Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्रों के पार
गोम्मटेश्वर बाहुबली
लक्ष्मीचन्द्र जैन
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह एक ऐसी रचना है जिसके स्रजन में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के साहित्यिक शैली-शिल्प ने नये आयाम उद्घाटित किये हैं । तीर्थंकर आदिनाथ द्वारा समाज-संरचना की पृष्ठभूमि; उनके पुत्र भरत और बाहुबली के जीवन के मानवीय रूपों एवं उनके मनोजगत् के अन्तर्द्वन्द्वों का मार्मिक चित्रण; आत्मोपलब्धि का रोमांच; चाणक्य, सम्राट् चन्द्रगुप्त और श्रुतकेवली भद्रबाहु के इतिहास की प्रस्तुति में उपन्यास का आकर्षण; श्रवणबेलगोल में परम-पराक्रमी सेनापति चामुण्डराय द्वारा बाहुबली की 57 फुट ऊँची विशाल प्रतिमा की स्थापना का विस्मयकारी आख्यान; विभिन्न लिपियों में उत्कीर्ण सैकड़ों शिलालेखों की विषयवस्तु का रुचिकर संवादों में विश्लेषण; श्रवणबेलगोल की तीर्थयात्रा को सार्थक बनाने वाले वन्दना-स्थलों
और कलावैभव का परिचय-सब कुछ दीप्तिमान मणियों की तरह इस कृति के कण्ठहार में सँजो दिया गया है ।
इस कृति के आधार पर एक फिल्म भी निर्मित हुई है ।
श्रवणबेलगोल में विश्ववन्ध गोम्मटेश्वर बाहुबली-मूर्ति के 1993 में आयोजित महामस्तकाभिषेक महोत्सव के शुभ अवसर पर प्रस्तुत कृति के नये संस्करण के रूप में भारतीय ज्ञानपीठ की यह विनम्र श्रद्धांजलि !
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तईसकेपार गोम्मटेश्वर बाहुबली
लक्ष्मीचन्द्र जैन पूर्व निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकोदय ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक 406
अन्तर्बन्दों के पार : | गोम्मटेश्वर बाहुबली (इतिहास : ललित साहित्य)
प्रथम संस्करण : 1979 द्वितीय संस्करण : 1993
| लेखक लक्ष्मीचन्द्र जैन
मूल्य : 45/
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110003
मुद्रक विकास ऑफसेट नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
Bharatiya Jnanpith
ANTARDVANDON KE PAAR: GOMMATESHVRA BAHUBALI (History : Belles Letters) by Lakshmi Chandra Jain. Published by Bharatiya Jnanpith, 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi110003. Printed at Vikas Offset, Naveen Shahdara, Delhi-110032.
Second Edition : 1993 0 Rs. 45/
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
आशीर्वचन
सदा से हमारा यह विश्वास रहा है कि विश्व के धर्मों में एकता के कुछ सबल सूत्र विद्यमान हैं, जिनकी ओर मनीषियों का अपेक्षित ध्यान नहीं गया है । इन सूत्रों के अनुसन्धान से विश्व की बहुरंगी संस्कृतियों और धर्मों की अनेकता में एकता के सोपान पथ का सृजन किया जा सकता है। आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव का व्यक्तित्व एक ऐसी आधारशिला है, जिसके ऊपर विश्व के समस्त धर्मों का एक सर्वमान्य प्रासाद खड़ा किया जा सकता है।
प्रायः समस्त धर्मों में आदिदेव ऋषभनाथ का विभिन्न नामों से स्मरण किया गया है । उनके इतिवृत्त के चित्र में भरत - बाहुबली के रंगों से पूर्णता आई है । भरत और बाहुबली दोनों महामानव थे। दोनों के चरित्र स्वतन्त्र हैं, किन्तु दोनों परस्पर पूरक भी हैं। बाहुबली का चरित्र बहुरंगी है और उसका प्रत्येक रंग चटकदार है। उनकी महानता आकाश की ऊँचाइयों को छूती है। उनके जीवन के हर मोड़ पर एक नया कीर्तिमान स्थापित होता चलता है ।
1
इस युग के प्रथम कामदेव ( त्रिलोकसुन्दर) थे, अतः गोम्मटेश्वर कहलाते थे । सुन्दर थे, सौम्य थे, साथ ही अप्रतिम बली थे । इसलिए वे बाहुबली कहलाते थे । वे अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति सदा सजग रहते थे । अधिकारों की रक्षा करने का साहस और सामर्थ्य भी थी, किन्तु कर्त्तव्यों के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित थे । भरत दिग्विजय कर सार्वभौम सम्राट् का विरुद प्राप्त करना चाहते थे । बाहुबली का स्वतन्त्र अस्तित्व इसमें बाधक बन रहा था । प्रश्न राज्य- लिप्सा का न रहकर शासनतन्त्र की निर्बाध सत्ता का बन गया था। बाहुबली के मन में भरत की अवज्ञा के भाव नहीं थे, किन्तु पिता से प्राप्त राज्य का उपभोग और उसकी सुरक्षा उनका अधिकार था। उस अधिकार की रक्षा करना ही अब उनका कर्त्तव्य बन गया था । दोनों के अपने दृष्टिकोण थे, दोनों को ही अपने पक्ष के औचित्य का आग्रह था । इस आग्रह ने युद्ध के अतिरिक्त सभी मार्ग अवरुद्ध कर दिये । एक सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् के साथ एक नगर के साधारण राजा का युद्ध करने का यह दुस्साहस भले ही रहा हो, किन्तु अपने अधिकारों की रक्षा के लिए, अपनी स्वतन्त्रता की
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
(iv)
रक्षा करने के लिए प्राणोत्सर्ग तक करने का यह प्रथम उदाहरण था।
बुद्धिसागर आदि मन्त्रियों के बुद्धि-कौशल से हिंसक और संहारक युद्ध की विभीषिका टल गई। दोनों भाईयों के लिए दृष्टि-युद्ध, जल-युद्ध और मल्ल-युद्धये तीन युद्ध निर्धारित हुए और इन युद्धों के परिणाम पर ही हार-जीत का निर्णय हुआ। विश्व-इतिहास में सम्भवतः ऐसे निर्णायक अहिंसक युद्ध का दृष्टान्त अन्यत्र नहीं मिलता। इसे हम विश्व में प्रथम अहिंराक युद्ध कह सकते हैं। ___ उस क्षण बाहुबली के मन में अधिकार ही कर्तव्य बन गया था। उन्होंने दृष्टियुद्ध और जल-युद्ध में विजय प्राप्त करली थी, कितु मल्ल-युद्ध शेष था। वह अन्तिम और निर्णायक युद्ध था। दोनों भ्राताओं में मल्ल-युद्ध हुआ। दोनों ही मल्ल-विद्या के मजे हुए खिलाड़ी थे। बाहुबली भरत पर छाते गए, उन्होंने फुर्ती से भरत को दोनों हाथों से उठा लिया। चाहते तो जमीन पर दे मारते, किन्तु नहीं, उन्होंने धीरे से भरत को उतारा और विनय से उच्च आसन पर खड़ा कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन किया। अब कर्त्तव्य ही उनके लिए अधिकार बन गया।
भरत चक्रवर्ती थे। तीनों युद्धों में पराजय उनका सार्वजनिक अपमान था। सत्ता की रक्षा करना शासन का अधिकार है, औचित्य का विवेक उसमें बाधक नहीं बनता। वहाँ अधिकार की रक्षा करना ही कर्तव्य है। इसी भावनावश भरत ने बाहुबली के ऊपर चक्र चला दिया। बाहुबली के तन को तो चोट नहीं लगी, पर मन को चोट पहुंची। जनता ने भरत के इस कृत्य की निन्दा की, क्योंकि उसने एक चक्रवर्ती के अधिकार की दृष्टि से नहीं, सामान्य जन के कर्तव्य की दृष्टि से इस घटना को लिया।
बाहुबली इस घटना से बेहद खिन्न हो गये। खिन्नता की तीव्रता ने उनके मन में वैराग्य भर दिया। जमीन, राज्य,भरत-सभी से अब उन्हें कोई मोह नहीं रहा, वे श्रमण मुनि बन गए। खड़े होकर निर्जन स्थान में अत्यन्त कठोर तप करने लगे, ऐसा तप जो कभी किसी ने नहीं किया। एक वर्ष बीत गया इसी अवस्था में, किन्तु केवलज्ञान (परम ज्ञान) नहीं हुआ। खिन्नता की रेख कि राज्य तो छोड़ दिया, किन्तु दो पर तो अभी भरत की भूमि पर ही खड़े हैं । भरत ने आकर सरल भाव से, विनयसे, क्षमा मांगी तो बाहुबली को उसी क्षण केवलज्ञान हो गया। बाहुबली के मुनि बनने के समय भी भरत ने क्षमा मांगी थी, किन्तु तब बाहुबली के मन में खिन्नता का ज्वारभाटा उमड़-घुमड़ रहा था। धीरे-धीरे खिन्नता का वेग कम होता गया। अब तो खिन्नता की रेख मात्र बाकी थी, भरत द्वारा क्षमा मांगने पर वह भी मिट गई।
बाहुबली सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो गए। वे कुछ ही वर्ष बाद शेष कर्मों का नाश करके मुक्त हो गए। वे इस काल में सर्वप्रथम मुक्त हुए।
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाहुबली की यह घटना जैन समाज में जानी-पहचानी है। किन्तु इस घटना का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण कभी नहीं हो पाया। उन्हीं गोम्मटेश्वर बाहुबली की 57 फुट उत्तुंग विशाल आकार की एक अद्भुत लावण्यमयी मूर्ति श्रवणबेलगोल में विगत 1000 वर्षों से विराजमान है। उस मूर्ति के कारण ही यह स्थान जगद्विख्यात तीर्थ और लक्ष-लक्ष जनों की श्रद्धा का केन्द्र पावन तीर्थ बन गया है। किन्तु इस प्रस्तर मूर्ति और क्षेत्र का पुरातात्त्विक, कलात्मक, ऐतिहासिक, एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से कभी विश्लेषण नहीं किया गया।
धर्मानुगामी श्री लक्ष्मीचन्द्रजी साहित्य-जगत् में सुपरिचित हैं। लेखनी पर उनको अधिकार प्राप्त है। उनके लिखने की शैली कथ्य के रहस्य की परतें उतारती हुई प्रतीत होती है। उनकी शब्द-संयोजना में कला परिलक्षित होती है । सन् 1981 में होने वाले गोम्मटेश्वर बाहुबली के सहस्राब्द महामहोत्सव के उपलक्ष्य में श्री लक्ष्मीचन्द्र ने प्रस्तुत अनुसन्धानपूर्ण पुस्तक 'अन्तर्द्वन्द्वों के पार : गोम्मटेश्वर बाहुबली' अत्यन्त रोचक और विश्लेषणात्मक शैली में लिखी है। इससे मूर्ति और क्षेत्र दोनों के सम्बन्ध में अनेक नवीन ज्ञातव्य रहस्यों पर प्रकाश पड़ा है। इस कृति के लिए विद्वान् लेखक साधुवादाह हैं।
शुभाशीर्वाद।
अजमेर 10-4-79
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वस्ति वाक्
भगवान गोम्मटेश्वर मूर्तिप्रतिष्ठा - सहस्राब्दि - महोत्सव के उपलक्ष्य में क्षेत्र के पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामयिक परिस्थिति को चलचित्र के माध्यम से प्रचार करने के लिए 'अन्तर्द्वन्द्वों के पार : गोम्मटेश्वर बाहुबली' का प्रस्तुतिकरण आपका एक महान कार्य बन गया है । आपके द्वारा लिखित इस कृति को हमने आद्योपान्त पढ़ा । विषय सामग्री पुरातन होने पर भी संकलन की कुशलता और प्रस्तुतिकरण की क्षमता अनोखी है ।
आपने इस ग्रन्थ में श्रवणबेलगोल के बारे में कई दृष्टिकोणों से खोजपूर्ण अध्ययन के द्वारा सरल, सुबोध भाषा में, नवीनतम शैली में इस क्षेत्र के इतिहास को प्रस्तुत किया है । मुझे इस विषय का हर्ष है । निस्सन्देह इस क्षेत्र के इतिहास hat fजस खूबी से आपने प्रस्तुत किया है, उस तरह आज तक किसी ने भी प्रस्तुत नहीं किया ।
अध्यायों के वर्गीकरण की क्रमबद्धता और शीर्षक पाठकों के लिए अत्यन्त आकर्षक सिद्ध होंगे।
शिलालेखों के अध्ययन के लिए चार काल्पनिक पात्रों के एक दल को आपने चित्रित किया है, वह अपूर्व परिकल्पना है । इसे हम आपके अनोखे चिन्तन की भक्ति मानते हैं, जिसे पढ़कर हमें इतना हर्ष हुआ कि मानो वे चारों चन्द्रगिरि पर संभाषण करते दिखाई दे रहे हैं।
परिशिष्टों का संकलन भी एक अभूतपूर्व कार्य हुआ है ।
- भट्टारक श्री चारुकीति स्वामी, श्रवणवेल्गोल
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्थापना (प्रथम संस्करण से)
इतिहास की दृष्टि मूलत: घटनाओं पर जाती है। जो घटित हो गया वही परम्परा से जानकर और मानकर कि यह 'इति-ह-आस'-'यह ऐसा हुआ'लिपिबद्ध कर दिया गया। आज इतिहास की यह दृष्टि विकसित होकर घटनाओं की पृष्ठभूमि का भी आकलन करती है। घटनाएँ जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित होती हैं उनके आचार-विचार और उनकी प्रेरक भावनाओं के उत्स की खोज करती हैं। तब व्यक्तियों का परिवेश और उनका मनो. जगत् इतिहास के अंग बन जाते हैं। इस प्रकार इतिहास रोमांचक हो जाता है, 'रोमांस' बन जाता है । वास्तव में हमारा प्राचीन पुराणकार इसी प्रकार के इतिहास का सर्जक है। इसी प्रकार के आधार पर जब कोई कवि महाकाव्य की रचना करता है तो उसकी कल्पना के पंख प्रसार पाकर इन्द्रधनुषी रंगों से रंजित हो जाते हैं। कवि और साहित्यकार के मन में जब इन रंगों की छटा बस जाती है तो वह मूल वस्तु के सार-तत्व को रंगों का संस्पर्श देकर कहानी, उपन्यास और नाटक लिखता है। कोरे तथ्य तब प्रीतिकर और प्रतीतिकर सत्य बन जाते हैं । अतीत के विषय में अन्तः अनुभूति प्रमाण बन जाती है। - प्रत्येक अतीत से वर्तमान उपजता है, और प्रत्येक वर्तमान भविष्य का सर्जक है। इतिहास का यह चक्र काल की ध्रुवता की धुरी पर घूमता है। दर्शन की भाष में सत् के अस्तित्व अर्थात् 'सत्य' का यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-मय रूप है।
अतीत के किस काल-खण्ड के छोर पर प्रारम्भ हुआ होगा वह ध्रुव जिसके चौदहवें मनु या कुलकर नाभिराय थे ? स्वयं नाभिराय के पुत्र, प्रथम तीर्थकर आदिनाथ, युग-प्रणेता पुराण-पुरुष हैं। उनके छोटे पुत्र बाहुबली की कथा इतिहास के सैकड़ों-हजारों युगों को पार करती हुई, और उत्तर-दक्षिण के भूमि-खण्डों के प्राचीरों को लांघती हुई, एक दिन आ पहुंची दक्षिण कर्नाटक के कलबप्पु (कटवप्र) पर्वत के मनोरम शिखर पर, एक विशालकाय प्रस्तर-प्रतिमा के रूप में जिसकी मुख-छवि घाटी के कल्याणी तीर्थ, धवल सरोवर (बेलगोल) में प्रतिबिम्बित हो गई।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आज से एक हजार वर्ष पहले कर्नाटक के महाप्रतापी, महाबलाधिप 'सत्य युधिष्ठिर' चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर बाहुबली की इस मूर्ति की स्थापना अपने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के सान्निध्य में की। प्रतिष्ठापना का सहस्राब्दि महोत्सव हमारी पीढ़ी सन् 1981 के प्रारम्भ में श्रवणबेलगोल में मना रही हैतिथि और लग्न शोध कर। इस प्रकार हमारा आधुनिकतम काल जुड़ जाता है जीवन्त इतिहास के प्राचीनतम पौराणिक काल से। अनादि-काल से जीवन-मरण और आवागमन के चक्रवात में हमने मानव के और भी अनेक अभ्युदय देखे होंगे, इतिहास-निर्माण के हम सहभागी बने होंगे, किन्तु पूर्वभव का वह सब हमें पता नहीं, याद नहीं । सौभाग्य का यह क्षण तो हमारे अपने युग की आपबीती बन रहा है। इसके स्वागत में हमने पलक-पांवड़े बिछा दिए हैं।
सहस्राब्दि समारोह के अवतरण के लिए, उसके पद-निक्षेप के लिए, भावनाओं की अनेक-अनेक रंग-बिरंगी अल्पनाएँ रची जा रही हैं। इन अल्पनाओं के सर्जक, कर्मठ नेता श्री साहू शान्तिप्रसादजी हमारे बीच नहीं रहे किन्तु धर्मगुरु उपाध्याय (अब एलाचार्य) श्री विद्यानन्दजी महाराज और श्रवणबेल्गोल के अत्यन्त निष्ठावान् और क्रियाशील भट्टारक श्री चारुकीर्तिजी स्वामी के साथ विचारविमर्श करके जिन योजनाओं का सूत्रपात वह कर गए, वे हमारी प्रेरणा-स्रोत बन गई। संयोग ऐसा बना कि भारतीय ज्ञानपीठ के वर्तमान अध्यक्ष श्री साहू श्रेयांसप्रसाद जैन ने उन अल्पनाओं के दायित्व-विभाजन में एक कूची मेरे हाथ में थमा दी और कहा कि भगवान बाहुबली की कथा के रूप में एक अल्पना की संरचना मैं करूं। उनकी भावना रही है कि यह कथा ऐसी शैली में लिखी जाए कि भगवान बाहुबली के रोमांचकारी जीवन के विभिन्न आयाम सहजता के साथ उभर कर आ जायें और आज के पाठक को आकृष्ट कर सकें। काश, ऐसी शैली मैं प्राप्त कर पाता !
