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________________ खरतर बृहद्गुर्वावलि-प्रास्ताविक वक्तव्य केवल वहांके विद्वानोंका उत्साह और एकाग्रभाव विशेष अनुकरणीय मालुम हुआ।हमें जो खास अध्ययन करनेके विशेष विचार मालुम दिये, वे वहांके समाजवाद-विषयक थे। इन विचारोंका अध्ययन करते हुए हमारी जीवनाभ्यस्त जो संशोधन-रुचि है, वह शिथिल हो चली। समाजजीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाली बातोंने मस्तिष्कमें अड्डा जमाना शुरू किया। इन बातोंका विशिष्ट अध्ययन करनेके लिये हमारी इच्छा वहां पर कुछ अधिक काल तक ठहरनेकी थी, लेकिन संयोगवश हमको जल्दी ही भारत लौट आना पडा । इधर आने पर नाहारजीने इस संग्रहकी सर्वप्रथम ही याद दिलाई, लेकिन सत्याग्रहके नूतन युद्ध में जुड जानेके कारण और फिर जेलखाने जैसे एकान्तवासके विलक्षण अनुभवानन्दमें निमग्न हो जानेके कारण इन, पुरानी बातोंका स्मरण करना भी कब अच्छा लगता था । एक तो यों ही मस्तिष्कमें समाज-जीवनके विचारोंका आन्दोलन घुडदौड कर रहा था, और उसमें फिर भारतकी इस नूतन राष्ट्रकान्तिके आंदोलनने सहचार किया । ऐसी स्थितिमें हमारे जैसे नित्य परिवर्तनशील प्रकृति वाले और क्रान्तिमें ही जीवनका विकाश अनुभव करने वाले मनुष्यके मनमें, वर्षों तक पुराने विचारोंका संग्रह कर रखना, और फिर जब चाहें तब उन्हें अपने सम्मुख एकदम उपस्थित हो जानेकी आदत बनाये रखना दुःसाध्य-सा है। जेलमुक्ति होने पर विधाता हमें शान्तिनिकेतन खींच लाया। विश्वभारतीके ज्ञानमय वातावरणने हमारे मनको फिर ज्ञानोपासनाकी तरफ खींचना शुरू किया और हमारी जो स्वाभाविक संशोधन-रुचि थी, उसको फिर सतेज बनाया। वर्षों से हमने २।४ ऐतिहासिक ग्रन्थोंके सम्पादन और संशोधनका संकल्प कर रखा था और उसका कुछ काम हो भी चुका था, इसलिये रह-रह कर यह तो मनमें आया ही करता था कि यदि इस संकल्पके पूरा करनेका कोई मनःपूत साधन सम्पन्न हो जाय, तो एक बार इसको पूरा कर लेना अच्छा है। बाबू श्री बहादुरसिंहजी सिंघीके उत्साह, औदार्य, सौजन्य और सौहार्दने हमारे इस संकल्पको एकदम मूर्तिमन्त बना दिया और हम जो सोचते थे, उससे भी कहीं अधिक मनःपूत साधनकी संप्राप्ति देख कर, परिणाममें हमने सिंघी जैन ज्ञानपीठ और सिंघी जैन ग्रन्थमाला का कार्यभार उठाना स्वीकार कर लिया। जबसे हम यहां आये, तभीसे इस संग्रहके लिये श्री नाहारजीका बराबर स्मरण दिलाना चालू रहा। हम भी आज लिखते हैं, कल लिखते हैं, ऐसा जवाब दे कर उन्हें आशा दिलाते रहते थे। बहुत समय बीत जानेके कारण इस विषयमें जो कुछ हमारे पुराने विचार थे और जो कुछ हमने लिखना सोचा था, वह स्मृति-पट परसे अस्पष्ट सा हो गया । जिन प्रतियों परसे यह संग्रह मुद्रित हुआ था, वे मी पासमें नहीं रहनेसे, इस विषयमें क्या लिखें, कुछ सूझ नहीं पड़ती थी। 'विज्ञप्ति त्रिवेणि', 'कृपारस कोष', 'शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रबन्ध' इत्यादि पुस्तकोंके संपादन के बाद हमारा हिन्दी-लेखन प्रायः बन्द-सा ही है। पिछले कई वर्षोंसे निरन्तर गुजराती भाषा ही में चिन्तन, मनन, लेखन, और वाग्व्यवहार चलते रहनेसे हिन्दी-भाषाका एक तरहसे परिचय ही छूट गया। इस कारण से कुछ हिन्दी लिखनेका ठीक ठीक चित्तैकाग्र्य न हो पाता था। लेकिन पिछले कुछ दिनोंमें हमारा साहित्य-संग्रह हमारे पास पहुंच गया और वर्षोंसे संदूकोंमें बंद पड़े हुए पुराने कागजों और