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________________ खरतरगच्छ - गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व [लेखकः-श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा - संपादक राजस्थानी ] ऐतिहासिक साहित्यकी दृष्टिसे खरतरगच्छ गुर्वावली एक अत्यन्त महत्त्वका और अपने ढंगका अद्वितीय ग्रन्थ है। कुछ वर्ष पूर्व, बीकानेरके प्राचीन जैन ज्ञान भंडारोंका अन्वेषण करते हुए हमें यह निधि उपलब्ध हुई थी। इसमें विक्रमकी ग्याहरवीं शताब्दीके उत्तरार्द्धसे ले कर वि० सं० १३९३ तकके खरतरगच्छीय जैनाचार्योंका विस्तृत और विश्वसनीय इतिवृत्त लिखा हुआ है। इस वृत्तान्तसे तत्कालीन भारतीय इतिहासकी और और बातों पर भी अच्छा प्रकाश पडता है । जो लोग कहते हैं कि भारतमें संवतानुक्रमसे शृंखलाबद्ध इतिहास लिखनेकी प्रणाली सर्वथा नहीं थी उन्हें निरुत्तर करनेके लिये यह ग्रन्थ एक पर्याप्त उदाहरणरूप है । [-प्रस्तुत गुर्वावलीमें सं० १३०५आषाढ सु० १० तकका वृत्तान्त तो श्रीजिनपति सूरिजीके विद्वान शिष्य श्रीजिनपालोपाध्यायने दिल्ली निवासी सेठ साहुलीके पुत्र हेमचंद्रकी अभ्यर्थनासे संकलित किया है। इसके पश्चात्का वर्णन भी पट्टधर आचार्योंके साथमें रहने वाले व दफ्तर रखनेवाले विद्वान् मुनियों द्वारा लिखा गया प्रतीत होता है। यह प्रति पत्र ८६ की है और प्रायः पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दीमें लिखी होकर बीकानेरस्थ श्रीक्षमाकल्याण ज्ञानभंडारमें विद्यमान है। इसमें सं०१३९३ तकका इतिवृत्त है। इसके पीछेका इतिहास जाननेके लिये हमें कोई भी इस कोटिकी गुर्वावली उपलब्ध नहीं है, परन्तु शृंखलाबद्ध इतिहास लिखनेकी प्रणाली तो पीछे भी बराबर रही है। सं० १८६० की एक सूचीके अनुसार, जेसलमेरके सुप्रसिद्ध ज्ञानभंडारमें, उस समय ३१२ पत्र जितनी विस्तृत एक गुर्वावली वहां विद्यमान थी। यदि यह गुर्वावली प्राप्त हो जाय तो अनेकों नवीन ज्ञातव्य मिले। खेद है कि अभीतक तो वर्तमान श्रीपूज्योंके पास प्राचीन दफ्तर भी नहीं मिलते । पाठकोंको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि इसका सम्पादन पुरातत्त्वचार्य श्री जिनविजयजी जैसे विद्वान् द्वारा हो रहा है। यह ग्रन्थ दो तरहकी शैलीमें संकलित किया हुआ है । श्री जिनेश्वर सूरिजीसे श्री जिनदत्त सूरिजीके खर्गवास सं० १२११ तकका वृत्तान्त तो, सं० १२९५ में सुमतिगणि द्वारा रचित 'गणधरसार्द्धशतक-बृहद्वृत्ति' के अनुसार ही प्राचीन शैलीका है। पर इसके पश्चात्की प्रत्येक घटना संवतानुक्रम और शुखलाबद्ध रूपसे लिखी गई है, जो घटना ओंके साथ साथ लिखी हुई डायरी-सी प्रतीत होती है । जैनाचार्योंका विहारानुक्रम, मार्गवर्ती ग्राम-नगर, दीक्षाएं, प्रतिष्ठाएं तत्तत् ग्रामवासी श्रावकोंके नाम, राजसभाओंमें किये गये शास्त्रार्थ, तीर्थयात्रा वर्णन - इत्यादि सभी बातें इतनी विशदताके साथ लिखी गई हैं कि तत्कालीन परिस्थिति आंखोंके सामने आ जाती है । भ्रमणशील जैनाचार्योंके प्रवास मार्गका वर्णन तो भारतीय साहित्यमें एक नवीन वस्तु है । क्यों कि भारतके साहित्यमें प्रायः इसका अभाव ही है । हमारे पास, जो कुछ विदेशी विद्वानोंने भ्रमणवृत्तान्त लिखे, वे ही उपलब्ध हैं। पर उनमें स्थानोंके नामादिमें कई भूलें हुई हैं; किन्तु इसमें विशुद्ध भौगोलिक वर्णन मिलता है। प्रस्तुत निबन्धमें हम, इस गुर्वावलीमें उपलब्ध राजकीय इतिहास सामग्री और भौगोलिक बातोंका संक्षिप्त परिचय देना चाहते हैं । आशा है, विद्वानोंको इससे कुछ नवीन ज्ञातव्य मिलेगा। राजकीय इतिहास-सामग्री पाटणके दुर्लभराज चौलुक्यका उल्लेख । श्री वर्द्धमान सूरिके शिष्य श्री जिनेश्वर सूरिने अणहिल्ल पत्तनमें गूर्जरेश्वर दुर्लभराजकी सभामें चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ कर उनको पराजित किया जिसका विस्तृत वर्णन इस पट्टावलिमें दिया गया है । धारानरेश नरवर्मका निर्देश । श्रीजिनवल्लभ सूरि [ खर्ग सं० ११६७] जब चित्तौड़में थे तब, धाराधीश नरवर्मकी सभामें दो दक्षिणी पण्डितोंने “ कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः" यह समस्यापद रखा। स्थानीय विद्वानों व राजपण्डितोंने अपनी अपनी गुर्वावलीके आधार पर, पं० दशरथजी शर्मा एम्. ए. ने, इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टी, वॉ० ११, नं. ४, और पूना ऑरिएन्टलिस्ट, वॉ० २, पृ० ७५ में, संक्षिप्त नोट लिखे थे जिनमें इसके ऐतिहासिक महत्त्वका अतिसंक्षेपसे दिग्दर्शन कराया था। यहां पर हम यथावश्यक पूर्ण ज्ञातव्य प्रकाशित करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002780
Book TitleKhartar Gacchha Bruhad Gurvavali
Original Sutra AuthorJinpal Upadhyaya
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1956
Total Pages148
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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