लेकिन, शैली ही एक ऐसी वस्तु है जो मांगी नहीं जा सकती। वह तो लेखक की निजता की अभिव्यक्ति है। लेखक में निजता और विशिष्टता है तो है, नहीं तो नहीं है, या फिर जितनी भी है। अतः अपने निजत्व को ही पाथेय बनाकर मैं चल पड़ा। इस कथा का पूरा विस्तार आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण में उपलब्ध है-इतना व्यापक विस्तार कि संभाल पाना कठिन है। प्रतिभा के वरदान ने तपस्वी आचार्य जिनसेन के काव्य-कौशल को चमत्कारी बना दिया है। मैंने विनम्र भाव से आचार्य जिनसेन की कृति को कथा-भाग के सृजन का आधार बनाकर अपनी आवश्यकता के अनुसार एक संक्षिप्त ढांचा बना लिया था। फिर पाया कि आदिनाथ-भरत-बाहुबली की कथा के अन्य स्रोत भी हैं, विशेषकर कन्नड़ साहित्य की कृतियाँ । बाहुबली के मनोभावों के पल्लवन में मैं इन कृतियों से उपकृत हुआ हूँ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
( xi )
बाहुबली-आख्यान तो इस कृति का एक पक्ष है- पौराणिक पक्ष । किन्तु श्रवणबेलगोल में भगवान बाहुबली की मूर्ति को शीर्षस्थ करनेवाला पर्वत विषयगिरि, और इस मूर्ति के निर्माण की संभावना को उद्घाटित करने वाला पर्वत चन्द्रगिरि – पौराणिक आख्यान को उस कालखण्ड से जोड़ते हैं जिसे इतिहासकार भारतीय इतिहास के विधिवत् आकलन का प्रामाणिक प्रस्थान-बिन्दु मानते हैं । वह बिन्दु है, भारत के एकछत्र साम्राज्य के विधायक सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य का काल और कूटनीति के सिद्धान्तों के विचक्षण प्रतिपादक आचार्य चाणक्य का सहवर्ती समय । चन्द्रगुप्त मौर्य, मुनिव्रत धारण करने के उपरान्त, आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में उत्तर भारत से दक्षिण भारत जाने वाले सहस्रों मुनियों के संघ में सम्मिलित हो गए | श्रवणबेलगोल का 'चन्द्रगिरि पर्वत' और पर्वत पर का मन्दिर 'चन्द्रगुप्त बसदि आपने नाम की सार्थकता को इन्हीं चन्द्रगुप्त मौर्य के अस्तित्व में प्रतिफलित पाते हैं ।
इस प्रमाण की आधार शिला छठी-सातवीं शताब्दी का वह लेख भी है जो चन्द्रगिरि पर्वत पर निर्मित पार्श्वनाथ बसदि (मन्दिर) के दक्षिण की ओर वाली शिला पर अंकित है । इस शिलालेख की महत्ता को देखते हुए मैंने आवश्यक समझा कि पाठक इसकी शब्दावली, इसके अर्थ और इसके भाव को हृदयंगम करें। इस उद्देश्य की सिद्ध के लिए मैंने जो साहित्यिक विधा अपनायी है, वह एक ऐसा प्रयोग है जिसमें वार्तालाप, नाटकीय उत्कण्ठा, विवेचन और कविता का सम्पुट प्रतिलक्षित है | श्रवणबेलगोल के शिलालेखों के अध्ययन से प्राप्त तथ्य और निष्कर्ष मैंने सम्बन्धित दो अध्यायों में इसी शैली में गूंथे हैं । मेरा विश्वास है, इतिहास के अध्येता इन शिलालेखों की सामग्री को आधार बनाकर शोध-खोज करेंगे जिससे अनेक ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक, साहित्यिक और भाषा-शास्त्रीय तथ्य उद्घाटित होंगे। इसी दृष्टि से इस पुस्तक में मैंने अनेक परिशिष्ट नियोजित किये हैं और प्रत्येक विषय से सम्बन्धित शिलालेखों का सन्दर्भ दिया है। भट्टारक श्री चारुकीर्ति स्वामीजी ने इन परिशिष्टों के महत्त्व को मान दिया है ।
अभी तक की खोजों के अनुसार श्रवणबेलगोल और उस के अंचल में लगभग 575 शिलालेख उपलब्ध हैं। पहली बार सन् 1889 में 144 शिलालेखों के संग्रह का सम्पादन मैसूर पुरातत्त्व विभाग के तत्कालीन अधिकारी लेविस राइस ने किया था। 34 वर्ष बाद, सन् 1923 में जो नया संस्करण प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता और संस्कृत-कन्नड के प्रकाण्ड विद्वान नरसिंहाचार ने सम्पादित किया उसके शिलालेखों की संख्या 500 तक पहुँच गई। श्री नरसिंहाचार की प्रतिभा, क्षमता, दूरदर्शिता, श्रम और अध्ययन की व्यापकता का ध्यान करता हूँ तो श्रद्धानत हो जाता हूँ । पं० नाथूरामजी प्रेमी की प्रेरणा से डा० हीरालाल जैन ने सन् 1928 में इन
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिलालेखों का देवनागरी लिपि में लिप्यन्तरण करके महत्त्वपूर्ण भूमिका के साथ इन्हें माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित कराया। कतिपय शिलालेखों के तथ्य का सार भी दिया।
नरसिंहाचार की कृति का तीसरा अंग्रेजी संस्करण सन् 1971 में इन्स्टीट्यूट ऑफ कन्नड स्टडीज, मैसूर, ने प्रकाशित किया है जिसमें 573 शिलालेख संग्रहीत हैं। शिलालेखों के क्रमांक के लिए तथा उसके पाठ और अर्थ को समझने के लिए मैंने इसी संस्करण को आधार बनाया है। शिलालेख क्रमांक 1 में जिन भद्रबाहु स्वामी और उनके शिष्य (चन्द्रगुप्त) का उल्लेख है, इस सम्बन्ध में मैंने नरसिंहाचार के तर्कों और प्रमाणों को साक्ष्य माना है। यह मैं जानता हूँ कि इस सम्बन्ध में तर्क-वितर्क आज भी चल रहे हैं। किन्तु जो ठोस प्रमाण सामने हैं उन्हें नकारने की तुक मेरी समझ में नहीं आई।
वस्तुत: पुस्तक में बाहुबली-आख्यान का पौराणिक युग, श्रुतकेवली भद्रबाहु, चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य का ऐतिहासिक काल, छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर सौ-दो सौ साल पहले तक के श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों का समय-सब संकेन्द्रित होते हैं, चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोम्मटेश्वर मूर्ति की प्रतिष्ठापना के मंगलोत्सव की कथा पर । पौराणिक यूग के आख्यान के समान यह कथा भी बड़ी रोचक है । मैंने विविध अनुश्रुतियों को भी इस कथा में समाहित कर लिया है। कन्नड साहित्य की पुरानी-नयी अनेक प्रकाशित कृतियों द्वारा कथा के ये तथ्य समथित हैं। ___इस कृति का प्रणयन समग्र रूप से यदि किसी प्रेरणा-स्रोत को समर्पित किया जा सकता है तो भगवान बाहुबली गोम्मटेश्वर के उपरान्त, सौहार्द्र, स्नेह और सज्जनता की मूर्ति श्री साहू श्रेयांसप्रसादजी को। पुस्तक लिख मैं रहा था, किन्तु साथ-साथ वह इसके सृजन की प्रगति को आंकते जाते थे। उनके अनुचिन्तन का केन्द्र बन गए थे कृति में वर्णित कथा सूत्रों के विविध आयाम। जब मैंने पुस्तक के दो अध्याय लिख लिये तो साइजी ने एक अन्तरंग गोष्ठी आयोजित की । बन्धुवर अक्षयकुमारजी और भाई नेमीचन्दजी तो साथ बैठे ही, हमें विशेष उत्साह मिला भूतपूर्व संसद-सदस्य श्री गंगाशरणसिंह की उपस्थिति से जिन्होंने राष्ट्रभाषा के क्षेत्र में उत्तर और दक्षिण के अनेक सक्रिय सम्पर्क-सूत्र स्थापित किये हैं। सबने मूल्यवान सुझाव दिये और कृतित्व की सराहना द्वारा प्रोत्साहित किया। पौराणिक आख्यान, सैद्धांतिक मान्यताएं, ऐतिहासिक परिदर्शन, शिलालेखीय अध्ययन, गवेषणात्मक तथ्यों का समाहार, अनेक भाषाओं में उपलब्ध पूर्ववर्ती कवियों-लेखकों के अपने-अपने दृष्टिकोण और भावात्मक पल्लवन की विविधता-इस सबके बीच तारतम्य बैठाते हुए किसी सृजन को 'नया' बनाना दुर्गम को पार करना है। ___ पाण्डुलिपि का प्रारंभिक रूप तैयार होते ही मैंने इसे सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी, डा. ज्योतिप्रसाद जैन, श्री नीरज जैन को भेजा। सबने बहुत उत्साह
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
(xiii)
से पढ़ा और सुझाव दिये। सबके प्रति मेरी विनम्र कृतज्ञता।
भारतीय ज्ञानपीठ के साथियों ने भरपूर सहयोग दिया। पुस्तक का शीर्षक क्या हो इसके विषय में सबसे अधिक चिन्तन किया श्री साहू श्रेयांसप्रसादजी ने। कथा के मनोवैज्ञानिक पक्ष को उभारने वाले शीर्षक की कल्पनाएँ उन्होंने की और उनका मन टिका चामुण्डराय द्वारा आयोजित गोम्मटेश्वर के प्रथम अभिषेक को सार्थक बनाने वाली अकिंचन बुढ़िया गुल्लिका-अज्जी पर । बाहुबली तो सबके हैं,
और सबका, जन-जन का, प्रतिनिधित्व करने वाली है अज्जी (दादी-मां) गुल्लिका। ज्ञानपीठ में हम लोगों ने-जगदीशजी, विमलप्रकाशजी, अमरजी, गुलाबचन्द्रजी और मैंने अलग-अलग शीर्षक सूचियां बनाईं, और धीरे-धीरे प्रत्येक शीर्षक को अस्वीकारते गये क्योंकि पूरी बात को, बात के विविध आयामों को, समेटने में शीर्षक लम्बे हुए चले जा रहे थे। समझ लीजिये कि ये सारे शीर्षक इस कृति के नगीने में प्रतिबिम्बित हैं—'अन्तर्द्वन्द्व', 'भँवर-जाल', 'भंवरों के पार', 'संतरण और संतीर्थ', 'गुल्लिकायज्जी के विश्व-वन्द्य भगवान्' 'परमचेता बाहुबली' आदिआदि । जो भी भाव वर्तमान शीर्षक में नहीं आ पाये, यहाँ लिख दिये हैं।
प्रत्येक विषय से संदर्भित शिलालेखों का ठीक-ठीक क्रमांक देना बड़े झमेले का काम निकला। प्राक्तन विचक्षण श्री नरसिंहाचार ने दो संस्करण प्रकाशित किये, दोनों में बहुत से शिलालेख-क्रमांक भिन्न-भिन्न हो गए। डा० हीरालालजी ने हिन्दी में शिलालेख उद्धृत किये तो साथ-साथ दो क्रमांक दिये। किन्तु अब जब 'एपीग्राफिया कर्नाटिका' का तीसरा नया संस्करण प्रकाशित हुआ तो क्रमांक पुनः बदल गए। अन्तिम परिशिष्ट को छोड़कर बाकी सभी स्थलों पर मैंने इसी नये संस्करण के क्रमांक उद्धृत किये हैं, क्योंकि अब अंग्रेजी का यही संस्करण उपलब्ध है। कठिनाई यह है कि इसमें बहुत से शिलालेख कन्नड लिपि में हैं, या फिर रोमन लिपि में। श्रवणबेल्गोल के समग्र शिलालेखों का एक हिन्दी संस्करण अपेक्षित है। डा० हीरालालजी वाला अप्रतिम संस्करण बिलकुल ही अप्राप्य है।
पूज्य ऐलाचार्य विद्यानन्दजी महाराज ने 'आशीर्वाद' के रूप में जो सारगभित भूमिका लिख दी है, उसके लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञतापूर्वक प्रणत हूँ। श्रवणबेल्गोल की तीर्थयात्रा में श्रद्धेय भट्टारक श्री चारुकीर्ति स्वामीजी ने तथ्यों के संकलन में और फिर पाण्डुलिपि के संशोधन में जो सहायता की वह कृतज्ञता की शब्दावलि में सीमित नहीं की जा सकती। मूडबिद्री मठ के युवा और तेजस्वी भट्टारक पण्डिताचार्य श्री चारुकीति पी० स्वामीजी ने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि के प्रारम्भिक अंशों को तन्मयता से सुना और महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी नवयुगीन सांस्कृतिक जागरण के प्रेरणा-स्रोत हैं। उसकी धारा को प्रवहमान करने वाले आज तीन तरुण भट्टारक (श्रवणबेल्गोल, मूडबिद्री और हुम्मच के) धर्म-साधना के क्षेत्रों में क्रियाशील हैं।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
(xiv)
उन्होंने सांस्कृतिक उन्नयन के लिए देश को ही नहीं, विदेशों को भी अपना कार्यक्षेत्र बनाया। भविष्य के प्रति उन्होंने हमें अधिक आशान्वित किया है कि इन क्षेत्रों का सांस्कृतिक वैभव अपनी समस्त ऊर्जा के साथ प्रवृद्ध होगा।
भारतीय ज्ञानपीठ की परम्पराओं के निर्वाह और प्रगति के प्रति सदा सचेष्ट श्री साहू अशोककुमार जैन, मैनेजिंग ट्रस्टी, के प्रति आभारी हूँ कि उनकी प्रीतिकर सदाशयता के कारण यह सृजनात्मक प्रयास सम्भव हुआ। ___ज्ञानपीठ में डा० गुलाबचन्द्र जैन ने शिलालेखों का क्रमांक ठीक-ठीक बनाने में बहुत परिश्रम किया है। मुद्रण का दायित्व भी उन्हीं ने संभाला है। विषयगत पूर्वापर सम्बन्ध जांचा है। श्री गोपीलाल अमर ने जब जिस प्रकार के सहयोग की अपेक्षा हुई प्रसन्नतापूर्वक प्रस्तुत किया। दोनों का साधुवाद !
श्रवणबेल्गोल की स्थापत्य एवं कला-सम्पदा इतनी समृद्ध है कि इसे आधार बनाकर अनेक विधा-वर्गों के चित्र-सम्पुट (एल्बम) तैयार किये जा सकते हैं। जैन कला की विविधता, विशालता, भव्यता और विकासोन्मुखता की ओर भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापकों-स्व० श्री शान्तिप्रसादजी और उनकी सहधर्मिणी स्व० श्रीमती रमा जैन का ध्यान सदा आकृष्ट रहा है। यही कारण है कि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'जैन कला और स्थापत्य' शीर्षक से हिन्दी तथा अंग्रेजी में तीन-तीन खण्ड प्रकाशित हुए हैं जिनका अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समादर हुआ है। ___इस पुस्तक में हम अत्यन्त सीमित संख्या में चित्र दे पाये हैं। इनके लिए हम भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के प्रति विशेष रूप से कृतज्ञ हैं। परिच्छद के लिए चित्र श्री हरिश्चन्द्र जैन से साभार प्राप्त हुआ।
ऐसे कठिन लेखन के निर्वाह में तथ्यों की जो नयी धरती गोड़नी पड़ी है, उसमें हाथ चूक जाना या असावधानी के कारण विपर्यय हो जाना सम्भव है। उदारचेता विद्वान क्षमा करेंगे और मार्ग-दर्शन देंगे।
निर्वाण महोत्सव पर 'वर्धमान रूपायन' के शैली-शिल्प की सर्जिका सहधर्मिणी कुन्था जैन का उल्लेख करना वैसा ही है जैसे अपने हस्ताक्षर करना। मूर्ति प्रतिष्ठापना के सहस्राब्दि महोत्सव पर यह श्रद्धा-सुमन सम्भव हो पाया, यह हम दम्पती का सौभाग्य है।
क्षमापर्व 7 सितम्बर, 1979
लक्ष्मीचन्द्र जैन
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रम
आशीर्वचन : एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज स्वस्ति-वाक : भट्टारक श्री चारुकीति स्वामी, श्रवणबेल्गोल प्रस्थापना : लेखकीय
1. मानव-सभ्यता के आदिकालीन चरण
1. कुलकरों की भोगभूमि से तीर्थंकर आदिनाथ की कर्मभूमि तक 2. भरत चक्रवर्ती का साम्राज्य-विस्तार 3. भरत सम्राट : एक अनासक्त योगी
2. पुरा-कथा की इतिहास-यात्रा : 'उत्तरापथात् दक्षिणापथम्' 27
1. चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय 2. संस्कृति के शिलापट पर इतिहास की आत्मकथा
3. जैन संस्कृति की सार्वभौमिकता के संवाहक : आचार्य भद्रबाहु 3. धर्मचक्र की धुरी पर मूर्तिमती दिगम्बर साधना की इतिहास-यात्रा 53 1. आचार्य भद्रबाहु का धर्मचक्र और दिगम्बरत्व की विराटता
के बिम्ब बाहुबली 2. श्रवणबेल्गोल में बाहुबली की मूर्ति-प्रतिष्ठापना 4. श्रवणबेल्गोल के शिलालेख : ध्वनि और प्रतिध्वनि 1. श्रवणबेल्गोल के शिलालेख : इतिहास और संस्कृति के संवाद
स्वर
70
5. श्रवणबेल्गोल : तीर्थवन्दना
1. स्मारक चतुष्टय
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
( xvi )
बाहुबली मूर्तियों की परम्परा
महामस्तकाभिषेक
गोमटेस - थुदि ( प्राकृत मूल) आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
गोम्मटेश्वर स्तुति ( हिन्दी काव्यानुवाद)
परिशिष्ट
1. मूल संघ के नन्दि गण और देशी गण का वंशवृक्ष
2. समस्त शिलालेखों का स्थान और शताब्दी - क्रम से विश्लेषण
3. शिलालेखों में उल्लिखित प्रमुख आचार्यों, मुनियों और पण्डितों
की नामावलि
4. शिलालेखों में राजवंश और समय
5. शिलालेखों में महिलाएं
6. शिलालेखों में वर्णित उपाधियाँ
7. शिलालेखों में शिल्पी और सहायक
8. शिलालेखों में वर्णित धर्मार्थ करों के नाम
110
115
117
119
121
चित्र- सूची
1. तीर्थंकर ऋषभदेव, 2-3 चन्द्रगुप्त बसदि में जाली पर भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के दक्षिण-विहार का अंकन, 4. कूष्माण्डिनी देवी, 5. त्यागद ब्रह्मदेव - स्तम्भ 6. विन्ध्यगिरि और कल्याणी सरोवर, 7. गोम्मटेश्वर बाहुबली, 8. गुल्लिकायज्जी, 9. चंवरधारी यक्ष, 10. पार्श्वनाथ बसदि के एक स्तम्भलेख का ऊपरी भाग, 11. गोम्मटेश्वर मूर्ति के निकट एक शिलालेख का ऊपरी भाग, 12. चन्द्रगिरि, 13. चन्द्रगिरि पर कतिपय देवालय, 14. चामुण्डराय बसदि, 15. पार्श्वनाथ बसदि, 16. भद्रबाहु के चरण-चिह्न, 17. सर्वाह्न यक्ष, 18. जिननाथपुर में शान्तिनाथ मन्दिर की बाह्यभित्ति का कला- वैभव ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड : एक
मानव-सभ्यता के आदिकालीन चरण
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलकरों की भोगभूमि से तीर्थंकर आदिनाथ की कर्मभूमि तक
अनुपम है कथा भगवान बाहुबली की जो सइ कृति के नायक हैं, और जो प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ के पुत्र थे। आदिनाथ को ऋषभदेव के नाम से वेदों और पुराणों में भी स्मरण किया गया है। इन्हीं आदिनाथ भगवान को कहा गया है महादेव, अर्हत् और रुद्र । ऋग्वेद का सूक्त है :
विधा बद्धो वृषभो रोरवीति
महोदेवो मान आविवेश (4,58, 3) इसका अभिप्राय इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है : 'विधा बद्धः' तीन प्रकार से आबद्ध हैं ऋषभदेव-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना से; 'रोरवीति...'उन्होंने ऊंचे स्वर में धर्म की घोषणा की और वह महान् देव के रूप में मनुष्यों में प्रकट हुए। ___ भगवान आदिनाथ कब हुए, शताब्दियों के इतिहास का आलोक वहां तक नहीं पहुंच पाया है। किन्तु प्राचीनतम प्रमाण यह कहते हैं कि मनुष्य की सामाजिक व्यवस्था के आदिकाल में भगवान ऋषभ हुए। इसीलिए वह आदिनाथ कहलाये। उनके आगमन से पहले मनुष्य ने कबीलों में या कुलों में रहना सीख लिया था । इन कबीलों के नेता 'कुलकरों' ने समाज को निर्भय बनाने, बदलती हुई परिस्थितियों में अपनी रक्षा करने का प्रारम्भिक ज्ञान दे दिया था।
लेकिन कुलकरों की परम्परा से पहले मानव-समाज जिस अवस्था में रहता था, पुरानी पोथियों में उसे 'भोगभूमि' कहा गया है। मनुष्यों की उत्पत्ति जोड़ों में होती थी। एक बालक और एक बालिका एक साथ उत्पन्न होते और एक साथ साहचर्य के रूप में जीवन-लीला समाप्त करते थे। पृथ्वी पर उगे वृक्षों से वे अपनी आवश्यकताओं की सभी वस्तुएँ पाते थे। जो कल्पना मन में आती, धरती के ये पेड़ उसे पूरी कर देते । इसीलिए इन्हें 'कल्पवृक्ष' कहा गया है । ये कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते थे
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
: जो कल्पवृक्ष रहने के लिए आश्रय देता था वह 'गृहांग' कहलाता था। : जो खाने के लिए आहार देता वह 'भोजनांग',
जो आसन और पात्र आदि देता वह 'पात्रांग', : पहनने के लिए जो वस्त्र देता वह 'वस्त्रांग', : श्रृंगार के लिए भूषण प्रदान करनेवाला 'भूषणांग', : जिससे सुगन्धित फूलों की मालाएं प्राप्त होती वह 'मालांग', : आनन्द के लिए सभी प्रकार के पेय देकर मस्त रखने वाला कल्पवृक्ष 'मद्यांग', : मनचाहा संगीत सुनने की इच्छा जो पूरी करता वह 'तूांग', : अंधेरे स्थानों में उजाला देने वाला 'ज्योतिरंग', : गर्मी और सर्दी की बाधाओं को दूर करने वाला कल्पवृक्ष कहलाता था
'तेजांम'। इस प्रकार आदि मानव की इच्छाएं सहज रूप से पूरी हो जाती थीं। भोग ही भोग की अवस्था थी उस भोगभूमि में। काम करने की आवश्यकता नहीं थी। प्रकृति के साथ एकरसता थी, अपनेपन का सम्बन्ध था।
किन्तु समय स्थिर नहीं रहता। काल या समय, चक्र की तरह घूमता रहता है। कालचक्र का विभाजन पहिए के आरों की तरह से होता है। चक्र के ऊपर उठते हुए आरे 'उत्सर्पिणी' कहलाते हैं और नीचे उतरते आरे 'अवसर्पिणी' कहलाते हैं। कालचक्र के छह आरे उत्सर्पिणी काल में सुख की अवस्था की ओर ऊँचे उठते हैं और फिर चक्र की दूसरी दिशा में धीरे-धीरे वही आरे अवसर्पिणी काल में सुख से दु.ख और दुःख से दुःखतर अवस्थाओं की ओर नीचे उतरते हैं। इस प्रकार कालचक्र के प्रत्येक दौर में छह आरे ऊपर उठते हैं और छह आरे नीचे उतरते हैं। ___मानव समाज जब भोगभूमि का संपूर्ण सुख पूरी तन्मयता के साथ भोग रहा था, सुख-ही-सुख की उस अवस्था को 'सुषमा-सुषमा' कहा गया है। इसी चरम सुख की अवस्था के बाद कालचक्र के आरों का उतार आरम्भ होता है। सुषमासुषमा काल की अवस्था के बाद चक्र का पहला आरा घूमा तो दूसरा आरा 'सुषमा' सामने आया। भोगभूमि का सुख अब दोहरा नहीं रहा, इकहरा हो गया। इसके बाद 'सुषमा-दुषमा' तीसरे आरे के उतार की स्थिति है। सुख के साथ दुःख की आशंका हो चली। इतना ही नहीं, इस युग के मानव-समाज के समक्ष प्रकृति के नित नये परिवर्तनों के कारण कुछ प्रश्न-चिह्न उभरने लगे।
__ यह वह काल था जब कल्पवृक्षों में फल कम होने लगे, रस सूखने लगा; इसलिए मनुष्यों का शरीर उतना पुष्ट नहीं रहा। उनके मन में लोभ आने लगा। अधिक पाने और संग्रह करने की इच्छा सबको सताने लगी। सामाजिक व्यवस्था की कोई रूप-रेखा अभी तक सामने नहीं थी।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलकरों को भोगभूमि से...
कुलकरों की समाज-व्यवस्था यह समय था जब मानव-समाज को ऐसे नेता की आवश्यकता हुई जो 'कुल' को संभाल सके । इन नेताओं को 'कुलकर' कहा गया है। ये ही मनस्वी नेता 'मनु' कहलाये। करोड़ों वर्षों के अन्तराल में, मन्वन्तरों में, होने वाले ऐसे चौदह कुलकर गिनाये गये हैं । मनुष्य के जीवन में जैसे-जैसे जो बाधाएँ आती गईं, उस युग के कुलकरों ने उन समस्याओं का समाधान किया। इन कुलकरों के जो नाम पुराणों में आते हैं वे उनके विशेष कृतित्व का बोध कराते हैं।
- जब ज्योति देने वाले वृक्ष सूखने लगे और धरती पर प्रकाश कम होने लगा तो आकाश में स्थित सूरज और चांद धीरे-धीरे प्रकट होने लगे । लोग भयभीत हुए। पहले कुलकर 'प्रतिश्रुत' ने इन भयभीत युगलों की बात सुनी, इनका रहस्य समझाया औरइ न्हें दिन और रात के भेद से परिचित कराया।
जब ज्योतिरंग वृक्षों का रहा-सहा प्रकाश भी जाता रहा तो तारों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। तब दसरे कलकर 'सन्मति' ने तारों का ज्ञान कराया। इस प्रकार ज्योतिष का सामान्य ज्ञान प्रारम्भ हुआ। तीसरे कुलकर ने बताया कि वन के पशुओं में हिंसा उत्पन्न हो गयी है, इसलिए इन से किस प्रकार सावधान रहना चाहिए, किस प्रकार अपनी रक्षा करनी चाहिए। वह 'क्षेमंकर' कहलाये । कल्पवृक्षों की कमी के कारण जब मनुष्यों में झगड़ा होने लगा तो अगले कुलकर 'सीमंकर' ने कल्पवृक्षों का सीमांकन कर दिया। बाद के कुलकर 'सीमंधर' द्वारा भूमि की सीमा नियत की गयी; 'विमलवाहन' ने पशुओं पर शासन करने की कला सिखायी। यह सात कुलकरों की कृतित्व-कथा है।
आठवें कुलकर के समय में एक नयी बात हुई। इससे पहले माता-पिता अपनी युगल-सन्तान को जन्म देते ही अपनी देह छोड़ देते थे। वह नियम भंग हो गया। जीवित माता-पिता ने सन्तान को आँखों से देखा तो भयभीत हुए। तब 'चक्षुष्मान' कुलकर ने सन्तान को स्नेह से देखने और पालने-पोसने का भाव उत्पन्न किया। अगले-अगले कुलकरों ने सन्तान को नामों से पहचानने की पद्धति बतायी, रोती सन्तान को प्यार से चुप कराने की विधि बतायी । सन्तान का मुख देखकर, हर्षित होकर, कुछ समय बाद ही माता-पिता का निधन हो जाने लगा। यह समय नौवें, दसवें और ग्यारहवें कुलकर का था जिनके क्रमशः नाम हैं : यशस्वान्, अभिचन्द्र और चन्द्राभ।
काल-चक्र तो घूमता ही रहता है । धरती और आकाश में परिवर्तन आये। धूप और छाया के खेल शुरू हुए। बारहवें कुलकर 'मरुदेव' ने ठण्डी हवाओं से बचने का उपाय, मेघ और विद्युत से रक्षा, नदी पार करने की विद्या तथा पहाड़ों पर पहुंचने के उपाय बताये। तेरहवें कुलकर के काल में उत्पत्ति के समय सन्तान
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
झिल्ली में लिपटी दिखाई देने लगी। मनुष्य के लिए यह नयी समस्या थी। तब तत्कालीन कुलकर 'प्रसेनजित्' ने प्रसा (झिल्ली) को शुद्ध करने की विधि बतायी। ____ अन्त में उत्पन्न हुए चौदहवें कुलकर 'नाभिराज'। इन्होंने सन्तान-उत्पत्ति के समय उस के नाभि-नाल को काटने की विधि बतायी। यही नाभिराज थे भगवान ऋषभ के पिता।
__ भोगभूमि का काल प्रायः समाप्त हो गया। कल्पवक्ष भी बिल्कुल समाप्त हो गये। किन्तु नये-नये प्रकार के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी उत्पन्त होने लगे। तब नाभिराज ने प्रजा को आश्वस्त करते हुए इन सामान्य पेड़-पौधों से जीवन-यापन करने की उन्हें विधि बतायी। साथ ही, विष-वृक्ष और औषधि-वृक्षों में अन्तर बताया तथा उनकी हेयोपादेयता की शिक्षा दी। वह नाभिराज कुलकर ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम गीली मिट्टी से थाली आदि पात्र बनाने की विधि तत्कालीन समाज को बतलायी।
इस प्रकार सृष्टि के भोग-युग के अन्त और कर्मयुग के प्रारम्भ की इस सन्धिवेला में नाभिराज ने मानव-समाज में कर्मभूमि के उपयुक्त व्यवस्था का सूत्रपात किया। ____ अनुशासन भंग करने वालों के लिए दण्ड-विधान की व्यवस्था कुलकरों के समय में इस प्रकार रही कि पहले पाँच कुलकर केवल 'हा!' कह कर नियमभंग करने वालों को दण्डित करते थे— 'खेद है कि तूने ऐसा किया।' अगले पांच कुलकरों के समय में अपराध करने वाले को केवल यह कहकर दण्ड दिया जाता था'मा' अर्थात् 'अब मत करना'। फिर अगले चार कुलकरों के समय में जिस कठोरतम दण्ड का आविष्कार हुआ, वह था-'धिक्'-धिक्कार है तुझ पर। ___ ये सब कुलकर ज्ञानी और कुशल व्यक्ति थे। समाज को स्थिर करने, उसे निर्भय बनाने, परस्पर की कलह को मिटाने, दण्ड-विधान और शासन-व्यवस्था चलाने के कारण इनके नेतृत्व को मान मिला।
आदियुग के मानव की इस स्थिति का, कुलकरों की परम्परा का, संकेत आज इतिहास की पुस्तकों में भी स्वीकृत है । 'भारत का इतिहास' भाग-1 में इतिहासवेत्ता डा० रोमिला थापर ने लिखा है : __ "विश्व की आदिम मानव-व्यवस्था का एक ऐसा युग था जब पुरुषों और स्त्रियों को किसी वस्तु का अभाव नहीं था, कोई इच्छा अपूर्ण नहीं रहती थी। उन्हें सब साधन स्वयं प्राप्त थे। धीरे-धीरे अवनति का काल आता गया। मनुष्यों में आवश्यकताओं, अभावों का उदय हुआ । कुटुम्ब की धारणा ने वैयक्तिक पदार्थों के संग्रह को उत्प्रेरित किया। इस कारण विवाद और संघर्ष प्रारम्भ हुए, और तब नियम तथा विधान की व्यवस्था की आवश्यकता हुई । अतः निर्णय किया गया कि एक व्यक्ति के हाथ में शासन और कुलों की व्यवस्था दी जाये जो न्याय और
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलकरों की भोगभूमि से... निर्णय का दायित्व ले।"
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी और कर्मभूमि का प्रारम्भ हो चुका था । पुरुष और स्त्री अलग-अलग उत्पन्न होते, और अलग-अलग अपना जीवनयापन करने के उपरान्त मृत्यु को प्राप्त होते । राजतन्त्र ने भी नया रूप ले लिया था। चौदहवें कुलकर 'राजा' नाभिराय के बाद समाज-व्यवस्था और शासन-तन्त्र को विकास की मंजिलों तक पहुँचाने का दायित्व उनके एकमात्र पुत्र ऋषभदेव ने लिया । अयोध्या उनकी राजधानी थी। उनकी दो रानियां थीं—यशस्वती
और सुनन्दा । यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र और एक पुत्री- ब्राह्मी-उत्सन्न हुई। भरत इनमें सबसे ज्येष्ठ थे । हमारे देश का नाम भारतवर्ष इन्हीं ऋषभपुत्र भरत के नाम पर निर्धारित है। इस संबंध में शिवपुराण और श्रीमद्भागवत में भी उल्लेख मिलता है :
नामेः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभाद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्ना त्विदं वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते ॥
___-शिवपुराण, अध्याय 37/57 येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीत् येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपविशन्ति ।
-श्रीमद्भागवत, पंचम स्कन्ध, अध्याय 4/9 ऋषभदेव की दूसरी रानी सुनन्दा की कोख से एक पुत्र बाहुबली, और एक कन्या 'सुन्दरी', ने जन्म लिया।
सामाजिक संदर्भ में आजीविका के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाकर ऋषभदेव मानवजाति के महान् नेता बने । कल्पवृक्ष तो नष्ट हो ही चुके थे, स्वतः उत्पन्न होने वाले धान्य भी जब दुर्लभ हो गये तो प्रजा व्याकुल हो उठी।।
"महाराज, हम नाश के कगार पर खड़े हैं। हमारे सामने प्राणों का संकट उपस्थित है। हम भूखे हैं। हम क्या खायें ?" प्रजा ने सामूहिक प्रार्थना की।
"तुम्हारी समस्या का समाधान मैंने सोच लिया है," ऋषभदेव बोले । "देखो, यह पृथ्वी विश्वंभरा है। सारे विश्व को पाल सकती है। यह अन्नपूर्णा है । मैं बताता हूँ कि 'बीज' क्या होता है और धरती की परत को तीक्ष्ण नोक वाले फलके से खींचकर, 'कृप' करके, बीज किस तरह बोया जाता है। यही 'कृषि' कहलाती है। अन्न इसी से उत्पन्न किया जाता है।" कृषि की शिक्षा देकर ऋषभदेव ने क्षुधा के भयंकर रोग का उपचार किया। . ___और फिर, आत्मरक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र चलाने की विद्या उन्होंने सिखायी। वस्तुओं के लेन-देन की वणिज पद्धति बतायी। अनेक कलाओं की और साहित्य
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
- अन्तर्द्वन्द्वों के पार
रचना की शिक्षा देकर ऋषभदेव ने मनुष्य के संस्कारों को उन्नत किया, संस्कृति की नींव डाली। व्याकरण के नियम, छन्द और काव्य रचने की विधि, गायन, नृत्य, नाट्य-शिल्प, ढोल आदि बाजे बजाने की कला, सेना-संचालन, व्यूह रचने की प्रक्रिया, नगर और भवन की रचना, नाप-तोल की विधि आदि 72 कलाएँ आदिनाथ ऋषभदेव ने अपने बड़े पुत्र भरत को सिखायीं। छोटे पुत्र बाहुबली को विशेष रूप से स्त्री-पुरुषों और पशु-पक्षियों के गुणों की पहचान, शुभ-अशुभ समय का ज्ञान, गणित और ज्योतिष की विद्या में निपुण किया। अपनी पुत्री ब्राह्मी के लिए लिपि का आविष्कार किया। कहते हैं, इसीलिए वह ब्राह्मी लिपि कहलायी। पुत्री सुन्दरी को अंक विद्या सिखायी, उसे स्त्रियों की 64 कलाओं में निपुण बनाया। तभी से यह सब ज्ञान, ये सब कलाएँ और ये सब शिल्प-विद्याएँ मानव-समाज को उत्तराधिकार में मिली हुई हैं। ____ असि (युद्ध), मसि (लेखन), कृषि (खेती), वाणिज्य (व्यापार), विद्या (शास्त्ररचना, नृत्य-गायन आदि) और शिल्प (हस्तकला, चित्रांकन आदि) आजीविका के लिए उपयोगी इन छह कर्मों की शिक्षा देने वाले; समाज, राज्य और संसार की व्यवस्था का रूप निर्धारित करने वाले ऋषभदेव, योगविद्या के भी आदि-प्रणेता थे। संयम, तप, त्याग एवं ध्यान की एकाग्रता से किस प्रकार अलीकिक शक्तियों का विकास होता है, मन की राग-द्वेष की प्रवृत्तियों से किस प्रकार 'कर्मों का बन्ध होता है और किस प्रकार संयम द्वारा, राग-द्वेष के त्याग द्वारा आत्मा कर्मबन्ध से मुक्त होकर मोक्ष का अविनश्वर सुख प्राप्त करती है, इस सबका उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया और जन्म-मरण के सागर को पार करने का 'तीर्थ' निर्माण किया । संसार की क्षण-भंगुरता की अनुभूति उन्हें किस प्रकार वैराग्य के पथ पर ले गयी थी, यह घटना अत्यन्त बोध-कारक है। ___एक दिन इन्द्र द्वारा लायी गई स्वर्ग की एक अप्रतिम रूपसी अप्सरा नीलांजना, महाराज ऋषभदेव की सभा में नृत्यकला का प्रदर्शन कर रही थी। संगीत के आरोहअवरोह पर, नूपुरों की मधुर ध्वनि के साथ मनोहारी लयों पर थिरकते पग; भावों के अनुसार मंगिमाओं का मनमोहक प्रदर्शन, नृत्य की लुभावनी मुद्राओं पर मंत्रमुग्ध होकर सारी सभा रूप, रस और कला की लहरियों पर तैर रही थी कि अचानक कुछ ऐसा घटा कि नीलांजना की नृत्यमग्न काया, छाया की तरह विलीन हो गयी। नृत्य की चमत्कारी मंगिमा और स्वरों की तेज लहरियों पर थिरकती नृत्यांगना नृत्य की गति में एकाकार हो गई है। दर्शक यह नहीं सोच पाये कि तरंगों की द्रुतता में नीलांजना नहीं है । केवल ऋषभदेव यह जान गये कि नृत्यसभा को अभंग रखने के लिए इन्द्र ने नीलांजना की एक दूसरी प्रतिच्छवि नृत्यभंगिमा के उस सहस्रांश क्षण के पदचाप पर लाकर खड़ी कर दी है जहां से वह पहली अप्सरामूर्ति विलीन हुई थी। राजा ऋषभ ने सोचा, "बस यही है शरीर का धर्म? यही है
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
1. अकोटा से प्राप्त ऋषभदेव की कांस्यमति का शिरोभाग
[बडौदा संग्रहालय
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलकरों की भोगभूमि से... जीवन का यथार्थ ? चरम आनन्द के क्षण में कंचन-सी काया की यह क्षणभंगुरता ? इस प्रकार आयु पूरी होने का क्षण जब अचानक आ जाता है तो जीवन में फिर उस तपस्या, त्याग, साधना और आत्मध्यान का अवसर कहाँ रह जाता है जो निर्वाण का अनन्त और अमर सुख देता है ?"
___ महाराज ऋषभदेव सिंहासन से उठे तो राज्य-त्याग का संकल्प कर चुके थे। फिर अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य-भार संभलवाया, बाहुबली को युवराज के रूप में पोदनपुर का राज्य दिया, अन्य 99 पुत्रों में राज्य की सीमाएं बांट दी और स्वयं सब कुछ छोड़कर, वस्त्र और आभूषण त्यागकर, निर्ग्रन्थ होकर, वन में संयम और तपस्या की साधना के लिए निकल पड़े।
तीर्थंकर ऋषभदेव ने कठिन तप के द्वारा आत्मिक बल प्राप्त करने के लिए कई-कई महीने उपवास किये, निराहार रहे। गृह-त्याग के बाद और स्वयं प्रवजित होने के उपरान्त एक वर्ष तक वे भोजन नहीं कर पाये क्योंकि जिस प्रकार का, जिस विधि से, आहार प्राप्त होने पर उसे ग्रहण करने का संकल्प वह ले चुके थे वह पूरा नहीं हो पा रहा था। मुनि ऋषभ प्रतिदिन आहार के लिए मौन भाव से निकलते और निराहार लौट जाते । लोगों ने विविध प्रकार का भोजन उनके सामने प्रस्तुत किया, किन्तु उनका संकल्प किया हुआ आहार नहीं मिला। इस प्रकार एक वर्ष तक उनके निराहार रहने के उपरान्त इक्ष्वाकुवंश के राजकुमार श्रेयांस, पूर्वभव के स्मरण द्वारा, जब गन्ने का रस लेकर खड़े हुए और आहार के लिए ऋषभदेव का आवाहन किया, उन्हें पड़गाहा, तब इच्छित विधि पूरी होने पर उन्होंने आहार लिया। इस मधुर पेय इक्षुरस के लेने की पुण्यतिथि 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रचलित है। इस विकट तपस्या का लक्ष्य था दृढव्रती, आत्मजयी बनकर वह ज्ञान प्राप्त करना जिससे आत्मा, परमात्मा, जीवन और जगत् के सारे रहस्य खुल जाते हैं, जिससे भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी अवस्थाओं का, सभी पदार्थों का, एक साथ वह पूर्णज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिसे 'केवलज्ञान' कहते हैं। उन्होंने अनुभव किया कि संयम और योग की साधना से कर्मों के बन्ध कटते हैं। अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करने से संसार के सभी प्राणियों की रक्षा होती है, समाज का कल्याण होता है । त्याग और तपस्या में रत होकर आत्मध्यान करने से प्रत्येक मनुष्य को निर्वाण की वह अवस्था प्राप्त हो सकती है जहां आत्मा शुद्ध रूप में अनन्त सुख और अनन्त ज्ञान की दशा में अजर-अमर हो जाती है। ___ ध्यान, तपस्या और योग-साधना के अन्तिम चरण में भगवान् आदिनाथ कैलाश पर्वत पर विराजमान थे । वहाँ से ही उन्होंने समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया-जीवन और मरण की परम्परा को सदा के लिए काट दिया। संसार-सागर को पार करके उन्होंने दूसरों को भी अध्यात्म-साधना और मोक्षप्राप्ति का मार्ग दिखा दिया। इसीलिए तो वह आदि तीर्थकर कहलाए।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
अन्तर्द्वन्द्रों के पार
केवलज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त, अनुभूत धर्म का उपदेश देने के लिए तीर्थकर ऋषभदेव दूर-दूर तक विहार करने लगे। उनका धर्मचक्र प्रवर्तित हुआ।
धर्मचक्र को रूपाकार देने की कथा ऋषभ-पुत्र बाहुबली के जीवन के साथ सम्बद्ध है। भारतीय पुरातत्त्व के इतिहासकार जॉन मार्शल ने अपनी पुस्तक-- 'गाइड टु तक्षशिला' में लिखा है : ___ "धर्म का उपदेश देते, विहार करते हुए भगवान ऋषभदेव जब तक्षशिला (पोदनपुर) पहुँचे, उस समय वहाँ भगवान के छोटे पुत्र बाहुबली राज्य करते थे। भगवान ऋषभदेव संध्या समय तक्षशिला पहुंचे और उसी समय ध्यान में लीन हो गये । बाहुबली को उनके आगमन की सूचना देर से मिली। प्रातःकाल जब बाहुबली अपने राजसी दलबल से सुसज्जित हो भगवान की वन्दना के लिए वहां पहुंचे तो देखा कि वीतराग, मोहमुक्त भगवान वहाँ नहीं थे। बहुत पश्चात्ताप हुआ बाहुबली को। तीर्थंकर भगवान के पधारने की याद में, उनके धर्म के उपकारी 'तीर्थ' को प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित करने के विचार से, बाहुबली ने 'धर्मचक्र' पहली बार तक्षशिला में स्थापित किया।" ।
यह है चरित उन तीर्थंकर आदिनाथ का जो पुरुषार्थ के आदिजनक हैं, जो प्रथम तीर्थंकर जिनेश हैं, जिन्होंने पहली बार सामाजिक व्यवस्था के विधि-विधान निर्धारित किये, जो धर्म के संचालक हैं, और जो इस युग में अवतरित होकर संसार का कल्याण करने वाले परम गुरु हैं ।
आदि पुरुष, आदीश जिन, आदि सु-विधि करतार । धरम-धुरन्धर, परमगुरु, नमो आदि-अवतार ॥
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
2
भरत चक्रवर्ती का साम्राज्य विस्तार
अहं के अणु का विस्फोट
तीर्थंकर आदिनाथ जब राज्य त्यागकर प्रव्रज्या की ओर उन्मुख हुए थे, तभी उन्होंने भरत को राजधानी अयोध्या का राज्य देकर, बाहुबली को युवराज घोषित कर दिया था और उन्हें पोदनपुर का राजा बना दिया था । भरत के शेष भाईयों को भी अलग-अलग राज्यों का स्वामित्व प्राप्त हुआ था ।
एक दिन राजर्षि भरत राज्य सभा में बैठे हुए थे कि एक के बाद एक, तीन संदेहवाहक आये और हृदय को आनन्दित करने वाले समाचार देते गये । धर्माधिकारी पुरुष ने आकर समाचार दिया कि भरत के पिता, आदिनाथ, को केवल - ज्ञान प्राप्त हो गया है । यह उनकी साधना और तपस्या की सिद्धि थी । 'भगवान् आदिनाथ अब जन-जन को धर्मोपदेश देने के लिए विश्व में विहार करेंगे, उनके धर्मचक्र का प्रवर्तन होगा' यह विचारकर भरत प्रमुदित हुए। मन ही मन उन्होंने भगवान को प्रणाम किया। तभी राज प्रासाद का प्रमुख संदेशवाहक आ उपस्थित हुआ । उल्लास के कारण उसकी वाणी मानो सँभाले में नहीं आ रही थी । उसने समाचार दिया : "महाराज, आपको पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ है ।" सन्तान का मुख देखने के लिए भरत अधीर हो गये । पितृत्व की साध पूरी हो गई। राज्य लक्ष्मी का वरण करने वाले नन्हें-से राजकुमार के प्रादुर्भाव ने प्रजा के सामने राग-रंग का अद्भुत अवसर उपस्थित कर दिया। समाचार के आनन्द को महाराज भरत अभी आत्मसात् कर ही रहे थे कि आयुधशाला का अधिपति हर्षोन्मत्त-सा आया, यह निवेदन करने कि आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। यह भरत के चक्रवर्तित्व का चिह्न था । एक क्षण में ही भरत की कल्पना में अपने राज्य की सीमाएँ चारोंदिशाओं को सम्पूर्ण रूप से व्याप्त करती दिखाई देने लगीं ।
पिता का केवलज्ञान 'धर्म' पुरुषार्थ की सिद्धि थी । चक्ररत्न 'अर्थ' पुरुषार्थं की
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तद्वंन्द्रों के पार
उपलब्धि का द्योतक था, और पुत्र की उत्पत्ति 'काम' पुरुषार्थ की अभिव्यक्ति थी। __ तीनों ही घटनाएं महत्त्वपूर्ण थीं। भरत के मन में कुछ क्षणों के लिए संकल्पविकल्प हुआ कि पहले किस सौभाग्य की अभ्यर्थना करें। सोचा, तो यही निर्णय किया कि सबसे पहले भगवान आदिनाथ के समवसरण में जाकर केवलज्ञानी प्रभु की पूजा की जाये जो पूज्य पिता भी हैं । 'धर्म' जो चौथे और सर्वोच्च पुरुषार्थ 'मोक्ष' का साधक है, वही सर्वप्रथम वन्दनीय है । भरत ने जाकर तीर्थंकर भगवान की अर्चना की, उनसे धर्मोपदेश सुना।
उसके उपरान्त वह राजप्रासाद में गये । प्रसूति की शुचिता और शोभा से प्रसन्न-वदन अपनी वल्लभा स्त्रीरत्न सुभद्रा की गोद में खेलते पुत्र का मनोरम मुख देखकर भरत पुलकित हुए। नगरी पुत्रोत्सव की रंग-शाला बन गई।
तत्पश्चात् वह गये आयुधशाला में । वहाँ देवी-प्रभा से दीप्तमान् चक्ररत्न की पूजा की-पुण्य-प्रताप का वरदान जो विश्व की विजय-यात्रा का सन्देश-वाहक था और जिसकी सार्थकता को भरत अपने पराक्रम से प्रमाणित करने के लिए उद्यत थे। चक्रवर्तित्व का वह प्रेरणा-प्रतीक पूजनीय था।
धीरे-धीरे आयुधशाला में अन्य रत्न भी दृष्टिगोचर हो गये-छत्र, दण्ड, असि आदि।
जिस प्रकार तीर्थंकर को जन्म से ही तीर्थंकरत्व प्राप्त होता है, किन्तु उसे त्याग, संयम, साधना और तप से कर्मबन्ध का नाश करना पड़ता है क्योंकि मोक्ष स्वयं-सिद्ध उपलब्धि नहीं है, उसी प्रकार चक्ररत्न की प्राप्तिमात्र से ही चक्रवर्तित्व प्रतिष्ठापित नहीं हो जाता। उसे अपने प्रभाव, पराक्रम और दिग्विजय के प्रयास द्वारा सार्थक करना होता है। ___ संसार के सभी नरेशों को अपनी अधीनता में करने के लिए और विश्व की धरा एवं सम्पदा पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए भरत ने अपनी असंख्य सेना, राजाओं के दल-बल और लाखों-करोड़ों अश्वों, हाथियों, रथों और वाहनों के साथ दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। चक्ररत्न आगे-आगे चल रहा था कि चक्रवर्ती की विजय-कामना के प्रति किसी को भ्रम न रहे। दण्डरत्न भी साथ-साथ था कि यदि कोई विरोध करने का साहस करे तो विनाश का प्रतीक वह दण्ड उसे परिणाम के प्रति आतंकित रखे ।
नियम था कि जहाँ-जहाँ से चक्र निकले वहाँ-वहाँ के अधिपति और नरेश चक्रवर्ती को नमस्कार करें और उसकी शरण में आते जायें। इन राजाओं के नगर, ग्राम और भूखण्ड चक्रवर्ती के साम्राज्य के अंग बनते चले जायें। चक्र को जो रोके, भरत की सेना से युद्ध करे और परिणाम भोगे।
जहाँ जहाँ भरत का चक्र घूमा, धरा स्वयमेव विजित होती गयी। विरोधी पराभूत होते चले गये। पूर्व में अनेक वन-प्रान्तरों को पार करने के उपरान्त गंगा
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
13
भरत चक्रवर्ती का साम्राज्य विस्तार नदी तक सैन्यदल पहुंचा। उपसमुद्र, समुद्रतट और लवण-समुद्र को पार कर फिर स्थल की ओर चक्र आया। विन्ध्यगिरि से विजया पर्वत तक सभी दिशाओं को दिग्विजय के तूर्यनाद से गुंजाता सैन्य-दल आगे बढ़ा जा रहा था। चक्रवर्ती के पराक्रम की शृंखला में अनेक-अनेक विजयों की कड़ी जुड़ती चली गयी, जो क्रमशः विश्व की परिधि को घेरती जा रही थी।
दिग्विजय के अन्तिम चरण में विजया पर्वत के वृषभाचल शिखर की ओर चक्र बढ़ा तो महाराज भरत के मन में विचित्र आकांक्षा जगी कि पर्वत के शिखर को घेर कर खड़ी हुई किनारे की शिलाओं पर वह अपने दिग्विजय के पराक्रम की प्रशस्ति अपने हाथ से उत्कीर्ण करें। भरत ने सोचा-"लक्ष्मी चंचल है, कालान्तर में कौन इसे देखेगा। किन्तु कीति और यश चिरस्थायी हैं। यदि इन अनन्तकाल तक अक्षय रहने वाली शिलाओं के वक्ष पर मैं अपनी कीर्ति उत्कीर्ण कर दूं तो मेरे अद्वितीय शौर्य की यह गाथा अमर हो जायेगी।" अनिर्वचनीय उत्साह से भरे भरत शिला के एक भाग तक जब पहुँचे तो देखा वहाँ कुछ लिखा हुआ है। वह किसी नरेश की प्रशस्ति थी- चक्रवर्ती नरेश की । भरत को आश्चर्य तो हुआ किन्तु सोचा कि अतीत में कोई राजा हुआ होगा जिसे चक्रवर्ती मान लिया गया होगा। शिला का विस्तार बहुत बड़ा था। सोचा-'आगे के किसी भाग में प्रशस्ति लिख दूंगा'। भरत आगे बढ़े। देखा, कुछ लिखा हुआ है—फिर किसी चक्रवर्ती का नाम । भरत तीव्र व्याकुलता की स्थिति में आगे बढ़ते गये किन्तु कहीं कोई शिला-पट ऐसा नहीं मिला जिस पर किसी चक्रवर्ती की प्रशस्ति न लिखी हो । भरत हताश हो गये। किन्तु, हारे नहीं । अपनी प्रशस्ति तो लिखनी ही थी, सो इस परम प्रतापी चक्रवर्ती ने किसी एक पूर्ववर्ती नरेश की प्रशस्ति को वज्रखण्ड से घिस-घिसकर मिटा दिया, शिला-खण्ड को चिकना कर दिया और हीरे की छैनी से अक्षर उकेरने प्रारम्भ किये। मन में तब लांछना की यह गूंज नहीं उठी होगी? - "देख तो रहा है तू भरत, कि इस धरा पर तुझसे पहले कितने असंख्यात चक्रवर्ती हो गये हैं। इनमें से प्रत्येक ने अपने अहं को तुष्ट करने के लिए अपनी प्रशस्ति यहाँ उत्कीर्ण की है । उनको तो लिखने का स्थान भी मिला है, किन्तु तू ऐसा कि दूसरे की प्रशस्ति को मिटाकर अपने अहंकार के नश्वर अक्षर उकेर रहा है !"
निःसन्देह भरत ने प्रशस्ति में मात्र वही लिखा-जो यथार्थ श। अनगिनत महान् यशस्वी यथार्थों के समुद्र के बीच में कीर्ति की छोटी-सी बूंद :
"स्वस्ति श्री। इक्ष्वाकु वंश रूपी आकाश का चन्द्रमा और चारों दिशाओं की पृथ्वी का स्वामी मैं भरत हूँ। मैं अपनी माता के सौ पुत्रों में से एक बड़ा पुत्र हूँ । श्रीमान् हूँ। मैंने समस्त विद्याधर, देव और भूमिगोचरी राजाओं को नम्रीभूत किया है। प्रजापति भगवान वृषभदेव का पुत्र हूँ, मनु हूँ, मान्य हूँ, शूरवीर हूँ, पवित्र हूँ, उत्कृष्ट बुद्धि का धारक हूँ, चरमशरीरी हूँ, वीर हूँ, इस
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वी के पार युग के चक्रवतियों में प्रथम हूँ। इसके अतिरिक्त मुझ विजयी ने दिग्विजय के समय समस्त पृथ्वीमण्डल को अपने पराक्रम के घेरे में बांध लिया है। जिसके जल और थल में चलने वाले अठारह करोड़ घोड़े हैं; जिसकी विजयी सेना में चौरासी लाख मदोन्मत्त हाथी हैं। जिसकी दिग्विजय के समय सेना की धूसर धूल ने चारों ओर उठी हुई समस्त दिशाओं और आकाश को आच्छादित कर दिया है; चन्द्रमा की कलाओं के समान जिसका निर्मल यश समस्त दिशाओं में व्याप्त है। जिसका कीर्तिगान कुलपर्वतों के मध्यभाग में बसे देवता बारंबार करते हैं; दिग्विजय के समय तीव्रगामी चक्र के पीछे-पीछे चलने से जिसकी श्रान्त सेनाओं ने हिमवान् पर्वत की तराई का उल्लंघन कर दिशाओं के अन्त भाग में विश्राम किया है। जो श्री नाभिराय का पौत्र है, श्री वृषभदेव का पुत्र है; जिसने छह खण्डों से सुशोभित इस समस्त पृथ्वी का पालन किया है। जो समस्त राजाओं को जीतनेवाला है-ऐसे मुझ भरत ने लक्ष्मी को नश्वर समझकर जगत् में फैलने वाली अपनी कीति को इस पर्वत पर स्थापित किया है।"
भरत ने प्रशस्ति उकेरकर जब उसका वाचन किया तो उसे उसकी गरिमा पर सन्तोष हुआ। पुराणकार कहते हैं कि चक्रवर्ती के गौरव को मान देने के लिए देवताओं ने आकाश से पुष्प-वर्षा की।
दिग्विजय की सम्पूर्णता अब सामने थी। पृथ्वी की परिक्रमा समाप्ति पर थी। अयोध्या में प्रवेश करने से पहले भरत ने कैलाश पर्वत पर जाकर धर्मतीर्थ की महिमा से मण्डित परम वीतराग प्रभ आदिनाथ के दर्शन किये, उनकी उपासना की।
चारों दिशाओं में फैले संसार की दिग्विजय के उपरान्त भरत का विजय-चक्र, सफलता के गौरव से दीप्त, वापस अयोध्या की सीमा तक आ पहुंचा। नगरवासी उमड़ पड़े स्वागत के लिए । दुन्दुभियों की ध्वनि में शब्द खो गये । चक्ररत्न परकोटे को पार करना ही चाहता था कि अचानक रुक गया। 'कोई कारण नहीं कि चक्र रुके।' भरत ने बारबार सोचा---'चक्रवर्ती का चक्र तो रुकता ही नहीं, जब तक अवरोध सामने न हो।'
"मैं तो विश्व-विजय कर चुका, फिर चक्र को कुंठित करने की धृष्टता किस देव-दानव, मन्त्र-तन्त्र की है ? चक्रवर्ती का चक्र तो रुकता नहीं, रुक ही नहीं सकता। फिर यह दुर्घटना क्यों ?"
सरसराते वाण की तरह सेना में, कटक में, नगर में, जन-जन की जानकारी में, कानों-कान सूचना पहुँच चुकी थी कि भरत का चक्र रुद्ध हो गया। भयानक निस्तब्धता । मन्त्री भयभीत हुए। वह कुछ न बता पाये, तो नैमित्तिकों, ज्योतिषियों का आह्वान हुआ। निमित्तज्ञानी ने बताया : ___ "यह ठीक है कि संसार के नरेश और जल-थल के अपने-अपने क्षेत्र के स्वामी -मनुष्य तथा देव, सब झुकते चले आये हैं किन्तु महाराज भरत को अपने 99
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
भरत चक्रवती का साम्राज्य - विस्तार
भाईयों का और पोदनपुर में बैठे बाहुबली का ध्यान रहा ही नहीं क्योंकि वे तो सगे भाई हैं, भरत के चक्रवर्तित्व की प्रतिष्ठा के सहभागी । लेकिन नहीं, जब तक भाई अपने-अपने राज्यों को आपके साम्राज्य की अधीनता में विलीन नहीं कर देते, तक दिग्विजय पूरी नहीं होती ।"
तब
"ठीक तो है", भरत ने कहा । "इतनी बड़ी दिग्विजय के अवसर पर मुझे स्वयं ही अपने भाईयों को बुलाना चाहिये था। कोई बात नहीं, अब लिखे देता हूँ ।"
15
दूत चक्रवर्ती का पत्र लेकर भाईयों के पास पहुँचे। 99 भाईयों ने निर्णय किया कि वह पराधीनता स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन युद्ध भी नहीं करेंगे। वे सब तत्काल तीर्थंकर आदिनाथ के समवसरण में पहुँचे और चरण-वन्दना करके निवेदन किया - "प्रभो ! भरत हमें अपनी आज्ञा में बांधकर हमसे प्रणाम करवाना चाहता है | वह आपके दिए हुए राज्य को अपने वश में करना चाहता है। हम प्रणाम करेंगे तो केवल आपको ही, अन्य को नहीं । भरत के मन में घोर अहंकार और लोभ उत्पन्न हो गया है ।"
भगवान ने करुणा-पूर्ण वचन कहकर सान्त्वना दी : " भरत का पुण्य जब तक प्रबल है वह राज्य करेगा, साम्राज्य का विस्तार करेगा । तुम लोग अपने मन से क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करो। तुम्हारे मन में धर्मभाव जगा है । ईर्ष्या को छोड़ो !"
तदलं स्पर्द्धया, दध्वं यूयं धर्म- महातरोः । दया - कुसुममम्लानि तन्मुक्तिफलप्रदम् ॥
- छोड़ दो स्पर्धा : उस धर्मरूपी महावृक्ष का आश्रय लो जिसमें दया के फूल खिलते हैं जो कभी म्लान नहीं होते; और जिससे मुक्ति का फल प्राप्त होता है ।" धर्मोपदेश सुनकर समस्त 99 सहोदरों ने भुनिव्रत ग्रहण कर लिया ।
उधर भरत का पन लेकर अश्वारोही नायक पोदनपुर पहुँचा । अनेक द्वारपालों को सूचना देते हुए, महाराज भरत के पत्र की राजमुद्रा दिखाते हुए उसने बाहुबली के सभागृह में प्रवेश किया । झुककर प्रणाम किया, भरत का पत्र दिया और विनम्रभाव से बाहुबली की भाव-भंगिमा को देखता रहा। फिर बोला :
"मुझे कुछ मौखिक निवेदन करना है, प्रभु ।"
"कहो, क्या कहना है ?" बाहुबली ने कहा । साथ ही, पूछा
" दिग्विजय की यात्रा से श्रम श्रान्त मेरे अग्रज प्रसन्न तो हैं ? बहुत दिनों बाद उन्होंने हमें याद किया। ठीक ही तो है, वह इतनी बड़ी पृथ्वी के स्वामी हैं । उन्हें बहुत लोगों की चिन्ता रहती है । उन्होंने समस्त दिशाएँ वश में कर ली हैं । समरत राजाओं को जीत लिया है। अब तो कोई चिन्ता शेष नहीं रही है न ?”
,
दूत बोला- "महिमामय, आपका प्रश्न बहुत सार्थक है । आप दूरदर्शी हैं। चक्रवर्ती महाराज ने आपको निमंत्रित किया है कि दिग्विजय पूर्णता को प्राप्त हो
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
16
अन्तर्वेन्द्रों के पार हम लोग तो स्वामी के अभिप्राय के अनुसार कहते हैं। चक्रवर्ती ने जो प्रिय और उचित आज्ञा दी है, मैं उसे निवेदन करने आया है। उसे स्वीकार करने का आधार यही होना चाहिए कि उसके पीछे वार्ता भेजने वाले का गौरव मान्य है । शास्त्र का वचन है कि गुरुजन का आदेश किसी तर्क-वितर्क के बिना मान लेना चाहिये । भरत इक्ष्वाकुवंश के ज्येष्ठ पुरुष हैं, भगवान ऋषभदेव के पुत्र हैं, राजाओं में प्रथम हैं, आपके अग्रज हैं। उन्होंने देवों को भी वश में करके उनसे प्रणाम करवाया
___ संदेश-वाहक नायक बहुत चतुर था। उसने बाहुबली के चेहरे पर उभरने वाले भाव की छाया देखी, और इस आशंका से कि कहीं वह कोई अप्रिय बात कहने का उपक्रम न करें, भरत के शौर्य को, उनकी शक्ति को, बखानना उचित समझा। उसने बात का क्रम बनाये रखते हुए कहा: __"भरत चक्रवर्ती की शूरवीरता की गाथा इस दिग्विजय के कारण अमर हो गई है। उन्होंने समुद्र में अपना अश्वरथ दौड़ा दिया । बारह योजन दूर तक जाने वाले उनके वाण ने महासागर में रहने वाले मागधदेव को कंपा दिया। विजयार्द्ध पर्वत के देव को जीतकर उससे अपनी स्तुति करवायी। म्लेच्छों का राजा विरोध करना चाहता था किन्तु भरत के सेनापति ने अपने ही बल से हराकर, उसका धन छीन कर, उसे दास बना लिया है। हे आयुष्मन, विश्वमान्य महाराज भरत अपने चक्रवर्तित्व की प्रतिष्ठा आप तक पहुँचाकर आपको आशीर्वाद देते हुए यह आज्ञा कर रहे हैं कि समस्त द्वीप-समुद्रों तक फैला हुआ हमारा यह राज्य बिना हमारे भाई बाहुबली की उपस्थिति के शोभा नहीं दे रहा है । ऐश्वर्य वही सार्थक है जिसे भाई लोग साथ-साथ भोगें। इसलिए आप चलकर उन्हें प्रणाम करें।" _दूत बाहुवली के भावों के ज्वार को परख रहा था। अब अन्तिम तर्क शेष था जो अकाट्य होना चाहिए । दूत ने स्वर को गम्भीर बनाकर कहा : ___"यदि कोई शत्रु प्रणाम न करे तो उससे दुख नहीं होता किन्तु यदि लघु भ्राता आकर प्रणाम न करे तो वह कहीं अधिक दुखदायी होता है। आप प्रणाम करके उनका सत्कार कीजिये । इससे आपकी सम्पदाएं बढ़ेगी। भरत महाराज का चक्ररत्न साथ चलता है, उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। उनके विरुद्ध जाने का इसी कारण कोई साहस ही नहीं कर सकता। और, उनका दण्डरत्न विमुख नरेशों को दण्ड देता चलता है। देखिये, कितने मण्डलेश्वर राजा इस दण्ड के कारण खण्डखण्ड हो गये हैं। आप विलम्ब न करें। चलकर प्रणाम करें। भाईयों के मिलन से संसार पुलकित होगा।"
"रे मूर्ख", बाहुबली गरजे । "तू बोले ही चला जा रहा है, और तुझे स्वयं पता नहीं कि क्या अनर्गल कह रहा है ? तू शान्ति और प्रेम की बात कर रहा है, या चक्र के प्रभाव की जो पराधीन बनाता है; या उस दण्डरत्न की, जिसे तू भय
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
भरत चक्रवर्ती का साम्राज्य-विस्तार
17
और विनाश का साधन बता रहा है ? रे दुर्बुद्धि, क्या तू यह नहीं जानता कि चक्र तो कुम्हार भी चलाता है और वह भी दण्ड का सहारा लेकर ? तेरा स्वामी भी कुम्हार ही है क्या, जिसके पास चक्र भी है और दण्ड भी ? तूने अपने स्वामी को भिखमंगा बना दिया। वह मुझसे मेरी पृथ्वी की भिक्षा मांग रहा है। उधर तू यह भी कह रहा है कि यदि मैं जाकर प्रणाम करूं तो स्वामी से सम्पदा पाऊँगा । रे बुद्धिहीन, अपने मुंह से अपनी बड़ाई और दूसरों की हीनता?"
दूत बाहुबली के इस आक्रोश को समझ रहा था। उसने निवेदन किया"महाराज, आपकी अकृपा मैं नहीं चाहता, किन्तु जिनकी कृपा आपके हित में है उन अग्रज की ओर से ही मैं यह कह रहा हूँ।" ____ बाहुबली की भृकुटि में बल आ गया । बोले, "एक बात कहकर तू मानो घी को ताव दे रहा है, तो साथ ही दूसरी बात कह कर तू उसमें पानी डाल कर उसे शान्त करना चाहता है। तू क्या इतना भी नहीं जानता कि इससे घी अधिक खोलता है और छनछनाहट करता है ? बड़ा भाई नमस्कार करने योग्य है, यह मैं मानता हूँ। किन्तु जो भाई गर्दन पर तलवार रखकर प्रणाम करवाना चाहे, उसकी अधीनता कैसे सही जा सकती है ? बता तो-आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने राजा की उपाधि किसे दी ?"
"वीरवर महाराज भरत को, और आपको भी !" ___ "ठीक" बाहुबली बोले, "किन्तु अब भरत राजराजा बनना चाहता है, वह भी मुझे नीचा दिखाकर ? व्यर्थ है यह।रे दूत, पूछ अपने स्वामी से कि जिस धरालक्ष्मी को पिता ने मुझे दिया, जो मेरी वल्लभा है, उसका अपहरण करके वह मानो भाई की स्त्री को हरना चाहता है ? उसे लज्जा नहीं आती? समझ ले अच्छी तरह कि मुझे पराजित किये बिना वह मेरी पृथ्वी का भोग नहीं कर पायेगा।"
दूत ने अब अन्तिम परिणाम पर वर्तालाप को पहुँचाना उचित समझा, जैसा कि वह अपने स्वामी से संकेत लेकर आया था। उसने कहा, "तब तो महाराज, युद्धक्षेत्र में ही महाप्रतापी चक्रवर्ती भरत इस समस्या का समाधान आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे।"
"मूढ़मति, दूत ! भरत युद्धक्षेत्र को कसोटी बनाना चाहते हैं तो उसी पर मेरा और भरत का पराक्रम कसा जायेगा। जा, जाकर स्पष्ट कह दे।" बाहुबली के स्वर में गर्जना थी। क्षणभर रुककर बोले, "तेरे दुःसाहस को मैंने इसीलिए उपेक्षित किया कि तू दूत का कर्तव्य निभा रहा है।"
परिणाम यह कि दोनों भाइयों में ठन गई । युद्ध के नगाड़े बज उठे। दोनों ओर की सेनाओं ने युद्ध के लिए कूच कर दिया और आमने-सामने आ पहुँचीं। महानाश की आशंका से त्रस्त दोनों ओर के बुद्धिमान वयोवृद्ध मन्त्रियों ने मिलकर सलाह की। "दो भाईयों की आपसी बात है। इसमें तीसरे किसी का क्या ? युद्ध
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
क्यों हो ? सेनाएँ क्यों मरें-कटें ? दोनों समर्थ हैं, आपस में टकराकर निर्णय कर लें कौन अधिक बली है, कौन जीतता है।" युद्ध को सीमित करने का, सद्बुद्धि को क्रोध और आवेश पर विजय पाने का यह पहला अवसर था। उन्होंने भाइयों के सामने तर्क रखा : - "युद्ध में हजारों-लाखों सैनिक मरेंगे, एक-दूसरे को मारेंगे, देश उजड़ेगा तो क्या इससे इक्ष्वाकुवंश का, दोनों भाइयों का, नाम ऊँचा होगा ? अहिंसा धर्म के प्रतिष्ठिापक भगवान आदिनाथ के होते हुए यह होगा?" बात दोनों भाइयों को भी जंच गयी । दो महाबलियों के पारस्परिक युद्ध के अभूतपूर्व दृश्य की कल्पना रोमांचक हो उठी।
दोनों पक्षों के राजा पंक्ति बांधकर आमने-सामने द्वन्द्व-युद्ध की रंगशाला में जाकर बैठ गये। दोनों भाइयों ने अपने बल, अपनी सामर्थ्य, युद्ध-विद्या के कौशल
और छिपी हुई शक्तियों को प्रयोग में लाने का निर्णय कर लिया है। एक प्रकार से अहिंसक युद्ध का क्रम निश्चित हो गया। पहले दृष्टि-युद्ध, फिर जल-युद्ध और अन्त में मल्ल-युद्ध । और, दिग्गजों की टक्कर का क्षण आ पहुंचा।
दृष्टि-युद्ध प्रारम्भ हुआ। नेत्रों का तेज परस्पर टकराया। देखना था किसकी पलकें झुककर बरोनियों से अपने प्रतिपक्षी का चरण छूती हैं । बाहुबली जीत गए। उनकी सेना ने तुमुल हर्षनाद किया। भरत की आँखों के आगे पराजय की कालिमा लहरा गयी। ____ इसके बाद जल-युद्ध की बारी थी। बहुत विशाल सरोवर था—योजनों लम्बाचौड़ा। दोनों महाबली योद्धाओं के योग्य । एक किनारे से दूसरे किनारे तक की दौड़ । जल में तरह-तरह के आसनों और मुद्राओं के साथ संतरण की सामर्थ्य की चुनौती! और फिर, हथेलियों में पानी भर कर बौछार का प्रहार ! बाहुबली पानी उछालते तो भरत का वक्ष और चेहरा आक्रान्त हो जाता, आँखें धुंधिया जातीं। भरत जल उछालते तो बाहुबली के वक्ष तक ही मुश्किल से पहुँच पाता । बात स्पष्ट थी । बाहुबली की ऊँचाई भरत से कहीं अधिक थी। और, जल-युद्ध में भी बाहुबली की विजय घोषित हुई।
पुन: आकाशभेदी जय-जयकार। दूसरी ओर भरत की सेना में श्मसान-सी नीरवता। भरत निराशा की सीमा पार कर, ज्वलन्त क्रोध की अग्नि-लीक में आ गये । किन्तु अभी तीसरा युद्ध शेष था।
मल्लयुद्ध । बाहुबली की विशाल काया। बलिष्ठ भुजाएँ । मांस-पेशियों का चट्टानों-सा उभार। भरत भी शक्ति के अवतार। दोनों दिग्गजों की भिड़न्त से धरा कांप गई। मल्ल-युद्ध के कौशल ने दर्शकों को चकित कर दिया । भरत, जैसे भी हो, इस दाव को जीतना चाहते थे। लेकिन, यह क्या ! पलक झपकते बाहुबली ने भरत को हथेलियों पर झुलाते हुए कंधों से ऊपर उठा लिया । अब क्या करें? जमीन
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
भरत चक्रवती का साम्राज्य-विस्तार
19
पर पटक कर आहत करने की कल्पना से मन पिवल गया। सोचा, ये मेरे बड़े भाई हैं, इन्हें जमीन पर पटकना क्या ठीक होगा? और, धीरे से हथेलियों को नीचे की
ओर झुलाते हुए उन्होंने भरत को धरा पर उतार दिया। अब तो बाहुबली की सेना ने हर्षध्वनि से आकाश हिला दिया। दूसरी ओर फिर मरघट का-सा सन्नाटा। तभी भरत के मन के श्मशान में हजार-हजार ज्वालाएँ धू-धू कर उठीं ! उसने घनीभूत क्रोध के चक्रावात में अपना चक्र चला दिया।
चक्रवर्ती का चक्र जब छूटता है तो वह विरोधी का सिर काटकर ही वापस आता है। 'हाय, भरत ने चक्र चला दिया !' लाखों कण्ठों का चीत्कार।
चक्र वेग से बाहुबली के सिर के पास पहुँचा। लेकिन, अचानक ही उसकी गति रुक गई। उसने बाहुबली के मस्तक की तीन प्रदक्षिणाएँ की और वापस आकर स्थिर हो गया। ___ भरत अपने क्रोध के चरम आवेग में यह भूल गये थे कि प्राण-लेवा यह चक्र अपने वंशजों पर नहीं चलता। भरत का अंग-अंग, रोम-रोम पराजय की यन्त्रणा में जलने लगा। क्रोध का नागफन अपने ही उद्धत अहंकार की शिला से टकराकर क्षत-विक्षत हो गया।
बाहुबली ने अपने बड़े भाई के पराजित, हताश, अभिशप्त, उदास चेहरे को देखा तो हृदय पसीज कर आँखों में छलछला आया।
"इसी अहंकार के दैत्य की सेवा करने के लिए भरत ने मेरे राज्य पर आक्रमण करना चाहा था? दो वीरों के आमने-सामने के व्यक्ति-युद्ध की मर्यादा भूलकर उसने चक्र का सहारा लिया ? मेरे सिर को काट गिराने के प्रयत्न से नहीं चूका ? धिक्कार है इस क्रोध पर, इस अभिमान और इस राज्य-लिप्सा पर !!"
बाहुबली ने प्रतिज्ञा की कि राज्य छोड़कर वह संन्यासी हो जाएंगे। दे वन में तपस्या करेंगे और उस रहस्य का पता लगाएंगे जिससे क्रोध पर विजय पायी जाती है, जिससे अभिमान को जीता जाता है, जिससे लोभ को वश में किया जाता है, जिसमें सिर्फ करुणा और प्यार का अमृतजल होता है जिससे आदमी के सूखे कण्ठ को सींचा जाता है । अपरिमित करुणा से द्रवित होकर उन्होंने भरत की ओर देखा और वन की ओर चरण बढ़ा दिये 1 ___ अब पराजित, अभिशप्त, दीन और नितान्त निराश्रित भरत अपनी टूटती हुई देह-वल्लरी को किसके सहारे थामे ? उसने लपककर बाहुबली के चरण पकड़ लिये। बाहुबली सकुचाये।
"भइया, तुम चक्रवर्ती हो। अपनी मर्यादा का ध्यान करो।"
"नहीं, नहीं, मैं चक्रवर्ती नहीं हूँ, तुम्हारा भाई हूँ। और तुम साथ नहीं होगे तो मेरा चक्रवर्तित्व किस काम का ? कौन मुझे सहारा देगा ?"
"अब नहीं भइया, मैं तो तीर्थंकर के पास भी नहीं जा रहा हूँ । स्वयं ही अपना
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
20
मार्ग बनाऊँगा । एकाकी ध्यान करूँगा । निरपेक्ष, निःसंग, स्वतन्त्र । "
लगता है यह भी एक प्रकार के अहंकार की वाणी थी, जिसने गुरू को ही नकार दिया। भरत के अनुनय-विनय को भी मान नहीं दिया ।
तभी महामन्त्री का स्वर सुनाई दिया, "किस आवेग में जा रहे हो, बाहुबली ? भरत की बात भी नहीं सुनना चाहते ? पर, सोचो तो, यदि तपस्या करोगे तो कहाँ करोगे ? भरत की भूमि पर ही तो करोगे ? यदि आहार लेना हो तो किस के साधनों का लोगे ? भरत के ही तो ?” इन शब्दों को सुनकर बाहुवली को शायद आक्रोश आया हो, और उत्तर देने की भावना भी जगी हो, किन्तु मन को दबाया, अपने को समझाया - " तपस्या के लिए जा रहा हूँ । कष्ट, संकट और मान-अपमान को सहना भी तो तप है । साधना यहीं से प्रारम्भ हो ।"
बाहुबली ने मानो महामंत्री का स्वर सुना ही नहीं । चुपचाप चले गये । दूर, वन में। अपने ही विचारों में मग्न । ध्यान और समाधि में दत्तचित होने के लिए ।
इस प्रकार बाहुबली मुनि हो गये । और, पुराणों का कहना है कि उन्होंने एक for प्रतिमा-योग धारण कर लिया, कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान करने की प्रतिज्ञा कर ली । ध्यान की इस उत्कृष्ट मुद्रा में जहाँ काया की संज्ञा का उत्सर्ग करना होता है उन्होंने वर्षभर इतना कठोर तप किया कि दीमकों ने देह में घर बना लिया, साँपों ने चरणों में बांबियां बना लीं, लताएँ शरीर पर चढ़ गईं, छिपकलियाँ देह पर घूमने लगीं।
अडिग तपस्या ने बाहुबली के भीतर एक दीप जला दिया । किन्तु बाहुबली के हृदय-क्षितिज पर साधना का वह प्रभात उदित नहीं हुआ जिसमें पूर्ण ज्ञान की किरणें फूटती हैं — जिसे केवलज्ञान कहते हैं, जो साधु को अर्हन्त का पद देता है, जो मोक्ष प्राप्त करने का मुख्य साधन होता है ।
इधर, भरत ने विचार किया— बाहुबली प्रायः एक वर्ष से ऐसी घोर तपस्या में लीन हैं कि सारी पृथ्वी को छोड़कर केवल उतनी ही धरा अपने लिए निश्चित कर ली है, जितनी पर पाँव के दो तलवे रखकर खड़े-खड़े ध्यान कर सकें। न आहार, न जल, न संचरण, न कम्पन |
भरत का मन अपने भाई की इस असम्भव और अनहोनी तपस्या को देखकर रात-दिन चिन्ता में डूबा रहता । इतनी घोर तपस्या करने पर भी बाहुबली को केवलज्ञान क्यों नहीं होता ? उन्हें मोक्ष क्यों नहीं मिलता ?
भरत अपने पिता तीर्थंकर ऋषभदेव की धर्मसभा में गये । प्रश्न किया, "प्रभो ! बाहुबली एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर इतनी घनघोर तपस्या कर रहे हैं; उन्हें केवलज्ञान क्यों नहीं होता ? दो तलवों भर जमीन पर खड़े हैं। ऐसी तपस्या भला कभी किसी ने की ?"
भगवान् ऋषभदेव ने कहा
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
भरत चक्रवर्ती का साम्राज्य - विस्तार
21
で
"भरत, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसी तथ्य में है कि बाहुबली पाँव के दो तलवों भर पृथ्वी पर खड़े हैं। बाहुबली को केवलज्ञान इसीलिए नहीं होता कि उनके मन में एक काँटा है, काँटे की-सी कसक है, एक शल्य है, कि जिस धरती पर उनके तलवे टिके हैं, वह धरती भी आखिर है तो भरत की ही। और यह धरती उस भरत की है जिसने इसके लिए युद्ध किया, जो चक्रवर्ती सम्राट् है । और, उस धरती पर वे खड़े हैं । बाहुबली की तपस्या के फूल को यह काँटा कुरेद रहा है, और यह भी कि वह तुम्हारे मन के संक्लेश का कारण बने । जाओ, संबोधन करो। "
भरत की आँखें भर आयीं । भगवान आदिनाथ को प्रणाम करने के उपरान्त भरत वापस आकर सीधे राजभवन में गये । अपनी बहिनों - ब्राह्मी और सुन्दरी को सब वार्ता बतायी । उन्हें साथ लेकर वह चल पड़े बीहड़ वन की ओर । पहुँचे ध्यानमग्न बाहुवली के चरणों तक । तपोवन का वातावरण देखकर मन्त्र मुग्ध हो गये । परम शान्ति और आह्लाद के अलौकिक परिवेश में करुणा और मंत्री की भावनाओं ने चर-अचर के प्राणों को स्पन्दित कर रखा था। हाथी और सिंह आत्मीय भाव से एक साथ बैठे हुए थे। जिस हथिनी ने अभी-अभी शिशु को जन्म दिया था, वह स्वयं तो एक भैंस के शिशु का मस्तक सूंघ कर उसे प्यार से अपना दूध पिला रही थी, और हथिनी के शिशु के मुख को एक सिंहनी छाती से चिपकाये स्तन पान कराने की चेष्टा कर रही थी। मेघों के गर्जन की लय पर मयूर नाच रहे थे और सर्पों की मण्डली कुण्डली मारे, कण उठाये झूम रही थी । बहिनों ने देखा कि सैकड़ों कुक्कट सर्प चरणों के पास बाँबियाँ बनाये शान्त भाव से बैठे हुए हैं । हरीभरी माधवी लताएँ, पिप्पली लतिकाएँ, अपनी समस्त कमनीयता के साथ घेरे हुए हैं दिगम्बर साधु के पावन चरणों को, जंघाओं को, भुजाओं को । बहिनों की पुलकाafe स्वयं ही लता-सा विस्तार पाती गयी। बड़े आदर से सुन्दरी और ब्राह्मी ने लताओं को हटाना शुरू किया। वे अपने शरीर पर उन्हें ओढ़ती चली गयीं । लेकिन भाई को तो स्पर्श का संवेदन ही नहीं ! भरत भी सोच में पड़ गये कि किस अतल साधना में लवलीन हैं बाहुबली ! भला भावना की ऐसी अलोकिक स्थिति में कोई शल्य कैसे प्रश्रय पायेगा ? कोई काँटा कैसे कसकेगा ? पर, भगवान आदिनाथ ने जो कहा है, वह सर्वज्ञ की वाणी है। शूल की कोई-न-कोई अनी, कभी-कभी अन्तमुहूर्त में कसक जाती होगी या सरसराती हवा की कोई हल्की-सी लहर गुंजा जाती होगी महामन्त्री का वह स्वर : "बाहुबली कहाँ जा रहे हो ? है कहीं ऐसी पृथ्वी जिस पर चक्रवर्ती भरत का अधिकार न हो ?”
भरत का सोच जितना गहराता, उनकी हथेली बाहुबली के दायें हाथ को उतनी ही द्रुतगति से सहलाती जातीं । अब भरत के आँसू बाहुबली के चरणों का अनवरत प्रक्षालन किये जा रहे थे। सहसा ही ध्यानस्थ योगी की काया में चेतना का एक मन्द कम्पन, रोमराजि में एक हल्का-सा स्फुरण, बरोनियों का एक शान्त
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
-- अन्तद्वन्द्रों के पार
उन्मीलन, स्पन्दित हुआ। और भरत के उर में वसन्त के शत-सहस्र फूलों की सुरभि महक उठी।
तभी दोनों बहिनें-ब्राह्मी और सुन्दरी, हृदय की समस्त मंगल-कामनाओं को वाणी की मिश्री में घोलती हुई बोली :
"वीरो, भइया हमारे, गज से नीचे उतरो।"
"किसने कहा ? किससे कहा ? मुझसे ? मैं क्या हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ। दो तलवों भर धरा पर ध्यान करता रहा हूँ और ये वाणी कहती है. 'गज से नीचे उतरो!" मुनि बाहुबली के मन में बिजली-सी कौंध गई ! समाधान उन्हें स्वयं ही से प्राप्त हो गया । शब्दों के अर्थ की आवश्यकता नहीं पड़ी। “सचमुच, भरत की पृथ्वी पर खड़े होने का संवेदन-शूल मुझे अहंकार के गज पर उठाये हुये
इसी बीच सुनाई पड़े भरत के शब्द :
"मुनिराज, भरत का यह चक्रवर्तित्व तुच्छ है । आपकी इस तपस्या पर भरत के हजार राज्य निछावर हैं । आपको मैं नमन करता हूँ।" ___भरत की शान्त, गद्गद वाणी ने बाहुबली के मन को सुलझा दिया। उन्होंने आगे बढ़ने के लिए जैसे ही पग उठाया, वह वीतराग ध्यान के ऊँचे-से-ऊँचे शिखर पर एक क्षण में पहुँचे गये। उन्हें केवलज्ञान हो गया। निर्वाण की ओर उनकी यात्रा द्रुततर हो गई। तीर्थंकर आदिनाथ से भी पहले वह मोक्षगामी हो गये । यह मानव की आध्यात्मिक विजय का चरम-परम उत्तुंग शिखर था।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्राट भरत : अनासक्त योगी
भरत की जीवन-यात्रा अनेक गहरे और अन्तर्वेधी अनुभवों के कुसुमित और कंटकित मार्गों से गुजर चुकी थी । अहंकार के अणु का विध्वंसकारी विस्फोट वह देख चुके थे, सह चुके थे। अब वह चक्रवर्ती के कर्तव्यों का अनासक्त भाव से पालन करने लगे। उन्होंने अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा के लिए ब्राह्मण वर्ण का निर्माण किया। यह चौथा वर्ण था। भगवान आदिनाथ शेष तीन वर्गों की स्थापना समाज-व्यवस्था की दृष्टि से पहले ही कर चुके थे। सारे रत्न, सारी सम्पदाएँ और सारे भोग अब बन्धन नहीं थे। मन अब राज्य-व्यवस्था के केवल मानव-कल्याणकारी पक्षों को स्वीकारता था। धर्म का मनन, आत्म-चिन्तन और समताभाव का दर्शन उनके जीवन और क्रिया-कलाप में जन-मन को अब प्रत्यक्ष दिखाई देता । 'भरत जी घर में ही वैरागी' की कीर्ति यथार्थ पर आश्रित थी।
पुराग की कथा है कि एक बार इन्द्र की सभा में चर्चा चल पड़ी कि भरत क्षेत्र में वहाँ के चक्रवर्ती सम्राट् भरत का यशोगान इसलिए हो रहा है कि गृहस्थ होते हुए भी वे अन्तरंग से साधु हैं। राज-काज करते हुए भी वे कल्मष और अशुभ भावों से दूर हैं। स्वर्ग के सुखों में रमण करने वाले देवों को यह कल्पना विचित्र लगी। उनमें से एक देव का कोतूहल इतना उग्र हो गया कि उसने मनुष्य-लोक में जाकर स्वयं भरत की परीक्षा लेना उचित समझा। एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में वह देव भरत महाराज के सामने आ उपस्थित हुआ। पूछा
"महाराज, आप चक्रवर्ती सम्राट् हैं, राज-काज चलाते हैं, आरम्भ और परिग्रह का इतना बड़ा संसार आपकी व्यवस्था में चल रहा है, आपका राज-प्रासाद भोगों और उपभोगों की सुविधा-सामग्री से भरपूर है। आप इन सबके बीच क्रियाशील हैं। फिर यह कैसे संभव है कि आप विरागी हों? क्षमा करें महाराज, इस असंभव बात को मानने का मेरा मन नहीं होता। धृष्टता न मानें, मैं इसका प्रमाण चाहता हूँ।"
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
24
अन्तर्वनों के पार महाराज भरत मुसकाये । उन्होंने अपने प्रधान अमात्य को बुलाया । वृद्ध विप्र की शंका उसके सामने रखी और कहा :
"इनका समाधान आप कर दें।"
विप्र ने विनम्र होकर कहा, "प्रश्न आपसे है, अनुभव आपका है, समाधान अन्य कोई व्यक्ति कैसे करेगा ?"
चक्रवर्ती फिर मुसकाये । बोले
"आप चिन्ता न करें, विप्र! मैं अमात्य को स्वयं ही सब बताने वाला था कि मेरे विषय में आपकी शंका का समाधान किस प्रकार करना है। आप कल प्रातःकाल इनसे इनकी कार्यशाला में मिलें । मैं इन्हें प्रमाण-प्रस्तुति की विधि बता देता हूँ।" ___ अगले दिन प्रातःकाल परीक्षक विप्र, अमात्य के पास पहुंचा। अमात्य ने पास खड़े दो खड्गधारी सैनिकों को बुलाया । वृद्ध ब्राह्मण से कहा-"विप्रवर, माप सामने देख रहे हैं, चौकी पर यह क्या रखा है ?" ब्राह्मण ने बताया-"तेल से भरा कटोरा।"
"पूरा भरा है, या कुछ खाली है ?" "कुछ खाली है।"
"तब, माप पास वाले पान में से तेल उंडेल कर इस कटोरे को पूरा भर लें, इतना कि सारे किनारे डूबे रहें किन्तु एक बूंद भी अधिक न होने पाये कि बाहर छलके । रूई की एक बाती भी जला लें।"
। बहुत सावधानी से विप्र ने एक-एक बूंद डालकर कटोरा पूरा-पूरा भर लिया, बाती जला ली, और अपनी कुशलता पर प्रसन्न होकर बोला-"अमात्य महोदय, देखिये कितनी सावधानी और सतर्कता से मैंने कटोरा भरा है । एक बूंद की जगह भी अब खाली नहीं, और, एक भी बूंद गिरने नहीं पायी। बाती भी जल रही है किन्तु आपने मुझे जिस हेतु बुलाया उसके विषय में तो बताइये।"
__ "वही है यह विषय, विप्र! आपकी सतर्क दृष्टि से मैं प्रसन्न हूँ। वही अब स्वयं प्रमाण खोजेगी। ऐसा कीजिए कि यह कटोरा सावधानी से अपने हाथों में उठा लीजिए। आज आपकी अभ्यर्थना के लिए मैंने समस्त राज-प्रासाद की नाना प्रकार से साज-सज्जा करवायी है। अनेक प्रदेशों के सैनिक अपनी-अपनी रंगबिरंगी वेश-भूषा में आपके चित्त को आकर्षित करेंगे। प्रासाद-वासी आपको नाना प्रकार की वस्तुएं मेंट में देने के लिए तत्पर मिलेंगे। प्रसन्नचित्त से आप उन्हें स्वीकार करते चलें । आप प्रदक्षिणा लगा आयें। केवल इतना ध्यान रखें कि तेल की एक बूंद भी छलकने न पाये । और हथेलियों के कौशल से बाती की लौ न बुझने पाये। अन्यथा इसमें बहुत विपत्ति है। ये जो असिधारी सैनिक आपके अगल-बगल चलेंगे, इन्हें मालूम है कि यदि तेल की एक बूंद छलकती है या बाती बुझती है तो
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
25
सम्राट् भरत : अनासक्त योगी इन्हें क्या करना है । आप जैसे ही प्रदक्षिणा से लौटकर आयेंगे और महाराज भरत के सामने प्रासाद की शोभा का वर्णन करेंगे, अपने उपहारों का प्रदर्शन करेंगे, आपकी शंका का समाधान प्रत्यक्ष प्रकट हो जायेगा। उठा लीजिए कटोरा। यह यात्रा आपके लिए अब अनिवार्य हो गई है। इसमें किसी ओर से किसी छल को स्थान नहीं है। इस कार्य को कर दें।"
देव अब वचन-बद्ध था। देवी-चमत्कार भी निषिद्व था। एक-एक पग संभालता हुआ, कटोरे पर दृष्टि जमाये वह महल में घूमा किन्तु मन-ही-मन असिधारी सैनिकों की उपस्थिति से आतंकित रहा । वापस आकर सूर्यास्त के समय वह सम्राट के पास पहुँचा और प्रज्वलित कटोरा उनके पास रख दिया तो उस समय उसका भाव ऐसा था मानो सिंह के पंजे से प्राण बचाकर हिरण भाग खड़ा हुआ
"कहो, कैसी रही यात्रा, तुम्हारी, विप्रवर?" महाराज भरत ने पूछा । "मैं विप्र नहीं हूँ," कहकर देव अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गया। बोला :
"मुझे क्या पता महाराज, कि यात्रा क्या थी, कहां तक की थी, क्या साजशृंगार था, क्या-क्या वस्तुएं उपहार के लिए प्रस्तुत थीं । मेरा तो सारा ध्यान कटोरे पर और कटोरे में किनारों तक भरे तेल की एक-एक बूंद पर और प्रज्वलित बाती पर था। बहुत बड़ी विपत्ति के बीच मैंने अपने प्राणों को सुरक्षित रखा है।"
"शंका का समाधान हुआ?" महाराज ने पूछा।
"निश्चित रूप से हो गया" देव बोला। "आप सचमुच राजर्षि हैं। सारी भोग्य-सम्पदा के बीच आपका ध्यान केवल धर्म और आत्मा पर केन्द्रित है—जैसे मेरे प्राण कटोरे में भरे तेल और बाती की लौ के ऊपर अटके रहे । असावधानी के प्रत्येक क्षण में कर्मबन्ध का डर उपस्थित है, यह अनुभूति धर्म के केन्द्रबिन्दु से आपको डिगने नहीं देती।"
"यही सावधानी और श्रम, श्रमण धर्म है।" देव ने मन में सोचा और कहा, "मेरी सब जिज्ञासाएँ शान्त हो गई। आप चिरजीवी हों"
यह कहकर देव अकस्मात् विलीन हो गया।
भरत की वैराग्य-भावना दिन-पर-दिन प्रबल होती गई, उनका आत्मचिन्तन गहन होता गया। साम्राज्य अपनी सुचारु गति से चल रहा था। निरासक्त भरत अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे।
प्रव्रज्या का एक क्षण आता है जिसे काल-लब्धि कहते हैं । एक दिन महाराज भरत दर्पण के सामने खड़े थे कि उन्हें सिर में एक श्वेत बाल दिखाई दिया। "जीवन में जरा के, बार्धक्य के प्रवेश की अगवानी इसी श्वेत पताका से होती है। जन्म-जरा-मृत्यु स्वाभाविक परिणमन है," परमार्थ में भरत की आस्था और अधिक बलवती हो गई।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
26
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
भरत ने अपने पुत्र अर्ककीर्ति को राज्य-भार सौंपा, स्वयं मुनिव्रत धारण किया, संयम-साधना की अपूर्व क्षमता फलवती हुई कि उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान हो गया-प्राणियों की मनोभावनाओं और विचारों का प्रत्यक्ष दर्शन । फिर केवलज्ञान का सूर्य उदय हुआ और महामुनि भरत देश-देशान्तर में जीवों को कल्याणकारी धर्म का उपदेश देने के लिए विहार करने लगे। अन्त में, योगी भरत ने कर्मों का उच्छेद किया और वह मोक्ष की अवस्था में अविनश्वर आत्मधाम में स्थित हो गये।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड : दो
पुराकथा की इतिहास - यात्रा "उत्तरापथात् दक्षिणापथम् ”
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय
चाणक्य की प्रतिभा का चमत्कार
आज से लगभग 2300 वर्ष पहले का भारत ।
प्राचीन बिहार के गोल्ल प्रदेश के चाणक गाँव में एक भद्र-परिणामी श्रावक ब्राह्मण चणक रहते थे। उनकी पत्नी का नाम, ग्राम-निवासियों में, चणकेश्वरी प्रच लित हो गया। इन पति-पत्नी के जीवन में आनन्द का अवसर आया । पुत्र उत्पन्न हुआ। बालक ने माता का स्तन पान करने के लिए ज्यों ही अपना मुँह लगाया कि ब्राह्मणी को एक विचित्र अनुभूति हुई। बालक के मुंह में पूरी दन्त पंक्ति मौजूद ! बालक का आकार-प्रकार और हड्डियों का गठन भी टेढ़ा लगा । वह भयभीत हुई। उसने पति को पुकारा। पति ने देखा तो वह भी आश्चर्य चकित और दुखी !
उस दिन सौभाग्य से ग्राम के पास के वन में एक श्रमण मुनि थे, जिनकी वन्दना चणक कर चुका था। अपने पुत्र को गोद में लेकर ब्राह्मण, मुनि महाराज के पास पहुँचा और उन्हें बालक की दन्त पंक्ति दिखायी । साधु निमित्तज्ञानी थे I बोले - "आयुष्मन् विप्र, तुम चिन्ता न करो । यह लक्षण है राजा बनने का, यश कमाने का ।" बस इतना कहा और मुनि अपने ध्यान में लीन हो गए। ब्राह्मण ने आगे कुछ पूछना चाहा किन्तु मुनि को ध्यान मग्न देखकर वापस घर आ गया । पत्नी को बताया । पत्नी कुछ समझ न पायी । “एक निर्धन अकिंचन ब्राह्मण का पुत्र राजा बनेगा, यह कैसे संभव हो सकता है ?" ब्राह्मण इस कल्पना से ही भयभीत हो गया । वह त्यागी - व्रती श्रावक था । " इस पुत्र का पालन-पोषण करते हुए हर क्षण मैं अब इसी चिन्ता में लीन रहूँगा कि मुझ व्रती ब्राह्मण के घर घोर आरम्भ और परिग्रह करने वाला, युद्ध और विजय के अभियानों के विध्वन्स का खेल रचनेवाला राजा पल रहा है, जो इसी कारण अन्त में नरक जायेगा,” ब्राह्मण मन ही मन सोचता रहा।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
30
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
___ थोड़ा स्थिर चित्त हुआ तो उसके मन में विचार उठा-"यदि इस बालक का राजयोग इस कारण है कि इसके पूरे दांत उगे हुए हैं, तो इस लक्षण को ही क्यों न भंग कर दिया जाये ? तब राज-योग खण्डित हो जायेगा और मेरे घरपरिवार की, मेरे पुत्र के संस्कारों की रक्षा हो जायेगी।" उसने पत्नी को विधि बता दी कि क्या करना होगा। पत्नी ने बलिष्ठ शिशु के दाँत धीरे-धीरे छैनी से घिसने प्रारम्भ कर दिये । जब सब दाँत घिसे गये, तो ब्राह्मण फिर मुनि महाराज को खोजता हुआ दूर एक वन में पहुंचा। विधिवत् नमस्कार करके प्रश्न किया : ___"मुनिवर, राज-योग के लक्षणों को मैंने अपने बालक के मुंह में से समाप्त कर दिया। सब दाँत नष्ट कर दिये, अब आप मुझे निश्चिन्त कीजिये कि मेरा पुत्र राजा नहीं बन पायेगा।..."
"सुनो श्रावक", मुनि महाराज ने कहा। "दांत तुमने घिस दिये, इससे वह नष्ट तो नहीं हुए। जड़ें तो अभी यथावत् हैं। हाँ, निमित्तज्ञान अब यह अवश्य बताता है कि जिस बालक को राजा बनना था, वह स्वयं तो राजा नहीं बनेगा, किन्तु राज्य की जड़ें जमवायेगा । राजा को अपने प्रभाव में रखेगा। चणी, तुम्हारा यह पुत्र चाणक्य कहलायेगा और अपनी बुद्धि से, अपनी युक्ति से, राजनीति के कौशल से, संसार को चकित कर देगा, यशस्वी होगा।" __गुरू को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करके ब्राह्मण घर लौट आया। अब उसके मन में यह आश्वासन था कि पुत्र यदि यशस्वी होगा तो उत्तम है। राजा तो वह स्वयं नहीं बनेगा किन्तु वह मन्त्री अवश्य बन जायेगा। ब्राह्मण लोग मन्त्री हुआ करते हैं। अच्छा तो यह भी नहीं होगा कि राज-काज के परिग्रह में इसका मन उलझे। स्वयं राजा नहीं बनेगा, बस इतनी ही रक्षा है। बालक का नाम चाणक्य पड़ गया।
धीरे-धीरे बालक बढ़ता गया। पिता को यह देखकर सन्तोष हुआ कि घर में सम्पदा नहीं बढ़ रही है। निर्धनता ने पति-पत्नी के मन को सन्तुलित बना रखा है।
पिता की सम्पदा शास्त्र-ज्ञान थी, सो उसने बालक को गुरुओं से अनेक शास्त्र पढ़ाये-धर्म, दर्शन, इतिहास, तर्क, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द आदि 14 विद्याएँ सिखायीं । बालक अद्भुत ज्ञानी हो गया । धुरन्धर विद्वान होने पर पिता ने इसका विवाह यशोमती नामक एक ब्राह्मण-कन्या से कर दिया। यशोमती अपने पति की बुद्धि और शील स्वभाव से परिचित हो गई तो प्रसन्न मन से घर गृहस्थी में लग गयी। पति के बेडौल शरीर को उसने अपनी आँखों में नया रूप दे लिया। घर में अभाव था, सो विपन्न होकर रहना सीख लिया।
यशोमती एक बार अपने भाई के विवाह के अवसर पर पिता के घर आयी। 1 हेमचन्द्राचार्य कृत जिस 'अभिधान-चिन्तामणि' में चाणक्य की यह कथा दी हुई है, उसमें
चाणक्य के आठ नाम गिनाए गए हैं-(1) वात्स्यायन, (2) मेल्लिनाग (3) कुटिल वा कौटिल्य, (4) चाणक्य, (5) द्वामिल, (6) पक्षिलस्वामी, (7) विष्णुदत्त, (8) अद्गुल ।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय
31
उसकी दूसरी बहनें भी विवाह में आयी थीं। सब के पास सुन्दर वस्त्र
और मूल्यवान आभूषण थे। यशोमती थी एक निधन ब्राह्मण की पत्नी । बहिनों ने यशोमती की निर्धनता की तथा उसके पति की द्रव्य-उपार्जन की अक्षमता और कुरूपता की हँसी उड़ाई। यशोमती ने विवाह के वे दिन मन मारकर काट दिये । दु:खी होकर जब यशोमती पति के पास लौटी तो उसने अपनी व्यथा-कथा उसे सुनाई। उसके आंसुओं की धार रुक नहीं रही थी। चाणक्य ने तभी निश्चय कर लिया कि वह गांव से बाहर जाकर धन कमायेगा और सबको दिखा देगा कि उसकी क्या सामर्थ्य है। अभिमान और अहंकार की मात्रा भी चाणक्य में उतनी ही थी, जितना बड़ा उसका ज्ञान।
वह नन्दराजाओं की राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचा। महाराजा महापद्मनन्द की दानशाला में प्रवेशकर वहां के पण्डितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और सबको पराजित कर दिया।
बात मगध-सम्राट तक पहुँची। प्रसन्न होकर उन्होंने चाणक्य को दानशाला का प्रधान बना दिया। चाणक्य का यश और प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता गया। युवराज घनानन्द को चाणक्य का अहंकार, उसकी उद्धतता और उसका बढ़ता हुआ प्रभाव पसन्द नहीं था। एक दिन युवराज ने दासी से सुना कि चाणक्य राजसभा में आकर स्वयं महाराज के खाली सिंहासन पर बैठ गया। दासी ने चाणक्य से जब कहा कि सिंहासन को छोड़कर दूसरे आसन पर बैठे तो चाणक्य ने कहा- "इस पर तो मेरा कमण्डलु रहेगा।" "तब इस तीसरे आसन पर बैठो", दासी ने कहा। "इस पर मेरा वस्त्र रहेगा, और उस अगले आसन पर मेरा यज्ञोपवीत, और उस आसन पर शास्त्र..." दासी से यह घटना सुनकर युवराज का क्रोध इस सीमा तक बढ़ा कि उसने चाणक्य की चोटी पकड़कर उसे दानशाला से धक्के देकर निकाल दिया । चाणक्य ने क्रुद्ध नाग की तरह अपनी चुटिया की कुण्डली खोल दी और प्रतिज्ञा की : "मैं जब तक इस समूचे नन्दवंश का नाश नहीं कर दूंगा, शिखा की गाँठ नहीं बांधूंगा ।" वह निकल पड़ा ऐसे होनहार बालक की खोज में जिसमें राजत्व के गुण हों, जिसके माध्यम से वह नन्दवंश का उच्छेद करके नये राजवंश की स्थापना करे । नये राजवंश की स्थापना के लिए आवश्यक था कि प्रारम्भ से ही स्वयं से प्रतिबद्ध व्यक्ति को राज्य-संचालन की क्षमता में प्रशिक्षित किया जाये और उसके माध्यम से इतना सैन्य-बल एकत्र किया जाये कि नन्द राजा को युद्धकौशल और नीति-चातुर्य के आधार पर सिंहासन से च्युत किया जा सके।
चाणक्य घूमता हुआ हिमालय की तराई में पिप्पलीवन में बसे मौर्यों के गणतन्त्र में पहुंचा, जहां के शासक व्रात्य-क्षत्री थे । वह गांव के मुखिया के यहाँ ठहरा तो पाया कि गृहपति इस चिन्ता से ग्रस्त हैं कि उनकी गर्भवती पुत्री को यह दोहद या अन्तरंग इच्छा हुई है कि वह चन्द्रमा का पान करे।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
32
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
चाणक्य को अपनी बुद्धि पर विश्वास था। उसने गृहपति को आश्वस्त कर दिया कि वह उसकी पुत्री को अवश्य चन्द्रमा का पान करवा देगा। "शर्त यह है" चाणक्य ने कहा, "जो बालक उत्पन्न हो उसकी शिक्षा-दीक्षा और उसके भविष्य के निर्माण का दायित्व मेरे ऊपर ही रहेगा। मैं जब चाहूँ, बालक को इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साथ ले जाऊँगा।" ___गण के मयूरों के रक्षक मौर्य गृहपति ने चाणक्य की यह शत मान ली। उसने सोचा, जो व्यक्ति इतना कुशल है कि मेरी पुत्री को चन्द्रमा पिला देगा वह मेरे बालक के भविष्य को भी सुन्दर बनायेगा।
चतुर चाणक्य ने भी यह सोचा कि दोहद पूरा होने से पहले ही यदि प्रतिज्ञा करवा लूंगा तो गृहपति वचनबद्ध हो जायेंगे। बाद में ऐसी बात स मने रखूगा तो वह धन-सम्पदा देने का विकल्प सामने रखेंगे और इच्छित उद्देश्य पूरा न हो पायेगा।
चाणक्य को ज्ञान हो गया कि जो श्रेष्ठी-पुत्री चन्द्रमा को पीने का दोहद पाल रही है, उसके गर्भ का बालक अवश्य ही प्रतापी होगा, और वही उसकी आशाओं के अनुरूप राजा बन सकेगा। ___चन्द्रोदय होते ही चाणक्य ने गृहपति की गर्भवती पुत्री को छप्पर वाले कमरे में आराम से पीढ़े पर बैठ जाने को कहा। हाथ में जल से भरी थाली दे दी और कहा कि फूस की छत वाले झरोखे से जो चन्द्रमा दिखाई देता है वह जैसे-जैसे थाली में आता जाये भगवान का नाम-स्मरण करती हुई वह चन्द्रमा को थाली में से धीरे-धीरे पीती रहे। जब समूचा चन्द्रमा पी चुके तो आँख बन्द करके लेट जाय। मन को बहुत प्रफुल्ल और प्रसन्न रखे । उसे अनुभव होगा कि चन्द्रमा की शीतलता पेट में हिलोरें ले रही है। ___ चाणक्य ने अपनी वाणी की चतुराई से और आशीर्वाद की मुद्रा से गांव के एक आदमी को अपने साथ मिला लिया था। उसे आदेश दे दिया था कि वह फूस की छत पर दबे पांव चढ़ जाये और छत पर जो झरोखा बना हुआ है, जिसमें से चन्द्रमा की किरणें नीचे घर में पड़ रही हैं, उस झरोखे को धीरे-धीरे फूस से इस तरह ढकता जाये कि चन्द्रमा का प्रकाश नीचे कमरे में क्रमशः कम होता जाये। यह ध्यान रखे कि नीचे रहने वालों को न तो हाथ की उंगलियां दिखाई दें, न कोई शब्द सुनाई दे।
स्पष्ट है कि जब उल्लास से भरी हुई गर्भवती नारी ने यह पाया कि धीरेधीरे जल में लहराते चन्द्रमा का बिम्ब कम होता जा रहा है और वह उतने-उतने अंश को पीती जा रही है तो उसे तृप्ति होती गई। धीरे-धीरे चन्द्रमा इतना कम हो गया कि उसका प्रकाश समाप्त हो गया और वह नारी अपार शीतल मधुरिमा की अनुभूति से भरी पलंग पर लेट गई और कुछ ही क्षणों में निद्रालोक में चली गई।
चाणक्य का साथी विदा हो गया था। चाणक्य पूरे भरोसे के साथ स्वयं भी
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय विश्राम करने गृहपति द्वारा बताये गये कक्ष में चले गये थे।
प्रातःकाल चाणक्य उठे तो देखा, गृहपति स्नान-ध्यान करके स्वर्ण मुद्रा लेकर अभिवादन के लिए खड़े हुए हैं। चाणक्य ने सारी सामग्री को अपने दाहिने हाथ की उंगलियों से छू दिया और कहा, "यह सब देवता के चरणों में अर्पित कर दो, मैं कुछ नहीं ले सकता।" . ___ गृहपति ने उल्लास और भक्ति से नमस्कार किया। चाणक्य थोड़ी देर में तयार होकर अपनी दैनिक पूजा-उपासना से निवृत्त होकर, आहार लेकर चले गये। बालक का जन्म माता द्वारा चन्द्रमा-पान करने के उपरान्त हुआ था अतः उसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। बालक मौर्य गणतन्त्र का था अतः उसकी उपाधि मौर्य
___ इस कथा का अगला चरण तब प्रारम्भ हुआ जब अपनी धुन का पक्का चाणक्य आठ-दस वर्ष बाद फिर उसी गांव में आया। एक स्थान पर बालकों को खेलता हुआ देखकर ठिठक गया, क्योंकि बालकों का दल राजा-प्रजा का खेल खेल रहा था। जो वालक राजा बना हुआ था वह इतनी सहज कुशलता से शासक का अभिनय कर रहा था कि सारे बालक उसकी आज्ञा में बंधे हुए थे। ___ नायक बालक खेल-खेल में कभी किसी लड़के को घोड़ा बनाता, किसी को हाथी और उन पर सवारी करता। मिट्टी के घरोंदे बनाकर उन्हें गांव मानकर उन पर हायी घोड़े छोड़ देता। गांवों को खेल-खेल में विजय कर लेता। अच्छा काम करने वाले साथियों को पुरस्कार देने का अभिनय करता। अकुशल योद्धाओं की प्रताड़ना करता।
चाणक्य बालक के साहस की परीक्षा लेने के लिए उसके सामने पहुँचा और बोला--."महाराज, आप इतने बड़े नरेश हैं । मुझ ब्राह्मण को भी कुछ दान में दें।" .
"क्या चाहिए है तुम्हें विप्र, बोलो, तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा।" "मुझे जो भी आप देना चाहें!"
"अच्छी बात है, देखो सामने गांव की इतनी गायें चर रही हैं । तुम्हें जो-जो पसन्द हों ले लो।"
"किन्तु, गाँववाले क्या मुझे ये गायें ले जाने देंगे? मैं उनकी वस्तु के अपहरण करने के अपराध में दण्डित नहीं किया जाऊँगा ?" ___ "नहीं, यह अपहरण नहीं है। राजा चन्द्रगुप्त द्वारा दिया हुआ दान है। जो कोई इसमें बाधा डालेगा, वह दण्ड का भागी होगा। तुम निःसंकोच गायें छांटकर ले जाओ। तुम दण्डित नहीं होगे।" __चाणक्य गद्गद हो गया: "इतना प्रतापी और साहसी यह बालक ! उसी गांव में जहाँ मैंने मौर्य गृहपति की पुत्री का चन्द्र-दोहद पूरा किया था।"
फिर भी पूछा, "कौन हो, वत्स तुम ?"
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
नायक बालक की कथा सबको मालूम थी । साथियों ने बताया कि इसके मातापिता कौन हैं और किस तरह इसकी माता को चन्द्रमा का दोहद हुआ था, किस प्रकार एक ब्राह्मण ने उस दोहद को पूरा किया था, और किस तरह उसने इसे अपने साथ ले जाने का वचन ले रखा था। पता नहीं वह विप्र कब आ जाये और इसे अपने साथ ले जाये ।
34
"मैं ही हूँ वह विप्र, " चाणक्य ने बताया । प्यार से उसने चन्द्रगुप्त के सिर पर हाथ फेरा और कहा - "बेटा, तुम खेल - खेल में राजा बने हुए हो। मैंने ही तुम्हारी माता का असंभव दोहद पूरा किया था । चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें सचमुच का राजा बना दूंगा । "
चन्द्रगुप्त उस विप्र के साथ चलने को उद्यत हो गया। ऐसा ही आकर्षण था उसके व्यक्तित्व में, ऐसी ही पक्की लगन थी चन्द्रगुप्त के मन में राजा बनने की और ऐसा ही अटल विश्वास था चाणक्य के मन में कि नये राज्य की प्रस्थापना इसी बालक के माध्यम से पूरी होगी ।
---
चाणक्य ने बालकों से मात्र इतना ही कहा- " जाकर बता देना इसके नानानानी को कि ब्राह्मण गुरु आये थे और अपने शिष्य को साथ ले गये हैं । वचन पूरा करने का समय आ गया था, अतः घर वाले चिन्ता न करें।"
अनहोनी-सी बात ! गुरु-शिष्य यात्रा पर चल दिये ।
चाणक्य ने बहुत परिश्रमपूर्वक, सावधानी से सारी विद्याएँ चन्द्रगुप्त को सिखायीं । कला-कौशल और अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान भी कराया। धीरे-धीरे स्थानस्थान पर युवकों की मंडली चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में गठित होती गई ।
चन्द्रगुप्त की तरुणाई का जब तेजोदय हो रहा था, उस समय भारत के पराभव की व्यथा राष्ट्र को कचोट रही थी । ईसा पूर्व 326 में भारत पर जब यूनानी सम्राट् सिकन्दर का आक्रमण हुआ तब राष्ट्र की शक्ति क्षीण हो चुकी थी । युद्ध-विद्या में यूनानी निपुण थे। चाणक्य ने चतुराई से चन्द्रगुप्त को यूनानी सेना
भरती करा दिया, ताकि वह सेना संचालन की कला सीख ले। चन्द्रगुप्त को देखने-सीखने का अवसर मिला, किन्तु एक दिन उसे बन्दी बना लिया गया, इस आरोप में कि वह गुप्तचर है । जब चन्द्रगुप्त को सेना नायक के सामने उपस्थित किया गया, तो नायक इस युवक के साहस और आत्मविश्वास से इतना प्रभावित हुआ कि इसे बन्धन मुक्त कर दिया ।
सिकन्दर लौट गया तो चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में पांचाल के वाह्वीकों यूनानियों के विरुद्ध विद्रोह की भावना जगायी। तीन वर्ष के परिश्रम के बाद मगध साम्राज्य की सीमा पर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का एक छोटा-सा राज्य स्थापित करवा दिया। सैन्य दल भी इक्ट्ठा हो गया क्योंकि नन्दों का शासन बहुत हिंसक और अन्यायपूर्ण हो चुका था । प्रजा आतंकित थी और कुशासन से मुक्ति चाहती
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय
35
बी। दो-तीन वर्ष की तैयारी के बाद चन्द्रगुप्त की सेना ने सीधे मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। किन्तु नन्दों की विशाल सेना और अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति से होड़ नहीं ली जा सकी। पराजित होकर, प्राण बचाकर, चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग निकले । चाणक्य दुःखी हुए। युद्ध-नीति में कहां क्या त्रुटि रह गयी?
घूमते-घूमते चाणक्य एक दिन किसी वन-प्रान्तर के गांव में पहुंचे। एक झोंपड़ी के बाहर खड़े हो गये । देखा, एक मां अपने बेटे को भोजन करा रही थी। बेटे ने भोजन की थाली में परोसी गयी खिचड़ी के बीचों-बीच हाथ डाल दिया था। हाय जल गया था ! बुढ़िया कह रही थी-"कैसा मूर्ख है तू, चाणक्य की तरह । उसने सीमा के राज्यों को धीरे-धीरे जीतने के बजाय सीधे पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया और हार गया। तू खिचड़ी को किनारे-किनारे से खा। तब थाली के बीच तक पहुँच जायेगा और हाथ भी नहीं जलेगा।"
यह वार्तालाप सुनकर चाणक्य की आंखें खुल गई। अब उसने चन्द्रगुप्त के लिए पुनः सेना संगठित की। सेना का संचालन इस प्रकार किया कि धीरे-धीरे सीमावर्ती राज्यों को चन्द्रगुप्त जीतता चला गया और अन्त में पाटलिपुत्र पर घेरा डाल दिया । चार वर्ष के युद्ध के उपरान्त राजा महापद्मनन्द ने धर्मद्वार पर भाकर आत्म-समर्पण कर दिया। चाणक्य ने उसे प्राणों की भिक्षा दी , धन-परिवार लेकर महापद्मनन्द प्रवास में चला गया।
ई०पू० 317 में चन्द्रगुप्त के मौर्यसाम्राज्य की स्थापना हुई। और, नन्दवंश के नाश के उपरान्त चाणक्य ने अपनी चोटी की गाँठ बांधी। अब चन्द्रगुप्त सम्राट् थे और चाणक्य अमात्य-गुरु। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के अमात्य के रूप में राष्ट्र की जो अपूर्व सेवाएँ कीं, वे चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार को भी उपलब्ध रहीं। किन्तु बिन्दुसार को चाणक्य का प्रभाव सहन नहीं हुआ। यहाँ चाणक्य का मन भी राजकाज से विरक्त हो गया था अतः सत्तर वर्ष की अवस्था पार करते ही चाणक्य ने निर्ग्रन्थ मुनि-दीक्षा ले ली।
हरिषेण-कथाकोश में उल्लेख है कि एक बार जब मुनि मणक्य पव सौ शिष्यों सहित क्रौंचपुर के वन में ध्यान-मग्न थे, तब वहाँ के राजा सुमित्र वन्दना को पहुँचे। चाणक्य के प्रति राजा का यह भक्तिभाव देखकर राजा का अमात्य सुबन्धु द्वेष से भर गया। एक बार जब मुनि चाणक्य उपलों के ढेर पर बैठे निविकार भाव से ध्यान कर रहे थे तो सुबन्धु ने कुचक्र द्वारा उपलों में आग लगवा दी, यद्यपि दिखाने के लिए वह पहुंचा था मुनि-वन्दना के लिए। चाणक्य समाधि में स्थिर रहे और उन्होंने उसी अवस्था में शान्तचित्त से शरीर त्याग किया। कहते हैं, क्रौंचपुरी के दक्षिण में आज भी चाणक्य की समाधि पूजी जाती है। ___ कन्नड़ कृति 'वड्ढाराधने' में भी चाणक्य के कृतित्व का उल्लेख सम्राट चन्द्रगुप्त और आचार्य भद्रबाहु की कथा के प्रसंग में आया है। चाणक्य की प्रतिभा
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
के वरदान से चन्द्रगुप्त मौर्य का जो व्यक्तित्व विकसित हुआ और उसके पौरुष ने देश को जो एकछत्र साम्राज्य का बोध दिया वह देश के आत्म-सम्मान की रक्षा का स्वर्णिम युग है । चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास-कालीन भारत का प्रथम सम्राट् है । जो राष्ट्र छिन्न-भिन्न और पराधीन हो गया था उसमें चन्द्रगुप्त ने नयी प्राण-चेतना जंगायी थी। उसने पश्चिमोत्तर प्रदेश की यवन, काम्बोज, पारसीक, सबर और म्लेच्छ कहलाने वाली जातियों की सेना तैयार की थी। अनेक युद्धों के सफल अभियान से सम्पूर्ण भारत को एक विशाल साम्राज्य के रूप में संगठित एवं संचालित किया था। विन्सेंट स्मिथ ने अपने इतिहास में लिखा है
"दो हजार साल से भी अधिक हुए, भारत के प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस देश की उस वैधानिक सीमा को प्राप्त कर लिया था जिसकी लालसा में शताब्दियों बाद का ब्रिटिश साम्राज्य आहें भरता रहा और जिसे सोलहवीं-सत्रहवीं सदियों के मुगल सम्राटों ने भी कभी पूर्णता से प्राप्त नहीं किया।") .
जैनेतर स्रोतों में कौटिल्य-अर्थशास्त्र के रचियता चाणक्य के सम्बन्ध में एक । प्रसंग इस प्रकार आता है :
चाणक्य ने अनेक बार चन्द्रगुप्त के प्राणों की रक्षा की। भारतीय इतिहास का वह ऐसा समय था जब राजशासन द्वारा किन्हीं-किन्हीं अत्यन्त रूपवती कन्याओं का लालन-पालन इसप्रकार किया जाता कि उनके आहार-पान में धीरे-धीरे विष का संचार होता रहे, और वे विष का प्रभाव इस सीमा तक ग्रहण करती चली जायें कि स्वयं दोष से मुक्त रहें, किन्तु जो व्यक्ति उनके संसर्ग में आये उस पर विष का प्रभाव छा जाये नन्द राजा के मन्त्री ने षड्यन्त्र किया कि इस प्रकार की एक विषकन्या को विजय-अभियान से लौटते हुए चन्द्रगुप्त के रथ के आगे भेज दें। किन्तु विष कन्या उब चन्द्रगुप्त के रथ के सामने आयी तो चाणक्य ने उसे चन्द्रगुप्त के रथ पर बैठने से रोक दिया और चन्द्रगुप्त के साथी राजा पर्वतक को आज्ञा दी कि इस रूपवती तरुणी को वह स्वीकार करे। राजा पर्वतक चन्द्रगुप्त के आक्रमणों का सहयोगी था, इसलिए उसे आधे राज्य का स्वामी होना था। पर्वतक ने ज्यों ही अदम्य-आवेग में विषकन्या का हाथ पकड़ा, विषकन्या के पसीजे हए हाथ का पसीना उसे लग गया जिससे पर्वतक पर तत्काल विष का प्रभाव पड़ने लगा। धीरे-धीरे उसका कण्ठ सूखने लगा। उसने चन्द्रगुप्त को सहायता के लिए पुकारा । चन्द्रगुप्त ने विष दूर करने वाले वैद्यों को तत्काल बुलाना चाहा किन्तु विष का प्रभाव इस सीमा तक बढ़ गया था कि कोई भी उपचार नहीं किया जा सका। इतिहासकारों ने चाणक्य के इस व्यवहार का यह अर्थ लगाया कि चन्द्रगुप्त की प्राणरक्षा के लिए यह आवश्यक था कि विषकन्या पर्वतक के पास जाये, क्योंकि राजनीति के नियम के अनुसार जब दो राजा आधे-आधे राज्य के अधिकारी होते हैं तो एक न एक दिन आपस में उनमें युद्ध ठनता ही है।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय
. इस प्रसंग में चन्द्रगुप्त और चाणक्य की कथा में एक विचित्र उल्लेख है कि चाणक्य ने भविष्य में विषकन्याओं के प्रभाव से चन्द्रगुप्त को सुरक्षित रखने के लिए यह व्यवस्था कर ली थी कि चन्द्रगुप्त के आहार में धीरे-धीरे विष की मात्रा बढ़ती रहे और वह विष का इतना अभ्यस्त हो जाये कि यदि कोई विषकन्या उसके सम्पर्क में आये तो भी चन्द्रगुप्त सुरक्षित रहे । चन्द्रगुप्त जिस प्रकार विष के प्रभाव से सुरक्षित था, उसकी कथा इस प्रकार है:
सम्राट् चन्द्रगुप्त एक दिन आहार कर रहे थे कि उस समय उनकी गर्भवती राजमहिषी के मन में दोहद उत्पन्न हुआ कि वह सम्राट के साथ भोजन करे। अपनी प्रबल इच्छा के कारण महारानी ने चन्द्रगुप्त की थाली में से भोजन का एक कौर उठाकर खा लिया। भोजन में मिले हुए विष का प्रभाव महारानी के शरीर पर छा गया और वह अचानक मूर्छित हो गई। महाराज चन्द्रगुप्त ने महारानी की प्राण-रक्षा का पूर्ण प्रयत्न किया, किन्तु वे महारानी की आकस्मिक अस्वस्थता का कारण न जान सके। चाणक्य समझते थे कि महारानी के अचानक रोग-ग्रस्त होने का वास्तविक कारण क्या है। चाणक्य ने तत्काल शल्य-चिकित्सा का प्रबन्ध किया और गर्म में स्थित बालक को निकलवाकर उसके प्राण बचा लिये गये। महारानी की मृत्यु हो गई। माँ ने जो विषला भोजन खाया था, उसका प्रभाव बालक पर कुछ विशेष नहीं हुआ, केवल उसके माथे पर एक नीला निशान बन गया। ललाट पर उभरे नीले बिन्दु के कारण चन्द्रगुप्त ने बालक का नाम बिन्दुसार रखा। ___ इतिहास में बिन्दुसार अपने राज्य-विस्तार के लिए और जैनधर्म की प्रभावना के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, किन्तु अभी हम केवल चन्द्रगुप्त मौर्य की ही बात कर रहे हैं।
COL
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृति के शिलापट पर इतिहास की आत्मकथा
(मानव-सभ्यता के आदिकाल की जिस पौराणिक पृष्ठभूमि का वर्णन हमने प्रारंभिक खण्ड में किया है, चक्रवर्ती सम्राट् भरत का वह युग हमें आधुनिक इतिहास की दसवीं शताब्दी के उस बिन्दु से जोड़ता है, जब दक्षिण कर्नाटक के प्रसिद्ध सेनापति चामुण्डराय ने भगवान बाहुबली की विशाल मूर्ति की स्थापना श्रवणबेल्गोल में विन्ध्यगिरि पर की। यही श्रवणबेल्गोल हमें ले जाता है भारतीय इतिहास के उस स्वर्णिम अतीत में, जब आधुनिक भारत के प्रथम सम्राट्, चन्द्रगुप्त मौर्य अपने पूज्यपाद गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य के रूप में यहाँ चन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या करने आये और यहीं पर गुरु-शिष्य ने समाधिमरण किया n
भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दोनों इतिहास-पुरुष हैं। प्राचीन शास्त्रों और लोकगाथाओं में हजारों वर्ष से समाविष्ट उनके जीवन की कथा का ऐतिहासिक प्रमाण मिलता है सम्राट चन्द्रगुप्त के नाम से प्रसिद्ध चन्द्रगिरि पहाड़ी के उस प्राचीन शिलालेख में, जो लगभग छठी शताब्दी में उत्कीर्ण किया गया था, भगवान बाहुबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व । ___ चन्द्रगिरि पर्वत का शिलालेख इतना महत्वपूर्ण है कि उसका पूरा पाठ प्रस्तुत करना, उसकी कथा का विश्लेषण करना, प्रत्येक इतिहासप्रेमी, साहित्यप्रेमी और धर्मप्रेमी व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
इस प्रयोजन से हमने चार काल्पनिक पात्रों के एक दल को अध्ययन का साधन बना लिया है जो एक अन्वेषक दल के रूप में दक्षिण भारत की अपनी सांस्कृतिक यात्रा के उद्देश्य से श्रवणबेल्गोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर आ पहुँचा है। सुविधा के लिए इन्हें कोई भी नाम दिये जा सकते हैं। किन्तु हम प्रत्येक के ज्ञान-गुण के आधार पर अलग-अलग नाम इस प्रकार देंगे :
वाग्मी : प्राचीन कन्नड़ के ज्ञाता । संस्कृत, प्राकृत के विद्वान् । पुराविद् : इतिहास और पुरातत्त्व के प्रसिद्ध विद्वान् ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृति के शिलापट पर
श्रुतज्ञ : जैन-तत्त्वज्ञान के मर्मज्ञ । अनुगा : शोध-कार्य में रुचि लेने वाली एक विश्वविद्यालयीय छात्रा।
जैसाकि इनके परिचय से स्पष्ट है, हम मान लेते हैं कि इस दल के काल्पनिक सदस्यों ने अपने-अपने विषय के दृष्टिकोण से कर्नाटक के साहित्य, इतिहास, कलापुरातत्त्व और सामाजिक मान्यताओं का अध्ययन पुस्तकों के माध्यम से कर लिया है। वे जानते हैं कि : • कर्नाटक का प्राचीन साहित्य श्रमण मुनियों और जैन धर्मानुयायी पण्डितों की
देन है। ० उन्हें मालूम है कि कन्नड़ भाषा और व्याकरण का प्राथमिक स्वरूप प्राचीन
जैन विद्वानों ने निश्चित किया है। ० वे पढ़ चुके हैं कन्नड़ का वह अधिकांश पुराण और कथा-साहित्य, जो जैन
तीर्थंकरों, आचार्यों और धार्मिक पुरुषों के कथानकों पर निर्मित हुआ है। ० जैन तत्त्वझान के मूल सिद्धान्त तथा श्रावकों और श्रमणों के आचार का
उन्हें बोध है।
यह दल अब प्रत्यक्ष देखना चाहता है इतिहास के जीवन्त प्रमाण जो कर्नाटक के पर्वतों, गुफाओं, शिलालेखों, मन्दिरों, मानस्तम्भों तथा भण्डारों में सुरक्षित ताड़पत्रों पर लिखे प्राचीन शास्त्रों के रूप में उपलब्ध हैं। अब हम स्वयं भी कल्पना में इस दल के साथ हैं।
[श्रवणबेल्गोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर पार्श्वनाथ बसदि के दक्षिण को ओर स्थित एक शिलालेख 'फ्लैश लाइट' (आलोक-संपात) में स्पष्ट
दिखाई दे रहा है। पण्डित वाग्मी उसका एक अंश पढ़ रहे हैं] वाग्मी : 'विविध-तरुवर-कुसुमदलावलि-विरचना-शबल-विपुल- सजल - जलद
निवह-नीलोत्पल-तले, वराह-द्वीपि-व्याघ्र-ऋक्ष-तरा-व्याल-मगकुलउपचित-उपत्यक-कन्दर-दरी - महागुहा - गहनाभोगवति समुत्तुंगशृंगे
शिखरिणि...' अनुगा : पण्डितजी, कितना सुन्दर पढ़ते हैं आप, इस प्राचीन कन्नड़ लिपि को। वाग्मी : बिटिया, मेरा पढ़ना क्या ? सुन्दर तो है इस शिलालेख का काव्य,
इसकी सरस, सरल, प्रवाहमय भाषा, जो सुन्दरतम शब्दावलि में चित्र
पर चित्र बनाती चलती है। पुराविद् : सच बात तो यह है कि इस ललित पदावलि में कर्नाटक का समूचा
प्राकृतिक वैभव बोल रहा है । ये सब विविध प्रकार के सुन्दर वृक्ष, ये झूमती हुई फूलों भरी डालियाँ (रुककर, वाग्मी से) वाग्मीजी,
यह क्या वर्णन है ? 'शबल-विपुल-सजल-जलद नीलोत्पल-तले...' श्रुतज्ञ : अर्थ स्पष्ट होगा यदि ऊपर की पंक्ति भी पढ़ लें और उसे इसके साथ
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
मिला लें--'अवनितल-ललामभूते अस्मिन् कटवप्र-नामक-उपलक्षिते' अर्थात् समस्त पृथ्वी तल का श्रृंगार है यह कटवप्र पर्वत । कटवप्र नाम है इस चन्द्रगिरि पहाड़ी का जिसे चिक्कबेट्ट (छोटी पहाड़ी) भी कहते
हैं। इसे ही कहते हैं, तीर्थगिरि और ऋषिगिरि। वाग्मी : निःसन्देह । आपने अच्छा संकेत दिया, श्रुतज्ञजी। आलेख में वर्णन है
कटवप्र की इन शिलाओं का। देखिए, कैसी सुन्दर उपमा है-शिलाएँ श्यामल हो गई हैं, विपुल जल से भरे बादलों की भांति । नाना प्रकार के वृक्षों पर खिले फूलों और पत्तों की पंक्ति-रचना ने इन्हें रंगबिरंगा बना दिया है। फैले हुए हैं पठार और घाटियां, जिनमें हैंकन्दराएँ, बड़ी-बड़ी गुफाएँ। दुर्गम स्थान पर विचर रहे हैं वराह,
चीते, शेर, रीछ, भालू, सांप और मृग-दल । अनुगा : बहुत सुन्दर ! पण्डितजी, और पढ़ियेगा! यह हुआ प्रकृति का चित्रण।
ग्राम, नगर और जन-गण के विषय में भी कुछ कहा है ? पुराविद् : वाग्मीजी, अनुगा को बीच में से यह पंक्ति सुनाइये । (संकेत से बताते
वाग्मी : हाँ, यह है-'क्रमेणव जनपदम्, अनेक-ग्राम-शत-संख्यम्, मुदित-जन
धन-कनक-सस्य-गौ-महिषा-जावि-कुल-समाकीर्णम् ।' अर्थ है-कर्नाटक का यह जनपद जिसके सैकड़ों गांवों में रहते हैं प्रसन्न मन वाले मनुष्य, जिनके पास धन है, धान्य है, सोना है, गाय
