैवाऽस्माभिः । १२. पश्चात् पा.ब्द उदा ग्रा मे विहृताः । तत्र सम्बन्धिनो भक्ताः श्रमणोपासकाः सन्ति । तेषां यानपात्राणि वहन्ति। पयोधौ तानि च प्रेषितानि । तेषां चाऽऽगच्छतां क्रयाणकभृतानां वार्ता जाता-'बुडितानि' । ते च श्राद्धा वार्ता श्रुत्वाऽसुखिनो जज्ञिरे । ते च श्रीमदभयदेवसूरिस्मरणप्रस्तावे वसतौ गताः । वन्दिता भगवन्तः । तैश्च पृष्टाः-'किमिति वन्दनकविषयवेलातिक्रमो जातः । 'भगवन् ! कारणेन' । 'किं कारणम् ?' 'पोतबुडनोदन्ताकर्णनेनाऽसुखिताः स्मः तेन नाऽऽगताः । ततः क्षणमात्रं चित्ते ध्यानं धृत्वा भणितम्-अत्र विषयेऽसमाधानं न विधेयं भवद्भिः । पश्चाद् द्वितीयदिने मानुष आगतः। पोताः क्षेमेणोत्तरिताः । वार्तामाकर्ण्य श्राद्धैः सर्वसम्मतेन गुरखो भणिताः-'यावल्लाभः क्रयाणकेन १ ततः पत्तने । २ 'स्थानाङ्ग' । ३ 'लात्वा' । ४ 'यद्यत्र' । ५ 'किं' । ६ 'चैत्यनिवा०' । ७ 'पाल्हउद ग्रामे' । ८ 'श्राद्धाः'। ९ जाताः' । १० 'स्मरणाकाले' । ११ 'उक्तम् । १२ 'चिन्ता न कार्या' । १३ 'उत्तीर्णा' । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार भविष्यति; तदर्धेन सिद्धान्तलेखनं कारयिष्यामः' । गुरुणाऽभाणि-'भवतां मुक्तिकारणम् , युक्तः परिणामः, कर्तव्य एव । ततः पुनरपि प त ने समायाताः श्रीमदभयदेवसूरयः । सर्वदिक्षु प्रसिद्धि प्रापुरेत एव सिद्धान्तपारगाः । १३. तत आ शी दुर्गे श्रीमत्कूर्चपुरीयदेवगृहनिवासिजिनेश्वरसरिरासीत् । तत्र ये श्रावकपुत्रास्ते सर्वेऽपि तस्य मठे पठन्ति । तत्रापि जिनवल्लभनामा श्रावकपुत्रोऽस्ति । तस्य पिता मृतो । मात्रा पालितः। पाठयोग्यः सन् मठे पठितुं क्षिप्तः । सर्वेभ्यश्चट्टेभ्यः सकाशात्तस्याधिकः पाठ आजगाम । अन्यदा, कदाचित् तेन जिनवल्लभचट्टेन बहिर्गच्छता टिप्पनकमेकं प्राप्तम् । तत्र विद्याद्वयं लिखितमस्ति, सर्पाकर्षणी मोक्षणी च । प्रथमं प्रथमा वाचिता । तस्याः प्रभावेन सर्वाभ्यो दिग्भ्यः सर्पानागच्छन्तो दृष्ट्वा निर्भीकेनाऽचिन्ति-विद्याप्रभावोऽयम् । पुनस्तले द्वितीया वाचिता, तत्प्रभावेण पश्चान्मुखाश्चलिताः । एतत्स्वरूपं गुरुणा श्रुतम् । तेन विदित-बहुगुण एषः स्वीकर्तुं युक्तः। ततस्तं वशीकृत्य तन्मातरं प्रियवचनैः सम्बोध्य द्रम्मशतपञ्चकं तस्यै दापयित्वा जिनवल्लभो विनेयः कृतः । लक्षणादिसर्वा विद्याः पाठिताः। कदाचित्तस्याऽऽचार्यस्य ग्रामादौ प्रयोजनमुपस्थितम् । तेन गच्छता पण्डितजिनवल्लभायाऽऽढतिदत्ता-'सर्वा चिन्ता कार्या यावत् प्रयोजनं विधायाऽऽगच्छामि' । 'भवद्भिः शीघ्रं स्वप्रयोजनं निष्पाद्याऽऽगन्तव्यम् । ततो द्वितीये दिने चिन्तितं जिनवल्लभेन-'भाण्डागारमध्ये मञ्जुषा पुस्तकभृता दृश्यते, एतेषु पुस्तकेषु किमस्ति ?' । तद्वशे सर्व ज्ञानमस्तीत्येकं पुस्तकमुच्छोटितं सिद्धान्तस्य । तत्रोक्तं पश्यति-'यतिना द्विचत्वारिंशद्दोषविवर्जितः पिण्डो गृहस्थगृहेभ्यो मधुकरवृत्त्या गृहीत्वा संयमहेतुर्देहधारणा कर्तव्या-इत्यादिविचारान् दृष्ट्वा मनसा विस्मितः-'अहो व्रताचारौ न्यायेन मुक्तौ गम्यते । नाऽस्माकमाचारो मुक्तिगमनयोग्यः' इत्यादि परिभाव्य गम्भीरवृत्त्या यथास्थितिं कृत्वा भणितरीत्या स्थितः । आचार्योऽपि समागतः । तेन चिन्तितम्-'किमपि स्थानं न हीनं समजनि, सर्व जिनवल्लभेन भव्यरीत्या धारितम् । तस्माद् यथा योग्यश्चिन्तितस्तथा भविष्यति । परं सर्वा विद्या अनेन सिद्धान्तं विनाऽभ्यस्ताः । सा च सिद्धान्तविद्या सम्प्रति श्रीमदभयदेवमूरिसमीपे श्रूयते । तस्य पार्श्वे जिनवल्लभं प्रेषयित्वा सिद्धान्तवाचनां ग्राहयित्वा स्वपदे निवेशयामः' इति परिभाव्य वाचनाचार्य कृत्वा पञ्चशतसुवर्ण निर्व्याकुलभोजनादियुक्तिं च जिनशेखराभिधानद्वितीयशिष्यवैयावृत्त्यकृत्सहितं च जिनवल्लभं श्रीअभयदेवमूरिसमीपे मुत्कलितो मरु को ट्ट मध्ये । अन हिल्लं पत्त ने गच्छता म रु कोट्टे रात्रौ माणूश्रावकदेवगृहे प्रतिष्ठा कृता । ततः प त ने प्राप्तः। श्रीमदभयदेवरिवसतिं पृष्ट्वा गतस्तत्र । दृष्टो गुरुभक्त्या वन्दितः । गुरुणा च दर्शनमात्रेण चूडामणिज्ञानाच्च ज्ञातः-योग्यो जीवो दृश्यते । पृष्टश्च 'किमागमनप्रयोजनम् ?' । 'गुरुणा श्रीपूज्यपादपॅझे सिद्धान्तवाचनारसास्वादलम्पटो मधुकरसदृशः प्रेषितोऽहं युष्माकं पार्श्वे' । पश्चादचिन्ति सुगुरुणा-देवगृहनिवासिगुरुशिष्य एषः, परं योग्यः । सिद्धान्तवचनं च चिन्तितम् मरिजा सह विजाए कालंमि आगए विऊ। अपत्तं च न वाइजा, पत्तं च न विमाणए ॥[१२] इति परिभाव्योक्तम्-'युक्तं विहितं भवता यत्सिद्धान्तवाचनाभिप्रायेणात्र समागतः । ततः प्रधानदिने वाचनां दातुमारब्धा । यथा यथा सुगुरुर्जिनवचनवाचनां ददाति तथा तथा सन्तुष्टः सन् शिष्यः सुधारसमिव तामास्वादयति । तं तादृशं शिष्यमवलोक्य गुरुरप्यानन्दभाक् संपनिपद्यते । पश्चात् सुगुरुरहनिशं तथा तथा ज्ञापनाबुद्ध्या वाचनां दातुं प्रवृत्तो यथा स्तोकेनैव कालेन सिद्धान्तवाचना परिपूर्णा भूती १४. तथा गुरोज्योतिष्किक एकः प्रतिपन्न आसीत्-'यदि भगवतां कश्चिच्छिष्यो योग्यो भवति तदा मह्यं समर्पणीयो येन तस्मै ज्योतिष्कं समर्पयामि यथापरिज्ञातम्' । ततो जिनवल्लभगणिः समर्पितः । तेनाऽपि तस्मै यथापरिज्ञानं १ नास्ति पदमेतत् प्र० । २ नास्ति 'कदाचित्' । ३ 'तेनाचिन्ति जिनवल्लभेन' इत्येव प्र० । ४ 'पार्थे' । ५ 'अनघिल्ल०' आदर्श । ६ 'माणदेवश्रावकगृहे' । ७ नास्ति पदमेतत् प्र० । ८ 'दृष्ट्वा' । ९ 'जातः' । १० 'ततः' । ११ 'पूर्णी जाताः'। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । ९ समर्पितम् । गुरुभ्यः सकाशात् स्वगुरुसमीपगमने मुत्कलनवचनं प्रतीच्छति । ततो गुरुणाऽभाणि - 'पुत्र ! सर्व सिद्धान्तं यथाज्ञानं निवेदितम् । तदनुसारेण यथा वर्तसे तथा विधेयम्' । जिनवल्लभगणिना भणितम् -'तथैव यथाशक्ति प्रवर्तयिप्यामि' । ततः प्रधानदिने' चलितो यथागतमार्गेण । पुन र्म रु को ट्टे प्राप्तः । आगच्छता सिद्धान्तानुसारेण देवगृहे विधिलिखितः, येनाविधिचैत्यमपि विधिचैत्यं मुक्ति हेतुर्भवति । स चायम् अत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जाति- ज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमित्याज्ञात्रेयमनिश्चिते विधिकृते श्रीजैन चैत्यालये ॥ [१३] इत्यादिविधिर्विधेयो येन धर्मो मुक्तिमार्गो भवति । ततोऽनन्तरं स्वगुरुसमीपे गन्तुं प्रवृत्तः । प्राप्तौ माइयडग्रामे आसीदुर्गादर्वाक्क्रोशत्रये । तत्रैव स्थितः । गुरुमीलनाय पुरुषः प्रेषितः । तस्य हस्ते लेखो लेखि - 'युष्माकं प्रसादेन सुगुरुसमीपे वाचनां गृहीत्वा माइयडग्रामे समाजगाम । प्रसादं कृत्वाऽत्रैव श्री पूज्यै मिलितव्यम् ।' ततो गुरुभिरज्ञायि'किमिति जिनवल्लभेत्थं निर्दिष्टम्, नात्राऽऽगतः ?' । ततो द्वितीयदिने सँकललोकेन समेतः समायात आचार्यः । अभिमुखगतो जिनवल्लभः । वन्दितो गुरुः । क्षेमवार्ता' पृष्टा गुरुभिः । सर्वा यथोक्ता कथिता । तथा ब्राह्मणसमाधाननिमित्तम्, मेघादिस्वरूपाणि ज्योतिष्कबलेन भणितानि कानिचित्तथा जातानि यथा गुरोरप्याश्चर्यकारीणि । पश्चाद्गुरुणा पृष्टो जिनवल्लभ गणि: - 'किमिति मध्ये त्वं नाऽऽगतः ?' । भणितम् - 'भगवन् ! सुगुरुमुखाजिनवचनामृतं पीत्वा कथं देवगृहनिवासं विषसदृक्षं सेवितुमिच्छामि ?' । ततो गुरुभिर्भणितम् -'भो जिनवल्लभ ! मयेदं चिन्तितमासीत्, तुभ्यं स्वपदं दवा व स्व-गच्छ-देवगृह - श्रावकादिचिन्तां निवेश्य, पश्चात् स्वयं गुरुपार्श्वे वसतिमार्गमङ्गीकरिष्यामः' । जिनवल्लेभो भगति - 'तर्हि किमिति नाङ्गीक्रियते ?, विवेकस्येदं फलमयुक्तं परिहियते युक्तमङ्गीक्रियते । ततोऽभाणि गुरुभिः'एवंविधा निस्पृहता नाऽस्त्यस्माकम् येन चिन्ताकरणसमर्थ पुरुषं विना स्वगच्छे देवगृहादिचिन्तां मुक्त्वा सुगुरुपार्श्वे 'सतिस्थितिमङ्गीकुर्महे; भवता तु विधातव्यं वसतिवसनम्' । ततो गुरुं वन्दित्वा तत्सम्मतेन पुनः पत्तने' विजहार । श्रीमदभयदेवसूरिपादान् भावेन वन्दितवान् । सुगुरोरतीव समाधानं समजनि । चिन्तितं यथा परीक्षितस्तथा जज्ञे । ततो मनसि विदन्ति न कस्यापि निवेदयन्ति - स्वपदयोग्य एष एव परं देवगृहनिवासिशिष्य इति हेतोरिदानीं गच्छस्य सम्मतं न भविष्यतीति - गच्छाधारको वर्द्धमानाचार्यो गुरुपदे निवेशितः । जिनवल्लभगणेः स्वकीयोपसम्पदं दत्तवन्तः–‘अस्माकमाज्ञया सर्वत्रैव "विहर्तव्यः' । एकान्ते प्रसन्नचन्द्राचार्यो भणित: - ' मदीयपदे भव्यलने जिनवल्लभगणी स्थापनीयः । तस्यापि सुगुरुपदनिवेशनप्रस्तावो न जज्ञे । तेनापि स्वायुःपरिसमाप्तिसमये कर्पटकवाणिज्ये देवभद्राचार्याणां विज्ञतम्- 'सुगुरूपदेशः पूर्वोक्तो युष्माभिः सफलीकर्तव्योऽवश्यमेव, मया न कर्तुं शक्तः । तैरपि प्रतिपन्नम् - 'वर्तमानयोगेन करिष्यामः । समाधानं विधेयं किं बहुना ?' पूर्वोक्तकथनेन । नवाङ्गवृच्या भव्यजीवान् सुखिनः कृत्वा कालक्रमेण सिद्धान्तविधिना समाधानेन चतुर्थदेवलोकं प्राप्ताः श्रीमदभयदेवसूरयः ॥ , १ नास्ति पदमेतत् प्र० । २ निजगुरु । ३ ' वाचनां लात्वाऽनागतः' इत्येव प्र० । ४ मिलनीयं । ५ शिष्येणेत्थमादिष्टम् । ६ लोकसमेतोऽभिमुखमाचार्यः । वन्दितो गुरुर्जिनवल्लभेन । ७ तेनोक्तं । ८ चैत्यनिवासं विषवृक्षं । ९ गुरुणोक्तं । १० नास्ति प्र० 'त्वयि स्वगच्छ ' । ११ ततः । १२ जिनवल्लभे नोक्तं । १३ सेव्यते । १४ ततो गुरुणाऽभाणि । १५ नरं । १६ चैत्यादि । १७ वसतिमङ्गीकुर्मः । १८ पत्तनं गतः । १९ नास्ति 'भावेन' । २० जातं । २१ ज्ञातं । २२ चैत्यवासिशिप्य । २३ स्थापितः । २४ सर्वत्र विहर्तव्यं । २५ उक्तः । २६ देशो युष्माभिः सफलीकार्यः मया कर्तुं न शक्तिः । पन्नं करिष्यामः समाधानं कार्यं' इत्येव प्र० । २७ नास्ति पदद्वयं प्र० । एतदङ्कितपाठस्थाने - 'तेन प्रति दु० गु० २ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार १५. ततो वाचनाचार्यो जिनवल्लभगणिः कतिचिदिनानि पत्तनभूमौ विहृत्य न तादृशो विशेषेण बोधो विधातुं कस्यापि शक्यते येन सुखमुत्पद्यते मनसि । ततश्चाऽऽत्मतृतीय आगमविधिना सुशकुनेन भव्यजनमनसि भगवद्भणितविधिधर्मोत्पादनाय चित्रकूटदेशादिषु विहृतः । ते च देशाः सर्वेऽपि प्रायेण देवगृहनिवासिमुनीन्द्राप्ताः । सर्वोऽपि तद्वासितो लोकः, किंबहुना । नानाग्रामेषु विहारं विदधश्चित्रकूटे प्राप्तः । यद्यपि तत्राऽशुभैर्भाविता लोकास्तथाऽप्ययुक्तं कर्तुं न शक्नुवन्ति, पत्तने गुरूणां प्रसिद्धिश्रवणात् । स्थानं याचितास्तत्रत्यश्राद्धाः। तैश्च भणितम्-'चण्डिकामठोऽस्ति यदि तत्र तिष्ठथ' । ततो जिनवल्लभगणिना ज्ञातमशुभबुद्ध्या भणन्त्येते, तथापि तत्रापि स्थितस्य देवगुरुप्रसादाद् भद्रं भविष्यतीति चिन्तयित्वा भणितास्ते-'तत्रैव बहु मन्यध्वं यूयं येन तिष्ठामः' । तैरभाणि तिष्ठत । ततो देवगुरून् स्मृत्वा देवतां चानुज्ञाप्य स्थितास्तत्र । देवता च तेषां ज्ञानेन ध्यानेन सदनुष्ठानेन तुष्टा सती तान् प्रत्ययुक्तं रक्षति । ते चं जिनवल्लभगणयः सर्वविद्यानिधानभूताः। कथम् , तथाहि-वेदितारो जिनेन्द्रमतस्थापकतर्काभयदेवानेकान्तजयपताकादि परदर्शनकन्दली -किरणावली-न्यायतर्कादि पाणिन्याद्यष्टव्याकरणं सूत्रतोऽर्थतश्च, चतुरशीतिनाटक-सर्वज्योतिप्कशास्त्र-पञ्चमहाकाव्यादिसर्वकाव्य-जयदेवप्रभृतिसर्वच्छन्दोज्ञातारः' इति प्रसिद्धिश्चित्रकूटे जाता। सर्वे परदर्शनीयविप्रादिलोका आगन्तुं प्रवृत्ताः । यस्य यस्य यस्मिन् यस्मिन् शास्त्रविषये संशय उत्पद्यते स सर्वोऽपि जनः पृच्छति, यथा सन्देहस्त्रुट्यति तथोत्तरं ददाति । श्रीवका अपि केचन केचन समाजग्मुः । सिद्धान्तवचनानि श्रुत्वा तदनुसारेण क्रियामपि दृष्ट्वा साधारण-सड्डकप्रभृतिश्रावकैः समाधिना श्रीवाचनाचायजिनवल्लभगणयो' गुरुत्वेन प्रतिपन्नाः । गुरूपदेशेन परिज्ञानं, ज्योतिष्कपरिज्ञानमप्यतीवाऽऽसीत् । साधारणेन परिग्रहपरिमाणयार्चनं कृतम् । गुरुगा भणितम्'गृहाणं कियन्मानं ग्रहीष्यसि ?' । 'भगवन् ! विंशतिसहस्रमानं सर्वसंग्रहे करिष्यामि' । पश्चाद् गुरुभिरुक्तम्-'बहुतरं कुरु, किं बहुना, लक्षं द्रम्माणां परिमाणं कारितः। पश्चाद् यथा यथा सर्वसम्पदा प्रवर्धमानः साधारणो जज्ञे तथा तथा संघस्य सर्वसामर्थेन गुर्वाज्ञया साधारणो भवितुं प्रवृत्तः । अन्ये तु श्राद्धास्तथा प्रवर्तितुमारब्धाः। १६. तथाऽश्वयुजि मासे कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां श्रीमहावीरगर्भापहारकल्याणकदिने भणितं श्रीजिनवल्लभगणिना श्राद्धानां पुरः-'यदि देवा वन्द्यन्ते देवगृहे महावीरस्य तदा सुभद्रं भविष्यति । षष्ठमपि कल्याणकं गर्भापहारलक्षणम् , *यतः "पंच हत्थुत्तरे होत्था साइणा परिनिव्वुडे" इति सिद्धान्ते भणनात्' । तस्मिन् प्रस्तावे विधिचैत्यं नास्ति । चैत्यनिवासिगुरुदेवगृहेषु गम्यते । पश्चाच्छ्रावकैर्भणितम्-'भयवन् ! यदि युष्माकं सम्मतं तत् क्रियते' । ततः सर्वे श्रावका निर्मलशरीरा निर्मलवस्त्रा गृहीतनिर्मलपूजोपकरणा गुरुणा सह देवगृहे गन्तुं प्रवृत्ताः। ततो देवगृहस्थितयाऽऽयिकया गुरून् श्राद्धसमुदायेनाऽऽगच्छतो दृष्ट्वा पृष्टम्-'को विशेषोऽद्य ?' केनापि कथितम्-वीरगर्भापहारपेष्ठकल्याणकपूजाकरणार्थ समागच्छन्ति । तयाऽचिन्ति -पूर्व केनापि न कृतमेते करिष्यन्तीति न युक्तम् । पश्चात् संयती देवगृहद्वारे पतित्वा स्थिता, द्वारे समागतान् दृष्ट्वा तयाऽशुभयाऽभाणि-'मया मृतया यदि प्रविर्शत' । ततोप्रीतिकं ज्ञात्वा निवर्त्य स्वस्थाने गत्वा श्राद्धरुक्तम्-'बृहत्तरसदनानि सन्त्येकस्य गृहस्योपरि चतुर्विंशतिजिनपट्टकं धृत्वा देववन्दनादिसर्व धर्मप्रयोजनं क्रियते' । गुरुणा भणितं युक्तमेव । तत आराधितं विस्तरेण कल्याणकम् । समाधानं समजनि । ततो १ कोऽपि बोधः । २ नास्ति । ३ येन चित्ते। ४ तत आत्मना तृतीयः। ५ नास्ति। ६ चैत्यनिवासि० । ७ कुर्व । ८ गतः । । एतदन्तर्गता पंक्तिर्नास्ति प्र० । ९ लोकाः। १० जिनवल्लभेनाऽचिन्ति--एतेऽशुभबुद्ध्या भणन्ति । ११ वा० जिन । +-+ एतद्दण्डान्तर्गतः पाठो नास्ति प्र० । १२ श्राद्धाः । १३ समाययुः । १-१ नास्ति प्र० । १४ याचितं । १५ गुरुणोक्तं । १६ 'लक्षं परिमाणं' इत्येव प्र०। १७ ततो। १८ उक्तं। १९ भद्रं भवति। २० श्रीवीरस्य षष्ठं कल्याणकं। * नास्ति प्र० । २१ श्राद्धैः सहा । २२ केनोक्तं । २३ वीरषष्ठं । २४ चिन्तितं। २५ चैत्यद्वारे पतिता मया मृतया मध्ये गमिष्यन्ति-इत्येव । २६ गुरुणोक्तं । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। गीतार्थः श्रावकैर्मत्रितम्-'विपक्षरविधिप्रवृत्तैर्विधिजिनोक्तो विधातुं न लप्स्यते, ततो यदि गुरोः सम्मतं भवति तदा तले उपरि च देवगृहद्वयं कार्यते । स्वसमाधानं गुरोनिवेदितम् । ततो गुरुणा कथितम् जिनभवनं जिनबिम्बं जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥ [१४] इति देशनया ज्ञातं गुरोर[प्य]भिप्रेतमेव । लोके च प्रवृत्ता वार्ता-एते देवगृहे कारयिष्यन्ति' । प्रह्लादनबृहत्तरेण बहुदाकेनाऽपि कथितम्-एते कापालिका देवगृहे कारयिष्यन्ति, राजमान्या भविष्यन्ति । इदं च श्रुतं गुरुणा। ततो बहिभूमौ गच्छतः श्रीजिनवल्लभगणेः सोऽपि मिलितस्तथा भणितः-'भद्र ! गर्वो न विधेयः । एतेषां मध्यात् कश्चिद्राजमान्योऽपि भविष्यति, यस्त्वां बद्धमुच्छोटयिष्यति । ततः श्रावकैः सोत्साहैमिलित्वा देवगृहे कारयितुमारब्धे । देवगुरुप्रसादेन प्रमाणीभूते । उपरि श्रीपार्श्वनाथविम्बं तले च महावीरबिम्बं कारितम् । विस्तरेण प्रतिष्ठा जाता। विधिना श्रीजिनवल्लभगणिभिः कृता । सर्वत्र प्रसिद्धिर्जातैत एव गुरवः । १७. अन्यदा ब्राह्मणः कश्चिज्ज्योतिष्किकः पण्डितमानी श्रीजिनवल्लभगणिसमीपे समागतो लोकमध्ये श्लाघां क (श्रु ?) त्वैवंविधा धर्मशास्त्रविदः, श्वेतपटाः समाजग्मुः । श्रावकैः पट्ट आसनं दत्तम् । गुरुणा पृष्टः-'कुत्र भवतो वासः' 'अत्रैव' । पश्चाद्गुरुभि पितः–'कस्मिन् शास्त्रे विशेषेणाभ्यासोऽस्ति ?' । 'ज्योतिष्के' । 'चन्द्रादित्यलग्ने सम्यग्वेत्सि ?' 'सम्यगेव, किमत्रैवागणित एकं द्वे त्रीणि च लग्नानि भणामि ।' जिनवल्लभगणिना ज्ञातम्-'गर्वेणाऽऽगतः।' गुरुणोक्तम्-'भद्रं परिज्ञानम् ।' स ब्राह्मणः पृच्छति-'युष्माकमपि परिज्ञानं विद्यते, लग्नविषये भविष्यति किञ्चित्तहिं कथयन्तु भगवन्तः । 'कति कथयामि दश विंशतिर्वा लग्नानि ?' । तस्यातीवाश्चर्यमभूत् । पश्चाच्छ्रीजिनवल्लभगणिना भणितम्-'भो विप्र ! गगने हस्तद्वयमाना डम्बरिका दृश्यते सा कियन्मात्रं पानीयं करिष्यति ? । [विप्रोजानानः शून्यदृष्टिदिशोऽवलोकयति । ततो भणितं गुरुणा-'भो विप्र! भाजनद्वयं यावत्'] पश्चादत्रैवोपविष्टस्य क्षणमात्रेणैव तया डम्बरिकया सकलं गगनमाच्छाद्य वृष्टिः कर्तुमारब्धा, तावदृष्टिजज्ञे यावद्भाजनद्वयमपि परिपूर्णीभूतम् । ततो विप्रो मस्तके हस्तौ योजयित्वा सुगुरोः पादयोः पतित्वा भणितवान्-'यावत्तिष्ठाम्यत्र तावद्भगवती पादान् वन्दित्वा निश्चयेन भोजनं विधास्यामि । न मयाऽज्ञायि भगवन्त एवंविधाः' । पश्चात् सर्वत्रैव प्रसिद्धिर्जाता ज्ञानिन एव श्वेतपटा भवन्तीति । १८. अन्यदा कदाचिन्मुनिचन्द्राचार्येण शिष्यद्वयं सिद्धान्तवाचनानिमित्तं श्रीजिनवल्लभगणिपार्श्वे प्रेषितम् । गणिरपि तयोर्वाचनां दातुं प्रवृत्तः। तावप्यशुभौ चिन्तयतो जिनवल्लभगणेः श्राद्धान् विप्रतारयाव इति बुद्ध्या रञ्जयन्तः श्रावकार्न । कदाचित् स्वगुरुपार्श्वे प्रेपितुं लेखोऽलेखि । तं च वाचनाकपलिकायां प्रक्षिप्य वाचनां ग्रहीतुं गतौ तौ वसतौ । गणिसमीपे वन्दनं दत्त्वोपविष्टौ तत्र । उच्छोटिता कँपलिका । ततो नंतनो लेखो दृष्ट्वा गृहीतः, उच्छोटितश्च । तावपि हस्ताद् गृहीतुं न शक्नुतः । अवधारितो लेखः । तत्रालेखि-'जिनवल्लभगणेः केचिच्छ्राद्धाः स्ववशं नीताः सन्ति, क्रमेण सर्वे (सर्वान् ?) वशीकरिष्याव इति मनोवृत्तिरस्ति' । ततः श्रीजिनवल्लभगणिना द्विधा विधायाऽऽर्याऽभाणि १-१ एतदद्वयमध्यगतः पाठो नास्ति प्र० । २ चैत्ये । ३ चैत्ये । ४ जिनवल्लभेन कृता इत्येव प्र० । ५-५ गुरुपार्श्व आगतः । आसनं दत्तं श्राद्धैः-इत्येव प्र० । ६-६ 'गुरुणा भाषितः' इत्येव प्र०। ७-७ युष्माकं परिज्ञानमस्ति । किंचित् । कथयन्तु भवन्तः--इति प्र० । ८ ततो गुरुणोक्तम् । ९ जलं । १० प्र०--वृष्टिः कृता भाजनः । ११ नियोज्य । १२ भवतां । १३ नास्ति । १४ करिष्ये । १५ 'ज्ञानिनः श्वेतपटा इति लोके प्रसिद्धिर्जातेति ।' इत्येव । १६ श्राद्धान् । १७ अन्यदा । १८ ‘कपिलिका' मूलादर्शे । १९ 'नूतनं लेख' प्र० । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ खरतरगच्छालंकार आसीजनः कृतघ्नः क्रियमाणघ्नस्तु साम्प्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्को भविता लोकः कथं भविता ॥ [१५] अहो ! सृतं वाचनया भवतोरेवंविधाशुभभावेन । पश्चाद्विमुखौ गतौ स्वस्थानं पुनर्न दृष्टौ तदैव गतौ । १९. कदाचिञ्जिनवल्लभगणेर्बहिभूमौ गच्छतो विचक्षणः कश्चित् प्रसिद्धिं ज्ञात्वा पाण्डित्यस्य मिलितः । समस्यापदं प्रक्षिप्तं कस्यापि राज्ञो वर्णनामाश्रित्य 'कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः ' पश्चान्मनाक परिभाव्य पूरिता समस्या, तदैव कथिता तस्य पुर:चिरं चित्तोद्याने वससि च मुखाब्जं पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विषयविषमोहं हरसि च । नृप ! त्वं मानाद्रि दलयसि च क्षितौ कौतुककरः, कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः ? ॥ [१६] इति श्रुत्वा तुष्टः । कथितवान् -सत्या लोके प्रसिद्धि:, अस्मिन्विषये, गुणस्तुतिं कृत्वा पादयोः पतित्वा गतः । पश्चात् सुगुरुर्वसतौ समागतः । ततः श्रावकैः पृष्टः सुगुरु: - 'बह्वी वेला लग्ना सुगुरोः, किं कारणम् ?' पश्चात् सहगतेन शिष्येण सर्वा वार्ता कथिता । प्रमोदो जज्ञेऽतीव श्रावकाणाम् । २०. तथा गणदेव श्रावकैः स्वर्णार्थी जिनवल्लभगणिपार्श्वे सुवर्णसिद्धिरस्तीति श्रुत्वा तस्य समीपे चित्रकूटे गत्वा पर्युपासनां कर्तुमारब्धा । लक्षितो भावो गणिना । ततो योग्यं ज्ञात्वा तथा तथा तस्य देशना कृता यथा संविग्रभावो जातः । पश्चाद् भणति गणिः - 'भद्र ! सुवर्णसिद्धिं कथयामि ?' | 'भगवन् ! सृतम् विंशतिद्रम्मनीव्या व्यवहारं कुर्वन् श्राद्धधर्म करिष्यामि' । भव्यानां धर्मकथने लब्धिरस्ति तस्य । ततः शिक्षयित्वा धर्म प्रेषितो वागडदेशे । ततो लिखितकुलकलेखैः सर्वोऽपि लोको जिनवल्लभगणिधर्मेऽभिमुखीकृतस्तेन । २१. श्रीजिनवल्लभगणेर्व्याख्याने सर्वे विचक्षणजना उपविशन्ति; विशेषतो ब्राह्मणाः स्वस्वविद्यानिःसन्देहार्थम् । कदाचिदियं गाथा व्याख्याने समागता - 'धिजाईण गिहीणं' इत्यादि- धिग्जातीया ब्राह्मणाः - इति व्याख्यानं श्रुत्वा रुष्टा विद्या बहिर्निर्गताः, कुपिता एकत्र मिलिताः, विपक्षाच निकटीभूताः । एतैः सह विवादं विधाय निष्प्रभीकरिष्यामः' । किं तेषां स्वरूपं ज्ञात्वा श्रीजिनवल्लभगणेर्हृदि तेभ्यो भयं समजनि ?, न मनागपि । तस्य तीर्थकरसदृक्ष - त्वात् । ततश्च मर्यादाभङ्गभीतेरमृतमयतया धैर्यगाम्भीर्ययोगान् न क्षुभ्यन्त्येव तावन्नियमितसलिलाः सर्वदैते समुद्राः । आहो क्षोभं व्रजेयुः क्वचिदपि समये देवयोगात्तदानीं न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रवि-शशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् ॥ [१७] इदं वृत्तं भूर्जखण्डे लिखित्वा विवेकिजनहस्ते दत्त्वा प्रेषितम्, भणितश्च संमिलितानां मध्ये बृहद्ब्राह्मणहस्ते दातव्यम् । तेन तथैव कृतम् । तेनाचिन्ति विवेकबुद्ध्या - वयमेकैकविद्याधारिणस्ते च सर्वविद्यानिधानम्, कथं तैः सह विवादं कर्तुं शक्यते । तेन सर्वे विप्राः सम्बोध्योपशमं नीताः । १ 'वाचनया सृतं ' इत्येव प्र० । एतत् समग्रं प्रकरणं नोपलम्यते प्र० । २ श्राद्धः । ३ हेमसिद्धिं श्रुत्वा । ४ नास्ति प्र० । ५ गुरुसेवा प्रारब्धा । ६ गणिभिरुक्तम् । ७ हेमसिद्धिं । ८ कथनेन । ९ जनो । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । १३ २२. अन्यदा धारानगर्यां श्रीनरवर्मराज्ञो राजमान्यां पण्डितसभां श्रुत्वा दक्षिणदिग्विभागात् पण्डितद्वयं कौतुकेन पाण्डित्यस्य दर्शनार्थमाजगाम । आगत्य पण्डितसभामध्ये 'कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः' इत्येकपदानुसारिणाऽन्यपदत्रयेण पूरयन्तु समस्यां भवन्तः । प्रत्येकं पूरिता, परं न तयोस्तां दृष्ट्वा मनो मुमुदे । केनापि राज्ञः पुरो भणितम् - 'देव ! न पण्डितपूरिताः समस्याः प्रतिभान्त्यनयोः ।' देवेनाभाणि - 'अस्ति कश्चिदुपायो येनानयोर्मनो रज्यते ?' नापि विवेकिना पुरुषेणोक्तम्- 'देव ! चित्रकूटे श्वेतपटो जिनवल्लभगणिः सर्वविद्यानिधानमाकर्ण्यते । राज्ञा तदैवोष्ट्रद्वयं शीघ्रगतिं सपुरुषं सलेख प्रेषितम्- 'इयं समस्या पूरिता मनोहारिणी सती स्वगुरोः पार्श्वात् समागच्छन्ती शीघ्रं भोः साधारण ! तथा कार्यम्' । प्रतिक्रमणवेलायां सन्ध्यासमये प्राप्तं स्वरूपं साधारणेन । गुरोर्दर्शितं स्वरूपम् । प्रतिक्रमणं कृत्वा पूरिता, लेखिता च रे रे नृपाः ! श्रीनरवर्मभूपप्रसादनाय क्रियतां नताङ्गैः । कण्ठे कुठारः कमठे ठकारश्चक्रे यदश्वोऽग्रखुराग्रघातैः ॥ [१८] आगन्तुक पुरुषद्वयं रात्रावपि मुत्कलितं शीघ्रं प्राप्तम् । तया समस्यया रञ्जित तयोर्मनः, भणितं ताभ्याम् -'अस्यां सभायां नास्तीदृशो विद्वान्, येनेयं पूरिता; किं तर्ह्यन्यः कश्चित् ।' वस्त्रादिदानेन पूजयित्वा मुत्कलितौ । २३. श्रीजिनवल्लभगणिरपि कतिचिद्दिनैर्विहृतो धारायाम् । केनाप्युक्तं राज्ञः पुरो- 'देव ! सोऽपि श्वेतपटो समस्यापूरक आगतोऽस्ति ।' राज्ञोक्तम्- 'शीघ्रमाकारय तम्' । तमाकारितः । राज्ञा तुष्टेनोक्तम्- 'भो जिनवल्लभगणे ! पारुत्थलक्षत्रयं ग्रामत्रयं वा गृहाण' । भणितं गणिभिः - 'भोः महाराज ! वयं व्रतिनोऽर्थादिसङ्ग्रहं न कुर्मः । चित्रकूटे देवगृहद्वयं श्रावकैः कारितमस्ति, तत्र पूजार्थं स्वमण्डपिकादानात् पारुत्थद्वयं प्रतिदिनं दापय' । ततो राजा तुष्टः- अहो निर्लोभता एतस्य महात्मनः श्रीजिनवल्लभगणेरिति चिन्तितवान् । चित्रकूटमण्ड पिकातस्तत् शाश्वतदानं भविष्यतीति कृतम् । श्रीजिनवल्लभगणेर्धार्मिकत्वेन सर्वत्र प्रसिद्धिर्जज्ञे । २४. श्रीनागपुरे श्रावकैर्नेमिनाथदेवगृहं नेमिनाथबिम्बं च कारितमस्ति नूतनम् । तेषामेषोऽभिप्रायो जज्ञे - 'वयं श्रीजिनवल्लभगणिं गुरुत्वेनाङ्गीकृत्य तस्य हस्तेनोभयोः प्रतिष्ठां कारयिष्यामः - इति चिन्तयित्वा सर्वसम्मतेन प्रतिपत्त्या श्रावकैराकारितः श्रीजिनवल्लभगणिः । ततः शुभलग्नेन देवगृहं नेमिनाथविम्बं च प्रतिष्ठितम् । तत्प्रभावालक्षपतयः श्रावको जज्ञिरे । नेमिनाथविम्बे रत्नमयान्याभरणानि कारितवन्तः । [ एवमनेके श्राद्धाः प्रतिबोधितास्तत्र, प्र० ] तथा नरवरश्रावकाणां तथाऽभिप्रायो जज्ञे - 'वयमपि जिनवल्लभगणिं कक्षीकृत्य गुरुत्वेन प्रतिष्ठां देवगृहे च बिम्बे च कारयामः' - इति पर्यालोच्य कृतं तथैव । उभयोरपि देवगृहयो रात्रौ बलिधरण-स्त्रीप्रवेश - लकुटादिदानं निषेधादिको विधिलिखितो मुक्तिसाधकः । ततो मरुकोट्टश्रावकैः श्रीजिनवल्लभगणयो विहारक्रमेण समाहूतास्ततो विक्रमपुरमध्येन मरुकोट्टे विहृताः । तत्र श्राद्धैः श्रद्धावद्भिर्वसतिर्गुप्तिस्थानयुक्ता दत्ता । स्थितास्तत्र । श्रावकैरभाणि - 'भगवन् ! युष्मद्वदनारविन्दाजिनवचनरसमाखादितुमिच्छामः' । 'युक्तमेतच्छ्रावकाणाम्, तद्युपदेशमाला कथयितुमारभ्यते' । तैरभाणि - 'पूर्वमेव श्रुता । तथाऽपि पुनरपि भणितव्या' - अभयदिने भणितुमारब्धा । 'संवच्छर मुस भजिणो' - इत्यादिगाथाया एकस्या भणने षण्मासावधिः कालो लग्नस्तथाऽपि श्रावकाणां नानासिद्धान्तोदाहरणामृतेन तृप्तिर्न जाता । वदन्ति- 'भगवन् ! तीर्थकरा एवैतत्सुखमुत्पादयितुं समर्थाः, वचनामृतेन भगवन्तोऽप्येवंविधातुं समर्थाः - इत्याश्चर्यतुष्टाः श्रावकाः देशनया । २५. अन्यदा कदाचिद् व्याख्यानं कृत्वा श्राद्धैः सह वसतौ समाजगाम । तस्मिन्नेव प्रस्ताव एकः पुरुषोऽश्वारूढः * एतत् प्रकरणं नास्ति प्र० । १ गृहं बिम्बं । २ जाताः श्राद्धाः । ३ नेमिबिम्बे । ४ - ४ एतदङ्काङ्किता पंक्तिर्नास्ति प्र० । ५--५ एतत् समस्तप्रकरणस्थाने प्र० ' ततो मरुकोट्टे विहृतास्तत्र श्राद्धैः सह वसतौ जगाम' - इत्येव पाठः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार स्त्रीभिर्गीयमानो बहुपरिवारो गच्छन् परिणेतुं दृष्टः । श्रीजिनवल्लभगणिना भणितम्-'एता एव स्त्रियो रोदनं कुर्वन्त्यो व्याशुटिष्यन्ति'-इति परिभाव्यम् । पश्चाद्गतास्तत्र । तेषां मध्यात् परिणेता निःश्रेण्यामारुह्य चटितुमारब्धः। आरोहतः पादश्चलितः, पतितस्तथा यथाऽसौ पतन घरट्टोपरि पतितः, उदरं द्विधा जातम् , मृतश्च । ता अपि तथाभूता आगच्छन्त्यो दृष्टाः सर्वैरपि । अहो ! परिज्ञानं गुरूणाम् । पश्चाच्छ्रावकाणां धर्मपरिणाममुत्पाद्य पुनर्नागपुरे विर्हताः श्रीजिनवल्लभगणयः। २६. तस्मिन् प्रस्तावे देवभद्राचार्या विहारक्रमं विदधाना अणहिल्लंपत्तने समायाताः। तत्रागतैश्चिन्तितम्-'प्रसन्नचन्द्राचार्येण पर्यन्तसमये भणितं ममाग्रे "भवता श्रीजिनवल्लभगणिः श्रीमदभयदेवसूरिपट्टे निवेशनीयः" । स च प्रस्ताघोऽद्य' । ततः श्रीनागपुरे श्रीजिनवल्लभगणेविस्तरेण लेखः प्रेषितः-'वया शीघ्रं समुदायेन सह चित्रकूटे समागन्तन्यम् , येन वयमागत्य चिन्तितप्रयोजनं कुर्मः' । ततः समागताः श्रीजिनवल्लभगणयः सपरिवाराः। तेऽपि तथैव समागता देवभद्रसूरयः। पण्डितसोमचन्द्रोऽप्याकारितः परं नागन्तुं शक्तः । इदानीं श्रीदेवभद्रसूरिभिः श्रीमदभयदेवमूरिपट्टे श्रीजिनवल्लभगणिनिवेशितः, सं० ११६७ आषाढ सुदि ६, चित्रकूटे वीरविधिचैत्ये । अनेके भव्यजनाः श्रीजिनवल्लभसूरीन् युगप्रधानान् युगप्रधानश्रीमदभयदेवमूरिपादभक्तान् समालोक्य मोक्षमार्गे प्रवृत्ताः। देवभद्राचार्यादयोऽपि स्वस्थाने प्राप्ताः" । क्रमेण ११६७ एकादशशतषष्टिसप्ताधिकसंवत्सरे कार्तिककृष्णद्वादश्यां रजन्याश्चरमयामे दिनत्रयमनशनं विधाय मिथ्यादुष्कृतपूर्वकं नमस्कारपरावर्तनं कुर्वन्तः श्रीजिनवल्लभसूरयश्चतुर्थदेवलोकं प्राप्ताः॥ २७. पूर्व श्रीजिनेश्वरसूरीणां श्रीधर्मदेवोपाध्यायस्य व्रतिनीभिर्गीतार्थाभिश्चतुर्मासी धवलके कृता । क्षपनकभक्तवाछिगपत्नी बाहडपुत्रसहिता वतिनीपार्श्व धर्मकथां श्रोतुं समागच्छति । वतिन्य विशेषेण धर्म कथयन्ति । ताश्च पुरुषलक्षणं शुभाशुभं विदन्ति । तस्याः पुत्रस्य प्रधानलक्षणानि पश्यन्ति । तल्लाभनिमित्तं बह्वाक्षिपन्ति तन्मातरम् । किंबहुना तथा भक्ता कृता यथा शिष्यत्वेन पुत्रं दास्यतीति । चतुर्मास्यनन्तरं धर्मदेवोपाध्यायस्य स्वरूपं दत्तम्-'पात्रमेकं प्राप्तमस्ति यदि युष्माकं प्रतिभास्यति' । ततः शीघ्रं सुशकुनेन समागताः। दृष्टश्च यथोक्त एव । ततः शुभलग्ने एकादशशतकचत्वारिंशत्संवत्सरे (सं० ११४१) सोमचन्द्रनामा विनेयो विहितः-'सर्वदेवगणे ! त्वया प्रतिपाल्यः, सर्व बहिभूमिनयनादिकार्यमस्य कार्यम्' । एकादशशतद्वात्रिंशत्संवत्सरे (सं० ११३२) जन्माऽस्य । स्वयमेव मातृकादिपाठोऽपाठि । अशोकचन्द्राचार्येणोत्थापना कृता । प्रथमव्रतदिवसे बहिभूमौ नीतः सर्वदेवगणिना सोमचन्द्रमुनिः । शिशुत्वादज्ञानत्वादुद्गतचणकक्षेत्राण्यामूलात् त्रोटितानि । शिक्षानिमित्तं रजोहरणं मुखवस्त्रिका च गृहीता-'स्वगृहे गच्छ ! व्रते गृहीते न त्रोटयन्ते क्षेत्राणि'-'युक्तं गणिना कृतं, परं सा मम मस्तके चोटिकाऽऽसीत् तां तु दापय, येन गच्छामी'ति भणिते गणेराश्चर्यमभूत्-'अहो ! अस्योत्तरं नास्ति' । एषा वार्ता धर्मदेवोपाध्यायस्याग्रे जज्ञे । गुरुभिश्चिन्तितम्-भविष्यति योग्य एषः । २८. सर्वत्र पत्तने परिभ्राम्य परिभ्राम्य लक्षणपञ्जिकादिशास्त्राणि भणितुमारेभे सोमचन्द्रः । एकदा पञ्जिकाभणनार्थ भावडायरियसमीपे गच्छन्तं दृष्ट्वा केनाप्युद्धतेन भैणितम्-'अहो सितपट ! कपलिकाग्रहणं किमर्थम् ?'- 'त्व १ श्रीजिनवल्लभेनोक्तम् । २ लग्नः । ३-३ पादश्चलितः, पतितः, पतन् । ४ तथैवा० । ५ एवं श्राद्धानां । ६ नागपुरे गताः । ७ प्र० 'अनघिल्लपत्तनं प्राप्ताः'। ८ ममाग्रे उक्तमासीत् । जिनवल्लभोऽभयदेवपदे स्थाप्यः । ९ नास्ति प्र० । १० चिन्तितं कार्य । ११ तेऽप्यागताः' इत्येव । १२ शकितः । १३-१३ एतदकान्तर्गतपाठस्थाने प्र० 'जिनवल्लभोऽभयदेवपदे स्थापितः। युगप्रधानान् श्रीअभयदेवसूरिपादभक्तान् जिनवल्लभसूरीन् दृष्ट्वा सर्वे हृष्टाः । आचार्याः सर्वे स्वस्थान प्राप्ताः' । १४ नास्ति पदमिदं प्र०। १५ ततो। १६ सर्वदेवगणेः पालनाय दत्तः। १७ नास्ति वाक्यमेतत् प्र०। १८ गच्छेत्युक्ते शिष्येणोक्तम्' इत्येव प्र०। १९ गुरुगा । २० प्र० 'वीरायरिय.' । २१ उक्त। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ खरतरगच्छालंकार दीयमुखचूरणार्थमात्ममुखमण्डनार्थ च' । पश्चाद्गतः स न किमपि वक्तुं शक्तः । भणनस्थाने गतः। तत्रानेकेऽधिकारिपुत्रा भणन्ति पञ्जिकाम् । सा च धर्मशाला । तत्र सोमचन्द्रोऽपि भणति। अन्यदा कदाचित्तेनाचार्यण परीक्षार्थ पृष्टैः-'भो सोमचन्द्र ! नवकारो यथार्थ नाम ?' पश्चादभाणि सोमचन्द्रेण-'मैवमाचार्या भणन्तु, किं तर्हि ? नवकरणं नवकार एवं व्युत्पत्तिः कार्या' । आचार्येण ज्ञातं वक्तुं न शक्यतेऽनेन सह । सदुत्तर एषः।। ____ अन्यदा लोचदिने न गन्तुं शकितो व्याख्याने। व्याख्यानव्यवस्थेशी-योकोऽपि छात्रो नागच्छति तदा व्याख्यानं न भाणय त्याचार्यः । ते अधिकारिपुत्रा गर्विष्ठा भणन्ति-'तस्य स्थाने पाषाणो धृतः' भाणयन्त्वाचार्या व्याख्यानम् । तदनुरोधेन भाणितम् । द्वितीय दिने त्वागतः सोमचन्द्रो भणितवान्-'युक्तं कृतं यन्मम स्थाने पाषाणो धृतः। परं यावती पञ्जिका भाणिता तावती मां पृच्छन्तु, एतानपि; याथातथ्यां यो भणिष्यति, स न पापाणोऽन्यः पापाण एव' । 'भोः सोमचन्द्र ! खां कस्तूरिकां जानाम्येव परमेतेमूखैः प्रेरितो व्याख्याने, क्षन्तव्यं भवता ।' २९. हरिसिंहाचार्येण सर्वा सिद्धान्तवाचना दत्ता पण्डितसोमचन्द्राय । तथा मन्त्रपुस्तिका कपलिका च दत्ता यया सिद्धान्तवाचना गृहीता, भगवता तुष्टेन । तथा देवभद्राचार्येण कटाखरणं दत्तं येन महावीरचरितादि चखारि कथाशास्त्राणि पट्टिकायां लिखितानि तुष्टेन । पण्डितसोमचन्द्रगणिामानुग्रामं ज्ञानी ध्यानी मनोहारी सन् विहरति यतिक्रमेण श्रावकाणामतीवाह्लादकारी । ३०. ऐवं सोमचन्द्र पण्डिते विहारं कुर्वति सति श्रीदेवभद्रसूरिभिः श्रीजिनवल्लभसूरीणां देवलोकगमनमश्रावि । अती4 सन्ताप उत्पन्नः । अहो सुगुरूणां पदमुद्योतितमासीत् परं विघटितम् । पश्चाद् देवभद्राचार्याणामीदृश चित्तमुदपादियदि श्रीजिनवल्लभसूरेयुगप्रधानपदं योग्यस्थानेन नोद्धियते तदा का भक्तिः कृता भवति । पश्चाच्चिन्तयत्याचार्योऽस्मिन् गच्छे कस्तत्पदयोग्यः । चिन्तयतश्चित्ते पण्डितसोमचन्द्रो लग्नः-एष एव योग्यः, श्रावकाणामानन्दकारी ज्ञानध्यानक्रियापरवात् । पश्चात् सर्वसम्मतेन 'पण्डितसोमचन्द्रस्य लेखो दत्तः-खया चित्रकूटे समागन्तव्यम् , येन श्रीजिनवल्लभसूरीणां पदे निवेशयामि त्वाम् । तेषामपि सम्मतमेतत् 'श्रीजिनवल्लभसूरीणाम् । यतः पूर्वमेवाकारित आसीत् । अनेके तत्पदे स्थातुमभ्युद्यता आसन् । किं बहुना सोमचन्द्रपण्डितो देवभद्राचार्या अपि समाजग्मुः। सर्वोऽपि लोको वेत्ति सामान्येन श्रीजिनवल्लभसूरिपदे सूरिस्थापनं भविष्यतीति । 'श्रीचित्रकूटे श्रीजिनवल्लभमूरिप्रतिष्ठिते श्रीमहावीरचैत्ये श्रीसाधारणसाधुना श्राद्धेन पूजिते श्रीमहावीरसंघे-त्वामहं श्रीजिनवल्लभसूरिपदे स्थापयिष्यामि -अर्वागेव दिने पण्डितसोमचन्द्रं भणितवान् श्रीदेवभद्रसूरिरेकान्ते-'अस्मिन् दिने परिभावितमस्ति लग्नम्' । 'युक्तमेतत् , परं यद्यस्मिन् लग्ने स्थापयिष्यथ तदा न चिराय जीवितं भविष्यति । यदी तु षण्णां दिनानामुपरि शनैश्चरवारे यल्लग्नं भविष्यति तत्रोपविष्टानामस्माकं चतुर्दिक्षु विहरतां चतुर्विधश्रीश्रमणसंघः श्रीजिनवल्लभसूरिवचने प्रभूतो भविष्यति । श्रीदेवभद्रसूरिभिरमाणि-'तल्लग्नं न दूरे, तत्रैव भवतु' । ततस्तस्मिन्नेव दिने -११६९ वैशाख सुदि १-चित्रकूटे श्रीजिनवल्लभसूरिपदे विस्तरेण संस्थापिताः श्रीजिनदत्तसूरिनामानः । सन्ध्यासमयं यावल्लग्नवेला, ततो वादित्रैर्वाद्यमानैः समागता वसतौ । प्रतिक्रमणानन्तरं वन्दनकं दत्त्वा श्रीदेवभद्रसूरिमिभणितम्-'देशनां कुरुत'। तथा देशना सिद्धान्तोदाहरणैः सुधा १ नास्ति प्र०।२ शकितः। ३ पृष्टः सोमचन्द्रः। ४ इति । ५ नायाति । ६ भणत्या० । ७ व्याख्यानं । ८ द्वितीयेऽहि । ९-९ किं करोग्याचार्येणोक्तमेतैमूर्खः प्रेरितः । १० हरिचन्द्राचा०। ११-११ एतदकाङ्किता पंक्तिर्नास्ति प्र० । १२ ज्ञानी ध्यानी श्राद्धानामतीवाह्लादकारी विहरति । १३ एवं विहरति । १४ °सूरिणा। १५ °सूरेः । १६ 'अतीव' नास्ति । १७-१७ 'ततो गच्छे आचार्येणोपयोगो दत्तः। सोमचन्द्रो लमः, जनानन्दकारी' । १८ लेखः प्रेषितः सोमचन्द्राय । - एतदङ्किता पंक्तिर्नास्ति प्र०। १९-१९ श्रीजिनवल्लभसूरिप्रतिष्ठिते श्रीवरचैत्ये सूरिपदे स्थापयामि । २० यदि । २१ शनिवारे। २२-२२ 'चतुर्विधः संघः प्रभूतो' । २३ आचार्येणोक्तं तत्र भवतु । २४ दिने सूरिपदे। २५श्रीआचार्येणोक्तं । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार सदृशैः कृता यथा सर्वाऽभयाप्रजा रञ्जिता सती भणति-'धन्या देवभद्राचार्या यैरिदं सुपात्रं पात्राणां पदे निवेशितम्।' यच्छ्रीजिनवल्लभसूरिभिरुक्तमस्मत्पदे सोमचन्द्रगणिर्भवद्भिः स्थापनीय इति तत्सफलीकृतम् । विज्ञप्तं च देवभद्राचार्यैः'कतिचिद्दिनानि पत्तनादन्यत्र विहर्तव्यम्' । ‘एवं करिष्यामः'। ३१. अन्यदा जिनशेखरेण व्रतविषयेऽयुक्तं कृतं किश्चित् , ततो देवभद्राचार्येण निस्सारितः। ततो यत्र भूमौ बहिर्गम्यते तत्र गत्वा स्थितः। यदा श्रीजिनदत्तसूरयो बहिभूमौ गतास्तदा पादयोः पतितो भणितवान्-'मदीयोऽन्यायः क्षन्तव्यो वारमेकं न पुनः करिष्यामि । कृपोदधयः श्रीजिनदत्तसूरयः। प्रवेशितः। पश्चादाचार्यैभणितम्-'न सुखावहो भवतां भविष्यति' । सूरिभिराणि-'श्रीजिनवल्लभसूरिपृष्ठे लग्नो यावदनुवर्तयितुं शक्यते तावदनुवर्त्यते । पश्चादाचार्यादयः स्वस्थाने गताः। ३२. ततः श्रीजिनदत्तसूरीणां विहारक्रमः । क क्रियते ?-देवगुरुस्मरणार्थमुपवासत्रयमकारि। ततो देवलोकाच्छीहरिसिंहाचार्य आगतः। 'किमिति स्मरणा कृता ?' 'कुत्र विहरामीति ।' मरुस्थलीप्रभृतिषु देशेषु विहरेत्युपदेशो जातः । तत्रैव स्थितवतां मेहर-भोखर-वासल-भरतादयः श्रावकास्तत्र व्यवहारे समागताः । तत्र श्रीजिनदत्तमूरिगुरुं दृष्ट्वा वचनं च श्रुत्वाऽतीव मुमुदिरे। ते गुरुत्वेन प्रतिपन्नाः। भरतस्तत्रैव स्थितो वाचकत्वेन । अन्ये स्वस्थाने गत्वा कुटुम्बेषु गुरुवर्णनं कुर्वन्ति । तत्रापि किश्चित् प्रवेशो जातः । ततो नागपुरे विहताः । तत्र धनदेवः श्रावकः प्रतिपत्तिं करोति, भणति च-'यदि मदीयवंचनं करोषि तदा सर्वेषां पूज्यो भवसि ।' पश्चाद् भणितं श्रीजिनदत्तसूरिभिः-'भो धनदेव ! सिद्धान्ते श्राद्धेन गुरुवचन विधेयं न तु श्राद्धवचनं गुरुणेति भणितम् । न च वक्तव्यं परिवाराभावात् पूजा न भविष्यति । यत उक्तम् मैवं मंस्था बहुपरिकरो जनो जगति पूज्यतां याति। येन घनतनययुक्ताऽपि शूकरी गूथमश्नाति ॥ पश्चान्न भावितं धनदेवस्य । यद्यपि न भावितं तस्य तथापि गुरुणा युक्तमेव वक्तव्यं (उक्तमिति) केषांचिद्विवेकिनां भावितम् । ततोऽजयमेरौ विहृताः । तत्र ठ० आसधर सा० रासलप्रभृतिश्रावकाः सन्ति । बाहडदेवगृहे गच्छन्ति देववन्दनार्थ श्रीजिनदत्तसूरयः। अन्यदा तत्रान्य आचार्य आगतः । स च पर्यायेण लघुः, तत्र चैत्ये गच्छतां गुरूणां व्यवहारं न करोति । ततष्ठक्कुराऽऽसधरप्रभृतिश्रावकैभणितम्-'किमिति गच्छतां फलं यदि युक्तं न प्रवर्तते ?' ततो वन्दनादिव्यवहारो निवृत्तः। ततः श्रावकैर्विज्ञप्तोऽर्णोराजा-'देवास्माकं श्रीजिनदत्तसूरयः स्वगुरवः समागताः सन्ति । राज्ञाऽभाणि-'यद्यागतास्तदा भद्रम् । कार्य कथयत' । 'देव ! भूमिखण्डमवलोक्यते, यत्र देवगृह-धर्मस्थानानि श्रावकाणां स्वकुटुम्बसदनानि सम्पाद्यन्ते' । पश्चादभाणि-'दक्षिणदिग्भागे यः पर्वतस्तस्मिंस्तत्तले च यद्रोचते तत्कुरुत । आत्मीयगुरवश्च दर्शनीयाः'-इदं स्वरूपं सुगुरोरग्रे भणितवन्तः श्रावकाः । ततोगुरुणाऽभाणि-'आकारयितव्यो राजा य एवं स्वयमेव भणति, गुण एव तस्याऽऽगतस्य' । आकारितो भव्यदिने । आगंतस्तेन नमस्कारः कृतः सुगुरुषु तेषु । आशीर्वादः पठितो राज्ञः पुरः १ 'तथा सिद्धान्तोदाहरणैर्देशना कृता यथा सर्वे भव्या रञ्जिताः, भणन्ति च'। २ स्थापितं । ३ जिनवल्लभसूरिवचनं च सफलीकृतम् । ४-४ श्रीसूरिणा कृपया प्रवेशितः। ५ सूरिभिर्भणितमस्मत्पृष्ठे । ६ ततः आचार्याः । ७ जिनदत्तसूरिणा विहारकृते। ८ श्रुत्वा गुरुत्वेन प्र० । ९-९ नास्तीयं पंक्तिः प्र० । १० मम वचनं। ११ न चिन्तनीयं । १२ गताः। १३ 'देवगृहे देववन्दनार्थ गच्छन्ति गुरवः तत्राद्याचार्यः' । १४ राज्ञोक्तम् । १५ गुरुश्च दर्शनीयः । १६ सर्व स्वरूपं भणितं गुरोरग्रे। १७ आकारयत सो राजा यत एवं स्वयमेव भणति। १८ कृतो नमस्कारस्तैश्चाशीर्वादः पठितः । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। श्रिये कृतनतानन्दा विशेषवृषसंगताः। भवन्तु भवतां भूप! ब्रह्म-श्रीधर-शङ्कराः॥ [२०] तं श्रुत्वा तुष्टो राजा । भणति 'सदैवात्र तिष्ठन्तु गुरवः' । 'युक्तमुक्तम् , परं राजन्! अस्मदीया स्थितिरेषा यत् सर्वत्रैव विहारक्रमः क्रियते लोकोपकाराय । अत्रापि सदाऽऽगमिष्यामो यथा युष्माकं समाधानं भविष्यति तथा विधास्यामः।' ततः समाधानेनोत्थितो राजा । पश्चाट्ठक्कुर आसधरो भणितः [गुरुणा] इदमन्तरमुपकृतये प्रकृतिचला यावदस्ति सम्पदियम् । विपदि नियतोदयायां पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः॥ [२१] इत्यादि [ततः]स्तम्भनक-शत्रुञ्जय-उज्जयन्त-कल्पनैया पार्श्वनाथ-ऋषभनाथ-नेमिनाथबिम्बस्थानानि परिभावनीयानि । उपरि अम्बिका देउली, तैले च गणधरादिस्थानं चिन्तनीयम् । ३३. पैश्चाद् वागडे विहारक्रमः कर्तुमारब्धः। सुशकुनेन विहृतास्तत्र । पूर्वमेव तत्रत्यलोकाः श्रीजिनवल्लभसूरिविषये समाधानवन्तः सन्तस्तद्देवलोकगमनमाकर्ण्य तेषां पदे ये संस्थापिता ज्ञानध्यानगुणोपेताः श्रीमहावीरवदनारविन्दनिर्गतस्यार्थतः सूत्रतश्च सुधर्मस्वामिगणधररचितसिद्धान्तवेदिनः क्रियापराः श्रीजिनदत्तनामानः सुगुरवो युगप्रधानास्तीर्थकरकल्पास्तेज विहृताः श्रूयन्ते, तान् दृष्ट्वा सर्वेषां समाधानं समजनिँ । ततश्च ते श्रावका यद्यत् पृच्छन्ति तत्कथयन्तः केवलिन इव श्रीजिनदत्तसूरयस्तेषां समाधानमुत्पादयन्ति । ततश्च लोकाः केचन सम्यक्त्वं, केचन देशविरतिं, केचन सर्वविरतिं गृह्णन्ति तुष्टाः सन्तः। व्रतिनो बहवः कृताः। व्रतिन्यश्च तस्मिन् प्रस्तावे द्विपञ्चाशत् कृताः श्रूयन्ते । ___ ३४. तस्मिन्नेव प्रस्तावे जिनशेखरमुपाध्यायं कृत्वा कतिचित्साधुसहितो रुद्रपल्ल्यां विहारक्रमे मुत्कलितः । स च तपः करोति । स्वजनास्तत्र वसन्तीति तेषां समाधानहेतोः। तथेदं स्वरूपं श्रीजयदेवाचार्यः सपरिवारैः स्वस्थानस्थितैः श्रुतम्-श्रीजिनवल्लभमूरिपदे निवेशिताः श्रीजिनदत्तसूरयः सर्वगुणोपेता अत्र देशे विहृताः । भद्रं जातम् । पूर्वमेव तेषां श्रीजिनवल्लभगणेवसतिनिवासप्रतिपत्तिं श्रीमदभयदेवरिपार्श्व कृतां श्रुखा वसतिनिवासाभिप्राय उत्पन्न आसीदिदानी[मत्रागताः] दृश्यन्ते सुगुरवस्ततः सपरिवारा वन्दनार्थं समाजग्मुः। वन्दिताः सविनयं श्रीजिनदत्तसूरयः। तैश्च तथा सम्भाषिताः सिद्धान्तमधुरवचनैर्यथैवंपरिणामोऽभूद्-भवे भव एत एव गुरवोऽस्माकं भूयासुः । पश्चाद् भव्यदिन उपसम्पदं गृहीतवन्तः । पश्चान्न विलोकितं सनत्कुमारचक्रवर्तिमुनिवत् । श्रीजिनप्रभाचार्या अपि केवलीपरिज्ञानेन सर्वजनप्रसिद्धाः, ते च तुरुष्कभूम्यां गता आसन् । एकेन तुरुष्केण ज्ञानिनो ज्ञाखा पृष्टाः-'मदीयंहस्ते किमस्ति ?' तेनापि गणयित्वा कथितम्- 'बदामः, खटिकाखण्डं च वालश्च । स च वालं न जानाति । तेन दर्शितः करो। वालोऽपि खटिकायां लग्नोऽस्ति । ततस्तुष्टो हस्तं गृहीत्वा चुम्बितवान् , चङ्गा चङ्गेति कथितवान् । आचार्येण ज्ञातं दुष्टा एते भवन्ति कदाचिन्मारयिष्यन्तीति रात्रौ प्रपलाय्य स्वदेशे समागताः । तत्राऽऽगतो जयदेवाचार्य वसतिमार्गप्रतिपत्तारं श्रीजिनदत्तसूरिपार्श्वे श्रुत्वा तस्याप्यभिप्राय उत्पन्नः। परं गाढो मार्ग एतेषाम् । केवलीपरिज्ञानेन चिन्तयति । श्रीजिनदत्तसूरिरागच्छति युगप्रधानत्वेन । पुनश्चिन्तिते तदेवाऽऽगच्छति । तृतीयवेलाचिन्तनेऽग्निपुञ्जो ग[ग]नात्पतितः, वागुत्थिता-यदि धर्मे प्रयोजनं तव तदाऽमुं सुगुरुं प्रतिपद्य धर्म कुरु । ततोऽङ्गीकृतवान् समाधानं जज्ञे । तत्रैव स्थि १ भणितं च सदैवात्र स्थातव्यम् । २-२ कल्पनया स्थानानि कारितानि। ३-३ नास्ति प्र० । ४-४ एतदकान्तर्गतपाठस्थाने-'ततो वागडे विहृतास्ते । जिनवल्लभसूरिविषये समाधानवन्तो लोका ये ज्ञानध्यानगुणोपेतास्तेषां पदे ये स्थापितास्तेषामागमनमाकर्ण्य दृष्ट्वा च देशनां च श्रुत्वा सर्वेषां समाधानमजनि' इत्येव प्र०। ५-५ नास्तीयं पंक्तिः प्र० । ६ तेषां सम्बन्धिनां । ७-७ एतदङ्कितपाठस्थाने प्र० 'तथा जयदेवाचार्यैः सपरिवारैः जिनदत्तसूर्यागमनं श्रुत्वा वसतिनिवासाभिप्रायः कृतः' इत्येव पाठः । ८ भवन्तु । ९ नास्ति वाक्यमिदं प्र०।१० मम करे। ११ कार्य । १२ ततो गत्वोपसम्पद् गृहीता। यु० गु० ३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ खरतरगच्छालंकार तानां श्रीजिनदत्तसूरीणामतिशयज्ञानिनां पार्श्वे विमलचन्द्रगणिर्देव गृहनिवासी सोडप्याचार्ययोर्वसति निवासप्रतिपतिं श्रुत्वा वसतिमार्गमङ्गीकृतवान् । तस्मिन्नेव प्रस्तावे जिनरक्षित - शीलभद्रौ मात्रा सह प्रव्रजितौ । तथा थिरचन्द्र-वरदनामानौ भ्रातरौ प्रव्रजितौ । जयदत्तनामा मुनिर्मन्त्रवादी । तस्य पूर्वजा मत्रशक्तियुक्ता आसन् । ते सर्वेऽपि रुष्टया देवतया विनाशिताः । एष पुनर्नष्टः श्रीजिनदत्तसूरीणां शरणागतो व्रतं गृहीतवान् । श्रीपूज्यैस्ततो रक्षितो देवतात । गुणचन्द्रगणिः सोऽपि श्रीजिनदत्तसूरिभिर्दीक्षितः । पूर्वं स श्रावकः सन् तुरुष्कैनीत आसीत् । हस्तदर्शनेन चङ्गी भाण्डारिको भविष्यतीति । नाशनभयात् संकलानिबद्धः । तेन च नमस्कारलक्षं गुणितम् । तत्प्रभावात् संकला स्वयमेव त्रुटिता । ततो निर्गत्य रात्रिपश्चिमप्रहरार्धे कस्याश्चिद्वृद्धाया गृहेऽवातिष्ठत् । तया च कृपया कोष्ठिकामध्ये प्रक्षिप्तस्तुरुष्कैः प्रेक्षितो न लब्धः । रात्रौ निर्गत्य स्वदेशे गतः । तेन च संवेगेन व्रतं गृहीतम् । रोमचन्द्रगणिर्जीवानन्दपुत्रसहितोऽन्यगच्छाद्भव्यं धर्मं ज्ञात्वा श्रीजिनदत्तसूरेराज्ञां प्रतिपन्नः । तथा ब्रह्मचन्द्रगणिव्रतं गृहीतवान् । एतेषां मध्याजिनरक्षित- स्थिरचन्द्रप्रभृतिसाधवः, श्रीमति - जिनमति - पूर्ण श्रीप्रभृतित्रतिन्यश्च धारायां प्रेषिता वृत्तिपञ्जिकादिलक्षणभणनार्थम् | तैश्च भणितं श्रावक साहाय्येने । आत्मना श्रीजिनदत्तसूरयोरुद्रपल्ल्यां विहृताः । तत्र पथि गच्छतामेकस्मिन् ग्रामे श्रावक एकः प्रतिदिनं व्यन्तरेण प्रचण्डेन पीड्यते, तस्य पुण्येन श्रीजिनदत्तसूरिस्तत्रैवोत्तरितः । तेन विज्ञप्तं शरीरस्वरूपम् । परिभावितं सूरिभिर्मत्रतत्रैः साध्यः पीडाकर्तृव्यन्तरः । ततो गणधरसप्ततिकां कृत्वा, टिप्पणके लेखयित्वा, हस्ते टिप्पनकं दत्तम्, हृदयं दृष्टिश्चात्र निवेशनीया श्राद्धस्याग्रे कथितम् । तेन च तथा कृतम्। स च व्यन्तरो विस्तरेण पीडायै समागतः खवासीमाम्, न शरीरे संक्रान्तो गणधर सप्ततिकाप्रभावात् । द्वितीयदिने द्वारसीमां समाग/ तस्तृतीयदिने नाऽऽगतः, श्रावकः स्वस्थो जातः, किं बहुना । रुद्रपल्ल्यां प्राप्ताः । जिनशेखरोपाध्यायाः श्रावकैः सहिताः सम्मुखाः समाजग्मुर्विस्तरेण मध्ये प्रविष्टाः । विंशत्युत्तरं शतं कुटुम्बानां तत्र श्रीजिनवचने कारितम् । पार्श्वनाथऋषभचैत्यद्वयं प्रतिष्ठितम् । श्रावकैः सम्यक्त्वमङ्गीकृतं देशविरतिरङ्गीकृता । सर्वविरतिश्च देपालगणिप्रभृतिभिः श्रावकैः सद्भिः परिगृहीता । तेषां समाधानमुत्पाद्यात्र जयदेवाचार्य प्रेषयिष्याम इति भणिवा पुनः पश्चिमदेशे विहृताः । ३५. वागडदेशे समायाताः तत्रापि व्याघ्रपुरे । श्रीजयदेवाचार्याः शिक्षां दत्त्वा श्रीरुद्रपल्ल्यां मुत्कलिताः । तत्र स्थितैश्च च च री श्रीजिनवल्लभसूरिप्ररूपित श्री चैत्यगृहविधिस्वरूपा कृता । सा च टिप्पनके लेखयित्वा प्रेषिता..... वासलप्रभृतिश्रावकाणां ज्ञानार्थम् । विक्रमपुरे देवधरपितृसहियागृहसमीपे पौषधशालाऽस्ति । तत्र श्रीजिन श्रावकैरुपविश्योच्छोटितं चच्चरीटिप्पनकम् । 'चच्चरीटिप्पनकं कच्चरीटिप्पनकं' भणिला मदोन्मत्तेन देवधरेण हस्तादुद्दालय द्विधा कृतम् । तस्य किमपि कर्तुं न शक्नुवन्ति । पितुरग्रे वार्ता कथिता । तेनोक्तम्- गाढ एषः, तथापि वारयिष्यामः । पुनरपि पूज्येभ्यो लेखो दत्तस्तत्र चच्चरीटिप्पनकस्वरूपं लिखितम् । श्रीपूज्यैलेखखरूपं परिभाव्य द्वितीयटिप्पनकं प्रेषितम्, लेखश्च प्रेषितः । इदं च लिखितम् - देवधरस्योपरि विरूपकं न भणनीयम्, देवगुरुप्रसादाद्भन्यो भविष्यति । द्वितीयटिप्पनकं प्राप्तं तेषाम् । प्रतिपन्योच्छोटितं वाचितं समाधानं जज्ञे । देवधरेण चिन्तितम् - यद्यपि मया स्फाटितं टिप्पनकं तथापि पुनरपि प्रेषितम्, कारणेन भवितव्यम् । किं तत्राऽलेखि प्रच्छन्नं परिभावयाम्येकान्ते । यदा श्राद्धाष्टिप्नकं स्थापनाचार्या के मुक्त्वा द्वारं स्थगयित्वा गतास्तदोपरि पाटके स्वगृहात् प्रविश्य बहिर्द्वारे स्थगितेऽपि टिप्पनकं गृहीतम् । वाचयितुं प्रवृत्तः । यथा यथाऽर्थानवधारयति तथा तथा मनस आह्लाद उत्पद्यते । अनायतनं बिम्बम् स्त्री पूजा न , १ 'गुरूणां ' इत्येव प्र० । २ विमलचन्द्राचार्यैः चैत्यवासिभिर्वसतिवासोऽङ्गीकृतः । ३ - ३ एतदङ्काङ्किता पंक्तिर्नास्ति प्र० । ४-४ एतदङ्कितपाठस्थाने प्र० ' गुणचन्द्रः सोऽपि दीक्षितः । पूर्वं श्राद्धः सन् तुरुष्कैर्नीतो हस्तदर्शनात् भव्यो भांडारि भविष्यति । नाशनभयात्संकलया बद्धः । नमस्कारलक्षं गुणितं । संकला स्वयमेव त्रुटिता । रात्रौ निर्गत्य स्वदेशे गतौ गुरुं दृष्ट्वा संवेगेन व्रतं गृहीतम् । इत्येष पाठो लभ्यते । ५-५ नास्ति पंक्तिरियं प्र० । ६-६ ततो विहृताः । ७-७ एतदङ्काङ्कितं प्रकरणं नास्ति प्र० । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । १९ करोतीति सन्देहद्वयं प्रच्छनीयमन्यत्सर्व भव्यम् । पश्चाद् यत् कथयिष्यति तत् करिष्यामि। अग्रे श्रीपूज्यैर्वागडदेशे स्थितैर्ये धारायां प्रेषिता आसन् ते सर्वेऽप्यानायिताः, सिद्धान्तं श्राविताः । ततः स्वदीक्षितो जीवदेवाचार्यो मुनीन्द्रपदे निवेशितः । तथा दश वाचनाचार्याः कृताः । वा०जिनचक्रित (चन्द्र ?) गणिः, वा० शीलभद्रगणिः, वा० स्थिरचन्द्रगणिः, वा० ब्रह्मचन्द्रगणिः, वा० विमलचन्द्रगणिः, वा० वरदत्तगणिः, वा० भुवनचन्द्रगणिः, वा० वरणागगणिः, वा० रामचन्द्रगणिः, वा० माणिभद्रगणिरेते दश । श्रीमति-जिनमति-पूर्णश्री-जिनश्री-ज्ञानश्रियः पञ्च महत्तराः। हरिसिंहाचार्याणां शिष्यो मुनिचन्द्राभिध उपाध्याय आसीत् , तेन जिनदत्तसूरिः प्रार्थित आसीद्-यदि कश्चिन्मदीयः शिष्यो भवतां समीपे समागच्छति योग्यस्तदाऽऽचार्यपदं दातव्यमेवं प्रतिपन्नम् । तस्य शिष्या जयसिंहनामा चित्रकूटे मुनीन्द्रपदे निवेशितः । तस्यापि शिष्यो जयचन्द्रनामा पत्तने समवसरणे मुनीन्द्रपदे स्थापितः। भणितं द्वयोरप्यग्रे-रीत्या प्रवर्तितव्यम् । तथा जीवानन्द उपाध्यायपदे निवेशितः। यद्याचार्योपाध्यायवाचनाचार्यपदानां प्रत्येकं स्थानादिविशेषो भण्यते तदा विस्तरो भवति तेनैकत्रैव भणितम् । सर्वेषु पदस्थेषु शिक्षा दत्त्वा विहारादिस्थानानि भणित्वा स्वयमजयमेरौ विहृताः । विस्तरेण प्रवेशो जातः । ३६. ततः श्रावकैश्चैत्यगृहत्रयाम्बिकास्थानानि पर्वते प्रगुणीकारितानि । ततः श्रीजिनदत्तसूरिः शोभने लग्ने देवगृहेषु मूलनिवेशे वासान् प्रक्षिप्तवान् । ततः शिखरादिनिवेश कारितवन्तः श्रावकाः। ततो विक्रमपुरे सण्हियापुत्रदेवधरेण स्वकुटुम्बानां पञ्चदश श्रावकसमुदायं कृत्वा स्वपितृश्रेयोऽर्थम् , आसदेवादयः श्रावका भणिताः-मयात्र श्रीजिनदत्तसूरयो विहारक्रमं कारयितव्याः । तस्याग्रे कोऽपि किमपि भणितुं न शक्नोति। श्राद्धसमुदायेन निर्गतो नागपुरे प्राप्तः। ३७. तस्मिन् प्रस्तावे तत्र देवाचार्यो विशेषेण प्रसिद्धो वर्त्तते । देवधरोऽपि प्रसिद्धो विक्रमपुरादागतः श्रुतः । पश्चादेवगृहे व्याख्यानप्रस्तावे देवाचार्य उपविष्ट आस्त । देवधरोऽपि पादप्रक्षालनादिशौचं कृता देवगृहे गतः । आचार्यो वन्दितस्तेनापि क्षेमवार्ता पृष्टा । ततः प्रथमत एव देवधरेण पृष्टः-'भगवन् ! यत्र रात्रौ देवगृहे स्त्रीप्रवेशादि प्रवर्तते तत्कीदृशं चैत्यं भण्यते ?' इति प्रश्नकृते चिन्तितं देवाचार्येण-'कथञ्चिजिनदत्ताचार्यमत्रोऽस्य कर्णे प्रविष्टोऽतस्तद्वासित इव लक्ष्यते' इति विचिन्त्योक्तम्-'श्रावक ! रात्रौ स्त्रीप्रवेशादिकं संगतं न भवति । देवधरः-'तहिं किं न वार्यते ?' आचार्यः प्राह-'लक्षसंख्यलोकानां मध्ये को वार्यते ।' देवधरः-'भगवन् ! यत्र देवगृहे जिनाज्ञा न प्रवर्तते, किं तर्हि जिनाज्ञानिरपेक्षः स्वच्छया जनो वर्तते, तजिनगृहं जनगृहं वा प्रोच्यत इति प्रतिपादयध्वं यूयम्' । आचार्यः'यत्र साक्षाजिनोऽन्तर्निविष्टो दृश्यते तत्कथं जिनमन्दिरं नोच्यते ?' । देवधरः-'आचार्य ! वयं तावन्मूर्खाः, परमेतद् वयमपि जानीमो यदुत यत्र यस्याज्ञा न प्रवर्तते तगृहं तदीयं नोच्यते । एवं च पाषाणरूपार्हद्विम्बमात्रान्तनिवेशनेन भगवदाज्ञापरिहारेण स्वेच्छया व्यवहारे कथं नाम तजिनमन्दिरमुच्यते । परमेवं जानाना अपि यूयं प्रवाहमार्ग न निवारयध्वे प्रत्युत पोषयध्वे, तदेते वन्दिता अनुज्ञापिताश्च मया यूयम्-यत्र तीर्थकराज्ञा प्रवर्तते स मार्गों मयाऽभ्युपेतव्यः' इत्यभिधायोत्थितो देवधरः। सहानीतस्वकुटुम्बरूपश्रावकाणां जातं स्थिरीकरणं विधिमार्गविषये। प्राप्तः श्रावकसमुदायसहितोऽजयमेरौ । वन्दिता भावसारं श्रीजिनदत्तसूरयस्तदभिप्रायावगमपूर्वकं कृता पूज्यैर्देशना । जातोऽसौ निःसन्देहः । अभ्यर्थिताः प्रभवः श्रीविक्रमपुरविहारं प्रति । ततो विस्तरेण तत्र देवगृहबिम्बाम्बिकागणधरादिप्रतिष्ठां विधाय समागताः श्रीदेवधरेण सह विक्रमपुरे । प्रबोधितस्तत्रत्यो जनो बहुः । स्थापिता श्रीमहावीरप्रतिमा । ३८. तत्र उच्चायां गच्छतामन्तराये भूतादयस्तेऽपि प्रतिबोधिताः । किं पुनरुच्चकीयलोकः। ततो नवहरे विहृताः। ततस्त्रिभुवनगिरौ, प्रतियोधितस्तत्र कुमारपालो नाम राजा । कृतस्तत्र प्रचुरतरयतिजनविहारः। प्रतिष्ठितो भगवान् शान्तिनाथदेवः । तथोजयिन्या विहारेण प्रतिबोधितं पूज्यैयोंगिनीचक्रम् । तथैकदा श्रीचित्रकूटप्रवेशके दुष्टैरपशकुनाय सम्मु Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार खीकृतो रश्मिबद्धः कृष्णभुजङ्गमः। ततो मन्दीभूतानि गीतवादित्रादीनि । श्रावका अद्याऽहो न सुन्दरमिति जाताः सविषादाः । ततः प्रोक्तं ज्ञानदिवाकरैः श्रीजिनदत्तसूरिभिः-'भो किमेवं विमनस्का यूयम् १ यथेष कृष्णभुजङ्गो रश्म्या बद्धः, एवमन्येऽपि ये केचनास्मद्दष्टास्तषां बन्धनं पतिष्यतीति प्रेरयिताऽतीव सुन्दरं शकुनमेतत् । पुनरग्रतो गच्छता दुष्टैरेका कृत्तनासिका दुनिमित्तविधानाय प्रेषिता । सा चाग्रतः स्थिता दृष्टा पूज्यपादैर्जल्पिता च यथा 'आई ! भल्ली ?" ततस्तया दुष्टरण्डया दत्तं प्रतिवचो यथा 'भल्लइ धाणुक्कइ मुक्की' । पुनरुक्ता किश्चिद्विहस्य सप्रतिभैः श्रीपूज्यैर्यथा'पक्खहरा तेण तुह छिन्ना । ततः सा गयविलक्खा उत्तर निक्खुट्टी (?) । इत्यनेकाश्चर्यनिधानानां निरन्तरं किङ्करैरिव सुरैः सर्वदोपास्यमानपादानां करुणासमुद्राणां धारापुरी-गणपद्रादिस्थानेषु प्रतिष्ठितवीरपार्श्वशान्त्यजितादितीर्थकृद्धिम्बदेवगृह-शिखराणां स्वज्ञानबलदृष्टानजपट्टोद्धारकारिरासलाङ्गरहाणा भास्करवद्विबोधितभुवनमण्डलभव्याम्भोरुहाणां श्रीजिनदत्तसूरीणां चरित्रलेशः प्रतिपादितः। ततो महता विस्तरेण श्रीचित्रकूटे प्रविष्टाः । ततः श्रीजिनबिम्बप्रति महामहोत्सवाः कृताः । ततः सं० १२०३ अजयमेरौ फाल्गुन सुदी ९ जिनचन्द्रसूरिदीक्षा । सं० १२०५ वैशाखशुक्लषष्ठयां विक्रमपुरे, इतरजनदुःसाध्यध्यानतपोबलावलोकितानवद्यविद्यामत्रतत्रयत्रप्रभावैश्चिन्तामणिगणायमानाः-चिन्तामणिगणा इवाचरन्ति चिन्तामणिगणायन्ते, चिन्तामणिगणायमाना उपदेश्या येषां ते तथा तैर्देशैः-श्रीजिनदत्तसूरिभिः स्वकीयपदे सा० रासलकुलव्योममण्डलायमाननववर्षवयोमानविबुधजनमनोहारिसौभाग्यभाग्यारोग्यादिगुणगणनिधानश्रीजिनचन्द्रसूरय उपवेशिताः। सं० १२११ आषाढ वदि ११ जिनदत्तसूरयो दिवं गताः । ३९. सं० १२१४ श्रीजिनचन्द्रसूरिभित्रिभुवनगिरौ श्रीशान्तिनाथशिखरे सजनमनोमन्दिरे प्रमोदारोपणमिव सौवर्णदण्डकलशध्वजारोपणं महता विस्तरेण कृत्वा, हेमदेवीगणिन्याः प्रवर्तिनीपदं दत्त्वा, मथुराया यात्रां कृत्वा, सं० १२१७ फाल्गुनशुक्लदशम्यां पूर्णदेवगणि-जिनरथ-वीरभद्र-वीरजय-जगहित-जयशील-जिनभद्रैः सार्ध श्रीजिनपतिसरयो दीक्षिताः । सा० क्षेमन्धरः प्रतिबोधितः । वैशाखशुक्लदशम्यां मरुकोट्टे चन्द्रप्रभस्वामिविधिचैत्ये साधुगोल्लककारितसौवर्णदण्डकलशध्वजारोपणं कृतम् । तत्र च सा० क्षेमन्धरेण पारुत्थद्रम्मशतपश्चकेन माला गृहीता। सं० १२१८ उच्चायां ऋषभदत्त-विनयचन्द्र-विनयशील-गुणवर्धन-वर्धमानचन्द्रसाधुपञ्चकं जगश्री-सरस्वती-गुणश्रीसाध्वीत्रयं च दीक्षितम् । अनेन क्रमेण साधवो [बहव]श्च कृताः। सं० १२२१ सागरपाटे सा० गयधरकारिता श्रीपार्श्वनाथविधिचैत्ये देवकुलिका प्रतिष्ठिता । अजयमेरौ श्रीजिनदत्तमूरिस्तूपः प्रतिष्ठितः । बब्बेरके च वा० गुणभद्रगणि-अभयचन्द्र-यशश्चन्द्र-यशोभद्र-देवभद्रा दीक्षिताः । देवभद्रभार्याऽपि दीक्षिता । आशिकायां नागदत्तस्य वाचनाचार्यपदं दत्तम् । महावने श्रीअजितस्वामिविधिचैत्ये प्रतिष्ठा देवनागकारिता । इन्द्रपुरे शान्तिनाथविधिचैत्ये सौवर्णदण्डकलशप्रतिष्ठा वा० गुणभद्रगणिपितामहलालेश्रावककारिता । तग(?)