SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खरतर वृहद्गुर्वावलि-प्रास्ताविक वक्तव्य अर्थात् गुरुपरम्पराका इतना विस्तृत और विश्वस्त चरितवर्णन करने वाला ऐसा कोई और ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ । प्रायः ४००० श्लोक परिमाण यह ग्रन्थ है और इसमें प्रत्येक आचार्यका जीवनचरित्र इतने विस्तारके साथ दिया गया है, कि जैसा अन्यत्र किसी ग्रन्थमें, किसी भी आचार्यका नहीं मिलता। पिछले कई आचार्योंका चरित्र तो प्रायः वर्षवारके क्रमसे दिया गया है और उनके विहार-क्रमका तथा वर्षा-निवासका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । किस आचार्यने कब दीक्षा ली, कब आचार्य पद्वी प्राप्त की, किस किस प्रदेशमें विहार किया, कहां कहां चातुर्मास किये, किस जगह कैसा धर्मप्रचार किया, कितने शिष्य-शिष्याएं आदि दीक्षित किये, कहां पर किस विद्वानके साथ शास्त्रार्थ या वादविवाद किया, किस राजाकी सभामें कैसा सम्मान आदि प्राप्त किया – इत्यादि बहुत ही ज्ञातव्य और तथ्य-पूर्ण बातोंका इस ग्रन्थमें बडी विशद रीतिसे वर्णन किया गया है । गुजरात, मेवाड, मारवाड, सिन्ध, वागड, पंजाब, और नेक देशोंके. अनेक गांवों में रहने वाले सेंकडों ही धर्मिष्ठ और धनिक श्रावक-श्राविकाओंके कटंबोंका और व्यक्तियोंका नामोल्लेख इसमें मिलता है और उन्होंने कहां पर, कैसे पूजा-प्रतिष्ठा एवं संघोत्सव आदि धर्मकार्य किये, इसका निश्चित विधान मिलता है । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह ग्रन्थ, अपने ढंगकी एक अनोखी कृति जैसा है । हम इसका हिन्दी अनुवादके साथ संपादन कर रहे हैं । इस ग्रन्थके आविष्कारक बीकानेर निवासी साहित्योपासक श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा हैं और इन्होंने ही हमें इस प्रन्यके संपादनकी सादर प्रेरणा की है। साथमें दिये गये लेखमें नाहटाजीने इस ग्रन्थका ऐतिहासिक महत्त्व क्या है और सार्वजनिक दृष्टिसे भी किन किन ऐतिहासिक बातोंका ज्ञातव्य इसमें प्राप्त होता है, यह संक्षेपमें बतानेका प्रयत्न किया हैं।" - भारतीय विद्या, पुस्तक १, अंक ४, पृष्ठ २९९] इस 'गुर्वावलि' के पीछे हमने एक और ऐसी ही गुर्वावलिरूप ‘वद्धाचार्य प्रबन्धावलि' नामक कृति मुद्रित की है । यह कृति प्राकृत भाषामें प्रथित है । इसमें वर्द्धमान सूरिसे ले कर जिनप्रभ सूरि तकके १० आचार्योंका वर्णन दिया गया है। ज्ञात होता है कि 'विविध तीर्थकल्प' आदि अनेक ग्रन्थोंके प्रणेता जिनप्रभ सृरिकी शिष्यपरंपराके किसी शिष्यने इस प्रबन्धावलिका प्रणयन किया है। पाटणके भण्डारमें उपलब्ध प्राचीन प्रति परसे इसका संपादन किया गया है । जिनप्रभ सूरिने दिल्लीके बाहशाह महम्मुशाहकी समामें विशेष सम्मान प्राप्त किया था जिसका उल्लेख, इनसे संबद्ध कई पट्टावलियों एवं प्रबन्धत्मक कृतियोंमें उपलब्ध होता है । हमारी संपादित 'विधिप्रपा' तथा 'विविधतीर्थ कल्प' नामक कृतिकी प्रस्तावना आदिमें इन जिनप्रभ सूरिके बारेमें यथायोग्य वर्णन लिखा गया है। जिनप्रभ सूरि अपने समयमें एक बहुत प्रभावशाली और प्रतिभासंपन्न आचार्य हुए। पर उनके बारे में, प्रस्तुत बृहद् गुर्वावलिमें नामोल्लेख तक भी नहीं किया गया है । यद्यपि वे खरतर गच्छान्तर्गत एक शाखाके ही प्रसिद्ध आचार्य थे। इससे सूचित होता है कि बृहद्गुर्वावलिके संकलनकर्ताका मुख्य लक्ष्य अपनी गुरुपरंपराका महत्त्व मात्र आलेखित करना रहा है और इससे उसने अन्य गच्छीय एवं अन्य शाखीय आचार्योंके बारेमें विशेष रूपसे उपेक्षात्मक और कहीं कहीं तो आक्षेपात्मक वाक्यों एवं विचारोंका उल्लेख करनेमें अपना अधिक गौरव समझा है । उपकेशगच्छीय आचार्य पद्मप्रभ तथा बृहद्गच्छीय आचर्य प्रद्युम्नसूरिके साथ जिनपति सूरिके वाद-विवादके प्रसंग अतिरंजित और अतिबालिश शैलीमें लिखे गये हैं । तथापि उस समयके जैन समाजके प्रभाव और संघटनके बारमें इस ग्रन्थमें ऐसी बहुत सी महत्त्वकी बातें लिखीं मिलती हैं, जो इतिहास और संस्कृतिके ज्ञानमें वृद्धिकारक हो कर मनोरंजक एवं प्रेरणादायक भी हैं। इस सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा, जैन इतिहास एवं संस्कृतिके आलेखनमें आधारभूत समझी जाने वाली विविध प्रकारकी साहित्यिक सामग्रीका प्रकाशन करनेका हमरा मुख्य लक्ष्य रहा है, और तदनुसार हमने अब तक अनेकानेक ऐतिहासिक प्रबन्धात्मक ग्रन्थ, एवं प्रशस्तिसंग्रहात्मक संकलन प्रकाशित करनेका प्रयत्न किया है। प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातन प्रबन्धसंग्रह, प्रबन्धकोश, प्रभावकचरित्र, भानुचन्द्रगणी चरित्र, देवानन्द महाकाव्य, दिग्विजय महाकाव्य, जैनपुस्तक प्रशस्तिसंग्रह, विविधतीर्थकल्प आदि नाना ग्रन्थ इतःपूर्व प्रकाशित किये गये हैं; तथा कुमारपालचरित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002780
Book TitleKhartar Gacchha Bruhad Gurvavali
Original Sutra AuthorJinpal Upadhyaya
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1956
Total Pages148
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy