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प्रास्ताविक वक्तव्य ।
सिंघी जैन ग्रन्थमालाके ४२ वें गुच्छकके रूपमें, प्रस्तुत होने वाली इस 'खरतर गच्छीय युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' (संक्षेपमें - खरतर बृहद् गुर्वावली) की प्राचीन हस्तलिखित प्रति, मूलतः बीकानेर निवासी श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटाको, वहांके सुप्रसिद्ध क्षमाकल्याणजीके ग्रन्थभंडारमें उपलब्ध हुई थी। कोई १९-२० वर्ष पहले, इनने उस प्रतिको हमें देखनेके लिए भेजा । ग्रन्थको देखनेसे, हमें ऐतिहासिक दृष्टिसे यह बहुत महत्त्वका मालूम दिया. अतः प्रस्तुत ग्रन्थमालामें इसे प्रकाशित करनेका हमने निश्चय किया । तदनुसार प्रेसमें देने योग्य ग्रन्थकी प्रतिलिपि (प्रेसकॉपी) कर वाई गई। प्रतिलिपिके पढने पर ज्ञात हुआ कि मूल प्रति बहुत ही अशुद्ध रूपमें लिखी गई है। प्रत्येक पंक्ति अशुद्धप्राय ज्ञात हुई । अतः इसका कोई प्रत्यन्तर कहींसे उपलब्ध हो तो उसे प्राप्त करनेका प्रयत्न किया गया पर उसमें हमें सफलता नहीं मिली । तब उसी प्रतिको वारंवार आद्योपान्त पढ पढ कर, उसकी अशुद्धियोंका तारण किया गया, तो ज्ञात हुआ कि, जिस लहिया (लिपिकारक) ने यह प्रति लिखी है, उसने अपने सन्मुखवाली मूलाधार प्रतिके कुछ अक्षरोंको, भ्रमसे कुछ अन्य ही अक्षर समझ समझ कर उनके स्थान पर, अपने अक्षर ज्ञानके मुताबिक, अन्य अक्षर लिख डाले हैं; और इससे, ग्रन्थ बहुत ही अशुद्ध हो गया है । ग्रन्थगत विषय हमारे लिये सुपरिचित था और इस प्रकारकी अन्यान्य अनेक छोटी-बडी गुर्वावलियां - पट्टावलियां भी हमारे संग्रहमें उपलब्ध थीं; अतः तदनुसार हमने सारे ग्रन्थके पाठको शुद्ध करनेका यथाशक्य प्रयत्न किया । कई महिनोंके परिश्रमके बाद हम इस ग्रन्थकी शुद्ध प्रतिलिपि करनेमें सफल हुए। बादमें हमें इस गुर्वावलिकी एक अन्य त्रुटित और अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई, जिसके साथ मिलान करने पर हमें ज्ञात हुआ कि हमने जो पाठकी शुद्धि की है वह ठीक उस प्रतिमें उसी तरह मिल रहा है । उस अपूर्ण प्रतिमें कुछ पाठभेद भी दृष्टिगोचर हुए, जिनको हमने इस मुदित पाठके नीचे, पाद-टिप्पनीमें दे दिये हैं । वह अपूर्ण प्रति केवल ५ पन्नेकी थी, जो प्रस्तुत ग्रन्थके २३ वें पृष्ठ पर छपी हुई १२ वीं पंक्तिके 'श्री जिनपतिसूरिरिति नाम कृतम् ।' इस वाक्यके साथ खण्डित हो जाती है।
गुर्वावलिकी उक्त मूल प्रतिके दो पृष्ठोंका ब्लाक बनवा कर, उनका प्रतिचित्र साथ दिया जा रहा है, जिससे मूल प्रतिके आकार-प्रकारका एवं लिपिके स्वरूपका तादृश ज्ञान हो सकेगा।
इस ग्रन्थका मुद्रण कार्य बहुत समयसे समाप्त हुआ पडा है पर विधिके किसी अज्ञात संकेतानुसार हम अभी तक इसको प्रसिद्धि में रख नहीं सके। हमारी इच्छा रही कि इस विशिष्ट प्रकारकी ऐतिहासिक गुर्वावलिसे संबद्ध, तत्कालीन जैन श्वेताम्बर संप्रदायों और गच्छोंके बारेमें भी, विस्तृत ऊहापोहात्मक निबन्ध लिखा जाय और यथाज्ञात सब प्रकारकी ऐतिहासिक सामग्रीका संकलन कर दिया जाय । इस विषयकी बहुत सी सामग्री हमने संचित कर रखी है।
और इसी लिये कई वर्षों तक इसकी प्रसिद्धि रुकी रही । पर हमारे लिये वैसा करना अब संभव नहीं रहा, अतः इसको इसी मूल रूपमें ही प्रसिद्धिमें रख देना उचित समझा है।
प्रस्तुत 'गुर्वावलिका ऐतिहासिक महत्त्व' बतलाने वाला श्री अगरचन्दजी नाहटाका एक लेख, हमारी संपादित भारतीय विद्या' नामक त्रैमासिकी शोधपत्रिकाके, प्रथम वर्षके ४ थे अंकमें प्रकाशित हुआ है । इस लेखके प्रारंभमें, गुर्वावलिकी परिचायक एक छोटी-सी नोंध (नोट) हमने लिखी थी जिसको यहां उद्धृत करते हैं। साथमें आगेके पृष्ठोंमें नाहटाजीका वह लेख भी मुद्रित किया जाता है, जिससे पाठकोंको प्रस्तुत ग्रन्थके ऐतिहासिक तथ्योंके बारेमें योग्य जानकारी प्राप्त हो सकेगी।
["सिंघी जैन ग्रन्थमालामें खरतरगच्छ-युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली नामक एक संस्कृत गद्य ग्रन्थ छप रहा है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा । इस ग्रन्थमें विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके प्रारंभमें होने वाले आचार्य वर्द्धमान सूरिसे ले कर १४ में शताब्दीके अन्तमें होने वाले जिनपद्म सूरि तकके खरतर गच्छके मुख्य आचार्योंका विस्तृत चरितवर्णन है। गुर्वावली
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