लाग्रामेऽजितस्वामिविधिचैत्यं प्रतिष्ठा च । कृताश्च सर्वा अपि श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः। सं० १२२२ वादलीनगरे श्रीपार्श्वनाथभवने वा० गुणभद्रगणिपितामहलालेश्रावककारितसौवर्णदण्ड-कलशौ प्रतिष्ठाप्याम्बिकाशिखरयोग्यं सौवर्णकलशं च प्रतिष्ठाप्य, रुद्रपल्ल्यां विहृताः। ततोऽपि परतो नरपालपुरे कश्चिज्ज्योतिःशास्त्रसम्यक्परिज्ञानाभिमानादागतं ज्योतिषिकं वृषलग्नसत्कैकोनविंशात्रिंशांशे मृगशीर्षमुहूर्ते षट्सप्तत्यधिकवर्षशताचलस्थित्यवधिप्रदानप्रतिज्ञया श्रीपार्श्वनाथदेवगृहपुरतो रङ्गायामेकां शिलां स्थापयिखा जितवन्तः । तच्छिलोपरितना भित्तिरद्यापि तथैव वर्तते।। ४०. पुनरपि रुद्रपल्ल्यां विहृताः। तत्र चान्यदा कदाचिन्मुनिमण्डलीमण्डितपार्श्वदेशाल्लघुवयसो बहिर्भूम्यां गच्छतः श्रीजिनचन्द्रसूरीन् दृष्ट्वा श्रीपद्मचन्द्राचार्यों मत्सरवशात् पृच्छति स्म-'आचार्यमिश्राः ! यूयं भद्राः स्थ ? श्रीमत्पूज्यैरुक्तम्-'देवगुरुप्रसादात्' । पुनरपि स प्राह 'साम्प्रतं किं किं शास्त्रं वाच्यमानमस्ति ?' पार्श्वस्थेन मुनिना भणितम्'साम्प्रतं श्रीमत्पूज्या न्यायकन्दलीं चिन्तयन्ति' । स प्राह-'आचार्यमिश्राः ! तमोवादश्चिन्तितः ?" श्रीपूज्यैरुक्तम् Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगपवानाचार्यगुर्वावली । २१ 'चिन्तितः । स प्राह 'हृदये जमा श्रीमत्पूज्यैरुक्तम्- 'अवगतः ' । स प्राह 'तत्किं तमो रूपविशेषमेव ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'ननु भवतु रूपेण यादृशं तादृशं तमः परं वादव्यवस्थया राजसभायां प्रधानसभ्यसमक्षं वादिना कदापि कीदृशं स्थापयखे, नतु स्थापनामात्रेण वस्तु स्वस्वरूपं त्यजति' । पुनरपि स प्राह-'मा त्याक्षीत् स्थापनामात्रेण वस्तु स्वस्वरूपम्, परं परमेश्वरैस्तीर्थकरैस्तमो द्रव्यमेवोक्तम्' । श्री पूज्यैरुक्तम्- ' को नाम न मन्यते द्रव्यत्वं तमसः । परमाचार्यदर्पिष्ठ प्रतिवादी यथा तथा जितो विभीय ( ९ ) ।' तदनन्तरं कोपावेगाद्रक्तीभवन्नेत्रः कम्पमानगात्रः सन् स इदमाह - 'प्रमाणरीत्या द्रव्यमेव तम इति स्थापयति सति मयि, तव योग्यताऽस्ति सम्मुखी भवितुम् ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'कस्याऽपि योग्यताऽस्ति, कस्याऽपि नास्तीति ज्ञास्यते राजसभायाम् । पशुप्रायाणामेवारण्यं रणभूमिः । तथाऽऽचार्य ! माऽस्मान् लघुवयसो दृष्ट्वा स्वशक्तिं स्फोरय; लघुरपि सिंहः पर्वतसमानोपममतङ्गजानुत्रासयति' । एवं च विवदतां तेषां कौतुकदर्शनार्थं मिलितः सर्वोऽपि नागरिको लोकः । उभयभक्त श्रावकाश्च निजनिजाचार्यपक्षपातेन परामहङ्कारकोटिमारूढाः । किम्बहुना राजलोकसमक्षं व्यवस्थापत्रे लिखिते सति सावष्टम्भेषु च श्रीजिनचन्द्रसूरिषु सत्सु, वादवार्तयाऽपि भ श्रीपद्मचन्द्राचार्य दृष्ट्वा सर्वलोकसमक्षं राजलोकैर्दत्तं जयपत्रं श्रीजिनचन्द्रसूरीणाम् । जयकारश्चक्रे । लोके महती प्रभावना संजाता जिनशासने । महानन्दभरनिर्भरैश्च श्रावकैर्बृहद्वर्धापनकं कारितम् । तदनन्तरं श्रीपूज्य - भक्तश्रावका 'जयतिहट्ट' इति नाम्ना प्रसिद्धिं गताः । पद्मचन्द्राचार्यभक्ताश्च श्रावकाः सर्वैरपि लोकैस्तर्यमाना हस्य - मानाः 'तर्कहट्ट' इति नाम्ना प्रसिद्धिं गताः । अनया रीत्या कानिचिद्दिनानि स्थित्वा, सिद्धान्तोक्तविधिना सुसार्थेन सह ततः प्रचलिताः । ४१. मार्गे च चौरसिंदानकग्रामसमीप उत्तरितः संघातः । तत्र च म्लेच्छभयादाकुलीभूतं संघातलोकं दृष्ट्वा श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'किमिति भो ! यूयमाकुलीभूताः ?' तैरुक्तम्- 'प्रभो ! म्लेच्छकटकमागच्छदस्ति, पश्यता - sस्यां दिशि गगनतलावलम्बिनीं धूलिम् शृणुत निखानशब्दम्' । श्रीपूज्यैरवधानं दत्त्वा भणितम् -'अहो सार्थिकलोका ! विश्वस्तभवत, सर्वमपि वस्तु वृषभादिचतुष्पदादिकमेकत्र कुरुत, प्रभुश्रीजिनदत्तसूरिभेलिष्यति' । तदनन्तरं श्रीपूज्यैर्मत्र ध्यान पुरस्सरं निजदण्डकेन संघातकस्य चतुर्दिक्षु कोष्ठाकारा रेखा कृता । सार्थलोकश्च सर्वोऽपि गोणी - पविष्टः । संघातनिकटदेशे वहमानान् तुरगाधिरूढान् सहस्रसंख्यान् म्लेच्छान् पश्यति, म्लेच्छाश्च संघातं न पश्यन्ति, केवलं कोट्टं पश्यन्तो दूरं गताः । निर्भये सति ततः स्थानात् प्रचलितान् पृष्ठग्रामे संघातेन सहाऽऽगतान् श्रीपूज्यान् श्रुखा दिल्लीवास्तव्य ठ० लोहट-सा० पाल्हण - सा० कुलचन्द्र - सा० गृहिचन्द्रादिसंघ मुख्य श्रावका महता विस्तरेण वन्दनार्थ सम्मुखं प्रचलिताः । तांश्च प्रधानवेषान् प्रधानपरिवारान् प्रधानवाहनाधिरूढान् ढिल्लीनगराद्बहिर्गच्छन्तो दृष्ट्वा स्वप्रसादोपरि वर्तमानः श्रीमदनपालराजा विस्मितः सन् स्वकीयराजप्रधानलोकं पप्रच्छ - 'किमित्येष नगरवास्तव्यलोकः सर्वोऽपि बहिर्गच्छति ?' राजप्रधानैरुक्तम्- 'देव ! अतीवरमणीयरूपोऽनेकशक्तियुक्तो गुरुरेषां समागतोऽस्ति । तस्य सम्मुखं भक्तिवशाद्यान्त्यते ।' तदनन्तरं कुतूहलिनैतेन राज्ञोक्तम्- 'महासाधनिक ! प्रगुणय पट्टतुरङ्गमं, वादय च काहलिकहस्तेन काहलां यथा सर्वोऽपि राजलोकः प्रभूय प्रभूय शीघ्रमत्राऽऽगच्छति' । आदेशानन्तरं सहस्रसंख्य घोटका धिरूढसुभटैरलंक्रियमाणः श्रीमदनपालराजा श्रावकलोकात् प्रथममेव श्रीपूज्यानां पार्श्वे गतः । तत्र च सार्थमध्यस्थितलोकैः प्रभूतढौकनिकदानपुरस्सरं राजा ज्योत्कृतः; श्रीपूज्यैश्च कर्णसुखकारिण्या वाण्या धर्मदेशना कृता । राज्ञा चोक्तम्- 'आचार्याः ! कुतः स्थानाद्यूयमत्राऽऽगताः ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'रुद्रपल्लीत : ' । राज्ञोक्तम्'आचार्याः ! उत्तिष्ठत यूयम्, पवित्रीकुरुत मदीयं नगरम् ' । श्रीपूज्यैः प्रभुश्रीजिनदत्तसूरिदत्तोपदेशस्मरणान किमपि भणितम् । पुनरपि राज्ञोक्तम्- 'आचार्याः ! किं न ब्रूत यूयम्, किं मदीये नगरे युष्माकं प्रतिपन्थी कश्चिद्वर्तते ?, आहो १ 'सत्कृतः ' प्र० । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ खरतरगच्छालंकार श्वित् परिवारोपयोग्यन्नपानादि न लभ्यतेऽथवाऽन्यत्किमपि कारणं वर्तते यद्यूयं मार्गमुख आगतमपि मदीयं नगरं परिहत्याऽन्यत्र बजथ ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्-'महाराज ! युष्मदीयं नगरं प्रधानं धर्मक्षेत्रम्' । 'तद्युत्तिष्ठत चलत ढिल्ली प्रति, न कोऽपि युष्मानङ्गुलिकयाऽपि संज्ञास्यतीत्यादि । 'श्रीमदनपालमहाराजोपरोधाद् युष्माभिर्योगिनीपुरमध्ये कदापि न विहर्तव्यमित्यादिश्रीजिनदत्तसूरिदत्तोपदेशत्यागेन हृदये दूयमाना अपि श्रीपूज्याः श्रीदिल्ली प्रति प्रस्थिताः। बाद्यमानासु चतुर्विंशतिषु निस्वानयुगलीषु, बिरदावली पठत्सु भट्टलोकेषु, धवलेषु दीयमानेषु, वसन्तादिमाङ्गलिक्यरागेण गायत्सु गायनेषु, नृत्यमानासु नर्तकीषु, ऊर्वीकृतेष्वालम्बसहस्रेषु, मस्तकोपरि ध्रियमाणछत्रैर्लक्षसंख्यलोकैरनुगम्यमानैः श्रीमदनपालमहाराजदत्तहस्तैः श्रीजिनचन्द्रमूरिभी राजादेशात्कृततलिकातोरणादिमहाशोभे श्रीयोगिनीपुरे प्रवेशः कृतः। ४२. तत्र चान्यदा कदाचिदत्यन्तभक्तं कुलचन्द्रश्रावकं दुर्बलं दृष्ट्वा करुणार्द्रहृदयैः श्रीपूज्यदैत्तो द्रवरूपीकृतकुडमकस्तूरिकागोरोचनादिसुरभिद्रव्यलिखितानेकमत्राक्षरो यत्रपटः, भणितं च तस्याग्रतः-'महानुभावकुलचन्द्र ! निजमुष्टिप्रमाणैर्वासैरेष पटो दिने दिने पूजनीयः, निर्माल्यीभूताश्चैते वासाः पारदादिसंयोगात् सुवर्णा भविष्यन्ति' । स च गुरूपदिष्टरीत्या पटं पूजयन् कोटीध्वजः सञ्जातः । ४३. अन्यदोत्तरप्रतोल्यां बहिर्भूमौ गच्छद्भिः श्रीपूज्यैर्महानवमीदिने मांसनिमित्तं मिथ्यादृष्टिदेवताद्वयं महासंरम्भेण युध्यमानं दृष्ट्वा करुणयाऽधिगालिनाम्नी देवता प्रतिबोधिता । तया चोपशान्तचित्तया श्रीपूज्या विज्ञप्ताः-'भगवन्तो! मया परित्यक्तो मांसबलिः, परं मम किञ्चिद्वासस्थानकं दर्शयत यथाऽहं तत्र स्थिता युष्मदादेशं प्रतिपालयामि । श्रीपूज्यैस्तदग्रतो [भणितम्-] 'महानुभावे ! श्रीपार्श्वनाथविधिचैत्ये प्रविशतां दक्षिणस्तम्भे त्वयाऽवस्थातव्यम्' इत्युक्ता पौषधशालायां चाऽऽगत्य सा० लोहड सा० कुलचन्द्र सा० पाल्हणादिप्रधानश्रावकाणामग्रे कथितम् यथा-'श्रीपार्श्वनाथप्रासादे प्रविशतां दक्षिणस्तम्भेऽधिष्ठायकमूर्तिमुत्कारयतेति' । आदेशानन्तरं श्राद्धस्तथैव सर्व कारितम् । महाविस्तरेण श्रीपूज्यस्तत्र प्रतिष्ठा कृता । 'अतिबल' इति नामाऽधिष्ठायकस्य कृतम् । श्रावकैश्च तस्य महान् भोगः कर्तु प्रारेभे । अतिबलोऽपि श्रावकाणां वाञ्छितं पूरयितुं प्रवृत्तः । सं० १२२३ समस्तलोककृतक्षामणापूर्वकमनशनविधिना द्वितीयभाद्रपद वदी १४ देवीभूताः श्रीजिनचन्द्रसूरयः। ४४. तदनन्तरं श्रावकैर्महाविस्तरेणानेकमण्डपिकामण्डिते विमान आरोप्य 'यत्र क्वाप्यस्माकं संस्कार करिष्यत यूयं तावती भूमिकां यावन्नगरवसतिर्भविष्यती' त्यादिगुरुवाक्यस्मृतेरतीव दूरभूमौ नीताः। तत्र च भूमौ धृतं श्रीपूज्यविमानं दृष्ट्वा जगद्वयानन्ददायकश्रीपूज्यगुणस्मरणात् समुच्छलत्परमगुरुस्नेहाच्च चातुर्वर्ण्यमिदं मुदा प्रयतते त्वद्रूपमालोकितुं, मादृक्षाश्च महर्षयस्तव वचः कर्तुं सदैवोद्यताः । शक्रोऽपि स्वयमेव देवसहितो युष्मत्प्रभामीहते, तत्कि श्रीजिनचन्द्रसूरिसुगुरो ! स्वर्ग प्रति प्रस्थितः ॥ [२२] साहित्यं च निरर्थकं समभवन्निर्लक्षणं लक्षणं, मन्त्रैर्मन्त्रपरैरभूयत तथा कैवल्यमेवाश्रितम् । कैवल्याज्जिनचन्द्रसूरिवर ! ते स्वर्गाधिरोहे हहा!, सिद्धान्तस्तु करिष्यते किमपि यत्तन्नैव जानीमहे ॥ ___ [२३] १-१ एतदन्तर्गतं प्रकरणं नास्ति प्र० । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । प्रामाणिक राधुनिकैर्विधेयः, प्रमाणमार्गः स्फुटमप्रमाणः । हहा ! महाकष्टमुपस्थितं ते, स्वर्गाधिरोहे जिनचन्द्रसूरे ! ॥ [२४] इत्यादि भणिखा बृहदसमाधानवशादुच्चैः खरेणाऽश्रुपातं कर्तुं प्रवृत्तः प्रवर्तकसाधुगुणचन्द्रगणिः । तदनन्तरमितरेऽपि साध॑वो निजगुरुस्नेहविह्वलाः परस्परपराङ्मुखीभूयाश्रुपातं कर्तुं लग्नाः, श्रावका अपि प्रच्छादिकाञ्चलं नेत्रयोरग्रे दत्त्वा तथैव भावं कर्तुं प्रवृत्ताः । क्षणान्तरे तादृशमसमञ्जसं दृष्ट्वा स्वयं धैर्यमवलम्ब्य च - 'भो ! भो ! महासत्त्वाः साधवो ! माsसमाधानं कुरुत, श्रीपूज्यैर्मम सर्वाऽपि शिक्षा दत्ताऽस्ति, यथा युष्मन्मनोरथाः सेत्स्यन्ति तथा विधास्येsat मम पृष्ठलग्ना यूयमागच्छत' इत्याश्वास्य सर्वसाधुसमेतः कृतकर्तव्य क्रियाकलापः समाजगाम पौषधशालायां सर्वजनमान्यो भाण्डागारिकगुणचन्द्रगणिः । कतिचिद्दिनानन्तरं चतुर्विधसंघसमेतः श्रीबब्बेरके विहृतः । ४५. तत्र च सं० १२१० विक्रमपुरे जिनपतिसुरेर्जन्म, सं० १२१७ फाल्गुन शुक्लदशम्यां व्रतम्, सं० १२२३ कार्तिकसुदि १३ अनेकदेशसमागतानेकसंघसम्मत्या प्रधानशकुनप्रेरणया श्रीजिनदत्तसूरिपादोपजीविश्रीजयदेवाचार्यहस्तेन श्रीजिनचन्द्रसूरिषट्टे चतुर्दशवर्षप्रमाणः षट्त्रिंशदाचार्यगुणालङ्कृतो महाप्राज्ञो नरपतिनामा क्षुल्लको महता महोत्सवेनोपवेशितः श्रीजिनपतिसूरिरिति नाम कृतम् । तस्य च द्वितीयस्थानीयः श्रीजिनचन्द्रसूरिवाचको मुनिः श्रीजिनभक्वाचार्यनामाऽऽचार्यः कृतः । तत्र च तत्रत्यसमुदायसहितेन सा० मानदेवेन देशान्तरीय समुदायसत्कारपूर्वकं सहस्रसंख्यद्रव्यव्ययेन महामहोत्सवः कारितः । तत्रैव स्थाने श्रीजिनपतिसूरिभिः पद्मचन्द्र - पूर्णचन्द्रयोर्व्रतं दत्तम् । सं०१२२४ विक्रमपुरे गुणधर - गुणशीलयोः पूर्णरथ- पूर्णसागरयोर्वीरचन्द्र-वीरदेवयोः क्रमेण दीक्षानन्दित्रयं कृतम् | जिनप्रियस्य चोपाध्यायपदं दत्तं श्रीजिनपतिसूरिभिः । सं० १२२५ श्रीपूज्यैः पुष्करिणां सभार्यस्य जिनसागरस्य जिनाकरजिनबन्धु-जिनपाल-जिनधर्म - जिनशिष्य - जिनमित्राणां व्रतं दत्तम् । पुनर्विक्रमपुरे जिनदेवगणिदीक्षा । सं० १२२७ श्रीपूज्यैरुच्चायां धर्मसागर - धर्मचन्द्र - धर्मपाल - धनशील - धर्मशील - धर्ममित्राणां धर्मशीलमातुश्च व्रतम्, जिनहितस्य वाचनाचार्यपदं दत्तम् | तथा मरुकोट्टे शीलसागर - विनयसागरयोः, शीलसागरभगिन्यजित श्रीगणिन्या व्रतं दत्तम् । सं० १२२८ सागरपाटे दु० सा ( दुसाझ ?) साढलसेनापत्याम्बडकारिता अजितस्वामि- शान्तिनाथचैत्ययोः प्रतिष्ठा कृता च श्रीपूज्यैः । तत्रैव वर्षे बब्बेरके विहारः । आसिकायां चाऽऽसिकासमीपवर्तिग्रामागतान् श्रीपूज्यान् श्रुला प्रमोदातिशयादासिकावास्तव्यसमुदायेनाऽऽत्मना सार्धं श्री भीमसिंहनामा राजाऽपि सम्मुखमानीतः । तत्र च सर्वातिशायिरूपान् लघुवयसः श्रीपूज्यान् दृष्ट्वा हर्षप्रकर्षाच्छ्री भीम सिंहभूपतिः कुशलवार्ताप्रश्नव्याजेन जिह्वापाटवदर्शनकुतूहलादालापयामास । श्रीपूज्यैश्च राजनीत्युपदर्शितद्वारेण विस्तरेण धर्मदेशना कृता । लब्धावसरेण राज्ञा केलिवशादुक्तम्- 'आचार्य ! अस्माकं नगरे महाविद्वान् दिगम्बरो वर्तते तेन सार्धं वादं ग्रहीष्यसि ?' पार्श्वोपविष्टेन श्रीजिनप्रियोपाध्यायेनोक्तम्'महाराज ! अस्माकं दर्शन उपेत्य केनापि सह वादो न क्रियते, परं यदि कदापि कोऽपि पण्डितमानी स्वशक्तिं स्फोरयन् जैनदर्शनं वाऽवहेलयन्नमानुद्वेजयति तदा पश्चाद् न भ्रूयते, किं बहुना यथातथा तस्मिन्निर्लोठित एवाऽस्माकं शरीरे सुखं भवति ।' श्रीपूज्यानुद्दिश्य राज्ञोक्तम्- 'आचार्य ! एवम् ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'महाराज ! एवमेव' । पुनरप्युपाध्यायेनोक्तम्– 'महाराज ! ज्ञानबाहुल्येनास्मद्गुरव एव समर्थाः परं दर्शनमर्यादया ज्ञानाभिमानं न कुर्वन्तोऽपि दर्शविप्लवकारिणं प्रतिवादिनं स्वशक्त्या सकललोकसमक्षं मानपर्वतादुत्तार्य मुञ्चन्ति' । राज्ञोक्तम्- 'आचार्य ! किमयमाचष्टे युष्माकं पण्डितः ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'महाराज ! . ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः ? | अमृतं यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ? ॥१॥ १ प्र० 'साधवः साध्व्यश्च' । + अत्र ५ पत्रात्मकं प्रत्यन्तरं समाप्तं भवति । २३ [२५] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार इत्यादिदेशनया गाढतरमावर्जितो राजोक्तवान्- 'आचार्य ! किमिति विलम्बः क्रियते ; नगरप्रवेशेऽपि बृहती वेला लगिष्यतीति' । तदनन्तरं चतुर्विधसंघेन पृथ्वीपति श्री भीमसिंहेन च साधे पूर्वोक्तढिल्लीप्रवेशकरीत्या श्रीआसिकायां श्रीपूज्याः प्रविष्टाः । २४ ४६. तत्र चान्यदा वहिर्भूमौ गच्छतां साधुवृन्दालङ्कृतपञ्चाद्भागानां श्रीपूज्यानां प्रतोलीप्रदेशे मिलितः सम्मुखमागच्छन् महाप्रामाणिको दिगम्बरः । सुखवार्ताप्रश्नव्याजेनाऽऽलाप्य श्रीपूज्यैः सज्जनस्वरूपप्रतिपादकवृत्तेषु व्याख्यायमानेषु मिलितः कुतूहलात् सर्वोऽपि नागरिकलोको राजलोकश्च । तत्र च श्रीपूज्यानां स्फुर्जितं दृष्ट्वा लोकः सर्वोऽपि लघुनापि श्वेताम्बराचार्येण जितो दिगम्बरः पण्डितराज इति परस्परं वार्तयामास । राजप्रधानदिदा - कक्करिउ - कालाश्च राजसभायां गत्वा राजश्री भीमसिंहस्याग्रे कथयामासुः - 'देव ! यस्याऽऽचार्यस्य सम्मुखं तस्मिन् दिने यूयं गता आसन् तेनाऽऽचा लघुनाsप्यत्रत्योदिगम्बरो जित इति ।' राजा हर्षवशाद् विकसितवदनः प्राह- 'सत्यम् ?' ते प्राहु: - 'देव ! सत्यं, नास्त्यत्र हास्यम्' । राजोवाच- 'भोः कथं कथम् ?' 'च हर्षावेगात् परवशा इवोचुः - 'देव ! प्रतोलीप्रदेशे सर्वलोकसमक्षं तैरित्थमित्थं दिगम्बरो जितः ।' राजा प्राह- 'अहो ! पौरुषमेव प्राणिनां सर्वसम्पदो हेतुर्न लघुत्वं महत्त्वं वा । मया तस्मिन्नेव दिने तदाकृतिं दृष्ट्वा सम्भावितं यदस्याग्रतो दिगम्बरो वाऽन्यो वा विद्वान् स्थातुं न शक्यते ' - इत्यादिकां बह्रीं प्रशंसां कृतवानिति । फाल्गुनशुक्ल तृतीयायां देवगृहे श्रीपार्श्वनाथप्रतिमां स्थापयित्वा श्रीसागरपाटे देवकुलिका प्रतिष्ठिता श्री पूज्यैः । 1 ४७. सं० १२२९ धान पाल्यां श्रीसंभवस्थापना शिखरप्रतिष्ठा च कृता । सागरपाटे च पं० माणिभद्रपदे विनयभद्रस्य वाचनाचार्यपदं दत्तम् । सं० १२३० विक्रमपुरे थिरदेव - यशोधर - श्री चन्द्राणाम्, अभयमति - जयमत्यासमति - श्रीदेवीसा - वीनां च दीक्षा दत्ता । सं० १२३२ फाल्गुनसुदि १० विक्रमपुरे भाण्डागारिकगुणचन्द्रगणिस्तूपः प्रतिष्ठितः । तत्रैव वर्षे निजप्रभुप्रसादननिमित्तसमागतमण्डलीक भूपमण्डलीमण्डितमण्डलाकारस्कन्धावारवारोपशोभितकोदृबहिः प्रदेशस्वकीयप्रासादमध्यवर्तमानचक्रवर्त्तिराजधानीसमानलक्ष्मीकतत्कालनिष्पन्न श्रीपार्श्वनाथमन्दिरशिख रहिरण्यमयकलशदण्डप्रभृतिप्रभूतधर्मस्थानार्थप्रारब्धप्रतिष्ठामहोत्सवदर्श नकुतूहलबलमिलितनानादेशवास्तव्यभव्यलोकसंघसंघाताकारसन्निवेशविशेषशोभमानबहिः परिसर श्रीमदासिकायां चत्वारिंशत्संख्यसर्वानवद्यविद्याभ्यासजितवाचस्पतिमतिसुयतिजनमनः कुमुदखण्डमार्तण्डमण्डलायमानोपदेशैः श्रीपूज्यैर्विक्रमपुरीय समुदायेन सार्धं विजहे । तत्र च ज्येष्ठानुक्रमेण समकालपुरः प्रारव्धपृथक्पृथक्प्रेक्षणीयकपञ्चशब्दवादनादिवर्धापनकहर्ष भरनृत्यमानास्तोकलोकोत्तारित निरुञ्छनकदानगीयमानयुगप्रधानगुरुनामश्रवणानन्तरवितीर्यमाणार्थसार्थतिरस्कृतवैश्रवणद्रव्यगर्वगान्धर्विकलोकोप श्लोक्यमाननिजनिजदेशपूर्वजनामधे - याकर्णनोच्छलदमन्दानन्दामृतसरस्तरङ्गभङ्गिसङ्गमुखी भवदङ्गसमग्रसङ्घानुगम्यमानानां श्रीपूज्यानां प्रवेशः सञ्जातो ज्येष्ठशुक्लतृतीयायाम् । वादलब्धिलब्ध जगन्मध्याध्यामसाधुवादाशीतिसंख्यसाधुमधुपपर्युपास्यमानक्रमकमलैः श्रीपूज्यैर्महता विस्तरेण प्रतिष्ठिते श्रीपार्श्वनाथशिखरे प्रतिष्ठितौ सुवर्णदण्ड-कलशावध्यारोपितौ । तस्मिन्नेव समये दुसाझसादलपुत्र्या साऊश्राविकया पारुत्थद्रम्मशतपञ्चकेन माला गृहीता । धर्मसारगणि-धर्मरुचिगणी व्रतिनौ कृतौ । आषाढमासे च कन्यानयने विधिचैत्यालये गृहस्थावस्थजिनपतिसूरिपितृव्यविक्रमपुरवास्तव्यसा० मानदेवकारितश्रीमहावीरदेवप्रतिमा स्थापिता । व्याघ्रपुरे पार्श्वदेवगणिर्दीक्षितः श्रीपूज्यैः । सं० १२३४ फलवर्धिकायां विधिचैत्ये पार्श्वनाथः स्थापितः । लोकयात्रादिकारणकलापभावि विज्ञ स्वकीय धर्म ध्यानशास्त्रपरिज्ञानहानिसंभावनानङ्गीकृतलभ्यमानाचार्यपदानुमेयजगदसाधारण गुणगणस्य जिनमतस्य चोपाध्यायपदं दत्तम्, गुणश्रीगणिन्या महत्तरापदं च श्रीसर्वदेवाचार्याणां च दीक्षा जयदेवीसाव्याश्च । सं० १२३५ अजयमेरौ चतुर्मासी कृता । श्रीजिनदत्तसूरिस्तूपः पुनरपि महाविस्तरेण प्रतिष्ठितः । देवप्रभो दीक्षितस्तन्माता चरणमतिगणिनी च । सं० १२३६ अजयमेरौ पासटकारितमहावीरप्रतिमा प्रतिष्ठिता, अम्बि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। २५ काशिखरश्च । सागरपाटेऽप्यम्बिकाशिखरः । सं० १२३७ बब्बेरके जिनरथो वाचनाचार्यः कृतः । सं० १२३८ आसिकायां बृहजिनयुगलं स्थापितम्। ४८. सं० १२३९ फलवधिकायां भक्तिवशादनेकश्रावकैरनुगम्यमानान् बहिर्भूमौ गच्छतः श्रीजिनभक्ताचार्यान् दृष्ट्वा मत्सरवशादज्ञानाद्वा महर्दिकश्रावकदर्याद्वा कुकर्मपरिपाकाद्वा नटभटपटलवेष्टित ऊकेशगच्छीयः पद्मप्रभनामा पण्डितंमन्य आत्मनः पुरः पद्मप्रभेण जितो जिनपतिसूरिरिति भट्टान् पाठयितुं लग्नः । तदनन्तरं कोपावेगादुत्तालगत्या गत्वा श्रीपूज्यभक्तश्रावकैरालापितः स-'आः पाप ! अलीकभाषिन् पद्मप्रभ ! कस्मिन् काले जितस्त्वया जिनपतिमूरिर्यदेवं भट्टान पाठयसि ?' तेनोक्तम्-'यद्यलीकं मन्यथ तदा पुनरप्यानयत स्वगुरुमिदानीमपि जेष्यामीति' । तैरुक्तम्-'आस्ताम[स]मभीमसमप्रकृते दुरात्मन् ! शृगालोऽपि सन् सिंहेन सह स्पर्धमानो निश्चितं मुमूर्षसी' त्यादिवदत्सु तेषु, मिलिता उभयभक्तश्रावका अहङ्कारवशात् पणत्यागपूर्वकं चक्रुर्वादव्यवस्थाम् । श्रुता च वार्ताऽजयमेरौ श्रीपूज्यैः, प्रेपितश्च तत्र तद्विजया) संघप्रमोदार्थं च श्रीजिनमतोपाध्यायः । पुनरपि तत्रत्यसमुदायेन चिन्तितम्-'एप दुरात्मा मृपाभाषी कथयिष्यति मया पूर्व जिनपतिसूरिर्जितोऽतो ममाग्रे स्थातुमशक्नुवन् स्वकीयपण्डितं प्रेषितवानित्यादि । तस्माच्छ्रीपूज्याः श्रीमुखेन जयन्त्वेनमिति विचार्य समुदायः श्रीजिनमतोपाध्यायेन सहाजयमेरौ गतः । तत्र च राजमान्येन श्रा० रामदेवेन विज्ञप्तः श्रीपृथ्वीराजः पृथ्वीपतिः--'देव ! अस्मद्गुरूणां श्वेताम्बरेणैकेन सह वादव्यवस्था निष्पन्ना वर्तते, अतो यथा महापण्डितमण्डलीमण्डिते युष्माकं सभामण्डपे फलवती भवति तथा प्रसाद कुरुतावसरं प्रयच्छतेति' । केलिप्रियेण राज्ञोक्तम्-'इदानीमेवावसरः' । श्रे० रामदेवेन विज्ञप्तम्-'गोस्वामिन् ! द्वितीयः श्वेताम्बरः पद्मप्रभनामा फलवधिकायां वर्तते' । कौतुकार्थिना राज्ञोक्तम्-'तद्विपयेऽहं भलिष्यामि, स्वकीयान् गुरून् प्रगुणयेति' । श्रे० रामदेवेनोक्तम्-'देव ! अस्मद्गुरवोऽत्रैव वर्तन्त इति ।' तदनन्तरं राज्ञा भट्टपुत्रान् प्रेष्य पद्मप्रभ आनायितः । तस्मिंश्चागते दिग्विजयार्थ नरानयने प्रस्थानीभूतः सकलबलसमेतः श्रीपृथ्वीराजः । तत्र पुनरपि श्रेष्ठिरामदेवेन विज्ञप्तो राजा-'देव ! अस्मद्विज्ञप्तिकाविषये कीदृश आदेशः ?' प्रतिपन्नप्रतिपालकेन राज्ञोक्तम्-'प्रगुणय स्वगुरून् , कार्तिकशुक्लसप्तमीदिने वादावसरः।' श्रे० रामदेववचनात्तदिनोपरि श्रीअजयमेरुतः श्रीजिनमतोपाध्यायपं० थिरचन्द्र-वा० मानचन्द्रादिसाधुवृन्दपरिकरिताः श्रीजिनपतिसूरयो नरानयने राजसभायां प्रभूताः, पद्मप्रभोऽपि भट्टपुत्रसमेतस्तत्र समागतः । 'यावदहमागच्छामि तावत्वया वागीश्वर-जनार्दनगौड-विद्यापतिप्रभृतिपण्डितसमक्षमेतौ वादयितव्यौ' इत्यादेश मण्डलेश्वर-कइमासस्य दत्त्वा स्वयं राजा श्रमकृते श्रमस्थानं गतः। अतीवरमणीयां श्रीपूज्यानां मूर्तिं दृष्ट्वा हर्षादाह मण्डलेश्वरः-'अहो ! एके ईदृशा दर्शनिनः सन्ति ये दृष्टाः सन्तो नेत्रयोरानन्दं जनयन्ति, निर्वासाश्च दिगम्बराः पिशाचप्राया दृष्टाः सन्तो नेत्रयोरुद्वेगमुत्पादयन्तीति' । तदनन्तरं श्रीपूज्यैरुक्तं मण्डलेश्वरं [प्रति] पश्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ [२६] अतो दर्शनिनां निन्दा न कर्तव्येत्यादि व्याचख्यानेषु पूज्येष्वन्तरेवेर्ध्यावशादुत्तालः पण्डितपद्मप्रभो वृत्तं पठितुं प्रवृत्तो मण्डलेश्वरं [प्रति] प्राणा न हिंसा न पिबेच्च मद्यं, वदेच सत्यं न हरेत्परस्वम् । परस्य भार्या मनसा न वाञ्छे, स्वर्ग यदीच्छे विधिवत्प्रविष्टुम् ॥ [२७] ___ -इति । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'अहो शुद्धपाठकता' । स प्राह-'आचार्य ! मामुपहससि ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्-'महानुभाव पद्मप्रभ ! कलाविकले कालेऽस्मिन् क एक उपहस्यते को वा नोपहस्यते' । स प्राह-'तहि किमित्यहो शुद्धपाठकतेत्युक्तम् ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्-'महासत्त्व ! पण्डितसभायां शुद्धमेव पठ्यमानं मुखालङ्कृतये भवति । स प्राह-'किं कश्चित् सोऽप्यस्ति Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ खरतरगच्छालंकार यो मयि वृत्तादिकं पठति कूटानि निष्कासयति ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्-'यद्येवं तर्खेतदेव वृत्तं पुनरपि पठ' । 'जनार्दनविद्यापतिप्रभृतिपण्डितमिश्राः! यूयं सावधानीभूय शृणुत । पद्मप्रभेण पठ्यमानं वृत्तम्' । रोऽन्तःक्षुभितोऽपि धाष्टात् पठितुं लग्नः । श्रीपूज्यैः सभ्यान साक्षिणः कृत्वा तत्पठितवृत्ते दश कूटानि दर्शितानि तथा 'महापुरुष! एवं पठ्यमानं शुद्धं वृत्तं भवति; यथा प्राणान्न हिंस्यान्न पिबेच मद्य, वदेच्च सत्य न हरेत् परस्तम् । परस्य भायों मनसा न वाञ्छेत् , स्वर्ग यदीच्छेद् विधिवत् प्रवेष्टुम् ॥ [२८] वैलक्ष्यात् पुनरपि स प्राह-'आचार्य ! अनया वचनरचनया मुग्धजनान् विप्रतारयसि । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'त्वमपि विप्रतारय यदि शक्तिरस्ति' । मण्डलेश्वर-कइमासेनोक्तम्-'किमिति प्रथममेव शुष्कवादः प्रारब्धः ?; यदि युवयोः कापि शक्तिरस्ति तदैकः कश्चित् पदार्थ स्थापयतु, द्वितीयस्तन्निराकरोतु । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'पद्मप्रभ ! रुचिरं भणति मण्डलेश्वर इति, कञ्चित् पक्षं कक्षीकृत्य ब्रूहि । स प्राह-'आचार्य ! जिनशासनाधारभूतप्रभूतश्रीमदाचार्यसंमतदक्षि. णाव रात्रिकावतारणविधिपरित्यागे किं कारणम् ?' । 'वक्रो वक्रोक्त्यैव निर्लोठ्यः' इत्याशयवद्भिः श्रीपूज्यैरुक्तम्'किं यद् बहुजनसंमतं भवति तदादरणीयम् ?; मिथ्यात्वमपि तर्हि किमिति नाद्रियते?" स प्राह-'वृद्धपरम्परयाऽऽगतं सर्वमप्याद्रियामहे' । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'वृद्धपरम्परानागतोऽपि किमिति भवत्पूर्वजैश्चैत्यवास आदृतः । स प्राह'कथं ज्ञायते वृद्धपरम्परानागतः ?' इति । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'किं श्रीमहावीरसमवसरणेऽन्यस्मिन् वा जिनभवने श्रीगौतमस्वामिगणधरः शयानो भुञ्जानो वा कदापि क्वापि श्रुतः । उत्तरदानासामर्थ्यवैलक्ष्यात् स प्राह-'आचार्य ! कर्णे स्पृष्टः कटिं चालयसि !; अहमपृच्छे दक्षिणावर्तारात्रिकावतारणविधिवृद्धपरम्परागतोऽपि किमिति परित्यक्त इति, त्वं च चैत्यवासमादायोत्थितः । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'मूर्ख! वक्रे काष्ठे वक्रो वेधः क्रियत इति न्यायो भवता विस्मारितः ?; अथवा भवलिदानी सावधानीभूय शृणु-ननु दक्षिणावर्तारात्रिकावतारणविधिवृद्धपरम्परागत इति कथं ज्ञायते ? । सिद्धान्ते तावदारात्रिकविचारो नास्ति; किन्तु श्रेयस्कृते पाश्चात्यैर्बहुश्रुतैराचीर्णः । तैश्च स किं दक्षिणावर्तो वामावर्तो वाऽऽचीर्ण इति विप्रतिपत्तिनिरासार्थ युक्तिर्गवेषणीया । न शवमुष्टिन्यायः कर्तव्यः । यद् युक्तं प्रतिभाति तदादरणीयं न शेषम् ।' सभ्यैरुक्तम्-'पद्मप्रभ ! सत्यमाहाचार्यः । तदनन्तरं सभ्यसम्मत्या प्रमाणरीत्या श्रीपूज्यैः सभ्यशरीररोमाङ्कुरपूरोद्भेदैकसारिण्या गीर्वाणवाण्या तस्यां सभायां यथा वामावर्तारात्रिकावतारणं स्थापितं तथा प्रद्युम्नाचार्यकृतवादस्थानकोपरि श्रीपूज्यकृतवादस्थलेभ्योऽवसेयम् । अत्र गौरवभयान्न लिखितम् । किम्बहुना, हर्षपरवशैः सभ्यैः श्रीपूज्यानुद्दिश्य जयजयकारश्चक्रे । ४९. असिन्नवसरे श्रीपृथ्वीराजः सभामध्ये समागतः । सिंहासने चोपविश्य पप्रच्छ मण्डलेश्वरम्-'केन जितं केन हारितम् ?' । श्रीपूज्यानङ्गुल्या दर्शयता मण्डलेश्वरेणोक्तम्-'देव ! एतेन जितमिति' । अमर्षात् पद्मप्रभः प्राह'महाराज ! मण्डलेश्वरो लश्चाग्रहण एव प्रवीणो न गुणिनां गुणग्रहणे । उच्छलत्कोपावेशान्मण्डलेश्वरः प्राह-'रे मुण्डिक ! श्वेतपट ! अद्यापि न किमपि विनष्टम् , अयमाचार्यों वर्तते, त एवैते सभ्यावर्तन्ते मया लञ्चा गृहीताऽस्त्यतोऽहं मौनं कृत्वा तिष्ठामि लमः; त्वं चेदिदानीमपि श्रीपृथ्वीराजसमक्षमाचार्य जेष्यसि तदा प्रागपि जितमेवेति' । स प्राह-'मण्डलेश्वर ! नाहं कथयामि भवताऽऽचार्यपाल्लिञ्चा गृहीता; किन्तु सर्वाचार्यसंमतदक्षिणावर्तारात्रिकावतारणविधि गर.पर्दरिकाप्राणेन निषेध्याचाण प्रत्यायितो मण्डलेश्वर इति' । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'महात्मन् पद्मप्रम! सर्माचार्य युक्तमुक्तम् , असदाज्ञावा.ार्याणामसंपतत्वात् । स प्राह-'किं यूयमन्यतराचार्येभ्यो घनतरं खतारो पदेषां नितमर्थ न न्यध्वे । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'पद्मप्रभ ! किमन्ये आचार्या असदाज्ञावाचार्येभ्यो घनतरं ज्ञातारो यत्तेषां संमतं वामावर्तारात्रिकविधिं न ते मन्यन्ते "-इत्यादि वक्रोक्तिभणनेन श्रीपृथ्वीराजसमक्षं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। २७ निर्वचनीकृतः पद्मप्रभः प्रोक्तवान् यथा-'महाराज ! यदि यौष्माकीणं वचनं भवति तदिदानीमत्रोपविष्टविशिष्टलोकप्रमोदोत्पादनाय कुतूहलानि दर्श्यन्ते; तद्यथाऽऽकाशमण्डलादवतीर्य युष्मदुत्सङ्गे निविष्टामतिरूपपात्रामेकां विद्याधरीं दर्शयामि, पर्वतमङ्गुलमयं कृखा दर्शयामि, नभस्तल इतस्ततो नृत्यमानान् हरिहरादीन् देवान् दर्शयामि, उच्छलत्कल्लोलमालाकरालं पारावारं समागच्छन्तं दर्शयामि, सकलमपीदं नगरमाकाशस्थितं दर्शयामीत्यादि' । सम्यैविहस्योक्तम्-'पण्डित पद्मप्रभ ! यदि भवतेदृक्षेन्द्रजालकला शिक्षिता तत्किमाचार्यैः सह पादः प्रारब्धः। श्रीपृथ्वीराजदानलाभाभिप्रायनिरन्तरसमागच्छदपरलक्षसंख्येन्द्रजालिकैः समं प्रारभ्यताम् । हर्षाकुलचित्तेन तेनोक्तम्-पण्डितमिश्रा ! अयमाचार्यः सर्वकलाकुशलमात्मानं मन्यतेऽतो यद्यद्य श्रीपृथ्वीराजसभायां युष्माकं समक्षं गर्वपर्वतान्नोत्तारयिष्यते तदैष वातेन भिद्यमानो धर्तुमपि न शक्यते' । विहसितवदनान् श्रीपूज्यान् दृष्ट्वा तेनोक्तम्-'आचार्य ! किं विलक्षं हससि? अयं सोऽवसरो यदि काचिच्छक्तिरस्ति तदा दर्शय सर्वलोकचेतश्चमत्कारि किमपि कलाकौशलं स्वकीयम् , किं वाऽमुष्याः सभातो बहिनिःसरेति' । तदनन्तरं श्रीपूज्यैर्जिनदत्तसूरिनाममत्रस्मरणपूर्वमुक्तम्-'पद्मप्रभ ! त्वं तावदात्मशक्तिस्फोरणानुसारेण यथोक्तमिन्द्रजालं प्रथमं निष्कासय, पश्चाद् वर्तमानकालोचितं किमपि वयमपि करिष्यामः' । कुतूहलावलोकनाभिलाषाकुलतया श्रीपृथ्वीराजेन सोत्सुकसुक्तम्-'पद्मप्रभ ! आचार्येणानुमतिर्दत्तातस्त्यतो वेगं कृत्वा स्वेच्छानुसारेण दर्शय नानाविधानि कौतुकानीति' । तदनन्तरमन्तःशून्यत्वादाकुलव्याकुलेन श्रीमत्पूज्यपुण्यप्राग्भारप्रेरितेन च पद्मप्रभेणोक्तम्-'महाराज ! अद्य रात्रौ देवी पूजयित्वाऽभीष्टदेवताह्वानमत्रमेकाग्रचित्तेन ध्यात्वा कल्ये नानाविधमिन्द्रजालं दर्शयामि'-इति श्रुत्वा च हास्यरसोत्कर्षोच्छलदमन्दानन्दाश्रुव्यापूर्णनयनैः सर्वैरपि लोकैर्दुर्वाक्यभाषणपूर्वकं गाढतरमुपहसितः पद्मप्रभः । तत्पश्चानिर्लज्जचूडामणिना तेन सविकाशवदनान् श्रीपूज्यानवेक्ष्योक्तम्-'आचार्य ! किं हससि ?, यदि त्वं भद्रोऽसि तदिदानीमेव किमपि दर्शय' इति विहस्य श्रीपूज्यरुक्तम्'पद्मप्रभ ! स्थिरीभूय ब्रूहि, किमिन्द्रजालमुच्यते ?' तेनोक्तम्-'त्वमेव ब्रूहि' । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'देवानाम्प्रिय ! असंभवद्वस्तुसत्ताविर्भावः' । 'तत् किम् ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्-'पद्मप्रभ ! तदिदमद्य तवैव प्रत्यक्षीभूतं किं न पश्यसि ?' तेनोक्तम्-'किमिति ?' तदन्तरं श्रीपूज्यैः सोत्कर्षमुक्तम्-'महानुभाव ! किं त्वया स्वमान्तरेऽपि संभावितमिदं कदाचिद् , यदहं विशिष्टासनोपविष्टसहस्रसंख्यमुकुटबद्धराजराजिविराजितायां श्रीपृथ्वीराजसभायां गत्वा यथेच्छया वक्ष्यामीति परमिदमसंभाव्यमपि दैवनियोगादस्मत्सान्निध्यादद्य संजातमिति, कोऽस्येन्द्रजालाद् भवच्चिकीर्षिताद् भेद इति ?' । पुनरपि क्रूराशयतया लोकोपहासमवगणय्य राजानमुद्दिश्य तेनोक्तम्-'महाराज! अनाक्रमणीयपराक्रमाक्रान्तनिजपदाधःकृतप्रतापप्रचण्डप्रभूतभूपतिवातसततमृग्यमाणादेशामृतसर्वस्वे त्वयि सकलामपि पृथ्वी शासति युगप्रधान इति विरुदमात्मन्ययमाचार्यः प्रचुरत्यागदानवशीकृतसमस्तभट्टलोकमुखेन पाठयति' । राज्ञोक्तम्-‘पद्मप्रभ! युगप्रधान इत्यस्य कः शब्दार्थः ?' सहर्षेण तेनोक्तम्-'महाराज ! युगशब्देन वर्तमानः कालो भण्यते, तस्मिंश्च यः प्रधानः सर्वोत्तमः स युगप्रधानशब्देनोच्यते' । अत्रान्तरे श्रीपूज्यैवेंगादेवोक्तम्-'मूर्ख पद्मप्रभ ! यदपि तदपि भणित्वाऽस्माकं मुखोपरि राजानमुच्छालयितुमिच्छसि । श्रीपृथ्वीराजराजानमुद्दिश्य चोक्तम्-'महाराज ! भिन्नरुचयः सर्वेऽपि प्राणिन इति केषांचित् कोऽपि सुखायते । ततो यः कश्चिद्यपानभीष्टो भवति तं प्रति नानाविधान्तरङ्गरसूचकानेकविरुदन्यासमनोहरान् प्रधानशब्दानुच्चरन्ति ते । यथा त्वामाश्रित्य-जीवाऽऽदिश, पादावधार्थताम्-इत्यादिशब्दान् भणन्ति भवत्पादारविन्दाराधनैकसावधानमानसश्रीकइमासमण्डलेश्वरप्रमुखराजप्रधानलोकाः, तथैतानुदिश्य यथोक्तान् शब्दानुश्चारयन्त्येतत्सेवका इति । एवं तेषामपि सेवकाः प्रवर्तन्ते । अन्योऽपि लोकः सर्वोऽपि वल्लिभजनं नानाविधैर्वचनैपदियति परं न कोऽपि तेषां दोषमुद्घाटयति । अयं च पद्मप्रभोऽस्यां सभायामित्थं यदपि तदप्युल्लण्ठं वदन् स्वस्म सर्वजनप्रत्य १ °मुपच्छाल° आदर्श । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ खरतरगच्छालंकार नीकतां प्रकाशयति । तदनन्तरम् 'अयमाचार्यो लोकाचारानुसारेण युक्तं भाषते, पद्मप्रभश्च वैलक्ष्यात् पैशून्य प्रकटयतीति विचिन्त्य श्रीपृथ्वीराजेनोक्तम्-'जनार्दन-विद्यापतिप्रभृतयः पण्डितमिश्राः ! सावधानीभूय यूयमनयोः परीक्षां कुरुत, यथा यो महाविद्वान् भवति तस्मै जयपत्रं दीयते सत्कारश्च क्रियते' । पण्डितैरुक्तम्-'देव ! तर्कविद्याविषये महाक्षुण्णमतिराचार्य इति परीक्षितम् , इदानीं युष्मदादेशात् साहित्यविषये परीक्षां कुर्मः। पण्डितमिश्रौ ! युवां श्रीपृथ्वीराजेन भादानको/पतिर्जित इति वर्णयतम् । श्रीपूज्यैः क्षणमेकमेकाग्रीभूय यस्याऽन्तर्बाहुगेहं बलभृतककुभः श्रीजयश्रीप्रवेशे, दीप्रप्रासप्रहारप्रहतघटतटप्रस्तमुक्तावलीभिः। नूनं भादानकीयै रणभुवि करिभिः स्वस्तिकोऽपूर्यतोचैः, पृथ्वीराजस्य तस्यातुलबलमहसः किं वयं वर्णयामः ।। [२९]] इति वृत्तं पठित्वा व्याख्यातम् । पद्मप्रभेणाऽपि लाघवभीरुणा पौर्वापर्यमनालोच्य शीघ्रं वृत्तं पठितम् । श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'वृत्तं चतुष्पदमेव दृष्टं श्रुतं किमेतत् पञ्चपदं कृतम् ?' सभ्यानां च तत्पठिते वृत्ते पञ्चापशब्दा दर्शिताः । ईर्ष्यावशात् तेनाप्युक्तम्-'पण्डितमिश्रा ! यस्यान्त_हुगेहमित्यादिवृत्तमाचार्येणेदानीं न कृतं पूर्वपठितमेव पठितम्' । पण्डितैरुक्तम्-'स्थिरीभव ज्ञायते लग्नम्' । 'आचार्य! श्रीपृथ्वीराजसभामण्डपं गद्यबन्धेन वर्णय' । श्रीपूज्या मनसि सभावर्णनं कृत्वा खटिकया भूमौ लिखितुं प्रवृत्ताः, यथा-'चञ्चन्मेचकमणिनिचयरुचिररचनारचितकुट्टिमोचरन्मरीचिप्रपश्वखचितदिक्चक्रवालम्, सौरभभरसम्भूतलोभवशवम्भ्रम्यमाणझङ्कारभृतभुवनभवनाभ्यन्तरभूरिभ्रमरसम्भृतविकीर्णकुसुमसम्भारविभ्राजमानप्राङ्गणम्, महानीलश्यामलनीलपट्टचेलोल्लसदुल्लोचाञ्चललम्बमानानिलविलोलबहलविमलमुक्ताफलमालातुलितजलपटलाविरलविगलदुज्ज्वलसलिलधारम्, दिग्विक्षिप्तवलक्षचक्षुःकटाक्षलक्षविक्षेपक्षोभितकामुकपक्षामुक्तमौक्तिकाद्यनपञ्चवर्णनूतनरत्नालङ्कारविसरनिःसरकिरणनिकुरुम्बचुम्बिताम्बरारब्धनिरालम्बनविचित्रकर्मप्रविशत्कुसुमायुधराजधानीविलासवारविलासिनीजनम् , क्वचिच्चूताङ्कुररसास्वादमदकलकण्ठकलरवसमाननवगानगानकलाकुशलगायनजनप्रारब्धललितकाकलीगेयम् , क्वचिच्छुचिचरित्रचारुवचनरचनाचातुरीचञ्चुनीतिशास्त्रविचारविचक्षणसचिवचक्रचर्च्यमाणाचारानाचारविभागम् , क्वचिदासीनोदामप्रतिवाद्यमन्दमदभिदुरोद्यदनवद्यहृद्यसमग्रविद्यासुन्दरीचुम्ब्यमानावदातवदनारविन्दकोविदवृन्दारकवृन्दम् , उद्धतकन्धरविविधमागधवर्ण्यमानो रधैर्यशौयौदार्यवर्धिष्णु, मुधाधामदीधितिसाधारणयशोराशिधवलितवसुन्धराभोगनिविशमानसामन्तचक्रम् , प्रसरन्नानामणिकिरणनिकरविरचितवासवशरासनसिंहासनासीनदोर्दण्डचण्डिमाडम्बरखण्डिताखण्डवैरिभूमण्डलनमन्मण्डलेश्वरपटलस्पोद्भटकिरीटतटकोटिसंकटविघटितविसंकटपादविष्टरभूपालम् ; अपि चोद्यानमिव पुन्नागालङ्कृतं श्रीफलोपशोभितं च, महाकविकाव्यमिव वर्णनीयव कीर्ण व्यञ्जितरसं च, सरोवरमिव राजहंसावतंसं पद्मोपशोभितं च, पुरन्दरपुरमिव सत्या(?)धिष्ठितं विबुधकुलसङ्कुलं च, गगनतलमिव लसन्मङ्गलं कविराजितं च, कान्तावदनमिव सदलङ्कारं विचित्रचित्रं च । अत्रान्तरे पण्डितैरुक्तम्'आचार्य! समर्थय वर्णनं स्थालीपुलाकन्यायेन, ज्ञास्यते युष्माकं शक्तिः । तदनन्तरं श्रीपूज्यैः-'एवंविधं श्रीपृथ्वीराजसभामण्डपमवलोक्य कस्य न चित्रीयते चेतः' इति समर्थनं कृतम् । पुनरपि वाचयिता विस्तरेण व्याख्यातं च । श्रुत्वा च पण्डितैविस्मयवशान्निजशिरो धृनितम् । पद्मप्रभेणोक्तम्-'पण्डितमिश्राः ! एतदपि कादम्बर्यादिकथासम्बन्धि सम्भाव्यते' । पण्डितैरुक्तम्-'मूर्ख ! कादम्बर्यादिकथाः सर्वा अस्माभिर्वाचिताः सन्ति , अतस्त्वं मौनं कुरु । मा भारयामद्धस्तेन स्वं मुखं धूलिभिः'। ५०. पूज्यानुद्दिश्योक्तम्--'आचार्य ! प्राकृतभाषया गाथाबन्धेन श्लेषालङ्कारेण श्रीपृथ्वीराजसत्कान्तःपुरसुभटौ वर्णय' । श्रीपूज्यैर्मुहूर्तमेकं चिन्तयित्वोक्तम् Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ [३०] युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। वरकरवाला कुवलयपसाहणा उल्लसंतसत्तिलया। सुंदरिविंदु व्व नरिंद ! मंदिरे तुह सहंति भडा ।। इति गाथाया विस्तरेण व्याख्याने च श्रीपूज्यमुखसम्मुखमतिकुतूहलात् सकलमपि लोकमवलोकमानमवलोक्य वैलक्ष्यात् पद्मप्रभेणोक्तम्-'आचार्य ! मया सह वादमारभ्येदानीमन्यतराणामग्रे आत्मानं भद्रं भावयसि ?' श्रीपूज्यश्च नन्दिनीनाम्ना छन्दसा पृथिवीनरेन्द्र ! समुपाददे रिपोरवरोधनेन सह सिन्धुरावली। भवतां समीपमनुतिष्ठता स्वयं नहि फल्गुचेष्टितमहो! महात्मनाम् ॥ [३१] इदं नवं वृत्तं पठिखोक्तम्-'पद्मप्रभ ! किमिदं छन्दः पण्डितैरुक्तम्-'आचार्य! अनेनाज्ञानेन सह ब्रुवाणस्त्वमास्मानमेव केवलं क्लेशयति न फलं किश्चिद्भविष्यति । तथाऽऽचार्य ! खगवन्धेन चित्रकाव्यं कुरु' । तदनन्तरं श्रीपूज्यैः खटिकया भूमौ रेखाकारं खरं कृखा तात्कालिकम् लसद्यशःसिताम्भोज! पूर्णसम्पूर्ण विष्टप!। पयोधिसमगाम्भीर्य ! धीरिमाधरिताचल ! ।। [३२] ललामविक्रमाक्रान्तपरक्ष्मापालमण्डल ! । लब्धप्रतिष्ठ ! भूपालावनीमव कलामल! ॥ [३३] इत्येवंरूपश्लोकद्वयाक्षरलिखनेन भरितम् । तच्च चित्रकाव्यं वाचयिखाऽतिहष्टैः पण्डितैः प्रशस्यमानान् श्रीपूज्यान् दृष्ट्वाऽमर्षवशादाह पद्मप्रभः-'पण्डितमिश्रा ! द्रम्मसहस्रमेकं दातुमहमपि समर्थो वर्तेऽतो मामपि प्रशंसयत' । मण्डलेश्वरकइमासेनोक्तम्-'रे मुण्डिक ! श्रीपृथ्वीराजसमक्षं यदपि तदपि त्रुवाणस्त्वमात्मानं गले ग्राहयसि । राज्ञोक्तम्'पण्डितमिश्रा ! एनमपि वराकं समदृष्ट्या वादयत' । तैरुक्तम्-‘देव ! यदि गोरूपः किमपि वेत्ति तदेषोऽपि वेत्ति । राज्ञोक्तम्-'मृाऽपि दृष्टया ज्ञायत आचार्यों विद्वान् , परमस्मत्सभायां न्यायमय्यां वचनीयता यथा न भवत्यतः कारणात् पद्मप्रभोऽपि सर्वविषये युष्माभिः परीक्षयितव्यः' । पण्डितैरुक्तम्-'गोस्वामिन् ! पद्मप्रभः काव्यं कत्तु न जानाति, आचार्यपठिते वृत्ते छन्दो नोपलक्षयति, आचार्येण तकरीत्या वामावर्त्तारात्रिकावतारणे स्थापिते प्रत्युत्तरं किमपि न दत्तवान् , तर्कमार्गमपि न परिछिनत्ति, केवलं विरूपं भापितुं वेत्ति, तथापि युष्मन्निरोधाद् विशेषेण समदृष्ट्या प्रक्ष्यामः' । 'आचार्य ! पण्डितपद्मप्रभ ! युवाम् "चकर्त दन्तद्वयमर्जुनं शरैः क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः।" इति समस्यां पूरयतमिति । क्षणादेव श्रीपूज्यैरुक्तम् चकर्त दन्तद्वयमर्जुनं शरैः क्रमादमुं नारद इत्ययोधि सः। भूपालसन्दोहनिषेवितक्रम! क्षोणीपते ! केन किमत्र संगतम् ॥ -इति । सभ्यैरुक्तम्-'आचार्य ! न किमपि लभ्यते, ईदृशया समस्यया पूरितया; यदस्माभिरसंगत्युत्तारणाय युवां पृष्टी, त्वया च सैव समर्थितेति । तथा सरलकाव्यादेतदेव समस्याया दुःखखं यदसांगत्यमपनीयते' । पूज्यैरुक्तम्'पण्डितमिश्रा ! एवमपि समस्या पूर्यत एव; यतः श्रीभोजदेवसभायां केनाप्यागन्तुकपण्डितेन "सा ते भवाऽनुसुप्रीताऽवद्यचित्रकनागरैः । आकाशेन बका यान्ति"..... इति समस्यापादत्रयं कथितम् ; 'देव! किं केन संगतम्' इति चतुर्थपादप्रक्षेपेण श्रीभोजराजसत्कपण्डितेन पूरिता' । पण्डितैरुक्तम्-‘एवमपि पूर्यत एव, यदि पद्मप्रभसदृक्षः कोऽपि पूरको भवति युष्मादृशानां खेवंविधकाव्य Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |३५ ३० खरतरगच्छालंकार शक्तियुक्तानां न युज्यत इदृशीं सम्यस्यां पूरयितुमिति' । तदनन्तरं श्रीपूज्यैः क्षणमेकं विमृश्योक्तम् चकर्त दन्तद्वयमर्जुनः शरैः कीां भवान् यः करिणो रणाङ्गणे। दिक्षया यान्तमिलाप दूरतः क्रमादमुं नारदमित्यबोधि सः॥ ' इत्येतद्व्याख्यानावसाने च विस्मयरसपरवशैः पण्डितैरुक्तम्-'आचार्य ! भगवती सरस्वती वय्येवैकस्मिंस्तुष्टा, यदेवं चिन्तितान् पदान् ददाति' । पार्बोपविष्टश्रीजिनमतोपाध्यायेनोक्तम्-'पण्डितमिश्राः ! सत्यमेतद् यदाचार्यविषये परमेश्वरी श्रीवाग्देवी प्रसन्नाऽभूदिति, कथमन्यथैषा भगवती निजपुत्रैर्युष्माभिः सहाचार्यस्य साङ्गत्यमकारयत्' । पण्डितैरुक्तम्-'पद्मप्रभ ! त्वमपि किमपि ब्रूहि । स प्राह-'क्षणमेकं प्रतीक्षध्वं चिन्तयन्नमि' । तैश्च स-'पण्मासान यावचिन्तयेरि'त्युपहसितः। तथा भणितम्-'सर्वाधिकारिन् ! मण्डलेश्वरकइमास ! आचार्यसदृशः कोऽपि विद्वान् दृष्टः स प्राह-'अद्याग्रतो न दृष्टः' । अङ्गुल्या निजतुरङ्गमान् दर्शयता राज्ञोक्तम्-'आचार्य! परतः पश्य पश्येत्यमी पट्टघोटकाः केन कारणेनोत्पतन्ति ?' श्रीपूज्यैर्विमृश्योक्तम्-'शृणु महाराज! ___ ऊर्ध्वस्थितश्रोत्रवरोत्तमाङ्गा जेतुं हरेरश्वमिवोधुराङ्गाः । खमुत्प्लवन्ते जवनात्तुरङ्गात्तवाऽवनीनाथ ! यथा कुरङ्गाः॥ एतदर्थश्रवणे च प्रसन्नवदनं राजानं दृष्ट्वा पण्डितैरुक्तम्-'आचार्य ! उदयगिरिनाम्नि हस्तिन्यध्यारूढः कीदृशः पृथ्वीराजः शोभत इति वर्णय' । पूज्यैहृदये विमृश्योक्तम् विस्फूर्जद्दन्तकान्तं लसदुरुकटकं विस्फुरद्धातुचित्रं, पार्विभ्राजमानं गरिमभृतमलं शोभितं पुष्करण। पृथ्वीराजक्षितीशोदयगिरिमभिविन्यस्तपादो विभासि, ___ त्वं भास्वान् ध्वस्तदोषः प्रबलतरकराक्रान्तपृथ्वीभृदुच्चैः॥ [३०] इति वृत्तार्थ श्रुखा प्रसाददानाभिमुखे राजनि सति पण्डितैरुक्तम्-'देव ! इतः स्थानाच्चतुर्दिक्षु योजनशतमध्ये ये केचन विद्वांसो विद्यावाहुल्यस्फुटदुदरोपरिदत्तसुवर्णपट्टाः श्रूयन्ते तेभ्यः सर्वेभ्य एव लक्षणस्मृत्या साहित्यपरिचयेन तर्काम्यासेन सिद्धान्तावगत्या लोकव्यवहारपरिज्ञानेनायमेवाचार्यः समधिकः । किम्बहुना, सा विद्यैव नास्ति याऽस्य मुखाम्भोजे सुखासिकया न विलसति' । समस्यामपूरयित्वाऽपि पद्मप्रभेणोक्तम्-'महाराज! केषांचिन्मानुषाणां पार्श्वे विद्या असन्त्य एव भद्राः, यतस्ते तद्विद्याबलेन लोकैः सह निरन्तरं कलहायमानाः सकलमपि जगदुत्सूत्रयन्ति । यदुक्तम् विद्या विवादाय धनं मदाय प्रज्ञाप्रकर्षाऽपरवञ्चनाय। अभ्युन्नतिर्लोकपराभवाय येषां प्रकाशे तिमिराय तेषाम् ॥ [३८] श्रीपूज्यैरुक्तम्-'भद्र पद्मप्रभ ! त्वदग्रे किंचिदभिहितं भणामि भग्नस्त्वं मा रुष'। तेनोक्तम्-'भण महानुभाव !' 'इत्थमशुद्धं वृत्तादिकं पठन्तमेकमपि यतिनं दृष्ट्वा सर्वोऽपि मिथ्यादृष्टिलोको-अहो ! एते श्वेतपटाः शुद्धमपि पठितुं न जानन्ति किमन्यज्ज्ञास्यन्तीत्युपहसति-अतः कारणादस्मिन् वृत्तेऽद्य पश्चाद्भवता 'प्रकर्षः परवञ्चनायेति 'प्रकाशस्तिमिरायेति च पठनीयम् । तथाऽस्मिन्प्रस्तावे 'विद्या विवादाये'त्यादिसुभाषितमसम्बद्धमुक्तम् , यतो धर्मशील! किमस्माभिरुक्तं यत्त्वमस्माभिः सह वादं गृहाण, किं वा त्वयैवासद्भक्तश्रावकाणामग्रे कथितं यदहो! अत्रानयत स्वगुरुं यथेदानीमपि जयामीति' । स स्वस्कन्धास्फालनपूर्व प्राह-'मया कथितम् । पू स –'कस्य शक्त्या ?" स पाह 'खशच्या।' पूज्यैरुक्तम्-'इदानीं सा कि काकैर्भक्षिता ?' स प्राह-'नहि नहीं'ति । पूज्यैरुक्तम्-'तर्हि क गता ?' स Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। प्राह-'मम भुजयोर्मध्ये वर्तते, परमवसरमन्तरेण न प्रकाश्यते' । पूज्यैरुक्तम्-'अवसरः कदा भविष्यति । स प्राह'इदानीमेव' । 'तर्हि किमिति विलम्बः क्रियते ?" स प्राह-'राजानमालाप्य खशक्तिं स्फोरयिष्ये' । पूज्यैरुक्तम्-'वेगं कुरु । तत्पश्चात् पद्मप्रभः स्वचेतस्यनेनाचार्येण निजशरीरसौभाग्येन वचनचातुर्येण विद्याबलेन वशीकरणादिमत्रप्रयोगेण वा सर्वोऽपि राजलोकः स्वात्मनि सानुरागी कृतः, मया पुनरात्मभक्ताः श्रावका अपि तादृशराजप्रसादवर्णनोद्भूतविकाशमुखा अपि श्याममुखीकृताः, किं क्रियते ? कोऽप्युपायो न फलति; भवतु, तथापि “पुरुषेण सता पुरुषकारो न मोक्तव्यः" इति न्यायादिदानीमपि यदि किश्चित्साहसं कृताऽऽवयोर्द्वयोरपि समश्रीकता भवति तदाऽस्मिन् देशे स्थातुं शक्यतेऽन्यथा महान्तं लोकोपहासमसहमानानाभस्माकं सश्रावकाणां देशत्याग एव भविष्यतीति विभाव्य, राजानमुद्दिश्य चोक्तवान्-'महाराज ! अहं पत्रिंशत्संख्यदायकायुधप्रकाराभ्यासेन जलविद्यायां कृतश्रमो वर्ते तो मया सममेनमाचार्य बाहुयुद्धेन योधयेति' । राजा च दर्शनिनामापरािनभिज्ञतया कौतुकदिदृक्षया च श्रीपूज्नमुत मुखमवलोकितवान् । पूज्यैश्चाकारेङ्गितादिभिः श्रीपृथ्वीराजामिनायभनुमीयोक्तम्-'हाराज ! बाहुसुद्धादिकं दिक्करिकाणामेव क्रीडा, यतो गलागलिलमा बालका एव शोभन्ते न महासः, शस्त्राशस्त्रि युध्यमाना राजपुत्रा एव शोभन्ते न वणिजः, दन्तकलहेन युध्यमाना रण्डा एव शोभन्ते न राजदाराः, तत्कथमस्य वचनमुपादेयं स्यात् १ । पण्डिताचोत्तरप्रत्युत्तरदानशक्त्या परस्परं स्पर्धमानाः शोभन्ते । अत्रान्तरे पण्डितैरुक्तम्-'देव! वयमपि पाण्डित्यगुणेन युष्माकं पार्थाद् वृत्तिं लभामहे न मल्लविद्याकुशलतया' । पूज्यैरुक्तम्-'पद्मप्रभ ! अस्यां सभायामेवं बुवाणः स्वदंष्ट्रिकयाऽपि न लजसे ?; महाराज ! यद्यस्य शक्तिरस्ति तदेषोऽस्माभिः सह शुद्धया प्राकृतभाषया संस्कृतभाषया मागधीभाषया पिशाचभाषया शूरसेनीभाषया शुद्धयाऽपभ्रंशभाषया गद्येन वा पक्षेत्र वा लक्षणेन वा छन्दसा वाऽलङ्कारेण वा रसविचारेण वा नाटकविचारेण वा तर्कविचारेण वा ज्योतिर्विचारेण वा सिद्धान्तविचारेण वा ब्रूताम् , यदि पश्चाद् वयं भवापस्तदा यादृशानेष कथयति तादृशा एव वयम् , परं यदेषोऽस्माकं हस्तेन लोकविरुद्धं स्वदर्शनविरुद्धं मल्लयुद्धादि कारयति तत्कथमपि न कुर्मः । न चास्माकं तावन्मात्राकरणे लाघवम् । यतः कदाचित् कोऽपि हालिकादिः कथयिराति-यदि यूयं पण्डितास्तदा मया सह हलकर्षणादि कुरुध्दमिति-तदा किममाभिस्तत्कर्तव्यम्, अकरणे च किमस्माकं पाण्डित्यं याति ? । तथा महाराज! यद्येष यथा तथाऽस्मान् जेतुं वाञ्छति तदाऽस्माकं पार्थात् क्लिष्टं काव्यं प्रश्नोत्तरं वा गुप्तक्रिया-कारकादिकं वा पृच्छतु । अथा स्वेच्छानुसारकर्तव्याक्षरसन्निवेशरूपया कल्पितया लिप्या किञ्चिद्दों सभ्यकर्णे कथयिता खटिकया भूमौ लिसतु, यद्यदसीयहृदयस्थं वृत्तं न निष्काशयामस्तदा हारितमेव । अथवा वृत्ता केवलान् स्वरान् लिखतु केवलानि व्यञ्जनानि वा लिखतु, यदि केवलैस्तैरस्य हृदयस्थ वृत्तं न निष्काशयामलदामि हारितमेव । तथैकवारश्रुतवृत्ताक्षराणि नुपूत्यष लिखतु, किं वा वयं लिखामः। तथा वर्तमानकालवर्तिवांशिकमीयमाननवनवरागनामकथनपूर्वकं तात्कालिकदाव्येनाऽन्यनिर्दिष्टकोष्ठकाक्षरप्रक्षेपेण कोष्ठकानेष पूरयतु, किं वा वयं पूरयाम:'। राज्ञोक्तम्-'आचार्य मिश्रा ! यूयं सर्वान् रागान् परिच्छिन्त ?' पूज्यैरुक्तम्-'महाराज ! यदि केनापि पण्डितेन सह वादव्यवस्था निष्पन्ना स्यात् तदा क्रियते वार्ता कापि, अनेन पुनरज्ञानेन मानुषेण सह विवदमानानां केवलमात्मनः कण्ठसोष एवेति' । राज्ञोक्तम्-'आचार्य! मा विषाद, यथोक्तकोष्ठकपूर्तिरीतिदर्शनेन यथाऽसाके कुतूहलं पूर्तते तथा हुई। पूज्यैरुताम्-'ईदृशं विणापि यदि कथयत तदाऽरमाकमपि शरीरे सुखं भवति । तत्काल कारितवाकिवाद्यमान गोत्तिष्ठतवमा गणनपूर्वकं तत्कालकृतश्रीपृथ्वीराजन्यायप्रियवगुणवर्णनरूपश्लोकाक्षराणि सर्वाधिकारि-सहनासनिर्दिष्टे कोष्ठके प्रसिद्धिः श्रीपूज्यस्तस्यां समायां कस्य कस्य मनःपहल आश्चर्यलक्ष्मीः सुखासिकया न स्थापिता। अतिप्रसन्नेन श्रीपृथ्वीराजपृथ्वीपतिनोक्तम्-'आचार्य ! जितं त्वया, विकल्पः कोऽपि मनसि न कार्यः । स्वकीयधर्मप्रभावात् सहस्रसंख्यदेशस्वामित्र प्राप्तं मया सप्ततिसहस्रतुरङ्गमानामाधिपत्यं च तथा न कोऽपि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ खरतरगच्छालंकार प्रतिपक्ष मदीयां भूमिकां क्रमितुं शक्नोति यत्त्वमस्मिन् देशे वससीति । तथाऽऽचार्य ! मया न ज्ञातं यत्त्वमेवंविधं रत्नं वर्तसे, अतो यत्किञ्चिदनुचितमाचरितं तत्क्षन्तव्यमिति वदता हस्तौ योजितौ । पूज्यैश्व हर्षवशाद् - बम्भ्रम्यन्ते तवैतास्त्रिभुवनभवनाभ्यन्तरं कीर्तिकान्ताः, स्फूर्जत्सौन्दर्यवर्या जितसुरललना योषितः संघटन्ते । प्राज्यं राज्यप्रधानप्रणमदवनिपं प्राप्यते यत्प्रभावात्, पृथ्वीराज ! क्षणेन क्षितिप ! स तनुतां धर्मलाभः श्रियं ते ॥ [३९] इत्याशीर्वाददानपूर्वकं राजवचनं बहुमानितम्। एवंविधं समाचारमवलोक्य वैलक्ष्यात् पद्मप्रभेणोक्तम्- 'महाराज ! एतावन्तं कालं त्वमेकः समदृष्टिरस्यां सभायामासीः, इदानीं च त्वमपि स्वपरिवारानुवृच्याssचार्ये पक्षपातं कृतवान्' । राज्ञोक्तम्- 'पद्मप्रभ ! किमस्मद्धस्तेन कारयसि ?, यदि तत्र शरीरे काऽपि पाण्डित्यकलाऽस्ति तदाऽऽचार्येण सह ब्रूहि, वयं न्यायं दापयिष्यामोऽथ नास्ति तदुत्तिष्ठ स्वप्रतिश्रये गच्छेति । स प्राह - 'महाराज ! न्यायवत्यां पृथ्वीराजसभायां गत्वा यः कश्चित् कलाकौशल्येनाऽऽत्मानं बहु मन्यते स मया सह ढौकतामित्याह्वानपूर्वकमङ्गुलीमूर्ध्वं करिष्य इत्याशावता मया षट्त्रिंशत्सं ख्यदण्डनायकायुधप्रकारा अभ्यस्ताः, अतो यद्यद्य तव सभायामेपा कला फलवती न भविष्यति तदा कदा भविष्यतीति ?' | ५१. अत्रान्तरे श्री पृथ्वीराजातिवल्लभेन मण्डलीकरणकसमकक्षेण श्रीजिनपतिसूरिपादभक्तेन श्र० रामदेवेनोक्तम्'देव ! शृणुत वार्तामेकाम् श्रे० वीरपालपुत्रजन्मपत्रिकानुसारेण ज्ञायते तव पुत्रो राजमान्यो द्रव्याढ्यो दानप्रियश्च भविष्यतीत्यादिज्योतिषिकवाक्यश्रद्धया मदीयः पुत्रो राजसभायां सञ्चरन्मा केनाप्यव हेल्यतामित्यभिप्रायेणावाल्यकालादहमात्मविप्रेण पण्डितहस्तेन द्विसप्ततिः कला अभ्यासितः । अन्यासां च घनानां कलानां फलं मया दृष्टं किन्तु युष्मत्प्रसादान्मम संमुखं वक्रया दृश्या केनापि नावलोकितम्, अतो बाहुयुद्धस्य फलं न दृष्टम्; इदानीं च मम पुण्याकृष्टस्तव सभायां पद्मप्रभः समागतो तो यदि युष्माकं निरोपो भवति पद्मप्रभस्य च संमतं भवति तदा बाहुयुद्धकलायाः फलमालोक्यते' | केलिप्रियेण राज्ञोक्तम्- 'श्रेष्ठिन् ! वेगं कुरु, ऊर्ध्वो भव पद्मप्रभ !, त्वमपि स्वकलायाः फलं प्राप्नुहीति' । तदनन्तरं द्वापि मल्लग्रन्थि बद्धा गलागलि योद्धुं प्रवृत्तौ । क्षणान्तरे श्रे० रामदेवेन निहत्य भूमौ पातितः पद्मप्रभः । ‘श्रेष्ठिन् ! श्रेष्ठिन् ! अस्य कर्णौ लम्बौ स्तो मा त्रोटये 'ति श्री पृथ्वीराजवचनं निषेधकमप्युपहासपरतया विधायकं मत्वा तत्कर्णपाली हस्तेन गृहीत्वा पूज्याभिमुखमवलोकितवान् रामदेवः । पूज्यैश्च स्वशिरोधूननेन 'प्रवचनोड्डाहं मा कृथा' इत्यादिवचनेन च निषिद्धः । लोकैश्च कलकलं कृत्वा परस्परमहमिकयोक्तम्- 'यथाऽहो मया प्रथममेव कथित यच्छ्रेष्ठी जेष्यति यदनेन सावष्टम्भं पद्मप्रभाभ्यस्तपटू त्रिंशद्दण्डकलातो द्विगुणकलाभ्यासः कथितः ' - इत्यादि । राजादेशात् पद्मप्रभं मुक्त्वोत्थितः श्रे० रामदेवः । सोऽपि चोत्थाय धूलिमलिनं निजं वस्त्रादि प्रास्फोटयत्, राजपुत्रैश्व श्री पृथ्वीराजाक्षिसंज्ञानुसारेण गले गृहीत्वा पर्यस्तः स वराकः । तत्पश्चात्तस्य पततः सोपानपङ्क्तिसंसक्त्या भग्नं मस्तकमधस्तनसोपानसमीपे क्षणं मूर्च्छा समागता । केनापि वण्ठेन प्रच्छादिकाऽपहृतेति तादृशमसमञ्जसं दृष्ट्वा जिनशासनलाघवभीरूभिः श्रीजिनपतिसूरिभिर्दया परिणामात्तत्क्षणादेवाऽऽत्मभक्त श्रावकहस्तेन श्वेता प्रच्छादिका दापिता तस्य । तथैकेन च वण्ठेन हस्तकादानपूर्वकमूर्ध्वकृत्य जितमस्माकं ठक्कुरेणेति वदता द्वितीयहस्तेन दत्ता तन्मस्तके टक्करा । तदनन्तरं सहस्रसंख्यैर्विटप्रायैर्लोकैस्तन्मस्तके टक्करां ददद्भिर्धवलगृहाद्वहिर्निष्कासितः । श्रीपूज्यैश्च श्रीपृथ्वीराजहस्ते महाश्वेतवहिकापट्टचतुष्कोण खण्डलघुहस्त चित्रकरलिखितमहाप्रधानछत्रबन्धपटो दत्तः । राजा पुनरतिकुतूहलाच्छत्रमवलोक्य Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । पृथ्वीराय ! पृथुप्रतापतपन प्रत्यर्थिपृथ्वीभुजां, का स्पर्धा भवताऽपरार्थ ( ) महसा सार्धं प्रजारञ्जने । येनाssaौ हरिणेव खड्गलतिकासंपृक्तिमत्पाणिना, दुर्वाराsपि विदारिता करिघटा भादानकोर्वीपतेः ॥ इत्येतच्छत्रबन्धवृत्तं वाचित पण्डित चोभयथाऽपि व्याख्यातम् । तथा तस्मिन्नेव पटे चित्रकरलिखितराजहंसिकायुगलोपरिस्थितम् कयमलिणपत्तसंगहमसुद्धवयणं मलीमसकमं व । माणसहियं पिअवरं परिहरियं रायहंसकुलं ॥ परिसुद्धोभयपक्खं रत्तपयं रायहंसमणुसरह । तं हविरागरणसरसि जयसिरी रायहंसि व्व ॥ ३३ [४१] [४२] इति गाथाद्वयं वाचित स्वयं पूज्यैर्महाविस्तरेण व्याख्यातं श्रुत्वा चाऽतिप्रमोदात् 'कमेकमस्याचार्यस्याभीष्टं करो'चिन्तयित्वा राज्ञेोक्तम्- 'आचार्य ! ममाथवा निजगुरोः शपथोऽस्ति ते, यदि त्वमात्मनोऽभीष्टमसम्पद्यमानं ममाग्रे न कथयसि; यस्मिन् कस्मिन् वा देशे यस्मिन् कस्मिन् वा नगरे तावकं मनो रमते तदुपरि गृहाण पत्तलामिति' । श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'महाराज ! शृणुत, निजभुजोपार्जित लक्षसंख्याद्रव्यः सा० माणदेवनामा श्रावकः श्रीविक्रमपुरे वसन्नस्ति । स च मम गृहस्थसम्बन्धेन पितृव्यो भवति । तेन च मम व्रतग्रहणसमयेऽत्यादरेण भणितम् - " वत्स ! कथमहमात्मीयान् जातकाननेकधा विलासान् कुर्वतो द्रक्ष्यामीत्यभिप्रायेणानेकानि कष्टानि विषय मयैतावानर्थ उपा जिंतः । अतो वत्स ! किमेवं त्वयाऽऽत्ममनसि विकल्पितं यच्चं गृहस्थवासादुद्विन इव लक्ष्यसे ? । कथय किं द्रम्मान सहस्राणि दश विंशतिं दत्वा देशान्तरे कस्मिंश्चित् प्रेषयाम्यत्रैव वा हट्टं मण्डयामि कन्यकां वा कामपि परिणाययामि, अन्यो वा यः कश्चित्तव चेतसि मनोरथो वर्तते तं कथय यथा पूरयामीत्यादि" - मया तु तत्सर्वमवगणय्य स्वगुरूपदेशश्रवणोच्छलितपरमसंवेगात् सर्वसङ्गपरित्यागः कृतः । सोऽहं कथमद्य युष्माकं देशाय वा नगराय वा स्पृहयामीति' । राज्ञो - क्तम्- 'तर्ह्यन्यतरं किञ्चित्कार्यं भण, यथाऽहमात्मोत्पन्नं हर्षं सन्मानयामि' । उत्सुकीभूय श्रे० रामदेवेनोक्तम्- 'देव ! जयपत्रार्पणविषये प्रसादः क्रियताम्' । राज्ञोक्तम्- 'श्रे० रामदेव ! अद्य खरमुत्सरं बभूव, दिनद्वयमध्ये निजकार्येणाजयमेरावागमिष्यामि । तत्रागतः सन्निश्चयेन जयपत्रमर्पयिष्यामि' । श्रेष्ठिनोक्तम्- 'देव निरोपः प्रमाणम्, परमितः स्थानाद्यथाऽस्मद्गुरूणां महाविस्तरेणाजयमेरौ प्रवेशो भवति तथाऽऽदिशत ' । राज्ञोक्तम्- 'मण्डलेश्वर ! त्वया तथा कर्तव्यं यथा श्रे० रामदेवगुरवो महत्यां शोभायां भवन्त्यामजयमेरौ निजोपाश्रये प्रभूता भवन्ती' त्यादिशिक्षा कइमासस्य दत्ता । [४०] ५२. तदनन्तरं ततः स्थानादुत्थाय सहस्रसंख्यतुरङ्गमाधिरूढराजपुत्रानुगम्यमानमण्डलेश्वरकइमास प्रमुखराजप्रधानैः सह प्रीतिवार्तां कुर्वन्तः, स्वकर्णाभ्यामात्मीयकीर्त्तिं शृण्वन्तः प्रभूतलोकदीयमानाशिषो गृह्णन्तः, श्री पृथ्वीराजसत्के मेघाडम्बरनाम्नि छत्रे प्रभावनायै मस्तकोपरि ध्रियमाणे, पुरमध्ये स्थाने स्थाने रङ्गभरेण प्रेक्षणीयके निष्पद्यमाने, दाने च व्याप्रियमाणे, चच्चर्यां दीयमानायां, धवलेषु गीयमानेषु श्रीगौतमस्वामिगणधरप्रमुख पूर्वज सत्कगुणगणप्रशंसनपूर्वकं बिरुदावलीर्ददत्सु भट्टलोकेषु, श्रीपृथ्वीराजसभायां श्रीजिनपतिसूरिभिर्जितः पण्डितपद्मप्रभ इत्याद्यर्थप्रतिवद्धासु तत्काल निष्पन्नासु चतुष्पदीषु पठ्यमानासु निःस्त्रानैः सह पञ्चशब्देषु वाद्यमानेषु राजादेशान्नगरशोभया शोभिते श्रीअजयमेरौ चैत्य परिपाटिपूर्वकं पौषधशालायां समागताः श्रीपूज्याः । ५३. दिनद्वयानन्तरं प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहकः सबलवाहनो महाराजाधिराज - श्री पृथ्वीराजः श्रीअजयमेरौ निजधवल Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार गृहे समागत्य ततः स्थानाद्धस्तिस्कन्धाधिरूढेन जयपत्रेण सह पौषधशालायामागतो ददौ च जयपत्रं श्रीपूज्यानां हस्त । पठितश्चाशिर्वादः श्रीपूज्यैः । श्रावकैश्च कारितं महावर्धापनकम् । तस्मिंश्च वर्धापनके श्रे० रामदेवेनात्मगृहात् पारुत्थद्रम्माः षोडश सहस्राणि व्ययीकृताः। सं० १२४० विक्रमपुर आत्मना पञ्चदशः श्रीपूज्यैर्गणियोगतपश्चक्रे । १२४१ फलिवर्धिकायां जिणनागाजित-पद्मदेव-गणदेव-यमचन्द्राणां धर्मश्री-धर्मदेव्योश्च दीक्षा दत्ता । सं० १२४२ माघसुदि १५ श्रीजिनमतोपाध्याया देवीभूताः । सं० १२४३ खेटनगरे चतुर्मासी कृता। सं० १२४४ श्रीमदणहिलपाटकनाम्नि पत्तन इष्टगोष्ठ्यां वर्तमानायां वश्यायमभयकुमारमुक्तवान् भाण्डशालिकसंभवः-'अभयकुमार! तव स्वाजन्येन तव कोटिसंख्यद्रव्याधिपत्येन तव राजमान्यतया किमस्माकं फलम् ? यत्त्वमस्मद्गुरून् श्रीउज्जयन्त-शत्रुञ्जयादितीर्थेषु यात्रां न कारयसि ?" एवं प्रोत्साहितः सन् वश्यायोऽपि 'भाण्डशालिक ! मा कांचिदनिवृतिं कृथाः, करिष्यामि सर्व भद्रम्'-इत्युक्त्वा राजकुलं गतः । तत्र च महाराजाधिराजभीमदेवं राजप्रधानं जगद्देवनामानं प्रतीहारं च विज्ञप्याजयमेरुवास्तव्यखरतरसंघयोग्यं स्वयं लेखितराजादेशं गृहीताऽऽत्मगृह आगतः । तदनन्तरं वश्यायेनात्मसमीपाकारितभाण्डशालिकसमक्षं राजादेशं खरतरसंघयोग्यं श्रीजिनपतिसूरियोग्यं स्वकीयं विज्ञप्तिकाद्वयं दत्वा प्रधानलेखवाहकः श्रीअजयमेरौ संघपार्श्व प्रेषितः। श्रीपूज्या अपि राजादेशदर्शनाद् वश्यायश्रीअभयकुमारसत्कविज्ञप्तिकाद्वयवाचनाच्च संघप्रार्थनया च श्रीअजयमेरुवास्तव्यसंघेन सह तीर्थवन्दनार्थ चलिताः । ५४. त्रिभुवनगिरौ यशोभद्राचार्यसमीपेऽनेकान्तजयपताका-न्यायावतारादिजैनतर्क-दशरूपकादिग्रन्थान् भणित्वा, श्रीपूज्यादेशात् त्रिभुवनगिरीयसंघेन सह, तर्कभणनोपष्टम्भकारकशीलसागर-सोमदेवयतिद्वयसहितौ पंव्यतिपालगणिधर्मशीलगणी तीर्थयात्रोपरि प्रस्थितानां श्रीपूज्यानां मिलिखा कथयतः स्म, यथा-'प्रभो! श्रीयशोभद्राचार्येण युष्मदादेशात् प्रस्थितानामस्माकमग्रे कथितं यथा-"यदि यूयं कथयत तदहमपि युष्माभिः सह यात्रायामागच्छामि, यथा श्रीगूर्जरत्रायां सञ्चरतां श्रीपूज्यानामग्रे स्थितः काहलिक इव व्रजामि येन कोऽपि प्रतिमल्लः संमुखमपि स्थातुं न शक्नोति ममापि च निजगुरुबहुमानं कुर्वतो लघुतरः कर्मसञ्चयो भवतीति"-अस्माभिस्तु युष्मनिरोपाभावानिषिद्धः श्रीमदाचार्यः । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'रुचिरं कुर्वीध्वं यदि तमाचार्यमानयध्वम् । भोरिदानीमपि कथमपि स आगच्छति ?' तैरुक्तम्'प्रभो! इदानीं दूरदेशे वर्तते स इति नागच्छति । तथा, यथा चतुर्दश सहस्राणि नदीप्रवाहा गङ्गाप्रवाहे मिलन्त्येवं विक्रमपुर-उच्चा-मरुकोट्ट-जेसलमेरु-फलवधिंका-ढिल्ली-वागड-माण्डव्यपुरादिनगरवास्तव्यभव्यलोकसंघा अहमहमिकया श्रीअजयमेरवीयसंघस्य मिलिताः। श्रीपूज्या अपि विद्यागुणेन तपोगुणेनाचार्यमन्त्रादिशक्त्या श्रावकलोकभक्त्या संसारविरक्त्या बृहस्पतिप्रायप्राणि(वाणी?)संसक्त्या स्थाने स्थाने प्रवचनप्रभावनां कुर्वन्तः श्रीसंघेन सह प्राप्ताश्चन्द्रावत्याम् । ५५. तत्र च संघमध्यस्थितरथप्रतिमावन्दनार्थ पञ्चदशभिः साधुभिः पञ्चभिराचार्यैश्च सह प्रामाणिकाः पूर्णिमापक्षीयाः श्रीअकलङ्कदेवसूरयः समागत्य रथप्रतिमास्नानमहोत्सवदर्शनार्थमिलितलोकमेलापकदर्शनाद् व्याघुय्य दूरदेशे वृक्षस्याधस्तात् स्थिताः । श्रीपूज्यैश्च मानुषं प्रेष्य पृच्छापितास्ते, यथा-'आचार्यमिश्राः ! केन कारणेन चैत्यवन्दनामकृत्वैव यूयं व्याघुट्य स्थिताः ?' इति । तैरपि प्रेषितमानुपस्याग्रे कथितं यथा-'येत्राचार्याः सन्ति तेऽस्माभिः सह लघुबृहत्तया व्यवहारं करिष्यन्तीति ?' । तेनाप्यागत्य पूज्यानामग्रे भणितम् । पूज्यैश्च-'करिष्यते व्यवहारः, शीघ्रमागच्छते' त्यादि भाणितं तन्मुखेन तेषामग्रे । तदनन्तरं ते समागत्य ज्येष्ठानुक्रमेण वन्दनानुवन्दनादिकं सर्व कृतवन्तः। अकलङ्कदेवसूरिभिरुक्तम्-'किं नामधेया आचार्यमिश्राः ?' पार्थस्थितेन मुनिनोक्तम्-'श्रीजिनपतिसूरिनामानः श्रीपूज्याः' । तत्पश्चात्तैरुक्तम्-'आचार्यमिश्राः ! केन कारणेनेदृशमयुक्तमात्मनाम कारितम् ?' । पूज्यैरुक्तम् -'कथं ज्ञायतेऽयुक्तमेतदिति ?' तैरुक्तम्-'व्यक्तमेव ज्ञायते; तथाहि जिनशब्देन सामान्यकेवलिन उच्यन्ते तेषां पतिस्तीर्थङ्कर एवेति Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । तीर्थङ्कर नाम्नात्मानं वादयन्तः परमेश्वराणां तीर्थङ्कराणां महतीमाशातनां कुरुध्वमिति । तस्माजिनपत्तिसूरिरिति नाम युक्तम्' । श्रीपूज्यैरुक्तम् - ' आचार्यमिश्राः ! स्यादेवं यदि युष्माकमेवैकं विवक्षितं प्रमाणीकुर्वन्ति विद्वांसः, परं तेऽग्रतः पश्चाच्च घनं विचारयन्त्यन्यथा तेषां प्रेक्षावत्ताहानिप्रसक्तेः । यौष्माकीणां चेदृशीं वाणीं दृष्ट्वा वयमेवं मन्यामहे यदुत युष्माभिर्लोकयात्रयैव केवलया... (?) ग्रन्थाभ्यासः परित्यक्तः । कथमन्यथा युष्माकं जिनपतिशब्द एवंविधा विप्रतिपत्तिरुत्पद्यते ?; यतो नहि लक्षणविद्यायामेक एव तत्पुरुषनामा समासो वर्णितः । सन्त्यन्येऽपि पञ्च समासा वर्णिताः । यदुक्तम् षट् समासा बहुव्रीहिर्द्विगुर्द्वन्द्वस्तथाऽपरः । तत्पुरुषोऽव्ययीभावः कर्मधारय इत्यमी ॥ [ ४३] तथाऽन्येनापि पण्डितेन चित्री ( 2 ) प्रकटनाय षट्समासनामनिबद्धाऽऽर्या कृतेयम् द्विगुरपि सद्वन्द्वोsहं गृहे च मे सततमव्ययीभावः । तत्पुरुष ! कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ॥ [४४] तैरुक्तम्–'ततः किम् ?' पूज्यैरुक्तम्- 'योऽर्थः काप्येकेन समासेन न घटते स तत्र द्वितीयेन घटिष्यते, अतः किमित्युत्तालीभूयायुक्तमित्युक्तम्' । तैरुक्तम्- 'कथमन्येन समासेन जिनपतिरिति नाम युष्मासु सङ्गतिमङ्गति ?" श्रीपूज्यैरुक्तम्-‘शृणुत, जिनः पतिर्यस्यासौ जिनपतिरिति बहुव्रीहिसमासे क्रियमाणे को गुणः को वा दोषो भवतीति भणत' । तैरुक्तम्–'आचार्य मिश्रा ! बहुव्रीहौ क्रियमाणे न कोऽपि दोषो भवति, स्वस्य जैनत्वख्यापनलक्षणो गुणश्च भवति । परमिदृश्या मनसि कल्पितया कष्टपिष्टिकया किमिति लोको व्यामोह्यते ; प्राञ्जलमेव जिनपत्तिसूरिरिति नाम किमिति न क्रियते ?' पूज्यैरुक्तम्-‘येषां चेतसि लक्षणविद्या सम्यक् परिस्फुरति तेषामग्रे समं विषमं वा किमपि नास्ति । यतस्तेऽपशब्दानपि प्रधानशब्दत्वेन समर्थयन्ति, किं पुनः प्रधानशब्देषु प्रयुज्यमानेषु वाच्यम् । पुनरपि तैरुक्तम्'भवखिदमेव परं संघेन सह यात्रा क्वापि सिद्धान्ते साधूनां विधेयतया भणिताऽस्ति, यदेवं यूयं प्रस्थिताः ?' पूज्यैरुक्तम्–'किमेकमुत्सूत्रभाषकं मुक्त्वाऽन्ये विद्वांसः स्तोकं धनं वा सिद्धान्तभणितमनाश्रित्य धर्मकृत्ये प्रवर्तन्ते ?' तैरुक्तम्'आचार्य ! अतिधृष्टा यूयं यदद्यापि सिद्धान्तबलमालम्बत' । पूज्यैरुक्तम्- 'ज्ञायते लग्नं केचिद्दृष्टाः केचिन्न घृष्टा इति' । तैरुक्तम्–‘किं युष्माभिरेवैकैः सिद्धान्ता दृष्टा न द्वितीयैः ?' । पूज्यैरुक्तम्- 'यदि द्वितीयैः सिद्धान्ता दृष्टा अभविष्यन् 'ते निश्चितं नैवमवदिष्यन्' । तैरुक्तम्- 'आचार्यमिश्रा ! व्रतिना सता संघेन सह तीर्थयात्रायां न गन्तव्यमित्यादीनि निषेधकवाक्यानि सिद्धान्ते किंवा वयं दर्शयामः, किंवा यूयं विधायकाक्षराणि दर्शयथ । अथवाऽस्तु दूरे सिद्धान्तः स्वकीयगुरोरेव वचांसि मा विस्मार्ट | यतस्तेनोक्तम् तदा विहिसमहिगयसुयत्थो संविग्गो विहियसुविहियविहारो । कइयाsहं बंदिस्सामि सामि तं थंभणयनयरे ॥ ३५ [४५ ] इत्यादि । पूज्यैरुक्तम्- 'आचार्य मिश्राः ! किमिति पुतप्राणेन (१) कथ्यते यद्वयं सिद्धान्ताक्षराणि दर्शयाम इति ? यतः स्वशक्तिस्तथैव स्फोर्यते, यदि सिद्धान्तेऽसन्त्यक्षराणि दर्श्यते तानि पुनर्दर्शितान्यपि न प्रमाणीक्रियते विद्वद्भिरिति निरर्थकं स्वशक्तिस्फोरणम् । यानि पुनः सिद्धान्तमध्ये सन्त्यक्षराणि तान्यन्यैरपि दृष्टानि भविष्यन्तीति न तानि दर्शयितुं स्वशक्तिस्फोरणं युक्तमिति' । तैरुक्तम्- 'युष्माकमपि सिद्धान्तभणितमाश्रित्यैव वयं संघेन सह यात्रायां प्रचलिता इति वक्तुं न युक्तम्' । पूज्यैरुक्तम्- 'इदमीदृशमेव, यदि कथमपि वयं सिद्धान्तानुसारेण युष्मान् परिच्छेदयितुं न शक्नुमः; परं युष्माभिरपि मात्सर्यमुत्सार्य सावधानीभूय च श्रोतव्यम् । यद्यस्मद्दर्शिता युक्तिः सिद्धान्तानुयायिनी भवति तदा माननीया, न मृतकमुष्टिरीत्याग्रहः कार्यः' । तैरुक्तम्- 'प्रमाणमिति' । तदनन्तरं श्री पूज्यैरुक्तम्- 'आचा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ मिश्रा ! आचार्यः स एव क्रियते येनानेके देशा दृष्टा भवन्त्यनेकदेशसम्बन्धिन्यश्च भाषा ज्ञाता भवन्तीति सिद्धान्तेऽस्ति । तैरुक्तम्-‘अस्तीति' । श्री पूज्यैरुक्तम्- 'कार्यकारणेन लघुवयसोऽपि वयमाचार्यपदे च प्रवेशिता इत्यतोsधुनाऽज्ञातदेशभाषापरिज्ञानार्थ संघेन सह प्रस्थितानामस्माकं तीर्थयात्रा यदि भवति तदा शङ्खो दुग्धैर्भृतः, कस्तूरिका कर्पूरेण वासितेत्येकमुत्तरम् ; तथा संघेन गाढतरं वयमभ्यर्थिता यदुत - प्रभो ! अनेकचार्वाकलोकसंकुलायां गूर्जरत्रायां तीर्थानि सन्ति, तानि च ज्योत्कर्तुं चलितानस्मान् दृष्ट्वा कश्चिच्चार्वाकस्तीर्थयात्रानिषेधाय प्रमाणयिष्यति, तदा सिद्धान्तरहस्यापरिज्ञानाद्वैदेशिकत्वाच्चास्माभिर्न किमप्युत्तरं दातुं शक्यते; अतो मा जिनशासने लाघवमभूदिति यूयं यथा तथाऽस्माभिः सह तीर्थवन्दनार्थमागच्छत - इत्यादिसंघाभ्यर्थनया वयमागता इति द्वितीयमुत्तरम् । तथा साधूनां नित्य कृत्यव्याघातसंभावनया सिद्धान्ते संघेन सह यात्रा निषिद्धेति । यदा नित्यकृत्यव्याघातो भवति तदा न क्रियत एव । अस्मिंश्च संघ उभयकालप्रतिक्रमणब्रह्मचर्य नियमकभक्ताद्यनेकाभिग्रहग्रहणपूर्व कतीर्थानि वन्दितुं श्रावकलोकश्चागतोऽस्तीति कथमस्माकमावश्यकादिनित्य कृत्यव्याघातसंभवः १' - इत्याद्यनेकयुक्तिप्रतिपादनप्रमोदिताः श्रीअकलङ्क - देवसूरयः प्राहु:- 'आचार्यमिश्राः ! खरतराचार्य इति शब्दश्रवणेनाप्यस्माभिर्ज्ञातमेव यदि (द्) यूयं पुष्टालम्बनमन्तरेण नैवमपवादमाश्रयतः परं किन्तु मारवो लोकोऽतिस्थूलभाषी श्रूयते, अद्य च मरुस्थलात् संघेन सहाचार्या आगताः सन्तीति श्रुतम् ; अतोऽम्याचार्याः कथं कथं भाषन्त इति द्रष्टुं कौतुकादागत्यास्माभिर्यूयमालपिता न विरूपा - भिप्रायेणेति यदनुचितमुक्तं तत्क्षन्तव्यम्' । पूज्यैरुक्तम् -' आचार्यमिश्रा ! इष्टगोष्ट्यामपि यदपि तदपि वक्तुमायाति, किं पुनर्वादावस्थायाम् ; अतो युष्मानुद्दिश्यास्माभिरपि यत्किञ्चिदनुचितमाचरितं तत्क्षन्तव्यमिति । तदनन्तरं तैरुक्तम्- 'आचार्यमिश्राः ! अधेह युष्माकं ब्रुवतां रीतिं पश्यतामस्माकं चित्ताद् यदेतदस्मिन् देशे श्रूयते - खरतराणामाचार्यो वादलब्धिसम्पन्नः - इति तत्किं सत्यं किंवाऽलीकमित्येवंरूपः सन्देहोऽपगतः । यतो नहि निर्मूला प्रसिद्धिर्भवति । तथाऽऽचार्य मिश्राः ! साधूनां विहरणस्यातिकालो भवत्यतो मुत्कलयामः' इति । पूज्यैरुक्तम्- 'अद्यास्माकं प्राघुणका न भविष्यथ ?' हर्षात्तैरुक्तम्- 'प्राघुर्णकास्त एवोच्यन्ते ये देशान्तरादागता भवन्ति, वयं चात्रत्या एवेति कथं युष्माकं प्राघुर्णका भवामः, यूयं पुनरस्माकं प्राघुर्णका भवन्त्विति' । पूज्यैरुक्तम् -' युक्तमेवैतद्' इत्यादिकां प्रीतिवार्तां कृत्वा हर्षितचित्ता गतास्ते निजोपाश्रयम् । खरतरगच्छालंकार ५६. द्वितीये च दिने तत्रत्यैः श्रावकैः श्रीपूज्यानामग्रे द्वादशावर्त्तवन्दनकं दातुं समागत्य श्रीपूज्या विज्ञप्ता यथा- 'भगवन्तो ! वन्दनकं दापयतेति' । श्रीपूज्यैर्मुद्रां धृत्वा 'यथासमाधी' त्युक्तम् । तदनन्तरं ते श्रीजिनवल्लभसूरिदशिंतमार्गागतविधिना वन्दनकं दातुं प्रवृत्ताः । हर्षवशाच्छ्रीपूज्यैरुक्तम्- 'भो भो महासत्त्वा ! गूर्जरत्रायामष्टपुटया मुखवस्त्रिकया वन्दनकं दीयते, युष्माभिः किमिति चतुष्टया दत्तम् ?' । तैरुक्तम्- 'भगवन्तो ! वयं श्री अभयदेवसूरिभिरेवं शिक्षिताः' - इत्यादिकां पूर्वजवार्तां श्रुखा कासहदे विहृताः संघेन सह । तत्रापि चैत्यवन्दनार्थं महाप्रामाणिक : पौर्णमासिकः प्रभूतसाधुपरिकलितः श्रीतिलकप्रभसूरिः समाजगाम संघमध्ये । तत्र च सुखवार्ताप्रश्नपूर्वकं स्वगुरुपादपद्मसेवाहेवोच्छलितकीर्तिपयःपूरवेलेहितक्षीरं परिहितप्रधानपट्टहीरं स्वर्णाभरणालङ्कृतमनसिजसदृशशरीरं माण्डव्यपुरीययवहरकलक्ष्मीधरश्रावकमङ्गुल्या दर्शयता तेन श्रीपूज्याः पृष्टाः - 'किमेते संघपतयः ?' इति । श्रीपूज्यैरुक्तम्- 'आचार्य ! श्राकमात्रस्य संघपतिरिति नाम दातुं न युक्तम्' । तेनोक्तम्- 'भाषा तावदेवंविधा श्रूयते । पूज्यैः सोपहासमुक्तम्'ग्रामीणजनसुलभां भापामाश्रित्योत्तरं दास्यसि ?' तेनोक्तम्- 'किं त्वमपि लोकप्रसिद्धां भाषां वचनमात्रेण त्याजयसि ?' पूज्यैरुक्तम्- 'बहुला लोकप्रसिद्धा भाषा अवगतवाक्य शुद्धिनामाध्ययनार्थैः साधुभिः परिह्रियन्ते । तथाऽऽचार्य ! नास्माकं लोकेषु कोsपि मत्सरोऽस्ति, येन तेषां भाषामप्रमाणीकुर्मः; किं तर्हि व्रतिना सता तथैव भाषया भाष्यं यया भाष्यमाणया मान्यानां लाघवं न भवति' । तेनोक्तम् - किमनया भाषया लाघवं किञ्चिद्भवति ?' पूज्यैरुक्तम्- 'सर्वो Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । ऽपि कोऽपि जानात्येतत्' । तेनोक्तम्-'कथम् ?' पूज्यैरुक्तम्-'आचार्य! संघशब्देन श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविकारूपलोकसमुदायो भण्यते । यदुक्तम्-'साहण साहुणीण य सावय-सावियचउव्विहो संघो'-इत्यादि । तस्य च पतिस्तीर्थकर एवाऽऽचार्यो वा' । तेनोक्तम्-'केवलश्रावकमेलकेऽपि संघशब्दः प्रयुज्यमानो दृश्यते' । पूज्यैरुक्तम्-'कारणे कार्योपचाराद् दृश्यते यथा घृतमायुरित्यादि; परसुपचारबलेन यस्मिंस्तस्मिन् क्रियमाणे प्रयोगे मिथ्यादृष्टिलोकमध्ये कदाचिदुपहासो भवति, यदेष गृहस्थखात्तस्य श्रावकस्य किमपि कुत्सितं दृष्ट्वोपहासपरतया वक्ष्यतियदहो ! जैनानामयमादिरि(मधिपतिः?) यदेतस्मादधोवर्तिनोऽन्ये सर्वेऽपि जैनाः, अस्य चायं प्रक्षाल(?) इति । तथाऽऽचार्य ! परत उपचारं मुञ्चाहमन्यथापि संघपतिशब्दं श्रावके वर्तमानं दर्शयिष्यामि' । तेनोक्तम्-'कथम् ?' पूज्यैरुक्तम्- 'बहुव्रीहिसमासाश्रयणेन, यथा-संघः पतिर्यस्यासौ संघपतिः श्रावकमात्रः। तेनोक्तम्-'ननु मया महद्धि के श्रावके संघपतिशब्दः प्रयुक्तः' । पूज्यैरुक्तम्-'भ्रान्तिवशात् प्रयुज्यन्त एवान्यत्रापि शब्दाः' इत्येवमादिना प्रकारेण प्रपञ्चेनानेकसिद्धान्तयुक्तिप्रकाशनेन श्रावके प्रयुज्यमानतया संघपतिशब्दे निषिद्ध विलक्षीभूतः श्रीतिलकप्रभसूरिः । पुनरप्यालपितः सुखवार्ताप्रच्छनेन श्रीपूज्यैर्यथा-'साम्प्रतं यूयमत्रैव स्थाष्णवः?' इति । तेनापि सोपहासमुक्तम्-'आचार्य! अत्रैवेति त्रुवता भवताऽहो ! स्वस्य वाक्यशुद्धिनामाध्ययनार्थनैपुण्यं प्रकाशितम्' । यतस्तत्र तहेव सावजणुमोइणी गिरा ओहारिणी जाउ परोवघाइणी' इत्यादिना ग्रन्धेन कृताऽवधारिणीं वाणी न ब्रूयान्मुनिरित्युक्तम् । भवांश्चात्रैवेति सावधारणं भाषत इति' । सरलाशयैः श्रीपूज्यैरुक्तम्-'आचार्य ! अतीव शोभना नोदना दत्ता, यतः सावधारणं वाक्यमुक्तं सत् कदाचिद् व्यभिचरत्यतो मुनिरलीकभाषी स्यात् , तथा च व्रतभङ्ग इति; परं तिलकप्रभसूरे ! भवता ममाभिप्रायो नावबुद्धोऽतः स्वाभिप्रायस्तर्कभाषया प्रकाशिष्यते । तथाऽऽचार्य ! तर्कम्य भणितस्यैतदेव फलं यन्निरभिनिवेशीभूय स्वकीयं वाक्यं यादृशं तादृशं वा यथा तथा समर्थ्यते । अद्य च काकतालीयन्यायेनाऽऽवयोगङ्गा-यमुनाप्रवाहयोरिव प्रियमेलकः संजातः, ततो यद्यभिनिवेशं मुक्त्वा तकरीत्येष्टगोष्ठी क्रियते तदा सफली भवति' । तेनाप्युक्तम्-'प्रमाणमिति' । तदनन्तरं श्रीपूज्यैरुक्तम्-'आचार्य ! साधुः सावधारणं वचनं न ब्रूयादेव किंवा कदाचिद् ब्रूयादपि? तेनोक्तम्-'कस्मिन् किं किं ? आये पक्षे स्ववचनव्याघातः। अइयम्मि य कालम्मि य पच्चुप्पन्नमणागए। निस्संकिय भवे जंतु एवमेयं तु निद्दिसे ॥ इत्यादिसिद्धान्तविरोधश्च । द्वितीये च पक्षे न वयमुपालभ्याः, भवदभ्युपगमानुसारेणास्माभिरुक्तखात् । तथाऽऽचार्य ! यस्मिन् वाक्येऽवधारणं साक्षान्न दृश्यते तत्र स्वयमवश्यमूहनीयम्-'सर्व वाक्यं सावधारणं'- इति न्यायाद् , अन्यथा व्यवस्था क्वापि न स्यात् । पटमानयेत्युक्ते यदपि तदप्यानयेन्नयेद् । अपि च, तथा-अर्हन् देवः, सुसाधुगुरुरित्यादिवाक्येष्वपि अर्हन्नेव देवः परमपदावाप्त्या, अर्हन् देव एव नाऽदेवः, तथा सुसाधुर्गुरुरेव परमपदपथदर्शकत्वेनाश्रित इत्यादयोऽपि नियमा न स्युः। तथा सैद्धान्तिकान्यपि वाक्यानि सावधारणानि सन्ति मनोहराणि भवन्ति,यथा"धम्मो मंगलमुक्किटं" इत्यादि धर्म एव मङ्गलमुत्कृष्टं न दधिदुग्धादि धर्मो मङ्गलमेव नामङ्गलरूपः; धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टमेव न दधिर्वादिसमानमिति'। तेनोक्तम्-'आचार्य ! अयोगव्यवच्छेदार्थ वाऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थ वाऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदार्थ वैवकारः प्रयुज्यते विचक्षणैः । अत्र च प्रयुक्तेनामुनवकारेण किं व्यवच्छिद्यते ?, न तावदयोगस्तव्यवच्छेदाय च विशेषणात् पुरः पठित एव समर्थः स्यात् , अत्र च विशेषणस्यैवाभावात् ; नाप्यन्ययोगो वा, तस्य चास्माकमुद्यतविहारित्वेन स्थानान्तरयोगं निषेधुमशक्यत्वात् ; नाप्यत्यन्तायोगः, क्रियया समं पठित एव शब्दस्तदुच्छेदाय प्रभुस्तस्याश्चात्राभावात् । तस्माद्विचारासहत्वादयुक्त एवायमेवशब्द इति' । श्रीपूज्यैः Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार सावष्टम्भमुक्तम्–‘भवेदयुक्तमेवायं यदि वयं कथमपि समर्थयितुं न शक्नुमः परमत्रानेका युक्तयो दर्शिताः, पुनरपि भवत्प्रश्नोत्तरदानपूर्वकमनेका युक्तीदर्शयामः । प्रतिपाद्यस्य सति सन्देहे विप्रतिपत्तौ वा तदपनोदार्थमवधारणं प्रयुज्यते विचक्षणैः । तथा हि-एके युक्तिबलेन समर्थयन्त्यस्त्यात्मेति; अपरेऽपि युक्तिबलेन कथयन्ति नास्त्यात्मेति; स्वयं च प्रत्यक्षेण नोपलभ्यते तस्मात् किमस्ति नास्ति चाऽऽत्मेति संशयानं शिष्यं प्रति तथा यद्वस्तुनः सकाशातत्वान्यत्वाभ्यामवाच्यं तदवस्तु, यथा व्योमकमलम्, तथा च सुखादिकम् । अथाऽऽत्मनः सुखादिकं भिन्नाभिन्नमित्यसिद्धताहेतोर्यतोऽभेदे क्रियाविरोधो नित्यस्यैकरूपस्य क्रियाया असंभवात्; भेदपक्षे तु ये क्रमभाविनो न ते पराभिमतात्मसमवायिनो यथा बीजाङ्कुरादयस्तथा च सुखादयः - इत्यादिना प्रकारेण नास्त्यात्मेति विप्रतिपद्यमानं च शिष्यं प्रति सावधारणं वाक्यमुच्यते । यथा - अस्त्येवाऽऽत्मा प्रतिप्राणिस्वसंवेदनप्रमाणप्रसिद्धचैतन्यान्यथाऽनुपपत्तेरिति । स चावधारणरूप एवशब्दः कस्मिंश्चित्स्थानके प्रयुक्तः किमपि व्यवच्छिनत्ति । अस्मत्प्रयुक्तस्त्वयमयोगान्ययोगात्यन्तयोगांस्त्रीनपि व्यवच्छिनत्ति । तथा हि-साम्प्रतं यूयमत्रैव स्थाष्णव इत्यस्माभिरुक्तं तत्र सप्तम्यन्तैतच्छब्देनात्रेतिरूपेण मासकल्पादियोग्येतरक्षेत्रेभ्यः सकाशादस्य क्षेत्रस्य किमपि व्यवच्छिद्यते च नवा ? | यदि न व्यवच्छिद्यते तदाऽस्य प्रयोगो निरर्थक एव । अथ किंचिद् व्यवच्छिद्यते तदैतद्विशेषणं सञ्जातम्, प्रकरणवलाच्च विशेष्यं नगरमायातम् । विशेषणाच्च पुरः पठित एवशब्दो वर्तमानकालापेक्षयैतेन नगरेण सदा युष्मद्योगं व्यवस्थापयति, तस्मिंश्च व्यवस्थापिते, वर्त्तमानकालापेक्षयैवाऽन्येन नगरादिना योगं स्वयमेवकारो व्यवच्छिनत्ति । तथैवात्यन्तायोगमपीत्यनेनाभिप्रायेण साम्प्रतमित्युक्तम् । तस्माद्युक्तमेवायमेवकारः । ३८ " अ: कामचारे" तद्विषय एव शब्दे परेऽवर्णस्य लोपो भवति, यथा-इहेव तिष्ठान्यत्रेव वा तिष्ठेत्यादि । नियोगे तु, इहैव तिष्ठ मा यासीः क्वापीति' । पूज्यैर्विहस्योक्तम्- ' तत्किमस्मन्नियोगादेतावता परिवारेण सह भवानत्र स्थितः ?" तेनोक्तम्–'तर्हि अत्रैवेत्यपप्रयोगः' । पूज्यैरुक्तम्- 'प्रयोगार्थापरिज्ञानेऽपशब्दत्वं नोद्भावनीयम्' । तेनोक्तम्–'वचनमात्रेण मय्यज्ञानता नाऽऽरोपणीया' । पूज्यैरुक्तम्- 'एवमेतत्' । तेनोक्तम्- 'तर्हि भण्यतामयमेवशब्दः कस्मिन्नर्थे पूज्यैरुक्तम्- 'अनेकेष्वर्थेषु भविष्यति, परं प्रथममेकस्मिन्नर्थे भण्यते, लग्नं तं सावधानीभूय शृणु-यथा वचनमेव वचनमात्रमित्यादिषु प्रयोगेषु स्वार्थे एवशब्दः, एवमत्रापीति । अथवाऽयमर्थः यथा अपि संभावनायां प्रयुज्यते, एवमयमप्येवशब्दः संभावनायां प्रयुज्यते विद्वद्भिर्यथा - 'वपुरेव तदाचष्टे भगवन् ! वीतरागता' मित्यादि श्रीहरिभद्रसूरिवाक्येषु । यत्र तत्रैव गत्वाऽहं भरिष्ये स्वोदरं बुधाः । मां विना यूयमत्रैव भविष्यथ तृणोपमाः ।। [ ४७ ] इत्यादिषु वेति चेति युक्त एवायमेवकारः । तथा पृच्छाकाले हि प्रच्छकः सावधारणं वा ब्रूयान्निवधारणं वा ब्रूयान्न तस्य वचनं विचारमर्हतीति लोकस्थितिर्यतोऽसावजानान एव पृच्छति । यस्त्वन्यदा वक्ति तस्य वचने व्यभिचारित्वादिदोषोद्भावनेन स्वशक्त्यनुसारेण कदर्थ्यते, यथा तस्य महती शोभा भवतीत्यादि विदग्धजनरीतिं विस्मारयता भवता स्वकीयं पाण्डित्यं प्रकाशितम्' इत्यादिवचनसन्दर्भेणात्मप्रयुक्तैवकारविषये उत्तराणि शतं श्रीजिनपतिसूरिमुखाम्भोजात् श्रुत्वाऽतिप्रमुदितमनसा तिलकप्रभसूरिणोक्तम्- ' आचार्य ! सकलायामपि गुर्जरत्रायां त्वं सिंह इव निःशङ्कः सन् विचरेर्न कोऽपि तव सम्मुखं प्रतिमल्लतया स्थास्यति, येन त्वया ममाप्यग्र एवं विजृम्भितमिति' । श्रीपूज्य पार्श्वस्थितेन मुनिना शकुनग्रन्थिर्वद्धः । अभूतपूर्वस्वोचितपण्डितगोष्ठीसमुद्भूतहर्षप्रकर्षात्तिलकप्रभसूरिः श्रीपूज्यान् प्रशंसन् स्वोपाश्रयं गतः । ५७. तत्पश्चात् संघः श्रीआशापल्लयां जगाम । तत्र च साधुक्षेमन्धरः स्वपुत्रप्रद्युम्नाचार्यवन्दनार्थ वादिदेवाचार्य सत्कपौषधशालायां गतः । तेनापि च वन्दनाऽनन्तरं सादरमालपितः कुशलवार्तापृच्छनेन सः । तथा - 'साधो ! केन कार Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। णेन पितृपर्यागतं वादलब्धिलब्धजगज्जयपताकश्रीदेवाचार्यप्रदर्शितमार्ग मुक्त्वा यस्मिन् तस्मिन् कुमते लग्नः ? क्षेमन्धरेणोक्तम्-'मस्तकेन वन्दे, स्वाभिप्रायेणाहमेवं जाने यन्मया रुचिरं कृतं यत्खरतरमार्गे सर्वविद्यापारगतः सिद्धान्तानुवर्ती नव्यः श्रीजिनपतिसूरिगुरुत्वेनादृतः' । अमर्षवशादाचार्येणोक्तम्-'साधो! यन्मरुस्थलीमध्ये जडलोकं प्राप्य सर्वज्ञायितमनेन भवद्गुरुणा, तदुचितमस्य, यतो निक्षे देशे एरण्डोऽपि कल्पवृक्षायते; परं युष्मादृशां परमगुरुश्रीदेवरिवचनामृतभृतकर्णयुगलीकुल्यासंसिक्तहृदयक्षेत्रोद्गतविवेकाङ्कुराणां जिनप्रवचनप्रतिकूलप्रतिपादनप्रवीणविप्रतारकलोकवाक्यहिममहिम्नां यदन्यथाभावो जनितस्तनास्माकं मनो दूयतेतराम् । परं यदद्यापि यूयमस्माकं मिलितास्तनातिशोभनं सञ्जातम्' । सा० क्षेमन्धरेणोक्तम्-'आचार्य ! मम गुरुर्मरुस्थली मुक्त्वा गूर्जरत्रामध्ये भवतः समीपे ढक्कायां वाद्यमानायामागतोऽस्ति; परं ज्ञायते लग्नं यदि वं कथमपि संमुखो भवसि । विलक्षहास्यकरणपूर्वकमाचार्यणोक्तम्-‘साधो ! वेगं कृत्वा स्वगुरुं प्रगुणय स्वप्ररूपितस्थापनायेति' । सा० क्षेमन्धरोऽपि निजपुत्रप्रद्युम्नाचार्यप्रतिबोधनार्थाभिप्रायेण समीपमागत्य श्रीपूज्या विज्ञप्ताः, यथा-'भगवन्तो ! मम पुत्र प्रद्युम्नाचार्यमायतनानायतनविचारकरणपूर्वकं प्रतिबोध्य स्खशिष्यीकुरुतेति । अहमिदानी वन्दनार्थ तत्पार्श्व गतोऽभूवम् । सोऽपि च वादाभिमुख इव मया लक्षित इति' । पूज्यैरुक्तम्-'साधो! प्रमाणमिति'। संघमध्यस्थितभाण्डशालिकसंभववाहित्रिकोद्धरणप्रमुखप्रधानपुरुषैश्च परस्परं विचार्योक्तम्-'येन मुख्येन प्रयोजनेनागता यूयं प्रथमं तत् कुरुत, पश्चाद्वादविवादादिकं कुर्यात्' । सा० क्षेमन्धरेणोक्तमेवं भवतु । पूज्यैरुक्तमेवमपि प्रमाणमिति । सा० क्षेमन्धरेण प्रद्युम्नाचार्यसमीपे गखा भणितम्-'आचार्य ! इदानीं संघस्तीर्थवन्दनार्थमुत्कण्ठावशादुत्तालो ब्रजति, वलन्तश्च श्रीमन्तो भट्टारका भवता सममायतनानायतनविचारं करिष्यन्ति' । तेनोक्तम्-'भवतु, परमितः स्थानाद् बहिर्न गन्तव्यमिति'। तदनन्तरं सर्वोऽपि संघो महाविस्तरेण स्तम्भनकोजयन्तादितीर्थेषु महाद्रव्यस्तवेन महाभावस्तवेन तीर्थानि वन्दितवान् पूजितवानिति । शत्रुञ्जये च मार्गासौख्यादिकारणानगतः। ५८. ततो व्याघुट्यागच्छति संघे कौतुकवशात् केचिदने भूखाऽऽशापल्लीमध्ये आगताः श्रीपूज्यपादभक्तश्रावकाः, उपविष्टाश्च वाणिजकस्यैकस्य हट्टे । वाणिजकेनापि पृष्टाश्च ते-'संघमध्य आचार्यः कोऽप्यस्तीति?' तैरुक्तमस्तीति । तेनोक्तम्-'भविष्यन्ति धना आचार्याः, परं प्रद्युम्नाचार्यसदृशो भरतक्षेत्रमध्ये कोऽपि नास्तीति' । उपहासवशात्तैरप्युक्तम्-'श्रेष्ठिन् ! सत्यमेतदुक्तम्, यथा सर्वथा भवतापि सदृशः संसारे कोऽपि नास्ति, किं पुनराचार्येण सदृश इति । ये च प्रद्युम्नाचार्यात् सर्वगुणैः समधिकास्ते कथं तेन सदृशा इति कथ्यते' । तथा प्रद्युम्नाचार्यभक्ताभयडदण्डनायकेन सर्वलोकसहितेन संघसंमुखमागत्य महाविस्तरेण प्रवेशः कारितः, श्रीपूज्यानां च धवलगृहप्राय आवासो वासकृते दर्शितः। पूज्याश्च सपरिवारास्तत्र स्थिताः । सा० क्षेमन्धरः पुनरपि श्रीपूज्यानुज्ञया प्रद्युम्नाचार्यवन्दनार्थ तदुपाश्रये गतः । तेनापि सबहुमानमालप्य तीर्थवन्दनवार्तापच्छनावसाने च भणितो यथा-'साधो ! किं तत् स्वकीयं वचो विस्मारितम् ?' क्षेमन्धरेणोक्तम्-'मस्तकेन वन्दे, कथं विस्मार्यते स्ववचः ?, यदाहमनेनैव प्रयोजनेनावागतः । तेनाऽऽत्मसांसारिकप्रतिबोधनाभिप्रायोच्छलदौत्सुक्यादुक्तम्-'तर्हि किमिति विलम्बः क्रियते ?' क्षेमन्धरेणोक्तम्'मस्तकेन वन्दे, उत्तिष्ठेदानीमपि ।' ततोऽसौ जिनपतिसूरिसमीपे समागतः, तत्र च ज्येष्ठानुक्रमेण वन्दनानुवन्दनादिव्यवहारः संवृत्तः । श्रीपूज्यैरित्थमालापितः सः-'आचार्य ! के के ग्रन्था दृष्टाः सन्ति ?' नवावस्थाप्रभावोच्छलदहंभावतरलितेन तेनोक्तम्-'वर्तमानकालवर्तिनः सर्वेऽपि' । श्रीपूज्यैश्च-यदि वयं प्रथममेवास्य वचने दोषानुद्भावयिष्यामस्तदैप आकुलव्याकुलीभूतः सन् किमपि वक्ष्यति ततोऽस्य शास्त्रपरिज्ञानादिस्वरूपं न ज्ञास्यत-इत्यादि विमृश्योक्तम्'तथापि नामभिः कांश्चिद्भण' । तेनोक्तम् -'हैमव्याकरणप्रभृतीनि लक्षणशास्त्राणि, माघकाव्यादिमहाकाव्यानि, कादम्बर्यादिकथाः, मुरारिमुख्यानि नाटकानि, जयदेवादिछन्दांसि, कन्दली-किरणावल्यमयदेवन्यायप्रमुखास्तर्काः, काव्य Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार प्रकाशप्रमुखा अलङ्काराः, सिद्धान्ताश्च सर्वेऽपि' । श्रीपूज्यश्च-'अहो! अनेन घनं गल्लो वादितः। किमस्यैतावन्मानं शास्त्रपरिज्ञानमस्ति वा नवेत्युपलक्षयामः' इति हृदये विचार्योक्तम्-'आचार्य ! लक्षणायाः किं स्वरूपं कति भेदाः ?' इत्यादि । तस्मिंश्च सर्वेऽपि काव्यप्रकाशानुसारेण ब्रुवाणे-'यदि वयमिदानीमेव निषेधनाभिप्रायेण गाढं भणिष्यामस्तदाऽसावत्रैव स्थास्यति, न करिष्यत्यायतनानायतनविचारम् , तस्मादसावद्यास्खलितग्रसरः सन् वदतु; यद्वा परामहङ्कारकोटिं रोहती'त्यादि विमृश्य श्रीपूज्यन किमपि तादृशं वचनं भणितं येन स दूयते । ततस्तेन बह्वीं गलगर्जि कृता भणितम्-'आचार्य! अनायतनं कस्य सिद्धान्तस्य मध्ये कथितमस्ति, यदेवं भवान् वराकान् लोकान् विप्रतारयतीति ?' श्रीपूज्यैरुक्तम्-'दशवैकालिकौघनियुक्ति-पञ्चकल्प - व्यवहारादिसिद्धान्तमध्ये कथितमस्तीति' । तेनोक्तम्-'आचार्य ! गाढतराभ्यासवशादोघनियुक्तिः सकलाऽपि स्वनामसदृशी मम भूताऽस्ति, परं तन्मध्येऽनायतनं क्वापि भणितं नास्ति' । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'आचार्य ! दूरे सन्वन्ये सिद्धान्ता यदि कथमपि वयमोघनियुक्त्यक्षरैः कृत्वा देवगृहं जिनप्रतिमा वाऽनायतनं भवतीति भवन्तं मानयामस्तदा वयं जयामः । तेनोक्तम्-'प्रमाणं परमिदानीमुत्सूरं बभूव, प्रभाते वार्ता । पूज्यैरुक्तम्-‘एवं भवतु । स च सा० क्षेमन्धरदत्तहस्तः स्वपौषधशालायां जगाम । तत्र च श्रीपूज्यपादस्थित गृहोपरि बद्धं पट्टमुद्दिश्य सा० क्षेमन्धरे शृण्वति सा० रासलपित्रा सा० धणेश्वरेणोक्तम्-प्रातस्थिते पादबद्धस्य चीरकटकस्य प्रमाणम्' । प्रोच्छलितकोपारक्तनेत्रेण सा० क्षेमन्धरेणोक्तम्-'अरे लम्पक ! बदीयस्य बृहत्तरस्यापि मानोऽस्ति श्रीपूज्यपादस्थितं चीरकटकम् । प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'साधो ! कीदृशेन कारणेनात्मनोऽपि मध्ये कलहः क्रियते।। प्रातः सर्वमपि भद्रं भविष्यति । सर्वेषामपि मानानि प्रमाणानि ज्ञास्यते' । तदनन्तरं सा० क्षेमन्धरो वन्दिखा श्रीपूज्यान्त आगतः। तत्र च यदपसरति मेषः कारणं तत् प्रहर्तु, मृगपतिरपि कोपात् संकुचत्युत्पतिष्णुः। हृदयनिहितवैरा गूढमन्त्रोपचाराः, किमपि विगणयन्तो बुद्धिमन्तः सहन्ते ॥ [४८] इत्यादिधीरपुरुषसमाचारमजानानाः साधवः श्रावकाश्च । श्रीपूज्यानामग्रे भणति-'मस्तकेन वन्दे । स्वकपोलावलीमास्फाल्य तेनोक्तम्-'युष्माभिः किमिति किमपि न भणितम् ?' पूज्यैरुक्तम्-'भो ! स्थिरीभव, न टेकेनैव स्वमेन रात्रिविभास्यति' । प्रद्युम्नाचार्येण चाकारितस्वपक्षानुयायिप्रभूताचार्यपण्डितैः सह जाज्वल्यमानेषु प्रदीपेषु सकलामपि रजनीमोघनियुक्तिसूत्रवृत्तिपुस्तकानि वाचितानि परमनायतनस्वरूपप्रतिपादकं स्थानकं न लब्धम् । पश्चात्यूज्यानां पार्श्वे मानुषं प्रेषितम् । पूज्यश्च तदीयपृच्छानुसारेणोद्देशः कथितः । तैरपि पूज्योपदिष्टमुद्देशं गवेषयद्भिर्लब्धं स्थानकम् । अनायतनप्रतिपादकगाथासम्बद्धवृत्त्यक्षराण्यन्यगाथावृत्यक्षरैः सह संयोज्य तेन चिन्तितानि । प्रातःक्षणे च सहस्रसंख्यलोकानुगम्यमानमार्गः, अभयडदण्डनायकदत्तहस्तकः समाहूतदेशान्तरीयानेकाचार्यपरिकरितः प्रद्युम्नाचार्यः समाजगाम श्रीपूज्यालङ्कृत आवासे । अधस्तनभूमिकायां च क्षुद्रत्वेन शीघ्रमुपविष्टाः सर्वेऽप्याचार्याः । श्रीपूज्या अप्युपरितनभूमिकातः स्वपरिवारेण सह तत्राययुः । वैयावृत्त्यकरेण जिनागरगणिना तत्र तेषां तादृशं कपटमालोक्य श्रीपूज्या विज्ञप्ता:-'प्रभो! कनिषद्यां ददे पूज्यैरुक्तम्-'अन्यत्किमप्युपवेशनस्थानकं न दृश्यतेऽतोऽत्रैव देहि । तेनोक्तम'प्रभो ! संमुखा योगिनी भविष्यति' । 'भवतु श्रीजिनदत्तमूरिभलिष्यति, त्वं देहि निषद्यामत्रैवेति' । तदनन्तरं श्रीपूज्यास्तत्रोपविष्टाः । सा० क्षेमन्धर-वाहित्रिकोद्धरणाभ्यां हस्तौ योजयित्वा श्री ज्या विज्ञप्ताः, यथा-'प्रभो ! ईदृङ्मेलापको घनेभ्यो दिनेभ्योऽद्य संजातोऽस्माभिदृष्टः, अतो यदि गीर्वाणभाषया यूयं ब्रूत तदाऽस्मत्कर्णयोः सुखं भवति' । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'न किमप्येतद्विरूपमस्ति, परं परतः प्रद्युम्नाचार्याणामग्रे कथयत । तदनन्तरं ताभ्यां प्रद्युम्नाचार्य वन्दिखा भणितम्-'मस्तकेन वन्दे, किल लोकमध्य एवं श्रूयते यदुत देवाः सर्वदेव संस्कृतभाषया परस्परं भाषन्ते परं ते न दृश्यन्ते; अतोऽस्माकं महत् कुतूहलमस्तीति यदि यूयमस्मासु महान्तमनुग्रहं कृत्वा संस्कृतभाषया ब्रूत, तदा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। ११ ऽस्माकं देवदर्शनेच्छा पूर्यते; यतो युवाभ्यां द्वाभ्यामपि रूपेण देवा निर्जिताः। विहस्य प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'अहो श्राद्धाः किं यूयं संस्कृतभाषामध्ये परिच्छिन्त !" ताभ्यामुक्तम्-'मस्तकेन वन्दे, यद् यूयं भणथ तत् सत्यमेव । यतो मरुस्थलोत्पन्ना बदरस्य धृन्तमधस्तादुपरिष्टाद्वा भवतीत्यपि न जानन्ति । परं तथापि, भट्टारकाः ! क य क्क वयम् , पुनरद्यास्मद्भाग्याद् युष्माकं सर्वेषामपि संयोगो बभूवेति, यदि कथमप्यस्मत्कर्णयोः सुखं जनयत तदाऽतिसमाधानं भवति; यतः क्व पुनरपीदृशः संयोगः संभाव्यते'-इत्यादिः श्रावकोपरोधात् प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्'प्रमाणमिति' । तदनन्तरं श्रीपूज्यैस्तत्समीपे खटिका-संपूटिके दृष्ट्वोक्तम्-'केनाभिप्रायेणैष खटिकाखण्ड आनीतः ?' प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'कदाचित् संस्कृतभाषया ब्रुवता कश्चिदपशब्दः पतति, तस्य साधनकृते' । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'यो हि मुखोपरि शब्दं साधयितुमसमर्थस्तस्य संस्कृतभाषया वक्तुं कोऽधिकारः ?, तस्मात् परतः क्षिप्यताम् । तथैषा संपुटी किमर्थमानीता ?' प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'पतिष्यदपशब्दलेखनार्थम् । श्रीपूज्यैरास्फाल्योक्तम्-'यो हि पतितानपशब्दानात्महृदयेऽवधारितुं न शक्नोति तस्य वादादिषु का जिगीषा?,तस्मात् संपुट्यपि परतः क्रियताम्'-इत्याक्षिप्य परतः कारिते खटिका-संपुटिके। तत्र च तर्करीत्याऽनायतनस्थापन-निषेधनार्थ संस्कृतभाषया तयोर्बुवतोभरतेश्वर-बाहुबल्योरिव महासंरम्भेण वाग्युद्धं संजातम् । तत्र च यादृशं किमपि प्रद्युम्नाचार्येणोक्तं तादृशं सर्वमपि कुतूहलिना प्रद्युम्नाचार्यकृतवादस्थलेषु द्रष्टव्यम् । यथा श्रीजिनपतिसूरिभिः प्रद्युम्नाचार्यवचनानि निराकृत्य सर्वलोकसमक्षं खरतरमार्गः स्थापितस्तथा प्रद्युम्नाचार्यकृतवादस्थलोपरि श्रीजिनपतिसूरिकृतवादस्थलानि द्रष्टव्यानि । यथा महान् प्रमोदो भवति । अत्र च गौरवभिया न लिखितानि । यतः श्रावकोपरोधादित्थमेता वार्ता लिख्यन्ते, अतः श्रावकोपयोगिन्य एव वार्ता लेख्याः; वादस्थले लिखिते त्वेता वार्ता अपि दुर्ग्राह्याः स्युरिति । तथापि किंचिदुच्यते । प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'यत्र देवगृहादौ साक्षात् साधवो वसन्ति तद् भवत्वनायतनम् , यत्र तु बहिःस्थितैरेव सारा क्रियते तत्र का वातेति । श्रीपूज्यैः सोपहासमुक्तम् , यथा-'आचार्य ! साराशब्दं प्रयुखानेन भवता वर्तमानकालवर्तिशास्त्रपरिज्ञानता स्वकीया प्रकाशिता'। तेनोक्तम्-'कि साराशब्दो नास्ति ?' पूज्यैरुक्तम्-'नास्त्येव । तेनोक्तम्-'सर्वलोकप्रसिद्ध शब्दं वचनमात्रेणाचार्य ! माऽपलापी' । पूज्यैरुक्तम्-'को लोकः ?किं हलधर-गोपालादिस्तवाभिप्रेतः ?, किं वा लक्षणादिविद्यापारदृश्वा पण्डितगणः । यद्याद्यपक्षस्तदा गीर्वाणभाषान्तराले हलधरादिभाषां बुवाणस्त्वमात्मानं पण्डितसभामध्ये लघु करोषि; अथ द्वितीयः पक्षस्तहि कञ्चित्पण्डितं साक्षिण कुरु; अथवा क्यापि केनापि पण्डितेन प्रयुक्तं दर्शयेति। आकुलव्याकुलीभूतेन तेनोक्तम्-'सारणवारणेत्यादि । श्रीपूज्यैः सोपहासमुक्तम्-'अहो ! वर्तमानकालशास्त्रदर्शिता'-इत्यादि । तदनन्तरं विलक्षीभूतेन तेनोक्तम्-'सिद्धान्तानुयायिनि विचारे प्रारब्धे कीदृशीयं शब्दापशब्दचिन्ता ?, प्रस्तुत एव सिद्धान्तः किमिति न वाच्यते ?' पूज्यैरुक्तम्-‘एवं क्रियताम् । तेन च मण्डिता स्थापनिका धृता च तदुपर्योपनियुक्तिसूत्रवृत्तिपुस्तकसत्कसर्वपत्रभृता कपरिका । पूज्यैरुक्तम्-'को वाचयिष्यति ?' तेन कूटाभिप्रायेणोक्तम्-'अहं वाचयिष्यामि' । सरलाशयैः श्रीपूज्यैश्चिन्तितमहो ! किमस्य क्षोभवशान्मतिवालः (१) साम्प्रतमभूत् , यदसावस्माकमग्रे वाचकत्वाङ्गीकारेण स्वस्य लघुतां न गणितवानिति । भवतु वा । प्रकटमुक्तम्-‘एवं कुर्विति' । तदनन्तरम् नाणस्स सणस्स य चरणस्स य तत्थ होइ वाघाओ। वजिज वन्ज भीरू अणाययणवजओ खिप्पं ॥ [४९] जत्थ साहम्मिया बहवे भिन्नचित्ता अणारिया।मूलगुणप्पडिसेवी अणाययणं तं वियाणाहि॥ [५०] जत्थ साहम्मिया बहवे भिन्नचित्ता अणारिया। उत्तरगुणपडिसेवी अणाययणं तं वियाणाहि॥ [५१] यु० गु०६ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ खरतरगच्छालंकार जत्थ साहम्मिया बहवे भिन्नचित्ता अणारिया। लिंगवेसपडिच्छन्ना अणाययणं तं वियाणाहि॥[५२] आययणं पि य दुविहं दव्वे भावे य होइ नायव्वं । दव्वम्मि जिणहराई भावे मूलुत्तरगुणेसु ॥ [५३] जत्थ साहम्मिया बहवे भिन्नचित्ता बहुस्सुया । चरित्तायारसंपन्ना आययणं तं वियाणाहि ॥ [५४] सुंदरजणसंसग्गी सीलदरिदं कुणइ य सीलड्डे। जह मेरुगिरीलग्गं तणं पि कणयत्तणमुवेइ ।। [५५] इत्यादिगाथावृत्तीः पूज्योपदर्शिता वाचयितुं प्रवृत्तः प्रद्युम्नाचार्यः। पूज्याश्चास्खलितवाण्या व्याख्यातुं प्रवृत्ताः । तदनु स्वमतस्थापनाभिप्रायरचितकूटबुद्धिनाऽन्यां गाथां वाचयित्वा प्रस्तुतपत्रद्वयोत्पाटनपूर्वकमन्यतरगाथासत्कवृत्तिं वाचयितुं प्रवृत्तः प्रद्युम्नाचार्यः । श्रीमत्पूज्यपार्थोपविष्टन श्रीजिनहितोपाध्यायेन हस्ते गृहीत्वोक्तम् , यथा-'आचार्य! पाश्चात्य पत्रद्वयं वाचयित्वेदं पत्रं वाच्यम्' । सोऽपि व्याकुलतया गतस्मृतिः पत्राण्यग्रतः पश्चाच्च करोति । अत्रावसरे मातुलतया प्रतिपन्नमभयडदण्डनायकं लोकप्रसिद्धमामेत्यक्षरैः सम्बोध्य हेडावाहकेन श्रीमालवंशीयेन वीरणागेन भणितम् , यथा-'त्वदीये नगरे स एव किं निगृह्यते यो रात्रौ चौर्य करोति ? यस्तु दिवसे दीप्ते चौयं करोति स मुत्कल' । तदनन्तरं संभ्रमवशादिगवलोकनं कृखाऽभयडदण्डनायकेनोक्तम्-'हेडावाहक! किमेतद् भवता भणितम् ?' वीरणागेनोक्तम्-'मामा! पश्य पश्य, आचार्येण पत्रद्वयमपलपितम्' । कोपावेगादभयडदण्डनायकेन हस्तस्थितया चर्मयष्ट्या पृष्ठप्रदेश आहतो वीरणागः । प्रद्युम्नाचार्योऽपि प्रस्तुतं वाचयितुं प्रवृत्तः । विस्तरेण व्याचक्षाणेषु श्रीपूज्येषु श्रीपूज्यभाग्यप्राग्भारप्रेरितेन प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'आचार्य ! अनया रीत्या देवगृहमेवानायतनं भवति, न तु जिनप्रतिमा; युष्माभिस्तु प्रतिमाऽप्यनायतनत्वेन भणिता' । श्रीपूज्यविहस्योक्तम्-'स्थिरीभव, आचार्य ! यदत्र सभायामात्ममुखेन भवता देवगृहमनायतनं भवतीति कथितं तेनास्माकं सर्वेऽपि मनोरथाः सिद्धाः। प्रतिमाऽप्यनायतनत्वेन भणिता' । श्रीपूज्यविहस्योक्तम् .....द्धाज्ञेया। प्रद्युम्नाचार्येोक्तम्-'किं वचनमात्रेण किं वाकयाऽपि युक्त्या?' भीपूज्यैरुक्तम्-'नियुक्तिकं वचनं हलधरादय एव भाषन्ते न वयम्' । तेनोक्तम्-'तर्हि युक्ति ब्रूहि' । श्रीपूज्यैविमृश्योक्तम् एवमिणं उवगरणं धारेमाणो विहीइ परिसुद्धं । होइ गुणाणाययणं अविहि असुद्धे अणाययणं । अस्याश्च गाथाया व्याख्यानं श्रुखा विमना इव मौनं कृखा स्थितः प्रद्युम्नाचार्यः। तदनन्तरं सा० क्षेमन्धरेण हस्तयोजनपूर्वकमुक्तम्-'मस्तकेन वन्दे, जिनप्रतिमाऽनायतनं भवति वा नवेति ?' प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'साधो! अस्या गाथाया अनुसारेणेदंज्ञायते, यदुत जैनी प्रतिमाऽपि भवत्यनायतनमिति। तत्पश्चात् क्षेमन्धरेण नेत्रयोरानन्दाश्रु बिभ्रता खकीयमस्तककेशैः कृता प्रद्युम्नाचार्यपादावुघृष्टौ, पुत्रस्नेहाच भणितम्-'वत्स ! एतावन्ति दिनानि श्रीजिनदत्तमरिमागे लग्नस्य मम भूतानि परं मम मनसि न परिणतम् । यदुत लक्षसंख्यद्रव्यव्ययेन कृखोत्तुङ्गतोरणं देवगृहं निष्पादितमप्यविधिप्रवृत्तिवशादनायतनं भवतीति । इदानीं च तव मुखात् तादृशमपि देवगृहमनायतनं भवतीति श्रुखा महान् प्रमोदः संजातः' । प्रद्युम्नाचार्येणोक्तम्-'साधो क्षेमन्धर ! अन्येषां सिद्धान्तानामक्षराणि दर्शयिखा देवगृहमनायतनं न भवतीति परिच्छेदयिष्यामि'। श्रीपूज्यानामग्रे भणितम्-'आचार्य! अस्मन्नामाङ्किता रास-काव्य-चतुष्पद्यादयो न कारयितव्या न पाठयितव्याश्च। तदनन्तरं श्रीपूज्यैः सा० क्षेमन्धरदाक्षिण्यादुच्चैःस्वरेणोक्तम्-'अहो ! यः कश्चिदस्माकमाज्ञां मनुते तेन प्रद्युम्नाचार्यपराजयनरूपार्थप्रतिबद्ध रास-काव्य-चतुष्पद्यादयो न कर्तव्या न पठितव्याः'। आर्द्रहृदयत्वान्नेत्रयोरथुप्रवाहं विभ्रता सा० क्षेमन्धरेणोक्तम्-'वत्स! न मया भवन्तं विगोपयितुमारभितो वादः,किन्तु विद्यापात्रमात्मपुत्रं लब्धाचार्यपदं प्रतिबोध्य युगप्रधानगुरोः श्रीजिनपतिसूरेः शिष्यं कारयितुम्'-इत्यादि वदत्सु तेष्व Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। १३ तिप्रमुदितैः श्रावकैः साधुभिश्च सह अभयडदण्डनायकदत्तहस्तकास्ततः स्थानादुत्थायोपरितनभूमिकायां प्रभूताः श्रीपूज्याः, नागरिकलोकोऽपि । तत्र च पूज्यान् वन्दित्वा, अभयडदण्डनायकोऽधस्तादागतः । प्रद्युम्नाचार्योऽपि सा०क्षेमन्धरदत्तहस्तको मनःखेदोद्भवन्मुखकालिमगुणो लज्जावशाद् भूमिमवलोकयन् स्वपौषधशालायां गतः । इतरोऽपि कौतुकार्थी लोकः स्वकीये स्वकीये गृहे गतः । ५९. स्वकीयगुरुप्रद्युम्नाचार्यहृदयस्थकष्टदर्शनादसुखिन्यभयडदण्डनायके सकलमपि नगरं शून्यमिव जातम् । बहिश्च संघमध्येऽत्यानन्दोऽभवत् । भां० संभव-वैद्यसहदेव-ठ० हरिपाल-सा० क्षेमन्धर-वाहित्रिकोद्धरण-सा० सोमदेवादिसमुदायेन महाविस्तरेण विजयसूचकं वर्धापनकं च कारितम्-'अहो ! एते परतो गता मदीयं गुरुं विगोपयिष्यन्त्यतो यद्यत्रैव कथमपि शिक्ष्यन्ते तदा भद्रं भवतीति हृदि विमृश्याऽभयडदण्डनायकेन मालव्यदेशमध्यस्थिते गूर्जरीये कटके प्रतीहारजगद्देवपार्श्वे विज्ञप्तिकादानपूर्वकं मानुषं प्रेष्य द्वितीये दिने संघमध्ये दापिता राजाज्ञा, यथा-'राजाधिराजश्रीभीमदेवस्याज्ञाऽस्ति यदि यूयमितः स्थानादस्माभिरमुत्कलिताः सन्तो यास्यथेति'। धृतं च राजपुत्रशतमेकं गुप्तवृत्त्या संघस्य प्राहरिकपदे । संघोऽपि खचेतसि यदपि तदपि संभावयितुं प्रवृत्तः। विजयदर्शनोच्छलितपरमानन्दवशाद् भाण्डशालिकसंभवः श्रीपूज्यानां पार्श्वे समागत्य हर्षप्रकर्षोद्भवद्गद्गदस्वरेण भणितुं प्रवृत्तः, यथा-'प्रभो! जानामि तावकीनं पराक्रमम् , यतः सिंहस्य पोतकाः सिंहा एव भवन्ति न शृगालाः; परं कपटबहुला गूर्जरत्रास्तत्र च येनापि तेनापि समं माऽऽस्फाल्यताम् । कापटिकगूर्जरलोककूटप्रयोगात् कूटा चेद्वचनीयता तादृशी भवति यादृश्या खकीयं मुखमुद्घाटयितुं न शक्यते-इत्याशक्य मया वादकरणविपयेऽनुमतिर्न दत्ता। भवता च प्रभो! अतीव शोभनं कृतं यद् गूर्जरत्रामध्यप्रदेशे समस्ताचार्यमुकुटभूतं प्रद्युम्नसूरिं सकललोकसमक्षं निर्जित्यो/ कृता स्वकीयाङ्गुलिका । प्रभो ! तवैकेन चरित्रेण घनमानन्दितस्य स्वर्गस्थम्य श्रीजिनदत्तमरेरद्य विस्मृतो निश्चितममृतपानामिलापः । प्रभो ! तावकीनं धैर्यमालोक्य शासनदेवताऽप्यद्यात्मानं सजीवभूतं मन्यते । प्रभो ! त्वदीयामीदृशीं वादलब्धि दृष्ट्वा भगवती सरस्वत्यपि स्वप्रसादस्य माहात्म्यं ज्ञातवती । प्रभो! तवेदृशं साहसमवेक्ष्य पुरन्दरादयो देवा अपि भवतो वरप्रदानोत्सुकाः संजाताः' इत्यादिकां बह्वीं प्रशंसां कृतवान् भा० संभवः । श्रीमालवंशभूषणवैद्यसहदेव-व्य० लक्ष्मीधर-ठ० हरिपाल-सा० क्षेमन्धर-वाहित्रिकोद्धरणादयोऽपि संघप्रधानपुरुषाः श्रीपूज्यानां पार्श्वे समागत्याभयडदण्डनायकस्स दुष्टमभिप्रायं कथयामासुः। श्रीपूज्यैर्विमृश्योक्तम्-'अहो श्राद्धाः ! अनिवृत्तिः काऽपि न कार्या। श्रीजिनदत्तमरिपादप्रसादात् सर्व भद्रं भविष्यति । परं परमेश्वरश्रीपाराधनाथ स्नात्रकायोत्सर्गादिधर्मकृत्येषूद्यता यूयं भवतेति' । श्रीपूज्योपदेशाद्धर्मकृत्योद्यते संघे सति सुखेन जातानि चतुर्दश दिनानि परं निर्गमः कोऽपि न संजातः । तदनन्तरं संघमध्यस्थितलोकमध्यादौष्ट्रिकाः शते द्वे संघस्य श्रेयःकृते श्वाकल्ये किमपि साहसं तादृशं करिष्यामो येन संघः सर्वोऽपि स्वकीये स्वकीये स्थानके प्रभूतो भविष्यतीत्यभिप्रायेण प्रगुणीभूताः। __इतश्च-अभयडदण्डनायकप्रेषितमानुषेण कटकमध्ये गला श्रीजगद्देवप्रतीहारपादयोः पुरो धृता स्वस्वामिविज्ञप्तिका। श्रीजगद्देवनिरोपाद् वाचयितुं लग्नः पारिग्रहिकः, यथा-अत्र देशे साम्प्रतमतिमहद्धिका सपादलक्षीयो बहुलोकः समागतोऽस्ति । यदि युष्माकं निरोपो भवति तदा राजकीयानां घोटकानां कृते दालिं करोमीति' । श्रुखा च कोपाधिरूढेन श्रीजगद्देवेन तत्क्षणादेव स्वकीयपारिग्रहिकहस्तेन लिखितो राजादेशः । लिखितं च तत्र-'मया महता कष्टेन साम्प्रतं श्रीपृथ्वीराजेन सह सन्धिः कृतोऽस्त्यतो यदि सपादलक्षीयस्य लोकस्य हस्तं लास्यसि तदा गर्दभोदरे बां सेवयिप्यामि'-इति राजादेशेन सह प्रेषितो मानुषः । पश्चात् तेनापि चोत्तालगत्या गला दत्तो दण्डनायकहस्ते राजादेशः । वाचयित्वा च तं दण्डनायकेन बहुमानपूर्वकं मुत्कलितः सन् संघः समागतः श्रीमदणहिलपाटकनामपत्तने । तत्र च श्रीपूज्यैः स्वगोत्रीयाश्चत्वारिंशदाचार्याः स्वमण्डल्यां समुद्देशं कारयित्वा वस्त्रदानपूर्वकं सम्मानिताः। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार ६०. ततः संघेन सह लवणखेटे प्रभूताः श्रीपूज्याः । तत्र च पूर्णदेवगणि-मानचन्द्रगणि-गुणभद्रगणीनां क्रमेण दत्तं वाचनाचार्यपदम् । सं० १२४५ फाल्गुने पुष्करिण्यां धर्मदेव-कुलचन्द्र-सहदेव-सोमप्रम-सूरप्रभ-कीर्तिचन्द्रश्रीप्रभ-सिद्धसेन-रामदेव-चन्द्रप्रभाणां संयमश्री-शान्तमति-रत्नमतीनां च दीक्षा दत्ता। सं० १२४६ श्रीपत्तने श्रीमहावीरप्रतिमा स्थापिता । सं० १२४७, (?) सं० १२४८ लवणखेटे जिनहितस्योपाध्यायपदं प्रदत्तं । सं० १२४९ पुष्करिण्यां मलयचन्द्रो दीक्षितः। सं० १२५० विक्रमपुरे पद्मप्रभसाधोराचार्यपदं दत्तं-श्रीसर्वदेवमूरिरिति नाम कलम् । सं० २२-१ माण्डपपुरे च्यवहारकलक्ष्मीधरादिप्रभूतश्रावकाणां मालारोपणादि विस्तरेण कृतम। ६१. ततोऽजयमेरौ विहारः । तत्र च म्लेच्छोपद्रवे मासद्वयं यावन्महाकष्टस्थितौ पत्तने समागत्य भीमपल्ल्यां चतुमौसी कृता । कुहियपग्रामे जिनपालगणेर्वाचनाचार्यपदं दत्तम् । लवणखेटे राणकश्रीकेल्हणकृतसामवादोपरोधाद्दक्षिणावर्तारात्रिकावतारणं मानितम् । सं०१२५२ पत्तने विनयानन्दगणिर्दीक्षितः। सं०१२५३ भाण्डागारिकनेमिचन्द्रश्रावकः प्रतिबोधितः । पत्तनभङ्गानन्तरं धाटीग्रामे चतुर्मासी कृता । सं० १२५४ श्रीधारायां श्रीशान्तिनाथदेवगृहे विधिः प्रवर्तितः। तोपन्यासैश्च महावीरनामा दिगम्बरो रञ्जितः । रत्नश्रीप्रवर्तिनी दीक्षिता । नागदहे चतुर्मासी कृता । सं० १२५६ चैत्र वदि ५ लवणखेटे नेमिचन्द्र-देवचन्द्र-धर्मकीर्ति-देवेन्द्रनामानो व्रतिनः कृताः। सं० १२५७ श्रीशान्तिनाथदेवगृहे प्रतिष्ठारम्भः प्रधानशकुनाभावे विलम्बितः। सं० १२५८ चैत्र वदि ५ शान्तिनाथविधिचैत्ये श्रीशानाथप्रतिमा प्रतिष्ठिता, शिखरश्च । चैत्र वदि २ वीरप्रभ-देवकीर्तिगणी दीक्षितौ । सं० १२६० आपाढ वदि ६ वीरप्रभगणि-देवकीर्तिगण्योरुपस्थापना कृता । सुमतिगणि-पूर्णभद्रगण्योव्रतं दत्तम् । आनन्दश्रियो महत्तरापदं दत्तम् । श्रीजेसलमेरौ देवगृहे फाल्गुन सुदि २ श्रीपार्श्वनाथप्रतिमा स्थापिता । स्थापना च सा० जगद्धरेण महाविस्तरेण कारिता । सं० १२६३ फाल्गुन वदि ४ महं० कुलधरकारितश्रीमहावीरप्रतिमा लवणखेटे प्रतिष्ठिता। नरचन्द्र-रामचन्द्र-पूर्णचन्द्राणां विवेकश्री-मङ्गलमति-कल्याणश्री-जिनश्रीसाध्वीनां दीक्षा दत्ता, धर्मदेव्याः प्रवर्तिनीपदं च । ठ० आभुल-प्रभृतिवाग्गडीयसमुदायः श्रीपूज्यपादवन्दनार्थमागतो लवणखेटे । सं०१२६५ मुनिचन्द्र-मानभद्रगणी दीक्षितौ, सुन्दरमतिरासमतिश्च । सं० १२६६ विक्रमपुरे भावदेव-जिनभद्र-विजयचन्द्रनामानो व्रतिनः कृताः। गुणशीलस्य वाचनाचार्यपदं दत्तम् , ज्ञानश्रियश्च दीक्षा । सं० १२६९ श्रीजावालिपुरे श्रीविधिचैत्यालये महता विस्तरेण महं०कुलधरकारितश्रीमहावीरप्रतिमा स्थापिता । श्रीजिनपालगणेरुपाध्यायपदं दत्तम् । धर्मदेवीप्रवर्तिन्याश्च महत्तरापदं दत्तं प्रभावतीति नाम कृतम् । महेन्द्र-गुणकीर्ति-मानदेवानां चन्द्रश्री-केवलथ्योश्च दीक्षा दत्ता । ततो विक्रमपुरे विहारः। ६२. सं० १२७० वाग्गडीयसमुदायप्रार्थनया श्रीवाग्गडदेशे विहृताः । दारिद्रेरके शतसंख्यश्रावक-श्राविकाणां सम्यक्त्वारोपण-मालारोपण-परिग्रहपरिमाणदानोपधानविधापनादिधर्मकृत्यकृते महाविस्तरेण सप्त नन्दयः कृताः। सं० १२७१ बृहद्वारे संमुखागतश्रीआसराजराणकप्रमुखप्रभूतलोकैः सह महाविस्तरेण ठ० विजयश्रावककारितायां महत्यामुत्सपेणायां प्रविष्टाः श्रीपूज्याः। नन्द्यादिकं च दारिद्रेरकवत्तत्र कृतम् । मिथ्यादृष्टिगोत्रदेवतादिमिथ्यात्वकृत्यपरिहारकारापणेन समुदायस्य महान् प्रमोदो जनितः । सं० १२७३ तत्रैव बृहद्वारे लौकिकदशाहिकापर्वोपरि गङ्गायात्राभिमुखेषु तत्रागतेषु बहुषु राणकेषु सत्सु नगरकोट्टीयराजाधिराजश्रीपृथ्वीचन्द्रसाक्षेत(सहायात ?) काश्मीरीयेन श्रीजिनप्रियोपाध्यायशिष्यजिनदासापरनामश्रीजिनभद्रसूरिप्रोत्साहितेन पण्डितमनोदानन्देन श्रीजिनपतिसूरिपौषधशालाद्वारे पत्रावलम्बनं बद्धं ब्राह्मण एकः प्रेषितः । सोऽपि द्वितीयार्द्ध प्रहरसमये वसतिद्वार आगत्य पत्रावलम्बनं बद्धं प्रवृत्तः । विस्मयवशाद् दूरदेशे गत्वा धर्मरुचिगणिना संभाषितो ब्राह्मणः, यथा-'बटो! किं करोपि ? निर्भयः सन् स प्राह-'पण्डितमनोदानन्दो युष्मद्गुरूनुद्दिश्य पत्रावलम्बनं करोति' । धरुचिगणिना सोपहासमुक्तम्'बटो! मदीयसन्देशमेकं पण्डितस्याग्रे कथयेर्यथा-पण्डितश्रीजिनपतिसूरिशिष्येण धर्मरुचिगणिना मम मुखेनेदं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ युगप्रधानाचार्यगुर्वाधली। भाणितम्, यथा-पण्डितराज ! मनोदानन्द ! यदि मदीये भणिते लगसि तदद्यपश्चाच्छाखालम्बनं कुर्याः, मा पत्रावलम्बनं कृथाः; अन्यथा दन्ता भजयन्तीति" । मनोदानन्दपण्डितस्वरूपं सर्व पृष्ट्वा मुक्तः सन् गन्तुं प्रवृत्तो बटुः । धर्मरुचिगणिना सर्व पूज्यानामग्रे निवेदितम् । श्रीपूज्यपादसमीपोपविष्टठक्कुरविजयकश्रावकेण पत्रावलम्बनवाता श्रुत्रा खकीयो मानुषः प्रेषितः। कथितं तस्याने यथा-'अहो ! बमस्य बटोः पादे लग्नो व्रजेः। कस्मिन् कस्मिन् कटक एष बटुव्रजतीति परिभावयेः। वयं पृष्ठलग्ना एवागच्छामः स्म'-इत्यादिशिक्षां गृहीला गतो मानुषो बटुपादैः। संभ्रमादासनादुत्थाय-'भो भोः साधवः ! शीघ्रं प्रावृणुत'-इति भणन्तः स्वयं प्रावृताः श्रीपूज्याः। श्रीजिनपालोपाध्यायेन ठ० विजयकश्रावकेण विज्ञप्ताश्च, यथा-'प्रभो ! साम्प्रतं भोजनवेला वर्तते, साधवश्च विहत्य समागताः सन्त्यतो भोजन कुरु; तत्पश्चात् तत्र यास्यत' इति । तदुपरोधाद् भोजनं कृत्रोत्थिताः श्रीपूज्याः। श्रीजिनपालोपाध्यायैर्वन्दनापूर्वक पादयोर्लगित्वा विज्ञप्ताः, यथा-'प्रभो ! मनोदानन्दपण्डितजयनार्थ मां प्रेषयत, यथाऽहं यामि युष्माकं प्रसादाच्च जेप्यामि; सहानीतानामस्माकं क उपयोगो यघूयमेकैकेन मानुषेण सह स्वयमुत्तिष्ठध्वम् । तथा प्रभो! तस्मिन् वराके मनोदानन्दे युष्माकं कः संरम्भः । यतःकोपादेकतलाघातनिपातमत्तदन्तिनः। हरेहरिणयुद्धेषु कियान् व्याक्षेपविस्तरः॥ [५७] राजनीतावपि प्रथमं पदातयो युध्यन्ते पश्चाच्च नायकाः । श्रीपूज्यैरुक्तम्-‘उपाध्यायमिश्राः! न ज्ञायते पण्डितस्य स्वरूपम् , यथा पण्डितः कीदृशोऽस्ति' । उपाध्यायेनोक्तम्-'प्रभो! भवतु पण्डितो यादृशस्तादृशो वा। सर्वत्र युष्माकं प्रसादो विजयते'। श्रीपूज्यैरुक्तम्-'वयमपि तत्रागमिष्यामः, परं भवद्भिस्तत्र वक्तव्यमिति' । उपाध्यायेनोक्तम्'प्रभो ! युष्मासु संनिहितेषु सत्सु मम जिह्वा लजावशाद् वक्तुं न वहति, अतो यूयमत्रैव तिष्ठत' इत्यादि । श्रीजिनपालोपाध्यायविहितोपरोधात् प्रसन्नमानसैः श्रीपूज्यैर्मत्रध्यानपूर्वकं मस्तके हस्तं दच्चा धर्मरुचिगणि-वीरभद्रगणिसुमतिगणिभिः, ठ० विजयकप्रमुखप्रधानश्रावकैश्च सह मनोदानन्दपण्डितजयनार्थ प्रेषितः श्रीजिनपालोपाध्यायः। सुखवार्ताप्रच्छननिमित्तसमागतानेकराणकावस्थानमण्डिते नगरकोट्टीयराजाधिराजश्रीपृथ्वीचन्द्रसभामण्डपे प्राप्तः श्रीजिनपालोपाध्यायः सपरिवारः। ६३. श्रीपृथ्वीचन्द्रराजानमुपश्लोक्य तत्रस्थः पण्डितमनोदानन्दो भाषितः श्रीमदुपाध्यायेन, यथा-'पण्डितराज ! किमर्थमस्मद्वसतिद्वारे पत्रावलम्बनं दत्तम् ?' तेनोक्तम्-'जयनार्थम्' । उपाध्यायेनोक्तम्-'तर्हि कुरु कस्यापि पक्षस्याङ्गीकारम् । तेनोक्तम्-'युष्मान् दर्शनबाह्यवेन स्थापयिष्यामीति मम पक्षः'। श्रीउपाध्यायेनोक्तम्-'कुरु प्रमेयमिति'। तदनन्तरं तेनोक्तम्-'विवादाध्यासिता दर्शनबाह्याः, प्रयुक्ताचारविकलत्वान्म्लेच्छवदिति' । श्रीमदुपाध्यायेन विहस्योक्तम्-'पण्डितराज मनोदानन्द ! त्वदुक्तेऽस्मिन्ननुमाने कति दूषणानि दर्शये ?' तेनोक्तम्-'यथाशक्ति दर्शयेः, परं तत्समर्थनायां समर्थन भाव्यम्' । श्रीमदुपाध्यायेनोक्तम्-'पण्डितराज ! सावधानीभूय श्रूयताम् , यथा-विवादाध्यासिता दर्शनबाह्याः,प्रयुक्ताचारविकलत्वान्म्लेच्छवदिति-भवतोक्तम् , तत्र प्रयुक्ताचारविकलत्वादिति हेतुरनेकान्तिकः, पड्दर्शनबाह्यत्वे साध्ये पड्दर्शनाभ्यन्तरवर्तित्वेनाभ्युपगतेषु बौद्ध-चार्वाकादिषु विपक्षभूतेष्वस्य हेतोर्गमनात्। तथा साधनविकलो दृष्टान्तः । तथा हि-त्वदुक्ताचारवैकल्यं म्लेच्छेष्वेकदेशापेक्षया सामस्त्यापेक्षया वा भवेत् । न तावदाद्यविकल्पः, म्लेच्छा अपि हि स्वजात्यनुयायिनां लोकाचारं किमपि कुर्वाणा दृश्यन्ते । लोकाचारश्च सर्वोऽपि वैदिक एवेत्यसिद्धो हेतुर्दृष्टान्तैः । अथवा सामस्त्यापेक्षया, तर्हि भवानपि दर्शनबाह्यः, नहि भवानपि सर्वमपि वैदिकमाचार कर्तुं शक्नोति'-इत्यादिना प्रकारेण तर्करीत्या त्रुवाणेन समस्तराजलोकचेतसि चमत्कारकुर्वाणेन श्रीमदुपाध्यायेनानेकदूषणोद्भावनेन कदर्थितेऽपि प्राथमिकेऽनुमाने, धाादन्यान्यनुमानानि भणितुं प्रवृत्तः पं०मनोदानन्दः । प्रभूतप्रति Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार भाप्रभावेन श्रीमदुपाध्यायेन स्थाने स्थाने ज्वलन्तीषु दीप्रासु दीपिकासु समस्तराजलोकसमक्षमसिद्धविरुद्धानैकान्तिकादिदूषणोद्भावनेन तान्यपि निराकृत्य जितो मनोदानन्दः । प्रधानानुमानभणनपूर्वकमात्मा च स्थापितो दर्शनाभ्यन्तरवर्तित्वेनोपाध्यायेन । उत्तरास्फुरणे वैलक्ष्याच्चिन्तितुं प्रवृत्तः पण्डितः, यथा-'अहो! तथाविधवैदग्ध्याभावादेते राजानो यं कंचिद् यतिब्रुवाणं पश्यन्ति तमुद्दिश्य भाषन्ते यथाऽयं भद्रो वादीति; तस्मादहमपि किमपि त्रुवन्नस्मि यथाऽमी जानन्ति पण्डितमनोदानन्दो गाढो वाग्ग्मी' -इति विचिन्त्य शब्दब्रह्म यदेकं यच्चैतन्यं च सर्वभूतानाम् । यत्परिणामस्त्रिभुवनमखिलमिदं जयति सा वाणी ॥ [५८] इत्यादि पठितुं प्रवृत्तः । ततश्च श्रीमदुपाध्यायेन कोपावेगादुक्तम्-'अरे बठरशेखर ! किमेतदसम्बद्धं भाषसे ? मया त्वां षड्दर्शनवाह्यः कृतः प्रमाणसामर्थ्यन; यदि तव काऽपि शक्तिरस्ति तदा स्वकीयपत्रावलम्बनसमर्थनाय प्रमाणानुयायि किञ्चिद् ब्रूहि । पूर्वपठितगुणनेऽपि वयमेव समर्थाः' । तदनन्तरं श्रीमदुपाध्यायवचनेन श्रीजिनवल्लभमरिकृतचित्रकूटीयप्रशस्ति-संघपट्ट-कर्मशिक्षादिसंस्कृतप्रकरणान्युदात्तस्वरेण गुणयतो धर्मरुचिगणि-वीरप्रभगणि-सुमतिगणीन् दृष्ट्वा तत्रोपविष्टान्यराजभिरुक्तम्-'अहो ! एते सर्वेऽपि पण्डिताः' इति । मनोदानन्दपण्डितमुखे कालिमानमवलोक्य राजाधिराजश्रीपृथ्वीचन्द्रेण चिन्तितम् , यथा-'अहो ! न दृश्यते शोभना मनोदानन्दस्य मुखच्छाया। अतो यथेष हारयिष्यति ततो महल्लाघवं मम भविष्यति । तस्मादिदानीमेवानयोः समश्रीकतां करोमीति'-चिन्तनानन्तरं च श्रीमदुपाध्यायानुद्दिश्योक्तम्-'बृहन्त ऋपयो यूयमिति' । मनोदानन्दमुद्दिश्योक्तम्-'बृहन्तः पण्डिता यूयमिति' । श्रीपृथ्वीचन्द्रराजवचनं श्रुत्वा श्रीमदुपाध्यायेन चिन्तितम् , यथा-'अहो ! अद्यैतावत्प्रमाणेन संरम्भेण रात्रिप्रहरत्रयं जागरित्वाऽपि न किमपि फलं संप्राप्तम् , यदित्थं निर्वचनीकृतेनापि मनोदानन्देन समं मम समश्रीकता कृता राज्ञा स्वपण्डितपक्षपातात् । भवतु, तथापि जयपत्रमगृहीत्वा मयेतः स्थानान्नोत्थातव्यमिति' । प्रकटं च स्वस्कन्धास्फालनपूर्वकमुक्तम्-'महाराज! किमेतदुच्यते ? । मय्यूचे सत्यन्यो भरते सकलेऽपि न कश्चित्पण्डितो भवति । यधेप पण्डितस्तदा मया सह लक्षणमार्गेण तर्कमार्गेण साहित्यमार्गेण वा वदतु, अन्यथा स्वकीयमिदं पत्रावलम्बनं पाटयतु । अरे यज्ञोपवीतमात्रवहनशक्ते मनोदानन्द ! श्रीजिनपतिसूर्युपरि पत्रावलम्बनं करोषि ? न जानासि रे बटो ! यदनेन सर्वविद्यानिर्णयदायकाः श्रीप्रद्युम्नाचार्यसदृशाः पण्डितराजाः सकललोकसमक्षं धूलीं चर्विताः' । अत्रान्तरे श्रीपृथ्वीचन्द्रेण पत्रावलम्बनं गृहीत्वा पाटितम् । श्रीमदुपाध्यायेनोक्तम्-'महाराज ! न तुष्यामो वयं पत्रावलम्बनपाटनमात्रेण' । राज्ञोक्तम्-'कथं तुष्यथ ?' उपाध्यायेनोक्तम्-'जयपत्रलाभेन; यतो महाराज ! अस्माकमीदृशी दर्शनव्यवस्थाऽस्ति, यः कश्चिदस्मदुपाश्रयद्वार एकसिन् दिने पत्रावलम्बनं बध्नाति तस्यैव हस्तेन द्वितीये दिने खोपाश्रयद्वारे जयपत्रमुद्भाव्यते। अतो महाराज ! यथा न्यायश्रीकरणैकसंमत्याऽसद्दर्शनव्यवस्था वृद्धि प्रामोति तव सभायां तथा विधीयताम्' । राज्ञा च लघूकृतस्वपण्डितमनोदानन्दमुखकालिमावलोकनोच्छलितमानसिकदुःखेनापि न्यायविचारप्रवीणपार्श्वस्थितप्रभूतप्रधानलोकोपरोधात् स्वकीयपारिग्रहिकहस्तेन लेखयित्वा दत्तं जयपत्रं श्रीजिनपालोध्यायानां हस्ते। उपाध्यायैश्च धर्मलाभाशीर्वाददानपूर्वकं बहुलमुपश्लोकितो महाराजाधिराजश्रीपृथ्वीचन्द्रः । ततः स्थानादुत्थाय प्रातः क्षणे पंचशब्दवादनादिवपिनपूर्वकं गृहीतजयपत्राः सपरिवाराः श्रीजिनपालोपाध्यायाः समागताः श्रीपूज्यानां समीपे। श्रीपूज्यैश्च स्वशिष्यनिष्पादितजिनशासनप्रभावनोद्भूतप्रभूतप्रमोदान्महासंभ्रमेणालापिताः श्रीमदुपाध्यायाः। सं० १२७३ ज्येष्ठवदि १३ शान्तिनाथजन्मकल्याणके कारितं च वर्धापनकमानन्दभरनिर्भरेण तत्रत्यसमुदायेन । ६४. सं० १२७४ बृहद्वारादागच्छद्भिरन्तरा भावदेवमुनिर्दीक्षितः । सा० थिरदेवप्रार्थनया दारिद्रेरके चतुर्मासी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। कृता । तत्रापि नन्दयः पूर्ववत् । सं० १२७५ जावालिपुरे ज्येष्ठसुदि १२ भुवनश्रीगणिनी-जगमति-मङ्गलश्रीसाध्वीत्रयेणसह विमलचन्द्रगणि-पद्मदेवगणी दीक्षितौ । सं० १२७७ श्रीप्रह्लादनपुरे प्रभूताः प्रभावनाः कृता । अन्यदा नाभ्यधस्तनप्रदेशोद्भूतग्रन्थिदोषोत्थितवेदनावशसंजातमूत्रसंग्रहरोगसत्ककष्टादात्मन आयुषो गमनमवगम्य श्रीपूज्यैर्दत्ता यथोचिता शिक्षा चतुर्विधस्यापि संघस्य । मिथ्यादुष्कृतं च दत्त्वा भणितं च संघस्याग्रे-'संघेन मनोमध्ये काऽप्यनिवृतिन कार्या-यझोरिदानी कथं भविष्यति,यतो येषां प्राणेनानेकैलोकैः सममास्फाल्यास्फाल्योक्तं ते देवीभूता इति । यतः पश्चादपि श्रीसर्वदेवसूरि-श्रीजिनहितोपाध्याय-श्रीजिनपालोपाध्याया वयमिव सर्वेषामप्युत्तरं दातुं क्षमाः, युष्माकं मनोरथान् पूरयितुं समर्थाः सन्ति । तथा वाचनाचायसरप्रभ-कीर्तिचन्द्र-वीरप्रभगणि-सुमतिगणिनामानश्चत्वारः शिष्या महाप्रधाना निष्पन्ना वर्तन्ते । येषामेकैकोऽप्याकाशस्य पततो धरणे क्षमः । परमस्माकं खकीयपदयोग्यं परिभावयतां वीरप्रभगणिः समागच्छति । वयमपि सास्प्रतं साबाधा वर्तामहे । अतो यदि संघः कथयति तदिदानीमपि स्वकीयपदे वीरप्रभगणिमुपवेशयामः' । शोकहर्षप्रकर्षाकुलचित्तेन संपेन विज्ञप्ताः श्रीपूज्याः, यथा-'स्वामिन् ! ययुष्माकं परिभावयतां समागच्छति तदस्माकं प्रमाणम् , परमिदानीमौत्सुक्येन क्रियमाणमाचार्यपदस्थापनमतिशोभायुक्तं न संभाव्यते । अतो यदि युष्माकं निरोपो भवति तदात्रत्यसमुदायलेखदर्शनसमागतसमस्तदेशवास्तव्यखरतरसमुदायैरानन्दभरेण स्थाने विधीयमानासु महतीपूत्सपिणीषु वीरप्रभगणेराचार्यपदस्थापना महाविस्तरेण कार्यते । श्रीपूज्यैरुक्तम्-'यत्समुदायस्य पालोचयतः समागच्छति तत्प्रमाणम्' । तदनन्तरं समस्तलोकक्षमितक्षामणपूर्वकमनशनविधिना निखिललोकचेतसि चमत्कारं कृता [सं० १२७७ आषाढ सुदि १०] दिवं गताः श्रीजिनपतिसूरयः। ६५. तदनन्तरं श्रीपूज्यविरहोच्छलितपरमदुःखेन शून्यान्तःकरणेनापि पाश्चात्य[कृत्य] कृते श्रीपूज्याननेकमण्डपिकामण्डिते विमानेऽध्यारोप्य स्थाने स्थाने च वारविलासिनीभिस्तत्कालसुखदेन वरेण हृदयार्दीकरणप्रवीणमेघरागादिशोकरागेण दैवोपालम्भाद्यर्थनिबन्धनमधुमधुरेपु गीतेषु गीयमानेषु उच्छाल्यमानेषु च नानाविधेषु बहुषु वनफलेपु, पञ्चशब्देषु च वाद्यमानेषु नेतुमारेभे समस्तलोकसहितेन चतुर्विधेन संघेन । ___ अत्रान्तरे कणपीठमध्ये सावाधशरीरश्रीपूज्यवार्ताश्रवणादुत्तालीभूय जावालिपुरादागतः प्रधानसाधुसहितः श्रीजिनहितोपाध्यायः । स च तत्र तादृगवस्थान् श्रीपूज्यानवलोक्य शोकभरविह्वलीभवन्मानसेन श्रीपूज्यगुणगणमरणपूर्वक नानाप्रकारान् विलापान कृतु प्रवृत्तः । यथा श्रीजिनशासनकाननसंवद्धिविलासलालसे वसता। हा श्रीजिनपतिसूरे !, किमेतदसमञ्जसमवेक्षे ? ॥ [५९] जिनपतिसूरे ! भवता श्रीपृथ्वीराजनृपसदासरसि। पद्मप्रभासिवदने नारमिव जयश्रिया सार्धम् ॥ मथितप्रथितप्रतिवादिजातजलधेः प्रभो ! समुदृत्य । श्रीलंघमनःकुण्डे न्यधात् त्वमानन्दपीयूषम् ।। बुधबुद्धिचक्रवाकी षट्तर्कासरिति तर्कचक्रेण । क्रीडति यथेच्छ मुदिते जिनपतिसूरे ! त्वयि दिनेशे॥ तव दिव्यकाव्यदृष्टावेकविधं सौमनस्यमुल्लसति । द्राक् सुमनसां च तत्प्रतिपक्षाणां च प्रभो ! चित्रम् ॥ धातुविभक्त्यनपेक्षं क्रियाकलापं त्वनन्यसाध्यमपि । यं साधयत् जिनपते ! चमत्कृते कस्य नो जातः ॥ [६४] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार मयि सति कीहक् चासन्नयमत्र कविरिति नाम वहतीति । रोषादसुराचार्य जेतुं कि जिनपते ! स्वरगाः १ ॥ [६५] भगवंस्त्वयि दिवि गच्छति हर्षात्त्वदभिमुखमक्षताः क्षिप्ताः । सुररमणीभिर्मन्ये सारीभूतास्त एवाभ्रे ।। [६६] इन्द्रानुरोधवशतोमध्ये स्वर्गे ययौ भवानित्थम् । जिनपतिसूरे ! सन्तो दाक्षिण्यधना भवन्ति यतः॥ वामपदघातलग्नेन्द्राण्यवतारितशरावपुटखण्डाः । स्वाश्रीविवाहकार्य तव नूनं दिव्युडूभूताः ॥ जिनजननदिनस्नानाधानेच्छातः किमाकुलीभूय । त्वं पञ्चत्वं प्राप्तः सुरपतिवजिनपतिर्भगवान् ? ॥ त्वदभिमुखमिव क्षिप्तानाशानारीभिरक्षतान् नूनम् । उपभोक्तुं वियदजिरे विचरति चन्द्रो मराल इव ॥ नास्तिकमतकृदमरगुरुजयनायेवासि जिनपते ! स्वरगाः। परमेतज्जगदधुना विना भवन्तं कथं भावि ? ॥ हा ! हा! श्रीमज्जिनपतिसूरे ! सूरे त्वयीत्थमस्तमिते। अहह कथं भविता नीतिचक्रवाकी वराकीयम् ॥ करतलधृतदीनास्ये श्रीशासनदेवि ! मा कृथाः कष्टम् । यन्मन्ये तव पुण्यैर्जिनपतिसूरिदिवमयासीत् ।। रे दैव ! जगन्मातुः श्रीवाग्देव्या अपि त्वयात्रेपि । ना मन्ये यदमुष्याः सर्वस्वं जिनपतिरहारि ॥ [७४] इत्यादिशोकविलापभरोच्छलितमूर्छावसाने च धैर्यालम्बनपूर्वकं श्रीपूज्यपादौ वन्दित्वा पाश्चात्यकरणार्थ तैः सह शुद्धे स्थंडिले जगाम सपरिवारः श्रीजिनहितोपाध्यायः । तत्र च कृत्यं समस्तमपि कृत्वा स्वोपाश्रयगमनपूर्वकं श्रीगौतमस्वामिगणधरादिमहापुरुषचरितोत्कीर्तनेन सकलमपि लोकमाह्लादयति स्म । ततश्चतुर्मासी कृता जावालिपुरे। ६६. ततः कालान्तरे श्रीसंघेन सह श्रीजावालिपुरे श्रीजिनहितोपाध्याय-श्रीजिनपालोपाध्यायादिप्रधानसाधुसमन्वितः श्रीसर्वदेवसरिः समस्तसंघसम्मत्या श्रीजिनपतिसरिगुरूपदिष्टरीत्याऽऽचार्यपदोपयोगिषट्त्रिंशद्गुणकलितसौभाग्यभाजनमुपादेयवाक्यं दशविधयतिधर्मादिभृतक्षमाकेलिभवनं वीरप्रभगणिं भक्तिभरसमागतसमस्तदेशवास्तव्यभव्यलोकसंधैः स्थाने स्थाने मण्डितेषु सत्रागारेषु, दीयमानेषु रासकेषु, गीयमानेषु युगप्रधानगुरु [...............] अमारिघोपणायां निष्पाद्यमानायाम् , सहस्रसंख्यद्रव्यार्पणेन याचकवाञ्छासु पूर्यमाणासु, प्रधानरूपवेषलक्ष्म्या शक्रेण सह स्पर्धमानेषु लोकेषु, महामिथ्यादृष्टिभिरपि निरन्तरं प्रशस्यमाने जिनशासने, स्वस्वदेवावहेलापरेष्वपरेषु दर्शनेषु, खरतरमार्गसत्कविरुदावली पठत्सु भट्टलोकेषु, नानाविधास्वाशिस्सु दीयमानासु, तलिकातोरणादिशोभाभूषिते श्रीमहावीरदेवभवने तीर्थप्रभावनानिमित्तं श्रीजिनपतिसूरिपट्टे माघसुदि ६ उपवेशयामास । कृतं च तस्य पूर्वगुरूपदिष्टं श्रीजिनेश्वरसूरिरिति नाम । आनन्दभरनिर्भरेण च संघेन कारिता महत्युत्सर्पणा । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । ४९ ६७. श्रीजिनेश्वरसूरीणां च संक्षेपवाचनेयम् - सं० १२७८ माघ सुदि ६, श्रीमजिनेश्वरसूरीणां पदस्थापना । माघ सुदि ९, यशः कलशगणि- विनयरुचिगणि-बुद्धिसागरगणि-रत्नकीर्त्तिगणि-तिलकप्रभगणि-रत्नप्रभगण्यमरकीर्तिगणि [ नामान: ] ते सप्त साधवो दीक्षिताः श्रीजाबालिपुरे । श्रीमाले सा०यशोधवलेन सह विहृत्य ज्येष्ठ सुदि १२, श्रीविजय- हेमप्रभ-श्रीतिलकप्रभ-श्रीविवेकप्रभ- चारित्रमालागणिनी - ज्ञानमाला [गणिनी] - सत्य मालागणिनीनां दीक्षा । आषाढ सुदि १०, पुनः श्रीश्रीमाले सा० जगद्धरसत्कसमवसरण प्रतिष्ठा श्री शान्तिनाथस्थापना च । श्रीजावालिपुरे देवगृहप्रारम्भश्च । जावालिपुरे १२७९ माघ सुदि ५, अर्हदत्तगणि-विवेक श्रीगणिनी- शीलमालागणिनी- चन्द्रमालागणिनी-विनयमालागणिनीनां दीक्षा । श्रीमाले १२८० माघ सुदि १२, श्री शान्तिनाथभवने ध्वजारोपः । श्रीऋषभनाथ - श्रीगौतमस्वामि- श्रीजिनपतिरिमेघनाद क्षेत्रपाल पद्मावतीप्रतिमानां प्रतिष्ठा । फाल्गुन वदि १, कुमुदचन्द्र कनकचन्द्र- पूर्ण श्रीगणिनी- हेमश्रीगणिनीनां दीक्षा | वैशाख सुदि १४, श्रीप्रह्लादनपुरे सकलनगरे (?) स्तूपे जिनपतिसूरिप्रतिमा स्थापिता, विस्तरेण श्रीजिनहितोपाध्यायद्वारेण । सं० १२८१ वैशाख सुदि ६, जावालिपुरे विजयकीर्ति उदयकीर्त्ति गुणसागर - परमानन्द - कमलश्रीगratri दीक्षा | ज्येष्ठ सुदि ९, जावालिपुरे श्रीमहावीरभवने ध्वजारोपः । १२८३ माघ वदि २, बाडमेरौ श्री ऋषभदेवभवने ध्वजारोपः । माघ वदि ६, श्रीसूरप्रभोपाध्यायपदं मङ्गलमतिगणिन्याः प्रवर्तिनीपदं च, वीरकलशगणि-नन्दिवधन- विजयवर्धनगणिदीक्षा । १२८४ वीजापुरे श्रीवासुपूज्य देवस्थापना, आषाढ सुदि २, अमृतकीर्तिगणि- सिद्धकीतिंगणि चारित्र सुन्दरिगणिनी-धर्मसुन्दरिगणिनीदीक्षा । सं० १२८५ ज्येष्ठ सुदि २, कीर्तिकलशगणि-पूर्णकलशगणिउदय श्रीगणिनीदीक्षा | ज्येष्ठ सुदि ९, वीजापुरे श्रीवासुपूज्यभवने जलानयनादिमहद्धर्ज्या ध्वजारोपः । १२८६ फाल्गु न वदि ५, वीजापुरे विद्याचन्द्र - न्यायचन्द्रा ऽभयचन्द्रगणिदीक्षा । १२८७ फाल्गुन सुदि ५, प्रह्लादनपुरे जयसेन - देवसेन- प्रबोधचन्द्राशोक चन्द्रगणि- कुलश्रीगणिनी - प्रमोद श्रीगणिनीदीक्षा । १२८८ भाद्रपद सुदि १०, स्तूपध्वजप्रतिष्ठा श्रीजाबालिपुरे | आश्विन सुदि १०, स्तूपे ध्वजारोपः प्रह्लादनपुरे साधुभुवनपालेन समुदायसहितेन राजपुत्र श्रीजगसीहसान्निध्येन महामहोत्सवेन कारितः श्रीजिनपालोध्यायद्वारेण । पौष सुदि ११, जाबालिपुरे शरच्चन्द्र - कुशलचन्द्रकल्याणकलश-प्रसन्नचन्द्र - लक्ष्मीतिलकगणि- वीरतिलक - रत्नतिलक - धर्ममति- विनयमतिगणिनी- विद्यामतिगणिनी - चारित्रमतिगणिनीदीक्षा | चित्रकूटे ज्येष्ठ सुदि १२, अजित सेन- गुणसेन - अमृतमूर्ति-धर्ममूर्ति राजीमती हेमावली- कनकावली-रत्नावलीगणिनी-मुक्तावलीगणिनीदीक्षा । आपाढ वदि २, श्रीऋषभदेव - श्री नेमिनाथ - श्री पार्श्वनाथप्रतिष्ठा साधुलक्ष्मीधर- सा०राह्लाभ्यां कारिता । सहस्र ८ लक्ष्मीधरेण वैचिताः (व्ययीकृताः) । राजनिखानेषु वाद्यमानेषु जलानयनम् । १२८९ उज्जयन्त-शत्रुञ्जय स्तम्भनकतीर्थेषु यात्रा ठ० अश्वराज सा० राल्हा साहाय्येन कृता । स्तम्भतीर्थे च वादियमदण्डनामदिगम्बरवादिना [ सह] पण्डित गोष्ठी । महामात्य श्रीवस्तुपालस्य सपरिवारस्य श्री पूज्यानां संमुखागमनेन प्रभावना च । १२९१ वैशाख सुदि १०, जावालिपुरे यतिकलश-क्षमा चन्द्र-शीलरत्न - धर्मरत्न - चारित्ररत्न - मेघकुमारगणि अभयतिलकगणि-श्रीकुमार - शीलसुन्दरिगणिनी- चन्दन सुन्दरिदीक्षा । ज्येष्ठ वदि २, मूलार्के श्रीविजयदेवसूरीणामाचार्यपदम् । १२९४ श्रीसंघहितोपाध्यायस्य पदम् । १२९६ फाल्गुन वदि५, प्रह्लादनपुरे प्रमोद मूर्ति-प्रबोधमूर्ति देवमूर्तिगणीनां मह दीक्षा । ज्येष्ठ सुदि १०, श्रीशान्तिनाथप्रतिष्ठा, साम्प्रतं पत्तन उपविष्टोऽस्ति । १२९७ चैत्रसुदि १४, देवतिलक-धर्म तिलकदीक्षा प्रह्लादनपुरे । १२९८ वैशाख ११, जाबालिपुरे स्वर्णदण्डे ध्वजारोपो मह० कुलधरेण समुदाय सहितेन वसाय गुणचन्द्रेण कारितः । १२९९ प्रथमाश्विन वदि २, महामत्रिकुलधरस्य सकलराजलोकनगरलोकाश्चर्याम्भोधिप्रोल्लासपार्वणेन्दुसोदरेण महामहोत्सवेन दीक्षा, तस्य च कुलतिलकमुनिरिति नाम संजातम् । १३०४ वैशाखसुदि १४, विजयवर्धन गणेराचार्य पदस्थापना, जिनरत्नाचार्य इति नाम । त्रिलोकहित - जीवहित-धर्माकर-हर्षदत्त-संघप्रमोद-विवेकसमुद्र - देवगुरुभक्त चारित्रगिरि- सर्वज्ञभक्त- त्रिलोकानन्ददीक्षा । १३०५ आषाढ सुदि १०, श्रीमहावीर - श्री ऋषभनाथ यु० गु० ७ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० खरतरगच्छालंकार श्रीनेमिनाथ-श्रीपार्श्वनाथबिम्बानां नन्दीश्वरस्य च प्रह्लादनपुरे प्रतिष्ठा । ___इति श्रीजिनचन्द्रमूरि-श्रीजिनपतिमूरि-श्रीजिनेश्वरसूरिसत्कसजनमनश्चमत्कारिप्रभावनावा नामपरिमितत्वेऽपि तन्मध्यवत्तिन्यः कतिचित् स्थूलाः स्थूला वार्ताः श्रीचतुर्विधसंघप्रमोदार्थम् । दिल्लीवास्तव्यसाधुसाहुलिसुत सा० हेमाभ्यर्थनया। जिनपालोपाध्यायैरित्थं ग्रथिताः स्वगुरुवार्ताः ॥ लोकभाषानुसारिण्यः सुखयोध्या भवन्त्यतः। इत्येकवचनस्थाने वाऽपि [च] बहक्तिरपि ॥ [७६] बालावबोधनायैव सन्ध्यभावः कचित्कृतः। इति शुद्धिकृच्चेतोभिः सद्भिज्ञेयं स्वचेतसि ॥ [७७] बुद्धये शुद्धये ज्ञानवृद्धयै जनसमृद्धये । चतुर्विधस्य संघस्य भण्यमाना भवन्त्वतः ॥ [७८] ॥ उद्देशतो ग्रं० (?) १२४ ॥ ६८. सं० १३०६ ज्येष्ठ सुदि १३, श्रीश्रीमाले कुन्थुनाथारनाथप्रतिमाप्रतिष्ठा । द्वितीयवेलाध्वजारोपणं च कारितं सा० धीधाकेन । सं० १३०९ श्रीप्रह्लादनपुरे मार्गशीर्ष सुदि १२, समाधिशेखर-गुणशेखर-देवशेखर-साधुभक्त-वीरवल्लभमुनीनां तथा मुक्तिसुन्दरिसाध्वीदीक्षा । तस्मिन्नेव वर्षे माघ सुदि १०, श्रीशान्तिनाथ-अजितनाथ-धर्मनाथ-वासुपूज्यमुनिसुव्रत-सीमन्धरस्वामि-पद्मनाभप्रतिमायाः प्रतिष्ठा कारिता च सा० विमलचन्द्राहीरादिसमुदायेन । तथा हि-साधुविमलचन्द्रेण श्रीशान्तिनाथो नगरकोट्टप्रासादस्थो महाद्रव्यव्ययेन प्रतिष्ठापितः, अजितनाथो बल०साधारणेन, धर्मनाथो विमलचन्द्रपुत्रक्षेमसिंहेन, वासुपूज्यः सर्वश्राविकाभिः, मुनिसुव्रतो गोष्ठिकथेहडेन, सीमन्धरस्वामी गोष्ठिकहीराकेण, पद्मनाभो महाभावसारेण हालाकेन श्रीप्रह्लादनपुरे । तस्मिन्नेव संवत्सरे वाग्भटमेरौ श्रीआदिनाथशिखरोपरि स्वर्णदण्डस्वर्णकलशौ प्रतिष्ठापितौ, सहजापुत्रेण वत्थडेन महोत्सवेन च तत्र गवाऽऽरोपितौ । ____ सं० १३१० वैशाख सुदि ११, श्रीजावालिपुरे चारित्रवल्लभ-हेमपर्वत-अचलचित्त-लोभनिधि-मोदमन्दिर-गजकीर्ति-रत्नाकर-गतमोह-देवप्रमोद-वीराणन्द-विगतदोष-राजललित-बहुचरित्र-विमलप्रज्ञ-रत्ननिधाना इति पश्चदश साधवः कृताः। चारित्रवल्लभ-विमलप्रज्ञौ पितृ-पुत्रावेतन्मध्याज्ज्ञेयौ। तस्मिन्नेव वैशाखे १३ स्वातिनक्षत्रे शनौ वारे श्रीमहावीरविधिचैत्ये राजश्रीउदयसिंहदेवादिराजलोकसमागमे मह जैत्रसिंहे राजमान्ये सति श्रीप्रह्लादनपुरीय-वाग्गडीयप्रमुखसर्वसमुदायमेलापके सति चतुर्विंशतिजिनालय-सप्ततिशत-संमेत-नन्दीश्वर-तीर्थकरमातृ-हीरासत्कश्रीनेमिनाथउज्जयिनीसत्कश्रीमहावीर-श्रीचन्द्रप्रभ-शान्तिनाथ श्रे०हरिपालसत्कसुधर्मस्वामि-श्रीजिनदत्तमूरि-सीमन्धरस्वामि-युगमन्धरखामिप्रभृतिनानाप्रतिमानां महामहोत्सवेन प्रतिष्ठा जज्ञे। प्रमोदश्रीगणिन्या महत्तरापदं च लक्ष्मीनिधिनाम कृतम् , ज्ञानमालागणिन्याः प्रवर्तिनीपदम् । ____सं० १३११ वैशाख सुदि ६, श्रीप्रह्लादनपुरे श्रीचन्द्रप्रभस्वामिविधिचैत्ये श्रीभीमपल्लीप्रासादस्थितश्रीमहावीरप्रतिमा साधुभवनपालेन महामहोत्सवेन निजभुजोपार्जितद्रव्यव्ययेन प्रतिष्ठापिता। श्रीऋषभनाथः समुदायेन, अनन्तनाथो बोहित्थेन, अभिनन्दनो मोल्हाकेन, वाग्भटमेरुनिमित्तं श्रीनेमिनाथ आम्बासहोदरेण भावसारेण केल्हणेन, श्रीजिनदत्तमूरिप्रतिमा हरिपाललघुभ्रात्रा श्रे० कुमारपालेन । श्रीप्रह्लादनपुरे श्रीजिनपालोपाध्यायानामनशन पूर्व द्योगमनम् । सं० १३१२ वैशाख सुदि १५, चंद्रकीर्तिगणेरुपाध्यायपदं श्रीचन्द्रतिलकोपाध्याय इति नाम कृतम् , वाचना Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। चार्यपदं प्रबोधचन्द्रगणि-लक्ष्मीतिलकगण्योश्च संजातम् । तदनन्तरं ज्येष्ठ वदि १, उपशमचित्त-पवित्रचित्तआचारनिधि-त्रिलोकनिधिदीक्षा। ___सं० १३१३ फाल्गुन सुदि ४, श्रीया(जा)वालिपुरे स्वर्णगिर्युपरि महाप्रासादे वाहित्रिकोद्धरणप्रतिष्ठापितश्रीशान्तिनाथस्थापना । चैत्र सुदि १४,कनककीर्ति-विबुधराज-राजशेखर-गुणशेखर-जयलक्ष्मी-कल्याणनिधि-प्रमोदलक्ष्मीगच्छवृद्धिदीक्षा । अनन्तरं वैशाख वदि १, श्रीअजितनाथप्रतिमा प्रतिष्ठापिता। पद्रू-मूलिगाभ्यां बहुद्रव्यव्ययेन स्थापिता द्वितीयदेवगृहे । ततः प्रह्लादनपुरे आपाढ सुदि १०, भावनातिलक-भरतकीर्तिदीक्षा । श्रीभीमपल्लयां च तस्मिन्नेव दिने श्रीमहावीरस्थापना च ।। सं० १३१४ माघ सुदि १३, कनकगिर्युपरिनिर्मापितप्रधानप्रासादोपरि ध्वजारोपः। श्रीउदयसिंहराजप्रसादपूर्वकं निर्विघ्नं संजातं । आषाढ सुदि १०, सकलहित-राजदर्शनसाध्वोर्बुद्धिसमृद्धि-ऋद्धिसुन्दरि-रत्नवृष्टिसाध्वीनां च श्रीप्रह्लादनपुरे महाविस्तरेण प्रव्रज्या। ___ सं० १३१६ श्रीजावालिपुरे माघ सुदि१, धर्मसुन्दरिगणिन्याः प्रवर्तिनीपदम् । माघ सुदि ३, पूर्णशेखर-कनककलशयोः प्रव्रज्या । माघ सुदि६, स्वर्णगिरौ श्रीशान्तिनाथप्रासादे स्वर्णकलश-स्वर्णदण्डारोपणं पद्रू-मूलिगाभ्यां श्रीचाचिगदेवराज्ये कारितम् । आपाढ सुदि ११, श्रीवीजापुरे श्रीवासुपूज्यजिनमन्दिरे वर्णकलश-वर्णदण्डध्वजारोपणं विशेघेण श्रीसोममत्रिणा कारितम् । ___ सं० १३१७ माघ सुदि १२, लक्ष्मीतिलकगणेरुपाध्यायपदं महा पद्माकरस्य दीक्षा च । माघ सुदि १४, श्रीजावालिपुरालङ्कारश्रीमहावीरजिनेन्द्रप्रासादचतुर्विंशतिदेवगृहिकासु स्वर्णकलश-स्वर्णदण्डध्वजानामारोपणं सर्वसमुदायेन कारितम् । फाल्गुन सुदि १२, श्रीशान्तनपुरे श्रीअजितस्वामिप्रासादे ध्वजप्रतिष्ठारोपौ वा० पूर्णकलशगणिद्वारेण । श्रीभीमपल्लयां श्रीमण्डलिकराज्ये दण्डाधिपतिश्रीमीलगण (सीलण ?) सान्निध्येन अनेकप्रह्लादनपुरादिसमुदायमेलकेन सा०खीमडसुत सा० जगद्धर-तदङ्गजरत्न सा० भुवनेन समुदायसहितेन महर्या, वैशाख सुदि १० दशम्यां सोमवारे, श्रीमहावीरकेवलज्ञानमहोत्सवदिने, मन्दिरतिलकनामश्रीवर्धमानजिनप्रासादशिखरे स्वर्णदण्ड-स्वर्णकलशप्रतिष्ठा तयोरध्यारोपश्च कारितः । तथा श्रेष्ठिहरिपालेन तद्भात्रा श्रेष्ठिकुमारपालेन श्रीसरस्वतीप्रतिमा अनवद्यविद्याचक्रवर्तिकल्पा शशाङ्कशुभ्रप्रभाऽनल्पा सकलसंघसुबुद्धिप्रदायिनी एकपञ्चाशदङ्गुलप्रमाणा महर्या प्रतिष्ठापिता । अङ्गुलिकत्रिंशत्प्रमाणा श्रीशान्तिनाथप्रतिमा सा० राजदेवेन, ऋषभनाथप्रतिमा मूलदेव-क्षेमन्धराभ्याम् , श्रीमहावीरप्रतिमा सावदेवपुत्रेण पूर्णसिंहेन, आजडसुतबोघाकेन श्रीपार्श्वनाथप्रतिमा, धारसिंहेन श्रीपार्श्वनाथप्रतिमा भीमभुजबलपराक्रमक्षेत्रपालबिम्बं च, श्रीऋषभनाथ महावीरप्रतिमे पूनाणीऊदाकेन, चतुर्विंशतिपट्टाजितप्रतिमे सा० बालचन्द्रेण, श्री. ऋषभनाथप्रतिमा श्रेष्ठिधान्धलेन भावडसुतेन, शान्तिनाथप्रतिमा वो० शान्तिगेन, श्रीऋषभनाथप्रतिमा आसणागेन, महावीरप्रतिमात्रयं साढलपुत्रधनपालेन, वसा० भोजाकेन शान्तिनाथप्रतिमा, श्रेष्ठिहरिपाल-कुमारपालाभ्यां जिनदत्तमरिमूर्ति-चन्द्रप्रभस्वामिप्रतिमे, रूपचन्द्रसुतनरपतिना श्रीनेमिनाथविम्बं, स्तम्भ० धनपालेन, चण्डे० वीजाकेन, अम्बिकाप्रतिमा समुदायेन । द्वादश्यां सौम्यमूर्ति-न्यायलक्ष्मीदीक्षा । संवत १३१८ पौप सुदि ३, संघभक्तस्य दीक्षा धर्ममूर्तिगणेचिनाचार्यपदं च । सं० १३१९ मार्ग० सुदि ७, अभयतिलकगणेरुपाध्यायपदम् । तस्मिन्नेव वर्षे श्रीअभयतिलकोपाध्यायः पं० देवमूर्त्यादिसाधुपरिवृतैरुजयिन्यां विहृत्य तपोमतीयं पं० विद्यानन्दं निर्जित्य प्रासुकं शीतलं जलं यतिकस्य[कल्पत ?] इति सिद्धान्तबलेन व्यवस्थाप्य च जयपत्रं गृहीतम् । तस्य च प्रह्लादनपुरादिषु विस्तरेण प्रवेश Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार कोत्सवः । सं० १३१९ माघ वदि ५, विजयसिद्धिसाध्व्या दीक्षा । माघ वदि ६, श्रीचन्द्रप्रभस्वामिप्रतिमा अजितनाथप्रतिमा सुमतिनाथप्रतिमा श्रेष्ठिबुधचन्द्रेण महामहोत्सवेन प्रतिष्ठापिता । श्रीऋषभनाथप्रतिमा सा० भुवनपालेन, धर्मनाथप्रतिमा जिसधरसुतेन जीविगश्रावकेण, सुपार्श्वप्रतिमा रत्न-पेथडश्रावकाभ्याम् , श्रीजिनवल्लभसू रिमूर्तिः सिद्धान्तयक्षमूर्तिश्च श्रेष्ठिहरिपाल तद्भातश्रेष्ठिकुमारपालाभ्याम् । श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथदेवप्रासादे अक्षततृतीयायां दण्डकलशारोपः सा० अभयचन्द्रेण कारापितः। सं० १३२१ फाल्गुन सुदि २, गुरौ चित्तसमाधि-क्षान्तिनिधिसाध्व्योर्दीक्षा । सं० १३२१ फाल्गुन वदि ११, श्रीप्रह्लादनपुरे आलयप्रतिमात्रयस्य दण्डस्य च प्रतिष्ठा कारयित्वा जेसलमेरवास्तव्यसमुदायेन सा० जसोधवलकारिते देवगृहशिखरे जेसलमेरौ ज्येष्ठ सुदि १२ श्रीपार्श्वनाथस्य स्थापना दण्डध्वजारोपश्च कारितः । सं० १३२१ ज्येष्ठ सुदि १५, चारित्रशेखर-लक्ष्मीनिवास-रत्नावतारसाधवो दीक्षिता विक्रमपुरे । ___ सं० १३२२ माघ सुदि १४, त्रिदशानन्द-शान्तमूर्ति-त्रिभुवनानन्द-कीर्तिमण्डल-सुबुद्धिराज-सर्वराज-वीरप्रियजयवल्लभ-लक्ष्मीराज-हेमसेननामानो दश साधवः, मुक्तिवल्लभा-नेमिभक्ति-मङ्गलनिधि-प्रियदर्शनाभिधानाश्चतस्रः साध्व्यश्च कृताः। श्रीविक्रमपुरे वैशाखसुदि ६ वीरसुन्दरी साध्वी च । __ १३२३ मार्ग० वदि ५, नेमिध्वजसाधुः, विनयसिद्धि-आगमवृद्धिसाध्व्यौ च कृताः। जावालिपुरे, सं०१३२३ वैशाख सुदि १३, देवमूर्तिगणेर्वाचनाचार्यपदम् ; द्वितीयज्येष्ठ सुदि १०, जेसलमेरुश्रीपार्श्वविधिचैत्यारोपार्थ स्वर्णदण्ड कलशयोः सा० नेमिकुमार-सा० गणदेवकारितयोः प्रतिष्ठा; विवेकसमुद्रगणेचिनाचार्यपदस्थापना च कृता । आपाढ वदि १, हीराकरसाधुः कृतः। सं० १३२४ वर्षे मार्ग० वदि २ शनौ, कुलभूषणसाधु-हेमभूषणसाधुद्वयम् , अनन्तलक्ष्मी-व्रतलक्ष्मी-एकलक्ष्मीप्रधानलक्ष्मी इति साध्वीपश्चकं (चतुष्टयं ?) च महा श्रीजावालिपुरे कृतम् । ___ सं० १३२५ वैशाख सुदि १०, श्रीजावालिपुरे श्रीमहावीरविधिचैत्ये श्रीप्रह्लादनपुरीय-स्तम्भतीर्थीय-श्रीमेदपाटीय-श्रीउच्चीय-श्रीवाग्गडीयप्रमुखसर्वसमुदायमेलापके व्रतग्रहण-मालारोप-सम्यक्त्वारोप-सामायिकारोपादिनन्दी महाविस्तरेण संजज्ञे । तत्र गजेन्द्रवल इति साधुः, पद्मावतीति साध्वी च कृता । तथा वैशाख सुदि १४, श्रीमहावीरविधिचैत्य एव चतुर्विंशतिजिनबिम्बानां चतुर्विंशतिध्वजदण्डानां सीमन्धरस्वामि-युगमन्धरस्वामि-बाहु-सुबाहुबिम्बानाम् , अन्येषां च प्रभूतबिम्बानां महाविस्तरेण प्रतिष्ठा जज्ञे । तथा ज्येष्ठ वदि ४, सुवर्णगिरौ श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये चतुविंशतिदेवगृहिकामध्ये तेषामेव चतुर्विंशतिजिनविम्बानां सीमन्धरस्वामि-युगमन्धरस्वामि-बाहु-सुबाहुबिम्बानां सर्वसमुदायमेलकेन महामहोत्सदेन विस्तरेण स्थापनामहोत्सवः संजातः । तत्रैव च दिने धर्मतिलकगणेाचनाचार्यपदम् । तथा वैशाख सुदि १४, श्रीजेसलमेरौ श्रीपार्श्वनाथविधिचैत्ये सा० नेमिकुमार-सा० गणदेवकारितयोः सुवर्णदण्डसुवर्णकलशयोः सविशेषमहोत्सवो विस्तरेण संजातः । ६९. सं० १३२६ वर्षे, सा० भुवनपालसुत सा० अभयचन्द्रविरचितेन, मं० अजितसुत मं० देदासुश्रावकाङ्गीकतपच्छेवाणप्राग्भारेण, सा०अभयचन्द्र-महं० अजितसुत महं०देदा-सा राजदेव-श्रेष्ठिकुमारपाल सानीम्बदेवसुतसा. श्रीपति-सा० मूलिग-सा० धनपालप्रमुखेण चतुर्दिग्भवेन विधिसंघेन सह तद्गाढाभ्यर्थनया श्रीशत्रुञ्जयादितीर्थयात्रार्थ श्रीजिनेश्वरमरिगुरुषु श्रीजिनरत्नाचार्य श्रीचन्द्रतिलकोपाध्याय-कुमुदचन्द्रप्रभृतिसाधु २३ पर्युपास्यमानेषु, श्रीलक्ष्मीनिधिमहत्तराप्रमुखसाध्वी१३परिवृतेषु, चैत्र वदि१३,श्रीप्रह्लादनपुरात् प्रचलितेषु,स्थाने स्थाने श्रीविधिसंघे चमत्कारकारिणी विधिमार्गप्रभावनां कुर्वाणे श्रीतारणमहातीर्थे महं० देदाकेन द्रं० १५०० इन्द्रपदम् , पूनाकसुतेन सा० पेथडेन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । द्रं० ४०० मन्त्रिपदम् , कुलचन्द्रसुतवीजडेन द्रं० १०० सारथिपदम् , सा राजाकेन नं० ११० भाण्डागारिकपदम् , महं देदाश्राविकाद्वयेन द्रं० ३०० आधचामरधारिपदम् , सा० जयदेव-तेजपालभार्याभ्यां पाश्चात्य चामरधारिपदं तिलकेन; तेजपालेन ९०छत्रधरपदं महामहोत्सवेन गृहीतम् । श्रीवीजापुरे श्रीवासुपूज्यविधिचैत्ये सा० श्रीपतिना दं० ३१६ माला गृहीता । द्रम्मसहस्र ३ आयपदे जाताः । श्रीस्तम्भनकमहातीर्थे बहुगुणभ्रात्रा थकणेन द्रं०६१६ इन्द्रपदम् , साकरियासहजपालेन द्रं०१४० मत्रिपदम् , सा०पासूश्रावकेण द्रं०२३२ चामरधारिचतुष्कपदम् , द्रं०८० प्रतीहारपदं सांगणपुत्रेण, दं०७० सारथिपदं पासपुत्रेण, भां० राजाकपुत्रनावन्धरेण द्रं० ८० भाण्डागारिकपदम् , बहुगुणेन द्रं० ४० छत्रधरपदम् , का पारसपुत्रसोमाकेन द्रं० ५० स्थगिकावाहकपदं गृहीतम् । सर्वसंख्यया पदेषु द्रं० १३०८, आयपदे ५००० संघेन सफलीकृतानि । श्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थे सा० मूलिगेन द्रं० १४७४ इन्द्रपदम् , महं० देदाकपुत्रमहं० पूनसीहेन दं० ८०० मत्रिपदम् , भां० राजापुत्रइसलेन द्रं० ४२० भाण्डागारिकपदं गृहीतम् । सालाकेन २७४ प्रतीहारपदम् , महं० सामन्तपुत्रालणसिंहेन २२४ सारथिपदम् , सा० धनपालपुत्रधीन्धाकेन ११६ छत्रधरपदम् , छो० देहडेन २८० पारघियपदम् , पद्मसिंहेन दं० १०० स्थगिकावाहकपदम् , बहुगुणेन ४५० आधचामरधारिपदम् , भां० राजाकेन १००, सां०रूवाकेन १०० पाश्चात्य चामरधारिपदम् । सर्वाग्रेण पदेषु ५३३८ । सा० पासूश्रावकेण ३८ लेप्यमयमूलनायकयुगादिदेवमुखोद्घाटनमाला, सा० पद्रूसुतसाहुदाहडेन ३०४ मूलनायकयुगादिदेवमाला, महं देदाजनन्या हीरलश्राविकया ५०० मरुदेवीस्वामिनीमाला, सा०राजदेवजनन्या तीवी(?)श्राविकया १४० पुण्डरीकगणधरमाला, तत्पुत्रेण मूलराजेन १७० कपर्दियक्षमाला गृहीता । सर्वसंख्ययाऽऽयपदे दं० १७०००। ___ श्रीउञ्जयन्तमहातीर्थे सा०श्रीपतिनानं० २१०० इन्द्रपदम्, श्रेष्ठिहरिपालपुत्रपूर्णपालेन ६१६ मन्त्रिपदम् , पासू श्रा० २९० प्रतीहारपदम् , भां० राजपुत्रेण आटाभिधेन ५०० भाण्डागारिकपदम् , कां० मनोरथेन २६० सारथिपदम् , सा० राजदेवभ्रातृपुत्रेण भुवणाकेन १५० पारिघियपदम् , सा० राजदेवेन पु० सलखणेन १४० स्थगिकावाहकपदम् , धनदेवेन ११३ छत्रधरपदम् , सा० श्रीपतिना २०० प्रथमचामरधारिपदम् , ८५ चतुर्थचामरधारिपदम् , च । वै०सा० बहुगुणेन १६० द्वितीयचामरधारिपदम् , ९० तृतीयचामरधारिपदं च । वै० हांसिलसुत वै० देहडेन ५१६ श्रीनेमिनाथमुखोद्घाटनमाला, सा० अभयचन्द्रमात्रा त्रिहुण(?)पालहीश्राविकया २४० राजीमतीमाला, सा० श्रीपतिमात्रा मोह्लाश्राविकया ३५ अम्बिकामाला, पालणसुतदेवकुमारेग १४४ साम्बमाला, सा० अभयचन्द्रपुत्रवीरधवलेन १८० प्रद्युम्नमाला, सा०राजदेवभ्रात्रा भोलाकेन ३११ कल्याणजयमाला, सा० पासूभगिन्या रासलश्राविकया २५० श्रीशत्रुञ्जयऋषभदेवमाला, सा० पासूमात्रा पालीश्राविकया १२४ मरुदेवीमाला, सा० ऊदापुत्रमीमसिंहेन १०८ पुण्डरीकमाला, सा० धणपालेन ११६ अवलोकनाशिखरमाला, सा० राजदेवभ्रातृगुणधरपुत्रवीजडेन ६४ कपर्दियक्षमाला गृहीता । एवं सर्वाग्रेण ७०९७ । शत्रुञ्जये देवभाण्डागारे उद्देशतः सहस्र २०, उज्जयन्ते सहस्र १७ संजाताः। श्रीजिनेश्वरसूरिभिः श्रीउज्जयन्ते श्रीनेमिनाथराजपुरतो ज्येष्ठवदि.....प्रबोधसमुद्र-विनयसमुद्रसाधुद्वयस्य दीक्षामहोत्सवो मालारोपणादिमहोत्सवश्च कृतः । ततो देवपत्तने पतियाणैर्दत्तं वाहिकैर्महता विस्तरेण चतुर्विधसंघसहितः श्रीजिनेश्वरसूरिभिः सकललोक[हित]कारिणी चैत्यपरिपाटी कृता । सर्वेऽपि पतियाणास्तत्प्रभुश्च अतिरजिताः। एवं स्थाने स्थाने महाप्रभावनाकरणतः सफलीकृतनिजजन्मसामर्थ्येन सम्पूर्णमनोरथेन विधिमार्गसंघेन सह तीर्थयात्रां विधाय, आषाढ सुदि ९, सा० अभयचन्द्रेण देवालयस्य श्रीजिनेश्वरसूरिप्रमुखचतुर्विधसंघसमन्वितस्य प्रवे Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ खरतरगच्छालंकार शकमहोत्सवः सकलनगरालोकचमत्कारकारी [कृतः] श्रीप्रह्लादनपुरे महता विस्तरेण महोत्सवेन श्रीजिनेश्वरमरिसुगुरुप्रसादानिर्विघ्नश्रेयसेऽस्तु । सुमेरौ निर्मरैरपि सपदि जग्मे तरुवरै टुंगव्या दिव्यन्ते सलिलनिधौ चिन्तामणिगणैः। कलौ काले वीक्ष्यानवधिमभितो याचकगणं । न तस्थौ केनापि स्थिरमभयचन्द्रस्तु विजयी । [७९] धैर्य ते स विलोकतामभय ! यः शैलेन्द्र धैर्योत्मना, गाम्भीर्यं स तवेक्षतां जलनिधेर्गाम्भीर्यमिच्छुश्च यः । भक्तिं देवगुरौ स पश्यतु तव श्रीश्रेणिकं यः स्तुते, यात्रां तीर्थपतेः स वेत्तु भवतो यः स सांप्रती ज्ञीप्सति ॥ [८०] सं० १३२८ वैशाख सुदि १४, श्रीजावालिपुरे सा० क्षेमसिंहेन श्रीचन्द्रप्रभस्वामिमहाबिम्बस्य, महं पूर्णसिंहेन श्रीऋषभदेवस्य, महं ब्रह्मदेवेन श्रीमहावीरबिम्बस्य प्रतिष्ठामहोत्सवः कारितः । ज्येष्ठ वदि ४, हेमप्रभा साध्वी कृता। सं० १३३० वैशाख वदि ६, प्रबोधमूतिंगणेर्वाचनाचार्यपदम् , कल्याणऋद्धिगणिन्याः प्रवर्तिनीपदम् । वैशाख वदि ८, श्रीस्वर्णगिरौ श्रीचन्द्रप्रभस्वामिमहाविग्यं शिखरमध्ये स्थापितम् ।। ७०. एवं प्रतिदिनचमत्कृतविश्वविश्वचित्तानि नैकानि सच्चरित्राणि कुर्वन्तः, श्रीमहावीरतीर्थराजतीर्थ प्रभावयन्तः, प्रोच्छलढ्यापल्लहरिरौद्रसंसारमहाम्भोधिमञ्जजन्तुजातं निस्तारयन्तः, समस्तप्राणिप्राज्यमनोराज्यमालाः कल्पद्रुवत्पूरयन्तः, स्ववाक्चातुरीतजितदेवसूरयः प्रभुश्रीजिनेश्वरसूरयो लोकोत्तरज्ञानसारभाण्डागाराः श्रीजावालिपुरस्थिताः स्वान्त्यसमयं ज्ञात्वा सर्वसंघसमक्षं संक्षेपेण स्वहस्तेनानेकगुणमणिविपणिं वा० प्रबोधमूत्र्तिगणिं १३३१ आश्विनकृष्णपञ्चम्यां प्रातः स्वपदे समस्थापयत् । श्रीजिनप्रबोधसूरिरिति नाम ददुः। श्रीप्रह्लादनपुरस्थितान् श्रीजिनरत्नाचार्यानेवमादिशश्च यच्चतुर्मास्यनन्तरे सर्वगच्छं समुदायं च मेलयित्वा युष्माभिः प्रधानलग्ने यथाविधि विस्तरेण [मरिपदस्थापना] कार्या । ततः श्रीपूज्यैरनशनं प्रतिपन्नम् । तदनन्तरं विशेषतः श्रीमत्पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारमन्त्रराजं ध्यायन्तोऽनेका आराधना गुणयन्तः सर्वसचान क्षमयन्तः शुभध्यानाग्रमारूढा आश्विनकृष्णषष्ठथा रात्रिप्रथमघटिकाद्वये गते श्रीपूज्याः स्वर्गाङ्गणविभूपणा बभूवुः । __ततः प्रभाते समुदायेन सर्वराजलोकसहितेन स्थाने स्थाने प्रेक्षणीयके संजायमाने नान्दीतूर्ये वाद्यमाने श्रीमत्पूज्यसंस्कारमहोत्सवः सर्वजनचमत्कारकः कृतः । तत्र च सर्वसमुदायसहितेन सा० क्षेमसिंहेन स्तूपः कारितः। ७१. ततश्चतुर्मास्यनन्तरं श्रीजिनरत्नाचार्याः श्रीजिनेश्वरसूरिसुगुरूपदिष्टश्रीजिनप्रबोधसूरिविस्तरपदस्थापनां चिकीर्षवः श्रीजावालिपुरे समागमन् । ततः सर्वदिक्समुदायमेलापके श्रीचन्द्रतिलकोपाध्याय-श्रीतिलकोपाध्याय-वा० पद्मदेवगणिप्रमुखानेकसाधुमेलापके च प्रतिदिनं दीनानाथदुःस्थितलक्ष्मीदानश्रीचतुर्विधसंघसत्कारविधानादिषु महोत्सवेषु जगजनमनोमयूरताण्डवाडम्बराम्भोधरेषु भविकलोकैर्विधीयमानेषु, सं० १३३१ फाल्गुन वदि ८ खौ, श्रीजिनरत्नाचार्यैः श्रीजिनप्रबोधसरीणां पदस्थापना चक्रे । ततः श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः फाल्गुन सुदि ५, स्थिरकीर्ति-भुवनकीर्तिमुनी केवलप्रभा हर्षप्रभा-जयप्रभा-यशःप्रभासाध्व्यश्च दीक्षिताः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। ___सं० १३३२ ज्येष्ठ वदि १, शुक्रे श्रीजावालिपुरे सर्वदेशसमुदायमेलापके महाविस्तरेण सा० क्षेमसिंहश्रावकोतंसेन नमि-विनमिपरिवृतश्रीयुगादिजिन-श्रीमहावीर-अवलोकनाशिखर-श्रीनेमिनाथविम्बान् शांव-प्रद्युम्नमूर्योः श्रीजिनेश्वरमरिमूर्धनदयक्षमूर्ति-श्रीसुवर्णगिरि-श्रीचन्द्रप्रभस्वामि-वैजयन्त्याश्च प्रतिष्ठा कारिता । श्रीयोगिनीपुरवास्तव्यदलिकहरुश्रावकेण श्रीनेमिनाथस्य, सा० हरिचन्द्रश्रावकेण श्रीशान्तिनाथस्य, अन्येषामपि प्रभूतविम्बानां प्रतिष्ठा जज्ञे । ज्येष्ठ वदि ६, श्रीसुवर्णगिरी श्रीचन्द्रप्रभस्वामिध्वजारोपः । ज्येष्ठ वदि ९, स्तूपे श्रीजिनेश्वरसूरिमूर्तेः स्थापना । तमिन्नेव दिने विमलप्रज्ञस्योपाध्यायपदम् , राजतिलकस्य च वाचनाचार्यपदम् । ज्येष्ठ सुदि ३, गच्छकीर्ति-चारित्रकीर्ति-क्षेमकीर्तिमुनयो लब्धिमाला-पुण्यमालासाव्यौ च दीक्षिताः। ___ ७२. सं० १३३३ माघ वदि १३, श्रीजावालिपुरे कुशलश्रीगणिन्याः प्रवर्तिनीपदम् । अत्रैव संवत्सरे सा० विमलचन्द्रसुत सा० क्षेमसिंह-सा० चाहडविरचितेन मन्त्रिदेदासुतमन्त्रिमहणसिंहनियूढपच्छेवाणप्राग्भारेण सा०क्षेमसिंह -सा० चाहड-सा० हेमचन्द्र-श्रेष्ठिहरिपाल-योगिनीपुरवास्तव्य साजेणूसुत सा० पूर्णपाल-सौवर्णिकधान्धलसुतसा० भीम-मन्त्रिदेदापुत्रमन्त्रिमहणसिंहप्रमुखेन सर्वदिग्भवेन विधिसंघेन सह तद्गाढोपरोधेन श्रीशत्रुञ्जयादिमहातीर्थयात्रायै श्रीजिनप्रबोधसूरिसुगुरुषु श्रीजिनरत्नाचार्येषु श्रीलक्ष्मीतिलकोपाध्याय-श्रीविमलप्रज्ञोपाध्याय-वा० पद्मदेवगणि-वा० राजतिलकगणिप्रमुख साधु २७ सेव्यमानचरणारविन्देषु, प्र. ज्ञानमालागणिनी-प्र०कुशलश्री-प्र०कल्याणऋद्धिप्रभृतिसाध्वी २१ परिवृतेषु, चैत्र वदि ५ श्रीजावाल(लि)पुरात प्रस्थितेषु, स्थाने स्थाने श्रीविधिसंघसर्वजनमनश्चमत्कारकारिणीं विधिमार्गप्रभावनां विदधानेषु, श्रीश्रीमाले श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये द्रं० १४७४ विधिसंघेन सफलीकृताः। ___ तथा श्रीप्रह्लादनपुरादिषु विस्तरेण चैत्यपरिपाटयादिना प्रभावनां विधाय, श्रीतारणतीर्थे सा० नीम्बदेवसुत सा० हेमाकेन द्रं० ११७४ इन्द्रपदम् , इन्द्रपरिवारेण द्रं० २१०० मन्त्र्यादिपदं गृहीतम् । कलशाद्यायपदे सर्वसंख्ययोद्देशतो द्रं० ५२७४ विधिसंघेन सफलिताः । तथा वीजापुरे श्रीवासुपूज्यविधिचैत्ये उद्देशतो दं० सहस्र ४ मालादिग्रहणेन श्रीसमुदायेन कृतार्था विदधिरे । तथा श्रीस्तम्भनकमहातीर्थे गोष्ठिकक्षेमन्धरसुत गो० यशोधवलेन द्रं०११७४ इन्द्रपदम् । इन्द्रपरिवारेण द्रं० २४०० मन्त्र्यादिपदं गृहीतम् । कलशाद्यायपदे सर्वसंख्ययोदेशतो ई० सहस्र ७ संघेन कृतार्थी चक्रिरे । तथा भृगुकच्छे द्रं० ४७०० समुदायेन स्थिरीकृताः। तथा श्रीशत्रुञ्जये श्रीयुगादिदेवचैत्ये योगिनीपुरवास्तव्य सा०पूनपालेन द्रं० ३२०० इन्द्रपदम् , इन्द्रपरिवारेण द्रं० सहस्र ३ मच्यादिपदं जगृहे । श्रेष्ठिहरिपालेन द्रं० ४२०० पाह्रघापदे । उद्देशतः कलशाद्यायपदे सर्वाग्रेण द्रं० सहस्र २५ श्रीसंघेनाऽक्षया निर्ममिरे । तथा युगादिदेवपुरतः श्रीजिनप्रबोधसूरिभिज्येष्ठ वदि ७ जीवानन्दसाधोः पुष्पमाला-यशोमाला धर्ममालालक्ष्मीमालासाध्वीनां च दीक्षामहोत्सवो मालारोपणादिमहोत्सवश्च विस्तरेण विधिमार्गप्रभावनाय चक्रे । श्रीश्रेयांसविधिचैत्ये द्रं० ७०८, तथा उज्जयन्ते सा० मूलिगसुत सा० कुमारपालेन द्रं० ७५० इन्द्रपदम् , इन्द्रपरिवारेण २१५० मन्च्यादिपदम् । सा० हेमचन्द्रेण स्वामातृराजूनिमित्तं ,सहस्र २ नेमिनाथमाला जगृहे । उद्देशतः कलशाद्यायपदे सर्वाग्रेण द्रं० सहस्र २३ श्रीसंघेन शाश्वतीकृताः। ___ एवं स्थाने स्थाने प्रवचनप्रोत्सर्पणाकारिप्रभावनाविधानतः सफलीकृतनिजजन्म-द्रव्य-कलासामर्थन सम्पूर्णमनोरथेन श्रीविधिसंघेन सह महातीर्थयात्रां विधाय सा० क्षेमसिंहेन श्रीजावालिपुरे आषाढ सुदि १४ श्रीदेवालयस्य श्रीजिनप्रबोधसूरिप्रमुखचतुर्विधसंघसमन्वितस्य विधिमार्गप्रभावनया निर्विघ्नं निर्मापितः प्रवेशकमहोत्सवः । समस्तसंघप्रमोदायाभवच्चाचन्द्रार्कम् । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार ७३. सं० १३३४ मार्ग सुदि १३, रत्नवृष्टिगणिन्याः प्रवर्तिनीपदम् । श्री भीमपल्ल्यां वैशाख वदि ५, श्रीनेमि नाथ-श्रीपार्श्वनाथविम्बयोः, श्रीजिनदत्तसूरिमूर्ते, श्री शान्तिनाथदेव गृहध्वजादण्डस्य च सा० राजदेवेन, श्रीगौतमस्खामिमूर्त्तेः सा० वयजलेन, प्रतिष्ठा महोत्सवः सर्वसमुदाय मेल केन महामहोत्सवेन कारितः । वैशाख वदि ९ मङ्गलकलसाधोदक्षा | ज्येष्ठ सुदि २, बाडमेरौ बिहारः । सं० १३३५ मार्ग० वदि ४, पद्मकीर्ति - सुधाकलश-तिलककीर्तिलक्ष्मीकलश- नेमिप्रभ–हेमतिलक - नेमितिलकसाधूनां विस्तरेण दीक्षा | ५६ ७४ पौष सुदि ९, श्रीचित्रकूटे विहारः । तस्मिथ दिने सौवर्णिकधान्धल- तत्पुत्र भां० बाहडश्रावकाभ्यां सकलराजलोकसकलनागरिकलोके......सविस्तरः प्रवेशकमहोत्सवः कारितः । फाल्गुन वदि ५, श्रीसमरसिंहमहाराजरामराज्ये प्रत्यासन्ननगर ग्राम समुदाय मेलापके समस्त ब्रह्मलोक - जटाधर - राजपुत्र - प्रधानक्षेत्र सिंह - कर्णराज प्रमुख राजलोकनागरिलोकेषु मध्येभूय महोत्सवं कुर्वाणेषु सर्वदेवगृहसत्केषु एकादशसु मेघाडम्बर- छत्रेषु जनितशोभातिशयेषु स्थाने स्थाने व्याप्तदिगन्तेषु समुच्छलद्वादशविधनान्दीनिनादेषु सम्पूर्णविश्वमनोरथविताने यथेच्छं प्रवर्तमाने दाने जगन्मनश्चमत्कारकारिजलयात्रापूर्वं चतुरशीतौ श्रीमुनिसुव्रतस्वामि- युगादिदेव - अजितनाथ - वासुपूज्य विम्बानाम्, श्रीमहावीरसमवसरणस्य, सा० धनचन्द्रसुत सा० समुद्धारकारित श्रीपू ( स्व ? ) र्णगिरि श्री शान्तिनाथविधिचैत्यसंस्थित श्रीशान्तिनाथपित्तलामय समवसरणस्य, अन्यासां बहूनां प्रतिमानां शाम्बमूर्त्ति - दण्डाष्टकस्य च विधिमार्गजयजयारवकारकः सविस्तरं प्रतिष्ठामहोत्सवः संजातः । तस्मिन्नेव दिने चतुरशीतौ श्रीयुगादिदेव - श्रीनेमिनाथयो ः स्थापना | फाल्गुन सुदि ५ चतुरशीत श्रीयुगादिदेव - श्रीनमिनाथ - श्रीपार्श्वनाथानां शाम्ब-प्रद्युम्नमुन्योरभ्विकायाच प्रासादेषु चक्क (त्व ? ) रहट्टी अम्बिकायाश्च ध्वजारोपमहोत्सवः सकलराज्यधुराधरणधौरेय राजपुत्र श्रीअर सिंहसान्निध्यात् तीर्थप्रोत्सर्पणाकारी सम्पन्नः । एते च सर्वे महामहोत्सवाः सौवर्णिकधान्धल - तत्पुत्ररत्नभा० बाहडाभ्यां सकलसमुदायसहिताभ्यां प्रभूतस्वस्वापतेय सफलीकरणेन कारिताः । वद्रदहाग्रामे श्रीजिनदत्तसूरिप्रतिष्ठिते श्रीपार्श्वनाथविधिचैत्ये सा० आह्राकेन महण - झाझणादिपुत्रसहितेन कृतनवोद्धारे चित्रकूटे प्रतिष्ठितस्य दण्डस्य, फाल्गुन सुदि १४, विस्तरेणाध्यारोपः संजातः । जाहेडाग्रामे चैत्र सुदि १३, सम्यक्त्वारोपादिनन्दिमहोत्सवः सा० सोमलश्रावण सा० कुमरप्रभृतिस्वकुटुम्ब सहितेन सविस्तरः कारितः । वरडियास्थाने, वैशाख वदि ६, श्रीपुण्डरीक - श्री गौतमस्वामि- प्रद्युम्नमुनि - जिनवल्लभसूरि - जिनदत्तसूरि-जिनेश्वरसूरिमूर्तीनां सरस्वत्याश्च सविस्तरजलयात्रापूर्व विस्तरेण निर्विघ्नं प्रतिष्ठा महोत्सवः, वैशाख वदि ७, मोहविजय - मुनिवल्लमोदीक्षा, हेमप्रभगणेर्वाचनाचार्यपदं च संपन्नानि । ७५. सं० १३३६ ज्येष्ठसुदि ९ श्रीमत्पूज्यैर्युगप्रधान श्री आर्यरक्षितचरित्रं संस्मरद्भिः स्वपितुः साधुश्रीचन्द्रस्य प्रान्त्यसमयं विज्ञाय श्रीचित्रकूटान्महता वेगेन श्रीप्रह्लादनपुरे समागत्य तद्भाग्याकृष्टदेवपत्तनीयाद्यनेककोमलसंघमहामेलापकेन दीनानाथमनोमनोरथान् पूरयतः सप्तक्षेत्र्यां स्वं स्वं सफलीकुर्वतः प्रभूतवसुदानप्रदानेन द्वादशविधनान्दीनिनादवाद विवादयतः, अनवरत शुद्धशीलालङ्कारधारकस्य, पुण्यरागाङ्गरागसुरभीकृताङ्गस्य, नानाविधस्वाध्यायरसताम्बूलेन सुभगस्य, सा० श्रीचन्द्रपरम श्रावकस्य संयमश्रीः प्रदत्ता । तेन च पुण्यात्मना प्रकटित पुरोहितसोमदेवचरित्रेण प्रतिक्षणं वर्धमानसंवेगरसेन उच्चण्डव्यावलात् (?) करवालजालोपममपुण्यवतां दुष्प्रापं व्रतं प्राप्य सप्तदशभिर्वासरप्रहारिनिदलित सप्तदशविधासंयम महासुभटेन निरतिचारप्रतिपालित कृतप्रान्त्यप्रत्याख्यानेन कृतनवनवाराधनामृतपानेन अपूर्वचारित्रेण जगत्रयचित्रायता स्तम्भतीर्थीयाद्यनेकसंघानां वन्दारुभव्यजनवृन्दान् स्वकुलप्रासादसौवर्णकलशेन महामुनिना श्री कलशेन श्रीपञ्चपरमेष्ठिमहामत्रपरमध्याने सोपानश्रेण्या रोहेण स्वर्गाङ्गगहर्म्याङ्गणमलञ्चक्रे | Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । ७६. सं० १३३७ वैशाख वदि ९ श्रीमञ्जिनप्रबोधसूरि सुगुरुभिः श्रीसकल गूर्जरत्रापुरवरं श्रीवीजापुरं स्वचरणविचरणैः पावनीचक्रे । तस्मिंश्च सुवासरे सा० मोहन श्रेष्ठि आसपालप्रमुखसमस्तसमुदायेन मत्रिविन्ध्यादित्य-ठ० उदयदेवभां॰लक्ष्मीधरप्रमुखराज्यधुरन्धरसकलनागरिकमहाजनमेलापकेन व्याप्तरोदसीरन्ध्रेषु विविधजनजनितानन्देषु, द्वादशविधनादीनिनादेषु जृम्भमाणेषु नानाविधविलासिनीजनवारेण स्थाने स्थाने प्रवरप्रेक्षणीयकेषु क्रियमाणेषु, उदात्तखरेण दानावर्जितभट्टलोकादिषु पठत्सु सत्सु, उत्तमदेशनानिनादानन्दितैर्मन्त्रिविन्ध्यादित्य-ठक्कुरोदय देवप्रमुखराज पुरुष कुञ्जरैः संस्तूयमानानां धृतश्वेतातपत्र जिनेश्वरानुगानां सकलनगरमध्ये देवाधिदेवान् नमस्कुर्वाणानां श्रीमत्पूज्यानां महामिथ्याखोत्कटतयाऽदृष्टपूर्वत्वात् सकलपौर पुरन्ध्रीजनमनः क्षोभावहो नानाविधयाचकजनानां मनोऽभिलाषपुरको विविधभव्यप्राणिमनोहारको लीलयैव निर्दलित विभैः (नः) लोकोत्तरः प्रभूतस्वस्वापतेय सफलीकरणेन सरङ्गः प्रवेशकमहामहोन्सवः कारितः। ७७. तथा ज्येष्ठ वदि ४ शुक्रे, श्रीसारङ्गदेव महाराजाधिराजरामराज्ये विजयमाने महामात्य मल्लदेव प्रतिशरीरमं०विन्ध्यादित्ये शास्तरि सकलपृथ्वीतलसार श्रीगूर्जरत्रावनितानानापुरालङ्कारकिरीटायमानश्रीवीजापुरस्य माणिक्यभूते श्रीवासुपूज्यविधिचैत्ये अहमहमिकया नानाविधदेशसमायात महर्द्धिकसंघमहामेलापकेषु, याचमानजनेन वाद्यमानदीअनान्दीनिनादविवाद प्रारब्ध कोलाहलपरिपूर्यमाणेषु दिगङ्गनाकर्णकोटरेषु, हर्षाङ्कुरपूरपूरितमनोमङ्गलपाठकजन पठ्यमानविरुदावली परः सहस्रेषु, स्थाने स्थाने प्रमुदितजनेन दीयमानेषु प्रधानरासकेषु, नानाविपणिमार्गेषु गीयमानेषु विविधप्रवरचच्चरीश्रेणिशतेषु, मथितमहा मिथ्यात्वप्रबलमहामोहादिसुभटेषु जिनशासनमहाराजशास्त्रेषु, छत्रत्रयचामरालम्बादिषु अग्रतो त्रियमाणेषु, पुरोवत्तिमहामन्त्रिविन्ध्यादित्य - ठ० उदयदेवप्रमुखराज्य धुरन्धरैर्महामहोत्सवेषु स्वयं कार्यमाघणेषु, कौतुकाक्षिप्तविविधपौरजनसमाजैः स्थगितनानाप्रकारनिगम गृहभित्तिमालाङ्घालदेव कुलवितानेषु, सकलावनीतलचमत्कारकारी भव्य लोकजनमनोहारी अभूतपूर्वो जलानयनमहोत्सवः सरङ्गः सम्पन्नः । द्वितीयदिने तथैव महामहो - त्सवेषु संजायमानेषु, अवारितशत्रेषु क्रियमाणेषु, अमारिघोषणायां प्रवर्तमानायां चतुर्विंशतिश्रीजिनालयबिम्बानां ध्वजदण्डानां च, जोयलानिमित्तं श्रीपार्श्वनाथस्य, अन्येषां प्रभूतबिम्बानां भूयिष्ठप्रतिमानां च श्रीवृत्तप्रबोध - श्रीपञ्जिकाप्रबोध - श्रीबौद्धाधिकार विवरणादिश्रीमत्पूज्योपज्ञसुग्रन्थदर्शनोदित चित्तेन तुरग पदचिन्तितसमस्याऽनुलोमप्रतिलोमाद्यनेकभङ्गिकथित श्लोक कथनाद्यने कावधानप्रतिपादनचञ्चुना कृष्णपण्डितेन क्षणे प्रतिदिनमनेकपण्डितगोष्ठ्या मन्त्रिविन्ध्यादित्यादिसभासु च नानावृत्तैः पवित्रैः संस्तूयमानश्रीमत्पूज्य निष्प्रतिम ध्यानाधिरोह प्ररोह शतकोटिकोटिना निर्दलित कलिकालानुभाव किश्चिदुत्थित प्रत्यूहसमूहशैलो विधिमार्गजयजयारवपूर्वकः सरङ्गः सप्रभावः प्रतिष्ठामहोत्सवः समजनिष्ट। एते सर्वेऽपि महोत्सवाः सा० मोहण श्रेष्ठआसपालप्रभृतिसकलसंघैर्लक्षसंख्यस्वकीयासारसंसारसारसफलीकरणेन कारिताः । अस्मिन् महसि श्रीवासुपूज्य विधिचैत्ये द्रं० सहस्र ३० उत्पन्नाः । द्वादश्यामानन्दमूर्त्तिपुण्य मूर्त्तिमुन्योर्दीक्षादान महोत्सवः सम्पन्नः । ५७ ७८. सं०१३३९ फाल्गुन सुदि ५, मंत्रिपूर्णसिंह - भां० राजा - गो० जिस हड देवसीह - मोहाप्रमुख श्री जावालिपुरीय सर्वसंघेन श्रीप्रह्लादनपुरीय - श्रीवीजापुरीय - श्री श्रीमालपुरीय - रामशयनीय - श्रीशम्यानयनीय - श्रीवाग्भटमेरवीय-श्रीरत्नपुरीयानेकनगरग्रामशकटपञ्चशतीमेलापकैरनधैः सर्वविधिमार्गसंधैः सह प्रस्थाय श्रीजिनरत्नाचार्य - देवाचार्य-वाचनाचार्य विवेकसमुद्रगणिप्रमुखनानामुनिमतल्लिको दग्र निकर विराजमानैः, उच्छेदयद्भिः सकलानि तमःपटलानि, विकाशयद्भिः समस्तजनतावदनकुमुदकाननानि कुर्वद्भिर्वाक्यसुधावृष्ट्या परमनिर्वृतिलक्ष्मीं समस्तजननयनचकोरनिकरस्य, युगप्रधान श्रीजिनप्रबोधसूरि सुगुरुराजपादैः पावित्र्यभाजा, प्रतिपुरं प्रतिग्रामं विधिमार्गजयजयाकारकारिणं स्वकीयं विभवं सफलयता फाल्गुन चतुर्मास के सर्वविश्वसारे सकलवसुधातलवर्त्तिरामणीयकाधारे श्री अर्बुदगिरीन्द्रवरे श्रीयु यु० गु० ८ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ खरतरगच्छालंकार गादिदेव-श्रीनेमिनाथतीर्थचक्रिणौ नमश्चक्राते । ततो विस्मृतगृहप्राग्भारेण हर्षाङ्करपूरितशरीरेण समस्तश्रीसंघेन सर्वस्वापतेयसारपुण्यानुबन्धिपुण्यसारोपार्जनया त्रैलोक्योपरि स्वं मन्यमानेन श्रीइन्द्रपदादिभिः सर्वमहोभिः सुदिनेष्वष्टसु दिनेषु द्युम्नस्योद्देशतः सप्त सहस्राणि सफलीचक्रिरे। तदनन्तरं श्रीमत्पूज्यप्रसादात् सफलीकृतनिजजन्मवैभवो दलितदुर्गतिसंभवः सम्पूर्णाखर्वसर्वमनोरथः श्रीजावालिपुरे सम्पन्नमहाप्रवेशकमहोत्सवः क्षेमेण सर्वोऽपि संघः प्राविशत । ___७९. तस्मिन्नेव वत्सरे ज्येष्ठ वदि ४, जगचन्द्रमुनिः कुमुदलक्ष्मी-भुवनलक्ष्मीसाध्व्यौ च दीक्षिताः । पञ्चम्यां चन्दनसुन्दरीगणिन्या महत्तरापदं प्रदत्तं तस्याश्च श्रीचन्दनश्रीरिति नाम जज्ञे । ततः संमुखीनायातश्रीसोममहाराजाभ्यर्थनया श्रीशम्यानयने चतुर्मासी विधाय, अतुलबलक्षोणिपालमालामौलिमाणिक्यकिरणकदम्बपानीयपूरप्लुतचरणकमलानां सम्पादितभव्यभव्यलोकनिरुपमसम्यक्त्वकमलानां सकलसैन्यपरिवारपरिकलितसंमुखायातप्रमुदितश्रीकर्णमहानरेन्द्राणां श्रीजिनप्रबोधमूरिमुनीन्द्राणां श्रीजेसलमेरौ सं०१३४० फाल्गुनचतुर्मासके महता विस्तरेण प्रवेशकमहोत्सवः समपनीपद्यत । तत्र च वैशाखसुदिअक्षततृतीयादिने श्रीउच्चापुरीय-श्रीविक्रमपुरीय-श्रीजावालिपुरीयाद्यनेकसंघमेलापकेन सर्वसमुदायसहिताभ्यां सान्नेमिकुमार-सा गणदेवाभ्यां महा कृतसर्वमहोत्सवाभ्यां चतुर्विंशतिजिनालयस्याष्टापदादेश्च बिम्बानां धजदण्डानां च गरिष्ठप्रतिष्ठामहोत्सवः कारितः सर्वमहोत्सवैः । श्रीदेवगृहायपदे दं० सहस्र ६ समुत्पन्नाः । ज्येष्ठ वदि ४, मेरुकलशमुनि-धर्मकलशमुनि-लब्धिकलशमुनीनां पुण्यसुन्दरी-रत्नसुन्दरी-भुवनसुन्दरी-हर्षसुन्दरीसाध्वीनां दीक्षामहोत्सव उत्पेदे । श्रीकर्णदेवमहाराजोपरोधेन चतुर्मासी तत्रैव विधाय नानाविधधर्मदेशनया सकलनगरलोकस्य चित्तेषु चमत्कारमुत्पाद्य श्रीविक्रमपुरसमुदायगाढाभ्यर्थनया युगप्रधानश्रीजिनदत्तसूरिसंस्थापितं मरुस्थलीकल्पद्रुमं श्रीमहावीरवस्तीर्थं महता विस्तरेण श्रीविक्रमपुरे प्रविश्य जिनप्रबोधसूरयो वन्दितवन्तः । तत्र श्रीउच्चापुरीय-श्रीमरुकोट्टीयप्रभृतिनानासमुदायमेलके श्रीमहावीरविधिचैत्ये महता विस्तरेण सम्यक्त्वारोप-मालारोपण-दीक्षादानादिमहानन्दिमहोत्सवः सं०१३४१ फाल्गुनकृष्णैकादश्यां श्रीजिनप्रबोधसूरिभिश्चक्रे । तत्र च नन्दिमहोत्सवे विनयसुन्दर-सोमसुन्दर-लब्धिसुन्दर-चन्द्रमूर्ति-मेघसुन्दरनामानः क्षुल्लकाः पञ्च, धर्मप्रभा-देवप्रभाख्ये क्षुल्लिके द्वे च संजाते। तत्र च श्रीमहावीरतीर्थ प्रभावयतां ज्ञानध्यानबलेन समस्तजनमनःस्वाश्चर्यमुत्पादयतां स्वपक्ष-परपक्षाराध्यमानचरणानां पवित्रचरणानां श्रीपूज्यानां महान् दाहज्वरः संजातः । ततो ध्यानबलेन वायुःपरिमाणं स्वल्पं सम्यक् परिज्ञायाविच्छिन्नप्रयाणैः श्रीपूज्याः श्रीजावालिपुरे समायाताः । तत्र च सकललोकचमत्कारकारिणि श्रीवर्धमानखामिनो महातीर्थे वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, गीयमानेषु प्रवरगीतेषु, दीयमानेषु धवलेषु, नृत्यमानासु प्रवरपुराङ्गनासु, वितीयमाणेषु दीनानाथदुःस्थितानां महादानेषु, मिलितेषु नानापुरग्रामसंघेषु, नानाविधावदातानुकृतपूवसूरिभिः श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः, सद्रूपलक्ष्मीतर्जितकलाकेलयः समस्तभव्याम्बुजप्रकाशनहेलयो नानागुणरत्ननिधयः प्रवरगभीरिमाधरीकृतवार्धयः श्रीजिनचन्द्रसूरयः सं० १३४१ श्रीयुगादिदेवपारणकपवित्रितायां वैशाखशुक्लाक्षततृतीयायां स्वपदे महाविस्तरेण स्थापिताः। तस्मिन्नेव दिने राजशेखरगणेर्वाचनाचार्यपदं प्रदत्तम् । ततश्चाष्टम्यां श्रीमत्पूज्यैः सकलसंघेन सह विस्तरेण मिथ्यादुष्कृतं दत्तम् । ततश्च दिने दिने वर्धमानशुभभावादिज्ञातसांसारिकभावानित्यस्वभावाः सुसाधुभिर्निरन्तरं श्राव्यमाणसमाराधनाः सम्यग्विहितश्रीदेवगुरुपादपद्माराधनाः सज्ज्ञानलक्ष्मीकण्ठकन्दलहाराः स्ववदनकमलोच्चारितपञ्चपरमेष्ठिनमस्काराः कीर्तिधवलितक्षोगयः श्रीजिनप्रबोधसूरयो राधशुक्लैकादश्यां खर्गाङ्गणभूषणा बभूवुः। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। ८०.