टिप्पणों को उथल पुथल करते समय, इस विषयके कुछ साधन भी हाथमें आ गये, जिससे ये पंक्तियां लिखनेका मनमें कुछ विचार हो आया । बस यही इस संग्रहके बारेमें हमारा किञ्चित् वक्तव्य है। श्वेताम्बर जैन संघ जिस खरूपमें आज विद्यमान है, उस स्वरूपके निर्माणमें, खतरतर गच्छके आचार्य, यति और श्रावक-समूहका बहुत बड़ा हिस्सा है। एक तपागच्छको छोड़ कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरवकी बराबरी नहीं कर सकता। कई बातोंमें तपागच्छसे भी इस गच्छका प्रभाव विशेष गौरवान्वित है । भारतके प्राचीन गौरवको अक्षुण्ण रखने वाली राजपूतानेकी वीर भूमिका, पिछले एक हजार वर्षका इतिहास, ओसवाल जातिके शौर्य, औदार्य, बुद्धि-चातुर्य और वाणिज्य-व्यवसाय-कौशल आदि महद् गुणोंसे प्रदीप्त है और उन गुणोंका जो विकाश इस जातिमें, इस प्रकार हुआ है, वह मुख्यतया खरतरगच्छके प्रभावान्वित मूल पुरुषोंके सदुपदेश तथा शुभाशीर्वादका फल है। इसलिये खरतरगच्छका उज्वल इतिहास यह केवल जैन संघके इतिहासका ही एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण नहीं है, बल्कि समग्र राजपूतानेके इतिहासका एक विशिष्ट प्रकरण है । इस इतिहासके संकलनमें सहायभूत होने वाली विपुल साधन-सामग्री इधर-उधर नष्ट हो रही है । जिस तरहकी पट्टावलियां इस संग्रहमें संगृहीत हुई हैं, वैसी कई पट्टावलियां और प्रशस्तियां संगृहीत की जा सकती हैं और उनसे विस्तृत और शृंखलाबद्ध इतिहास तैयार किया जा सकता है। यदि समय अनुकूल रहा, तो 'सिंधी जैन ग्रंथमाला' में एक-आध ऐसा बडा संग्रह जिज्ञासुओंको भविष्यमें देखनेको मिलेगा। बाबू श्री पूरणचंदजी नाहारने बड़ा परिश्रम और बहुत द्रव्य व्यय करके जैसलमेरके जैन शिलालेखोंका एक अपूर्व संग्रह प्रकाशित कर इस विषयमें विद्वानों और जिज्ञासुओंके सम्मुख एक सुन्दर आदर्श उपस्थित कर दिया है । इसके अवलोकनसे, राजपूतानेके जूने पुराने स्थानों में जैनोंके गौरवके कितने स्मारक-स्तंभ बने हुए हैं तथा उनसे हमारे देशके ज्वलन्त इतिहासकी कितनी विशाल-समृद्धि प्राप्त हो सकती है उसकी कुछ कल्पना आ सकती है। इस ग्रंथमें प्रायः खरतरगच्छके ही इतिहासकी बहुत सामग्री संगृहीत है जो इस पट्टावलिवाले संग्रहकी बातोंको पुष्टि करती है तथा कई बातोंकी पूर्ति करती है। इन सब बातोंके दिग्दर्शनकी यह जगह नहीं है। ऐसे संग्रहों के संकलन करनेमें कितना परिश्रम आवश्यक है वह इस विषयका विद्वान् ही जान सकता है 'विद्वानेव जानाति विद्वजनपरिश्रमः'।। जैसलमेरके लेखोंका ऐसा सुन्दर संग्रह प्रकाशित कर तथा इस पट्टावली संग्रहको भी प्रकट करवा कर श्रीमान् नाहारजीने खरतरगच्छकी अनमोल सेवा की है । एतदर्थ आप अनेक धन्यवादके पात्र हैं। आपका इस प्रकार जो स्नेहपूर्ण अनुरोध हमसे न होता तो यह संग्रह यों ही नष्ट हो जाता और इसके तैयार करनेमें जो कुछ हमने परिश्रम किया था वह अकारण ही निष्फल जाता। अतः हम भी विशेष रूपसे आपके कृतज्ञ हैं। सिंघी जैन शान पीठ शान्ति निकेतन मुनि जिन विजय पर्युषणा प्रथम दिन, सं. १९८७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002780
Book TitleKhartar Gacchha Bruhad Gurvavali
Original Sutra AuthorJinpal Upadhyaya
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1956
Total Pages148
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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