तदनन्तरं सं०१३४२ वैशाखशुक्लदशम्यां,श्रीजावालिपुरे श्रीमहावीरविधिचैत्ये श्रीजिनचन्द्रसूरिभिर्महामहोत्सवेन प्रीतिचन्द्र-सुखकीर्तिनामकं क्षुल्लकद्वयं जयमञ्जरी-रत्नमञ्जरी-शीलमञ्जरीनामकं क्षुल्लिकात्रयं च विहितम् । तस्मिन्नेव दिने वाचनाचार्यमिश्राणां विवेकसमुद्रगणीनामभिषेकपदम् ,सर्वराजगणेर्वाचनाचार्यपदम् ,बुद्धिसमृद्धिगणिन्याश्च प्रवत्तिनीपदं च प्रदत्तम् । सप्तम्यां च सम्यक्त्वारोप-मालारोपण-सामायिकारोप-साधुसाध्वीउत्थापनानन्दिमहोत्सवश्चक्रे । ___ तथा ज्येष्ठकृष्णनवम्यां साधुराजक्षेमसिंहेन कारितस्य रत्नमयस्य श्रीअजितस्वामिबिम्बस्य सप्तविंशत्यङ्गुलप्रमाणस्य तेनैव कारितानां श्रीयुगादिदेव-श्रीनेमिनाथ-श्रीपार्श्वनाथविम्बानां च, महामं० देदाकारितश्रीयुगादिदेव-श्रीनेमिनाथ-श्रीपार्श्वनाथविम्बानाम् , भाण्डागारिकछाहडकारितस्य श्रीशान्तिनाथबिम्बस्य महत्तमस्य, वैद्यदेहडिकारिताष्टापदध्वजादण्डस्य, अन्येषां च बहूनां बिम्बानां महता विस्तरेण श्रीसामन्तसिंहविजयराज्ये सकललोकमनश्चमकारी निःशेपपापहारी श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः प्रतिष्ठामहोत्सवो विहितः । अस्मिन् प्रतिष्ठामहोत्सवे विशेषतोऽतिप्रसन्नश्रीसामन्तसिंहमहाराजसान्निध्येन सकलस्वपक्ष-परपक्षाह्लादकः सकलविधिमागप्रोत्सर्पणामुत्पादकः प्रभूततरद्रव्यसफलीकरणेन सा० क्षेमसिंहप्रमुखसमस्तश्रावकैविधिमार्गप्रभावकेः प्रमोदभरमेदुरैः सद्भावनाबन्धुरैः श्रीइन्द्रमहोत्सव: कारितः । ज्येष्ठकृष्णैकादश्यां च वा०देवमूर्तिगणेः श्रीअभिषेकपदं मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवश्च संजातः । सं० १३४४ श्रीजावालिपुरे श्रीमहावीरविधिचैत्ये मार्गशीर्ष सुदि १०, सा० कुमारपाल पु०पं० स्थिरकीतिंगणेः श्रीजिनचन्द्रसूरिभिर्विस्तरेण आचार्यपदं दत्तम्-श्रीदिवाकराचार्या इति नाम । सं० १३४५ आषाढ सुदि ३, मतिचन्द्र-धर्मकीयोर्दीक्षा । वैशाख वदि १, पुण्यतिलक-भुवनतिलकयोश्चारित्रलक्ष्मीसाव्याश्च दीक्षा । राजदर्शनगणेर्वाचनाचार्यपदं च । सं० १३४६ माघ वदि १, सा० क्षेमसिंहभा०(भ्रा०? ) वाहडकारितस्वर्णगिरि[स्थ] श्रीचन्द्रप्रभस्वामिदेवगृहपार्श्वस्थितयोः श्रीयुगादिदेव-श्रीनेमिनाथबिम्बयोमण्डपखातकेषु च समेतशिखरविंशतिबिम्बानां च स्थापनामहोत्सवः । फाल्गुन सुदि ८, सा० बाहड-भां० भीमा-भां० जगसिंह-भां० खेतसिंहसुश्रावककारिते प्रासादे श्रीशम्यानयने चाहड (चाह ?) मानाह्वयवंशे श्रीसोमेश्वरमहाराजकारितविस्तरप्रवेशमहोत्सवस्य श्रीशान्तिनाथदेवस्य विस्तरेण स्थापनामहोत्सवः । देववल्लभ-चारित्रतिलक-कुशलकीर्तिसाधूनां रत्नश्रीसाध्याश्च दीक्षा । मालारोपणादिमहोत्सवश्च । चैत्र सुदि १, श्रीप्रह्लादनपुरे सर्वत्र आहट्टोचितपताकोत्तरे निःस्वानेषु वाद्यमानेषु मं० माधवप्रमुखसकलनगरलोकसंमुखागमनपूर्व सा० अभयचन्द्रप्रमुखसमुदायेन प्रवेशमहोत्सवः कारितः । वैशाख वदि १४, श्रीभीमपल्लयां श्रीप्रह्लादनपुरवत्प्रवेशमहोत्सवः । वैशाख सुदि७, सा० अभयचन्द्रकारिताद्भुतशिलमयश्रीयुगादिदेवबिम्ब-श्रीचतुर्विंशतिजिनालयचतुर्विंशतिबिम्ब-इन्द्रध्वज-श्रीअनन्तनाथदण्डध्वज-श्रीजिनप्रबोधसूरिस्तूप-मूत्ति दण्डध्वजानेकशिलमयपित्तलामयबिम्बानां विस्तरेण प्रतिष्ठामहोत्सवश्च । ज्येष्ठ वदि ७, नरचन्द्र-राजचन्द्र-मुनिचन्द्र-पुण्यचन्द्रसाधूनां मुक्तिलक्ष्मीमुक्तिश्रीसाध्व्योश्च महाप्रभावनापूर्व दीक्षा च । ___सं० १३४७ मार्गशीर्ष सुदि ६, श्रीप्रह्लादनपुरे सुमतिकीर्तिदीक्षा, नरचन्द्रादिसाधुसाध्वीनामुपस्थापना-मालारोपणादिमहोत्सवश्च । ततो मार्गशीर्ष सुदि १४, खदिरालुकायां स्थाने स्थाने तलिकातोरणालङ्कृतायां मं० चण्डापुत्र मं० सहणपालेन सकलमहाजनपरिग्रहब्राह्मणादिमेलापकेन प्रवेशमहोत्सवः कारितः । मं० सहणपालेन समस्तसंघमेलापकेन श्रीतारणगढतीर्थालङ्कारश्रीअजितस्वामितीर्थयात्रा कारिता । पौष वदि ५, श्रीवीजापुरीय सा० लखमसिंह-श्रे० आसपालप्रमुखसमुदायेन खदिरालुकावत्प्रवेशमहोत्सवः कारितः । श्रीजावालिपुरे श्रीजिनप्रबोधसूरिस्तूपे मूर्तिस्थापनामहोत्सवो दण्डध्वजारोपमहोत्सवश्च माघ सुदि ११ सा० अभयचन्द्रेण कारितः । चैत्र वदि ६, श्रीवीजापुरे अमररत्न-पद्म Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० खरतरगच्छालंकार रत्न - विजयरत्नसाधवो मुक्तिचन्द्रिका साध्वी च स्तम्भतीर्थ - आशापल्ली - वागड-बटपद्रकादिसंघ मेलापकेन विस्तरेण दीक्षिता, मालारोप - परिग्रहपरिमाणादिनन्दि महोत्सवश्च संजातः । सं० १३४८ वैशाख सुदि ३, श्रीप्रह्लादनपुरे वीरशेखरस्य अमृतश्री साध्व्याश्च दीक्षा, त्रिदशकीर्त्ति गणेर्वाचनाचार्यपदम् । तस्मिन्नेव वर्षे श्रीपूज्यैः सुधाकलश - मुनिवल्लभसाधुपरिवृतैर्गणियोगतपश्चक्रे । सं० १३४९ भाद्रपद वदि ८, साधर्मिकसत्राकारस्य संघ पुरुषस्य सा० अभयचन्द्रसुश्रावकस्य संस्तारकदीक्षा, अभयशेखर इति नाम । मार्गशीर्ष वदि २, यशः कीर्त्तिदीक्षा । सं० १३५० वैशाख सुदि ९, करटक - अर्बुदादिविहितसविस्तरतीर्थ यात्रा सफली कृतजन्मजीवितस्य वरडियानगरसर्वाधिकारिणो नवलक्षककुलोत्तंसस्य भां० झांझणसुश्रावकस्य सकलवपक्ष-परपक्षचमत्कारकारिणी संस्तारकदीक्षा, तिलकराजर्षिरिति नाम । सं० १३५१ माघ वदि १, श्रीप्रह्लादनपुरे श्रीयुगादिदेव विधिंचत्ये मं० तिहुणसत्कश्रीयुगादिदेव-श्रेष्ठि वीजासत्कश्रीमहावीरबिम्बप्रमुखाद्भुतबिम्बानां चत्वारिंशदधिकषट्शतीप्रमाणानां महं० तिहुण श्रे० वीजासुश्रावकाभ्यां समुदायसहिताभ्यां विस्तरेण प्रतिष्ठा महामहोत्सवः कारितः । पञ्चम्यां श्री पूज्यानामनेकसाधु साध्वीश्रावक श्राविका परिवृतानां मालारोपमहामहोत्सवनन्दिः, विश्वकीर्त्तिसाधोर्हेमलक्ष्मी साध्व्याश्च दीक्षा । ८०० (१) ८१. सं०१३५२ जिनचन्द्रसूरिगुरूपदेशेन वा० राजशेखरगणिः सुबुद्धिराजगणि-हेमतिलकगणि- पुण्यकीर्तिगणिरत्नसुन्दरमुनिसहितः श्रीवृहद्रामे विहृतवान् । ततश्च तत्रत्यठ० रत्नपाल - सा० चाहडप्रधान श्रावकप्रेषिताभ्यां सभ्रातृहेमराज - भागिनेयवांचूश्रावकाभ्यां सपरिवाराभ्यां सा० बोहिथपुत्रेण सा० मूलदेव श्रावण श्रीकौशाम्बी-वाणारसीकाक्रिन्दी - राजगृह - पावापुरी - नारिन्दा - क्षत्रियकुण्डग्राम अयोध्या - रत्नपुरादिनगरेषु जिनजन्मादिपवित्रितेषु तीर्थयात्रा कृता । तैः श्रावकैः सार्धं समुदायसहित पूर्वविहितहस्तिनागपुरयात्रेण वा० राजशेखरगणिना सपरिवारेणैतानि तीर्थानि वन्दितानि । राजगृहसमीपे उदंडविहारे चतुर्मासी कृता, मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवश्च कृतः । तथा तत्रैव वर्षे नानाद्भुत पुण्यवल्ली श्री श्री भीमपल्लीतः सा० धनपालसुश्रावकसत्पुत्र सा० भडसीह - सा० सामलश्रावककृतसंघेन श्रीप्रह्लादनपुरीय - भीमपल्लीय - श्रीपत्तनीय- सत्यपुरीयाद्यनेकस्वपक्ष- परपक्षमेलापकेन च सार्धं प्रस्थाय वाक्चातुरीपराभूतगीर्वागोपाध्याय -श्रीविवेकसमुद्रोपाध्यायप्रमुखसुसाधुमण्डली परिवृतैर्जगत्पूज्यैः श्रीमत्पूज्यैः श्रीशङ्खवरपुरालङ्कारचूडामणिचिन्तातीत सुसम्पादनापहस्तितचिन्तामणिः संसारदुःखदावाग्निपाथः श्रीपार्श्वनाथः प्रणतः । तत्र च श्रीसंघेन नात्रपूजा उद्यापनक ध्वजारोपादिमहोत्सवा विहिताः । ततः सर्वसंघसमन्विताः श्रीमत्पूज्याः श्रीपत्तने समाजग्मुः । तत्र च श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये सविस्तरध्वजारोपादिमहोत्सवपूर्व कनानाविधवाद्यमाननान्दीतूर्यप्रवर्तमानाङ्गनाचङ्गनृत्येषु सकलपत्तनमध्यस्थसमस्तचैत्येषु विस्तरेण चैत्यपरिपाटी विधाय, श्रीपूज्याः श्रीभीमपल्लयां समायाताः । पश्चाच्छ्री वीजापुरीय समुदायाभ्यर्थनया वीजापुरे चतुर्मासी कृता । तत्र च सं० १३५ [३१] मार्गशीर्ष कृष्णपञ्चम्यां श्रीवासुपूज्यविधित्ये मुनिसिंह - तपः सिंह- जयसिंहसाधवो दीक्षिताः, मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवश्च संजातः । ततः श्रीजाबालिपुरे तत्समुदायाभ्यर्थनया विहारः । तस्मिन्नेव संवत्सरे सा० सलखण श्रावक पुत्ररत्न सा० सीहा श्रावक - माण्डव्यपुरीय सा० झांझणसत्पुत्रसा० मोहन श्रावकाभ्यां निर्मितसंघेन श्रीजावालिपुरीय - श्रीशम्यानयनीयश्रीजेसलमेरवीय - श्रीनागपुरीय-रुणापुरीय - श्रीमालीय - सत्यपुरीय - प्रह्लादनपुरीय- भीमपल्लीयाद्यनेकमहर्द्धिक - श्रीमालज्ञातिमण्डन श्रीयोगिनी पुरवास्तव्य सा० बाह्रासु श्रावकपुत्र सा० लोहदेवप्रमुखप्रभूतश्रावकमेलापकविभूषितेन मार्गानवरतविरचितावारितसत्रचैत्य परिपाट्यनेकमहामहोत्सवेन श्रीजाबालिपुराद् वैशाख कृष्णपञ्चम्यां प्रस्थाय, प्रभूतमुनिमण्ड Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । ६१ लीसंसेव्यमानैः श्री चतुर्विधश्री श्रमण संघ स्तूयमानैर्जगत्पूज्यैः श्रीमत्पूज्यैः श्री अर्बुदालङ्कारकारिणौ समस्त दौर्गत्य विदारिणौ श्रीयुगादिदेव - श्रीनेमिनाथजिनेश्वरौ नमस्कृतौ । ततोऽपहस्तितकलिकालमहाचौरेण महादान पराभूतदेवतरुवरेण परमवासनाक्षालितानेकभवसहस्रसंचितदुष्पापौघेन श्रीसमस्तविधिमार्गसंघेन श्री इन्द्रपद -स्नात्र ध्वजारोपादिमहोत्सवै रुदेश तो द्रम्म द्वादश सहस्राणि कृतार्थीकृतानि । तदनन्तरं हर्षाङ्कुरपूरितः स्वसुकृतमहाराजपूजितः सदानवः श्रीविधिमार्गसंघः क्षेमेण श्रीजावालिपुरे विस्तरेण प्रविष्टः । सं० १३५४ ज्येष्ठ वदि १०, श्रीजावालिपुरे श्री महावीरविधिचैत्ये सा० सलखगपुत्र सा० सीहाकारितो दीक्षा-मालारोपणादिमहोत्सवः संजातः । तस्मिन्महसि वीरचन्द्र - उदयचन्द्र - अमृतचन्द्रसाधूनां जयसुन्दरीसाध्व्याश्व दीक्षादानोत्सवः सम्पन्नः । तस्मिन्नेव वत्सर आषाढशुक्ल द्वितीयायां सिरियाणकग्रा मे श्रीमहावीरप्रासादोद्धार - श्रीमहावीरबिम्बस्थापना श्रे० भाडाश्रावक पुत्रेण श्रे० जोधा श्रावण महाविस्तरेण कारिता । सं० १३५५ । सं० १३५६ राजाधिराजश्रीजैत्र सिंहविज्ञत्या मार्गशीर्षासितचतुर्थ्यां श्रीजेसलमेरौ श्रीपूज्याः समायाताः । तत्र च श्रीमहाराजजैत्रसिंहेन योजनद्वयसंमुखागमनेन बहुमानपूर्वकं सा० नेमिकुमारप्रमुख समस्त समुदायेन च प्रभूतद्रव्यवेचनेन विधिमार्गप्रभावनापूर्वकं निःखानादितूर्येषु वाद्यमानेषु पठत्सु बन्दिवृन्देषु, स्थाने स्थाने संजायमाननयनमनःप्रह्लादकारिप्रेक्षणीयकेषु श्रावकश्राविकाभिर्विस्तार्यमाणेषु रास - गीत-धवलमङ्गलेषु, स्वपक्ष- परपक्षचेतश्चमत्कारकारी श्री पूज्यानां प्रवेशकमहोत्सवः संजातः । सं० १३५७ मार्गशीर्षशुक्लनवम्यां श्रीमहाराजजैत्र सिंहप्रेषितनिः स्वानादिषु वाद्यमानेषु दीक्षा - मालारोपणादिमहामहोत्सवः संजातः । तत्र श्रे० लखम - भां० गजपुत्रौ जयहंस - पद्महंसनामानौ दीक्षितौ । सं० १३५८ माघशुक्लदशम्यां श्रीपार्श्वनाथविधिचैत्ये महाविस्तरेण निःस्खानादिषु वाद्यमानेषु श्रीसमेतशिखरादिविम्बानां प्रतिष्ठा महोत्सवः श्रीमत्पूज्यैः कृतः । सा० केशवपुत्रेण सा० तोलीश्रावकेण कारापितः, फाल्गुनशुक्लपञ्चम्यां मालारोपण - सम्यक्त्वारोपादिमहोत्सवश्च सम्पन्नः । ततः सं० १३५९ फाल्गुन वदि ११, श्रीबाहडमेरौ सा० मोकलसिंह सा० वीजडप्रमुखसमुदायाभ्यर्थनया श्री पूज्याः श्रीयुगादिदेवतीर्थं नमस्कृतवन्तः । तत्र च सं० १३६० माघ वदि १०, सा० वीजड - सा० थिरदेवादिसुश्रावकैः प्रभूतद्रव्यवेचनेन श्रीजिनशासनप्रभावनापूर्व मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवः सविस्तरः कारितः । ततश्च श्रीशीतलदेवमहाराजविज्ञया मं० नाणचन्द्र - मं० कुमारपाल-श्रे०पूर्णादिसमुदायाभ्यर्थनया च श्रीशम्यानयने श्री शान्तिनाथदेवतीर्थ श्रीपूज्यैर्नमश्चक्रे । ततः सं० १३६१ शान्तिनाथविधिचत्ये मं० नाणचन्द्र मं० कुमारपाल - भां० पद्म श्रे०पूर्ण-सा० रूपचन्द्रप्रमुख समुदायेन द्वितीयवैशाख सुदि ६, श्रीजाबालिपुरीय- सपादलक्षीयप्रमुखनानानगरग्रामवास्तव्यसंघ मेलापकेन श्रीपानाथप्रमुख नानाबिम्बानां प्रतिष्ठामहोत्सवः, दशम्यां च मालारोपणादिनन्दि महोत्सवः सकलस्वपक्ष-परपक्षचमत्कारकारी श्रीदेवगुरुप्रसादान्निर्विघ्नः कारितः । अस्मिन्महोत्सवे पं० लक्ष्मीनिवासगणि-पं० हेमभूषणगण्योर्वाचनाचार्य पदं दत्तमिति । ८२. ततः श्रीजाबालिपुरीयसमुदायाभ्यर्थनया श्री जावालिपुरे श्रीमहा [वीर]देवं श्री पूज्या नमश्चक्रुः । तत्र च सं० १३६४ वैशाख कृष्णत्रयोदश्यां मं० भुवनसिंह- सा० सुभट - मं० नयनसिंह- मं० दुस्साज मं० भोजराज - सा० सीहाप्रमुखसमस्तश्रीसमुदायविहितनाना प्रोत्सर्पणापूर्वकं श्रीमत्पूज्यैर्नान श्री राजगृहादिमहातीर्थनमस्करणसमुपार्जितागण्यपुण्यप्राग्भारवा० राजशेखरगणेराचार्यपदं प्रदत्तम् । स्वपक्ष- परपक्षचमत्कारी मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवश्च श्रीसमुदा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार येन कारितः। ततश्चौरचरटायुप'लुतेऽपि मार्गे भण० दुर्लभसाहाय्यात् श्रीभीमपल्लयां श्रीपूज्याः समाजग्मुः । ततः श्रीपत्तनीयश्रीकोट्टडिकाश्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये श्रीश्रावकपौषधशालासन्निवेशनप्रमुखश्रीधर्मकृत्यपेशलसाजेसलप्रभृतिश्री समुदायाभ्यर्थनया श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथदेवं नमस्कृतवन्तः । ततः श्रीस्तम्भतीर्थीयकोट्टडिकाश्रीअजितनाथदेवविधिचैत्यालयश्रीश्रावकपौपधशालाप्रमुखसद्धर्मकृत्यकुशलेन सा० जेसलेन समामन्त्र्यमाणाः श्रीशेरीषके श्रीपार्श्वनाथदेवं नमस्कृत्य सा० जेसलकारितेन वपक्षपरपक्षचमत्कारकेणानुकृतमन्त्रीश्वरश्रीवस्तुपालकारितश्रीजिनेश्वरमरिमहाप्रवेशकमहोत्सवेन श्रीस्तम्भतीर्थे श्रीपूज्याः श्रीअजितनाथदेवं नमश्चक्रुः । ८३. ततः सं० १३६६ ज्येष्ठ वदि १२, नानावदातवातसा द्धृतसर्वपूर्वजकुलेन साधर्मिकवत्सलेन सा० जेसलसुश्रावकेण मेलितेन श्रीपत्तनीय-श्रीभीमपल्लीय-श्रीवाहडमेरवीय-श्रीशम्यानयनीयसमस्तसंघमेलापकेन स्वकीयबृहद्धात सा० तोलियनिवेशितसंघधुर्यपदेन लघुभ्रातृ सा० लाखूनिवेशितपच्छेवाणपदेन विषमदुःपमाकालेऽप्यतुच्छम्लेच्छसंकुलेऽपि देशे श्रीस्तम्भतीर्थाच्छीदेवालयप्रचलनमहोत्सवो विहितः। तेन सह श्रीमत्पूज्या जयवल्लभगणि-हेमतिलकगण्यादिसाध्वेकादश केन प्र० रत्नवृष्टिगणिन्यादिसाध्वीपञ्चदशकेन च वरिवस्यमानाः श्रीमहातीर्थनमस्करणाय प्रस्थिताः । ततः स्थाने स्थाने चैत्यपरम्परासु चैत्यपरिपाट्याद्यनेकमहोत्सवेषु श्रीसंघेन क्रियमाणेषु, नानाविधतूर्येषु वाद्यमानेष्वनेकश्रावक(श्राविका?) लोकेन श्रीमद्देवगुरुगुणगणेषु गीयमानेषु, भट्टघट्टैः स्वकीयनव्यकाव्येषु पठ्यमानेषु, क्रमक्रमेण पीपलाउलीग्रामे सर्वोऽपि संघः समायातः । तत्र च श्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थपर्वतावलोकमहोत्सवः श्रीसंघेन कृतः। ततोऽपारसंसारपारावारनिमजजन्तुजातप्रवहणायमाननिःशेपदेशागतजन्तुजातपूज्यमानश्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थालङ्कारश्रीदेवाधिदेवश्रीयुगादिदेवपादपद्मनमस्करणयात्राहर्षप्रकर्षपादुर्भूताङ्कुरपूरपवित्रितैः श्रीचतुर्विधसंघपरिवृतैः श्रीपूज्यैर्विहिता । तत्र च सा० सलखणपुत्ररत्न सा० मोकलसिंहादिसुश्रावकैः श्रीइन्द्रपदादिमहोत्सवाः सविस्तरा विहिताः । तत्र च ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवः सविस्तरः श्रीसमुदायेन कारितः । ___ ततः सुराष्ट्रालङ्कारश्रीगिरिनारसंस्थितश्रीनेमिनाथमहातीर्थनमस्करणाय चतुर्विधसंघपरिवृताः श्रीपूज्याः प्रस्थिताः । नेदीयोगच्छदतुच्छम्लेच्छकटकोपद्रुतेऽपि सुराष्ट्रादेशे जगन्नाथश्रीनेमिनाथप्रसादाच्छीअम्बिकासान्निध्याच्छीमत्पूज्यज्ञानबलाच्च सुखसुखेन श्रीउज्जयन्ततलहट्टिकायां सर्वोऽपि संघः प्राप्तः । ततः श्रीनेमिनाथकल्याणकत्रयपवित्रितश्रीउज्जयन्तमहापर्वतराजालङ्कारभाराम्भोधरसौभाग्यसुन्दरनेमिनाथपादपद्ममहातीर्थ श्रीपूज्याः सकलसंघसमन्विता नमश्चक्रुः । तत्र च सा० कुलचन्द्रकुलप्रदीप सा० वीजडप्रमुखसकलसुश्रावकैः श्रीइन्द्रपदादिप्रोत्सर्पणा विहिता । ततः श्रीनेमिनाथदेवं नमस्कृत्य, स्थाने स्थाने नानाप्रभावनां विधाय, श्रीपूज्याः श्रीसंघसमन्विताः श्रीस्तम्भतीर्थ समायाताः। तत्र च सा० जेसलसुश्रावकेण श्रीदेवालयस्य श्रीमत्पूज्यानां च महता विस्तरेण प्रवेशकमहोत्सवश्चक्र । तत्र च चतुर्मासी विधाय श्रीस्तम्भनकालङ्कारश्रीपार्श्वनाथदेवतीर्थ मत्रिदलीय ठ० भरहपालसुश्रावकसाहाय्याच्छ्रीमत्पूज्या ववन्दिरे। ८४. ततः श्रीवीजापुरे श्रीवासुपूज्यदेवं नमस्कृतवन्तः । तत्र च सं० १३६७ माघकृष्णनवम्यां श्रीमहावीरप्रमुखशैलमयादिबिम्बानां प्रतिष्ठा श्रीमत्पूज्यैर्महता विस्तरेण कृता, मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवश्व जज्ञे। ततः श्रीभीमपल्लीयश्रीसमुदायाभ्यर्थनया श्रीमहावीरदेवं नमस्कृतवन्तः । तत्र च सं० १३६७ फाल्गुनशुक्ल प्रतिपदि, सकलश्रीभीमपल्लीयश्रीपत्तनीय-श्रीप्रह्लादनपुरीयसमस्तश्रीसमुदायमेलापके नानाविधपुण्यांकदानादिप्रभावनापुरस्सरं क्षुल्लकत्रयं क्षुल्लिकाद्वयं च श्रीपूज्याश्चक्रुः। तन्नामानि च परमकीति-वरकीति-रामकीर्ति-पद्मश्री-व्रतश्रीरिति । तस्मिन्नेव च दिने मालारोपणादिनन्दिमहोत्सवः सविस्तरः श्रीसमुदायेन कारितः। पं०सोमसुन्दरगणेर्वाचनाचार्यपदं दत्तम् । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । तस्मिन्नेव वत्सरे सा० क्षेमन्धर-सा०पद्मा-सा० साढलकुलावतंसेन निजभुजोपार्जितचारुकमलाकेलिनिवासेन कुङ्कुमपत्रिकादिना दानसन्मानपूर्वकविहितश्रीपत्तन - श्रीप्रह्लादनपुर - श्रीजावालिपुर- श्रीशम्यानयन- श्रीजेसलमेरु- श्रीराणुकोट्ट- श्रीनागपुर- श्रीरुणा श्रीवीजापुर - श्री सत्यपुर- श्री श्रीमाल श्रीरत्न पुरादिप्रभूतश्रावकसंघमेलापकेन निष्प्रतिम पुण्यपण्यशालिना स्थैर्यगाम्भीर्यादिगुणगणमालिना सत्तीर्थयात्रापवित्रगात्रसा० धनपालनन्दनेन श्री भीमपल्लीपुरीवास्तव्येन राजमान्येन सद्धर्मकर्मकुशलेन सुश्रावकसाधुसामलेन श्रीतीर्थयात्रा प्रारम्भि । तस्य च सकलसमुदायसहितस्य गाढाभ्यर्थनया प्रचुरम्लेच्छसंकुलेऽपि जनपदेऽविचलसुधव सुश्राविकाभिर्गीयमानेषु धवलमङ्गलेषु, दीयमानासु चच्चरीषु, पठत्सु भट्टघट्टेषु, वाद्यमानेषु प्रवरतूर्येषु, महतोत्साहेन श्रीवर्धमानस्वामिजननोत्सव पवित्रितायां चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां नानातिशयशालिनः श्री चतुर्विधसंघ सहिताः श्रीजगत्पूज्याः श्री पूज्याः श्रीदेवालयेन सह श्री भीमपल्लीतः प्रास्थिपत । ततश्च पदे पदे शुभशकुनैः प्रेर्यमाणाः श्रीशङ्खेश्वरे महाप्रभाव भवनं श्रीपार्श्वनाथजिनं महता विस्तरेण नमस्कृतवन्तः । तत्र च समस्तसंघेन दिनाष्टकं श्रीपार्श्वनाथमहातीर्थे महान्महोत्सवो व्यधायि । ततः पाटलाग्रामे श्रीनेमिनाथतीर्थं चिरकालीनं नमस्कृत्य श्री राजशेखराचार्य - जयवल्लभगण्यादिसाधुषोडशक - प्र० बुद्धिसमृद्धिगणिन्यादिसाध्वी पञ्चदशकपरिवृताः सकलप्राग्भारधौरेयेण साधुसामलेन, भण० नरसिंहपुत्रआसा-दुर्लभादिबान्धवन्यस्तसंघरक्षाभारेण भण० पूर्ण पुत्ररत्नेन, वयदार्यशालिना भण० लूणाकेन पाचात्यपदनिर्वाहिणा समस्तविधिसंघेन च कलिताः, प्रतिपुरं प्रतिग्रामं निःशङ्कं गीतनृत्यवाद्यादिना जिनशासनप्रोत्सर्पणायां विजृम्भमाणायां क्रमक्रमेण सुखसुखेन श्रीशत्रुञ्जयालङ्कारत्रैलोक्यसार समस्ततीर्थपरपरापरिवृतं प्रविहितसुरासुरनरेन्द्रसेवं श्रीनाभेयदेवम्, श्री उज्जयन्ताचलशिखरमण्डनं समस्तदुरितखण्डनं सौभाग्यकमलानिधानं यदुकुलप्रधानं कल्याणकत्र या दिनानातीर्थावलिविराजमानं श्रीअरिष्टनेमिखामिनं च नूतन स्तुतिस्तोत्रविधानपूर्वकं परमभावनया सकलसंघसहिताः श्री पूज्या महता विस्तरेणावन्दिषत । तत्र च श्रीजाबालिपुरवास्तव्यमहाजनप्रधानगुणनिधान सा० देवसीहसुत - सा०थालणनन्दनाभ्यां निजकुलमण्डनाभ्यां सा० कुलचन्द्र - सा० देदासुश्रावकाभ्यां द्वयोरपि महातीर्थयोः प्रचुरखापतेय सफलीकरणेन श्रीइन्द्रपदमङ्गीकृतम् । गोष्टिकयशोधवलपुत्ररत्नेन गोष्ठिकस्थिरपालेन प्रभूतद्रव्येण श्रीउञ्जयन्ते श्रीअम्बिकादेव्या माला गृहीता । अन्यैरपि श्रावकपुङ्गवैः सा० श्रीचन्द्रपुत्र सा० जाह्नण-सा॰ चाहडपुत्र सा० झाञ्झण - सा०ऊधरण - नवलक्षकनेमिचन्द्र - ० पूना - सा० तिहुणा-भां० पदमपु०भरणासा० महणसीह - सा० भीमापु० लूणसी हादिभिः श्रीतीर्थपूजा-संघपूजा-साधर्मिकवात्सल्यावारितसत्रादिषु, अमेय स्वस्खापतेय सफलीकरणेन महत् पुण्यानुबन्धिपुण्यं समुपार्जितम् । एवं च विषमकालेऽपि लोकोत्तरधर्मनिधानेन वरेण्यपुण्यप्रधानेन श्रीविधिसंघेन सज्जनचित्तहारिणी सर्वजनचमत्कारकारिणी श्रीतीर्थयात्रा विहिता निर्विघ्नम् । समस्ततीर्थावलीं महत्या प्रभावनया वन्दित्वा सा० सामलादिसंघसहिताः सपरिवाराः श्रीजिनचन्द्रसूरयः क्षेमेण अषाढचतुर्मासके श्री वायग्रामे जीवितस्वामिकां श्रीमहावीरप्रतिमां निष्प्रतिमां महाविस्तरेण नमश्चक्रुः । ततः श्रावणप्रथमपक्षे नृत्यन्तीषु धर्मभाविकासु श्राविकासु, गायन्तीषु नागराङ्गनासु, स्थाने स्थाने विधीयमानेषु प्रेक्षणीयेषु, पठत्सु बन्दिवृन्देषु, श्रावक जनैर्दीयमानेषु महादानेषु, सकलसंघसहितानां लोकोत्तरातिशयशालिनां श्रीजिनचन्द्रसूरीणां श्री विधि समुदायेन महाविस्तरेण महत्या प्रभावनया श्री भीमपल्ल्यां प्रवेशमहोत्सवः कारितः । संघागतेन श्रीदेवगुर्वाज्ञाप्रतिपालनोद्यतेन श्री साधर्मिकवत्सलेन भण० लूणासुश्रावकेण श्रीपूज्यपादान्ते श्रीसंघपाश्चात्यपदप्राग्भारनिर्वाहण महाप्रभावनाकरणसमुपार्जितं पुण्यं सर्वं स्वमातुर्दानशीलतपोभावनोद्यताया भग०धनीसुश्राविकायाः प्रदत्तम् । तया च श्रद्धानपरयाऽनुमोदितम् । .म्यां श्री भीमपल्ली समुदायका रितमहामहोत्सवेन प्रतापकीर्त्यादिक्षुल्लक योश्चोत्थापना क्षुल्लकद्वयं च पूज्यैर्व्यधायि । तन्नामानि तरुण कीर्तिस्तेजः कीर्तिः, साध्योश्च व्रतधर्मा दृढधर्मेति । तस्मिनेत्र दिने ठ० हांसिल पुत्ररल ठ० ६३ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार देहडानुज ठ० थिरदेवपुत्रिकायाः श्रीजिनचन्द्रसूरिस्वहस्तकमलदीक्षिताया रत्नमञ्जरीगणिन्या महत्तरापदं प्रदत्तम्श्रीजयद्धिमहत्तरेति नाम विहितम् , प्रियदर्शनगणिन्याः प्रवर्तिनीपदं च । ततः श्रीसमुदायाभ्यर्थनया श्रीपूज्याः पत्तनपुरवरे समायाताः। तत्र च सं० १३६९ मार्गशीर्षासितषष्ठयां खपक्ष-परपक्षचेतश्चमत्कारकारकेण श्रीसमुदायविधापितमहोत्सवेन 'जयति जिनशासनम्' इति समुत्साहपूर्वकं श्रीपूज्यैर्जगत्पूज्यश्चन्दनमूर्ति-भुवनमूर्ति-सारमूर्ति-हीरमूर्तिनामकं क्षुल्लकचतुष्टयं विहितम् , केवलप्रभागणिन्याः प्रवर्तिनीपदं च प्रदत्तम् , मालारोपणादिमहानन्दिमहोत्सवश्च कृतः । ___सं० १३७० माघशुक्लैकादश्यां पुनः श्रीसमुदायकारितसकलस्वपक्ष-परपक्षचेतश्चमत्कारकारी दीक्षामालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवः सकलजगत्कल्पद्रुमावतारैः श्रीमत्पूज्यैः कृतः । तस्मिन्महोत्सवे निधानमुनेयशोनिधि-महानिधिसाध्वीद्वयस्य च दीक्षा प्रदत्ता । ततः श्रीभीमपल्लीसमुदायाभ्यर्थनया श्रीपूज्याः श्रीभीमपल्लयां समायाताः। तत्र च सं० १३७१ फाल्गुनशुक्लकादश्यां श्रीमत्पूज्यैः साधुराजश्यामलप्रमुखश्रीभीमपल्लीसमुदायकारितः श्रीअमारिघोषणावारितसत्रसंघपूजासाधर्मिकवात्सल्यादिनानाविधप्रोत्सर्पणापूर्वकं सकलजनमनोहारी व्रतग्रहणमालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवः कृतः । तस्मिन्महोत्सवे त्रिभुवनकीर्तिमुनेः, प्रियधर्मा-आशालक्ष्मी-धर्मलक्ष्मीसाध्वीनां च दीक्षा प्रदत्ता। ८५. ततः श्रीपूज्यपादाः श्रीजावालिपुरीयसमुदायगाढतराभ्यर्थनया श्रीजावालिपुरे विहृताः। तत्र च सं० १३७१ ज्येष्ठवदिदशम्यां मं० भोजराज-देवसिंह प्रमुखसकलश्रीजावालिपुरीयसमुदायकारितः सकलस्वपक्ष-परपक्षचेतश्चमत्कारकारी समस्तजनमनोहारी दीक्षामालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवः श्रीपूज्यैः कृतः। तस्मिन् महोत्सवे देवेन्द्रदत्तमुनि-पुण्यदत्तमुनि-ज्ञानदत्त-चारुदत्तमुनीनां पुण्यलक्ष्मी-ज्ञानलक्ष्मी-कमललक्ष्मी-मतिलक्ष्मीसाध्वीनां च दीक्षा प्रदत्ता । ततो म्लेच्छकृतो भङ्गः श्रीजावालिपुरे जातः । ततः श्रीपूज्याः श्रीशम्यानयन-श्रीरुणापुरी-श्रीवब्बेरकादिनानास्थानवास्तव्यसकलसमुदायिनां समाधानमुत्पाद्य श्रीरुणातः श्रीश्रीमालकुलोत्तंसैः श्रीजिनशासनप्रभावकैः सकल. साधर्मिकवत्सलैः साधुमानलपुत्ररत्नैः सा०माहा-सा०धान्धूप्रमुखभ्रातृभिः सह सकलसपादलक्षनगरग्रामवास्तव्यसमस्तसुश्रावकशकटशतत्रयमेलापकेन श्रीपूज्यपादैः श्रीफलवधिकायां सकलातिशयनिधानस्य म्लेच्छव्याकुलसकलसपादलक्षजनपदवारसमद्रामृतकपतल्यस्य श्रीपार्श्वनाथस्य प्रथमो यात्रामहामहोत्सवश्चके। तस्मिन यात्रामहोत्सवे श्रीविधिसंघसुश्रावकैः श्रीइन्द्रपदादिनानापदग्रहण-अवारितसत्र-श्रीसाधर्मिकवात्सल्य-श्रीसंघपूजादिनानाविधश्रीजिनशासनप्रोत्सर्पणापूर्वकममेयं सौवस्वापतेयं सफली चक्रे । पश्चाच्ट्रीनागपुरसमुदायाभ्यर्थनया श्रीपूज्या नागपुरे विहृताः । ____ ततः श्रीलोहदेव-सालखण-सा० हरिपालप्रमुखश्रीउच्चापुरीयविधिसमुदायानुत्तराभ्यर्थनया नानाम्लेच्छसंकुले महामिथ्यात्वबहुले श्रीसिन्धुमण्डले महाग्रीष्मौ प्रवर्तमाने दुर्गममरुस्थल्यां सौवज्ञानध्यानबलशालिभिः श्रीमेघकुमारदेवकृतसानिध्यैर्युगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसूरिभिरनेकसुसाधुपरिवृतैः श्रीधर्मकल्पद्रुमारोपणाय विहारश्चक्रे । ततस्तद्देशालङ्कारे श्रीउच्चापुरीप्रत्यासन्ने श्रीदेवराजपुरे श्रीउच्चापुरीयविधिसमुदायकृतप्रवेशकोत्सवाः श्रीपूज्या महामिथ्यात्वराज्योत्पाटनायावस्थिताः। तत्र च सकलसिन्धुमण्डलसुश्रावकगाढतराभ्यर्थनया सं० १३७३ वर्षे मार्गशीर्ष. वदिचतुर्थ्यां श्रीआचार्यपदस्थापनाव्रतग्रहणमालारोपणादिमहामहोत्सवाः सकलाज्ञानिलोकसम्यक्त्वोपार्जनहेतवः श्रीपूज्यपादैः प्रारब्धाः । पश्चान्महोत्सवदिनोपरि आरम्भसिद्धिरात्रौ ज्ञानध्यानातिशयसंस्मारितश्रीजिनदत्तसूरियुगप्रवरागमैः श्रीपूज्यश्चतुर्मासीमध्येऽपि गुरुतरराजविड्वरेण संजायमानशून्यजनपदेषु तस्करादिनानोपद्रवबहुलेष्वपि मार्गेषु सौवज्ञानातिशयबलेन कुशलं परिभाव्य, स....वीसल-महणसिंहसुश्रावको श्रीदेवराजपुराच्छ्रीगूर्जरत्रामुकुटकल्पे Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । श्रीपत्तने श्रीविवेकसमुद्रमहोपाध्यायानां पार्श्वे लक्षण- तर्क- साहित्यालङ्कार - ज्योतिष्क - स्वसमय-परसमयसारनिष्कनिष्कषणनिकषोपमे समग्राचार्यगुणालङ्कृतमात्रस्य स्वशिष्यरत्नस्य पण्डितराजराजचन्द्रस्य समाकारणाय प्रेषितौ । ततः श्रीउपाध्यायैः सद्गुर्वादेशानुसारेण ताभ्यां सह पुण्यकीर्तिगणिं दत्त्वा पं० राजचन्द्रमुनिः प्रेषितः । ततः श्रीमत्पूज्यगुरुतरध्यानबलाकर्षिताधिष्ठायककृतसान्निध्यात् तस्कराद्यने को पद्रवानवगणय्य कार्तिकचतुर्मासकदिने स्वदीक्षागुरुश्री पूज्यपादपद्ममहातीर्थं पं० राजचन्द्रमुनिना नमस्कृतम् । ततश्च श्रीमत्पूज्यैः श्रीउच्चापुरीय - श्रीमरुकोट्ट- श्रीक्यासपुरप्रमुखसिन्धुदेशनानानगरग्रामवास्तव्यासंख्य सुश्रावकसंघमहामेलापकेन स्थाने स्थाने प्रेक्षणीयेषु संजायमानेषु दीयमानैषु तालारासेषु, नृत्यमानेषु युवतीजनेषु, पापठ्यमानेषु वन्दिषु दीयमानेषु श्रे० उदयपाल - श्रे० गोपाल - सा० वयरसिंह-ठ०कुमरसिंहप्रमुखमहर्द्धिक सुश्रावकलोकैः स्वर्णान्नवस्त्रदानेषु क्रियमाणेषु अवारितसत्रेषु संजायमानेषु साधमिंकवात्सल्येषु श्रीआचार्य पदस्थापना व्रतग्रहण-मालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवश्चक्रे । तस्मिन् महोत्सवे स्वशिष्यरत्नस्य समग्रविद्याबुद्धिपानकुम्भषिंसमानस्य वाक्चातुरीविनिर्जितसुराचार्यस्य पण्डितराजचन्द्रमुनिवरस्य आचार्यपदं प्रदत्तम्श्री राजेन्द्र चन्द्राचार्या इति नामधेयं च कृतम् । ललितप्रभ-नरेन्द्रप्रभ धर्मप्रभ- पुण्यप्रभ - अमरप्रभसाधूनां दीक्षा प्रदत्ता | अनेकश्रावकश्राविकालोकैर्माला गृहीता, सम्यक्त्वारोपसामायिकारोपश्च कृतः । तस्मिन् महोत्सवे साधुराजयशोधवलकुलप्रदीपेन सा० नेमिकुमार पुत्ररत्नेन श्रीजिनशासनप्रभावकेण सकलसाधर्मिकवत्सलेन सा०वयरसिंहसुश्राव केण विशेषतः श्रीसाधर्मिक वात्सल्यावारितसत्रामारिघोषणा श्रीसंघ पूजा निर्मापणपूर्वकं स्वस्वापतेयं सफलीचक्रे । ८६. ततः पुनः सं० १३७४ फाल्गुनवदि षष्ठीदिने श्रीउच्चापुरीयादिनानानगरग्रामवास्तव्य सकल सिन्धुदेशविधिसमुदायकारितः श्री पूज्यैर्वतग्रहणमालारोपणोत्थापनादिनन्दिमहामहोत्सवः सकलस्वपक्ष-परपक्षचेतश्चमत्कारकारी कृतः । तस्मिन् महोत्सवे दर्शनहित-भुवनहित - [त्रिभुवनहितमुनीनां दीक्षा प्रदत्ता, श्राविकाशतेन च माला गृहीता । एवं श्रीदेवराजपुरे महामिध्यात्वतिमिरं चतुर्मासीद्वयेनोन्मूल्य श्रीपूज्याः [सा ?] री० पूर्णचन्द्रसत्पुत्रो दारचरित्र श्रीजिनशासनप्रभावक सारी • हरिपालसार्थवाहसान्निध्येन मरुस्थलवालुका समुद्रमुल्लङ्घय श्रीनागपुरे श्रीसमुदायकृत गुरुतरप्रवेश महोत्सवाः समायाताः । ततः श्रीकन्यानयनवास्तव्य श्री श्रीमाल कुलोत्तंसश्रीजिनशासनप्रभावक सा०कालासुश्रावककारिता श्रीकन्यानयनादिसमग्र वागडदेश - सपादलक्षदेश - नगरग्रामवास्तव्यनानासु श्रावकमहासंघ मेलापकेन श्रीफलवर्धिकायां श्रीपार्श्वनाथदेवस्य श्री पूज्यैर्द्वितीयवारं यात्रा कृता । महर्द्धिकसुश्रावकलोकैरवारितसत्रसाधर्मिकवात्सल्यश्रीसंघपूजानिर्मापणपूर्वकं श्रीजिनशासने महती प्रभावना चक्रे । ० ६५ ततः सं० १३७५ माघशुक्लद्वादश्यां श्रीनागपुरे मत्रिदलकुलोत्तंस - ठ० विजयसिंह - ठ० सेदू - सा० रूदाप्रमुखश्रीयोगिनी पुरसमुदायसंघ पुरुषमन्त्रिदलीय - ठ० अचलप्रमुखसमग्र डालामऊ समुदाय - श्रीकन्यानयन - श्री आसिका - श्रीनरभटप्रमुखनानानगरग्रामवास्तव्य समस्तवागडदेश समुदाय मं० कुमरा मं० मूधराजप्रमुखकोशवाणासमुदाय- नानानगर ग्रामवास्तव्यसमग्रस पादलक्षसमुदाय - सा० सुभटप्रमुख श्रीजावालिपुर - श्रीशम्यानयनप्रमुख मारुवत्रा समुदायादिनानाजनपदप्रचुरसमुदाय महामेलापके स्थाने स्थाने संजायमानेष्ववारितसत्रेषु, कार्यमाणेषु महाप्रेक्षणीयेषु, नृत्यमानेषु युवती जनेषु, दीयमानेषु तालारासेषु क्रियमाणेषु साधमिंकवात्सल्येपु, दीयमानेषु महामहर्द्धिकसुश्रावकलोकैः कनक़कटकरूप्यकटकवस्त्रान्नदानेषु श्रीवर्धमानखामितीर्थप्रवर्तनपरायणैः श्री पूज्यैः श्रीनागपुरीय समुदायास्यर्थनया स्वपक्ष-परपक्षासंख्यजनमनोहारी सकलमहामिथ्यादृग्लोक मस्तकावधूननकारी श्रीव्रतग्रहणमालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवश्चक्रे । तस्मिन् महोत्सवे सोमचन्द्रसाधोः शीलसमृद्धि - दुर्लभसमृद्धि-भुवनसमृद्धिसाध्वीनां दीक्षा प्रदत्ता । पं० जगच्चन्द्रगणेः सर्वविद्याविलासिनीनाट्य नाट्योपाध्याय कल्पस्य नानाशिष्यरत्ननिष्पादनलब्धिसमुद्रस्य द्विधा खसन्तानजस्य परिभावितस्वपट्टलक्ष्मी योग्यस्य तस्य पण्डितराजकुशलकीर्तिगणेश्च वाचनाचार्यपदम् । धर्ममालागणिनी - पुण्य यु० गु० ९ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ खरतरगच्छालंकार सुन्दरीगणिन्योः प्रवर्तनीपदं च प्रदत्तम् । ततश्च ठ० विजयसिंह -ठ० सेटू-ठ० अचलप्रमुखसमग्रसंघशकटाश्वमहामेलापकेन श्रीफलवधिंकायां श्रीपार्श्वनाथस्य श्रीपूज्यस्तृतीयवारं यात्रा कृता । तत्र च जिनशासनप्रभावनाकरणप्रवणेन सर्वसाधर्मिकवत्सलेन मत्रिदलकुलोत्सेन ठ० सेटूसुश्रावकेण जैथलसहस्रद्वादशप्रदानपूर्वकमिन्द्रपदग्रहणेन, अन्यैः सुश्रावकलोकैरमात्यादिपदग्रहणेन अवारितसत्रसंघपूजासाधर्मिकवात्सल्यस्वर्णरजतकटकवस्त्रादिदानैश्च श्रीजिनशासने महती प्रभावना चक्रे । श्रीपार्श्वनाथदेवभाण्डागारे च जैथलसहस्र ३० समुत्पन्नाः । ततः पुनः श्रीपूज्याः श्रीसंघेन सह नागपुरे समायाताः। ८७. ततः सं०१३७५ वैशाखवद्यष्टम्यां नानावदातवातसमुद्धृतसर्वपूर्वजकुलेन निजभुजोपार्जितचारुकमलाकेलिनिवासेन मत्रिदलकुलोत्तंस-ठ०प्रतापसिंहपुत्ररत्नेन श्रीजिनशासनप्रभावनाकरणचतुरेण सकलसाधर्मिकवत्सलेन निःप्रतिमपुण्यपण्यशालिना स्थैयौदार्यगाम्भीर्यादिगुणगणमालिना सकलराज्यमानेन ठक्कुरराजअचलसुश्रावकेण प्रतापाक्रान्तभूतलपातसाहिश्रीकुतबदीनसुरत्राणफुरमाणं निष्कास्य कुङ्कुमपत्रिकादानसन्मानादिपूर्व श्रीनागपुर-श्रीरुणा-श्रीकोसवाणा-श्रीमेडता-कडुयारी-श्रीनवहा-झुझणू-नरभट-श्रीकन्यानयन-श्रीआसिका-झरे [१] रोहद-श्रीयोगिनीपुर-धामइना-यमुनापारनानास्थानवास्तव्यप्रभूतसुश्रावकमहामेलापकेन प्रारम्भिते श्रीहस्तिनागपुर-श्रीमथुरामहातीर्थयात्रोत्सवे श्रीवत्रस्वामि-श्रीआर्यसुहस्तिमूरिवत्सर्वातिशयशालिनो जगत्पूज्याः श्रीमत्पूज्या जयवल्लभगणि-पं० पद्मकीर्तिगणि-पं० अमृतचन्द्रगण्यादिसाध्वष्टक-श्रीजयद्धिमहत्तराप्रमुखसाध्वी........श्रीचतुर्विधसंघसहिताः प्रचुरम्लेच्छावलीसंकुलेऽपि जनपदे अविधवसुधवाभिः सुश्राविकाभिर्गीयमानेषु षवलमङ्गलेपु, दीयमानासु चञ्चरीषु, पठत्सु नानाविधवन्दिवृन्देषु, वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, श्रीदेवालयेन सह श्रीनागपुरात् प्रचलिताः । ततश्च पदे पदे शुभशकुनैः प्रेर्यमाणाः सकलसंघकार्यप्राग्भारधुराधौरेयेण निरुपमदानतिरस्कृताशेषकल्पद्रुमेण ठ० अचलसुश्रावकेण, श्रीश्रीमालकुलोत्सेन श्रीदेवगुर्वाज्ञाचिन्तामणिविभूषितमस्तकेन अङ्गीकृताशेपसंघपाश्चात्यपदप्राग्भारेण सा० सुरराजपुत्ररत्नेन साधुराजरुदपालसुश्रावकेण समासंघेन च कलिताः, प्रतिपुरं प्रतिग्रामं निःशङ्कं गीतनृत्यवाद्यादिना श्रीजिनचैत्येषु चैत्यप्र(परिपाटीकरणपूर्व श्रीजिनशासनप्रोत्सर्पणायां विजृम्भमाणायां क्रमक्रमेण श्रीनरभटे श्रीजिनदत्तमरिप्रतिष्ठितं नवफणमण्डितं समग्रातिशयनिधानश्रीपार्श्वनाथमहातीर्थ श्रीसमुदायकारितासमप्रवेशकमहोत्सवाः श्रीपूज्या नमश्चक्रुः। ततश्च श्रीनरभटसमुदायेन श्रीचतुर्विधसंघसमन्वितानां श्रीपूज्यानां श्रीसंघपूजादिनिर्मापणेन महती प्रभावना चके। ततः स्थानात् पुनः श्रीचतुर्विधसंघश्रीदेवालयसमन्विताः श्रीपूज्याः समग्रवागडदेशनगरग्रामवास्तव्यसुश्रावकलोकमनोरथमालां परिपूरयन्तो महतोत्साहेन श्रीकन्यानयने श्रीजिनदत्तमुरिप्रतिष्ठितं सकलतीर्थमुकुटकल्पं सातिशायिनं श्रीवर्धमानस्वामिनं नमश्चक्रुः । मेहर-पद्म-सा० कालाप्रमुखश्रीकन्यानयनसमुदायेन सकलम्लेच्छसंकुलेऽपि नगरे हिन्दुकवारकवत् स्थाने स्थाने संजायमानेषु प्रेक्षणीयेषु, श्रीदेवालयश्रीसंघसमन्वितानां श्रीपूज्यपादानां प्रवेशकमहोत्सवकरणपूर्वकं श्रीसंघपूजासाधर्मिकवात्सल्यनिर्माएणपूर्वकं च श्रीमहावीरतीर्थे भवभवान्तरेणार्जितपापकश्मलापहारिणी महती प्रभावना चक्रे । तत्र च श्रीसंघेन श्रीवर्धमानस्वाम्यग्रे दिनाष्टकं गुरुतरोत्साहपूर्वकमष्टाह्निकामहामहोत्सवश्चके । ८८. ततः स्थानात् समग्रयमुनापार-वागडदेशसुश्रावकसत्कतुरङ्गमशतचतुष्टय-शकटशतपञ्चक-वृपभशतसप्तकासंख्यलोकमहामेलापकेन वाद्यमानासु ढोल्लपरम्परासु, मार्गेषु स्थाने स्थाने दीयमानःसु चच्चरीषु, वाद्यमानेष्वहर्निशं द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, असंख्यम्लेच्छाश्वपरम्परानुगम्यमानः, ठ० जवनपाल-ठ० विजयसिंह-ठ० सेटू-ठ० कुमरपाल-ठ० देवसिंहप्रमुखनानामत्रिदलीय-सुश्रावक-ठ भोजा-श्रेष्ठि० पद्म-सा काला-ठ०देपाल-ठ०पूर्ण-श्रे०महणा-ठ०रातू-सा० लूणा-ठ फेरूप्रमुखानेकश्रीश्रीमालीय-सुश्रावकश्रे०पूनड-सा०कुम्मरपाल-मं०मेहा-मं०वील्हा-सा०ताल्हण-सा०म Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। हिराजप्रमुखऊकेशवंशीयासंख्यसुश्रावकपरम्परैकवितानः श्रीचक्रवर्तिमहासैन्यसमानः, चारुद्रोणीभिर्यमुनामहानदीमुत्तीर्य क्रमक्रमेण निःशकं मन्दमन्दप्रयाणकैः श्रीशान्तिनाथ-श्रीकुन्थुनाथ-श्रीअरनाथतीर्थङ्करचक्रवर्तिनां गर्भावतार-जन्म-दीक्षा-ज्ञानकल्याणकचतुष्टयपवित्रितवसुन्धरं हस्तिनापुरं चक्रवर्तिसमानश्रीमत्पूज्य-सेनानीसमानठ. अचल-पाश्चात्यपदनिर्वाहक-सा०रुदपालालंकृतः श्रीचतुर्विधोऽपि संघः सम्प्राप्तः। ८९. ततश्च श्रीमत्पूज्यैः श्रीचतुर्विधसंघसमन्वितैनूतनकृतस्तुतिस्तोत्रनमस्कारभणनपूर्व श्रीशान्तिनाथ-कुन्थुनाथारनाथदेवानां भवभवोपार्जितपापपङ्कोत्तारिणी यात्रा चक्रे । श्रीसंघेन च श्रीइन्द्रपदादिग्रहणावारितसत्र-साधर्मिकवात्सल्य-श्रीसंघपूजानिर्मापण-हेमरजतकटकतुरगवस्त्रवितरणपूर्वकं कलिकाले प्रवर्तमानेऽपि श्रीकृतयुगवच्छ्रीवीरशासने स्वपक्ष-परपक्षचेतश्चमत्कारकारिणी महती प्रभावना चक्रे । तत्र च ठ०हरिराजपुत्ररत्नेनोदारचरित्रेण श्रीदेवगुर्वाज्ञाचिन्तामणिविभूपितमस्तकेन ठ० मदनानुजेन ठ० देवसिंहसुश्रावकेण जैथलसहस्रविंशत्येन्द्रपदं गृहीतम् । ठ०हरिराजादि महद्धिकसुश्रावकैरमात्यादिपदानि गृहीतानि । सर्वसंख्यया देवभाण्डागारे जैथललक्ष १ सहस्र ५० समुत्पन्नाः । तत्र च दिनपञ्चकं श्रीजिनशासनप्रोत्सर्पणां विधाय श्रीहस्तिनागपुरात् सर्वोऽपि संघः श्रीमथुरामहातीर्थोपरि प्रचलितः सन् स्थाने स्थाने प्रोत्सर्पणां विदधानः श्रीयोगिनीपुरप्रत्यासन्ने तिलप्थस्थाने समायातः । अत्रान्तरे द्रमकपुरीयाचार्येण युगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसूरीणामतिशयमसहिष्णुना दुर्जनस्वभावेन वर्णच्छत्रधरणसिंहासनोपवेशनादिकं पै[शुन्यं महाराजाधिराजपातसाहिकुतबदीनाग्रे कृतम् । ततश्च म्लेच्छस्वभावेन पातसाहिना समग्रोऽपि संघस्तत्रावग्रहे कारितः। श्रीपूज्याः सपरिवाराः संघपुरुष-ठ०अचलादिमहद्धिकसुश्रावकसमन्विताः स्वपार्श्वे समाकारिताः । ततश्च श्रीमत्पूज्यमुखकमलावलोकनादेव न्यायिमहोदधिना प्रतापाक्रान्तसमग्रभूतलेन श्रीअलावदीनसुरत्राणपुत्ररत्नेन श्रीकुतबदीनसुरत्राणेन कथितम्-'एतेषां श्वेताम्बराणां मध्ये दुर्जनोक्तं वाक्यं न किमपि जाघटीति' । पश्चाद् दीपानाग्रे आदिष्टम्-‘एतेषां कर्णवारं सम्यगालोच्य येऽन्यायिनो भवन्ति ते शिक्षणीयाः' इत्युक्त्वा श्रीपूज्या दीपाने प्रेषिताः । ततश्च प्रधानाधिकारिपुरुषैः सम्यन्यायान्यायं परिभाव्य द्रमकपुरीयाचार्यो नष्टोऽपि सन् निष्कासयित्वा राजद्वारे ऊर्वीकृतः। पश्चादालापितः सन् किमपि सत्यमब्रुवत् । श्रीपूज्यानामग्र एव राजद्वारे लक्षसंख्यम्लेच्छ-हिन्दुकप्रत्यक्षं यष्टि-मुष्टिलकुटादिप्रहारैः कुट्टयि खा विगोपयिखा च बन्दी कृतः। श्रीपूज्यानामग्रे कथितम्-'युष्माभिः सत्यभाषिभिया॑यैकमहोदधिभिः सत्यश्वेताम्बरैः पातसाहिमेदिन्यां परिभ्रमणं स्वेच्छया करणीयम् , अत्राथै शङ्का काऽपि न कार्या' । पश्चाच्छ्रीपूज्यैः साधुराजतेजपाल-साधुराजखेतसिंह-ठ०अचला-ठ० फेरूणामग्र आदिष्टम्-'वयमितः स्थानात् पातसाहिप्रेषिता अपि तदैव व्रजिष्यामो यदाऽस्य द्रमकपुरीयाचार्यस्य दुर्जनस्वभावस्यापि मोचनं विधास्यथाम् । यतः श्री. वर्धमानशिष्येण श्रीधर्मदासगणिनोपदेशमालायामुक्तमस्ति जो चंदणेण बाहुं आलिप्पइ वासिणाइ तच्छेइ । संथुणइ जोवि निंदइ महरिसिणो तत्थ समभावा ।। अन्यशास्त्रेष्वप्युक्तमस्ति शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि। मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिपुङ्गवः ॥ इति श्रीपूज्यानां शत्रुमित्रसमवृत्तीनां समतृणमणिलोष्टुकाञ्चनानां करुणासमुद्राणां गाढतरं मोचनाभिप्राय विज्ञाय सर्वोऽपि राजलोको नगरलोकश्च मस्तकावधूननपूर्वकं श्रीपूज्यानां गुणग्रहणैकपरायणो जज्ञे । ततः श्रीपूज्या ......सा० तेजपालादिभिः कारणिकपुरुषान् सम्बोध्य स द्रमकपुरीयाचार्यो मोचयित्वा स्वपौषधशालायां प्रेषितः । [८१] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ खरतरगच्छालंकार पश्चाच्छ्रीपूज्या अश्वपतिबहुमानिता महाम्लेच्छराजलोकनगर लोक-सा०तेजपाल - सा० खेतसिंह- सा० ईश्वर - ठ०अचलप्रमुखासंख्यसुश्रावकलोकानुगम्यमाना गुरुतरप्रभावनापूर्वकं पा (खां) डासरायस्थाने समायाताः । अस्मिन् प्रस्तावे श्रीपूज्यानां समग्रसंघस्य च श्रीजिनशासनप्रभावकैः सकलराजमान्यैः सर्वकार्यनिर्वाहणसमर्थैः सकलसंघाधारैः श्रीश्रीमालकुलोसंसैः सा०तेजपाल - सा०खेतसिंह - सा० ईश्वरसुश्रावकैः सकलसंघधुरन्धरेणोदारचरित्रेण चतुर्दिक्षु विख्यातेन मन्त्रिदलकुलोत्तंसेन ठ०अचलसुश्रावकेण ठ० श्रीवत्सपुत्ररत्नसमन्वितेन च भव्यं साहाय्यं कृतम् । अत्रान्तरे चतुर्मासी लग्ना । ततः श्रीपूज्याः संघविसर्जनं विधाय ठ०अचलादिभिः सुश्रावकैर्वरिवस्यमानाः खण्डकसराजौ चतुर्मासीं चक्रुः । अत्रान्तरे पुनः श्रीमत्पूज्यैः श्रीसुरत्राणकथनेन श्रीसंघानुरोधेन च 'रायाभियोगेणं गणाभियोगेण' मित्यादिसिद्धान्तवचनमनुसरद्भिश्चतुर्मासीमध्येऽपि श्रावणमासे संघभारनिर्वाहक - ठ० अचल - पाश्चात्यपदनिर्वाहकसा० रुदपालादिसमग्रबागडदेशसुश्रावकसंघ महामेलापकेन श्रीमथुरायां श्रीसुपार्श्व - श्रीपार्श्व - श्री महावीरतीर्थकराणां महता विस्तरेण यात्रा कृता । श्रीसंघेन च अवारितसत्र श्री साधर्मिक वात्सल्यादिभिर्महती प्रभावना चक्रे । ततः पुनः श्रीयोगिनीपुरे समागत्य पा ( खां ) डासराय स्थाने श्री पूज्यैः शेषा चतुर्मासी चक्रे । श्रीजिनचन्द्रसूरिस्तूपे च वारद्वयं सविस्तरा यात्रा कृता । ९०. ततश्चतुर्मास्यनन्तरं श्रीमत्पूज्यैः शरीरे कम्परोगेण साबाधितैः सौवज्ञानध्यानबलेन स्वायुः शेषं परिभाव्य स्वहस्तदीक्षितस्य द्विधास्वसन्तानप्रभवस्य खपट्टलक्ष्मी पाणिग्रहणयोग्यलक्षणस्य तर्क-साहित्यालङ्कार- ज्योतिष्कसारविचारचतुरस्य स्वसमय-परसमयाम्भोधितारणतरण्डस्य स्वशिष्यरत्नस्य वा० कुशलकीर्तिगणेः खपट्टस्थापनखपरिभावितनामकारापणादिसर्वशिक्षासमन्वितचिष्ठिकागोलकः श्रीराजेन्द्र चन्द्राणां निमित्तं विश्वासपात्र श्रीदेवगुर्वाज्ञानिरत- ट० विजयसिंहहस्ते समर्प्य चाहुमानकुलोत्तंस शरणागतवज्रपञ्जरराणक श्रीमालदेवेन गाढतरोपरोधेन समामन्त्र्यमाणैः श्रीयोगिनीपुराच्छ्रीमेडतास्थानकोपरि विहारश्च । ततो मार्गे धामइना - रोहद प्रमुख नानास्थानसुश्रावक लोकान् वन्दापयन्तः श्रीकन्यानयने श्रीमहावीरदेवं नमश्चक्रुः । तत्रागतैः श्रीमत्पूज्यपादैः तापश्वासादिना घनतरमाबाधितैः श्रीकन्यानयनीय समुदायप्रत्यक्षं चतुर्विधसंघ मिथ्यादुष्कृतदानपूर्वकं पुनः सर्वशिक्षासमन्वितो लेखो विश्वासपात्र प्रवर्तकजयवल्लभ गणिहस्ते श्रीराजेन्द्रचन्द्राचार्याणां निमित्तं प्रदत्तः । ततो मासमेकं श्रीकन्यानयनीय समुदायस्य समाधानमुत्पाद्य श्रीनरभटादिनानास्थान सुश्रावकलोकान् वन्दापयन्तः श्रीमेडतास्थाने समायाताः । तत्रापि राणक श्रीमालदेवाभ्यर्थना श्रीसमुदाय समाधानाय च चतुर्विंशतिदिनानि स्थित्वा स्वनिर्वाणयोग्यं स्थानं परिभाव्य श्रीकोशवाणास्थाने श्रीपूज्याः समायाताः । तत्रागतैः श्रीमत्पूज्यैः सं० १३७६ आषाढशुक्ल नवमीरात्रिप्रथम सार्धप्रहरे... शपश्चपष्टि । . श्रीचतुर्विधसंघमिथ्यादुष्कृतदानमदनकलाङ्कितहस्त कमलैः अखिता (१) नशनह स्तिमलैः स्वर्गलक्ष्मीपाणिग्रहणं चक्रे । ततः श्रीसमुदायेन श्रीवर्धमानस्वामि निर्वाण समय शिबिकासमानगुरुतमासंख्य मण्डपिकाशोभित विमाननिर्मापूर्वकं वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, उच्छाल्यमानेषु नालिकेरादिफलसमूहेषु, अविधवसुधवाभिः श्राविकाभियमानेषु पूर्व महर्षिगीतेषु प्रभातसमये नगरलोक - राजलोकमहामेलापकेन निर्वाणमहामहोत्सवः सविस्तरभरश्चक्रे । अत्रा सद्गुरूणां गुणलेशस्मरणं विद्वद्भिः किञ्चित् क्रियते यस्मिन्नस्तमितेऽखिलं क्षितितलं शोकाकुलव्याकुलं, जज्ञे दुर्मदवादिकौशिक कुलं सर्वत्र येनोल्वणम् । + अत्र मूलादर्शे प्रायः ३५-३६ अक्षरप्रमाणा पङ्क्ती रिक्ता मुक्ताऽस्ति । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। ज्योतिर्लक्षणतर्कमन्त्रसमयालङ्कारविद्यासमा, दुःशीला वनिता इवात्रभुवने वाञ्छन्ति हा तुच्छताम् ॥ पङ्कापहारनिखिले महीतले गामिनिर्जरतरलितैः । विधाय येऽस्तं गताः श्रीस्वर्ग ये*............॥ ये तु रीनेपुत्रनिचतवयं मुक्तं मा हत्याकुलं (१), सद्यस्तत्पथगामिभिः सहचरैः सौराज्यसौभिक्ष्यकैः । स्थास्यामोऽपनयः(१) कथं वयमिति ज्ञात्वेव चिन्तातुरैः, प्रातः श्रीजिनचन्द्रसूरिगुरवः स्वर्गस्थिता मङ्गलम् ॥ भाव्यं भूवलये क्षयं कलिपतेर्दुभिक्षसेनापते त्विा तन्मथनोद्यताः सुरगुरुं प्रष्टुं सखायं निजम् । मन्ये नाशिकमन्नधारणयुताभावात् पत्राद्धृता (१), राजानो जिनचन्द्रसूरय इति स्वर्ग गता देवतः॥ पश्चान्मत्रीश्वरदेवराजपौत्रेण मं० माणचन्द्रपुत्ररत्नेनोदारचरित्रेण मं० मून्धराजसुश्रावकेण तस्मिन् स्थाने श्रीमत्पूज्यपादुकासमन्वितं स्तूपं कारितम् । ९१. ततश्चतुर्मास्यनन्तरं जयवल्लभगणिः श्रीपूज्यप्रदत्तं सर्वशिक्षासमन्वितं लेखं गृहीत्वा श्रीभीमपल्लयां श्रीराजेन्द्रचन्द्राचार्याणामन्तिके समायातः । ततः श्रीमदाचार्या जयवल्लभगणिप्रमुखसाधुसमन्विताः श्रीपत्तने विहताः । तत्र च विषमकाले महादुर्भिक्षे प्रवर्तमानेऽपि स्वज्ञानध्यानवलेन श्रीचतुर्विधस्य संघस्य कुशलं परि...सिद्धिरामावदातैनिंजगुरुश्रीमत्पूज्यादेशप्रतिपालननिमित्तैः श्रीराजेन्द्राचार्यवर्यैः सं० १३७७ ज्येष्ठायैकादश्यां कुम्भलग्ने श्रीमूलपदस्थापनामहोत्सवविनिश्चयश्चाकृत | पश्चाच्छ्रीश्रीचन्द्रकुलावतंसेन श्रीजिनशासनप्रभावनाकरणनिरतेनौदार्यविनिर्जित...सा० जाल्हणपुत्ररत्नेन साधुराजतेजपालसुश्रावकेण स्वभ्रातृसा० रुदपालपरिवृतेन मूलपदस्थापनामहोत्सवकारापणाय भारं श्रीमदाचार्याणां प्रसादादङ्गीकृत्य, चतुर्दिक्षु श्रीयोगिनीपुर-श्रीउच्चापुर-श्रीदेवगिरि-श्रीचित्रकूट-श्रीस्तम्भतीदिक् समग्रजनपदनगरग्रामवास्तव्यसमग्रविधिमार्गसुश्रावकाणां तद्दिनोपरि समाकारणाय कुङ्कुमपत्रिकां दत्त्वा लेखवाहकाः प्रेषिताः। पश्चात् सर्वस्थानकविधिसमुदायाः प्रमुदितवदना अहमहमिकया महाविषमकाले प्रवर्त्तमानेऽपि तदिनोपरि श्रीपत्तने समाजग्मुः। ठ विजयसिंहोऽपि श्रीपूज्यप्रदत्तं मूलपदयोग्यशिष्यस्थापनशिक्षाचिष्ठिका...कं गृहीत्वाश्रीयोगिनीपुरात् तदिनोपरि श्रीपत्तने समायातः। ततः सर्वस्थानकसमुदायसमागमनं ज्ञात्वा स्वप्रतिज्ञातार्थनिर्वाहणाजनैत्तिभिः (१) श्रीराजेन्द्रचन्द्राचार्यैः श्रीजिनचन्द्रसूरिसद्गच्छावासमूलस्तम्भप्रायसकलविद्यापाठनाद् द्वितीयोपाध्यायश्रीविवेकसमुद्रमहोपाध्याय-प्रवर्तकजयवल्लभगणि-हेमसेनगणि-वाचनाचार्यहेमभूषणगणिप्रमुखसुसाधुत्रयस्त्रिंशन्मेलापके श्रीजयद्धिमहत्तरा-प्र०बुद्धिसमृद्धिगणिनी-प्रप्रियदर्शनागणिनीप्रमुखसाध्वीत्रयोविंशति-सर्वस्थानकसर्वसमुदायमहामेलापके च जयवल्लभगणिहस्तक-श्रीमत्पूज्यस्वहस्तप्रदत्तलेखः, ठ० विजयसिंहहस्तका श्रीमत्पूज्यस्वहस्तप्रदत्ता गोलकमध्यस्था चिष्ठिका च वाचिता । तदाकर्णनात् तत्क्षणादेव चतुर्विधसंघोऽपि नवनिधानप्राप्तिवद्धर्षकल्लोलामृतपूरितो नृत्य कर्तुमारेभे । पश्चाच्छ्रीमदाचार्यैरस्खलितनिजगुर्वाज्ञाप्रतिपालनोद्यतैः सर्वातिशयशालिभिः श्रीच * अत्र पुनः मूलादर्शे २४-२५ अक्षरमितः पङ्क्तिभागः शून्यरूपेण मुक्तोऽस्ति । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० खरतरगच्छालंकार तुर्विधविधिसंघपरिवृतैः साधुराजतेजपालप्रमुखनानास्थानसमुदायैरहमहमिकया स्थाने स्थाने कार्यमाणेषु प्रेक्षणीयेषु, दीयमानेषु स्वर्णरजतकटकतुरगवस्त्रान्नदानेषु, नानाविधकाव्यं परम्पराभिः पठत्सु बन्दिवृन्देपु, क्रियमाणेषु महद्धिकसुश्रावकलोकैः श्रीसाधर्मिकवात्सल्येषु, वाद्यमानेष्वहर्निशं द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, संजायमानासु संघपूजासु, सशिक्षासमन्वितश्रीपूज्यप्रदत्तगोलकचिष्ठिकालेखानुसारेण सर्वलब्धिवितानसंस्मारितपूर्वगणधराणामुद्भटभाग्यप्रतापलकेश्वराणां स्थैर्यौदार्यगाम्भीर्यादिगुणावलीसमुपार्जितहीराट्टहासराकाशशाङ्ककरनिकरसोदरगोक्षीरधाराहारिहारप्रालेयोज्ज्वलदन्तिदन्तक्षोदसमानयशःकाचकर्पूरपूरवासितविश्ववलयानां स्वसहाध्यायिनां नवनाट्यरसावतारतात्कालिकसम्पादितनवनवविच्छित्तिकाव्यपरम्पराविस्मापिताशेपकोविदचक्राणां ज्ञानध्यानातिशयसंस्मारिसकलपूर्वसूरीणां निखिलविद्यापारीणानां वाक्चातुरी विनिर्जितसुराचार्याणां मत्रीश्वरराजकुलप्रदीपमत्री ठ० जेसलरत्नकुक्षिधारिणीमत्रिणीजयतश्रीपुत्राणां चत्वारिंशद्वर्षप्रमाणानां समग्रयुगप्रवरागमकमलाकेलिनिलयानां वाचनाचार्य.........श्रीशान्तिनाथदेवाग्रे सकल............श्रीगूर्जरत्रामुकुटकल्पनरसमुद्रश्रीपत्तनवास्तव्यनानामहद्धिकस्वपक्ष-परपक्षमहाव्यावहारिकासंख्यलोकगुरुतरानेकराजलोकचेतश्चमत्कारकारी म्लेच्छबहुलेऽपि समग्रजनपदे श्रीश्रेणिक-श्रीसम्प्रति-श्रीकुमारपालमहाराजाधिराजवारकवत् श्रीयुगप्रधानपदवीसंस्थापनमहामहोत्सवश्वके । श्रीपूज्योपदिष्टश्रीजिनकुशलसरय इति नामनिर्माणश्रीपूज्यदापितश्रीपूज्यसमवसरणप्रदानपूर्वकं श्रीयुगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसूर्यादेशप्रासादोपरि महाकलशाधिरोपश्च चक्रे । तस्मिन् महोत्सवे सम्पूर्णाचिन्त्यमनोरथमालेनोदारचरित्रेण साधुराजतेजपालेन सर्वस्थानकवास्तव्यः श्रीचतुर्विधसंघः समग्रोऽपि वस्त्र प्रदानपूर्व बहुमानितः । अनेकगच्छाश्रिताः शतसंख्या आचार्याः सहस्रसंख्याः साधवश्व वस्त्रादिप्रदानेन रलिकचित्ताः कृताः। समस्तवाचकाचार्योऽपि सम्पूरितमनोरथः कृतः। साधुराजसामलपुत्ररत्नेन सर्वसाधर्मिकवत्सलेन श्रीभीमपल्लीसमुदायमुकुटकल्पेन पुरुपसिंहेन साधुराजवीरदेवसुश्रावकेण, श्रीश्रीमालकुलोतं. स-सा० बज्जलपुत्ररत्नसाधुराजसिंहेन, मत्रिदलकुलोत्तंसेन राजमान्येन श्रीदेवगुर्वाज्ञाचिन्तामणिविभूपितमस्तकेन ठ. विजयसिंह-ठ० जैत्रसिंह-ठ० कुमरसिंह-ठ० जवनपाल-ठ० पाहाप्रमुखश्रीमत्रिदलीयसमुदायेन, साधुराजसुभटपुत्ररत्न-सा० मोहण-म०धनू-झांकाप्रमुखश्रीजावालिपुरीय-सा० गुणधरप्रमुखश्रीपत्तनीय-साहु तिहुणाप्रमुखश्रीवीजापुरीय-ठ० पउमसिंहप्रमुखश्रीआशापल्लीय-गो. जैत्रसिंहप्रमुखश्रीस्तम्भतीर्थीयसमुदायैश्च श्रीसंघपूजा-श्रीसाधर्मिकवात्सल्याधारितसत्रनिर्माणपूर्वकममेयं स्वस्वापतेयं सफलीचक्रे । तस्मिन्नेव दिने श्रीमालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवः श्रीपूज्यैश्चक्रे । ततः श्रीसमुदायेन श्रीशान्तिनाथदेवाग्रे युगप्रधानश्रीजिनकुशलमरिपट्टनिवेशनसंस्तवनाथ गुरुतरोत्साहपूर्वकमष्टावष्टाह्निकाः कृताः। ९२. तदनन्तरं श्रीपूज्याः श्रीजिनकुशलसूरयः प्राप्तयुगप्रधानराज्या महामिथ्यात्वशत्रूच्चाटनाय दिग्विजयं कर्तुकामाः साधुवीरदेवसुश्रावककारितगुरुतरप्रवेशकमहोत्सवाः श्रीभीमपल्लयां प्रथमां चतुर्मासी चक्रुः । ततश्च सं०१३७८ माघशुक्लतृतीयायां साधुवीरदेवप्रमुखसकलश्रीभीमपल्लीसमुदायेन श्रीपत्तनीयसमुदायमहामेलापकेन सकलजनमनश्चमत्कारकारी दीक्षोत्थापना-मालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवः श्रीसाधर्मिकवात्सल्यश्रीसंघपूजादिनानाप्रभावनापूर्वकं कारितः। तस्मिन् महोत्सवे श्रीराजेन्द्रचन्द्राचार्यवर्येण माला गृहीता, देवप्रभमुनेर्दीक्षा दत्ता, वाचनाचार्यहेमभूषणगणेः श्रीअभिषेकपदम् , पं० मुनिचन्द्रगणेाचनाचार्यपदं प्रदत्तम् । तस्मिन्नेव च वर्षे स्वप्रतिज्ञातार्थप्रतिपालनप्रवीणैः श्रीपूज्यैः स्वज्ञानध्यानबलेन सकलगच्छातुच्छवात्सल्यसमुद्यतानां श्रीविवेकसमुद्रोपाध्यायराजानामायुःशेषं विज्ञाय श्रीभीमपल्लीतः श्रीपत्तने समागत्य ज्येष्ठाद्यपक्षचतुर्दशीदिन आरोग्यशरीराणामपि श्रीविवेकसमुद्रमहोपाध्यायानां चतुर्विधसंघेन सह मिथ्यादुष्कृतदानं दापयित्वा, गुरुतरश्रद्धानपूर्वकमनशनं प्रत्याख्यानं च दत्तम् । तदनन्तरं च श्रीपूज्यपा १ 'रलीयायत' इति । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। दारविन्दं ध्यायन्तः श्रीपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारमहामत्रं स्मरन्तो नानाविधाराधनामृतपानं कुर्वन्तः श्रीसमुदायकृतप्रोत्सर्पणाः स्वकर्णाभ्यां श्रीउपाध्याया आकर्णयन्तो ज्येष्ठसुदिद्वितीयायां सकलामरगुरुजयनार्थ स्वर्गे प्राप्ताः । पश्चाच्छ्रीपत्तनीयसमुदायेन गुरुतरविमाननिर्माणपूर्वकसकलजनमनश्चमत्कारकारी निर्वाणमहामहोत्सवः कृतः। ___ तदनन्तरं च श्रीपूज्यैः स्वकीयसुगुरुश्रीजिनचन्द्रसूरिस्वसहाध्यायिश्रीराजेन्द्राचार्य-श्रीदिवाकराचार्य-श्रीराजशेखराचार्य-वा० राजदर्शनगणि-वा० सर्वराजाद्यनेकमुनिमण्डलीपाठकानां वारत्रयं भणितश्रीहैमव्याकरणबृहद्वंत्तिपत्रिंशत्सहस्रप्रमाणश्रीन्यायमहातर्कादिसर्वशास्त्राणां सकलगच्छगौरवाणां श्रीविवेकसमुद्रोपाध्यायानां स्तूपं श्रीसमुदायपार्थात् कारापयित्वा अपाढशुक्लत्रयोदश्यां महता विस्तरेण वासक्षेपः कृतः । ततः श्रीपत्तनीयसमुदायाभ्यर्थनया श्रीपत्तने द्वितीया चतुर्मासी कृता। ___ ९३. ततः सं०१३७९ वर्षे मार्गशीर्षवदिपञ्चम्यां नानानगरग्रामवास्तव्यासंख्यमहद्धिकसुश्रावकलोकमहामेलापकेन श्रीसाधर्मिकवत्सलेन श्रीजिनशासनप्रोत्सर्पणाप्रवीणेनोदारचरित्रेण दक्षदाक्षिण्यौदार्यधैर्यगाम्भीर्यादिगुणगणमालालङ्कतसारेण युगप्रवरागमश्रीजिनप्रबोधसूरिसुगुर्वनुजसाधुराजजाह्नणपुत्ररत्नेन स्वभ्रातृ-सा०रुदपालकलितेन साधुराजतेजपालसुश्रावकेण दिनदशकादारभ्य संजायमानेषु महाप्रेक्षणीयेषु, दीयमानेषु तालारासेषु, नृत्यमानेष्ववलावृन्देपु,दीयमानेष्वमेयस्वस्वापतेयेपु, क्रियमाणेपु श्रीसंघपूजाश्रीसाधर्मिकवात्सल्यावारितसत्रेषु, सकलगूर्जरत्रामुकुटभूतश्रीपत्तनीयमहामहद्धिकमहाजनलोक-राजलोकमहामेलापकेन महिष्ठजलयात्रार्वकं गुरुतराश्चर्यकारी स्वपक्ष-परपक्षचेतोहारी प्रतिष्ठामहामहोत्सवः श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये कारितः । तस्मिन्नेव दिने श्रीशत्रुञ्जयतीर्थोपरि साधुराजतेजपालादिसमुदायकारितश्रीयुगादिदेवविधिचैत्यप्रारम्भः सा० नरसिंहपुत्ररत्नश्रीदेवगुर्वाज्ञाप्रतिपालनोद्यतखींवडसुश्रावकोद्यमेन संजातः । तस्मिन् महोत्सवे श्रीशान्तिनाथप्रमुखश्रीशैलमय-रत्नमय-पित्तलामयबिम्बानां सार्धशतं स्वकीयं मूलसमवमरणद्वयं श्रीजिनचन्द्रसूरि-श्रीजिनरत्नसूरिप्रमुखनानाधिष्ठायिकानां मूर्तयश्च श्रीपूज्यैः प्रतिष्ठिताः । तस्मिन् महोत्सवे श्रीभीमपल्लीसमुदायमुकुटकल्पेन सा. श्यामलपुत्ररत्नेनोदारचरित्रेण साधुवीरदेवेन श्रीपत्तनीय-श्रीभीमपल्लीय-श्रीआशापल्लीयसमुदायेन श्रीसंघपूजा श्रीसाधर्मिकवात्सल्यैः साधुसहजपालपुत्रसा० थिरचन्द्र-साधीणापुत्रसा० खेतसिंहप्रमुखश्रावकैः श्रीइन्द्रपदादिमहामहोत्सवनिर्मापणादिना महती प्रभावना चक्रे । ततः श्रीवीजापुरीयसमुदायाभ्यर्थनया श्रीपूज्याः श्रीवीजापुरीयसमुदायेन सह श्रीवीजापुरे सकललोकाचर्यकारकगुरुतरप्रवेशकमहामहोत्सवपूर्वकं श्रीवासुपूज्यदेवमहातीर्थ नमश्चक्रुः । ततः श्रीवीजापुरीयसमुदायेन सह श्रीत्रिशृङ्गमके विहृताः। तत्र च साधुराजजेसलपुत्ररत्नाभ्यां श्रीजिनशासनप्रभावकाभ्यां-साधुराजजगधर-साधुसलक्षणसुश्रावकाभ्यां सकलजनमनश्चमत्कारकार्यनेकसहस्रसंख्यलोकमहामेलापकेन प्रवेशकमहामहोत्सवः कारितः । ततः स्थानाच्छ्रीआरासणमहातीर्थे श्रीतारङ्गकमहातीर्थे श्रीवीजापुरीयश्रीत्रिशृङ्गमकीयसमुदायेन सह मत्रिदलकुलोत्तंसश्रीदेवगुर्वाज्ञाप्रतिपालनोद्यत-ठ० आसपालपुत्ररत्न-ठ०जगत्सिंहसुश्रावकप्रमुखश्रीसाधर्मिकवात्सल्यश्रीसंघपूजां श्रीअवारितसत्रमहाधजारोपादिनानाविधोत्सर्पणापूर्वकं तीर्थयात्रां कृत्वा श्रीपत्तने तृतीयां चतुर्मासी चक्रुः। __ तदनन्तरं सं० १३८[.] वर्षे कार्तिक शुक्लचतुर्दश्यां श्रीजिनशासनप्रभावनाकरणप्रवीणेन स्वपूर्वजमरुस्थलीकल्पवृक्षसाधुराजयशोधवलवत्साधर्मिकवत्सलेन निर्गर्वचूडामणिना साधुश्रीचन्द्रकुलप्रदीपश्रीजिनप्रबोधसूरिसुगुरुचक्रवय॑नुजसाधुजाह्मणपुत्ररत्नेन युगप्रवरागमश्रीजिनकुशलसूरिसुगुरुराजपट्टाभिषेककारापणोपार्जितहीराट्टहासहारतुपारहिमकरकरनिकरगोक्षीरधाराधवलवत्पुण्ययशःप्राग्भारेण साधुराजतेजपालसुश्रावकेण खानुजसाधुरुदपालपरिवृतेन श्रीशत्रुजयनिष्पद्यमानविधिचैत्ययोग्यमूलनायकश्रीयुगादिदेवविम्ब सप्तविंशत्यङ्गुलप्रमाणं कर्पूरसदृशं कारयिखा, सकलस्थानवास्तव्यसर्वसमुदायान् कुङ्कुमपत्रिकादानपूर्वकं समामन्न्य, क्रियमाणेष्ववारितसत्रेषु, दीयमानेष्वमेयेषु स्वस्खापतेयेषु, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार गीयमानेष्वहनिंशमविधवसुधवाभिर्नारीभी रासकवृन्देषु, नृत्यमानेषु खेलकसमूहेषु, सम्पद्यमानेषु श्री साधर्मिकवात्सयेषु, समग्र श्रीपत्तनीयमहामहर्द्धिकव्यवहारिकलोक - राजलोकमहामेलापकेन गुरुतरजलयात्रानिर्माणपूर्वकं सकलजनमनचमत्कारकारी नानाभवोपार्जितपापसंभारापहारी प्रतिष्ठामहामहोत्सवः सविस्तरतरः कारितः । तस्मिन् महोत्सवे साधुतेजपालका रित श्रीयुगादिदेवप्रमुखानेकशैलमय- पित्तलामयविम्बानां श्रीजिनप्रबोधसूरि - श्रीजिनचन्द्रसूरिमूर्त्तीनां श्रीकपर्दयक्ष - श्रीक्षेत्रपालाम्बिकाद्यधिष्ठायिकानां नानासु श्रावककारितानां प्रतिष्ठा संजाता । श्रीशत्रुञ्जयप्रासादयोग्यदण्डध्वजप्रतिष्ठा च । तस्मिन् महोत्सवे सा०धीणा पुत्ररत्नसा० खेतसिंहादिसु श्रावकैरिन्द्रपद श्रीयुगादिदेवमुखोद्घाटनादिमाला ग्रहणपूर्वकममेयं स्वस्वापतेयं सफलीकृतम् | मार्गशीर्षवदिषष्ट्यां च सविस्तरतरः श्रीमालारोपण - श्रीसम्यज्वारोप- सामायिकारोप - परिग्रहपरिमाणादिनन्दिमहामहोत्सवश्च कृतः । ७२ ९४. तदनन्तरं सं० १३८० श्रीयोगिनी पुरवास्तव्येन श्रीश्रीमालकुलोत्तंसेन गङ्गाम्बु प्रवाहवत् स्वच्छाशयेन श्रीजिनशासनप्रभावनाकरणप्रवणेन पूर्व कृतसविस्तरतर श्रीफलवर्धिका महातीर्थयात्रोत्सवेनोद्भटभाग्यप्रतापलङ्केश्वरेण दानाध:कृतसंकलविश्वम्भरादातृवर्गेण साधुहरुपुत्ररत्नेन साधु श्रीरयपति सुश्रावकेण राजमान्यप्रभावक विदेश विख्यातोद्भटचरित्रस्वपुत्ररत्नसाधुराजधर्मसिंहपार्श्वात् पातसा हिश्रीग्यास दीनमहाराजाधिराजफुरमाणं सकलमीर मलिक शिरोवधूननकारकं श्रीराजप्रधानश्रीने बसाहाय्येन निष्कासयित्वा, श्रीपूज्यानां श्रीपत्तनस्थितानां समीपे श्रीशत्रुञ्जयोज्जयन्तादिमहातीर्थयात्राकरणार्थं स्वविज्ञप्तिकादानपूर्वकं मानुषाणि प्रेषितानि । तदनन्तरं सकलातिशयनिधानैर्ज्ञानध्यानादिगुणगणानुकृतसकलपूर्व युगप्रधानैः श्रीपूज्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः सम्यक् परिभाव्य श्रीतीर्थयात्राकरणादेशः प्रदत्तः । तदाकर्णनादेव हर्षाकुलचेतसा साधुश्रीरयपतिसुश्रावकेण प्रभावकोदारचरित्र पुत्ररत्नसाधुमहणसिंह - साधुधर्म सिंह - साधुशिवराज- साधुअभयचन्द्र-पौत्र भीष्म भ्रातृसाधुजवणपालादिसारपरिवार परिवृतेन श्रीपूज्योपदिष्टविधिना श्री योगिनी पुरसमुदाय मुकुटकल्पमत्रिदल कुलोत्तंससाधुजवणपाल - श्रीदेवगुर्वाज्ञाप्रतिपालनोद्यत श्रीश्रीमालीय साधुभोजा - सा०छीतम-ठ० फेरू - धामइना वास्तव्य सा० रूपा - सा०वीजाप्रमुख-प उलीसा क्षेमन्धरप्रमुख - श्रीलूणीवडी वास्तव्य समुदायान् श्री योगिनीपुरप्रत्यासन्नानेकग्राम समुदायांश्च मेलयित्वा, स्वपुत्ररत्नसाधुराजधर्मसिंहराजबलेन अत्थसंअण (?) श्रीयोगिनीपुरराजमार्गेण वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, दीयमानेषु रासकेषु गीयमानेषु गीतेषु, पठत्सु श्रीसुरत्राणादिमहाराजबन्दिवृन्देषु दीयमानेषु कनकाश्वपट्टांशुकादिनानाविधेषु दानेषु, अश्वाधिरूढवाद्यमानढोल परम्पराबधिरीकृताशाचक्रेषु, प्रथमवैशाखवदिसप्तम्यां नूतनकारितप्रासादसदृशः श्रीदेवालयस्य चतुर्विधसंघसमन्वितस्य निष्क्रमणमहामहोत्सवः कृतः । तदनन्तरं प्रथमदिनादारभ्य प्रतिदिनमवारितसत्रं कुर्वाणो गुर्वाडम्बरेण साधुश्रीरयपति सुश्रावकः समग्रसंघान्वितः श्रीकन्यानयने समायातः । तत्र च श्रीयुगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिप्रतिष्ठित श्रीमहावीरदेवतीर्थराजस्य यात्रानिर्माणपूर्वकं समग्रम्लेच्छानामपि सम्यक्त्वदायिनी प्रभावना कृता । ततः स्थानाच्च श्रीजिनशासनप्रभावक सकलोत्सवधु राधुरीणश्रे० पूना - श्रे० पद्मा-श्रे० राजा - श्रे०रातू - ठ० देपाल - साधुराजकाला - खारद्र (?) पूनाप्रमुख श्री समुदायो गुर्वाडम्बरेण सा देदाप्रमुखश्री मिकासमुदायः श्रीसंघेन सह प्रचलितः । तदनन्तरं ग्रामनगरादिषु प्रोत्सर्पणां कुर्वाणः सर्वोऽपि संघः श्रीनरभटे समायातः । तत्र च श्रीजिनदत्तसूरिप्रतिष्ठितं नवस्फटाविभूषितं सर्वातिशयप्रधानं श्रीपार्श्वनाथदेवाधिदेवं नानाविध...... पूर्वकं सकलसंघेन नमश्चक्रे । ततः स्थानाच्च सा० भीमा-सा० देवराजादिसमुदायः श्रीसंघेन सह प्रचलितः । तदनन्तरं खाटू वास्तव्यसा० गोपालप्रमुखनानानगरग्रामवास्तव्याने कश्रावकाः श्रीनवहा- झुञ्झणू वास्तव्यसा० काण्हाप्र मुखविधिसमुदायादिश्रावकाच संघेन सह प्रस्थिताः । ततः पश्चात् श्रीजिनशासनप्रभावनां कुर्वाणः सर्वसंघसमन्वितः साधुश्रीरयपतिसुश्रावकः श्रीफलवर्धिकायां श्रीपार्श्वनाथ देवयात्रार्थं समायातः । तत्राऽऽगते साधुश्रीरयपतिसंघसमुद्रे Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। ७३ कुडमपत्रिकाप्रदानपूर्वं पूर्वमाकारित श्रे हरिपालपुत्ररत्न श्रे०गोपाल-सा०पासवीरपुत्र सानन्दन-सा०हेमलपुत्र सा० कडुया-सा०पूर्णचन्द्रपुत्रप्रभावक साव्हरिपाल-सा०पेथड-सा०चाहड-सा०लाखण-सा०सीवा-सा०सामल-सा कीकटप्रमुखश्रीउच्चकीय-सा०वस्तुपालप्रमुखश्रीदेवराजपुरीय-श्रीक्यासपुरवास्तव्य सा०मोहणप्रमुखसमुदाय -सा०ताहणप्रमुखश्रीमरुकोट्टसमुदायादिसकलसिन्धुनगरग्रामसमुदायाः,सा०लखमसिंहप्रमुखश्रीनागपुरादिसपादलक्षसमुदायाः,-सा० आंबाप्रमुखश्रीमेडतासमुदाय-म०केल्हाप्रमुखश्रीकोसवाणासमुदाया नदीनां प्रवाहा इव अहमहमिकया प्रविष्टाः । ततः स्थानात् संघः सर्वोऽपि सा०मेलूप्रमुखश्रीगुडहासमुदायमात्मना सह गृहीत्वा श्रीजावालिपुरे सकलराजलोकनगरलोकस्त्रीसमुदायकृतमहाप्रवेशकोत्सवः समायातः। तत्र च गुडम्बरेण सकलविपक्षहृदयकीलकानुकारिणी श्रीचैत्यप्रपाव्यादिप्रभावना श्रीसंघेन कृता । ततः स्थानाच्च सा०महिराज-कोरण्टकवास्तव्यसा गाङ्गाप्रमुखानेकस्वपक्षपरपक्षीयाः श्रावका यात्रार्थ संघेन सह प्रचलिताः । पश्चात् सर्वोऽपि संघः श्रीश्रीमाले श्रीशान्तिनाथदेवयात्राम् , श्रीभीमपल्लयां श्रीवायडे च श्रीमहावीरदेवयात्रां च गुरुतरप्रभावनापूर्व निर्माय, ज्येष्ठवदिचतुर्दश्यां श्रीगूर्जरत्रामुकुटकल्पे प्रभूतम्लेछव्यवहारिकसमूहसंकुले श्रीपत्तने महाराजाधिराजसैन्यलीलां दधान आवासितः । पश्चात् सकलखपक्ष-परपक्षाऽश्चर्योत्पादनपूर्वकं श्रीदशार्णभद्रमहाराजाधिराजवन्महा महाभक्क्या च श्रीशान्तिनाथस्थावरतीर्थ युगप्रवरागमसुगुरुचक्रवर्तिश्रीजिनकुशलसूरिचरणारविन्दं जगमतीर्थ च सुवर्णवस्त्रवृष्टिनिर्माणपूर्वकं साधुराजश्रीरयपति-सा०महणसिंहप्रमुखनानास्थानवास्तव्यसर्वसमुदायैर्नमश्चक्रे । तदनन्तरं श्रीशान्तिनाथपुरतो महामहद्धर्थाऽष्टाह्निकामहोत्सवं कुर्वाणेन श्रीसंघेन श्रीपत्तनीयदेवालयेषु, अश्वाधिरूढेषु वाद्यमानेषु ढोल्लेषु, दीयमानेष्वमेयेषु स्वस्खापतेयेषु, घमघमायमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, असंख्यलोकमहामेलापकेन सकलजनचेतश्चमत्कारकारिणी मिथ्यादृशामप्युपहाद्वारेण श्रीसम्यत्योपार्जनदायिनी असहिष्णुलोकहृदयशल्यानुकारिणी सविस्तरतरा चैत्यप्रपाटी कृता । __ ९५. तदनन्तरम् , सकलसंघमुकुटकल्पसंघपुरुषसाधुश्रीरयपति-सकलसंघभारनिर्वाहणप्रवीणसा०महणसिंह-श्रे० गोपाल-सा० जवणपाल-सा० काला-सा० हरिपालप्रमुखश्रीदेशान्तरीयसमुदायमुख्यसुश्रावकैः, साधुराजजाहणकुलप्रदीपसकलोत्सवनिर्मापणोपार्जितपुण्यकदम्बकसाधुराजतेजपाल-श्रीश्रीमालकुलोत्तंससाधुराजछजल[ .......] कुलावतंसकसाधुश्रीरयपतिसंघाङ्गीकृतपाश्चात्यपदप्राग्भारनिरुपमनिर्वाहणोद्यतसाधुराजराजसिंह-साधुश्रीपतिपुत्ररत्नसाधुकुलचन्द्र-साधीणापुत्ररत्नसा० गोसलप्रमुखश्रीपत्तनीय-श्रीहम्मीरपत्तनीयसमुदायमुख्यसुश्रावकैश्च त्यक्तासन्मार्गासत्याशौचाद्यन्यायालङ्कृतगात्रप्रचण्डकलिकालभूपालभयाकम्पमानैः श्रीपूज्यश्रीजिनकुशलसूरिधर्मचक्रीन्द्रपादा विज्ञप्ताः यत्-‘स्वामिन् ! प्रत्यासन्नायामपि वर्षायां समागतायाम् , सकलसंघोपरि महत्प्रसादं विधाय अनेकोपद्रवादिमहाभटबलिष्ठदुष्टकलिकालमहीपाल कृतापद्रक्षणाय प्रसद्य तीर्थविजययात्रायां पादावधारणं क्रियतां येनास्माकं मनश्चिन्तितार्थसम्पत्तयस्तत्क्षणादेव सम्पनीपद्यन्ते'। पश्चाद् दाक्षिण्यैकमहोदधयः परोपकृतिकरणोद्यताहनिशबुद्धयः श्रीआयसुहस्तिसूरि-श्रीवयरस्वामि-श्रीमदभयदेवरि-श्रीजिनदत्तसूरिप्रमुखानेकयुगप्रवरागमावदातानुकार्यवदातनिर्मापणो. पार्जितसत्कीर्तयः श्रीजिनकुशलसूरयः ... जो अवमन्नइ संघं पावो थोवं पिमाणमयलित्तो। सो अप्पाणं बोलइ दुक्खमहासागरे भीमे ॥१॥ सिरिसमणसंघासायणाओ पाविति जं दुहं जीवा । तं साहिउं समत्थो जइ परि भयवं जणो होइ ॥२॥ तित्थपणामं काउं कहेइ साहारणेण सद्देणं । सव्वेसिं सन्नीणं जोयणनीहारिणा भयवं ॥३॥ यु• गु० १० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ खरतरगच्छालंकार पुव्विया अरया पूइयपूया य विणयकम्मं च । harasa जह कह कहेइ नमए तहा तित्थं ॥४॥ इत्यादि श्री आवश्यकादिसिद्धान्तानुसारेण; "यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते, ये तीर्थ कथयन्ति पावनतया येनास्ति नान्यः समः । यस्मै तीर्थपतिनमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते, स्फूतिर्यस्य परा वसन्ति च गुणा यस्मिन् स संघोऽयताम् ॥१॥ [१] लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसात् कीर्तिस्तमालिङ्गति, प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धुमुत्कण्ठया । स्वः श्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते, यः संघ गुणसंघ केलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ||२||" [30] [९२] इत्यादिपूर्वाचार्य वाक्यैश्च श्रीसंघः श्रीतीर्थकराणामपि मान्यः किमस्मादृशामिति स्वचेतसि परिभाव्य, प्रत्यासमभाविनीं चतुर्मासीमप्यवगणय्य, श्रीसंघगाढतराग्रहं च ज्ञात्वा, श्री पूज्याश्चक्रीन्द्रसमानाः प्रधानसाधुसप्तदशसंसेव्यमानचरणारविन्दाः, श्रीजयर्द्धिमहत्तराप्रमुख - पुण्यसुन्दरीगणिनीप्रमुख साध्येकोनविंशतिपरिवृताः, साधुश्रीरयपति सुश्रावकं श्रीचतुर्विधसंघसैन्ये समग्रसैन्याधिपसेनानीसमानं विधाय, साधुराजसिंहं च संघसैन्यपाश्चात्य पदप्रारभार निर्वाणपदे निधाय, सा० महणसिंह - सा०जवणपाल - सा० भोजा - सा० काला-ठ० फेरु-ठ० देपाल-श्रे० गोपाल - साधुराजतेजपाल - साधुराज हरिपाल - सा० मोहण - सा० गोसलप्रमुखानेकमहर्द्धिक सुश्रावकमहारथान् सज्जयित्वा शकटपञ्चशती अश्व [...] शतीसंख्य सुभटपदातिवर्गप्रमाणेन श्रीसंघसैन्येन सह वाद्यमानेषु निःखानप्राग्रेषु अश्वाधिरूढेषु ढोल्लेषु, गुर्बाडम्बरेण कलिकाल भूधवनिर्जगार्थं स्वकार्यसिद्ध्यर्थं च ज्येष्ठशुक्लषष्ठीदिने शुभमुहूर्त स्वगुरुश्रीजिनचन्द्रसूरिराजं ध्यायन्तः प्रचलिताः । तदनन्तरम्, प्रतिदिनं संजायमानेष्ववारितसत्रेषु प्रतिपदं दीयमानेषु रासकेषु, श्रीसंघ सैन्योत्थितरजः परम्परासमाच्छादिताम्बरीशाङ्गणेषु, भविष्यत्क्षुल्लकानां दीयमानेषु प्रतिदिनं महद्धर्ज्या पुष्पांकदानेषु सकलनगर ग्रामाधिपमलिक- हिन्दुकादिसमग्रलोकसंसेव्यमानश्रीसंघसैन्याधिपे च श्रीशङ्खेवरे श्रीपार्श्वनाथतीर्थराज नमस्कृत्य, श्रीमहापूजामहाध्वजारोपादिना प्रभावनां विधाय, क्रमक्रमेण दण्डकारण्यप्राय वालाकदेशमतिक्रम्य, समग्रम्लेच्छाधिपकृतसाहाय्याः श्रीपूज्या निराबाधवृत्त्या सर्वसंघसमन्विताः समग्राधिष्ठायककृतसान्निध्य: श्रीशत्रुञ्जयतलहट्टिकायां प्राप्ताः । तत्र च श्रीपार्श्वनाथदेवयात्रां विधाय अपाढवदिषष्ठीदिने सकलतीर्थावलीप्रधानं सर्वातिशयनिधानं शत्रुञ्जयशैलालङ्कारायमाणं श्रीयुगादिदेवतीर्थराजं सकलसंघपरिवृताः श्रीमत्पूज्या नव्यालङ्कारसारनूतन कृत स्तुतिस्तोत्रनमस्कारनिर्माणपूर्वकं नमस्कृतवन्तः । साधुश्रीरयपतिसुश्रावकेण पुत्रकलत्रपरिवृतेन प्रत्येकं प्रत्येकं नवाङ्गेषु हेमटकैः प्रथमा पूजा कृता कारिता च; अन्यैर्महर्द्धिक सुश्रावकैश्च रूप्यटङ्कादिना पूजा कृता । तस्मिन्नेव च दिने श्रीयुगादिदेवपुरतो देवभद्र - यशोभद्रक्षुल्लकयोः सविस्तरतरो दीक्षामहामहोत्सवः कृतः । तदनन्तरम्, श्रीजिनशासन प्रभावनाकरणप्रगुणेन श्रीदेवगुर्वाज्ञाप्रतिपालनसमुद्यतेन साधुश्रीरयपतिमहासंघ - पाश्चात्य पदप्राग्भारनिर्वाहणेनावारिताहर्निशान्नदानोपार्जित पुण्ययशः प्राग्भारेण चतुर्विधबुद्ध्यतिशयानुकृत श्रीश्रेणिकम Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । ७५ हाराजाधिराजराज्यभारनिर्वाहणप्रवीणश्रीअभयकुमारेण श्रीसुराष्ट्रमहीमण्डलभूपालश्रीमहीपालदेवप्रतिशरीरकल्पसमग्रसंघकार्यनिर्वाहणप्रवीणप्रभावकसाधुराजमोखदेवानुजपरिवृतेन श्रीश्रीमालकुलोत्तंससाधुछज्जलकुलप्रदीपेन साधुराजसिंहसुश्रावकेण, वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, दीयमानेषु स्वर्णकटकवस्त्राश्वदानेषु, ध्रियमाणेषु मेघाडम्बरछत्रेषु, ढाल्यमानेषु चामरेषु, गीयमानेषु गीतेषु, संजायमानेषु श्रीसाधर्मिकवात्सल्येषु, निष्पाद्यमानेष्ववारितसत्रेषु, संपद्यमानासु सविस्तरतरासु श्रीसंघपूजासु, साधुश्रीरयपतिप्रमुखमहासंघमेलापकेन आषाढाद्यसप्तम्यां जलयात्रानिर्माणपूर्वकमष्टम्यां श्रीयुगादिदेवमूलचैत्ये स्वकारितश्रीनेमिनाथबिम्बप्रमुखानेकविम्बानां स्वभाण्डागारयोग्यश्रीसमवसरणस्य श्रीजिनपतिसूरि-श्रीजिनेश्वरसूरिप्रमुखगुरुमूर्तीनां च अनेकभवोपार्जितपापविध्वंसकः खशिष्यलब्ध्यनुरञ्जितयुगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसूरिभिः स्वर्गात् समागतैः कैश्चिच्छ्राद्धोत्तमैरवलोक्यमानैर्गवेष्यमाणः प्रतिष्ठामहामहोत्सवः समग्रलब्धिनिधानजङ्गमयुगप्रधानश्रीजिनकुशलसूरिहस्तकमलेन कारितः । तस्मिन्नेव च दिने साधुराजजाहणकुलप्रदीपायमानेन सर्वधर्मकृत्याराधनानुकृतश्रीवर्धमानपरमसुश्रावकाऽऽनन्द-कामदेवादिश्रावकवर्गेण संप्रीणिताशेषयाचकगणेन साधुराजतेजपालसुश्रावकेण स्वानुजसा०रुदपालसहितेन श्रीपत्तनप्रतिष्ठापितश्रीयुगादिदेवमूलनायकविम्बस्य श्रीसमुदायसहितेन कारिते नूतननिष्पन्ने प्रासादे समग्रवैज्ञानिकवर्गकनकहस्तशृङ्कलिका-कम्बिका-पट्टांशुकादिवस्त्रसन्मानदानपूर्वकं श्रीसम्प्रतिमहाराजाधिराजसमानसाधुश्रीरयपतिप्रमुखनानास्थानवास्तव्यसर्वश्रावकवितानमेलापकेन स्थापना प्रासादप्रतिष्ठा च श्रीवज्रस्वाम्यनुकारिश्रीपूज्यहस्तकमलेन कारिता । नवम्यां सविस्तरतरः श्रीमालारोपण-श्रीसम्यस्वारोपण-श्रीपरिग्रहपरिमाण-सामायिकारोपनन्दिमहोत्सवः श्रीयुगादिदेवमूलचैत्य एव श्रीपूज्यैर्विहितः। तस्मिन् दिने सुखकीर्तिगणेर्वाचनाचार्यपदं दत्तम् , सहस्रसंख्यश्रावकश्राविकाभिनन्द्यारोहणं च कृतम् । तस्मिन्नेव च दिने नूतननिष्पन्ने प्रासादे सविस्तरतरो ध्वजारोपमहोत्सवः संजातः । एवं दिनदशकं यावच्छ्रीशत्रुञ्जयशैलोपरि सदावारितसत्र. निर्माणपूर्वकं मूलचैत्य-स्वचैत्ययोः श्रीमहापूजाकरणपट्टांशुकादिनानावस्त्रसत्कमहाध्वजादानस्वर्णान्नवस्त्रदानसम्पूरिताशेषयाचकसन्तानेन्द्रपदादिविधानादयो महामहोत्सवाः श्रीश्रीमालकुलोत्तंससाधुराजहरुकुलप्रासादकुम्भायमानश्रीयोगिनीपुरारब्धाहर्निशनानाविधवस्तुदानाधःकृतकल्पवृक्षसन्तानसाधुश्रीरयपति-साधुमहणसिंह-साधुराजतेजपाल-साधुराजराजसिंहप्रमुखसकलसंघेनाहमहमिकया चक्रिरे। तस्मिन् महोत्सवे श्रीउच्चानगरीवास्तव्यरोहंडहेमलपुत्ररत्नेन सा० कडयासुश्रावकेण भ्रातृपुत्रश्रीजिनशासनप्रभावकसा० हरिपालसहितेन द्विवल्लकद्रम्मशत २६७४ श्रीइन्द्रपदं गृहीतम् , मत्रिपदं च साधीणापुत्ररत्नेन साधुगोसलेन द्रम्मशतपदकेन गृहीतम् । अन्यान्यपि पदानीन्द्रपरिवारयोग्यानि प्रभूतश्रावकश्राविकाभिर्गृहीतानि । सर्वसंख्यया श्रीयुगादिदेवभाण्डागरे प्रतिष्ठामालोद्धटन-श्रीइन्द्रपदमहोत्सवकलशमण्डनादिना द्रम्मसहस्र ५० समुत्पन्नाः । ___९६. तदनन्तरम् , श्रीपूज्याः सर्वसंघपरिवृताः श्रीयुगादिदेवमुत्कलनं विधाय तलहट्टिकायां संघमध्ये समायाताः। ततः स्थानात् म्लेच्छसैन्योपद्रवात् सर्वशून्यायामज्ञातमार्गायामपि सुराष्ट्रायाम् , संत्राप्तायामपि वर्षायाम्, श्रीमेघकुमा. रदेवकृतसाहाय्याः श्रीसंघसैन्यमुकुटकल्पप्रचण्डशासनसाधुश्रीरयपतिवशीकृतासंख्यम्लेच्छानुगम्यमानमार्गाः श्रीपूज्यधर्मचक्रवर्तयश्चतुर्विधसंघसैन्यपरिवृताः पूर्वोक्तरीत्येव श्रीपत्तनादिमहानगरराजमार्गवत् सुखेन, अश्वानेकशतादिमहामेलापकेन सुराष्ट्रालङ्कार-खङ्गारगढनायकादिसमग्रराजलोकेन नगरलोकेन च संमुखागमनदत्तबहुमाना रञ्जितराजलोकप्रधानाः श्रीउज्जयन्तमहातीर्थतलहट्टिकायामावासिताः । तत्र च खङ्गारगढमध्ये सकलस्वपक्षपरपक्ष-जनचेतश्चमत्कारकारिणी चैत्यप्रपाटी संघेन सह विधाय अपाढचतुर्मासकदिने आबालब्रह्मचारिणं राज्य-राजीमतीपरिहारकारिणं श्रीउजयन्ताचलमहातीर्थालङ्कारं श्रीनेमिकुमारं नूतनकृतस्तुति-स्तोत्रदानपूर्वकं नमश्चक्रुः । संघाधिपसाधुश्रीरयपतिप्रमुखसुश्रावकैश्च श्रीशत्रुञ्जयवच्च सुवर्णटङ्कादिना पूजा कृता । श्रीशत्रुञ्जयवत् (१) तमिन्नेव दिने श्रीमाङ्गलउरनगर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार वास्तव्योदारचरित्रप्रभावकनानाभिग्रहग्रहणपूर्वक वन्दनार्थ समागत सा० जगत्सिंहपुत्ररत्नसाधुजयतासुश्रावक-खङ्गारगढवास्तव्यमहद्धिंकरीहडझांझण-री० रत्नपुत्ररत्नसा० मोखादिसुश्रावकश्राविकाणां श्रीसम्यक्त्वारोप-सामायिकारोपपरिग्रहपरिमाणादिनन्दिमहामहोत्सवः कृतः । साधुश्रीरयपतिप्रमुखसर्वसंघसुश्रावकैः शत्रुञ्जयमहातीर्थवदिनचतुष्टय सर्वादरेण महापूजा महाध्वजारोपादिमहोत्सवा निर्मिताः । परमिन्द्रपदं च श्रीहम्मीरपत्तनवास्तव्येन श्रीजिनशासनप्रभावकेण सा० धीणापुत्ररत्नेन सा० गोसलसुश्रावकेण द्विवल्लकद्रम्मशत २४७४ गृहीतम् । मत्रिपदं च प्रभावकसाधुकालासुश्रावकपुत्ररत्नेन सा० वीजासुश्रावकेण द्रम्मशताष्टकेन गृहीतम् । शेषसुश्रावकैरन्यानि पदानि गृहीतानि । सर्वसंख्यया श्रीनेमिनाथदेवभाण्डागारे द्विवल्लकद्रम्मसहस्र ४० उत्पन्नाः।। तदनन्तरम् , श्रीनेमीश्वरमुत्कलनं विधाय सर्वसंघसमन्विताः श्रीपूज्यराजाधिराजास्तलहट्टिकायां संघमध्ये सम्प्राप्ताः । तत्र च नानाविधोत्सवप्रसरनिर्मापणेन प्रबलप्रचण्डकलिकालभूपालोन्मूलनलब्धप्रकर्षान् स्वस्वामिनो वीक्ष्य निजदानतिरस्कृतचिन्तामणि-कामधेनु-कल्पद्रुमचयेन समुपार्जितयशःपुञ्जन साधुश्रीरयपतिसुश्रावकशेखरेण सा०महणसिंहादिपुत्रपरिवृतेन दिनत्रयं यावदहर्निशं स्वर्णशृङ्कलिकाकटकानपट्टांशुकश्रीकरीचीनांशुकादिवस्तुकौशल-दक्षिणादानेन स्वस्वामिजयसंस्तवनार्थ समग्रसुराष्ट्रादेशमध्यवर्त्य मेययाचकवर्गो यथेच्छ पोषितः । अन्यैरपि साधुराजराजसिंह-साधुराजतेजपाल-सा० हरिपालादिश्रावकैरवारितसत्रनिर्मापणादिना हर्षप्रकर्षाकुलः कृतः । ९७. तदनन्तरम् , ततः स्थानात् प्रस्थाय सम्पादितस्वार्थसम्पत्तयः साहाय्यीभूतयुगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसरि-श्रीअम्बिकाप्रमुखनानादेवदेवतावलयो लक्षण-तर्क-साहित्यालङ्कार-नाटक-ज्योतिष्क-मत्र-तत्र-छन्दोविद्यासंस्फुरता तुरगपद-कोष्ठकपूरण-नानालङ्कार-काव्यकरण-चिन्तितादिनानासमस्यापूरणादिना रञ्जिताशेषकोविदचक्रचूडामणयः अस्खलिताज्ञैश्वर्यारोपणोपार्जितचन्द्रचन्द्रज्योत्स्नासमानकीर्तयः खावदातोद्योतितस्वचन्द्रकुलोद्भवानेकपूर्वसूरयो युगप्रधानश्रीजिनकुशलसूरिसुगुरुचक्रवर्तयः श्रीतीर्थयात्राकरमसफलीकृतात्मजन्मानेकायाससमुपार्जितामेयस्वस्वापतेयेनाहनिशं श्रीजिनशासनापरशासनोद्भवमहापुरुषसमूहैन्दिवर्गवत्संस्तूयमानेन नानाविधाभिग्रहप्रतिपालनपवित्रीकताजन्मदेहेन मनोवाञ्छितार्थसम्प्राप्तिसमुद्भूतमहाहर्षविकसिताननेन साधुश्रीरयपतिप्रमुखसकलविधिमार्गसंघेन सह निराबाधवृत्त्या वर्षहूद्भाविविराधनानिवृत्त्या शून्यमपि सुराष्ट्रादेशं राजमार्गवदतिलङ्घय श्रीसंघनिर्मितासु स्थाने स्थाने संजायमानासु प्रभावनासु, सुखं सुखेन श्रीपत्तनोपवने श्रावणशुक्लत्रयोदश्यां समवसृत्य, दिनपश्चदशकं च यावच्चतुर्दिग्भ्यः समागतश्रीचतुर्विधसंघस्य महत्समाधानसमुत्पादनार्थ श्रीसंघमध्येऽवस्थिताः । तदनन्तरम् , भाद्रपदवद्येकादश्यां चिन्तितार्थसम्पादनसमर्थन साधुश्रीरयपतिसुश्रावकेण सा०महणसिंहादिपुत्रपरिवृतेन साधुतेजपाल-साधुराजसिंहाभ्यां चाहमहमिकया देशान्तरीयसंघसमुदाय-श्रीपत्तनीयसमग्रस्वपक्षपरपक्षमहाजनलोकमहामेलापकेन दीयमानेषु दानेषु, गीयमानेषु गीतेषु, नृत्यमानेषु खेलकवृन्देषु, वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, अश्वाधिरूढनानाढोल्लवादनविस्मापिताखिललोकेषु,सकलराजलोकनगरलोकचेतश्चमत्कारकारी समस्तदुर्जनजनहृदयोद्वेगकारी स्वजनजनमनोऽम्भोजवनविकासनसूर्यानुकारी वचनातिगः श्रीपूज्यराजानां श्रीरामचन्द्र[वत्]प्रवेशकमहामहोत्सवः श्रीपत्तने संजातः। ___९८. तदनन्तरम् , साधुश्रीरयपतिः सुश्रावको द्वितीयवारं श्रीपत्तनीययाचकवग संपोष्य समग्रसंघपरिवृतः श्रीपूज्यराजपादान मुत्कलाप्य श्रीपत्तनात् प्रस्थाय, आगमनरीत्यैव स्थाने स्थाने प्रभावनां कुर्वाणो युगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसूरिनिर्वाणपवित्रिते श्रीकोशवाणके समग्रसंघपरिवृतः प्राप्तः। तत्र च श्रीजिनचन्द्रसूरिस्तूपे महाध्वजारोप-महापूजास्नानविलेपननिर्मापणावारितसत्रकरणतुरगकनकादिदानादिना प्रोत्सर्पणां विधाय, पुनर्द्वितीयवारं श्रीफलवर्द्धि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IANP युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। कायां यात्रां च कृत्वा, वस्त्रादिदानसन्मानपूर्वकं देशान्तरीयसंघान् स्वे स्वे स्थाने प्रविष्टान् कृत्वा, यथागमनमार्गेण श्रीयोगीनीपुरे प्रभूतम्लेच्छसंकुले सुपुत्ररत्नसाधुराजधर्मसिंहकारितनिर्गमनमहोत्सववत्समधिकतरप्रवेशकमहामहोत्सवेन श्रीदेवालयसमन्वितः साधुश्रीरयपतिसुश्रावकः प्रविष्टः कार्तिकवदिचतुर्थ्याम् । ९९. तदनन्तरम् , पुनः सं० १३८१ वैशाखवदिपश्चम्यां श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये श्रीयोगिनीपुरसमागतश्रीश्रीमालकुलोत्तंस-सा०रुदपाल-सा नींबा-श्रीजावालिपुरागतमत्रिभोजराजपुत्र मं०सलखणसिंह-रङ्गाचार्यलख(क्षण-श्रीसत्यपुरागत मं०मलयसिंह-श्रीभीमपल्लीसमागतसाधुराजवीरदेवप्रमुखसमग्रसमुदाय-श्रीस्तम्भतीर्थागतव्य. छाडा-श्रीघोघावेलाकुलागतसा०देपाल-मं०कुमर-सा०खीमडप्रमुखानेकसुश्रावकसमुदायमहामेलापकेन दिनपञ्चदशकादारभ्य संजायमानेषु महाप्रेक्षणीयेषु, वितीर्यमाणेष्वमेयेषु स्वस्वापतेयेषु, दीयमानेषु तालारासेषु, सम्पद्यमानासु सविस्तरतरासु श्रीसंघपूजासु, क्रियमाणेषु श्रीसाधर्मिकवात्सल्यावारितसत्रेषु, भविष्यत्क्षुल्लक क्षुल्लिकानांसकललोकाश्वर्योत्पादनपूर्व दीयमानेषु सविस्तरतरेषु पुष्पाङ्कदानेषु,साधुजाह्नणपुत्ररत्नाभ्यां समस्तोत्सवसम्पादनोपार्जितातुल्यपुण्यकदम्बकाभ्यां साधुराजतेजपाल-सा०रुदपालसुश्रावकाम्यां श्रीश्रीमालकुलोत्तंस-सा० आना-सा० राजसिंह-भण०लूगासा० क्षेमसिंह-सा० देवराज-भण० पद्म-मन्नाप्रमुखसमस्तश्रीपत्तनीयसमुदायपरिवृताभ्यां चतुर्था सविस्तरतमजलया त्राधिवासनानिर्माणपूर्वकं सकलजनमनश्चतश्चमत्कारकारी भवभवोपार्जितपापहारी समस्तमहाजनलोकप्रत्यासन्नानेकग्रामवास्तव्यलोकमस्तकावधूननकारी प्रतिष्ठामहामहोत्सवः कारितः । तस्मिन् महोत्सवे समग्रलब्ध्यनुकृतश्रीवत्रस्वामिप्रमुखानेकयुगप्रधानैः स्वगुरुचक्रवर्तिश्रीजिनचन्द्रसूरिकृताहर्निशसाहाय्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीजावालिपुरयोग्यश्रीमहावीरदेवबिम्ब-श्रीदेवराजपुरयोग्यश्रीयुगादिदेवविम्ब-श्रीशत्रुञ्जयस्थितबूल्हावसहीप्रासादजीर्णोद्वारार्थसा० छज्जलपुत्ररत्नसाधुराजराजसिंह-साधुमोखदेवकारितश्रीश्रेयांसमुखानेकविम्ब-श्रीशत्रुञ्जयस्थितस्वग्रासादमध्यस्थभण०लूणाकारिताष्टापदयोग्यचतुर्विंशतिबिम्बप्रमुखशिलमयबिम्बानां सार्धशतद्वयं प्रतिष्ठितम्, पित्तलामयानां संख्यैव नास्ति । श्रीउच्चापुरीयोग्यश्रीजिनदत्तमूरि-जावालिपुर-श्रीपत्तनयोग्यश्रीजिनप्रबोधसूरि-श्रीदेवराजपुरयोग्य श्रीजिनचन्द्रसूरिमूर्तीनां श्रीअम्बिकाद्यधिष्ठायिकानां प्रतिष्ठा कृता । स्वभाण्डागारयोग्यं प्रधानं समवसरणं च प्रतिष्ठितम् । पष्ठयां च व्रतग्रहणोत्थापना-मालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवोऽतिशयेन सविस्तरतरः कृतः। तस्मिन् महोत्सवे देवभद्र-यशोभद्रक्षुल्लकयोरुत्थापना कृता । सुमतिसार-उदयसार-जयसारक्षुल्लकानां धर्मसुन्दरी-चारित्रसुन्दरीक्षुल्लिकयोश्च दीक्षा दत्ता । जयधर्मगणेः श्रीउपाध्यायपदं दत्तम्-तन्नामधेयं च श्रीजयधर्मोपाध्याय इति कृतम् । अनेकसाध्वीश्राविकाभिर्माला गृहीता । प्रभूतश्रावकश्राविकाभिः श्रीसम्यक्त्वारोप-सामायिकारोपश्रीश्रावकद्वादशवतारोपश्च कृतः । तदनन्तरम् , श्रीतीर्थयात्राकर्तुकामसाधुराजश्रीवीरदेवप्रमुखश्रीभीमपल्लीसमुदायाभ्यर्थनया श्रीपूज्याः श्रीभीमपल्ल्यां साधुवीरदेवकारितसविस्तरतरप्रवेशकपूर्वकं श्रीमहावीरदेवं वैशाखबदित्रयोदश्यां नमश्चक्रुः । १००. तदनन्तरम् , तस्मिन्नेव संवत्सरे श्रीजिनशासनप्रभावकेण सकलस्वपक्ष-परपक्षासंख्यलोकपर्वार्थसाधनोद्यतमनस्केन सकलभीमपल्लीसमुदायमुकुटकल्प्रेन निजावदातसंस्मारितस्वपूर्वजसाधुराजखींवड-सा० यशोधवल-साधुराजअभयचन्द्र-सा०साढल-साधु धणपाल-सा० सामलसुश्रावकप्रमुखस्वपूर्वजकदम्बकेनोदारचरित्रेण दुष्करतराभिग्रहावलीप्रतिपालनप्रवीणेन साधुराजवीरदेवसुश्रावकेण सा०मालदेव-सा०हुलमसिंहस्वभ्रातृपरिवृतेन प्रतापाक्रान्तभूतलपातसाहिश्रीग्यासदीनसुरत्राणसत्कफुरमाणं निष्कास्य, सर्वदेशेषु कुङ्कुमपत्रिकाप्रदानपूर्वकं नानास्थानसमुदायान् मेलयित्वा,सकलातिशयनिधाना निजावदातसंस्मारितश्रीगौतमस्वामि-श्रीसुधर्मस्वामि-श्रीजम्यूस्वामि-श्रीस्थूलभद्र Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्री आर्यमहागिरि - श्रीवज्रस्वामि - श्रीजिनदत्तसूरिप्रमुखानेकयुगप्रधाना युगप्रवरागम श्रीजिनकुशलसूरयः श्रीमहातीर्थयात्रोपरि गाढतरनिबन्धेन सर्वस्थानसंघपरिवृतेन सा०वीरदेव श्रावण विज्ञप्ताः । खरतरगच्छालंकार तदनन्तरम्, सूरिचक्रवर्त्तियुगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्य चूडामणिभिः श्रीपूज्यपादैर्ज्ञान ध्यानबलेन सम्यक् परिभाव्य ज्येष्ठाद्यपञ्चम्यां साधुराजवीरदेव श्रावकं सकल श्रीविधिसंघसैन्यमुख्यत्वेन श्रीजिनशासनप्रभावकं सकलकार्यनिर्वाहण समर्थ साहुराजदेवपुत्ररत्नं साहुझाञ्झासु श्रावकं साहुपूर्णपाल - साहुसूण्टापरिवृतं श्रीसंघपाश्चात्यप्राग्भारनिर्वाणपदे संन्यस्य, पुण्यकीर्तिगणि- वा० सुखकीर्तिगणिप्रमुखसाधुद्वादशक - प्र० पुण्यसुन्दरीप्रमुखसाध्वीवृन्दपरिवृताः साधुराजवीरदेवकारित कृतयुगावतारमहारथतुल्य श्रीदेवालये चतुर्विंशतिपट्टकं महदुत्सर्पणा पूर्वकं संस्थाप्य, शकट [शत ] त्रयाने काश्ववृन्दोष्ट्रवृन्दनानाज्ञातिसम्मिलितामेयपदातिवर्गसम्मिलितसर्वस्थानवास्तव्य श्रीविधिसंघेन सार्धं सविस्तरतर श्रीदेवालय निष्क्रमणमहामहोत्सव पूर्वकं श्री भीमपल्लीतः श्रीपूज्यपादाः श्रीतीर्थनमस्करणार्थं प्रत्यासनायामपि चातुर्मास्यां गाढतमसर्वसंघोपरोधेन प्रस्थिताः । तदनन्तरम्, स्थाने स्थाने संजायमानेष्ववारितसत्रेषु, वाद्यमानेष्वश्वाधिरूढेषु ढोल्लेषु, निजशब्दबधिरीकृताम्ब राशासु भेरीशब्देषु, दीयमानेषु तालारासकेषु, श्रीकरीऊ ( 2 ) मालेन विराजमानः सर्वोऽपि संघः, अन्तरागतश्रीवायडनगरालङ्कारश्रीमहावीरदेव-श्रीशेरीषकालङ्कारश्री पार्श्वनाथादिना नास्थानतीर्थेषु दिनद्वयं श्रीमहाध्वजारोपपूजाविशेषावारितसत्रनिर्माणपूर्वकं यात्रां विधाय श्रीशिरखिजे महानगरे समग्रलोकाश्चर्यकारकजङ्गमप्रासादकल्प श्रीदेवालयप्रवेशक महामहोत्सव पूर्व प्राप्ताः । तत्प्रत्यासन्नश्री आशापल्ली नगरीवास्तव्य व्यवहारिकमहणपाल - व्यव० मण्डलिक-सा० वयजलप्रमुखश्रीविधिसमुदायाभ्यर्थनया सर्वसंघ सुश्रावक परिवृतः श्री पूज्यपादैः सकलजनाश्चर्यकारक श्री आशापल्लीसमुदायकारितप्रवेशक महामहोत्सवपूर्वकं श्री आशापल्ल्यां श्रीयुगादिदेवतीर्थं नमस्कृत्य, सविस्तरतो मालारोपणमहामहो त्सवः कृतः । तदनन्तरम्, पुनः सर्वसुश्रावक लोकपरिवृताः श्री पूज्याः श्रीसंघमध्ये समायाताः । तत्पश्चात्, ततः स्थानात् सर्वोऽपि संघो विशेषतो गुरुतराडम्बरेण श्रीस्तम्भनक श्री पार्श्वनाथ यात्राकरणार्थं सकलगूर्जरत्रालङ्कारभूत श्रीस्तम्भतीर्थोपरि प्रचलितः सन् मार्गागतसर्वनगरग्रामेषु प्रधानप्रासादसमान श्रीदेवालयस्य प्रवेशकमहोत्सवं कुर्वाणः श्रीस्तम्भतीर्थे प्राप्तः । १०१. तत्र च निरुपमातिशयशालिश्री आर्यसुहस्तिसूरि - युगप्रवरागमानुकारिश्री जिनकुशलसूरि सुगुरूपदेशेन सर्वप्रकारेण श्रीसम्प्रतिमहाराजाधिराजसमानेन सकलबुद्धिनिधानेन साधुराजवीरदेवसुश्राव केण सकलश्रीस्तम्भतीर्थवास्तव्योत्तममध्यम जघन्य लोकाबालगोपालमहामेलापकेन महाम्लेच्छानां पश्यतामपि ढाल्यमानेषु चामरेपु, धियमाणासु श्रीकरीषु, वाद्यमानासु भेरीपरम्परासु, अश्वाधिरूढढोल्लादिवादित्र निनादबधिरीकृताम्बराशाचक्रेषु, नृत्यमाg पदे पदे खेलकवृन्देषु, दीयमानेष्वविधवसुधवाभिर्नारी भी रासकेषु गीयमानेषु श्रीतीर्थङ्करदेव श्रीयुगप्रधान श्रीसंघपुरुषकृतावदातसंस्तव केषु गीतेषु पापठ्यमानेषु बन्दिवृन्देषु, दीयमानेष्वमेयेषु खखापतेयेषु किं बहुना वचनातिगेषु नानाविधेषु नाटकाद्युत्सवेषु संजायमानेषु समग्रनगरहट्टशोभातलिकातोरण निर्माणपूर्वकं हिन्दुगराज्यालङ्कारमन्त्रीवरवस्तुपालकारितयुगप्रवरागमश्रीजिनेश्वरसूरिप्रवेशकमहोत्सववत् महाम्लेच्छराज्यप्रधानालङ्कारभृतसाधुराजजेस लकारितसमग्रातिशयनिधान श्रीजिनचन्द्रसूरियुगप्रधानमहाप्रवेशकाधिकजङ्गमयुगप्रधानानेकलब्धिनिधानश्री जिनकुशलसूरीणां प्रवेशक महामहोत्सवो हिन्दुकवारकवत्, श्रीरथयात्रा नुकारिप्रासाद कल्पश्रीदेवालय यात्रानिर्माणपूर्वकं नवाङ्गवृत्तिकार श्री मदभयदेवसूरिप्रकटित श्रीस्तम्भनकालङ्कारश्रीपार्श्वनाथविधिच त्यालय संस्थित श्री अजितस्वामितीर्थीयनूत Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । नकृतनवनवालङ्कारस्तुतिस्तोत्र भणनपूर्वकं श्रीपूज्यैः सर्वचतुर्विधसंघपरिवृतैः सकलभवोपार्जितपापकश्मलप्रक्षालनप"वित्रा यात्रा कृता । तदनन्तरम्, दिनाष्टकं यावत् साधुराजवीरदेवप्रमुखदेशान्तरीयमहर्द्धिकसुश्रावकैः श्रीस्तम्भतीर्थवास्तव्यश्रीविधिसमुदायेन च श्रीमहाध्वजारोप श्रीमहापूजा - वारितसत्र - श्रीसंघवात्सल्य - श्रीसंघ पूजा - श्रीइन्द्रमहोत्सवामेयस्वापतेयोत्सर्पणा निर्माणपूर्वकं सकलस्वपक्षलोकानन्ददायकाः सर्वविपक्षलोकहृदयकीलानुकारका महामहोत्सवाश्च चक्रिरे । इन्द्रपदं च सा०कडुयासुश्रावक पुत्ररत्नेन दो० खांभराजसु श्रावकानुजेन दो० सामलसुश्रावकेण द्विव० द्र० शत १२ गृहीतम् । श्रीमत्रिपदादिपदानि चान्यैः सुश्रावकैर्गृहीतानि । ७९ १०२. तदनन्तरम्, श्रीस्तम्भतीर्थात् प्रस्थाय सर्वोऽपि संघः संजायमानेषु राजविधुरेष्वपि सर्वशून्यभूतेषु देशेषु, समग्रोत्साहपूर्वकं श्रीशत्रुञ्जयोपरि प्रचलितः सन् अन्तरागत श्रीधान्धूका महानगरे संप्राप्तः । तत्र सकलनगरनायकेन मलिकुलोत्तंसेन ठ० उदय कर्णसुश्रावकेण श्रीसंघवात्सल्यश्रीसंघपूजानिर्माणपूर्वकं महती प्रभावना कृता । ततः पुनः प्रस्थाय, क्रमक्रमेण श्रीशत्रुञ्जयतलहट्टिकायां सम्प्राप्तः। तदनन्तरं श्रीपूज्यपादैः सर्वसंघपरिवृतैः श्रीशत्रुञ्जयशैलोपर्यध्यारोहं विधाय भवभयवल्लीप्रोन्मूलनासिलतासमानां द्वितीयवारं श्रीशत्रुञ्जयालङ्कार श्रीयुगादिदेवमहातीर्थयात्रां नानाभङ्गिबन्धुरसर्वालङ्कारसुन्दर नूतनकृत स्तुतिस्तोत्रप्रदानपूर्वकं कृला, तदनन्तरं दिनदशकं यावत् सकलसंघमुख्यभूतसाधुराजवीरदेवश्रीसंघ पाश्चात्य पदप्राग्भारनिर्वाहक - सा० साहुतेजपाल - सा० नेमिचन्द्र - योगिनी पुरवास्तव्य श्री श्रीमालसा० रुदपाल - साहुनींबदेव - मत्रिदलकुलोत्तंसठ ० जवनपाल - सा०लखमा-श्रीजावालिपुरवास्तव्य सा० पूर्णचन्द्र-सा० सहजागुडहावास्तव्यसा०वाधूप्रमुखनानास्थानकवास्तव्यमहामहर्द्धिकसुश्रावकैः श्रीमहाध्वजारोपमहापूजावारितसत्र - श्रीसाध मिंकवात्सल्य - श्रीसंघपूजा - श्रीइन्द्रपदमहामहोत्सव निर्माणामेयस्वस्वापतेयैश्च पट्टांशुकादिनानावस्त्रस्वर्णकटकादिवितरणपूर्वकं श्रीशत्रुञ्जयोपरि श्रीजिनशासनप्रोत्सर्पिका प्रभावना कृता । इन्द्रपदं च श्रीजिनशासनप्रभावनाकरणप्रगुणेन साहुलोहटपुत्ररत्नेन साधुलखमासुश्रावकेण द्विवल्लि (ल्ल) कद्रम्मशतसप्तत्रिंशद्भिर्गृहीतम् । अमात्यपदं च श्रीयोगिनीपुवास्तव्यश्रीश्रीमालसा॰ सुरराजपुत्ररत्नेन सा०रुदपालानुजेन साहुनींवदेव श्रावण द्विवल्लकद्रम्म द्वादशशतैर्गृहीतम् । शेषपदान्यन्यमहर्द्धिकसुश्रावक सुश्राविकाभिगृहीतानि । सर्वसंख्यया श्रीयुगादिदेवभाण्डागारे श्रीविधिसंघेन सहस्रपश्चदशप्रमाणं स्वस्वापतेयं सफलीकृतम् । स्वकीयश्रीयुगादिदेवविधिचैत्ये नूतननिष्पन्नश्री चतुर्विंशतिजिनालय देवगृहिकासु श्रीपूज्यराजैः सविस्तरतरः कलशध्वजारोपः कृतः । तदनन्तरम्, सर्वसंघपरिवृताः श्रीपूज्याः श्रीयुगादिदेवमुत्कलनं विधाय तलहट्टिकायां समायाताः । ततः सर्वोsपि संघ आगमनरीत्यैव गुर्वाडम्बरेण व्याघुट्य पुनः शेरीष के श्रीपार्श्वयात्रां विधाय क्रमक्रमेण श्रीशङ्खश्वरे समायातः । तत्र च दिनचतुष्टयमवारितसत्र - श्रीसाधर्मिक वात्सल्य - श्रीमहापूजा - महाध्वजारोपनिर्माणपूर्वकं श्रीपार्श्वनाथप्रत्यासन्नपाडलालङ्कारश्रीनेमीश्वरयोर्नूतन कृत स्तुतिस्तोत्रप्रदानपूर्वकं सकलसंघपरिवृतैः श्रीपूज्यैर्यात्रा कृता । तदनन्तरं सकलसंघपरिवृताः श्रीपूज्याः श्रावणशुक्लैकादश्यां प्रभावकसाधुराजवीरदेवकारितसविस्तरतर प्रवेशकनिर्माणपूर्वकं श्री भीमपल्ल्यां श्रीमहावीरदेवं नमश्चक्रुः । देशान्तरीयः सर्वः संघः साहुवीरसुश्रावकेण सन्मानदानपूर्वकं स्वस्थाने प्रविष्टः । १०३. तदनन्तरम्, सं०१३८२ वर्षे वैशाखसुदि ५ साधुराजसामलकुल प्रदीपायमानस्यैयौदार्यगाम्भीर्याधः कृतमेरुमन्दरपयोनिधिवितानसमग्रनगरलोकमुकुटायमानश्रीजिनशासनप्रोत्सर्पणाकरणप्रधान श्री शत्रुञ्जयादि महातीर्थयात्राकरसमुपार्जित पुण्यनिधान साधुराजवीर देवसुश्रावककारितो दीक्षामालारोपणादिनन्दिमहामहोत्सवः श्री भीमपल्लीय -श्री Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार पत्तनीय- श्रीप्रह्लादनपुरीय - श्रीवीजापुरीय - श्री आशापल्लीयादिनानास्थानसमुदाय महामेलापकेन वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, दीयमानेषु तालारासेषु, नृत्यमानाखविधवसुधवासु नायिकासु, संजायमानासु श्रीसंघपूजासु, क्रियमाणेषु श्रसाधर्मिक वात्सल्येषु, दीयमानेष्वमेयेषु स्वस्वापतेयेषु, सम्पद्यमानेष्ववारितसत्रेषु, दिनत्रयममारिघोषणानि - र्माणपूर्वकं हिन्दुकवारकवत् सकलजनमनश्चेतश्चमत्कारकारी विपक्षहृदय कीलानुकारी सकलातिशयनिधानैः सर्वलब्धिप्रधानैर्निजावदातसंस्मारितपूर्वसूरिभिः श्रीजिनकुशलसूरिभिश्चक्रे । तस्मिन् महोत्सवे क्षुल्लकचतुष्टयं क्षुल्लिकाद्वयं कृतम्, तेषां नामानि विनयप्रभ - मतिप्रभ - हरिप्रभ - सोमप्रभक्षुल्लकाः, कमलश्री - ललित श्रीक्षुल्लिके इति । प्रभूतसाध्वीश्राविकाभिर्माला गृहीता । अनेक श्रावक श्राविकाभिः सम्यक्त्वारोप- सामायिकारोपः कृतः, परिग्रहपरिमाणं च गृहीतमिति । ८० तस्मिन्नेव संवत्सरे श्रीपूज्याः श्रीसत्यपुरीय समुदायाभ्यर्थनया श्रीसत्यपुरे श्रीसमुदायका रितसविस्तरतरप्रवेशकमहोत्सवाः श्रीमहावीरदेवतीर्थराजं नमश्चक्रुः । तत्र च मासमेकं श्रीसमुदायस्य समाधानं समुत्पाद्य, श्रीलाटहदसम्मुदायाभ्यर्थना श्री लादे श्रीसमुदाय विहितसविस्तरतरप्रवेशकमहोत्सवाः श्रीमहावीरदेवाधिदेवं नमश्चक्रुः । तत्र च पक्षमेकं श्रीसमुदायस्य समाधानं समुत्पाद्य, श्रीवाग्भटमेरवीयसमुदायाभ्यर्थनया श्रीवाग्भटमेरौ श्रीसमुदाय कारितसकलस्वपक्ष-परपक्षचेतश्चमत्कारकारिप्रवेशकमहोत्सवाः श्रीयुगादिदेवतीर्थनाथं नमस्कृत्य चतुर्मासीं चक्रुः । - १०४. पश्चात्, तत्र च सं० १३८३ वर्षे पौषशुक्लपूर्णिमायां श्रीजिनशासनप्रभावना श्रीसाधर्मिकवात्सल्यादिनानाधर्मकृत्यकरणोद्यतसाधुराज प्रतापसिंहप्रमुख श्रीवाग्भटमेरवीयसमुदायाभ्यर्थनया श्रीजेसलमेरवीय-श्रीलाटहद-श्रीसत्यपुर- श्री प्रह्लादनपुरीयादिनानास्थानवास्तव्य महर्द्धिकसुश्रावकलोकमहामेलापकेन संजायमानेषु श्रीसाधर्मिकवात्सल्यश्रीसंघपूजादिनानाविधेषु धर्मकृत्येषु, दीयमानेषु तालारासेषु क्रियमाणेष्ववारितसत्रेषु, अमारिघोषणा निर्मापणपूर्वकं श्री उत्थापना - मालारोपण - श्रीसम्यक्त्वारोपण - सामायिकारोप - परिग्रहपरिमाणादिनन्दिमहामहोत्सवं चक्रुः । १०५. ततस्तस्मिन्नेव संवत्सरे श्रीजवालिपुरीय समुदाय गाढतराभ्यर्थनया सकलातिशयनिधानाः समग्रसूरिमालाप्रधानाः श्रीजिनकुशलसूरियुग प्रधानाः श्रीवाग्भटमेरुतः प्रस्थाय समग्रराज्यभारधुराधरणधौरेय स्वकीयपूर्वजवाहिनकोद्धरणकारित - श्री शान्तिनाथमहाविम्वसमन्वितोत्तुङ्गतोरणनिरुपम गुरुतरप्रासादशिखरे श्रीलवणखेटकनगरे युगप्रवरागमस्वकीय दीक्षागुरुश्रीजिनचन्द्र सूरिगुरुजन्ममहोत्सवसौव जन्मदीक्षा ग्रहण महामहोत्सवविलोकन पवित्रीभूताखिलस्वपक्ष-परपक्षजनताननाः श्रीशम्यानयने च श्रीशान्तिनाथदेवाधिदेवम्, श्री समुदायकारितसविस्तर तरप्रवेशक महोसवा नमस्कृत्य कियन्ति दिनानि उभयस्थानसमुदाययोः समाधानं च समुत्पाद्य श्रीविधिधर्मकमलकाननप्ररोहसरोवरे श्रीजाबालिपुरे नानोत्सवनिर्मापणसमुद्यत श्रीजाबालिपुरीय महासमुदाय कारितसविस्तरतरप्रदेशकमहामहोत्सवाः स्वहस्तकमलप्रतिष्ठितं श्रीजा वालिपुरीय समुदायमनोवाञ्छितार्थपूरणाङ्गीकृतप्रतिज्ञं श्रीमहावीरदेवमहातीर्थराजचरणकल्पद्रुमं नमश्चक्रुः । तत्र च मत्रीश्वरकुलधर कुलप्रदीप मं० भोजराजपुत्ररत्न मं० सलखणसिंह - सा० चाहडपुत्ररत्नसा • झाञ्झणप्रमुख श्रीजाबालिपुरीयविधिसमुदायाभ्यर्थनया श्रे० हरिपालपुत्र रत्नश्रे० गोपालप्रमुख श्री उच्चकीयदेवराजपुरीय समुदाय - सकलोत्सवधुराधरणधौरेयधवलसा०जाह्नणपुत्ररत्न साधु राजतेजपाल - सा० रुदपालप्रमुख श्रीपतनीय - श्रीजेसलमेरवीय - श्रीशम्यानयनीय - श्रीश्रीमालीय - श्रीसत्यपुरीय - श्रीगुडहाप्रमुखनानानगरग्रामवास्तव्यासंख्य श्रीविधि समुदाय श्रावक लोकमहामेलापकेन दिनदशपञ्चकादारभ्य संजायमानेषु भविष्यत्क्षुल्लकानां सविस्तरतरेषु पुष्पाङ्कदानमहामहोत्सवेषु, दीयमानेषु तालारासेषु, अनेक महामहर्द्धिकसुश्रावकलोकैः स्वर्णरजतवस्त्रान्नदानैः सफलीक्रियमाणेष्वमेयेषु स्वस्वापतेयेषु गीयमानेष्वविधव सुधवाभिर्नारीभिः स्थाने स्थाने गीतेषु, श्रीसंघपूजा - साधर्मिकवात्सल्यावारितसत्रामारिघोषणादिनानाप्रभावनासु प्रवर्तमानासु, सं० १३८३ वर्षे फाल्गुनवदिनवम्यामतिशयेन विषमदुःषमाकाले प्रवर्तमाने, सकलस्वपक्षपरपक्षोत्तममध्यमजघन्य लोकानां मस्तके हस्ताध्यारोहं... कुर्वाणामपि, निरुपम Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली । सौवज्ञानध्यानवलातिशयादागामिकुशलं परिभावयद्भिः श्रीजिनकुशलसूरिभिः सुपमसुषमावत्सकलस्वपक्ष-परपक्षासंख्यम्लेच्छलोकचेतश्चमत्कारकारी विधिधर्मप्रभावनाप्रद्विष्टलोकहृदयकीलानुकारी निर्विघ्नः श्रीप्रतिष्ठा-व्रतग्रहणोस्थापना-मालारोपण-श्रीसम्यक्त्वारोपादिनन्दिमहामहोत्सवः सविस्तरतरः कृतः । तस्मिन् महोत्सवे श्रीराजगृहनिवासिसमग्रलोकक्रीडास्थानकश्रीवर्धमानस्वामिचरणकमलन्यास-श्रीगौतमस्वामिप्रमुखश्रीमहावीरैकादशगणधरादिमहामुनिनिर्वाणपवित्रीकृतश्रीवैभारगिरिशैलोपरि ठ० प्रतापसिंहकुलप्रदीपमत्रिदलकुलोत्तंससंघपुरुष ठ० अचलकारितश्रीचतुर्विंशतिजिनालयोत्तुङ्गतोरणप्रासादमूलनायकयोग्यश्रीमहावीरदेवप्रमुखानेकशिलमय-पित्तलामयाद्यनेकबिम्बानां गुरुमूर्तीनामधिष्ठायिकानां च प्रतिष्ठा संजाता । क्षुल्लकपदकं च कृतम् , तन्नामानि न्यायकीर्ति-ललितकीर्ति-सोमकीर्ति-अमरकीर्ति-नमिकीर्ति-देवकीर्तिमुनय इति । अनेकाभिः श्राविकाभिर्माला गृहीता नानाश्रावकश्राविकाभिः श्रीसम्यक्त्वारोप-सामायिकारोप-द्वादशवताङ्गीकारश्च कृतः। १०६. तदनन्तरम् ,सिन्धुदेशालङ्कारश्रीउच्चानगर-श्रीदेवराज पुरवास्तव्यमहद्धिकसुश्रावकसमुदायगाढतरोपरोधवशाद् युगप्रवरागमश्रीआर्यसुहस्तिसरिलोकोत्तरावदातप्रकटनपरा दुष्करतरनिरतिचारचारित्रशीलप्रतिपालनलोकोत्तरतपोविधानाकृष्टकिङ्करीतभूव्यन्तरामरनिकरसततविहितसान्निध्योद्धराः समाश्रितसौवध्यानातिशयनिरुपमगम्भीरदेविकुजराःसांयात्रिताष्टादशसहस्रशीलाङ्गमहारथनिकरा नवषटत्रिंशिकारिगुणजात्याश्वघडव्याप्तवसुन्धराः पराजय्यानेकमनिमण्डलीपदातिवर्गसारपरिवारा युगाग्यश्रीजिनकशलमूरिसुगुरुचक्रीश्वरा महाम्लेच्छकुलाकुलगुरुतरश्रीसिन्धमण्डलो. परि महामिथ्यात्वदुर्दान्तभूपालोन्मूलनाथ स्वाश्रितश्रीविधिधर्मधरणीधवसंस्थापनार्थ चैत्राद्यपक्षे दिग्विजयमुहूतं विधाय, स्थाने स्थाने शुभशकुनैः प्रेयमाणाः, पुनद्वितीयवारं मार्गागतश्रीशम्यानयन-श्रीखंडनगरादिसर्वस्थानेषु खाज्ञाभूपालसंस्थापनां कुर्वाणाः, क्रमक्रमेण मरुस्थलीजनपदमुखकल्पश्रीजेसलमेरुमहादुर्गमध्यनिवासिसामान्यनराजय्यमहाज्ञानदैत्योत्पाटनाय श्रीराजलोक-नगरलोकमहामेलापकेन वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु,दीयमानेषु महद्धिकसुश्रावकैरमेयेषु स्वस्खापतेयेषु, श्रीविधिसमुदायकारितसकललोकचेतश्चमत्कारकारिप्रवेशकमहोत्सवपूर्वकं स्वहस्तकमलप्रतिष्ठितं निःशेषविघ्नमालाविनाशनसमुद्यतं श्रीपार्श्वनाथदेवाधिदेवचरणारविन्दद्वैतं नमस्कुर्वन्ति स्म । ___ पश्चात्तत्र दिनदशपञ्चकैः स्वकीयवाक्चातुरीखगलतयाऽज्ञानदैत्योच्छेदनं विधाय, सर्वजनसुखावहं ज्ञानावनोधभूपालं संस्थाप्य, श्रीउच्चकीय-श्रीदेवराजपुरीयसुश्रावकेश्वराः श्रीपूज्ययुगवराः, ग्रीष्मतो प्रवर्तमानायामपि सान्निध्यकार्यम्बुदामरनिकराः, किङ्करीभूतमरुस्थलीमध्यस्थानेकभूतप्रेतपिशाचनिकराः, शनैः शनैः स्वच्छन्दलीलया ईर्यासमित्यादिनानासमित्यलङ्काराः, मरुस्थलीमहासमुद्रं श्रीपत्तनराजमार्गवत् समुल्लवय, वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, समग्रलोकनगरलोकमहामेलापकेन नानाविधस्वर्णपट्टांशुकादिदानपूर्वकं श्रीदेवराजपुरीयसमुदायकारितगुरुतरप्रवेशकमहोत्सवाः, स्वहस्तकमलप्रतिष्ठितं श्रीयुगादिदेवतीर्थराजं नमश्चक्रुः । १०७. तदनन्तरम् , तत्र चाहनिशं धर्ममर्मदण्डरत्नविराजमानव्याख्यानसेनाधिपतिना मिथ्याखभूपालपक्षपाति. कुवासनादिसीमालभूपालान् प्राणिहृदयदुर्गमध्यस्थितान् मासकेन निर्धाट्य, श्रीमत्पूज्यमहाराजाधिराजाः श्रीउच्चकीयसमुदायगाढतराभ्यर्थनया नानाविधाङ्गोत्थशक्तिशालिनो दुर्जेयमिथ्याखावनिपालोन्मूलनाथं तद्राजधानीसभायां हिन्दुकवारके वादीन्द्रद्विपघटापश्चाननश्रीजिनपतिमरिगुरुचक्रवर्तिचरणाम्भोरुहपवित्रितायां श्रीउच्चायां नगरमध्यनिवासिचातुर्वर्णम्लेच्छराजलोकासंख्यमेलापकेन वाद्यमानेषु द्वादशविधनान्दीतूर्येषु, महर्द्धिकसुश्रावकैर्दीयमानेषु या. चकमनोवाञ्छितार्थनिचयेषु, श्रीउच्चकीयमहासमुदायकारितसविस्तरतरप्रवेशकमहोत्सवाः श्रीचतुर्विंशतिपट्टकालङ्कारश्रीयुगादिदेवं नमस्कृत्य निःशङ्कचित्ता अवस्थिताः । पश्चात् सकललोकासुखावहं प्रचण्डप्रबलिमिथ्यात्वभूमीश्वरं सर्वोत्तमसौवधर्मगुणाध्यारोपमात्रेण निर्धाट्य, मासमेकं यावत् स्थिखा, स्वपक्षाश्रितं श्रीविधिधर्ममहाराजं बद्धमूलं सं. यु० गु० ११ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ खरतरगच्छालंकार स्थाप्य च पुनश्चतुर्मास्युपरि सकलानार्यसिन्धुदेशजनतानुगम्यमानचरणाः श्रीदेवराजपुरवरे श्रीयुगादिदेवं नमश्चक्रुः । १०८. पश्चात्तदनन्तरम् ,सं०१३८४ वर्षे माघशुक्लपञ्चम्यांप्रवर्धमानशिष्यसंप्राप्याद्यनेकलब्धि-आर्यानार्यदेशजिनधर्मप्रवृत्तिभूपालादिप्रतिबोधनशक्ति-निर्लोभताप्रवचनप्रभावनाविधानश्रीसूरिमत्राराधन-नानासमयार्थव्याख्यानसंवेगतासुरासुरवशीकरणता-परवादिनिर्धाटन-सर्वनगरग्रामजिनभुवनबिम्बस्थापनादिनानानिजलन्धिशक्त्यादिसंस्मारितश्रीगौतमखामि-श्रीसुधर्मस्वामि-श्रीआर्यसुहस्ति-श्रीवयरस्वामि-श्रीआचार्यमन्त्रप्रकटीकरणप्रवीणश्रीवर्धमानसूरिश्रीनवाङ्गवृत्तिकारश्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथप्रकटीकरणोपार्जितभूरियशःश्रीअभयदेवसूरि-अनेकदेवाराध्य-मरुस्थलीकल्पद्रुमावतारश्रीजिनदत्तमरि-वादीन्द्रद्विपघटाविद्रावणपञ्चाननश्रीजिनपतिसरि-नानास्थानसंस्थापितश्रीतीर्थङ्करदेवोत्तुङ्गतोरणप्रासादश्रीजिनेश्वरसूरिप्रमुखानेकस्खवंशोद्भवगणधरयुगप्रधानमालावदातैः तपःक्रियाविद्याव्याख्यानध्यानातिशयावर्जितकिङ्करीभूतामरमहाम्लेच्छहिन्दुकनरेश्वरमधुकरनिकरसमाश्रितचरणाम्भोजयुगप्रवरागमश्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यराजैयुगप्रधानपदवीप्राप्त्यनन्तरप्रत्यब्दप्रवर्धमानप्रतिष्ठा व्रतग्रहण-मालारोपण-श्रीमहातीर्थयात्राविधान-समुपार्जितगोक्षीरधाराधवलहीराट्टहासतुषारकरनिकरोज्ज्वलयशःकाचकर्पूरवासितविश्ववलयैः सुगुरुचक्रवर्तिश्रीजिनकुशलसूरिभिः स्थैर्योदार्यगाम्भीर्यादिनानागुणगणमुक्ताफललतालङ्कृतगात्रश्रीदेवगुर्वाज्ञास्खलितप्रतिपालनजात्यजाम्बूनदमुकुटालङ्कृतोत्तमागश्रीजिनशासनप्रभावनावलीविविधक्रीडाविनोदविधानसमुद्यतश्रे गोपालपुत्ररत्नश्रे नरपाल-सा०वयरसिंह-सानन्दण-सामोखदेव-सा०लाखण-सा आम्बा-सा०कडया-सा०हरिपाल-साध्वीकिल-सा० चाहडप्रमुखानेकोच्चकीयमहामहर्द्धिकसुश्रावक-श्रीदेवराजपुर-श्रीकियासपुर-श्रीबहिरामपुर-श्रीमलिकपुरप्रमुखनानानगरग्रामवास्तव्यासंख्यसुश्रावक-राणक-राजलोक-नगरलोकगाढतराभ्यर्थनया प्रचुरदिनादारभ्य स्थाने स्थाने संजायमानेषु नानाविधेषु नाटकेषु, दीयमानेषु नराविधवसुधवाभिर्नारीभिस्तालारासकेषु, हाहाहूहूसमानानेकगायनावलीभिर्गीयमानेषु गीतेषु, पापठ्यमानेषु भट्टघट्टवृन्देषु, दीयमानेषु महामहद्धिकसुश्रावकै राजलोकै नाप्रकारस्वर्णरजतकटकतुरङ्गमपट्टांशुकादिवस्त्रान्नदानेषु, संजायमानेषु भविष्यक्षुल्लकक्षुल्लिकामालायाः सविस्तरतरेषु पुष्पाङ्कदानेषु, क्रियमाणेषु श्रीसाधर्मिकवात्सल्यश्रीसंघपूजाद्यनेकप्रकारेषु धर्मकृत्येषु, विषमदुःषमकाले प्रवर्तमानेऽपि सुषमावन्ट्रीचक्रवर्तिपट्टाभिषेकमहोत्सवानुकारी महामिथ्यात्वदैत्यविनाशनमधुसूदनानुकारी सकलस्वपक्षमहाजनलोकचेतश्चमत्कारकारी प्रद्विष्टाखिललोकहृदयकीलानुकारी सौवश्रीविधिधर्मसाम्राज्यसम्प्राप्तिमिथ्यात्वभूपालोन्मूलनश्रीसिन्धुदेशविजययात्राकरणसमुपार्जितपुण्यराज्यलक्ष्मीपाणिग्रहणसंस्तवकः श्रीप्रतिष्ठाव्रतग्रहणमालारोपणादिनन्दिमहोत्सवः सविस्तरतरश्चक्रिरे । तस्मिन् महोत्सवे श्रीराणकोट्टविधिचैत्य-श्रीकियासपुरविधिचैत्यमूलनायकयोग्यश्रीयुगादिदेवबिम्बद्वयप्रमुखानेकशिलमयपित्तलामयविम्बानां श्रीमत्पूज्यप्रवरतरकीर्तिस्तम्भानुकारिणां प्रतिष्ठा संजाता । नवनिधानानुकारिक्षुल्लकनवकं स्वायत्तं जातम्, क्षुल्लिकात्रयं च-तन्नामानि भावमूर्ति-मोदमूर्ति-उदयमूर्ति-विजयमूर्ति-हेममूर्ति-भद्रमूर्ति-मेघमूर्ति-पद्ममूर्ति-हर्षमूर्ति क्षुल्लका इति, कुलधर्मा-विनयधर्मा-शीलधर्मा साध्य इति । सप्तसप्ततिश्राविकाभिर्माला गृहीता। अनेकश्रावकश्राविकालोकैः परिग्रहपरिमाणग्रहण-सामायिकारोप-सम्यक्त्वारोपाः प्रचक्रिरे । १०९. ततश्च सं०१३८५ वर्षे लक्षणच्छन्दोलङ्कारसारनाटकाप्रमाणप्रमाणप्रसिद्धसिद्धान्ताद्यनवद्यत्रैविध्यमहापुरवीथीविज्ञेयजनप्रचाररथीभूतकुशाग्रनिशातसौवमतिवाततिरस्कृतसुरसूरिभिः श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीउच्चकीय-श्रीबहिरामपुरीय-श्रीक्यासपुरीयादिश्रीखरंतरसमुदायमेलापके फाल्गुनशुक्लचतुर्थीदिने पदस्थापनाक्षुल्लकक्षुल्लिकोत्थापनामालाग्रहणादिनन्दिमहोत्सवः सविस्तरतरश्चक्रे । तस्मिन् महोत्सवे पं०कमलाकरगणेर्वाचनाचार्यपदं प्रदत्तम् , नूतनदीक्षितक्षुल्लिकानामुत्थापना कृता । विंशतिश्राविकाभिर्मालाग्रहणं विहितम् । बहुभिः श्रावक-श्राविकाभिः परिग्रहपरिमाणसामायिकारोप-सम्यक्त्वारोपा विदधिरे। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। ११०. तदनन्तरम् , सं०१३८६ वर्षे निरुपमाकृत्रिमान्तरदृढतरभक्तिप्राग्भारशृङ्गारसुभगं श्रीदेवगुर्वाज्ञाचिन्तामणिविभूषणप्रियं भावुकमस्तकश्रीजिनशासनप्रभावनावनीतलसमुल्लासनघनाघनालीसमवायश्रीबहिरामपुरीयखरतरसमुदायधनतरोपरोधवशतः सततविहितसुविहाराः खकीयसप्रसरज्योतिर्विसरापसारितान्तरघोरान्धकारा जागरूकीकृतविचित्रचित्रमाङ्गलिक्यप्राग्भाराः स्वीकृतचरणकरणालङ्करणसुश्रावकगणपरिवाराः श्रीजिनकुशलसूरियुगप्रवरा दिवाकरा इव सकलभविककमलकाननप्रबोधनप्रबद्धादरा मोहान्धकारतिरस्कारकरणार्थ श्रीबहिरामपुरे सा० भीम-सान्देदा-सा० धीर-सा०रूपाप्रमुखसमग्रश्रीवहिरामपुरवास्तव्यश्रीविधिसमुदायविधीयमानसमग्रवपक्षपरपक्षचेतश्चमत्कारकारिसविस्तरतरप्रवेशकमहोत्सवाः संमुखागतास्तोकलोकसमुत्कीर्त्यमानकुन्देन्दुसमानानेकप्रविवेकशमदमसंयमप्रकाराः कमनीयरूपलावण्यादिप्रगुणगुणश्रेणयः स्वमहिमातिशयनिशितपरशूधारालूनविनवल्लीविततयः श्रीपाश्चदेवविधिमन्दिरे समस्तसमीहितसम्पादनसमर्थसेवं श्रीपार्श्वनाथदेवं नमस्कृतवन्तः। ___ तत्र च प्रतिष्ठितं श्रीबहिरामपुरवास्तव्यविधिसमुदायेन श्रीपूज्यपादारविन्दवन्दनार्थमागतनानाग्रामवास्तव्यश्रावकसमुदायेन कोमलकश्रावकैरप्यहमहमिकापूर्व........श्रीसाधर्मिकवात्सल्य-श्रीसंघपूजावारितसत्रनिर्मापणादिप्रभावनासु विधीयमानासु, कार्यमाणेषु नागरिकजननिनिमेषेक्षणप्रेक्षणीयेषु, संजायमानेषु स्थाने स्थानेऽन्वहं....धकमलवर्जत्यङ्ग(१)नर्तनपूर्वकं नागरिकलोकेन श्रीपूज्यगुणग्रामवर्णनेषु, कियन्त्यपि दिनानि स्थित्वा, नोभिगिध्यान्धकारतिरस्कारसमुल्लासश्रीकस्यक्रुक्षपमहाप्रकाशनिवेश्य(?), श्रीबहिरामपुरात् श्रीक्यासपुरीयखरतरसमुदायगाढतरोपरोधेन प्रस्थाय प्राच्ययुगप्रवरागमरत्नपादप्रधाराभावमूरिनोभूयमागथानतमस्काण्डक्रीडापुरे(?) श्रीक्यासपुरोपरि विजहुः श्रीपूज्याः। अत्र च...सा०धीणिग-साजेठू-सा वेला-सा०महाधरप्रमुखश्री........लारवाहणीयसमुदायेन श्रीलारवाहणे स्वकीयम्लेच्छनायकसंमुखानयनपूर्वकम् , वाद्यमानढोल्लनान्दीतूर्यवर्यनिनादेन मुखरीक्रियमाणेषु दिङ्मुखेषु, मिलितज.... पादाश्च तेमूली(?)वातसंमूछेदतुच्छाम्बुदभ्रमेणाकाण्डताण्डवाडम्बरं कुर्वत्सु मयूरेषु, मन्दिरद्वारेषु वध्यमानासु वन्दनामालिका सु श्री...पूज्यानां प्रवेशकमहोत्सवो कारयांचवे । तत्र च, श्रावकलोकेन...संजायमानेषु श्रीसाधर्मिकवात्सल्यावारितसत्रेषु, जायमानासु सविस्तरतरासु श्रीसंघपूजासु, दिनषट्कं......प्रबोधा.......ततः स्थानात् प्रस्थायान्तरालखोजावाहनादिव.............मानप्रवेशकोत्सवा............ प्राग्भारानुगमैकश्रावकलोकवाहनोखातरजःपुञ्जजञ्जन्यमा... ................................. (अत्र कियान् विशेषपाठस्त्रुटितः प्रतिभाति) [1] १११. तदनन्तरम् , नैसर्गिकगुरुतरगुरुभक्तिरसरङ्गतरङ्गितमानसनिरवधिविधिमार्गसरःकलहंसश्रीक्यासपुरनिवासिश्रे०मोहण-सा०कुमरसिंह-व्यव० खीमसिंह-सा० नाथू-सा जट्टडप्रमुखश्रावकसमुदायेन युगप्रवरागमश्रीजिनकुशल- - सूरिपादावधारणसमुच्छलदनगलतराह्लादपयःपटलप्रेक्ष्यमाणक्षेत्रप्रोद्भूतप्रभूतरोमाङ्कुरपूरोदयेन स्वकीयम्लेच्छनायकपार्थात करकलितदण्डकं तुरष्काष्टकं दुष्टलोकनिवारकं सहादाय, राजलोक-नगरलोक-सा०चाचिगप्रमुखकोमलश्रावकलोकमेलापके वाद्यमानेष्वधरीकृतभद्रभाद्रपदीयसजलजलधरगम्भीरगर्जेषु नान्दीतूर्येषु, दीयमानासु महामिथ्यात्वप्रतिपन्थिमर्मव्यथनकर्तरीषु चच्चरीषु, गीयमानेष्वविधवसुधवाभिर्नारीभिः सकलामाङ्गलिक्यमालाज्वालासलिलेषु धवलमङ्गलेषु, पापठ्यमानेषु मङ्गलपाठककदम्बकेन श्रीपूज्यराजदन्तिदन्तावदातावदातवातवर्णनागर्भेषु नव्यकाव्येषु, गीयमानेषु गाथकवृन्देन समग्रसकर्णकर्णमृगतर्णककान्तेषु गीतेषु, पूर्वमनोवनागोचरसिताम्बरदर्शनदर्शनोत्कण्ठितनारीभिः खमन्दिरद्वारोर्श्वभूमिवलभीविरचितस्थितिभिर्मुक्तनिजनिजकृत्याभिः श्रीपूज्यावलोकन....कालिकोत्पद्यमानपुण्यवितानस्वाधीनविबुधभाराभिरिव नि........................पलावणारसा(?) अहो! अमीषां श्वेताम्बरसार्वभौमानामुपशमरससम्पूर्णता, अहो ! अमीषां दुर्दमकरणतुरङ्गमवशीकारकर्मठता, अहो ! अमीषां समस्तजनतानन्दिशान्तवेपता, नास्त्यमीषां समोऽन्यस्तपस्वीति वचनमालासहस्रेण स्तूयमानगुणग्रामा, अङ्गुलिमालासहस्रेण दश्यमानाभीमानकू Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छालंकार पा)श्विरं जीवेत्यादिविविधाशीर्वादैराशिष्यमाणाः, अग्रेगच्छदतुच्छश्रीपूज्यपुण्यविलासाहृतप्रभूतकामकलशायमानकामिनीजनवराङ्गविन्यस्तपूर्णकलशाः, सौवप्रभावातिशयनिशितपरशूप्रलूनप्रत्यूहव्यूहवल्लिवितानाः, दुष्टम्लेच्छैरपि सुश्रावकलोकैरिव वन्धमानपादारविन्दाः, वादीन्द्रद्विपघटापश्चाननाः, श्रीजिनपतिमूरिश्रीअजयमेरुमहानगरश्रीपृथ्वीराजकारितमहाप्रवेशकमहोत्सवानुहारिणा निरवधिविधिमार्गदुष्टलोकमुखमालिन्यनिर्मापणमपीकूर्चकानुकारिणा सविस्तरप्रवेशकमहोत्सवेन प्रवेशिताः सार्वकामुकस्वप्रतिष्ठितश्रीयुगादिदेवपादस्वःपादपयुगं ववन्दिरे ।। तत्र च विधिमार्गीयक्यासपुरवास्तव्यखरतरसमुदायेन कोमलश्रावकैश्च श्रीपूज्यज्ञानध्यानपवित्रचारित्रादिवरेण्यगुणगणावर्जितैः प्रतिदिनविधीयमानशालिदालिहैयङ्गवीननवीनपक्वान्नव्यञ्जनफलावलिबहुलश्रीसाधर्मिकवात्सल्य-श्रीसंघपूजावारितसत्र-रासकप्रदान-खेलक-नर्तन-प्रेक्षणीयकनिर्मापणादिमिर्गुर्वीप्रवचनप्रभावना विरचयाश्चके । श्रीपूज्याः कौतूहलागततुरुष्कनायकान् स्ववचनचातुरीभिराह्लादयन्तः सुप्रथितमिथ्यात्वान्धकारपूरितबहुललोकहृदयकन्दरासु बोधिलाभमहोद्योतमुल्लासयन्तः, सुश्रावकभविकक................. ......................दापयतश्चतुर्मास्युपरि श्रीदेवराजपुरे समस्तसमुदायकारितगुरुतरप्रवेशकमहोत्सवाः श्रीयुगादिदेवं नमस्कृतवन्तः । ११२. तदनन्तरम् , सं० १३८७ वर्षे श्रेनरपाल-सा हरिपाल-सा आम्बा-सा लखण-सा०वीकलप्रमुखश्रीउच्चकीयसमुदायगुरुतराग्रहबशादात्मत्रयोदशाः............(अत्र कियान् पाठो नष्टः) । ___तत्र च मासमेकं पूर्ववत्तीर्थप्रभावना........गूर्जरनगर इव प्रकटतयाऽर्हद्धर्मकमलपरिमलं विस्तार्य श्रीउच्चापुरीतः श्रीपरशुरोर[को वास्तव्यसा० हरिपाल-सा०रूपा-सा आशा-सा०सामलप्रमुख समुदायदृढाग्रहवशात् श्रीजिनकुशलसूरयश्चक्रेणइयदि(१)यात्राकरणप्रवणाः प्रभूतश्रावकानुगम्यमाना नानाग्रामेषु श्रीपूज्यागमनोत्कर्णनोद्भवत्प्रमोदाभिरामेषु श्रावकान् वन्दापयन्तः परशुरोरकोट्टे वाद्यमानढोल्लनिनादमेदविप्रतिनिनादेन गह्वरितेषु दिग्विवरेषु, संमुखमागच्छत्सु शृङ्गारस्फारेषु नागरेषु, संजातगुरुतरप्रवेशकोत्सवा. ..................श्रीवहिरामपुरश्रीपार्श्वदेवपादारविन्दं नमश्चक्रुः । तत्र च महतीश्रीजिनशासनप्रभावनां पूर्ववद्विरचयां............ । ततः स्थानात् श्रीक्यासपुरादि........'ग्रामे एका रात्रिनगरे पञ्चरात्र'मित्यनया रीत्या भविकलोकपरोपकाराय ........विहत्य चतुमास्युपरिश्रीदेवराजपुरवरे श्रीयुगादिजिनवरेन्द्रपादारविन्दं प्रणेमुः। ११३. ततश्च सं०१३८८ वर्षे श्रीविमलाचलचूलालङ्कारहारश्रीमन्मानतुङ्गविहारशृङ्गारश्रीप्रथमतीर्थङ्करप्रमुखाहद्विम्बनिकरप्रतिष्ठापन संस्थापन-व्रतग्रहण-मालारोपणादिमहामहोत्सवानेकदेशप्रदेशविहाराद्यवदातवातविततकदलीजातब........संजातयशःकाचकर्पूरपूरपारीपरिमलत्रिभुवनोदयमूरिभिः श्रीजिनकुशलसूरिभिर्विशिष्टवरिष्ठज्ञानध्यानबलेन सम्यक् समयं परिभाव्य निजभुजासमुपार्जित......निर्जितपारिजातकल्पद्रुमश्रीउच्चापुरी......क्तिकस्तवको... लितसौवर्णतिलकायमानश्रीविधिसमुदायश्रीबहिरामपुर श्रीक्यासपुर-श्रीसिलारवाहणादिनानानगरग्रामवास्तव्यसर्वसिन्धुदेशसमुदायमेलापके प्रभूतदिनेभ्य आरभ्य नरीनृत्यमानेषु खेलकवितानेषु, दीयमानेषु श्रावकलोकेन सकर्णकर्णसुधासेकेषु रासकेषु, संजायमानेषु श्रीसाधर्मिकवात्सल्यावारितसत्रश्रीसंघपूजादिषु, दीयमानेषु श्रावकलोकेन सततममेयेषु स्वस्वापतेयेषु, वितन्यमानेषु भाविक्षुल्लक क्षुल्लिकानां पुष्पाङ्केषु अ......णायां स्वपक्ष-परपक्षचेतश्चमत्कारकारी पदस्थापन-व्रतग्रहण-मालारोपण-सामायिकारोपण-सम्यक्त्वारोपादिनन्दिमहामहोत्सवो मार्गशीर्षशुक्लदशमीदिने निर्मापयामासे । तस्मिन् महोत्सवे गाम्भीर्योदार्यधैर्यस्थैर्यार्जवविद्वत्वकविखवाग्मिनसत्त्वसौविहित्यज्ञानदर्शनचारित्रविशदषट्त्रिंशत्सरिगुणगणमणिविपणीनां पं० तरुणकीर्तिगणीनामाचार्यपदं प्रदत्तम्-नाम श्रीतरुणप्रभाचार्याः; पं०लन्धि Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधानाचार्यगुर्वावली | ८५ निधानगणीनामभिषेकपदं प्रदत्तम् - नाम श्रीलब्धिनिधानोपाध्यायाः; क्षुल्लक क्षुल्लिकाद्वयं च बभूव, तन्नामानि जयप्रिमुनि-पुण्यप्रियमुनिक्षुल्लकौ जयश्री - धर्मश्रीक्षुल्लिके । दशभिः श्राविकाभिर्मालाग्रहणं कृतम् । अनेकश्रावक-श्राविकाभिः परिग्रहपरिमाण - सामायिकारोप- सम्यक्त्वारोपार्थं नन्द्यारोहश्च । सौत्रभुजापरिघसमुपार्जितविततनिर्निदानदानोलसितदन्तिदन्तवन्मुक्तोदक्षीरोदक्षीरडिण्डी.. ..दृहासकाशसंकाश यशः कुसुमसमुच्चय समन्वित सकलदिग्देवताचक्रवालेन ....बभूवे । ११४. ततश्च चतुर्मासी श्रीदेवराजपुरे श्रीजैनशासनसंस्थानां परमनिदानेऽपूर्वापरिशीलित श्रीस्याद्वादरत्नाकर महातर्करत्नाकर श्री तरुगप्रभाचार्य - श्रीलब्धिनिधानमहोपाध्यायानां सूक्ष्मशेमुषीविवरगोचरं कुर्वाणाः, स्वप्रान्त्यसमयमवलोक्य स्वर्गं विरचेव (१)वर्णिनीपाणिपीडनविधौ शुद्धक्षेत्रमवधार्य ते तस्थुः । ततो माघशुक्ल...... गाढज्वरश्वासादिरोगाबाधिते स्वनिर्वाणसमयं ज्ञात्वा श्री तरुणप्रभाचार्य - श्रीलब्धिनिधानमहामहोपाध्यायानां श्रीमुखेन स्वकीयपट्टयोग्यपश्चदशवर्षप्रमाणस्वशिष्यरत्नप्रधानसा० लक्ष्मीधर पुत्ररत्न साधुराजआम्बा-साध्वीनी कीकानन्दन - युगप्रधान कमला लीलावती लिलीलालासनश्रीमेरु महीधरमण्डन श्रीनन्दनाभिधानप्रधानकाननसमानं पद्ममूर्तिक्षुल्लकं स्वकीय पदसंस्थापनविषयां शिक्षां सर्वां दत्त्वा सं० १३८९ फाल्गुन कृष्णपञ्चम्यां पाश्चात्यप्रहरे श्रीचतुर्विधसंघेन सह दत्तमिध्यादुष्कृतदानाः स्वमुखोच्चारिताशनाः नानाराधनामृतपानाः पञ्चपरमेष्ठिश्रेष्ठध्यानसन्धानपश्चसौगन्धिकताम्बूलाखादनसुरभितानना रात्रिहरद्वयोद्देशे स्वर्गकमलापाणिपीडनविधिं विदधुः । ततः प्रातः समये साम्प्रतिकविषमकालकालरात्रन्यक्कारसमाचारचतुर भास्करप्रकार श्रीमद्विधिसंघमहाधार श्रीमजिनकुशलसूरियुगप्रवरास्तमनेन विधुरितान्तःकरणेनापि श्रीसिन्धुमण्डलनानास्थानवास्तव्य सुश्रावकसमुदायप्रवरेण श्रीदेवगुरुकार्यकरणप्रगुणेन पञ्चसप्ततिमण्डपिकामण्डितसमुद्दण्डदण्डविडम्बिताखण्डमण्डलविमाननिर्याणविमानविधानपूर्वकं निर्याणमहामहोत्सवञ्चक्रे । शरीरसंस्कारश्च सारघनसारागुरुकस्तुरिका श्रीमलयाचलसारचन्दनप्रमुख सुगन्धिद्रव्यैरेव विरचयाञ्चक्रे | Far संस्कारभूम्यां साधुराजरीहड पूर्णचन्द्र कुलप्रदीप - साधुराजहरिपालसुश्रावकवरेण सत्पुत्रसा०झाञ्झण-सा०यशोधवलप्रमुखसर्व परिवारपरिघृतेन समस्तशस्तदर्शनजनजातनेत्र पत्रसुधाधारापारणाकारणाप्रवीणरूपं श्रीभरताधिपविनिर्मितं श्रीमदष्टापदशिखरिशिखरशेखराय मानश्रीइक्ष्वाकु कुलवंशीय मुनिमतल्लिकावितानसंस्कारस्थानप्रधानस्तूपस्वरूपमतुच्छ म्लेच्छ कुलजनव्याकुलश्रीसिन्धु मण्डलमध्यनिवासिश्रावक लोकमनोऽवष्टम्भनादानान्तरीपं श्री स्तूपं कारयामास । ११५. ततश्च सं० १३९० वर्षे ज्येष्ठशुक्लपट्यां सोमवारे मिथुनलग्ने श्रीदेवराजपुरे श्रीयुगादिदेवविधिचैत्ये श्रीतरुणप्रभाचार्यैः श्रीजयधर्ममहोपाध्याय -श्रीलब्धिनिधान महोपाध्यायप्रमुख त्रिंशत्संख्याक मुनि... मालानेकसाध्वीनानाजनपदनगरग्रामवास्तव्यासंख्यस्वपक्ष-परपक्षसुश्रावक ब्राह्मण ब्रह्मक्षत्रिय राजपुत्र- तुरुष्कनाथाद्यनेकसहस्रसंख्यलोकमहामेलापकेन विधीयमानास्वमारिघोषणा, क्रियमाणासु नानाविधासु प्रोत्सर्पणासु, वितत्यमानेषु बहुविधेष्वचास्तिसत्रेषु, स्थाने स्थाने दीयमानेषु तालाशसकेषु गीयमानेष्वविधव सुधवनारीभिर्धवलमङ्गलेषु, संजायमानेषु समग्रजननयनप्रमोदनृत्याभिषेकेषु प्रेक्षणीयेषु, पुष्करावर्तमेघवदखण्डधनधान्यवस्त्र स्वर्णसुवर्णतुरङ्गमादिनानाविधमहादानधाराभिर्वर्षत्सु श्रावककदम्बकेषु, निजभुजार्जितामेयस्वापतेय बीजवपनक्षेत्र भूमिकासु क्रियमाणासु श्रीचतुर्विधसंघपूजासु, श्रीजिनकुशलसूरीणां शिक्षानुसारेण पद्ममूर्तिक्षुल्लकस्य श्रीजिनकुशलसूरीन्द्र पट्टसिंहासने संस्थापना विदधे । श्रीपूज्यादेशानुसारेण श्रीजिनपद्मसूरय इति नाम कृतम् । श्रीजिनपद्मसूरीणां पट्टाभिषेकमहोत्सवश्च रीहडकुलप्रदीपसाधुधनदेवपुत्ररत्न-साधुहेमलाङ्गज- साधुपूर्णचन्द्रपुत्ररत्लेन श्रीजिनशासनप्रभावनाकरणप्रवीणेन श्रीशत्रुञ्जयोज्जयन्तादिमहातीर्थयात्रा करण श्रीजिनचन्द्रसूरि-श्रीजिनकुशलसूरियुगप्रवरागमश्री सिन्धुदेशविहारकारापण श्रीआचार्य पद-श्रीउ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ खरतरगच्छालंकार पाध्यायसंस्थापनास्वपुत्रिकादीक्षादापनप्रमुखदन्तिदन्तावदातावदातव्रातसंजातसुयशःकुसुमश्रेणीसौरभभरसुरभितसर्वदिक्कुटुम्बकेन साधुराजहरिपालसुश्रावकेण पितृव्यसाधुकटुक-भ्रातृसाधुकुलधर-सत्पुत्रसाधुझाञ्झण-सा यशोधवलप्रमुखसकलपरिवारपरिकलितेन सर्वेषु देशेषु कुङ्कुमपत्रिकाप्रेषणपूर्व चतुर्दिक्षु सर्वस्थानश्रीविधिसंघान् समामन्त्र्य,मासैकादारभ्य प्रतिदिनं श्रीसाधर्मिकवात्सल्यादिनानाप्रभावनासंघपूजादिमहामहोत्सवेषु स्वभुजोपार्जितानेकसहस्रसंख्यरूप्यटङ्ककव्ययेन याचकजनमनःसन्तोषपोषपूर्वकं कारितः। तस्मिन् महोत्सवे साधुआम्बा-सा झाझा-सा०मम्मी-सा०चाहड-सा०धुस्सुर-श्रे०मोहण-सा नागदेव-सा गोसल -सा०कर्मसिंह-सा०खेतसिंह-साबोहिथप्रमुखनानास्थानवास्तव्यमहामहद्धिकसुश्रावकैश्च स्वकीयं स्वापतेयं सफलीचक्रे । तस्मिन्नेव महोत्सवे जयचन्द्र-शुभचन्द्र-हर्षचन्द्रमुनीनां महाश्री-कनकश्रीक्षुल्लिकायाश्च श्रीजिनपद्मसूरिभिर्दीक्षा प्रददे । पं०अमृतचन्द्रगणेर्वाचनाचार्यपदं प्रदत्तम् । अनेकश्राविकाभिर्माला गृहीता । अनेकश्रावक-श्राविकाभिः श्रीसम्यक्त्वारोप-श्रीसामायिकारोप-परिग्रहपरिमाणानि गृहीतानि । तदनन्तरं ज्येष्ठशुक्लनवम्यां साधुराजहरिपालकारितश्रीयुगादिदेवप्रमुखाईद्धिम्बानां स्तूपयोग्य-श्रीजेसलमेरुयोग्य-श्रीक्यासपुरयोग्य-श्रीजिनकुशलसूरीणां मूर्तित्रयस्य प्रतिष्ठामहोत्सवः पदस्थापनामहोत्सववत् सविस्तरतरः कृतः। तस्मिन्नेव च दिने महता विस्तरेण श्रीचतुर्विधसंघमहामेलापकेन श्रीजिनकुशलसूरीणां मूर्तिः स्तूचे संस्थापिता । तदनन्तरं पट्टाभिषेकमहोत्सवोपरि समागतश्रीजेसलमेरवीयश्रीविधिसमुदायगाढतराभ्यर्थनया श्रीउपाध्याययुगलप्रमुखसाधुद्वादशपरिवारपरिवृताः श्रीपूज्याः श्रीजेसलमेरवीयश्रीविधिसमुदायकारितस्वपक्ष-परपक्षातुच्छम्लेच्छानन्दकारिसविस्तरतरप्रवेशकमहामहोत्सवपूर्वकं श्रीपाश्वनाथदेवाधिदेवं नमाकृतवन्तः। प्रथमा चतुर्मासी च तत्र कृता। ११६. तदनन्तरम् , सं० १३९१ वर्षे पौषवदिदशम्यां मालारोपादिमहोत्सवं सविस्तरतरं विधाय, लक्ष्मीमालागणिन्याः प्रवर्तिनीपदं दत्त्वा, श्रीपूज्या वाग्भटमेरूपरि विहताः । तत्र च सा०प्रतापसिंह-सा०सातसिंहप्रमुखश्रीसमुदायेन श्रीचाहमानकुलप्रदीपराणकश्रीशिखरप्रमुखश्रीराजलोकनगरलोकसंमुखानयनपूर्वकं प्रवेशकमहोत्सवं विधाय श्रीयुगादिदेवमहातीर्थ नमस्कारिताः । तत्र च दिनदशकं श्रीसमुदायस्य समाधानं समुत्पाद्य, श्रीपूज्याः श्रीसत्यपुरोपरि विहताः। श्रीसत्यपुरे च राजमान्यसर्वसंघकार्यनिर्वाहणसमर्थसाधुनिम्बाप्रमुखश्रीसमुदायेन राणकश्रीहरिपालदेवप्रमुखश्रीराजलोक-नगरलोकसम्मुखानयनपूर्वकं प्रवेशकमहामहोत्सवः प्रचक्रे । श्रीमहावीरदेवं च श्रीपूज्या नमस्कतवन्तः। तत्र च माघशुक्लषष्ठयां श्रीसमुदायकारितं सकलजनचेतश्चमत्कारकारकं व्रतग्रहणमालारोपादिमहोत्सवं चक्रुः । श्रीपूज्यैस्तस्मिन् महोत्सवे नयसागर-अभयसागरक्षुल्लकयोर्दीक्षा प्रदत्ता । अनेकश्राविकाभिर्माला प्रगृहीता । श्रीसम्यक्त्वारोपश्च कृतः। तत्र च किंचिदूनं मासमेकं श्रीसमुदायस्य समाधानमुत्पाद्य, पश्चात् श्रीआदित्यपाटके संघपुरुषसा०वीरदेवादिसर्वसमुदायकारितसविस्तरतरप्रवेशकमहामहोत्सवेन श्रीशान्तिनाथमहातीर्थ नमश्चक्रुः । ततो माघशुक्लपूर्णिमायां सा जाहणकुलावतंससा०तेजपालप्रमुखश्रीसमुदायकारितः सविस्तरतरः प्रतिष्ठामहामहोत्सवो विरचयाञ्चक्रे । तस्मिन् महोत्सवे श्रीयुगादिदेवप्रमुखजिनविम्बपञ्चशत्याः श्रीपूज्यैः प्रतिष्ठा विदथे । ततः फाल्गुनाद्यषष्ठीदिने मालारोपण-श्रीसम्यक्त्वारोपादिमहोत्सवो विरचयामासे । ततः सं० १३९२ वर्षे मार्गशीर्षवदिषष्ठीदिने क्षुल्लकयोरुत्थापनाश्राविकामालाग्रहणादिमहोत्सवश्चक्रे । ११७. ततः सं० १३९३ वर्षे कार्तिकमासे श्रीपूज्यैलघुवयोभिरप्यवश्यकर्तव्यतया साधुतेजपालकारितसविस्तरतरघनसारनन्दिपूर्वकं प्रथमोपधानतपो व्यूढम् । ततः श्रीश्रीमालकुलावतंससा० सोमदेवसुश्रावकस्य श्रीजीरापल्लीसमलङ्कारश्रीपार्श्वनाथजिननिनंसाविहितगाढतराभिग्रहस्य विज्ञप्तिकया फाल्गुनाद्यदशम्यां श्रीपत्तनात् प्रस्थाय, नारउद्रस्थाने Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव युगप्रधानाचार्यगुर्वावली। मं० गेहाकेन कारितमहाप्रवेशका दिनद्वयमवस्थाय श्रीआशोटास्थाने श्रीपूज्याः समाययुः । तत्र च साधुश्यामलकुलो सेन श्रीशत्रुञ्जयादिमहातीर्थयात्रनिर्माणविश्वविख्यातनानावदातेन सङ्घपुरुषसाधुवीरदेवसुश्रावकेण श्रीविधिसमुदायसहितेन राज० श्रीसं(रु?)द्रनन्दनराज गोधा-सामन्तसिंहादिसकलराजलोकनागरिकसम्मुखानयनपूर्वकं श्रीभीमपल्लीकारितयुगप्रवरागमश्रीजिनकुशलसूरिप्रवेशकमहोत्सववत् श्रीपूज्यानां सविस्तरतरः प्रवेशकमहोत्सवश्वके । ततश्च साधुमोखदेवकारितविहारक्रमोपक्रमा विषमकालेऽप्यस्मिन् चौरचरटप्रचारप्रचुरेऽपि मार्गे नगरमार्ग इव निःशङ्काः श्रीपूज्या ब्रजदीस्थाने पादाववधारयाञ्चक्रुः । तत्र च साधछञ्जलविपुलकुलगगनतलसमलङ्करणसहस्रकिरणकल्पेन सामोखदेवसुश्राव विधिसमुदायसहितेन चाहमानवंशमानससरोराजहंससमानखवाचाप्रदाननिर्वाहणप्रधानराज श्रीउदयसिंहप्रमुखराजलोकनागरिकलोकसम्मुखानयनेन महाप्रभावनापुरःसरप्रवेशकमहामहोत्सवश्वके । ११८. ततस्तत्रैव वर्षे राज० श्रीउदयसिंहमहाप्रसादमासाद्य साधुराजमोखदेवेन साधुराजसिंहतनय-सा०पूर्णसिंहसाधनसिंहादिसकलखकीयकुटुम्बसहितेन श्रीअर्बुदाचलादितीर्थयात्रां कर्तुं श्रीपूज्या विज्ञपयामासिरे। श्रीपूज्यश्च ज्ञानध्यानविधानसमनुकृतसर्वस्वपूर्वजयुगप्रधानपरम्परावदातैनिर्विघ्नमिति परिभाव्य श्रीतीर्थयात्रामहत्प्रभावनाङ्गं श्रीसम्यक्त्वनिर्मलतानिदानं सुश्रावकाणां कर्तव्यैवेति तद्विधाने समादेशः प्रादायि । ततश्च श्रीसपादलक्षीय-श्रीश्रीमालीयसा०वीजा-सा देपाल-सा०जिनदेव-सा०साङ्गाप्रमुखस्वपक्ष-परपक्षश्रावकसङ्घकुङ्कुमपत्रिकाप्रदानेन, मार्गे च सा०मूलराज-सा० पद्मसिंहाभ्यां सर्वसङ्घस्य शुद्धौ क्रियमाणायां समाकार्य, चैत्रशुक्लषष्ठीदिने आदित्यवारे श्रीपूज्यानां पार्थात् श्रीतीर्थयात्रायोग्यनूत्नकारितश्रीदेवालये श्रीशान्तिनाथविम्बस्य संस्थापनावासक्षेपः साधुमोखदेवेन कारयामासे । ततोऽष्टालिकामहोत्सवान् महाप्रभावनया विधाय चैत्रशुक्लपूर्णिमायां श्रीबूजडीवास्तव्य-सा०काला--सा कीरतसिंह-सा० होता-सा०भोजाप्रमुख श्रीविधिसंघ-मं०ऊदाप्रमुखान्यश्रावकसंघमेलापकेन श्रीदेवालयप्रचलनमुहूर्त जज्ञे। श्रीपूज्या अपि श्रीलग्धिनिधानमहोपाध्याय-वा० अमृतचन्द्रगणिप्रमुखमुनिमतल्लिकापञ्चदश-श्रीजयद्धिमहत्तराप्रमुखसाध्व्यष्टकपरिवृताः श्रीसद्धेन सह श्रीतीर्थयात्रायां प्रचेलुः । ११९. ततः श्रीबूजद्रीसङ्घः श्रीसपादलक्षीयसङ्घन सह मिलिखा श्रीनाणातीर्थे समाययौ । तत्र च सा० सूराप्रमुखश्रावकवृन्दस्वीकृतश्रीइन्द्रपदादिनिर्माणेन महतीं प्रभावनां विधाय, श्रीमोखदेवप्रमुखश्रीसङ्घः श्रीमहावीरमहाप्रासादे रूप्यटङ्क शत २ द्रव्यं सफलीचकार । ततः श्रीपूज्याः शुभशकुनैः प्रोत्साह्यमानाः समस्तश्रीविधिसङ्घनाहमहमिकया वरिवस्यमानाः श्रीअर्बुदाचलालङ्कारसकललोकमनोपहारविज्ञानवितानसारश्रीविमलविहार-श्रीलूणिगविहार श्रीतेजसिंहविहारमूलालङ्कारश्रीनाभेय-श्रीनेमीश्वरप्रमुखश्रीतीर्थकरवारं भावसारं नमश्चक्रुः । तत्र च सा०मोखदेवप्रमुखश्रीविधिसङ्घन श्रीशक्रपदामात्यपदादिपदनिर्माणमहाध्वजारोपणावारितसत्रादिमहामहोत्सवपरम्परां विरचयता रूप्यटङ्कशत५ प्रमाणं द्रविणं सफलीचक्रे । ततः श्रीप्रह्लादनपुरस्तूपालङ्कारश्रीमजिनपतिसूरियुगप्रधानमूर्ति मुद्रस्थलाग्रामे श्रीपूज्याः सकलसवसमन्विताः प्रणेमुः। ततः श्रीजीरापल्लयां जाग्रत्प्रभावकमलासनाथश्रीपार्श्वनाथं श्रीपूज्याः श्रीसङ्घसमन्विताः प्रणमन्ति स्म । तत्र च श्रीसङ्घन श्रीशक्रपदादिमहोत्सवान् विधाय रूप्यटङ्कशत १५० कृतार्थीकृतम् । ततः स्थानात् प्रस्थाय श्रीसङ्घः श्रीचन्द्रावत्यां सकलसङ्घपादावधारणं विदधे । तत्र च श्रीसङ्घस्य साधुझाञ्झण-मं०कूपाप्रमुखनागरिकसुश्रावकलोकेन श्रीसाधर्मिकवात्सल्यश्रीसङ्घपूजादिविधानेन बहुमानप्रदानं प्रचक्रे । श्रीसद्धेन च तत्रापीन्द्रपदादिविधानेन श्रीयुगादिदेवप्रासादे रूप्यटङ्कशत२ कृतार्थयामासे। ततोऽपि प्रस्थाय श्रीआरासने श्रीनेमीश्वरप्रमुखपश्चतीर्थी श्रीपूज्याः श्रीसङ्घन सह नमन्ति स्म । तत्रापि श्रीसङ्घन पूर्ववच्छत्रपदादिनिर्माणेन रूप्यटङ्कशत १५० सफलं निर्ममे । ततश्च श्रीतारङ्गके श्रीकुमारपालभूपालकीर्तनं श्रीअजितस्वामिनं श्रीसङ्घः प्रणनाम । तत्र च विशेषतरं श्रीसद्धेन श्रीशक्रपदादिनिर्माणेन रूप्यटङ्कशते २ सफले विदधाते । ततो व्याघुव्य श्रीसङ्घः श्रीत्रिशृङ्गमके समागमत् । तत्र च मं० साङ्गणपुत्ररत्न-मं० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ खरतरगच्छालंकार मण्डलिक-मं०वयरसिंह-सानेमा-सा०कुमरपाल-सा०महीपालप्रमुखत्रिशृङ्गमकसङ्घन महाराजश्रीमहीपालाङ्गज-महाराजश्रीरामदेवविज्ञपनं कृला, तदीयनिरोपमासाद्य निःस्वानेषु वाद्यमानेषु सविस्तरतरः श्रीसङ्घस्य नगरप्रवेशकमहामहोत्सवश्चक्र | श्रीपूज्यैश्च सर्वचतुर्विधसङ्घसमन्वितैः सविस्तरा सर्वप्रासादेषु चैत्यप्रपाटी विदधे । श्रीसङ्घश्च श्रीशक्रपदादिनिर्माणेन रूप्यटङ्कशत १५० श्रीपार्श्वनाथप्रासादे कृतार्थीचकार । १२०. ततः प्रतिदिक्प्रसर्पत्प्रतिनिनादश्रीपूज्यनिष्प्रतिमप्रातिभवैभवादिगुणगणसंभवयशोवादसमाकर्णनेन संजातकौतुकसमाजः श्रीरामदेवमहाराजः सा०मोखदेव मं०मण्डलिकाग्रे प्रतिपादयामास- युष्मद्गुरूणां लघुवयसामपि महान् प्रज्ञाप्रकर्षः श्रूयते । अतस्तदवलोकनार्थमहं तत्रागमिष्यामि; अथवा तान् मम पार्श्व समानयत' । ततः सामोखदेवमं०मण्डलिकाभ्यां श्रीपूज्या महताऽऽग्रहेण विज्ञप्यन्ते स्म । ततस्तदाग्रहाच्छ्रीपूज्याः श्रीलब्धिनिधानमहोपाध्यायादिसाधुपरिवृताः श्रीरामदेवमहाराजसभायां पादा अवधारितवन्तः। श्रीरामदेवमहाराजः श्रीपूज्यान समागच्छतोऽवलोक्य स्वकीयासनात् समुत्थाय श्रीपूज्यपादान ननाम । श्रीपूज्योपवेशनार्थ चतुष्किकां मोचयामास च । श्रीपूज्यैश्वाशीदिः प्रादायि । तत्र चोपविष्टेन श्रीसारङ्गदेवमहाराजव्यासेन स्वोपज्ञं काव्यं व्याख्यायि । तत्काव्ये च श्रीलब्धिनिनमहोपाध्यायैः क्रियापदे कूटं निरकास्यत । ततः श्रीरामश्चित्ते चमत्कृतः । पुनः पुनः सभायां बभाण-'अहो ! अमीषामुपाध्यायानां जाग्रत्समग्रशास्त्ररहस्यानां महाभटवद्वाक्पटुता, येनास्माकमपि सभायां व्यासवचने कूटं निष्कासितम्' । ततः सर्वाऽपि राजपर्पत् मस्तकधूननेन ताण्डवं नाटयन्ती श्रीपूज्यराजश्रीमदुपाध्यायमिश्रगुणवर्णनपरा जज्ञे । ततः श्रीपूज्यैः श्रीराममहाराजवर्णनं तात्कालिकयार्यया विदधे । तथा हि विहितं सुवर्णसारङ्गलोभिनापि त्वयाऽद्भुतं राम!। यत्ते लङ्कापुरुषेण ननु ददे श्रीवरा सीता ॥ ततः सर्वाऽपि सभा चमत्कृता । ततः श्रीरामेण श्रीसिद्धसेनप्रमुखाचार्यान् समाकार्य, तत्प्रत्यक्ष श्रीपूज्यपार्थात् कायस्थकथितं विकटाक्षरं काव्यमलेख्यत । तच्च श्रीपूज्यनूतनदृष्टराजसभायामपि धाष्टर्थशालिभिरिमेकं वाचयिखोत्पुंस्य च मुखे नाममालामनवच्छिन्नवाण्या गुणयत् सर्वकं समलिख्यत । लोकश्च सर्वोऽपि श्रीपूज्यानां संमुखो बभूव । ततः पुनरप्येकस्यैकस्य श्लोकस्य प्रत्येकमेकमेकमक्षरमाचार्य-व्यास कायस्थपाल्लेिखयित्वा श्रीपूज्यैरुत्पुसितम् । एवं द्वितीयवारं तृतीयवारमित्यादि यावत् श्लोकत्रयं सम्पूर्णमजनिष्ट । ततः श्रीपूज्यनिष्प्रतिमप्रज्ञापोषविशेपशालिभिः सम्पूर्णश्लोकत्रयं पट्टकेऽलेखि । तेन च सुकर्मणा विश्वत्रयेऽपि स्वकीयश्लोकराजहंसः खेलनार्थमप्रैषि । ततः सर्वाऽपि राजसभा-'अद्यापि विषमकलिकालविलुप्तसकलकलास्वपि लोकेषु श्रीजैनशासने विलोक्यन्तेऽतिशायिकलाकलापकलिताः श्रीसूरिवराः' इति श्रीपूज्यगुणगणवर्णनपरा जज्ञे। श्रीपूज्याश्च सराजराजसभाचेतश्चमत्कारं समुत्पाद्य श्रीसद्धे पादाववधारयाश्चक्रुः। १२१. ततश्चन्द्रावत्यादिमार्गेण श्रीचतुर्विधसङ्घन वरिवस्यमानाः श्रीपूज्या बूजडीस्थाने पादाववधारयामासुः । तत्र च नियूंढश्रीसङ्घयाग्भारेण निर्निदानस्वर्णरूप्यवस्त्राश्वप्रमुखवस्तुवितानमहादानप्रदानपवित्रीकृतामेयस्वकीयस्वापतेयसारेण सङ्घपुरुषसाधुमोखदेवसुश्रावकवरेण श्रीउदयसिंहमहाराजप्रमुखराजलोकनागरिकलोकसंमुखागमनेन....... वाद्यमानेषु सर्वेष्वपि वाद्येषु श्रीसङ्घसहितश्रीदेवालयस्य प्रवेशकमहामहोत्सवो विरचयामासे । श्रीपूज्याश्च सपरिवारास्तत्र चतुर्मासी चक्रुः॥ [९३] ॥ समाप्तिमगमदत्रेयं गुर्वावली ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलिः । १.-श्रीवर्द्धमानसूरिप्रबन्धः। अथ वृद्धाचार्याणां प्रबन्धाः संक्षेपेण कथ्यन्ते १. अहन्नया कयाई सिरिवद्धमाणसूरिआयरिया अरनचारिंगच्छनायगा सिरिउज्जोयणसूरिपट्टधारिणो गामाणुगामं दूइज्जमाणा अप्पडिबंधेण विहारेण विहरमाणा अब्बुयगिरितलहट्टीए कासदहगामे समागया । तयणंतरे विमलदंडनायगो पोरवाडवंसमंडणो देसभागं उग्गाहेमाणो सोवि तत्थेव आगओ। अब्बुयगिरिसिहरं चडिओ। सव्वओ पव्वयं पासित्ता पमुइओ चित्ते चिंतेइ-'अत्थ जिणपासायं करेमि' । ताव अचलेसरदुग्गवासिणो जोगी-जंगम-तावससन्नासि-माहणप्पमुहा दुट्ठा मिच्छत्तिणो मिलिऊण विमलसाहुं दंडनायगं समीवं आढत्ता । एवं वयासी-'भो विमल ! तुम्हाणं इत्थ तित्थं नत्थि। अम्हाणं तित्थं कुलपरंपरायातं वट्टइ । अओ इहेव तव जिणपासायं काउंन देमि । तो विमलो विलक्खो जाओ । अब्बुयगिरितलहट्टीए कासद्दहगामे समागओ । जत्थ वद्धमाणसूरी समोसड्डो तत्थेव । गुरुं विहिणा वंदिऊण एवं वयासी-'भगवन् ! इहेब पव्यए अम्हाणं तित्थं जिणपडिमारूवं वट्टइ त्ति नो वा ? । तओ गुरुणा भणियं-'वच्छ ! देवयाआराहणेण सव्वं जाणिज्जइ । छउमत्था अन्नहा कहं जाणंति। तओ तेण विमलेण पत्थणा कया। किं बहुणा वद्धमाणमूरीहिं छम्मासीतवं कयं । तओ धरणिंदो आगओ। गुरुणा कहियं-'भो धरणिंदा ! सूरिमंतअधिट्ठायगा चउसट्टि देवया संति । ताण मज्झे एगोवि नागओ, न य किंचि कहियं, किं कारणं ?'-धरणिंदेणुत्तं-- भगवन्! तुम्हाणं सूरिमंतस्स अक्खरं वीसरियं । असुद्धभावाओ देवया नागच्छति । अहं तवबलेण आगओ । गुरुणा उत्तं'भो महाभाग ! पुव्वं सूरिमंतं सुद्धं करेहि। पच्छा अन्नं कर्ज कहिस्सामि'त्ति। धरणिंदेणुत्तं-'भगवन् ! मम सत्ती नत्थि सूरिमंतक्खरस्स सुद्धासुद्धं काउं तित्थंकरं विणा' । तओ सूरिणा सूरिमंतस्स गोलओ धरणिंदस्स समप्पिओ । तेण महाविदेहखित्ते सीमंधरसामिपासे नीओ। तित्थंकरेण सूरिमंतो सुद्धो कओ । तओ धरणिंदेण सूरिमंतस्स गोलओ सूरीण समप्पिओ। तओ वारत्तयसूरिमंतसमरणेण सव्वे अहिट्ठायगा देवा पञ्चक्खीभूया ! तओ गुरुणा पुट्ठा-'विमलदंडनायगो अम्हाणं पुच्छइ-अब्बुयगिरिसिहरे जिणपडिमारूवं तित्थं अच्छइ णवा' । तओ तेहिं भणियं-'अब्बुयादेवीपासायवामभागे अदबुदआदिनाहस्स पडिमा वट्टइ । अखंडक्खयसत्थियस्स उवरि चउसरपुप्फमाला जत्थ दीसइ, तत्थ खणियव्वं' । इय देवयावयणं सुच्चा गुरुणा विमलसाहुस्स पुरओ कहियं । तेण तहेव कयं । पडिमा निग्गया। विमलेण सव्वे पासंडिणो आहूया। दिट्ठा जिणपडिमा। सामवयणा जाया । तओ पासायं काउमारद्धं विमलेण । तओ पासंडेहिं भणियं-'अम्हाणं भूमि पूरिऊण दव्यं देहि । तओ विमलेण भूमिं दव्वेहिं पूरिऊण दव्यं दिन्न । तओ पासायं । बद्धमाणसूरीहिं तित्थं प[य]डियं न्हवणपूयाइयं सव्वं कयं । तओ गयकालेण मिच्छत्तिणो तस्साधीणा जाया। तओ बावनजिणालओ सोवण्णकलसदंडधयसहिओ पासाओ निम्मविओ विमलेण । अट्ठारसकोडी तेवनलक्खसंखो दवो लग्गो । अञ्जवि अखंडो पासाओ दीसह ॥ इय वद्धमाणसरिप्पबंधो समत्तो॥ यु. गु० १२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिः । २. - जिनेश्वरसूरिप्रबन्धः । i २. अन्नया अवसरे सिरिवद्धमाणसूरिणो महीमंडले विहरमाणा सीधपुरनयरे संपत्ता । जत्थ सरस्सई नई सया वहइ । तत्थ बहवे माहणा न्हायंति । तेसिं मज्झे पुक्खरणागोत्तीओ माहणो सयलविजापारगो जग्गाभिहाणो न्हाणं काऊण बाहिर भूमीए गयाणं सूरीणं संम्मुहं मिलिओ । जिणमयं निंदिउं लग्गो - एए सेयंवरा मुद्दा, वेदबाहिरा अपवित्ता । ओ गुरुणा उत्तं- 'भो जग्गानाममाहणा किं बाहिरन्हाणेण । तुह सरीरसुद्धी नत्थि, जेण तुमं मत्थए मडयं वहसि । ओ विवाओ जाओ - 'जइ मम सिरो मडओ तओहं तव सीसो भवामि, अन्नहा मम सीसो तुमं । गुरुणा भणियं - ' एवं होउत्ति' तओ कुद्धेण तेण सिरवेडणवत्थो दूरी कओ । पडिओ मडयमच्छो । पगो हारिओ तओ । गुरुसमीवे सीसो जाओ । तओ दिक्खं सिक्खं गहिऊण सिद्धंतविऊ जाओ । गुरुणा जुग्गं जाणिऊण नियपट्टे ठविओ । जिणेसरसूरी इह नाम कयं । पच्छा वद्धमाणसूरी अणसणं काऊण देवलोगं पत्तो । तओ जिणेसरसूरी गच्छनायगो विहरमाणो वसुहं अणहिलपुर पट्टणे गओ । तत्थ चुलसीगच्छवासिणो भट्टारगा दवलिंगिणो मढवइणो चेइयवासिणो पासइ । पासित्ता जिण सासनइकए सिरिदुल्हहरायसभाए वायं कथं । दससय चउवी से (?) वच्छरे ते आयरिया मच्छरिणो हारिया । जिणेसरसूरिणा जियं । रन्ना तुट्टेण खरतर इइ बिरुदं दिनं । तओ परं खरतरगच्छो जाओ ।। इति संक्षेपेण जिणेसरसूरिप्रबन्धः || २ || ९० ३. - श्री अभयदेवसूरिप्रबन्धः । ३. अह जिणेसरसूरिपट्टधारी छविगयपरिहारी जिणचंदसूरी जाओ । तप्पट्टे सिरिअभयदेवसूरिणो आयरिया गुञ्जरभूमिं विहरमाणा खंभाइतिनगरे आगया । दुकम्मवसेण तेसिं सरीरे कुट्ठो जाओ । सासणदेवया आगंतूण सुत्तस्स कुक्कडीओ छोडणत्थं गुरूणं हत्थे समप्पिया । ते आयरिया छोडिउं असमत्था भणति - ' वयं गलियकुट्टधारिणो सुत्ततारच्छोडेउं नत्थि सत्ती' । सासणदेवया भणियं - 'भो आयरिया ! तुमं नवंगसुत्तवित्तिकारी भविस्ससि । तित्थं पभावसिसीह तए चिंता कावि न कायव्या । परं खंभाइतिनगरवाहिरिया सेढी नाम नई अस्थि । खरपलासस्स अहे पासनाहस्स पडिमा वढ्इ । तत्थ गंतूण तस्स थुद्धं कुरु' । तओ अभयदेवसूरिआयरिया देवयावयणं सुणिऊण वाहिगिं आरुहिऊणं संघसहिया तत्थ गया । "जयतिहुयण वरकप्परुक्ख" इच्चाइ बत्तीसवित्तजुत्तं नमोकारं कथं । पासनाहपडिमा पयडीभूया । संघेहिं विहिणा न्हवणपूयाविही कया । तप्पभावाओ अभयदेवस्स कुटुं गयं । सुवणवन्नो सरीरो जाओ । तओ 'जयतिहुयण' स्स दो वित्तं भंडारियं । संपइ तीसं वित्तं वट्टइ । सबै पढंति । अहुणा खरयरगच्छे 'जयतिहुयण' नमोकारं विणा पडिक्कमणं न लब्भइ । इइ गच्छ समायारी गुरुसंपदाओ ।। इति श्री अभयदेवसूरिप्रबन्धः ॥३॥ ४. - श्रीजिनवल्लभसूरिप्रबन्धः । ४. अह अभयदेवसूरिपट्टे जिणवल्लहरी जाओ । तप्पबंधी लिहिज्जइ संखेवेण | मालवदे से उज्जेणीनयरीए कचोलायरिओ चेइयवासी परिवसइ । तस्स सीसो [जिण] वल्लहो नाम । सो संसाराओ विरतचित्तो संवेगपरो । किं कुणइ कुसंगे पडिओ । अह अन्नया, कच्चोलायरियस्स सिर्द्धतस्स भंडारो अस्थि, इक्कार संगाइसुत्तस्स पुत्थयाणि संति, परं सो आयरिओ जिणवल्लहस्स सिर्द्धतं न पाढइ न य दंसेइ । जओ सयं सिढिलो । अन्नया एगंतेण जिणवल्लहेण त्थओ छोडिओ । एगा गाहा निग्गया असणे देवदत्र्वस्स, परत्थीगमणे तहा । सत्तमं नरयं जंति, सत्तवाराओ गोयमा ॥ १ ॥ इइ गाहाअत्थं चिंतिऊण संसाराओ विरत्तो नीसरिऊण अणहिलपुरपट्टणे गओ । तत्थ चुलसी पोसहसाला, चुलसीगच्छवासिणो भट्टारगा वसंति । जिणवल्लहो जत्थ जत्थ पोसहसालाए गच्छइ, पुच्छर, पिच्छह, कत्थवि चित्तरई न Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलिः। जायइ । पच्छा अभयदेवमूरिपोसहसालाए गओ। दिट्ठो सुविहियचूडामणिनिग्गंथो आयरिओ । तस्स सयासे दिक्खा गहिया। कमेण जोगवाहाविऊण गीयत्थो कओ। सव्वसंघअब्भत्थणावसाओ एगारह सइ सतसढे वरिसे अभयदेवसूरिणा सरिमंतो दिनो जिणवल्लहसरि इइ से नाम विहियं । सव्वत्थ विहरइ विहिपक्खथापगो सुविहियचक्कचूडामणी। संवेगपरायणो विहरंतो मेइणि मेदपाडदेसे चित्तकूडदुग्गे संपत्तो। तओ मिच्छत्तबहुलो लोओ जिणधम्म कोवि न पडिवजेइ । तओ सूरी चामुंडादेवीपासाए ठिओ । तओ रयणीसमए चामुंडा आगया। कंपियं पासायं । गुरूणं उवसग्गं काउमाढत्ता । सूरिणा सूरिमंतबलेण खीलिया वसीकया। छागाइजीववहबलिं छंडावियं । जिणसासणस्स पभावणा जाया। देवया भणियं-'मम नामेण गच्छनामं कुणह, जहा संतुट्ठा सहायं करेमि तुम्हं' । गुरुणा तहेव कयं । सव्वे लोया बोहिया । सम्मत्तं दिन । ५. अन्नं च-जिणवल्लहसूरिसमीवे एगो सावगो साहारण इइ नामो निद्धणो धम्मिओ चिट्टइ। गुरुणा तस्स दसकोडिदव्वस्स परिग्गहो दिनो । रायपहाणपुत्तेण हसियं लोगसमक्खं । एसो दरिद्दी गिहे गिहे भोयणं करेइ । एयस्स दसकोडिदव्वपरिग्गहं पस्सह । गुरुणो वि तारिसा । तओ गुरुणा उत्तं-'भो पहाणपुत्त नो हसियव्वं एयस्स । एसो तव मत्थयाओ [क]करं उत्तारिस्सइ ति कटु । अन्नया गुरुवयणाओ साधारणसावगेण पंचसयमयणसगडाणि गहियाणि । तम्मज्झे उबरि मयणं मज्झे सुवन्नं । विक्वियं धणड्डो जाओ। रायपहाणपुत्तो रन्ना दंडिओ, बंधिओ। दव्वं नत्थि तस्स सिरे कक्करं दिन्न । साहारणसावगेण कोडिदव्वं दाऊण छोडाविओ । जिणपासायं कारियं चित्तकूडनगरे । जिणवल्लहरिणा पइट्टियं । सेत्तुजे संघाहियो जाओ । साहारणसावगो देवगुरुपयभत्तो परमसुसावगो। अन्नं च - वागडदेसे दससहसगृहाणि सिरिमालाणं पडिवोहियाणि जिणवल्लहसूरिणा। पिंडविसुद्धियगरणं च रइयं ।। इति जिनवल्लभसूरिप्रबन्धः ॥४॥ ५.-श्रीजिनदत्तसूरिप्रबन्धः । ६. जिणवल्लहरिपट्टे जुगप्पहाणा जिणदत्तमरिणो अणहिलपुरपत्तणे विहरिया । तत्थ सिरिनागदेवो नामसावगो परिवसइ । तस्स संसओ जाओ जुगप्पहाणस्स । सव्वे साहुणो अभिमाणवसेण नियनियगच्छे अप्पाणं आयरियं जुगप्पहाणतं वयंति । सम्मं न नजइ केणावि । तओ नागदेवसावगो गिरनारपब्बए अंबिकादेवीसिहरे गंतूण अट्ठमं तवं कयं । अंबिका पञ्चक्खीभूया । तस्स हत्थे अक्खरा लिहिया। एवं वयासी-'भो नागदेवसावगा! तुह चित्त जुगप्पहाणस्स संसओ अत्थि । गच्छह णं देवाणुप्पिया तुम अणहिलपुरपत्तणे । सव्याए पोसहसालाए चुलसीगच्छठियाणं आयरियाणं दरिसह नियहत्थं । जो हत्थक्खराणि वाएइ सो जुगप्पहाणो नायव्यो' । तओ देयावयणेणं नागदेवो तत्थ गओ। सव्याए पोसहसालाए आयरियाणं नियहत्थं दरिसियं, न कोवि वाएइ । तओ सोसावओ खरतरगच्छाहिवस्स जिणदत्तसूरिणो पोसहसालाए गओ। वंदिओ सूरी दिट्ठो हत्थो । मरिगा मोणं कयं । महाणुभागा नियगुणथुत्तिं न कुव्वंति, लजंति य । तओ सूरिणा तस्स समणोवासगस्स हत्थे वासक्खेवो कओ । गुरूणं आएसवसाओ सीसेण इइ अक्खराणि वाइयाणि दासानुदासा इव सर्वदेवा यदीयपादाब्जतले लुठन्ति । मरुस्थलीकल्पतरुः स जीयाद् युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥१॥ तओ नागदेवेण निस्संसएण तिपयाहिणीकरेमाणो बारसावत्तवंदणेणं बंदिओ । सव्वविक्खाओ जाओ। ७. अन्नया जिणदत्तसूरी अजयमेरदुग्गं पइ विहरिओ। तत्थ चउसहिजोगिणीपीढं । जया जिणदत्तसूरी इत्थ चिट्ठिस्सइ, तया अम्हाणं पूयासकारो न भविस्सइ त्ति कटु, जोगिणीहिं विचिंतिऊण चउसट्ठिसावियारूवं काऊण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलिः । I वक्खाणमज्झे समागया । दुट्ठा देवीओ छलणत्थं । तओ सूरिणा सूरिमंतधिट्ठायगवसेण खीलिया थंभिया । उडिउं न सक्का । तओ दयावसेण मुक्का । अन्नुन्नं वायाबंधो कओ । जत्थ अम्हे न तत्थ तुम्हे । अहूंठपीठे तुमे न गंतव्यं । पढमं एगं उणीपीढं । बीयं दिल्लीपीढं । तइयं अजयमेरदुग्गे पीढं । अद्धं भरवच्छे । जोगिणीहि भणियं - 'भो भट्टारगा ! जो तुम्ह सीसो तुम्हें पट्टे सो अम्हाणं पीठे न विहरइ । जइ विहरइ तया वध-बंधादिकट्टं सहइ-त्ति नियमो जहा जिणहंससूरी । तओ जिणदत्तसूरीहिं तह त्ति कयं । तओ आयरिया सिंधुमंडले विहरिया । तत्थ इगलक्खासीइसहस्साणि ओसवालाणं गेहाणि पडिबोहियाणि । तओ उच्चनगरे गया । तत्थ मिच्छदिट्ठी हिं एगो माहणो छुहोअरणो रोगघत्थो मुयमाणो जिणालए मुको मडओ । तओ संघेहिं जिणदत्तसूरी विन्नत्तो - 'भगवन् ! माहणेहिं दुट्ठत्तं विहियं । किं aas ?'. तओ गुरुणा परकाय पवेसविज्जाए जिनालयाओ मडयं माहणं सजीवं काऊण नारायणपासाए खित्तं । माहा सचिंता जाया । गुरुसमीचे आगया माहप्पं दडूण चरणे पडिया । पुणरवि गुरुणा मडयं सजीवं काऊण सयमेव मसाणभूमीए गंतूण पडिओ । जिणसासणस्स महिमा कया । सव्वे माहणा सावया जाया । मिच्छतं परिहरियं । एवं जेसलमेर - बाडमेर - मम्मणवाहण - मरवट्टपमुहनगराणि विहरिऊण ठाणे ठाणे पभावं काऊण पंचनदे पत्ता । जत्थ पंच नईओ मिलियाओ । सोमरो नाम जक्खो पडिबोहिओ । जया जिणवल्लहसूरी सग्गं गओ तया अट्ठायरिया गच्छावासे । एगो आयरिओ पुन्वदिसाए रुदओली नगरे जिणसेखरसूरि इइ नामेण भट्टारगो रुहपल्ली गच्छाहिवो जाओ । जिणवल्लहरिपदे अने सत्तायरिया जालउरनगरंमि मिलिऊण मंतं इइ कयं । समग्गसंघगच्छ परिवारिया बीयं भट्टारगं करिसामि, जिणवलसूरिपट्टे । तओ दक्खिणदे से देवगिरिनगरे जिणदत्तगणी चउमासी टिओ अस्थि । तं सपभावगं गीयत्थं पट्टजुग्गं जाणिऊण संचेहि आहूओ। पट्टठावणा दो मुहुत्ता गणिया । तओ संघपत्थणावसाओ जिगदत्तगणी चलिओ | मालवदे से उणीनयरीए आगओ विहरंतो । तंमि अवसरे जिणवल्लहदव्यगुरुस्स कच्चोलायरियस्स अंतकालो वहइ । तओ कच्चोलायरिएण जिणदत्तगणिपासाओ आराहणा गहिया । सुहझाणेण मओ । सोहम्मे कप्पे सुरो जाओ। जिणदत्त गणी अग्गे चलिओ । जीहरणिनामनगरउज्जाणे मुण्णदेवालए ठिओ । तत्थ पडिक मणं काउमारद्धं । तत्थ कच्चोलायरियस जीवो देवो उद्दंड पड पचणलहरीहिं खुब्भमाणो पयडीभूओ । गुरुणा उत्तं- 'कोसि ?' । तेणुत्तं - 'अहं तुपसायाओ देव पाविओ' । तओ तेण जिगदत्तगणीणं सत्त वरा दिन्ना । तंजहा- तुह संघमज्झे एगो सड्ढो ओ होही, गामे वा नगरे वा. - इय पढमवरो |१| तुह गच्छे संजईणं रिउपुष्कं न हविस्सह-- बीओ बरो । २ तुह नामेण बिज्जुलिया न पडिस्सइ - तइओ वरो १३ | तुह नामेण आंधीवधूलाइ परिभवो टलिस्सइ - चउत्थो वरो ॥४॥ अभि पंचम | ५ | सैन्यजलथंभो छट्टो | ६| सप्पविसो न पहविस्सइ - सत्तमो वरो | ७| अन्नं च पढममुहुते पट्टे मा उवविससि, तुच्छाऊ भविस्ससि । बीयमुहुत्ते तु जुगप्पहाण जिण सासणप्पभावगो भविस्सइ (०सि) । तुह गच्छे दसस हुण गणिमुहा, धम्मदेववाणायरियाइ पयत्था । सत्तसया साहुणीणं संपया भविस्ससि । इइ वयणं कहिऊण देवो अदिट्ठो जाओ । तओ गणी वीयमुहुत्ते जालउरदुग्गे एगारहसयइगुणहत्तरे वरिसे जिणदत्तसूरी पट्टे ठविओ सव्वसंघेहिं । जारिसो जाओ। पुणो विहरंतो अजयमेरदुग्गे पत्तो । पडिकमणमज्झे विज्जू उज्जोयं करेमाणा थंभिया । जिणदत्तसूरी सवाउयं पालित्ता सग्गं गओ । तत्थेव अजवि धुंभो वट्ट || इति संक्षेपेण जिणदत्तसूरि 1 प्रबन्धः ||५|| ९२ ६. - श्री जिनचन्द्रसूरिप्रबन्धः । ८. जिणदत्तसूरिपट्टे जिणचंदसूरी मणियालो जाओ । तस्स भालयले नरमणी दीपइ । सो वि जेसलमेरदुग्गाओ ढिल्लीनयरवासिसंघेण आहूओ । तओ सूरिणा संघस्स लेहो पेसिओ - अम्हाणं तत्थ गए जिणदत्तसूरीणं Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलिः । ९३ जोगिनीपीठे विहारो निसिद्धो तेहिं । तओ ढिल्लीपुरसंघस्स अन्भत्थणावसेण जिणचंदसूरी आगओ जोगिनीपीठे । पवेसमहोच्छवमज्झे जोगिनीहिं छलिओ मओ । अजवि पुरातनढिल्लीमज्झे तस्स थुंभो अच्छइ । संघो तस्स जत्ता - कम्मं कुइ || इतिजिनचन्द्रसूरिप्रबन्धः || ६ || ७. - जिनपतिसूरिप्रबन्धः । ९. जिणचंद सूरिपट्टे सिरिजिणपतिसूरी हुत्था । सो विचारवरिसवइटिओ पट्टे ठाविओ । विहरंतो आसीनगरे समागओ। संघेहिं पवेसमहोच्छओ कओ महावित्थरेण । पुणो बिंबपइट्ठाकारावणमारद्धं संघेहिं । तयणंरे एगो विजासिद्धो जोगी आगओ भिक्खट्टा । विग्गचित्तो संघो कोवि तस्स भिक्खं न देइ । तओ सो रुट्टो । मूलनायगबिंबो कलिओ, गओ । पट्ठालग्गवेलाए सङ्घोवि संघो उट्ठावेउं लग्गो परं न उडेइ बिंबो । तओ संघो चिंताउरो जाओ । जोगिणं पिच्छंति, कत्थवि न लद्धो । तया साहुणीणं मज्झे जा महत्तरी अजिया सा आयरियं वंदित्ता एवं वृत्ता समाणा'भगवन् ! संघो हसइ, अम्हाणं भट्टारगो बालो तारिसी विज्जा नत्थि, किं किजइ' । तओ जिणपतिसूरी सीहासणाओ अन्ट्ठेइ, अब्भुट्ठेइत्ता सूरिमंतेण बिंबस्स मत्थए वासक्खेओ कओ । तक्कालं एगेण सावगेण उट्टाविओ बिंबो । बिंबप | महूसो जाओ । खरयरगच्छे जयजयसद्दो उच्छलिओ । अन्नं च - रायसभाए छत्तीसवादा जिया । जिनपतिसूरिणा पुणो खरयरगच्छ समायारी उद्धरिया । महापभावगो जाओ । जिणवल्लहरिकयस्स संघपट्टयपगरणस्स टीका जेण कया । इति जिनपतिसूरिप्रबन्धः ॥७॥ ८. - जिनेश्वरसूरिप्रबन्धः । I १०. जिनपतिरिपट्टे नेमिचन्द्र भंडारी जिणेसरसूरीणो (१) पिया संजाओ । तस्स दो सीसा संजाया । एगो सिरिमालो जिनसिंहसूरी। बीओ ओसवालो जिणप्पबोहरी । अन्नया जिणेसरसूरी पल्हूपुरे नियपोसहसालाए उवविट्ठो संतो सूरिस्स दंडगोअम्हा तडतडित्ति सर्वं काऊण दुहाखंडी संजाओ' । तओ सूरिणा भणियं - 'भो सीसा ! एस सदो कुओ संजाओ ?' | अवलोइऊण सीसेहिं कहियं - 'सामि ! तुम्ह हत्थदंडओ दुहा संजाओ । तओ चिंतियं आयरिएण'मम पच्छा दो गच्छा होहंति । तओ सयमेव नियहत्थे गच्छं करिस्सामि' । इत्थेव पत्थावे सिरिमालसंघेहिं मिलिऊण चितियं इत्थ देसे कोई गुरू नागच्छइ । पयलह गुरुसयासे गुरुं आणेमो । मिलिऊण सयलसंघो गुरुसमीवं गओ । वंदिऊण आयरियं विन्नत्तं सयलसंघेहिं - 'भो सामि ! अम्ह देसे कोवि गुरू नागच्छइ । तओ अम्हे किं करेमो । गुरुं विना सामग्गी न हवई' । तेण गुरुणा पुव्वनिमित्तं नाऊण जिणसिंघगणी लाडणुवाउत्तो सिरिमालवं सुब्भवो नियपट्टे ठविओ । नामधेयं कयं जिनसिंघसूरि सि । कहियं - 'एए सावया तुम्ह मए समप्पिया । गच्छह संघसहिओ' । तओ वंदिऊण गुरुं सावयसहिओ जिनसिंघसूरी समागओ । सव्वसिरिमालसंघेहिं कहियं - अज्जप्पभिइ एस मम धम्मायरिओ । अओ दो गच्छा संजाया । बारससय असीए संवच्छरे पल्हूपुरे नयरे जिणेसरसूरिणा जिनसिंघसूरी कओ । पउमावईमंतो उवएसिओ । केवइ वरिसेहिं जिनेसरसूरी देवलोयं गओ ||८|| ९. - जिनसिंघसूरिप्रबन्धः । ११. जिनेसरसूरिपट्टे जिनसिंघसूरी सजाओ । पउमावईमंतसा हणत परो निच्चं झाएइ । झाणावसाणे पउमावइए भणियं - 'तुह छम्मासाऊ वट्टइ' । तओ सूरिणा भणियं - ' मम सीसाणं पच्चक्खीभूया । कहसु मम पड्ढे को होही " तओ मवईए भणियं - 'गच्छ मोहिलवाडीए नयरीए तांबीगोत्तपवित्तकारगो महाधरनामगो महड्डीओ सावगो अच्छइ । ततो रणपालो । तस्स भजाखेतलदेवीउयरे सुहडपाल इइ नामधेओ सबलक्खणसंपन्नो, तुह पट्टे जिणपहसूरी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलिः । नामभट्टारगो जिणसासणस्स पभावगो होही । इय वयणं सुच्चा जिनसिंघसरी तत्थ गओ । महया महोच्छवेण सावगेण पुरप्पवेसो कओ। पच्छा महाधरसिट्ठिगिहे गओ सूरी। दट्ठण आयरियं सत्तट्टपयं सम्मुहं गच्छइ । वंदिऊण आसणे निमंतिओ-'भगवन् ! ममोवरि महप्पसाओ तुमे कओ जेण मम गिहे समागया। परं आगमणप्पयोयणं वयह' । तओ गुरुणा भणियं-'भो महाणुभाव ! तुम्ह गिहे सीसनिमित्तं समागओहं । मम एगं पुत्तं वियरह' । तओ तेण तह त्ति पडिवणं । तओ तेण अन्ने पुत्ता संसकारं काऊण वत्थादिणा आणीया । कहियं-'एयस्स मज्झे जो तुम्हाणं रोयइ तं गिण्हह' । गुरुणा भणियं-'एए पुत्ता दीहाउया तुम्ह गिहे चिटुंतु । परं जो सुहडपालो बालो तं वियरह' । तहेव कयं, विहराविओ, सुमुहुत्ते दिक्खिओ य । तेरहसयछवीसावरिसे दिक्खं सिक्खं दाऊण पउमावईमंती समप्पिओ। कमेण गीयत्थचूडामणी संजाओ। तेरहसयइकतालवरिसे किढिवाणानगरे जिणसिंघसूरिणा सुमुहुत्ते नियपट्टे थप्पिओ जिणप्पहसूरी । जिणसिंघसूरी देवलोयं गओ । इति जिणसिंघसूरिप्रबन्धः ॥९॥ १०.-जिनप्रभसूरिप्रबन्धः। १२. अहुणा जिणपहसूरिपबंधो भण्णइ-इओ य जिनसिंघसूरिपदे जिणपहसूरी संजाओ । तस्स पुव्वपुण्णवसा पउमावई पञ्चक्खा संजाया । एगया पउमावई पुच्छिया सूरीहिं-'कहसु भगवइ ! मम कत्थ नयरे उन्नई भविस्सई' । तओ पउमावइए लवियं-'तुम्ह विहारो जोगिनीपीढे ढीलीनयरे महुच्छओ भविस्सइ, तत्थ तुम्हे गच्छह'। तओ गुरुणा विहारो कओ। कमेण जोगिणीपुरे [स]मागओ बाहिं वारसा ?)हापुरे उत्तिन्नो । एगया सूरी वियारभूमि गओ संतो, तत्थ अणारिया मिच्छादिट्ठिणो पराभवं काउमारद्धं लेठुमाईहिं । तओ गुरूहिं भणियं-'पउमावइ ! सुटू महुच्छओ संजाओ। तओ पउमावईए तस्स वहगस्स लेट्ठमाईहिं तस्सेव पूया कया। ते अणायरिया पलायमाणा महम्मदसाहिणो समीवे गया। कहियं सूरिव[३] यरं । तओ चमक्कियचित्तो पुच्छेइ-'कत्थ सो अत्थि पुरिसो?' तेहिं निवेइयं-'बाहिं पएसे दिट्ठो अम्हेहिं । तो पहाणपुरिसा आइट्ठा-'गच्छह तुब्भे, तं आणेह इत्थ,जहा तं पस्सामि'। तओ ते गंतूण गुरुसमीवे एवं निवेइयं-'आगच्छह भो सामि ! अम्ह पहुसमीवे । तुमे पयलह' । तओ आयरिया पउलिदुवारे गंतूण ठिया। भिन्चेहिं गंतूण निवेइयं । जाव ते साहिणो निवेययंति,ताव सूरी[हिं] सीसाण कहियं-'अहं कुंभगासणं करोमि। जया साहि समागच्छइ तया तुम्हेहिं कहियवं-एस मम गुरू । तओ सो कहिस्सइ-जारिसो आसि तारिसं कुणह । तओ तुब्भे अल्लवत्थं धरिऊण कंधे ठवेह' । इय वुत्तण गुरू झाणमस्सिओ। कुंभसमाणो संजाओ । तओ आगंतूण महम्मदसाहि सीसं [जं]पइ-'कत्थ तुज्झ गुरू ?' । तेण कहियं 'अग्गओ दीसइ तुम्हाणं'। तओ साहिणा कहियं-'भो ! जारिसो पुट्विं आसि तारिसं कुणह' । तओ सीसेण वत्थं सरसं काऊण सज्जीकया। उट्ठिऊण सूरिणा आसीसा दिन्ना धम्मलाहस्स । तओ कहासंलाओ संजाओ दुन्हवि । तओ साहिणा लवियं-'भो सामि ! अम्ह पाणप्पिया बालादे राणी अच्छइ । तस्स बितरो लग्गो आसि । न सा वत्थाणि गिन्हइ नियदेहे, न सुस्मुसा वि कुणइ । तस्स तुम्हे पसिऊण सजीकुणह । मए मंतजंतचिगिच्छगा आहूया परं जं जं पासइ तं तं ले?-लट्ठिणा हणइ । अहुणा पसायं काऊण तुम्हे पासह ।' गुरुणा भणिय-'तुब्भे गच्छह तस्स समीवे,एवं निवेएह-तुम्हं समीवे जिणप्पहसूरी समागच्छई। साहि[णा] गंतूण कहियं तं वयणं । सोऊण सहसा उढिया। कहियं-'दासि ! आणेह वत्थं । तओ चेडीहिं वत्थं आणिऊण पहिरावियं । तओ साही चमकरिओ। आगंतूण गुरुसमीवे साहियं-'आगच्छह तस्स समीवे पासह तं' । तओ गओ सूरी। तं दट्टण निवेइयं सूरीहिं-'रे दुट्ट! कत्थ तुम इत्थ? गच्छ तुमं अस्स वासाओ'। तेण निवेइयं-'कहं गच्छामि अहं, सुट्ठ गिहं लद्धं'। गुरुणा भणिय-'अन्नत्थ गिह नत्थि ?' तेण भणिय-'नत्थि एयारिसो'। तओ गुरुणा मेहनाओ खित्तेवालो आहूओ, कहियं-'एयं दूरीकुणसु' । तओ मेहनाएण सो वितरो गाढं पीडिओ । तेण वितरेण एवं निवेइयं-'अहं खुहाउरो मम किंचि भक्खं पयच्छह'। 'किं पयच्छामि । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलिः । तओ कहियं तेण-'मम हिंसाईणि पयच्छह' । गुरुणा भणियं-'मम अग्गे एवं मा भणह । अहं तुम्हाणं दढबंधणेण बंधामि' । तओ सूरिणा मंतो जविओ। तओ कहिय-'सामि ! तुम सबजीवदयापालगो ममं कहं पीडेहि' । सूरिणा भणिय-'गच्छ इत्थ ठाणाओ । तेण कहिय-'किंचिवि ममं पयच्छह' । तओ भणिय-'किं पयच्छामि ? । घियगुडसहियं चुम्नं पयच्छह मम' । तओ साहिणा कहियं पयच्छामि । गुरूहि भणिय-'कहं जाणामि तुमं गओ ?'. कहियं तेण-'मम गच्छंतस्स असुगपिप्पलस्स साहा पडिस्सइ, तओ जाणिजाहि' । तओ रयणीसमए तं चेव जायं । पभाए सजीजाया बालादेराणी । दट्टण साहिणो म[हा]हरिसो जाओ। निवेइयं तस्स-'पिए तुमं कत्थ आसि जओ न एस महाणुभागो आगओ इंतो' । तओ एवं सोऊण भणिय तीई-सामि ! एस मम पियासारिसो, जया एस महप्पा आगच्छइ तुम्हपासे तया तुम एयस्स आगइसागई करिस्ससु, अद्धासणे निवेसेह' । तओ तेण तह त्ति पडिवणं । एस राया गुरुसमीवे गच्छइ । गुरुं नियगिहे आणेइ । अद्धासणं दलइ । एवं सुहंसुहेणं वच्चइ कालो। तओ सबपासंडाण पवेसो जाओ। १३. इत्थ पत्थावे वाणारसीओ समागओ राघवचेयणो बंभणो चउदसविजापारगो मंतजंतजाणओ । सो आगंतूण मिलिओ भूवं । साहिणा बहुमाणो कओ । सो निच्चमेव आगच्छइ रायसमीवे । एगया पत्थावे सहा उवविट्ठा । सूरिराघवचेयणपमुहा कहाविणोयं चिट्ठति । तओ राघवचेयमेण चिंतियं दुट्ठसहावं एयं जिणप्पहसूरि दोसवंतं काऊण निवारयामि इत्थ ठाणाओ। एवं चिंतिऊण साहिहत्थाओ अंगुलीयं विजाबलेण अवहरिऊण जिणप्पहसूरिरयहरणमझे पक्खित्तं, जहा सूरी न जाणइ । तओ पउमावईए निवेइयं सूरिस्स । तुम्हाणं तकरीदाउकामो राघवचेयणो । साहिपासाओ मुद्दारयणं गहिऊण तुम्ह रयहरणमझे ठविओ। सावहाणा हवह तुब्भे। तओ सूरिणा तं मुद्दारयणं । गहिऊण राघवचेयणस्स सीसवत्थे पक्खित्तो जहा सो न जाणइ । तओ महम्मदसाहि पासइ, मुद्दारयणं नत्थि । पच्छा अग्गओ पासइ । न पासइ तं मुद्दारयणं । साहिणा निवेइयं-'इत्थ मम मुदारयणं आसि, केण गहिये ?' । तओ राध. वेण निवेइयं-'साहि ! एयस्स सूरिसमीवे अच्छई' । सूरिं पइ साहि मग्गिउं लग्गो । सरिणा भणिय-'साहि एयस्स समीवे अच्छइ' । तेण नियवत्थाणि दंसियाणि । सूरिणा भणिय-'साहि अस्स सीसे अच्छई । तओ मुद्दाऽवलोइया । गहियं साहिणा । कहियं राघवचेयणस्स-'धन्नोसि णं तुम सञ्चवाई। सयं गहिऊण जिणपहसूरिस्स दूसणं देसि'. तओ साममुहो संजाओ । नियगिहं पत्तो। १४. अन्नया चउसट्ठिजोगिणी सावियारूवं काऊण मूरिसमीवे छलणत्थमागया । ता सामाइयं गहिऊण वक्खाणं निसुणंति । पउमावइए निवेइयं सूरिस्स-'तुम्ह छलणत्थं एयाओ चउसट्ठिजोगिणीओ समागयाओ' । सूरीहिं अवलोइयाओ ताओ। पासंति अणमिसनयणं सूरिगयदिट्ठीओ वक्खाणरसलुद्धाओ । तओ सूरीहिं कीलियाओ ताओ सबाओ । उवएसपच्छा सव्वे सावया सावियाओ वंदिय नियगिहे पत्ताओ। ताओ आसणाओ जओ उवविट्ठति तओ आसणसहिय लग्ग पासंति । पासित्ता पुणरवि उवविट्ठाओ। पुणरवि सूरीहि भणियं-'साविया ! रिसिणो वियारभूमि-विहारभूमिवेला संजाया । तुब्भे वंदह' । तओ तेहि भणियं-'सामि ! अम्हे तुम्ह छलणत्थमागया। परं तुन्भे अम्हे छलिया । कुणह पसायं, मोयह अम्हाणं' । सूरिणा भणियं-'जइ मम वाया दलह तओ मुच्चामि नन्नहा' । 'वयह का वाया?' । 'जइ मम गच्छाहिवइणो तुम्ह जोगिणीपीठे वचंति तेसिं तुब्भे न उवद्दवे कुणह, तओ मुंचामि' । तेहिं तह त्ति पडिवन्नं । ताओ उक्कीलियाओ नियनियठाणं गयाओ। तो आयरिया सव्वत्थ गच्छति । न उवद्दवो जायइ तस्स । ताओ नियवाचावद्धाओ चिट्ठति । १५. अन्नया सहाउवविट्ठो सूरी । खुरासाणाओ सविज्जो एगो कलंदरो समागओ। तेण आगंतूण नियकुल्लहं उत्तारेऊण गयणे खिवियाओ । कहियं महम्मदसाहिणो-'साहि ! सो कोवि अत्थि तुम्ह सहाए, जो एवं उत्तारेइ ?' Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धाचार्यप्रबन्धावलिः । साहिणा सहा अवलोइया । तओ सूरी महम्मदसाहिं पइ एवं वयासी-'पस्सह राया जं मए एयस्स कायवं'। तओ सूरिहिं आगासे रयहरणं खिविओ। गंतूण तस्स कुल्लहस्स मत्थए पाडियाओ। तओ तेण कलंदरेण पुणरवि एगाए इत्थीए जलघडयमाणीयमाणं सीसे आगासे थंभियं अंतलिक्खे । कहियं साहिस्स । पुणरवि सूरीहिं तं घडयं भंजिऊण जलं कुंभायारं कयं । साहिणा भणिय-'जलस्स कणफुसियं कुणह' । तेण तहेब कयं । कलंदरस्स अहंकारो गओ । पुणरवि सहोवविटेण साहिणा भणियं-'अञ्ज मे सहोवविट्ठा जाणया कहसु, पभाए केण मग्गेण अहं वच्चामि रेवाडीए । तओ सवेहिं नियनियबुद्धीए चिंतिऊण लिहिऊण य दिन्नं चिट्ठीए साहिस्स । साहिणा भणियं-'सूरि! तुम्हमवि दलह' । सूरिणा वि नियबुद्धीए चिट्ठी दत्ता। तओ सबाओ नेऊण नियउत्तरिए बद्धाओ । साहिणा चिंतियं-जहा एए सवे असञ्चवाइणो होंति तहा करेमि । एवं चिंतिऊण वंदर(ण ?)बुरजाओ भजिऊण निग्गओ। गंतूणं बाहिं कीडा कया। एगट्ठाणोवविठ्ठा मूरिपमुहा सवे आहूया । कहियं च तेसिं-'वायह नियनियलिहियं' । तेहिं सवेहिं नियनियलिहियं वाइयं । मूरिस्स कहियं-'नियलेहं वायह'। तओ वाइयं आयरिएण-'वंदण(र ?)बुरजाओ भंजिऊण कीडं काऊण वडपायवस्स अहे विस्सामं काही-एवं निसुणिऊण चमकरिओ साही-'भो एस आयरिओ परमेसरसारिसो। एयस्स सेवं देवावि कुणंति' । तओ साहिणा भणियं-'जिणप्पहसूरि ! एस वडो सीयच्छाओ मणोहरो तहा करेह जहा मम सह गच्छई' । तहेव कयं । तओ पंचकोसाणंतरं सूरिणा भणियं-'साहि! एयं तरं विसजेह । जहा नियठाणं गच्छई। साहिणा विसजणं कयं तस्स रुक्खस्स। १६. अन्नया कन्नाणापुरस्स महावीरो मिच्छेहिं नेऊण साहिपोलिदुवारे पाडिओ अहोमुहं । तस्सोवरि लोया आयंति जंति । तओ जिणपह सूरी समागच्छइ । पासइ तदवत्थं पडिमं । मज्झे गंतूण साहिस्स निवेइयं सूरीहिं-'साहिं एगं पत्थयामि तुम्ह समीवं, जइ दलह' । तओ साहिणा भणियं-'मग्गह जं देमि' । तओ पओलिदुवारडिओ मग्गिओ महावीरो । तओ साहिणा नियसमीवे आणाविओ महावीरो। जओ तं पासइ अब्भुययरं चित्तहरं । सूरि पइ एवं भणइ-'नो दाहामि तुम्हाणं' । तओ सूरीहिं भणियं-'अम्हाणं आगमणं निरत्थयं जायं' । तओ साहिणा कहियं-'जइ एयं मुहे बुल्लावेह तया दाहामि' । सूरीहिं भणियं-'जइ एअस्स पूयासकारं कुणह तओ भासइ' । साहिणा तहाकयं । पुजोवगरणं काऊण हत्थे जोडिऊण भणइ-'करिय पसायं वयह' । तओ दाहिणहत्थो पसारिऊण एवं भणइ महावीरो विजयतां जिनसासनमजलं.विजयतां भुवाधिपवल्लभा। विजयतां भुवि साहि महम्मदो, विजयतां गुरुसूरिजिणप्रभः ॥१॥ तओ गुरुमुहाओ अत्थं आइनिऊण तुट्ठो साही-'भासह एयस्स किं दलामि ?' | सूरीहिं भणियं-'साहि ! एस देवो सुरहिदव्वेहिं तूसइ' । तओ साहिणा भणियं-'दुनि गाम दिन्नं, खरह-मातंडो' । ते सावया कागतूंडं नेऊण धूवो गाहंति सया । सुलताणेण तस्स पासाओ काराविओ । राघवचेयणसंन्नासी जिओ। सुलताणस्स करमुद्दियारयण राघवचेयणस्स सीसे ठाविओ। संकमणं दरिसियं । पुणो सुरत्ताणो सेतुजे नेऊण संघाहिवो कओ । रायणिरुक्खो दद्धेहि वरिसाविओ। अमावसितिहीउ पुन्निमातिही कया। खंडेलपुरे नयरे तेरस्सए चउत्ताले । जंगलया सिवभत्ता ठविया जिणसासणे धम्मे ॥१॥ १६. तेसिं च सरूवं भन्नइ-एगया खंडेलवालगुत्ता विन्दुभत्ता दव्वं समजिउं गुडखंडाइववहारं कुणमाणा चिट्ठति । वावारं कुणंताणं बहुया वासरा अइया । गुडो बहुयरो ठिओ । तस्स महुकरणहूँ सेवया अणुन्नाविया । तओ मज कारिऊण विकिणियं लग्गा। लोएवि मजकारगा विक्खाया। केहिं च गुरुउवएसा मजववहारो चत्तो। केई पुण तं परिचत्तुं असत्ता तं चेव ववहारमाणा ठिया । तओ जिणप्पहसूरी पउमावईउवएसा पडिबोहिओ जंगलगुत्तो॥ ॥ इति श्रीजिनप्रभसूरिप्रबन्धः ॥१०॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः । ५७ ४४ अकलङ्कदेव सूरि ३४, ३६ । अचल [ठकुरराज] ६५-६८, ८१ अचलचित्त [ मुनि ] अचला [ठ०] ६७ अचलेसर [ दुर्ग] अजयमेर ।[नगर-दुर्ग] १६, १९, अजयमेरु २०, २४, २५, ३३, ३४, ४४, ८४, ९१, ९२ अजित [मुनि ] अजित [ महं०] अजितश्री [साध्वी] अजितसेन [मुनि] ४९ अणहिल पाटक [ नगर ] ३४, ४३ अणहिलपुर पत्तण , अणहिल्ल पत्तण , अणहिल्लपुर पट्टण , अतिबल [ अधिष्ठायक देव ] २२ अनन्तलक्ष्मी [ साध्वी] अनहिल्ल पत्तन २, ८ अनेकान्तजयपताका [ग्रन्थ] १०,३४ अपभ्रंश भाषा अपराजिता [ देवता] अब्बुय गिरि अब्बुया देवी अभयकुमार [ मंत्रीश्वर ] ७५ अभयकुमार [सा०] ३४ अभयचन्द्र [ मुनि ] अभयचन्द्र [सा०] ५२, ५३, __५४, ५९, ६०, ७२, ७७ अभयचन्द्र गाण अभयड [ दण्डनायक ] ३९, ४०, अलावदीन [सुरत्राण] ४२, ४३ अशोकचन्द्र [मुनि ] अभयतिलक गणि [उपा०]४९,५१ अशोकचन्द्र गणि अभयदेव [ न्याय-ग्रन्थ ] १०, ३०. अशोकचन्द्राचार्य अभयदेव [ सूरि] १, ५,७,८,९, अश्वराज [ठ०] १४, ३६, ७३, ७८, अहीर [ सा०] ८२, ९०, ९१ आगमवृद्धि [ साध्वी ] अभयमति [ साध्वी] २४ आचारनिधि [मुनि ] अभयशेखर [ मुनि] आजड [ सा०] अभयसागर [ क्षुल्लक] आटा [ भां०] अभयसूरि आदित्यपाटक [नगर] ८६ अभोहर [ देश] आनन्द [ सा०] अंबिकादेवी [ सिहर] आनन्दमूर्ति [ मुनि ] अमरकीर्ति [ क्षुल्लक] आनन्दश्री [ महत्तरा] अमरकीर्ति गणि आना [ सा०] अमरप्रभ [ मुनि ] आभुल [४०] ४४ अमररत्न [मुनि] आम्बड [सेनापति] अमृतकीर्ति गणि आम्बा [सा०]५०,७३,८२,८४,८६ अमृतचन्द्र [मुनि ] आम्बा [ श्राविका] अमृतचन्द्र गणि [वा०] ६६,८६,८७ आर्यमहागिरि [ सूरि ] ७८ अमृतमूर्ति [ मुनि] ४९ | आर्यरक्षित [ सूरि ] अमृतश्री [ साध्वी] आरासण,-न [ महातीर्थ ] ७१, ९७ अम्बिका [ अधिष्ठायिका ] १७, २४, आर्यसुहस्ति सूरि ६६, ७३, ७८, ५१, ६३, ७२, ७६, ७७ ८१, ८२ अयोध्या [ नगरी] आवश्यक [ग्रन्थ ] ७४ अरसिंह [ राजपुत्र] आशा [ सा०] अर्णोराज [ नृप ] आशापल्ली [ प्राम ] ५, ३८, ३९, अर्बुद [ गिरि ] ५, ५७, ६०, ६१ ६०, ७८ अर्बुदाचल [ तीर्थ ] आशापल्लीय [संघ ] ७०,७१,८० अर्हदत्त गणि आशालक्ष्मी [ साध्वी ] २३ ४९ ८५ ३१ ८४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। ५१ १६ ६५ ६३ आसी नगर । [संघ ] ९, ९३ आशिका [ नगरी] २० । उज्जयिनी [ नगरी] १९, ५०, ५१ । कक्करिउ [ राजप्रधान ] २४ आशीदुर्ग उज्जेणी [नयरी] ९०, ९२ कच्चोलायरिअ ९०, ९२ आशोटा [प्राम] उजेणी पीढ ९२ कटुक [ सा०] आसणाग [ सा०] उज्जोयण सूरि कडुया [सा०] ७३, ७५,७९,८२ आसमति [ साध्वी] २४,४४ उदयकर्ण [10] कडुयारी [ ग्राम ] आसदेव [ सा०] उदयकीर्ति [ मुनि] कणपीठ [ ग्राम ] आसधर [ठ०] उदयगिरि [ हस्तिनाम] . ३० कथानककोश [ ग्रन्थ ] आसधर [ सा०] उदयचन्द्र [ मुनि ] कनककलश [ मुनि ] आसपाल [ठ.] उदयदेव [ठ.] कनककीर्ति [ मुनि ] आसपाल [ सा०] ५७,५९ उदयपाल [ सा०] कनकगिरि [ पर्वत ] आसपाल [श्रे०] ५७ उदयमूर्ति [ क्षुल्लक ] ८२ कनकचन्द्र [ मुनि ] आसराज [राणक] उदयश्री [गणिनी] ४९ कनकश्री [ क्षुल्लिका ] आसा [ भाण.] उदयसार [ क्षुल्लक ] ७७ कनकावली [ गणिनी] ४९ आसिका (आशिका) २३-२५, ६५ उदयसिंह [ राजप्रधान] कन्दली [ ग्रन्थ ] १०, ३९ उदयसिंह [ राजा] ५०, ५१, कन्नाणापुर आसी दुर्ग । ८७, ८८ कन्यानयन [ग्राम) २४, ६५, ६६, उदंडविहार [स्थान ] ६८, ७२ आहूणसिंह [ सा०] उद्योतनाचार्य कन्यानयनीय [ संघ ] आह्लाक [सा०] उद्धरण [वाहित्रिक सा०] ४०, ४३, कपर्द (र्दि) यक्ष इन्द्रपुर [ नगर] ५१, ८० कमलश्री [ क्षुल्लिका ] इसल [भां०] उपदेशमाला [ ग्रन्थ] १३, ६७ कमलश्री [ गणिनी ] ४९ ईश्वर [ सा०] उपशमचित्त [ मुनि ] कमललक्ष्मी [ साध्वी] उच्चकीय [संघ] ७३,८०-८२, ८४ ऊकेश [ गच्छ] २५ कमलाकर गणि ९२ ऊकेश [ वंश ] करडिहट्टी [ वसति] ४, ७ उच्चनगर । १९, २०, २३, ऊदा [मं०] करहेटक [ग्राम] उच्चानगर ऊदा [ सा०] कर्णदेव [ राजा] ऊदाक [सा०] कर्पटकवाणिज्य [ग्राम ] उच्चापुर । ऊधरण [ सा०] कर्णराज [प्रधान] ऋद्धिसुन्दरी [साध्वी] कर्मशिक्षा [ग्रन्थ ] उच्चापुरीय [ संघ ] ५२, ५८, ६४, ऋषभदत्त [ मुनि ] कर्मसिंह [सा०] ६५, ७७ । एकलक्ष्मी [ साध्वी ] ५२ कलंदर [फकीर] उजयन्त [ तीर्थ ] ५, १७, ३४, ओघनियुक्ति [ ग्रन्थ ] कल्याणऋद्धि [गणिनी] ३९, ४९, ५३, ५५, ६२, | ओसवाल [ ज्ञाति ] ९२, ९३ कल्याणकलश गाण ६३, ७२, ८५ । कइमास [ मण्डलेश्वर ] २५-२७, । कल्याणऋद्धि [प्र. ] उजयन्त तलहट्टिका ६२, ७५ । २९, ३०, ३३ | कल्याणनिधि [ मुनि ] ५१ ५३, ७२ ८० ८७ 9 mm उच्चानगरी) ३४, ७५, ८१ ~ उच्चापुरी ६४, ६९,८४ X २० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमति [ महत्तरा ] कल्याणश्री [ साध्वी ] काक्रिन्दी [ नगरी ] काहा [सा० ] कादम्बरी [ ग्रन्थ ] कामदेव [ सा० ] काला [ राज प्रधान ] काला [ सा०] ६५, ६६, ७२७४, ७६, ८७ ३९, ४० ८८ ४४ ३६ ८९ ८२ १०, ३९ ९४ ७३ ८५ ८७ ४९ ४४, ४७ ५२ ६७ ६६ ५६ ७७ ६६ ६५,७० ८३ ६५ ६१ कुमारपाल [ मंत्री ] कुमारपाल [ राजा ] १९, ७०, ८१ कुमारपाल [ सा० ] ५०-५२, ५५, ५९, ८८ काव्यप्रकाश [ ग्रन्थ ] कायस्थ [ जाति ] काश्मीरीय [ पण्डित ] कासहद [ नगर ] कासह [ ग्राम ] कियासपुर [ग्राम ] किरणावली [ ग्रन्थ किढिवाणा [ ग्राम ] कीकट [ सा० ] का[स] कीरत सिंह [ सा० ] कीर्तिकलश गणि कीर्तिचन्द्र [ मुनि ] कीर्तिमण्डल [ मुनि ] कुतबदीन [ पातसाहि] कुतुबदीन [ सुरत्राण ] कुमर [ सा० ] कुमर [ मं० ] कुमरपाल [ ठ० ] कुमरसिंह [ठ० ] कुमर सिंह [ सा० ] कुमरा [ मंत्री ] ५ ४४ ६० ७२ २८, ३९ ७५ २४ खरतरगच्छगुर्वावलीगत विशेषनाम्नां सूचिः । कुमुदचन्द्र [ मुनि ] ४९, ५२ ५८ कुमुदलक्ष्मी [ साध्वी ६६ कुम्मरपाल [ सा० ] ४४ कुलचन्द्र [ मुनि ] कुलचन्द्र [ सा० ] २१, २२, ५३. ६२, ६३, ७३ ४९ कुलतिलक [मुनि ] कुलधर [ मन्त्रीश्वर ] कुलधर [ महं० ] कुलधर [ सा० ] कुलधर्मा [ साध्वी ] कुलभूषण [ मुनि ] कुलश्री [ गणिनी ] कुशलकीर्ति [ मुनि ] कुशलकीर्ति गणि कुशलचन्द्र गणि कुशलश्री [ प्र० गणिनी ] कुहियप [ ग्राम ] कूपा [ मं०] ८७ कूर्च पुरी [ संघ ] ८ ल्हण [ राणक] ४४ केल्हण [ सा० ] ५० केल्हा [ मं० ] ७३ केवलप्रभा [ ग० प्रवर्तिनी] ५४, ६४ केवलश्री [ साध्वी ] केशव [ सा०] कोडका [ स्थान ] कोमल [ सा० ] कोमल [ संघ ] कोमलक [ सा० ] कोरण्टक [ ग्राम ] कोशवाणक [ग्राम ]) कोशवाणा कोसवाणा " ८० ४४, ४९ ८६ ८२ ५२ ४९ ५९, ६५ ६८ ४९ 35 कौशाम्बी [ नगरी ] ५५ ४४ ४४ ६१ ६२ ८३, ८४ ५६ ८३ ७३ ६५, ६६, ६८ ७३, ७६ ६० क्यासपुर [ग्राम ] ६५, ७३, ८३, ८४, ८६ क्यासपुरीय [संघ ] क्षत्रियकुण्ड [ ग्राम ] क्षपण (न) क क्षमाचन्द्र [ मुनि ] क्षान्तिनिधि [ साध्वी ] ८२, ८३ ६० ३, १४ ४९ ५२ क्षेत्रपाल [ देव ] ७२ क्षेत्रसिंह [ प्रधान ] ५६ क्षेमकीर्ति [ मुनि ] ५५ क्षेमन्धर [ गोष्ठिक ] ५५ क्षेमन्धर [ सा० ] २०, ३८, ३०, ४०, ४२, ४३, ५१, ६३ क्षेमन्धर [ पंचउली सा० ] ७२ क्षेमसिंह [ सा० ] ५०, ५४, ५५, ५९, ७७ ७५, ७६ ९६ ९६ ५९ ९० ३४, ३६, ३९, ४७, ४८, ८२-८४, खङ्गारगढ खंडेलपुर खंडेलवाल [ गोत्र ] खदिरालुका [ ग्राम ] भाइति नर खरतर [ गच्छ खरयर [ गच्छ ] खाटू [ ग्राम ] खांभराज [ दो ] खीमड [ सा० ] खीमसिंह [ व्यव० ९९ खींवड [ सा० ] खुरासान [ देश ] खेटनगर खेडनगर खेतलदेवी खेतसिंह [ भां०] 1 ९०, ९१ ९०, ९३ ७२ ७९ ५१, ७७ ८३ ७१, ७७ 2 5 x v mo ९५ ३४ ८१ ९३ ५९ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। ५५ ५९ ० ० 2 चारित्रतिलक [मुनि] चारित्रमति [गणिनी] चारित्रमाला [गणिनी] चारित्ररत्न [मुनि ] ४९ चारित्रलक्ष्मी [साध्वी] चारित्रवल्लभ [ मुनि चारित्रसुन्दरि [गणिनी ] चारित्रसुन्दरी [ क्षुल्लिका] चारित्रशेखर [मुनि] चारुदत्त [मुनि] ६४ चाहड [प्रधान] चाहड [ सा०] ५५, ५९, ६३, ७३, ८०, ८२, ८६ चाहमान [ कुल ] ६८, ८६, ८७ चित्तसमाधि [ साध्वी] ५२ चित्तकूड दुग्ग ९१ चित्रकूट [ दुर्ग] १०, १२-१५, १९, २०, ४९, Www . १८ ६ खेतसिंह [ सा०] ६७, ६८, ७१, गूर्जरीय [ संघ] ७२, ८६ गृहिचन्द्र [ सा०] गच्छकीर्ति [मुनि] गेहाक [मं०] गच्छवृद्धि [साध्वी] गोधा [ सा०] गज [ भां०] गोपाल [ सा०] ६५, ७२-७४, गजकीर्ति [मुनि] ५० ८०, ८२ गजेन्द्रबल [मुनि] ५२ गोल्लक [ सा०] २० गणदेव [ मुनि ] गोसल [ सा०] ७३-७६, ८६ गणदेव [ सा०] १२, ५२, ५८ गौतमस्वामी [गणधर ] २६, ४८, गणधरसप्ततिका [ग्रन्थ] ४९, ५६, ७७, ८१, ८२ गणपद्र [ग्राम] २० ग्यासदीन [पातसाहि ] ७२, ७७ गतमोह [ मुनि ] घोघा बेलाकुल गयधर [ सा०] चउसहि जोगिणी पीढ गाङ्गा [ सा० ] चक्क (त्व ! ) रहट्टी गिरनार [ पर्वत] चच्चरी [ग्रन्थ] गिरिनार [तीर्थ] चन्दनमूर्ति [ क्षुल्लक ] गीर्वाण भाषा चन्दनसुन्दरी [ गणिनी] ४९, ५८ गुडहा [ग्राम] ७३, ७९, ८०, चन्द्रकीर्ति गणि गुणकीर्ति [ मुनि] ४५ चन्द्र [ कुल ] ६९, ७१ गुणचन्द्र गणि १८, २३, २४ चन्द्र [ सा०] गुणचन्द्र [वसाय सा०] ४९ चण्डा [मंत्री] गुणधर [ मुनि] चण्डिकामठ गुणधर [ सा०] ५३, ७०, चन्द्रतिलक [उपाध्याय] ५०,५२, गुणभद्र गणि २०, ४४ चन्द्रप्रभ [ मुनि ] ४४ गुणवर्धन [ मुनि ] २० चरणमति [ साध्वी] गुणशील [ मुनि] २३, ४४ चन्द्रमाला [गणिनी] गुणशेखर [ मुनि] ५०, ५१ चन्द्रमूर्ति [ क्षुल्लक] गुणश्री [ साध्वी] २०, २४ चन्द्रश्री [ महत्तरा] गुणसागर [मुनि] चन्द्रश्री [ साध्वी] गुणसेन [ मुनि] चन्द्रावती [ नगरी] ३४,८७, ८८ गुजर [ देश] चाचिग [सा०] गूर्जर [ देश] चाचिगदेव [राजा] गुर्जरत्रा [ देश] १, ४, ३४, ३६, । चामुंडादेवी ३८, ३९, ४३, ५७, ६४, । चारित्रकीर्ति [ मुनि ] ७०, ७१, ७३, ७८ | चारित्रगिरि [ मुनि ] ४१ १० ५९ चित्रकूटीय प्रशस्ति [ग्रन्थ ] ४६ चूडामणि [ज्योतिर्मन्थ] ८ चौरसिंदानक [ग्राम ] २१ छज्जल सा०] ७३, ७५, ७७, ८७ छाडा [व्य०] ৩৩ छाड [ भां०] छीतम [ सा०] जगच्चन्द्र [ मुनि ] जगच्चन्द्र गणि जगदेव [प्रतीहार] ३४,४३ जगद्धर [ सा० ] ४४, ४९,५१,७१ जगमति [ साध्वी] ४७ जगसिंह [ भां०] जगत्सींह [ सा०] ७१, ७६ जगसीह [राजपुत्र] जगश्री [ साध्वी] ६५ ५९ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। १०१ जगहित [मुनि ] जंगल [गोत्र] जग्गा माहण ९० जटी जट्टड [सा०] जनार्दन गौड [पंडित ] २५, २६ जम्बूस्वामी ३, ७७ जयचन्द्र [ मुनि] १९, ८६ जयतश्री [ मंत्रिणी] जयता [ सा०] जयतिहट्ट [ बिरुद] २१ जयतिहुयण [ स्तोत्र] ६,९० जयदत्त [ मुनि ] १८ जयदेव [ छन्दःशास्त्र] १०, ३९ जयदेव [ सा०] ५३ जयदेवाचार्य १७, १८, २३ जयधर्म गणि ७७ जयधर्म [ महोपाध्याय ] ७७, ८५ जयन्ती [ देवता] जयप्रभा [ साध्वी] ५४ जयप्रिय [ मुनि, क्षुल्लक ] जयमअरी [क्षुल्लिका] ५९ जयमति [ साध्वी] जयर्द्धि [ महत्तरा ] ६४, ६६, ६९, ७४, ८७ जयलक्ष्मी [साध्वी] ५१ जयवल्लभ [मुनि] जयवल्लभ गणि ६२, ६३,६६, ६८, ६९ जयशील [मुनि] २० जयसार [ क्षुल्लक ] जयसिंह [मुनि] १९, ६० जयसुन्दरी [ साध्वी ] जयसेन गणि जयहंस [ सा०] जिनचंद्राचार्य जया [ देवता] जिनदत्त [ सूरि ] १, १६, १८-२४, जवणपाल [ सा०] ७२-७४ २७, ४०, ४२, ४३, ५०, जवनपाल [ ठ० ] ६६, ६०, ७९ ५१, ५६, ५८, ६४, ६६, जसोधवल [सा०] ५२ ७२, ७३, ७७, ७८, ८२ जालउर [ नगर-दुर्ग ] ९२ जिनदत्ताचार्य जावालिपुर [ नगर ] ६, ४४, ४७ जिनदास [सूरि] -५२, ५४, ५५, ५८ जिनदेव [सा०] ६१, ६३, ६५,७३, ७७, जिनदेव गणि ७९, ८० जावालिपुरीय [ संघ] ५७, ५८, जिनधर्म [ मुनि] ६१, ६४, ७०, ८० जिनपति [ सूरि ] ७०, १, २०, जाहेडाग्राम २३-२५, २९, ३२-३५, जाह्रण [सा० ] ६३, ६९, ७१, ३८,३९,४१, ४४, ४६७३, ७५, ७७, ८०, ८६ ५०, ७५, ८१, ८२, ८४, जिणचंद सूरि [ मणियाल ] ९०, ९२, ९३ जिनपद्म [ सूरि जिणदत्त गणि ९२ जिनपाल [ मुनि] २३ जिणदत्त सूरि जिनपाल गणि जिणनाग [ मुनि] ३४ जिनपालोपाध्याय ४५-५० जिणप्पइ सूरी ४६, ९३-९६ जिनप्रबोध [ सूरि ] ५४, ५५, ५७, जिणपति सूरी ५९, ७१, ७२, ७७ जिणप्पबोह सूरी जिनप्रभाचार्य १७ जिणवल्लह सूरि ९०, ९३ जिनप्रिय [ मुनि] २३ जिणसिंघ गणि _९३, ९४ जिनप्रियोपाध्याय जिणसेखर सूरि ९२ जिनबंधु [ मुनि] जिणहंस सूरि जिनभद्र [ मुनि २०, ४४ जिणेसर सूरि ९०, ९३ जिनभद्र सूरि जिनकुशल सूरि ७०, ७३, ७५- जिनभक्ताचार्य २३, २५ ७८, ८०-८७ जिनमत [उपाध्याय] २४, २५, ३४ जिनचक्रित (चन्द्र ?) गणि १९ जिनमती [ साध्वी] १८, १९ जिनचन्द्र [सूरि ] १,५,६,२०-२३ जिनमित्र [ मुनि ] ५०, ५८-६०, ६३, ६४- जिनरक्षित [ सा०] ६८, ६९, ७०-७२, ७४- जिनरक्षित [ मुनि ] ७८, ८०, ८२, ८५ | जिनरत्न सूरि ९२ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जिनरत्नाचार्य जिनरथ [ मुनि ] जिनरथ [ वा० ] जिनवल्लभ [ श्रेष्ठीपुत्र ] जिनवल्लभ [ मुनि ] जिनवल्लभ गणि [ वा० ] ९-१४ जिनवल्लभ सूरि १, १५–१७, ३६, ४६, ५२, ५६ ४९, ५२, ५४, ५५, ५७ २० २५ जिनेश्वर सूरि [ चैत्यवासी ] जिसघर [सा०] जिसहड [ गो०] [ग्राम ] जिनशिष्य [ मुनि ] २३ जिनशेखर [ मुनि ] ८, १६ जिनशेखर [ उपाध्याय ] १७, १८ १९, ४४ ९३ जिनश्री [ साध्वी ] जिनसंघ सूरि जनसागर [ मुनि ] जिन सिंह सूरि २३ ९३ जिनहित [ वा० ] २३ जिनहित [ उपाध्याय ] ४२, ४४, ४७, ४८, ४९ २३ जिनाकर [ मुनि ] जिनागर गणि ४० जिनेश्वर [ गणि, मुनि ] १-३ जिनेश्वर सूरि ४-६, १४, ४८ ५०, ५२-५६, ६२, ७५, ७८, ८२ ८ ५२ जीवदेवाचार्य जीवहित [मुनि ] जीवानन्द [ उपाध्याय ] जीवानन्द [ मुनि ] जीवानन्द [ सा० ] जीविग [ सा० ] ८ ८ ५७ ८६, ८७ १९ ४९ १९ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः । जीहरणि [ नगर ] जेठू [ सा० ] जेणू [ सा० ] जेसल [ मंत्री, ठ० ] जेसल [ सा०] जेसलमेर [दुग्ग ] जेसलमेरवीय [संघ ] ६०, ८०, ८६ जेसलमेरु [ नगर ] ३४, ५२, ५८ ६१, ६३, ८१, ८६ ७० ५५ १८ ५२ | ज्ञानश्री [ साध्वी ] झांका [ श्रा० ] झाझा [ सा० ] झांझण [ सा०] ९२ ८३ ५५ ७० ६२, ७१, ७८ ९२ जैसिंह [ गो०] जैत्रसिंह [ठ० ] जैत्रसिंह [ महं० ] जैत्रसिंह [ राजा ] जैथल [ द्रम्म ] जोगिनी पीढ़ जोगिणीपुर जोधा [ सा० ] जोयला [ग्राम ] ५७ ६४ ज्ञानदत्त [मुनि ] ज्ञानमाला [ गणिनी ] ४९, ५०, ५५ ज्ञानलक्ष्मी [ साध्वी ] ६४ १९,४४ ७० ८६ ५६, ६०, ६३, ८०, ८५-८७, ७६ झांझण [हड, सा० ] झाझा [ सा०] ७८ [ ग्राम ] ७० ५० ६१ ६६, ६७ ९३, ९४ ९४ ६१ झुञ्झणू ६६, ७२ झुञ्झणू टक्कर [ ग्राम ] ५ ६५ डालामउ [ ग्राम ] डिण्डियाणा [ ग्राम ] दिल्ली [ नगरी ] २१, २२, २४, ५ ३४, ५० ढिल्ली नयर दिल्ली देश दिल्ली पीढ दिल्लीपुर दिल्ली वादली तग [ ला ] [ ग्राम ] तपोमतीय तपसिंह [ मुनि ] तरुणकीर्ति [ क्षुल्लक ] तरुणकीर्ति गणि [ पं० ] तरुणप्रभाचार्य, तर्कहट्ट [ बिरुद ] तारक [ महातीर्थ ] [ महातीर्थ ] गढ [ तीर्थ ] [स] [ गो] तिलककीर्ति [ मुनि ] तिलकप्रभ गणि [ मुनि ] तिलकप्रभ सूरि तिलपथ [ ग्राम ] तिहुण [ मंत्री ] तिहुणा [ सा० ] तिहुणा [ साहु ] तीवी ( ? ) [ श्राविका ] तुरुष्क [ देश ] तेजपाल [ सा० ९२,९४ २, ४ ९.२ ९३ १ २० ५१ ६० ६३ ८४ ८४, ८५ २१ ७१, ८२ ५२, ५५ तेजसिंह विहार तेजः कीर्ति [ क्षुल्लक ] तोलिय [सा० ] तोली [ सा ० ] त्रिदशकीर्ति गणि त्रिदशानन्द [ मुनि ] त्रिभुवनकीर्ति [ मुनि ] ५९ ६६, ७३ ९३ ५६ ४९ ३६-३८ ६७ ६० ६३ ७० ५३ १७, १८ ५३, ६७–७७, ७९, ८०, ८६ ८७ ६३ ६२ ६१ ६० ५२ ६४ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। १०३ oc wo occ OC ३ C OC ४० ४ ५६ त्रिभुवनगिरि [ नगर ] १९,२०, ३४ देदा [ महं०] ५२, ५३, ५५,५९ । देवसेन गणि [त्रि ] भुवनहित [मुनि ] ६५ देदा [ सा०] ६३, ७२, ८३ . देवशेखर [ मुनि] त्रिभुवनानन्द [मुनि ] ५२ । देदाक [ महं०] ५३ देहड [छो०] त्रिलोकनिधि [मुनि] देपाल [ठ०] ६६, ७२, ७४ देहड [ठ०] त्रिलोकहित [मुनि] देपाल [ सा०] ७७, ८७ देहड [वैद्य ] त्रिलोकानन्द [ मुनि] ४९ देपाल गणि देहडि [वैद्य] त्रिशृङ्गमक [ ग्राम ] ७१, ८७, ८८ देवकीर्ति [ क्षुल्लक] देवाचार्य [ वादी] १९, ३८, त्रिशृङ्गमकीय [संघ] ७१ देवकीर्ति गणि ४४ ३९, ५७ त्रिहुण (?) पालही [ श्राविका ] ५३ देवकुमार [सा०] देवेन्द्र [मुनि ] थक्कण [ सा०] देवगिरि [नगर] देवेन्द्रदत्त [ मुनि ] थंभणय नयर देवगुरुभक्त [ मुनि ] द्रमकपुर [ग्राम ] थालण [सा०] देवचन्द्र [ मुनि ] द्रोणाचार्य थिरचन्द्र [पं०, मुनि ] १८, २५ देवतिलक [ मुनि] द्विवल्लक [ द्रम्म] ७५, ७६, ७९ थिरचन्द्र [सा०] देवधर [ सा०] १८, १९ धणपाल [सा०] ५३, ७७ थिरदेव [ मुनि ] २४ देवनाग धणेश्वर [ सा०] थिरदेव [ठ०] देवपत्तन [नगर] धनचन्द्र [सा०] थिरदेव [ सा०] ४६, ६१ देवपत्तनीय [ संघ ] धनपाल [ सा०] ५१-५३,६०,६३ थेहड [गोष्ठिक] देवप्रभ [ मुनि ] २४, ७० धनद यक्ष ५५ दक्षिण देस देवप्रभा [ क्षुल्लिका] २४, ५८ धनदेव [ सा०] १६, ५३, ८५ दर्शनहित [मुनि ] देवप्रमोद [ मुनि ] ५० धनशील [मुनि] दशरूपक [साहित्यग्रन्थ] देवभद्र [ क्षुल्लक] ७४, ७७ धनसिंह [सा०] दशवैकालिक [ ग्रन्थ ] ३, ४० देवभद्र [ मुनि ] ५, २० धनी [ भण० श्राविका] दारिद्रक [ग्राम] देवभद्राचार्य ९, १४-१६ धनु [मं०] दारिद्रेरक [ग्राम] देवमूर्ति [पं०, गणि] ४९, ५१, धनेश्वर [ मुनि ] दाहड [सा०] ५२, ५९ धम्मदेव [वा०] दिगम्बर २३, २४ देवराज [मंत्रीश्वर] ६९ धरणेन्द्र [ देवता] दिदा [ राजप्रधान ] २४ देवराज [ सा०] ७२, ७७, ८१ धर्मकलश [ मुनि] दिनचर्या [ ग्रन्थ ] देवराजपुर [ ग्राम ] ६४, ६५, ७७, धर्मकीर्ति [ मुनि ] दिवाकराचार्य ५९, ७१ ८१, ८२, ८४, ८५ धर्मचन्द्र [ मुनि ] दुर्लभ [ भण.] ६२, ६३ देवराजपुरीय [संघ ] ७३, ८०, ८१ धर्मतिलक [ मुनि] दुर्लभराज [ महाराज ] २, ३ देववल्लभ [ मुनि] धर्मतिलक गणि दुर्लभसमृद्धि [ साध्वी] देवसिंह [ मं०] धर्मदास गणि दुल्लहराय (दुर्लभराज) ९० देवसिंह [ठ०] ६६, ६७ धर्मदेव [मुनि ] ५, ४४ दुस्साज [मं०] देवसीह [सा०] ५७, ६३ धर्मदेव [ उपाध्याय ] १४ दृढधर्मा [ साध्वी] ६३ । देवसूरि धर्मदेवी [प्र० महत्तरा] ० ० ० Murm0005 ० 5 mm 9 ir i wa m ० ४४ ४४, ६७ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। ५० २३ २३ ८८ ur m Wc. WW २० धर्मदेवी [ साध्वी ] धर्मपाल [ मुनि ] धर्मप्रभ [ मुनि धर्मप्रभा [ क्षुल्लिका ] धर्ममति [गणिनी] धर्ममाला [ग० प्रवर्तिनी] ६५ धर्ममाला [ साध्वी ] ५५ धर्ममित्र [ मुनि ] धर्ममूर्ति [गाण, मुनि ] ४९, ५१ धर्मरुचि गणि २४,४४-४६ धर्मलक्ष्मी [ साध्वी] धर्मशील गणि ३४ धर्मश्री [ साध्वी] ३४ धर्मसागर [गाण, मुनि ] २३, २४ धर्मसिंह [ सा०] ७२, ७७ धर्मसुन्दरी [ क्षुल्लिका] ७७ धर्मसुन्दरी [ गणिनी ] ४९, ५१ धर्माकर [मुनि] ४९ धवलक [नगर] धाटी [ग्राम] धानपाली [ग्राम] धान्धल [ सा०] धान्धल [ सौवर्णिक, सा० ] ५५,५६ धान्धू [ सा०] ६४ धान्धूका [नगर] धामइना [प्राम] ६६, ६८, ७२ धारसिंह [ सा०] ५१ धारा [नगरी] १३,१८,१९,४४ धारापुरी , धीणा [ सा०] ७१-७३,७५,७६ धीणिग [सा०] धीधाक [सा०] धीन्धाक [सा०] धीर [ सा०] ८३ धुस्सुर [सा०] नगरकोट्ट [ तीर्थ ] नाथू [सा०] नगरकोट्टीय [ संघ] ४४, ४५ नावन्धर [ भां०]] नमिकीर्ति [क्षुल्लक] नारउद्र [नगर] नन्दन [सा०] ७३ नारिन्दा [स्थान] नन्दिवर्धन [ मुनि निम्बा [सा०] नन्दीश्वर [ तीर्थ] नीम्बदेव [ सा० ] ५२, ५५, ७९ नयनसिंह [ मंत्री] नींबा [सा०] ७७ नयसागर [ क्षुल्लक] नेब [राजप्रधान ] ७२ नरचन्द्र [ मुनि] ४४, नेमा [सा०] नरतिलक [राजर्षि ] नेमिकुमार [ सा०] ५२, ५८, नन्दण [ सा०] ६१, ६५, नरपति [ क्षुल्लक ] नेमिचन्द्र [ नवलक्षक, सा०] ६३ नरपति [ सा०] नेमिचन्द्र [भां० सा०] ४४, ९३ नरपालपुर [ग्राम ] नेमिचन्द्र [ मुनि ] नरपाल [श्रेष्ठी] ८४ नेमिचन्द्र [सा०] नरपाल [सा०] नेमितिलक [मुनि ] नरभट [ग्राम ] ६५,६६,६८,७२ नेमिध्वज [ साधु] नरवर [ग्राम] नेमिप्रभ [ मुनि नरवर्म [ राजा] नेमिभक्ति [ साध्वी ] नरसमुद्र [पत्तन] न्यायकन्दली [ग्रन्थ ] नरसिंह [भण.] न्यायकीर्ति [क्षुल्लक] नरानयन [ नगर] न्यायचन्द्र गाण नरेन्द्रप्रभ [ मुनि ] न्यायमहातर्क [प्रन्थ ] नवलक्षक [ कुल] न्यायलक्ष्मी [ साध्वी] नवहर [ग्राम] न्यायावतार [ग्रन्थ] नवहा [ग्राम] ६६, ७२ पउमासिंह [10] नवाङ्गवृत्ति [ग्रन्थ ] पउमावई [ देवी] ९३, ९४, ९५ नागदत्त [वा०] २० पंचनद [ देश] नागदेव [ सा०] ८६, ९१ पञ्चाशरीय [ चैत्य] नागद्रह [ग्राम] ४४ पञ्चकल्प [ग्रन्थ ] नागपुर [नगर ] १३, १४, १६, पलिका [प्रन्थ] १९, ६३-६६, ७३ | पञ्जिकाप्रबोध [प्रन्थ ] नागपुरीय [ संघ] ६०, ६५ पतियाण (2) नाणचन्द्र [ मंत्री] पत्तन [ नगर ] २, ६, ७, १०, नाणा [ तीर्थ] १४,१६, १९, ४४,४९,५२,, ४४ ७९ m "0 ७० ९२ . १८ V७४ mommur Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, ६३-६५, ६९-७३, ७५–७७, ८१, ८६ पत्तनीय [ संघ ] ६०, ६२, ७० ७३, ७६, ७७, ८० ६३ ७७ ६१ ६६ ५६ ६६ २३ २०, २१ ३४ ४७, ५४, ५५ पद्मप्रभ [ ऊ० ग० मुनि ] २५, ३३, ४४, ४७ ८२, ८५ ५९ ६२ पदम [ भां०] पद्म [ भण० ] पद्म [ भां० ] पद्म[स] पद्मकीर्ति [ मुनि ] पद्मकीर्ति गणि पद्मचन्द्र [ मुनि ] पद्मचन्द्राचार्य पद्मदेव [ मुनि ] पद्मदेव गणि पद्ममूर्ति [ क्षुल्लक ] पद्मरत्न [ मुनि ] पद्मश्री [क्षुल्लिका ] पद्मसिंह [ सा० ] पद्मस [ सा० ] पद्मा[स] पद्माकर [ मुनि ] पद्मावती [ देवी ] पद्मावती [ साध्वी ] पद्रु [ सा० ] परमकीर्ति [ क्षुल्लक ] परमानन्द [ मुनि ] परशुरोर [ को ] [ ग्राम ] पल्ली [ ग्राम ] पल्हूपुर [ ग्राम ] पवित्रचित्त [ मुनि ] पाटला } [ग्राम ] पाडला पाणिनि [ ग्रन्थ ] ५३, ८७ ६१ ६३, ७२ ५१ ४९ ५२ ५१, ५३ ६२ ४९ ८४ १ ९३ ५१ ६३, ७९ १० खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः । पातिसाहि ६७ ५३ पारस [ सा० ] मरुत्य [द्रम्म ] १३, २०, २४, ३४ पार्श्वदेव गणि २४ पाल्हउद्रा [ ग्राम ] पाल्हण [ सा० ] पावापुरी [ नगरी ] पासट [ सा० ] पासवीर [सा० ] पासू [ सा०] पाहा [ ठ० ] ७० ५३ ९१ ३१ ६२ ९० ६०, ६५, ७८ ५९ ५९ ६४ ६५ ८५ ५५ ५७ पुण्यलक्ष्मी [ साध्वी ] ६४ पुण्यसुन्दरी [ग० प्रवर्तिनी ] ५८, ६५, ७४, ७८ ६३ ४४ २३ पाह्री [ श्राविका ] पिंडविसुद्ध [ पगरण पिशाच [ भाषा ] पीपलाउली [ ग्राम ] पुरणागोत् पुण्यकीर्ति गणि पुण्यचन्द्र [ मुनि ] तिलक [मुनि ] पुण्यदत्त [ मुनि ] प्रभ [ मुनि ] पुण्यप्रिय [ क्षुल्लक ] पुण्यमाला [ साध्वी ] पुण्यमूर्ति [ मुनि ] ७ २१, २२, ५३ ६० २४ ७३ ५३ [ ] पुष्करिणी [ ग्राम ] पुष्करी [ ग्राम ] पुष्पमाला [ साध्वी ] पुहविराय [पृथ्वीराज, राजा ] पूनड [ सा० ] पूनसी [ महं० ] पूनपाल [ सा० ] ५५ ३३ ६६ ५३ ५५ पूना [ सा० ] नाक [ सा० ] पूनाणी [ सा० ] पूर्ण [ सा० ] पूर्ण [ ठ० ] पूर्णकलश गणि पू (स्व) र्णगिरि पूर्णचन्द्र [ मुनि ] पूर्णचन्द्र [ रोहड, सा० पूर्णचन्द्र [ सा० ] पूर्णदेव गणि पूर्णरथ [ मुनि ] पूर्णशेखर [ मुनि ] पूर्ण श्री [ साध्वी ] पूर्णश्री [ गणिनी ] पूर्णसिंह [ महं० ] पूर्णसिंह [ सा० ] [] १०५ ६३, ७२ ५२ ५१ ६१ ६६ ४९, ५१ ५६ २३, ४४ ] ६५, ८५ ७३, ७९ २०, ४४ पूर्णपाल [ सा०] ५३, ५५, ७८ पूर्णभद्र गणि ४४ पूर्ण पूर्णिमा [ गच्छ ] पृथिवीनरेन्द्र ( पृथ्वीराज ) पृथ्वीचंद्र [ राजा ] पृथ्वीराज [ राजा ] २३ ५१ १८, १९ ४९ ५४, ५७ ५१, ८७ २३ ३४ २९ ४४-४६. २५-३३, ४३, ४७, ८४ ५२, ७३ पेथड [ सा० ] पोरवाड [ स ] पौर्णमासिक [ गच्छ ] ८९ ३६ प्रतापकीर्ति [ क्षुल्लक ] ६३ प्रतापसिंह [30] प्रतापसिंह [ सा० ] ६६, ८१ ८०, ८६. प्रद्युम्नसूर ४३. प्रद्युम्नाचार्य २६, ३८-४३, ४६. प्रधानलक्ष्मी [ साध्वी ] ५२ ४९, ५१ प्रबोधचन्द्र गणि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 cmoc ५२ बूल्हावसही १०६ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। प्रबोधमूर्ति [मुनि] बालादे [ राज्ञी ] ९४, ९५ । भावडायरिय [गच्छ ] प्रबोधमूर्ति गणि बाहड [ देवगृह ] १६ भावदेव [ मुनि ] प्रबोधसमुद्र [ मुनि ] ५३ बाहड [ भां०] भावनातिलक [मुनि] प्रभावती [ महत्तरा] बाहड [ सा०] भावमूर्ति [ क्षुल्लक ] प्रमोदमूर्ति [ मुनि ] बाहडमेरु [नगर ] ४९, ५१, ५६ । भीम [क्षेत्रपाल] प्रमोदलक्ष्मी [ साध्वी] बाहडमेरवीय [ संघ] ६२ | भीम [सा०] ५५, ८३ प्रमोदश्री [गणिनी] ४९,५० बाहला [सा०] ६० भीमदेव [ राजा] ३४, ४३ प्रसन्नचन्द्र [ मुनि] बुद्धिसमृद्धि [ग० प्रवर्तिनी] ५१, भीमसिंह [ राजा] २३, २४ प्रसन्नचन्द्र गाण ५९, ६३, ६९ भीमसिंह [सा.] ५३ प्रसन्नचन्द्राचार्य बुद्धिसागर [ मुनि ] भीमपल्ली [ग्राम ] ४४, ५०, ५१, प्रल्हादन [बृहत्तर] बुद्धिसागर गणि ५६, ५९, ६०, ६२-६४, प्रल्हादनपुर [नगर ] ४७, ४९-५२, बुधचन्द [ सा०] ६९-७१,७३, ७७-७९, ८७ ५४-५६, ५९, ६०, ६३, ८७ बूजडी [ग्राम] भीमपल्लीय [संघ]६०,६२,७१,७९ प्रल्हादनपुरीय [संघ] ५०, ५२ बूजद्री [ग्राम] भीमा [ भां०] ৩৩ ५७, ६०, ६२, ८० भीमा [ सा०] ६३, ७२ बृहवार [ग्राम] ४४,४६ प्राकृत [ भाषा] २८, ३१ भीष्म [ सा०] ७२ बोधाक [सा०] प्रियदर्शना [ साध्वी] ५२ भुवणाक [ सा०] बोहिथ [ सा] भुवन [ सा०] प्रियदर्शना [गणिनी] ६४, ६९ बोहित्थ [ सा०] भुवनकीर्ति [ मुनि] प्रियधर्मा [ साध्वी ] ब्रह्मचन्द्र गणि [वा०] १८, १९ भुवनचन्द्र गाण [वा०] प्रीतिचन्द्र [ क्षुल्लक] ५९ ब्रह्मदेव [ महं०] भुवनतिलक [ मुनि] फलवर्द्धिका [ नगरी] २४, २५, ब्रह्मशांति [यक्ष ] भुवनपाल [ सा०] ४९, ५२ __३४, ६४-६६, ७२, ७६ भउणा [ भां०] भुवनमूर्ति [ क्षुल्लक] फेरू [ठ०] ६६, ६७, ७२ भडसीह [ सा०] भुवनलक्ष्मी [ साध्वी] ५८ बज्जल [ सा०] भद्रमूर्ति [ क्षुल्लक] भुवनश्री [गणिनी] बब्बेरक [ग्राम ] २०, २३, २५, भरत [क्षेत्र] भुवनसमृद्धि [ साध्वी ] भरत [ सा०] भुवनसिंह [मंत्री] बरडिया [ नगर] भरतकीर्ति [ मुनि ] भुवनसुन्दरी [ साध्वी] बहिरामपुर [ग्राम ] ८२, ८३, ८४ भरवच्छ [नगर] भुवनहित [ मुनि] बहिरामपुरीय [ संघ] ८२, ८३ भरहपाल [ठ० सा०] भृगुकच्छ [नगर] बहुगुण [सा०] ५३ भवनपाल [ सा०] भोखर [ सा०] १६ बहुचरित्र [ मुनि] भाडा [ सा.] ६१ भोजराज [ मं० ] ६१,६४,७७,८० बहुदाक [श्रावक] भादानक [नगर] २८, ३३ भोजराज [राजा] बांचू [ सा०] ६० भामह भोजा [४०] बालचन्द्र [सा०] भावड [ सा०] भोजा [सा०] ७२, ७४, ८७ ६०, ८६ . . so AW w O m w १६ ५० ० ० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ or २३, २४ m 0.0 nuroom ur ५५ / oc ६८ 300 6 v CG0 २० १ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। १०७ भोजाक [वसा०] मलिक मानदेव [सा०] भोलाक [ सा०] मल्लदेव [महामात्य] मानल [ सा०] मङ्गलकलश [ मुनि ] महण [सा०] मानभद्र गणि मङ्गलनिधि [ साध्वी] महणपाल [व्यव०] ७८ मारव मङ्गलमति [गणिनी] महणसिंह [मंत्री] मारुवत्रा [ देश] मङ्गलमति [ साध्वी ] महणसिंह [सा०] ६४,७२-७६ मालदेव [ राणाक] मङ्गलश्री [ साध्वी ] महणसीह [ सा०] मालदेव [सा०] मण्डलिक [मं०] महणा [ सा०] ६६ मालव [ देस] ९०, मण्डलिक [राजा] ५१ महम्मदसाहि मालव्य [ देश] मण्डलिक [व्यव.] ७८ महाधर [सा०] ८३, ९३ माहला [ सा०] मतिचन्द्र [ मुनि ] महाधर [ सिठि ] मीलगण (सीलण ?) मतिप्रभ [ क्षुल्लक] महावन [ देश] [दण्डाधिपति] मतिलक्ष्मी [ साध्वी] ६४ महाविदेह [क्षेत्र] ५, ७, ८९ मुक्तावली गणिनी मथुरा [ तीर्थ] २०,६६-६८ महावीर [ दिगंबर ] ४४ मुक्तिचन्द्रिका [ साध्वी] मदन [ठ०] ६७ महावीरचरित [ग्रन्थ] १५ मुक्तिलक्ष्मी [ साध्वी ] मदनपाल [ राजा] २१, २२ महाश्री [ क्षुल्लिका] मुक्तिवल्लभा [ साध्वी] ५२ मनोदानन्द [पं०] ४४-४६ महिराज [ सा०] ६६, ७३ मुक्तिश्री [ साध्वी ] मनोरथ [ कां०] ५३ महीपाल [ महाराज] मुक्तिसुन्दरी [साध्वी] मन्त्रिदलकुल ६५, ६६, ७०-७२, महीपाल [ सा०] मुद्रस्थला [ग्राम ] ___ ७९, ८१ महीपालदेव [ राजा] मुनिचन्द्र [ उपाध्याय] मन्दिरतिलक [प्रासाद] महेन्द्र [मुनि] मुनिचन्द्र गणि ४४,७० मन्ना [ सा०] माइयड [ग्राम] मुनिचन्द्र [ मुनि] मम्मणवाहण [ नगर ] मागधी [ भाषा] मुनिचन्द्राचार्य मम्मी [सा०] ८६ माघकाव्य [ग्रन्थ] मुनिवल्लभ [मुनि ] ५६, ६० मरवट्ट [ देश] माङ्गलउर [ नगर] मुनिसिंह [ मुनि] मरुकोट्ट [ नगर ] ८, ९, १३, २०, माणचन्द्र [ मं०] मुरारि [ नाटक] २३, ३४, ६५, ७३ । माणदेव [सा०] मुन्धराज [ मं०] मरुकोट्टीय [ संघ] ५८ माणिभद्र [पं० मुनि ] २४ मूधराज [ मन्त्री] मरुदेवी [गणिनी] माणिभद्र गणि [ वा०] मूलदेव [सा०] ५१, ६० मरुस्थल ३६, ४१, ६५ माणू [ सा०] मूलराज [ सा०] ५३, ८१ मरुस्थली १६, ३९, ५८, ६४, माण्डव्यपुर [ग्राम ] ३४, ३६, ४४ मूलिग [ सा०] ५१-५३, ५५ ८१, ८२ माण्डव्यपुरीय [ संघ] मेघकुमार गणि मलयचन्द्र [मुनि] माधव [ मंत्री] मेघनाद [ क्षेत्रपाल] मलयसिंह [मंत्री] ৩৩ मानचन्द्र गणि [वा०] २५, मेघमूर्ति [ क्षुल्लक ] मलिकपुर [ग्राम ] मानदेव [ मुनि ] ४४ मेघसुन्दर [क्षुल्लक] ८८ OY ००० ३३ ८२ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ मेडता [ ग्राम ] मेदपाटी [ संघ ] मेदपाड [ देश ] मेरुकलश [ मुनि ] मेलू [ सा० ] मेहनाअ [ खित्तपाल ] मेहर [सा० ] मेहा [ मं०] मोकलसिंह [ सा० ] मोख [ सा० ] मोखदेव [ सा० ] ७५, ७७, ८२, ८७, ८८ ८२ ५० ५० ६२ ५७, ७०, ७३, ७४, ८३ मोदमूर्ति [ क्षुल्लक ] मोदमन्दिर [ मुनि ] मोहक [ सा०] मोहण [ श्रेष्ठी ] मोहण [ सा०] मोहन [सा० ] मोहविजय [ मुनि ] मोहा [सा० ] मोहिलवाडी [ ग्राम ] ६६, ६८, ७३ ५२ ९१ ५८ ७३ ४४ १६, ६६ ६६ ६१, ६२ १६ मोहला [ श्राविका ] यतिकलश [ मुनि ] यतिपाल गणि [ पण्डित ] यमचन्द्र [ मुनि ] यमदण्ड [ दिगम्बरवादी ] यमुना [ नदी ] यमुनापार [ प्रदेश ] यशः कलश गणि यशः कीर्ति [ मुनि ] यशःप्रभा [ साध्वी ] यशश्चन्द्र [ मुनि ] यशोभद्र [ क्षुल्लक ] यशोभद्र [ मुनि ] ५७, ६० ५६ ५७ ९३ ५३ ४९ ३४ ३४ ४९ ६७ ६६ ४९ ६० ५४ २० ७४, ७७ २० खरतरगच्छगुर्वावली गतविशेषनाम्नां सूचिः । यशोभद्राचार्य ३४ यशोधर [ मुनि ] २४ शोधवल [ गोष्टिक ] ५५, ६३ शोधवल [सा०] ४९, ६५, ७१, ७७, ८५, ८६ ५५ यशोदामाला [ साध्वी ] या [जा] वालिपुर [ नगर ] ५१ युगन्धरस्वामी ७ गनपुर [ नगर ] २२, ५५, ६० ६५, ६९, ७२, ७५, ७७, ७९, रत्न [ ० सा० ] रत्नकीर्ति गणि ५२, ७६ ४९ रत्नतिलक गणि निधान [ मुनि ] रत्नपाल [ 80 ] रत्नपुर [ नगर ] रत्नपुरी [ संघ ] रत्नप्रभ गणि रत्नसुन्दरी [ साध्वी ] रत्नाकर [ मुनि ] ४९ रत्नमञ्जरी [क्षुल्लिका ] रत्नमञ्जरी [ गणिनी ] रत्नमति [ साध्वी ] ४४ रत्नवृष्टि [ प्र०, गणिनी ] ५६, ६२ रत्नवृष्टि [ साध्वी ] ५१ रत्नश्री [ साध्वी ] ५९ रत्नश्री [ प्रवर्तिनी ] ४४ रत्नसुन्दर [ मुनि ] ६० ५८ ५० ६० ६०, ६३ ५७ ४९ ५९ ६४ रत्नावतार [ मुनि ] रत्नावल [ गणिनी ] ५० ५२ ४९ रयणपाल [ रत्नपाल ] ९३ रयपति [ सा०] ७२–७७, ८४, राघवचेण [ पण्डित ] ९५, ९६ राज [ मंत्रीश्वर ] ७० राजगृह [ नगरी ] ६०, ६१, ८१ राजचन्द्र [पं०, मुनि ] ५९, ६५ ६८ ५५ राजचन्द्र [र] राजतिलक गणि [ वा० ] राजदर्शन गणि [ वा०] ५९, ७१ राजदर्शन [मुनि ] राजदेव [ सा०] ५१-५३,७८ राजपुत्र [भां०] ललित [ मुनि ] ५१ ५३ ५० राजशेखर [ मुनि ] ५१ राजशेखर गणि ६०, ६१ राजशेखराचार्य ६३, ७१ राजसिंह [सा०] ७०, ७३–७७,८७ राजा [ भां०] ५३, ५७, ७२ राजाक [ भां० ] ५३ ५३ राजाक [ सा० ] राजीमती [ गणिनी ] ४९ राजू [ श्राविका ] राजेन्द्रचन्द्राचार्य राजेन्द्राचार्य राणकोट [ ग्राम ] राणुको [ ग्राम ] रातू [ ठ० ] रातू [ सा० ] रामकीर्ति [ क्षुल्लक ] ५८, रासल [ सा० ] सल [ श्राविका ] राहला [ श्रा० ] हड [ वंश ] ५५ ६५, ६९, ७० ७१ ८२ ६३ ६६ ७२ ६२ ४४ रामचन्द्र [ मुनि ] रामचन्द्र गणि [ वा०] १८, १९ रामदेव [ महाराजा ] रामदेव [ मुनि ] ८८ ४४ २५, ३२, ३३ रामदेव [ सा०] रामशयनीय [संघ ] ५७ १६, २०, ४० ५३ ४९ ७५, ७६, ८५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। ५८ ४४. ४ ० ० mmmm २ . ० ४४ रुणा [ग्राम ] ६३, ६६ । लब्धिनिधान गणि वयरस्वामी ७३, ८२ रुणापुरी [ग्राम] लब्धिनिधान महोपाध्याय ८५-८८ वरकीर्ति [ क्षुल्लक] रुणापुरीय [ संघ] लब्धिमाला [ साध्वी] वरडिया [ग्राम] रुदओली [नगर लब्धिसुन्दर [ क्षुल्लक] वरणाग गणि [वा०] रुदपाल [ सा० ] ६६, ६९, ७१, ललितकीर्ति [ क्षुल्लक ] वरदत्त [ मुनि ] ७५, ७७, ७९, ८० ललितप्रभ [ मुनि] वरदत्त गणि [वा०] रुद्दपल्ली [ गच्छ ] ९२ ललितश्री [ क्षुल्लिका] वर्धमान [ मुनि ] रुद्रपल्ली [ ग्राम ] १७, १८,२०,२१ लवणखेटक [ नगर] वर्धमान सूरि १, ३, ५, ८२ रूदा [सा०] ६५ लाखण [ सा०] ७३, वर्धमानचन्द्र [मुनि] रूपचन्द्र [सा०] ५१, ६१ लाखू [ सा०] वर्द्धमानाचार्य रूपा [ सा०] ७२, ८३, ८४ लाटहृद [ग्राम ] वश्याय [गोत्र नाम] रूवाक [सा०] लाडणुवाड, वस्तुपाल [ महामात्य ] ४९,६२,७८ रोहद [ग्राम ] ६६, ६८ लाभनिधि [मुनि] वस्तुपाल [ सा०] ७३ रोहण्ड [कुल; वंश !] लारवाहण [ग्राम] वागड [ देश ] १२,१७-१९, रोहंड [ सा०] लारवाहणीय [ संघ] ३४,६०, ६५,६६,६८, ९१ लक्षणपञ्जिका [ग्रन्थ] लाले [श्रा०] वागीश्वर [ पंडित] २५ लक्ष्मीकलश [ मुनि] लीलावती कथा [ ग्रन्थ] वाग्गड [ देश] लक्ष्मीतिलक उपाध्याय ५५ लूणसीह [ सा०] वाग्गडीय [ संघ] ४४,५०,५२ लक्ष्मीतिलक गणि ४९, ५१ लूणा [ भण.] ६३, ७७ वाग्भट मेरु [ग्राम ] ५०,८०८६ लक्ष्मीधर [भां०] लूणा [सा०] वाग्भट मेरवीय [ संघ] ५७, ८० लक्ष्मीधर [ यवहरक, सा०] ४४ लूणाक [ भण.] वाछिग [सा०] १४ लक्ष्मीधर [व्य०] ४३, ४४ लूणिगविहार [ मन्दिर ८७ वाणारसी [ नगरी] ६०, ९५ लक्ष्मीवर [ सा०] ४९, ८५ लूणीवडी [ग्राम] ७२ वादली (दिल्ली) लक्ष्मीनिधि [ महत्तरा] ५०, ५२ लोहट [ठ०] वादस्थल [ग्रन्थ ] लक्ष्मीनिवास [मुनि] ५२ लोहट [ सा०] ७९ वादस्थान [ग्रन्थ ] लक्ष्मीनिवास गणि लोहड [ सा०] वाधू [सा०] लक्ष्मीमाला [गणिनी] लोहदेव [ सा०] ६०, ६४ वायड [ग्राम] ६३, ७३, ७८ लक्ष्मीमाला [साध्वी] ५५ । वज्रस्वामी ६६, ७५, ७७, ७८ । वालाक [ देश] ७४ लक्ष्मीराज [मुनि] ५२ वटपद्रक [ नगर] वासल [ सा०] १६, १८ लख(क्ष) ण [रङ्गाचार्य, सा०] ७७ वत्थड [ सा०] ५० वा(बा)हडमेर [ नगर] ९२ लखण [ सा०] ६४, ८४ वद्धमाणसूरि ८९, ९० विक्रमपुर [ नगर ] १३, १८-२०, लखम [सा०] वद्रदहा [ग्राम ] २३, २४, ३३, ३४, ४४, लखमसिंह [ सा०] ५९,७३ । वयजल [सा०] ५६, ७८ ५२, ५८ लखमा [सा०] वयरसिंह [ मं०] ८८ विक्रमपुरीय [ संघ] ५८ लब्धिकलश [ मुनि ] | वयरसिंह [सा०] ६५, ६६,८२ विगतदोष [मुनि ] ६३ ६६ २२ ६१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० विजय [ ठ०, सा०] विजयक [ ठ०, सा०] विजयकीर्ति [ मुनि ] विजयचन्द्र [ मुनि ] विजयदेव सूरि विजय [भ] मु विजयमूर्ति [ क्षुल्लक ] ४४ ४५ ४९ ४४ ४९ ४९ ८२ ६० ४९ ५२ ६६, ६९, ७० 2 ८ विजया [ देवता] द्यचन्द्र [गणि] ४९ विद्यानन्द [ पं० ] ५१ विद्यापति [ पंडित ] २५, २६, २८ विद्यामति [ गणिनी ] ४९. २० ८२ विजयरत्न [ मुनि ] विजयवर्धन गाण विजयसिद्धि [ साध्वी ] विजयसिंह [ठ०] ६५, विनयचन्द्र [ मुनि ] विनयधर्मा [ साध्वी विनयप्रभ [ क्षुल्लक विनयभद्र [ वा० ] विनयमति [ गणिनी ] विनयमाला [ गणिनी ] विनयरुचि गणि विनयशील [ मुनि ] विनयसमुद्र [ मुनि ] विनयसागर [ मुनि ] विनयासीद्ध [ साध्वी ] विनयसुन्दर [ क्षुल्लक ] विनयानन्द गणि विन्ध्यादित्य [ मन्त्री ] विबुधराज [ मुनि ] विमल [ मुनि ] विमल [ दंडनायग] विमलचन्द्र गणि ८० २४ ४९ ४९ ९४ २० ५३ २३ ५२ ५८ ४४ खरतरगच्छगुवावेलीगत विशेषनाम्नां सूचिः । विमलचंन्द्र [ सा० ] विमलप्रज्ञ [ मुनि ] विमलप्रज्ञ [ उपाध्याय ] विमलविहार [ मन्दिर ] ५७ ५१ ५ ८९ १८, १९, ४७ ५०, ५५ ५० ५५ ८७ ८४ ४९ ४४ ४९ ४९ ६० ६८, ६९, ७९, ७१ ५२, ५७, ५९ ६० ९१ ८४ विमलाचल [ तीर्थ ] विवेकप्रभ [ मुनि ] विवेकश्री साध्वी ] [ विवेकश्री [ गणिनी ] विवेकसमुद्र [ मुनि ] विवेकसमुद्र [ उपाध्याय ] विवेकसमुद्र गाणि विश्वकीर्ति [ मुनि ] विपिक्ख (विपक्ष ) वकिल [ सा० ] वकिल [ सा० ] ८२ जिड [ सा० to ] ५३, ६१, ६२ वीजा [सा०] ६०, ७२, ७६,८७ ५१ [स] जापुर [ नगर ५५, ५७, ४९, ५१, ५३, ५९, ६२, ६३, ७०, ७१ वीजापुरी [ संघ ] वीर [सा० ] aftaar [ गणि] वीरचन्द्र [ मुनि ] वीरधवल [ सा० ] वरिपाल [ सा० ] वीरप्रभ गणि ४ [ मुनि ] ५९, ६०, ७१, ८० ७९ ४९ २३, ६१ जय [ मुनि ] वीणाग [ हेडावाहक ] वीरतिलक [ गणि] वीरदेव [ मुनि ] वीरदेव [ सा०] ७०,७१,७७-७९, ८६, ८७ २० ४२ ४९ २३ ५३ ३२ ४, ४६-४८ ५२ वीरभद्र [ मुनि ] वीरभद्र गणि वीवल्लभ [ मुनि ] वीरशेखर [ मुनि ] वीरसुन्दरी [ साध्वी ] वीराणन्द [ मुनि ] वील्हा [ मं० ] वीसल [ सा० वृत्तप्रबोध [ ग्रन्थ ] •] वृहद्माम वेला [ सा० ] व्रतधर्मा [ साध्वी ] २० ४५ ५० ६०. ५२ व्रतलक्ष्मी [ साध्वी ] श्री [ क्षुल्लिका ] व्यवहार [ सूत्र-ग्रन्थ ] ४० व्याघ्रपुर [ नगर ] १८, २४ शङ्खश्वरपुर [ तीर्थ ] ६०, ६३, ७४ शत्रु [ महातीर्थ ] १७, ३४, ३९, ४९, ५२, ५३, ५५, ६२, ६३, ७१, ७२, ७४-७९, ५० ६६ ६४ ५७ ६० ८३ ६३ ५२ ६२ शान्ति [ श्रा० ] शिखर [ राणक ] शिरखिज [ ग्राम ] शिवराज [ सा० ] शत्रुञ्जयतलहट्ट शम्भाणा [ ग्राम ] ६ शम्यानयन [ ग्राम ] ५८- ६५, ८०, ८१ शीतलदेव [ राजा ] शीलधर्मा [ साध्वी ] शीलभद्र [ मुनि ] शीलभद्र गणि [ वा० ] ८५, ८७ ७४, ७९ शम्यानयनीय [ संघ ] ५७,६२,८० शरच्चन्द्र गणि शान्तनपुर शान्तमति [ साध्वी ] शान्तमूर्ति [ मुनि ] ४९ ५१ ४४ ५२ ५१ ८६ ७८ ७२ ६१ ८२ १८ १९ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छगुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः। १११ ४९ our m ४९ mm 9 ९ ७१,८७ ५६ ५६ शीलमञ्जरी [ क्षुल्लिका] शीलमाला [गणिनी] ४९ शीलरत्न [ मुनि] शीलसमृद्धि [ साध्वी) शीलसागर [ मुनि] २२, ३४ शीलसुन्दरी [गणिनी] शुभचन्द्र [ मुनि ] शूरसेनी [भाषा] शेरीषक [ तीर्थ ] ६२, ७८, ७९ श्याम [सा०] ६४ श्यामल [सा०] श्रीकलश [मुनि] श्रीकुमार श्रीचन्द्र [ मुनि ] २४ श्रीचन्द्र [सा०] श्रीतिलक [ उपाध्याय ] ५४ श्रीदेवी [ साध्वी ] श्रीपति [ सा०] ५२, ५३, ७३ श्रीप्रभ [ मुनि ] ४४ श्रीमती [ साध्वी ] १८, १९ श्रीमाल [ कुल ] ५५, ६३-६६, ६८, ७०, ७२, ७३, ७५, ७७, ७९, ८६ श्रीमाल [ ज्ञाति ] ६० श्रीमाल [ नगर] श्रीमाल [वंश] श्रीमालीय [ संघ ] ६०, ६६, ७८ संघपट्टय [ पगरण ] सहजा [सा०] ५०, ७९ संघप्रमोद [ मुनि] सहणपाल [ मंत्री] संघभक्त [ मुनि ] सहदेव [ मुनि] संघहितोपाध्याय सहदेव [ वैद्य] साऊ [श्राविका] सड्ढक [ सा०] सागरपाट [ नगर ] २०-२३, २५ सहिया [ सा०] १८, १९ सांगण [सा०] सत्यपुर [ ग्राम ] ६३,७७,८०,८६ सांगण [मं०] सत्यपुरीय [ संघ] ६०, ८० सांगा [ सा०] ८७ सत्यमाला [गणिनी] साढल [ सा०] २३,५१,६३, सं (रु ?)द्र [राजा] सातसिंह [सा०] सपादलक्ष [देश] ६४, ६५, ७३ साधारण [बल०] सपादलक्षीय [ संघ ] ४३, ६१, ८७ साधारण [सा०] ९०, १५, ९१ समरसिंह [राजा] साधुभक्त [मुनि ] समाधिशेखर [ मुनि] सामन्त [ महं०] समुद्धार [श्रा०] ५६ सामन्तसिंह [ राजा] ५९, ८७ समेतशिखर [ तीर्थ ] सामल [दो०] ७९ समेत [ तीर्थ] सामल [ सा०] ६०, ६३, ७०, सम्प्रति [ राजा] __७३, ७७, ७९, ८४ संयमश्री [ साध्वी] सारङ्गदेव [ महाराज] ५७, ८८ सरस्वती [ देवी] सारमूर्ति [ क्षुल्लक ] सरस्वतीश्री [साध्वी] सालाक [प्रतीहार] सरस्सई [ नदी] सावदेव [सा०] सर्वज्ञभक्त [ मुनि] साहारण [ सावग] सर्वदेव [ मुनि ] साहुलि [ सा०] सर्वदेव गणि सितपट सर्वदेव सूरि ४४, ४७, ४८ सिद्धकीर्ति गणि सर्वदेवाचार्य सिद्धसेन [आचार्य] सर्वराज [ मुनि ५२ सिद्धसेन [मुनि] सर्वराजगणि [वा०] सिद्धान्त यक्ष ५९, ७१ सलखण [ पुर] . ५३ सिन्धु [ देश ] ६५,७३, ८१, ८२, सलखण [सा०] ६०-६२, ७९ ८४, ८५ सलखणसिंह [मन्त्री] ७७, सिन्धुमण्डल ६४, ८१, ९२ संवेगरंगशाला [ ग्रन्थ] सिरिमाल [नगर] ९१, ९३ सव्वगणि (सर्वगणि) ९२ सिरियाणक [प्राम] संस्कृत [भाषा] ३१, ४०, ४१ । सिलारवाहण सहजपाल [ सा०] ७१ सीधपुर [नयर] सहजपाल [साकरिया] | सीमन्धरस्वामा २० ८०, ८७ ५२ 2४०० ८० श्रीमालपुरीय [संघ] श्रीवत्स [ठ.] श्रेणिक [राजा] श्वेतपट ११, १३, २६, ३० श्वेताम्बर २५, ६७, ८३ श्वेताम्बराचार्य 'षां(खां)डासराय [ग्राम] सकल [नगर] सकलहित [मुनि ] संघपट्ट [प्रन्थ] mo Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सीहा [सा० ] सीवा [ सा०] सुखकीर्ति [ क्षुल्लक ] सुखकीर्ति गणि सुधर्मस्वामी सुधाकलश [ मुनि ] सुन्दरमति [ साध्वी ] बुद्धिराज [ मुनि ] सुबुद्धिराज गणि सुमति [ मुनि ] सुतिकीर्ति [ मुनि ] सुमति गणि ६०, ६१ ७३ ५९ ७८ ३, १७, ७७, ८२ ५६, ६० ४४ सुमतिसार [क्षुल्लक ] सुभट [ सा० ] सुरराज सा० सुरत्राण सुरा [ सा०] सुराष्ट्र [ देश ] सुवर्णगिरी [ पर्वत ] सुहडपाल सूण्टा [ सा० ] सूरप्रभ [ मुनि ] सूरप्रभ [ उपाध्याय ] सूराचार्य सेढी [ नदी ] सेदू [ ठ०] सेत्तुज [ महातीर्थ ] सेयंवर [ श्वेताम्बर ] सोम [ मन्त्री ] सोम [राजा ] सोमकीर्ति [ क्षुल्लक ] सोमचन्द्र [ पं० ] सोमचन्द्र [ मुनि ] सोमचन्द्र गणि ५ ५९ ४४-४७ ७७ ६१, ६५, ७० ६६, ७९ ६८, ७२ ८७ ६२, ७५, ७६ ५२, ५५ ९३, ९४ ७८ ४४, ४७ ४९ २, ३ ६, ९० ६५, ६६ ९१, ९६ ९० ५१ ५८ सोमदेव [ मुनि ] सोमदेव [ सा० ] सोमध्वज [ जटाधर ] सोमप्रभ [ क्षुल्लक ] सोमप्रभ [ मुनि ] ५२ ६० ८१ ५, १४, १५ ६५ १६ ३४ ४३, ८६ १, २ ८० ४४ खरतरगच्छ गुर्वावलीगतविशेषनाम्नां सूचिः । सोमर [यक्ष ] सोमल [ सा० ] सोमसुन्दर [ क्षुल्लक ] सोमसुन्दर गाण v w y x m हम्मीरपत्तन [ नगर ] हम्मीरपत्तनीय [ संघ ] ९२ हरिराज [ ८० ] हरिसिंह [] हरिसिंहाचार्य ५६ ५८ ५९ ५१ सोमाक [ कां०] सोमेश्वर [ राजा ] सौम्यमूर्ति [ मुनि ] स्तम्भतार्थ ६०, ६२, ६९, ७७, ७८, ७९ स्तम्भतिर्थीय [संघ ] ५२, ५६, ७० स्तम्भनक [पुर, महातीर्थ ] ६, १७, ३९, ४९, ५१, ५५, ७८, ८६ स्थान [ ठाणांग, सूत्र ] स्थिरकीर्ति [ मुनि ] स्थिरकीर्ति गणि [ श्रा० ] स्थिरचन्द्र [ मुनि ] स्थिरचन्द्र गणि [ वा० ] स्थिरपाल [ गोष्ठिक ] ७ स्थूलभद्र ६२ ५३ ५४ ५९ १८ ८५ स्याद्वादरत्नाकर [ ग्रन्थ ] स्वर्णगिरी [ पर्वत ] ५१, ५४, ५९ १६ १३ हरिचन्द्र [ सा० ] ५५ हरिपाल [ ठ० ] ४३ हरिपाल [ राणक ] ८६ हरिपाल [ सा० ५०-५५, ६४, ७३, ८०, ८२-८६ हरिपाल [ सा०री, सार्थवाह ] ६५ हरिप्रभ [ क्षुल्लक ] ८० ५ हरिभद्र [ मुनि ] हरिभद्रसूरि ३८ ६८ १९ ६३ ७७ ५ १५, १६, १९ हरु [दलिक, सा० ] ५५,७२, ७५ हर्षचन्द्र [ मुनि ] ८६ [ मुनि ] ४९ प्रभा [ साध्वी ] मूर्ति [ क्षुल्लक ] सुन्दरी [ साधी ] हस्तिनापुर हाला [ सा०] हाँसिल [ ठ० } मूर्ति [क] ] हाँसिल [ वै० ] ५३ हिन्दुक हिन्दुग [ जाति ] ६६, ७४, ७८, ८०, ८१, ८२ ६४ ५३ ५० ५० ५२ ७७. ५० ५५ ५६ ६०, ६२ २० हीरल [ सा० हीरा [ श्रे० ] हीराक [ गोष्ठिक ] हीराकर [ मुनि ] हुलमसिंह [ श्रा० ] हेम [ सा० ] हेमचन्द्र [सा० ] तिलक [ मुनि ] हेमतिलक गणि हेमदेवी [ गणिनी ] पर्वत [ मुनि ] प्रभ [ मुनि ] हेमप्रभ गणि प्रभा [ साध्वी ] भूषण [ मुनि ] भूषण गणि मूर्ति [ क्षुल्लक ] हेमराज [ सा० ] ५४ ८२ ५८ ६०, ६६, ६७ ६० ६३. मन गणि ५० ४९ ५६ ५४ ५२ ६१, ६९, ७० ८२ ६० हेमल [रोहण्ड, सा०] ७३,७५,८५ लक्ष्मी [ साध्वी ] श्री [गणिनी ] सेन [ मुनि ] माक [ श्र० ] मावली [ गणिनी ] हैमव्याकरण [ ग्रन्थ ] होता [ सा० ] ६० ४९ ५३ ६९ ५५ ४९ ३९, ७१ ८७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्वावलीगत नृपति-मन्त्रि- दण्डनायकादि-सत्ताधारिजनानां नाम्नां पृथक सूचिः । देवराज [ मंत्रीश्वर ] देवसिंह [ मं०] देवसिंह [ 80 ] अचल [ ठक्कुरराज ] ६५–६८, ८१ अचला [ ठ० ] ६७ ५२ अजित [ महं० ] अभयकुमार [ मंत्रीश्वर ] ७५ अभयड [ दण्डनायक ] ३९, ४०, ४२, ४३ ५६ अरसिंह [ राजपुत्र ] अर्णोराज [ नृपति ] 'अलादीन [ सुरत्राण ] अश्वराज [ठ०] आटा [भां०] आभुल [ठ० ] आम्बड [ सेनापति ] आसघर [ठ० ] आसपाल [ठ० ] आसराज [ राणक ] उदयकर्ण [ठ० ] उदयसिंह [ राजप्रधान ] उदयसिंह [ नृपति ] कक्करिउ [ राजप्रधान ] कर्णदेव [ नृपति ] कर्णराज [ प्रधान ] ५०, ५१, ८७, ८८ इमास [ मण्डलेश्वर ] २५-२७, II [ राजप्रधान ] कुतबदीन [ पातसाहि ] कुतुबदीन [ सुरत्राण ] कुमर [ मं० ] कुमरपाल [ ठ० ] कुमरसिंह [ ठ० ] १६ ६७ ४९ ५३ ४४ २३ १६, १७ ७१ ४४ ७९ ८७ २९, ३०, ३३ २४ ५८ ५६ २४ ६७ ६६ ७७ ६६ ६५, ७० कुलधर [ महं०] कल्हण [ राणक] केल्हा [ मं० ] क्षेत्रसिंह [ प्रधान ] खांभराज [ दो ] ७३ ५६ ७९ ५९ ६१ हाक [मं० ] ८१ ग्यासदीन [ पातसाहि ] ७२. ७७ ५९ ५१ ६० ५९ खेतसिंह [ भां०] गज [ भां०] ४४, ४९ ४४ चण्ड [ मंत्री ] चाचिगदेव [ नृपति ] चाड [ प्रधान ] छाइड [भां० ] जगदेव [ प्रतीहार ] जसिंह [ भां०] जगसींह [ भां०] ३४, ४३ ५९ ४९ जवनपाल [ ८० ] ६०, ६६७९ जेसल [ मंत्री, ठ०] ७० जैत्रसिंह [ ठ० ] ७० जैत्रसिंह [ महं० ] ५० ६१ जैत्रसिंह [ नृपति ] तिहुण [ मंत्री ] ६० थिरदेव [ठ० ] ६४ दिदा [ राजप्रधान ] दुर्लभ [ भण० ] दुर्लभराज दुल्लहराय दुस्साज [ मं०] ६१ देदा [ महं०] ५२, ५३, ५५, ५९ देदाक [ महं० ] ५३ ६६, ७२, ७४ देपाल [ ठ० २४ ६२, ६३ [ नृपति ] २, ३,९० देहड [ ठ० ] नयनसिंह [ मंत्री ] नरवर्म [ नृपति ] नरसिंह [ भण० ] नाणचन्द्र [ मंत्री ] नावन्धर [ भां०] [ [ राजप्रधान ] नेमिचन्द्र [ भां०] पउमसिंह [ ८० ] नसी [ महं० ] पूर्ण [ ठ० ] पूर्णसिंह [ महं०] पृथिवीनरेद्र ( पृथ्वीराज ) पृथ्वीचंद्र [ नृपति ] पृथ्वीराज [,] ६९ ६४ ६६, ६७. ६४ ६१ १३. ६३, ७१ ६१ ७० पद्म [ भां०] ६१ पाहा [ ठ० ] ७० विराय ( पृथ्वीराज ) [ नृपति ] ३३ ५३ ६६ ५४, ५७ २९ ४४-४६ २५–३३, ४३, ४७, ८४ प्रतापसिंह [ठ० ] फेरू [ ८० ] CIES [ भां०] ब्रह्मदेव [ महं० ] भणा [भां०] भरहपाल [ठ० ] भीमदेव [ नृपति ] भीमसिंह [,] भीमा [ भां०] ५३ ७२ ४४, ९३ ६६, ८१ ६६, ६७, ७२ ५६ ५४ ६३ ६२ ३४, ४३ २३, २४ ५९ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्वावलीगतनृपति-मन्त्रि- दण्डनायकादि-सत्ताधारिजनानां नाम्नां पृथक् सूचिः । भुवनसिंह [ मंत्री ] ६१ रणपाल ( रत्नपाल ) श्रीवत्स] [ ठ० ] राच [ मंत्रीश्वर ] श्रेणिक [ राजा ] २९ राजपुत्र [भां०] भोजराज [ मं०] ६१, ६४, ७७, ८० भोजराज [ नृपति ] भोजा [ ठ० ] मण्डलिक [ नृपति ] ६६ सं (रु ? ) द्र [ राजा ] समरसिंह [ नृपति ] सम्प्रति [ ] ५१ ८८ मण्डलिक [ मं० ] मदन [ ठ० ] ६७ मदनपाल [ नृपति ] २१, २२ मलयसिंह [ मंत्री ] ७७ मल्लदेव [ महामात्य ] ११४ ५७ ५५ महणसिंह [ मंत्री ] महम्मदसाहि [ पातसाह ] ९४-९६ महीपाल [ नृपति ] माधव [ मंत्री ] मालदेव [ राणाक ] मीलगण ( सीलण ? ) [ दण्डाधिपति ] मुन्धराज [ मं० ] धराज [ मन्त्री ] मेहा [ मं० ] रत्नपाल [ठ० ] ७५, ८८ ५९ ६८ ५९ ६९ ६५ ६६ ६० राजा [भां०] राजा [ भां०] रातू [ ठ० ] रामदेव [ नृपति ] लक्ष्मीधर [ भां० ] लूणा [ भण० ] लूणाक [ भण० लोहट [ ठ० ] वयर सिंह [ मं० ] ९३ ७० ५३ ५३, ५७, ७२ ५३ ६६ ८८ ५७ ६३, ७७ ६३ २१ ८८ वस्तुपाल [ महामात्य ] ४९, ६२, ७८ विजय [ठ० ] ४४ विजयक [ ८० ] ४५ विजयसिंह [ठ०] ६५, ६६, ६९, ७० विन्ध्यादित्य [ मन्त्री ] विमल [ दण्डनायक ] ५७ ल्हा [ मं० ] शिखर [ राणक ] शीतलदेव [ नृपति ] ८९ ६६ ८६ ६१ ६८ ७० ८७ ५६ "" ७०, ७८ सलखणसिंह [ मंत्री ] ७७, ८० सहणपाल [ मंत्री ] ५९ सांगण [ मं० ] ८७ सामन्त [ महं० ] ५३ सामन्तसिंह [ नृपति ] ५९, ८७ सामल [ दो ] सारङ्गदेव [ नृपति ] ७९ ५७, ८८ ५३ ६५, ६६ ५१ साला [ प्रतीहार ] सेडू [ ठ० ] सोम [ मंत्री ] सोम [ नृपति ] सोमेश्वर [,] हरिपाल [ ८० ] हरिपाल [ राणक ] हरिराज [ ०० ] हांसिल [ ८० ] ५८ ५९ ४३ ८६ ६८ ६३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्वावलीस मुपलब्धस्थलादिज्ञापकानां विशेषनाम्नां पृथक् सूचिः । अचलेसर ] दुर्ग ] अजयमेर ८९ [ नगर, दुर्ग] १६, १९, २०, २४, २५ अजयमेरु ३३, ३४, ४४, ८४, ९१,९२, अहिलपुर पत्तण अहिल पत्त अहिलपुर पट्टण अनहिल पत्तन अब्बु गिरि [ अर्बुदगिरि ] अंभोहर [ 1 १ ६० ५, ५७, ६०, ६१ अयोध्या [ नगरी अर्बुद गर अर्बुदाचल [ तीर्थ ] आदित्य पाटक [ नगर ] आरास, सन [ महार्थ ] ७१,९७ आशापल्ली [ ग्राम ] ९० ८६ आशिका [ नगरी ] आशीदुर्ग आशोटा [ ग्राम ] आसिका [ आशिका उच्चापुर उच्चपुरी इन्द्रपुर [ नगर ] उच्चनगर उच्चानगर उच्चानगरी ३४, ४३ ९१ १४ ९० २, ८ ८९ ५, ३८, ३९, ६०, ७८ २० ८ ८७ २३–२५, ६५, ६६, ७२ २० १९, २०, २३, ३४ ७५, ८१ ६४, ६९, ८४ उज्जयन्त [ तीर्थ ] ३९, ४९, ५३, उज्जयन्त तलहट्टिका उज्जयिनी [ नगरी ] उज्जेणी [ ] " उज्जेणी [ पीढ ] विहार [ स्थान ] कडुयारी [ग्राम ] कणपीठ ] " कनकगिरि [ पर्वत ] नाणापुर [ ग्राम ] कन्यानयन [ग्राम ] ५, १७,३४, ५५, ६२, ६३, ७२,८५ ६२, ७५ १९, ५०, ५१ ९०, ९२ ९२ ६० ६६ ४७ ५१ ४६ २४, ६५, ६६, ६८, ७२ ४, ७ ६० करडिहट्टी [ वसति ] करटक [ ग्राम ] कर्पटक वाणिज्य [ ग्राम ] न्द्र [नगरी ] ९ ६० कासहृद [ नगर ] ३६ कासह [ ग्राम ] ८९ कियासपुर [,] ८२ किढिवाणा [,] ९४ कुहियप [ ४४ कोडका [ स्थान ३२ ७३ कोरण्टक [ ग्राम ] कोशवाणक ) [ ग्राम ] ६५, ६६, कोशवाणा ६८, ७३, ७६ कोसवाणा कौशाम्बी [ नगरी ] ६० क्यासपुर [ ग्राम ] ६५, ७३, ८३, ८४, ८६ क्षत्रियकुण्ड [,] खङ्गारगढ (दुर्ग) खंडेलपुर खदिरालुका [ ग्राम ] भाइति [ नगर ] खाटू [ ग्राम ] खुरासाण [ देश ] खेटनगर खेडनगर गणपद्र [ ग्राम ] गिरनार [ पर्वत ] " ] ६० ३४ ८१ २० ६२, ९१ गुहा [ग्राम ] ७३, ७९, ८० गुज्जर [ देश ] गुर्जर [ ९० ८४ गुर्जरत्रा [,] १, ४, ३४, ३६, ३८, ३९, ४३, ५७, ६४, ७०, ७१, ७२, ७८. ७६ ९१ ५६ १० चन्द्रावती [ नगरी ] ३४, ८७, ८८ चित्तकूड दुग्ग १०,१२-१५, १९, २०, ४९, ५६, ६९ चौरसिंदानक [ ग्राम ] २९ ९२ जाउ [ नगर, दुर्ग ] वालपुर [ नगर ] ६, ४४, ४७-५२, ५४, ५५, ५८-६१, ६२, ६५, ७३, ७७, ७९,८० जाहेडाग्राम ५६ घोघा वेलाकुल उस जोगिणी पीढ चक्क ( ? ) रहट्टी चण्डिकामठ * ७५, ७६ ९६. ५९ ९० ७२ ९५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ५० २० २२ गुर्वावलीसमुपलब्धस्थलादिशापकानां विशेषनाम्नां पृथक् सूचिः। जीरापल्ली [प्राम] ८६, ८७ द्रमकपुर [ग्राम ] ६७ पावापुरी [ नगरी] जीहरणि [ नगर] ९२ धवलक [ नगर] पीपलाउली [ ग्राम ] जेसलमेर [ दुर्ग] धाटी [ग्राम पुष्करिणी [,,] जेसलमेरु [ नगर ] ३४, ५२, ५८, धानपाली [,,] पुष्करी [] ६१, ६३, ८१, ८६ धान्धूका [ नगर] पू( स्व )र्णगिरि [ पर्वत ] ५६ जोगिणी पीढ धामइना [ प्राम] ६६, ६८, ७२ प्रल्हादनपुर [ नगर ] ४७, ४९-५२ जोगिणीपुर [ नगर ] धारा [नगरी] १३, १८, १९, ४४ ५४-५६,५९,६०, ६३, ८७ जोयला [ग्राम] धारापुरी [] २० फलवर्द्धिका [ नगरी] २४, २५, ३४ झुञ्झणू । } [ग्राम ] ६२, ७२ नगरकोट्ट [ तीर्थ] ६४-६६,७२,७६ नन्दीश्वर [ ,,] ५० बब्बेरक [ग्राम] २०,२३,२५,६४ टक्कउर [ ] नरपालपुर [ग्राम] बरडिया [नगर] ६० डालामउ [,] नरभट [,,] ६५, ६६,६८,७२ बहिरामपुर [ग्राम ] ८२,८३,८४ डिण्डियाणा [] नरवर [ ,,] बाहडमेरु [ नगर] ४९,५१,५६ ढिल्ली [ नगरी] २१, २२, २४, नरसमुद्र [ पत्तन ] बूजडी [ ग्राम ] ३४,५०, ९२, ९४ नरानयन [ नगर] २५ बूजद्री [,] ढिल्ली देश २, ४ नवहर [ग्राम] बूल्हावसही ढिल्ली पीढ नवहा [,] ६६, ७२ बृहद्वार [ ग्राम] ४४, ४६ दिल्लीपुर नागदह [,,] भरत [ क्षेत्र] ढिल्ली वा दली नागपुर [ नगर ] १३, १४, १६, भरवच्छ [नगर] ९२ तग [ला] [प्राम] १९, ६३-६६, ७३ भादानक [ ,] २८, २३ तारङ्गक [महातीर्थ ] ७१, ८२ नाणा [ तीर्थ ] भीमपल्ली [,] ४४,५०,५१, तारण [ , ] ५२, ५५ नारउद्र [ नगर ] ५६,५९,६०,६२-६४, तारणगढ [ , ] ५९ नारिन्दा [ स्थान ] ६९-७१,७३,७७-७९,८७ तिलपथ [ग्राम] ६७ पंचनद [ देश ] ९२ भृगुकच्छ [ नगर] ५५ तुरुष्क [देश] १७, १८ पतियाण (:) मथुरा [ तीर्थ] २०, ६६-६८ त्रिभुवनगिरि १९, २०, ३४ पत्तन [अणहिलपुर] २, ६, ७, १०, मन्दिरतिलक [प्रासाद] ५१ त्रिशृङ्गमक [ग्राम] ७१, ८७, ८८ १४,१६,१९,४४,४९, ५२ मम्मणवाहण [ नगर] थंभणय ( स्तंभनक )[.] ३५ ६०, ६३-६५, ६९-७३,७५- मरवट्ट [ देश दक्षिण देस ___७७, ८१, ८६ मरुकोट्ट [ नगर ] ८, ९, १३, २०, दारिद्रक [ग्राम ] परशुर [ कोट्ट ] [ग्राम] ८४ २३, ३४,६५, ७३ दारिद्रेरक [,] ४४ पल्ली [.] मरुस्थल ३६,४१, ६५ देवगिरि [नगर] ६९, ९२ पल्हूपुर [ ,,] ९३ मरुस्थली १६, ३९, ५८, ६४, देवपत्तन [ ,,] पाटला ८१, ८२ देवराजपुर [ ग्राम ] ६४, ६५, ७७, | पाडला SL"] ६.] ६३, ७९ मलिकपुर [प्राम] ८१, ८२, ८४, ८५ पाल्हउद्रा [,,] ७ | महावन [ देश ] २० ४४ २० Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ه ع م س م سم 6 ६६ गुर्वावलीसमुपलब्धस्थलादिज्ञापकानां विशेषनाम्नां पृथक् सचिः। महाविदेह [क्षेत्र ] ५, ७, ८९ | लूणीवडी [ ,,] शान्तनपुर माइयड [ग्राम] वटपदक [नगर] शिरखिज [ग्राम ] माङ्गलउर [नगर] ७५ वद्रदहा [ग्राम] शेरीषक [ तीर्थ ] ६२, ७८, ७९ माण्डव्यपुर [ग्राम ] ३४, ३६,४४ वरडिया[ ] श्रीमाल [नगर] ४९, ५० मारवत्रा [देश] वागड [ देश] १२,१७-१९,३४, षां (खां ) डासराय [ग्राम] ६८ मालव [,] ९०, ९२ ६०, ६५, ६६,६८,९१ सकल [नगर] मालव्य [,,] वाग्गड [ देश] ४४ सत्यपुर [ग्राम ] ६३, ८०,८६ मुद्रस्थल [ग्राम] वाग्भटमेरु [ग्राम ] ५०, ८०, ८६ सपादलक्ष [ देश] ६४,६५, ७३ मेडता [,] ६६, ६८, ७३ वाणारसी [ नगरी] ६०, ९५ समेतशिखर [ तीर्थ ] ५९, ६१ मेदपाड़ [ देश] वादली (ढिल्ली ! ) १, २० समेत [ ] ५० मोहिलवाडी [ ग्राम] वायड [ग्राम] ६३, ७३, ७८ सरस्सई [नदी] यमुना [नदी] वालाक [देश] सलखण [पुर] यमुनापार [प्रदेश] वा (बा) हडमेर [नगर] ९२ सागरपाट [ नगर] २०-२३, २५ या (जा) वालिपुर [ नगर ] ५१ विक्रमपुर [नगर] १३, १८-२०, सिन्धु [ देश] ६५,७३,८१,८२, योगिनीपुर [ नगर ] २२,५५,६०, २३, २४, ३३, ३४, ४४, ८४, ८५ ५२, ५८ सिन्धुमुण्डल ६४, ८१,९२ ६५, ६९, ७२, ७५, ७७, ७९ विमलविहार [ मन्दिर] ८१ सिरिमाल [ नगर ] ९१, ९३ रत्नपुर [ नगर] ६०, ६३ विमलाचल [ तीर्थ ] सिरियाणक [ग्राम] राजगृह [नगरी ] ६०, ६१, ८१ | वीजापुर [ नगर ] ४९, ५१, ५३, सिलारवाहण [ , ] ८४ राणककोट्ट [ग्राम] ८२ ५५, ५७, ५९, ६२, ६३, सिधपुर [ नगर] राणुकोट्ट [,] ७०, ७१ सुराष्ट्र [ देश] ६२, ७५, ७६ रुणा [ ग्राम] ६३, ६६ वृहग्राम सुवर्णगिरी [ पर्वत ] ५२, ५५ रुणापुरी [ ,,] व्याघ्रपुर [ नगर ] १८, २४ सेढी [ नदी] ६,९० रुदओली [ नगर] शङ्खश्वरपुर [ तीर्थ ] ६०, ६३, ७४ सेत्तुज [ महातीर्थ ] ९१, ९६ रुद्दपल्ली [गच्छ] | शत्रुञ्जय [ महातीर्थ] १७, ३४, स्तम्भतीर्थ ६०, ६२, ६९, ७७, - रुद्रपल्ली [ग्राम] १७, १८,२०,२१ ३९, ४९, ५२, ५३,५५, ६२, रोहद [ग्राम] ६६, ६८ ६३, ७१, ७२, ७४-७९, स्तम्भनकपुर [ महातीर्थ ] ६, १७, लवणखेटक [ नगर ] ४४, ८० ८५, ८७ ___३९, ४९, ५१, ५५, ७८, ८६ लाटहृद [ग्राम] शत्रुञ्जय तलहट्टिका ७४, ७९ स्वर्णगिरी [पर्वत ] ५१, ५४, ५९ लाडणुवाड [,,] ९३ शम्भाणा [ग्राम] हम्मीरपत्तन [नगर] १६ लारवाहण [,,] शम्यानयन [5] ५८-६५,८०, ८१ हस्तिनागपुर [ ,, ]६०, ६६, ६७ ६३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइयम्मिय कालम्मि अन पगडं लेणं अत्रोत्सूत्रजनक्रमः आचार्याः प्रतिसद्म ० आयपि यदुविहं आसीज्जनः कृतघ्नः इदमन्तरमुपये इन्द्रानुरोधवशतः ऊर्ध्वस्थित श्रोत्रवरी ० एतेषां चरितं किच एवमणं वगरणं कयमलिणपत्तसंगह ० करतलधृतदीनास्ये कोपादेकतलाघात • कौ दुर्गत्यविनाशिनी चकर्त दन्तद्वयमर्जुनं शरैः - कीर्त्या चकर्त दन्तद्वयमर्जुनं शरैः क्रमात् चातुर्वर्ण्यमिदं मुदा चिरं चित्तोद्याने जत्थ साइम्मिया - उत्तरगुण • जत्थ साइम्मिया - चरित्ता • जत्थ साइम्मिया - मूलगुण ० जत्थ साह म्मिया - लिंगवेस • जिनजन नदिनस्नान जिनपतिसूरे ! भवता जिनभवनं जिनबिम्बम् जो अवमन्न संघ जो चंदणेण बाहु ज्ञानं मददर्पहर ज्योतिर्लक्षणतर्कमन्त्र० दिल्लीवास्तव्य साधु ० गुर्वावलीस्थितानामवतरणरूपपद्यानामनुक्रमः । ३९ ३ ९ ७ ५१ १२ १७ ४८ ३० १ ४२ ३३ ४८ ४५ १ ३० २९ २२ १२ ४१ ४२ ४१ ४२ ४८ ४७ ११. ७३ ६७ २३ ६९ ५० तप्पुव्विया अरया तव दिव्यकाव्यदृष्टा तित्थपणामं काउं त्वदभिमुखमिवक्षिप्त ० द्विगुरपि सद्वन्द्वोऽहम् धातुविभक्त्यनपेक्षम् धैर्यं ते स विलोकताम् नास दंसणस य नास्तिक मतकृदमर ० पङ्कापहारनिखिले पञ्चैतानि पवित्राणि परिसुद्धोभयपक्खं पृथिवीरेन्द्र ! समुपाददे पृथ्वीराय ! पृथुप्रताप प्राणा न हिंसा न प्राणान्न हिंस्यान्न प्रामाणिकैराधुनिकैः म्यन्ते तवैतास्त्रिभुवन ० बालावबोधनायैव बुद्ध शुद्ध ज्ञानवृद्धयै बुधबुद्धि चक्रवाकी ब्रह्मचारियतीनां च भगवंस्त्वा दिवि भणियं तित्थय रेहिं भवति नियतमेवासंयमः भाव्यं भूवलये क्षयम् मथितप्रथितप्रतिवादि ● मयि सति कीदृक् मरिजा सह विज्जाए रुदेवि नाम अज्जा मर्यादाभङ्गभीतेरमृत ० ७४ ४७ ७३ ४८ ३५. ४७ ५४ ४१ ४८ ६९ २५. ३३ २९. ३३ २५ २६. २३ ३२ ५० ५० ४७ ३ ४८ ७ ४ ६९ ४७ ४८ ८ ५ १२ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुवोवलीस्थितानामवतरणरूपपद्यानामनुक्रमः। my Vm २०४S9ar ॥१॥ मैवं मंस्था बहुपरिकरः यत्र तत्रैव गत्वाऽहम् यदपसरति मेषः कारणम् यः संसारनिरासलालस० यस्मिन्नस्तमितेऽखिलम् यस्यान्तर्बाहुगेहम् ये तुरीनेपुत्रनिचतवयं (:) रे दैव ! जगन्मातुः रे रे नृपाः ! श्रीनरवर्म० लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति ललामविक्रमाक्रान्त लसद्यशःसिताम्भोज ! लोकभाषानुसारिण्यः वरकरवाला कुवलय. वर्द्धमानं जिनं नत्वा वामपदधातलग्ने विद्या विवादाय धनं० निस्फूर्जद्दन्तकान्तं विहितं सुवर्णसारङ्ग विहिसमहिगयसुयत्थो शत्री मित्रै तृणे स्त्रैणे शब्दब्रह्म यदेकम् श्रिये कृतनतानन्दा-तव० श्रिये कृतनतानन्दा-भवताम् श्रीजिनवल्लभसूरिः श्रीजिनशासनकानन सत्तर्कन्यायचर्चा सा ते भवाऽनुसुप्रीता साहित्यं च निरर्थकम् सिरिसमणसंघ आसा सुमेरौ निर्मेरैरपि सपदि सुंदरजणसंसग्गी स्वःश्रीविवाहकार्यम् हा! हा! श्रीमजिनपतिसूरे ! 12000 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES Works in the Series already out. अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि 1 मेरुतुजाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि 16 दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. (प्राकृत) मूल संस्कृत ग्रन्थ. 17 मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य, 2 पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहुविध ऐतियतथ्यपरिपूर्ण 8 कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक.. अनेक निबन्ध संचय. 19 भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह. 3 राजशेखरसरिरचित प्रबन्धकोश. 20 शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति. 4 जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. 21 कवि धाहिलरचित पउमसिरीचरिउ. (अप०) 5 मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य, 22 महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा. (प्रा०)६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. 23 श्रीभद्रबाहुआचार्यकृत भगबाहुसंहिता. 24 जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. (प्रा.) 7 हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. 25 उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य. 8 भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी. 26 जयसिंहरिकृत धर्मोपदेशमाला. (प्रा.) 9 प्रबन्धचिन्तामणि-हिन्दी भाषातर. 27 कोऊहलविरचित लीलावई कहा. (प्रा.) 10 प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. |28 जिनदत्ताख्यानद्वय. (प्रा० 11 सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित. 29 खयंभूविरचित पउमचरिउ. भाग 1 (अप०) 12 यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण, 302 13 हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश. 31 सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन. 14 जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, | 32 दामोदरपण्डित कृत उक्तक्तिव्यक्ति प्रकरण. 15 हरिभद्रसरिविरचित धूर्ताख्यान. (प्राकृत) |33 भिन्नभिन्न विद्वत्कृत कुमारपालचरित्रसंग्रह। Dr. G. H. Bjihler's Life of Hemachandracharya. Translated from German by Dr. Manilal Patel, Ph. D. Shri Bahadur Singh Singhi Memoirs 1 स्व. बाबू श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ [भारतीयविद्या भाग 3] सन 1945. 2 Late Babu Shri Bahadur Singhji Singhi Memorial volume. BHARATIYA VIDYA [Volume V] A. D. 1945. 3 Literary Circle of Mahamatya Vastupala and its Contribution to Sanskrit Literature. By Dr. Bhogilal J. Sandesara, M. A. Ph. D. (S,J.S.33.). 4-5 Studies in Indian Litary History. Two Volumes. By Prof. P.K.Gode, M.A. (S.J. S. No. 37-38.) Works in the Press. संप्रति मुद्यमाणग्रन्थनामावलि 1 खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि. 8 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्र. (प्राकृत) 2 विविधगच्छीयपट्टावलिसंग्रह. 9 गुणचन्द्रविरचितं मंत्रीकर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. 3 जैनपुस्तक प्रशस्तिसंग्रह, भाग 2. 10 नयचन्द्रविरचित हम्मीरमहाकाव्य. 4 विज्ञप्तिसंग्रह विज्ञप्ति महालेख - विज्ञप्ति त्रिवेणी | 11 महेन्दसूरिकृत नर्मदासुन्दरीकथा. (प्रा.) आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. 12 कौटिल्यकृत अर्थशासा- सटीक. (कतिपयअंश) 5 उपयोतनसूरिकृत कुवलयमालाकथा. 13 गुणप्रभाचार्यकृत विनयसूत्र. (बौद्धशास्त्र) 6 कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह. 14 भोजनृपतिरचित शृङ्गारमञ्जरी. (संस्कृत कथा 7 महामुनिगुणपालविरचित जंबूचरियं (प्राकृत) |15 रामचन्द्रकविरचित-मल्लिका मकरन्द.(नाटक