और मैंसों का दल है; बकरियां हैं, भेड़ें हैं। अनुगा : गाय, भैंस, सोना! और, भेड़-बकरियाँ भी! श्रुतज्ञ : पुराविद्जी, आपने ध्यान दिया होगा, यह वर्णन किस शब्द से प्रारम्भ
होता है ? "क्रमेणैव जनपदम् ..' और वाग्मीजी ने जो अन्तिम शब्द अभी नहीं पढ़ा-वह है, 'प्राप्तवान्' अर्थात् क्रम-क्रम से जनपद, नगर
ग्राम होते हुए इस कटवप्र स्थान पर पहुँचे । प्रश्न है, कौन पहुँचे ? अनुगा : अच्छा, यह तो कोई कथा उभर आयी इस शिलालेख में ? पुराविद् : हाँ अनुगा, यह ऐसी कथा है जो भारतीय इतिहास का स्वणिम अध्याय
है। मैं इस कथा को जानता हूँ किन्तु इसका प्रमाण देखना चाहता था, सो यहां आकर मिल गया। वाग्मीजी, जरा पढ़िये तो ऊपर का यह
अंश जिसका सम्बन्ध 'प्राप्तवान्' से है-कि 'वह यहाँ पहुँचे।' वाग्मी : 'सर्वसंघ उत्तरापथात् दक्षिणापथं प्रस्थितः क्रमेणव जनपदम् अनेक
प्राम'.. इत्यादि यह मैं पढ़ चुका हूँ। 'समाकीर्णे प्राप्तवान् ।' पुराविद् : मिल गया कथा का मूल सूत्र-'उत्तरापथ से दक्षिण की ओर बढ़ते
हुए क्रम-क्रम से जनपद, नगर, ग्राम पार करते हुए यहाँ इस कटवप्र
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृति के शिनापट पर
41
पर्वत पर आ पहुँचे । अब, वाग्मीजी जरा और ऊपर से इस लेख को पढ़ लें- यहाँ पहुँचने वाले महापुरुष का नाम स्पष्ट हो जायेगा।
कथा का संकेत भी मिल जायेगा। बाग्मी : 'गुरु-परम्परीण-क्रमाभ्यागत महापुरुष - सन्तति - समवयोतित-अन्वय
भद्रबाहु-स्वामिना उज्जयन्याम् अष्टांग - महानिमित्त - तत्वज्ञेन, त्रैकाल्य-दशिना निमित्तेन द्वादश-संवत्सर-कालवैषम्यम् उपलभ्य
कथिते सर्वस्संघ उत्तरापथाद् दक्षिणापथम् प्रस्थितः।' श्रुतज्ञ : हां, यही कथा है जैन शास्त्रों और पुराणों में। पुराविद् : श्रुतज्ञजी, यहाँ तो वह पौराणिक कथा इतिहास के स्वरों में पर्वत के
हृदय से बोल रही है। अनुगा : इसका अर्थ तो बताइये, वाग्मीजी । वाग्मी : सुनो। "प्राचीन गुरु-परम्परा के क्रम में जिन महापुरुष का नाम
आचार्यों की नामावलि में आता है उन त्रिकालदर्शी अष्टांग महानिमित्त के ज्ञानी आचार्य भद्रबाहु स्वामी के निमित्त-ज्ञान में यह सूचना प्रकट हुई कि'उज्जयिनी में, (जहाँ वह धर्मोपदेश कर रहे थे, और समस्त उत्तरांचल में), बारह वर्ष का वैषम्य अर्थात् अकाल पड़ने वाला है। इसलिए वे अपने संघ को उत्तरापथ से दक्षिण की ओर ले गये, क्रम-क्रम से यात्रा
करते हुए यहाँ पहुँचे।" अनुगा : सारा संघ यहाँ आकर रुक गया ? पुराविद् : नहीं। कथा का वह अंश भी इसी शिलालेख में होना चाहिए।
शिलालेख के अन्त में क्या लिखा है, वाग्मीजी ? । 'वाग्मी : समुत्तुंगशृंगे शिखरिणि जीवित-शेषम् अल्पतरं कालम् अवबुध्य,
आत्मनः सुचरित-तपस्समाधिम् आराधयितुम् आपृच्छ्य, निरवशेषेण संघ विसृज्य शिष्येण एकेन, प्रथलतर-आस्तीर्ण-तलासु शिलासु शीतलासु स्वदेहं संन्यस्य आराधितवान्, क्रमेण सप्त-सतम् ऋषीणाम् आराधितम् इति । यहाँ पर यह स्पष्ट कर दूं कि 'शिष्येण एकेन' का संदर्भ है उस पंक्ति में जो प्रारम्भ होती है अतः आचार्यः प्रभाचन्द्रो नाम अवनितले
ललामभूते. 'आदि जो कह चुका हूँ।" श्रुतज्ञ : यह सुनकर तो मेरा हृदय गद्गद हो गया है । वाग्मीजी, इसका अर्थ
___ मैं बता दं अनुगा को ? वाग्मी : अवश्य, आपकी तो भावनाओं में यह कथा रसी-बसी है। श्रृतज्ञ : मैं विशेष रूप से इसलिए यह सब कह रहा हूँ कि इस कथा के इस अंश
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
42
अनुगा
श्रुतज्ञ
अनुमा
श्रुतज्ञ
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
को मैंने अपने आधुनिक शैली के खण्ड-काव्य में इस प्रकार निबद्ध
किया है
कटवप्र के उत्तुंग शिखर पर
आ रुके हैं त्रिकालदर्शी आचार्य भद्रबाहु ।
जान गये हैं निमित्त - ज्ञान से वह
कि अल्प रह गई है आयु शेष, समय है निकट, कर्मों की निर्जरा का, समाधि में तल्लीनता का ।
छोड़ दिया उन्होंने संघ को,
कर दिया विदा समग्र शिष्यमंडली को
कि बढ़ जाये वह आगे,
1
नये आचार्य की अनुज्ञा में साथ रह गया है केवल एक शिष्य
दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र,
( इतिहास- नाम सम्राट् चन्द्रगुप्त ) 1.. गुरु की सेवा का एकाकी पुण्य अवसर छोड़ा नहीं उस साम्राज्य - त्यागी ने । सम्यक् चारित्र की आराधना से सदा पवित्र
बैठ गये गुरु, विस्तीर्ण शिलाओं के
शीतल पटल पर, संन्यास धारण कर,
समाधिमरण हेतु ।
कालान्तर में इसी कटवत्र से
समाधि प्राप्त की सात सौ ऋषियों ने ।
: कितना पवित्र है गिरिशृंग ! बार-बार नमस्कार करने को मन होता
है ।
: मेरा मन अटक गया है शिलालेख की पहली पंक्ति पर,
दो शब्दों पर :
'सिद्ध स्वस्ति' ।
: दोनों शब्द कितने अर्थपूर्ण हैं । 'सिद्धं, अर्थात् सब कार्य सिद्ध हों और 'स्वस्ति' अर्थात् सबका कल्याण हो ।
: इसको यों समझना चाहिए कि 'सिद्ध' अर्थात् सिद्ध भगवान को नमस्कार हो । सिद्ध का अर्थ सिद्ध परमेष्ठी । जैन-धर्म की परम्परा का है यह शब्द ।
शिलालेख का पहला श्लोक भगवान महावीर की श्रद्धा-स्मृति में है ।
उसके पहले
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृति के शिलापट पर
वाग्पीजी, देखिये इसे। वाग्मी : (पढ़ते हैं)
जितम्भगवता श्रीमद्-धर्म-तीर्थ-विधायिना।
बर्द्धमानेन सम्प्राप्त-सिद्धि-सौख्यामृतात्मना। श्रुतज्ञ : अर्थात् "जो श्रीमान् धर्म-तीर्थ के विधायक हैं और जिनकी आत्मा ने
सिद्धि-सौख्य के अमृत को प्राप्त कर लिया है ऐसे भगवान वर्धमान
की जय।" पुराविद् : वाग्मीजी, जब आप प्रारम्भ के अंश पर आ ही गये तो आगे का वह
गद्य भाग भी पढ़ दीजिये जिसमें भगवान महावीर के उपरान्त उनके
गणधर-शिष्यों की परम्परा का उल्लेख है। वाग्मी :: भगवान महावीर को शिष्य परम्परा गौतम गणधर से भद्र बाहु स्वामी
तक क्रमबद्ध रूप में यहाँ दी गई है । इसे पढ़े देता हूँ, किन्तु जिनके शिष्यों की पट्टावली यहाँ दी गई है उन भगवान महावीर का काव्यमय वर्णन तो पहले देख लीजिये : "अथ खलु सकल-जगद्-उदय-करणोदित-निरतिशय-गुणास्पदीभूतपरमजिन-शासन-सरस्समभिवद्धित-भव्यजन-कमलविकसन-वितिमि
रगुण-किरण-सहस्र-महोति-महावीर-सवितरि परिनिर्व ते।" श्रुतज्ञ : भगवान महावीर की उपमा यहाँ सूर्य से दी गई है-सूर्य जैसे सारे
जगत् में प्रकाशोदय को सम्पन्न करने वाला है, वैसे ही भगवान महावीर सकल जगत् का उदय, आत्मा का अभ्युदय, करने वाले हैं। जिस प्रकार सूर्य कमलों को विकसित करता है, उसी प्रकार भगवान महावीर भव्य जनों के हृदय-कमल को विकसित कर देते हैं। कमल जिस प्रकार सरोवर में खिलते हैं, उसी प्रकार भव्यजन के मन भगवान जिनेन्द्र की वाणी के सरोवर में प्रफुल्ल रहते हैं। सूर्य जैसे अस्त होता है, उसी प्रकार गुणों की सहस्र किरणों का प्रसार करने वाले भगवान
महावीर का परिनिर्वाण होने पर... अनुगा : शिलालेख में तो आगे अनेक नाम पढ़े जा सकते हैं। पुराविद् : हाँ, यही शिलालेख का ऐतिहासिक अंश है । वाग्मीजी इसे सुनायेंगे। वाग्मी : इसमें जो लिखा है उसका सन्धि-विच्छेद करके पढ़ रहा हूँ।
'भगवत्-परम-ऋषि-गौतम-गणघर-साक्षात्-शिष्य-लोहार्य-जम्बुविष्णुदेव-अपराजित-गोवर्द्धन-भद्रबाहु-विशाख-प्रोष्ठिल-कृत्तिकार्यजयनाम-सिद्धार्थ-धतिषेण-बुद्धिल-आदि-गुरुपरम्परीण-क्रम-अभ्यागतमहापुरुष-सन्तति-समवद्योतित-अन्वय-भद्रबाहु-स्वामिना उज्जयिन्याम्...'
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तद्वन्द्रों के पार श्रुता : हाँ ठीक, भगवान् परम ऋषि गौतम गणधर के साक्षात् शिष्य लोहार्य
फिर जम्बु, फिर विष्णुदेव, फिर अपराजित आदि के नाम गुरु-शिष्यपरम्परा के क्रम से भद्रबाहु-स्वामी तक गिना दिये हैं और लिखा है कि यह गुरु-शिष्य परम्परा, सन्तान की तरह, इस नामावलि में सदा
युतिमान् है। अनुगा : भद्रबाहु स्वामी के नाम के साथ ही उस कथा का संदर्भ आ गया है
जिसे आपने पहले इसी शिलालेख से पढ़कर बताया कि भद्रबाहु स्वामी ने अष्टांग-निमित्तज्ञान से जाना कि उत्तराखंड में बारह वर्ष का
अकाल पड़ने वाला है आदि। पुराविद् : यह यहाँ का प्राचीनतम शिलालेख है-छठी शताब्दी का। और, है
___ सबसे महत्वपूर्ण । 'शिलालेख संग्रह' में इसका पहला क्रमांक है। अनुगा : मेरा सौभाग्य है कि आप सबकी कृपा से अब मैं यह समूचा शिलालेख
पढ़ सकती हूँ। इसका पूरा अर्थ भी स्पष्ट हो गया है। वाग्मी : स्वयं चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास-काल, भद्रबाहु स्वामी को दक्षिण
यात्रा, श्रवणबेलगोल की पावन भूमि की प्राचीनता, भद्रबाहु स्वामी की तपस्या और समाधिमरण की पुण्य-स्थली, और 700 मुनियों के
समाधिमरण का स्मारक यह तीर्थ! पुराविद् : और, प्रकृति का हृदयग्राही वर्णन, काव्य का चमत्कार, भाषा का
प्रवाह... . भुतज्ञ : और, महत्वपूर्ण बात यह कि उत्तर और दक्षिण भारत को संस्कृति के
एक सूत्र में गूंथने वाली ऐतिहासिक कथा का जीवन्त प्रमाण । अनुगा : शिलालेख के अन्त में लिखा है जिसे मैं भी पढ़ सकती हूँ
"जयतु जिनशासनम् इति ।"
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन संस्कृति की सार्वभौमिकता के संवाहक
आचार्य भद्रबाहु
राजनीति से विरत होकर अन्त में चाणक्य ने स्वयं मुनि दीक्षा ले ली- इस कथा से हम परिचित हो चुके हैं।
सम्राट चन्द्रगुप्त का क्या हुआ ? वह 25 वर्ष की आयु में सिंहासन पर बैठे। उन्होंने लगभग 44 वर्ष की आयु में अपने पुत्र बिन्दुसार का राज्याभिषेक कर दिया, और स्वयं मुनिधर्म में दीक्षित हो गये। उनके दीक्षा-गुरु थे आचार्य भद्रबाहु । __ जिस प्रकार साम्राज्य-संस्थापना के लिए चाणक्य ने बालक चन्द्रगुप्त को खोज लिया था, उसी प्रकार भद्रबाहु को खोज निकाला था उनके गुरु श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य ने भगवान महावीर के गणधर गौतम स्वामी की आचार्य परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिए, कल्याणकारी धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए।
श्रवणबेल्गोल के पाषाण-फलकों में उत्कीर्ण इतिहास भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की कथा प्राचीन जैन शास्त्रों और पुराने अभिलेखों में
*यहां यह उल्लेखनीय है कि भद्रबाहु नाम के कई प्राचार्य हुए हैं अत: जिन भद्रबाहु आचार्य का संदर्भ हमने दिया है उनकी काल गणना अथवा पट्टावली के विषय में दिगम्बर तथा श्वेताम्बर आम्नायों की मान्यता में भेद है।
इसी से संबंधित यह तथ्य भी है कि भद्रबाह का प्राचार्यत्व-काल दोनों आम्नायों में तो भिन्न है ही, ऐतिहासिक काल-गणना के अनुसार भी अन्तर है । विद्वान शोध-खोज में अभी भी लगे हुए हैं। दिगम्बर मान्यता श्वेताम्बर मान्यता
इतिहासमम्मत मान्यता बाचार्य-काल आचार्य-काल
चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य
वी०नि० सं० 133 से 162 वी० नि० सं० 156 से 170
ई० पू० 394 से 365 . . - ई०पू० 371 से 357 ई० पू० 321 से 298 श्वेताम्बर मान्यता को प्राधार मानकर समीकरण के समीप पहुंचा जा सकता है।
__ --डा. हीरा लाल जैन की टिप्पणी के आधार पर
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
तो उपलब्ध है ही, इस कथा का एक ऐतिहासिक आधार भी मिला है— श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर स्थित चन्द्रगुप्त बसदि (मन्दिर) के पाषाण - फलकों पर ! हाँ यह कथा मूर्ति-चित्रों के रूप में फलकों पर उत्कीर्ण है ।
घटनाओं का क्रम जिस रूप में उत्कीर्ण है उनका उसी क्रम से वर्णन करते हुए हम उससे सम्बन्धित फलक का क्रमांक भी कोष्ठक में देते जा रहे हैं ।
46
गोवर्धनाचार्य और भद्रबाहु
श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य कुण्डवर्धन नगर के एक उद्यान में विराजमान हैं । एक भक्त उनकी अर्चना कर रहा है ( फलक - 1 ) । कुण्डवर्धन की प्रजा सुख-शान्तिपूर्वक रह रही है ( 2 ) । नगरी में उत्साहपूर्ण चर्चा है कि दिगम्बर मुनि गोवर्धनाचार्य पधारे हैं (3) । वरिष्ठ नागरिक उनकी अभ्यर्थना के लिए निकल पड़े ( 4 ) । पीछे-पीछे आचार्य के शिष्यों की मण्डली आ पहुँची ( 5 ) । मुनिसंघ के आगमन की चर्चा राजपुरुषों और सेवकों में भी महुँची ( 6 ) । सबने मुनिसंघ का स्वागत किया ( 7-8 ) और तब आचार्य ने नगर-जनों को धर्म चर्चा का लाभ दिया (9) । स्वागत करने वाले व्यक्ति मुनिसंघ का घेरा बनाकर अगवानी करते हुए चल पड़े ( 10 ) | मुनिसंघ उन स्वागतकर्त्ताओं के पीछे-पीछे प्रस्थान करने लगा ( 11 ) । तभी एक राजपरिवार मुनियों की अभ्यर्थना के लिए आ पहुँचा ( 12 ) । वह भक्ति से आचार्य महाराज के चरणों की पूजा करके संघ के साथ हो गया ( 13 ) । मुनिसंघ अब आगे बढ़ गया ( 14 ) । वन का अधिकारी मुनिसंघ के अचा
आगमन से विस्मित हो गया ( 15 ) । मुनिसंघ को मार्ग बताने के लिए स्वयं वनदेवता आ गये । उन्होंने वनपालक को आदेश दिया कि मार्ग के वृक्ष काटकर साफ कर दें । मार्ग में पड़ने वाले वृक्ष काटे जाने लगे ( 16 ) । वन- पालक मार्गशोधन में लग गये । आचार्य ने उनको वृक्ष काटने से रोका ( 17 ) । तब तक वनपालक ने अन्तिम पेड़ काटकर मार्ग साफ कर दिया। आचार्य का मन खिन्न हुआ ( 18 ) | गोवर्धनाचार्य एक मन्दिर के सामने ध्यानस्थ बैठ गये ( 19 ) ।
तदुपरान्त मुनिसंघ आगे बढ़ा ( 20 ) | अनेक राजपुरुष और प्रजागण उनकी अगवानी करने को आ उपस्थित हुए। ये सब कोटिपुरवासी उन साधुओं की वन्दना में मग्न हो गये ( 21 ) । कोटिपुर के राजा पद्मधर का उत्तुंग भवन शोभित था ( 22 ) । यहाँ के निवासी मुनि भक्त थे ( 23 ) । गोवर्धनाचार्य वनपालक के साथ कोटिपुर के उपान्त में पहुँचे ( 24 ) | आचार्य की शान्त मुद्रा को देखकर शिकारी लोग भी समूह में सम्मलित हो गये ( 25 ) । तभी एक दम्पती ने आकर आचार्य महाराज की अर्चना की ( 26 ) । मुनिसंघ ने आगे गमन किया ( 27 ) ओर, अगवानी करने वाले साथ-साथ चल पड़े ( 28 ) । तभी मुनिसंघ को एक मन्दिर दिखायी दिया ( 29 ) । कोटिपुर के निवासियों का दैनिक जीवन शान्तिपूर्ण था
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
47
जैन संस्कृति की सार्वभौमिकता के संवाहक (30) । मनिसंघ आगे-आगे बढ़ता गया (31)। उसने कोटिपूर के समीपवर्ती मन्दिर में विश्राम किया (32)। कोटिपुर के ब्राह्मण सोम शर्मा और पत्नी सोमश्री के बालक का नाम था भद्रबाहु (33) । सोमशर्मा इतने ज्ञानी थे और उनका इतना मान था कि राजपुरुष भी उनके पास आते थे (34) । अभ्यागतों को आते देखा तो उनकी पत्नी सोमश्री स्वागत के लिए उद्यत हुई (35)। तभी समाचार आया कि श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य का केशलोंच प्रारम्भ हो गया है। समाचार सबके लिए हर्षदायक हुआ। धर्म की प्रभावना हुई (36)।
एक दिन विहार करते हुए आचार्य गोवर्धन ने एक बालक को खेलते हुए देखा । आचार्य गोवर्धन ने बालक के लक्षण देखकर निमित्त-ज्ञान से जाना कि यही उनकी आचार्य और शिष्य-परम्परा में पांचवां श्रुतकेवली भद्रबाहु होगा (37) । गोवर्धन आचार्य ने भद्रबाहु की शिक्षा का पूरा दायित्व ले लिया (38) । भद्रबाहु गोवर्धन आचार्य के साथ संघ में प्रविष्ट हो गये। धीरे-धीरे शास्त्रों के ज्ञान में वे निष्णात हो गये (39)।
समय बीतने पर भद्रबाहु ने गोवर्धनाचार्य से मुनिदीक्षा ली। मुनिचर्या के अनुसार वे आहार-विहार करने लगे (40)। भद्रबाहु के गुणों और तपस्या के कारण उनके अनेक शिष्य बन गये और सर्वत्र उनका स्वागत होने लगा (41)।
आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य
विहार करते हुए भद्रबाहु एक दिन उज्जयिनी पहुंचे और वहाँ एक उद्यान में ठहर गये । भद्रबाहु को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ उद्यान में एक कोटपाल लेटा हुआ है और आने-जाने वालों पर दृष्टि रख रहा है (42)। राजाज्ञा थी कि कोटपाल वहाँ से विचरने वाले गुप्तचरों से सावधान रहे (43)। कोटपाल ने भद्रबाहु को गुप्तचर समझकर अपने नियन्त्रण में ले लिया (44) । भद्रबाहु उपसर्ग के कारण ध्यानस्थ हो गये। देवी पद्मावती के प्रभाव के कारण कोटपाल वहाँ से अवश्य हो गया (45)। कोटपाल को इस प्रकार विलुप्त देखकर वहाँ आये हुए अनुचरों को आश्चर्य और आतंक हुआ। वे राजदरवार में पहुँचे (46) । सम्राट चन्द्र गुप्त उस समय उज्जयिनी के महाराज थे। जिसने भी यह समाचार सुना वह विस्मय में पड़ गया (47)। इतने में उद्यान में अन्य राजसेवक भी आ पहुँचे और उन्होंने प्रहरियों से प्रार्थना की कि उनको तत्काल सम्राट के समीप पहुंचा दिया जाए ताकि वे स्वयं भी आगे के समाचार दे सकें (48) । उज्जयिनी समृद्ध नगरी थी। नागरिकों का जीवन बहुत सुखी और शान्त था। वहाँ का व्यापार और शिल्प उन्नति पर थे (49) । चन्द्रगुप्त सम्राज्ञी के साथ अपने राज पुरुषों और सेवकों के दर सहित आचार्य भद्रबाहु का स्वागत करने के लिए आगे बढ़े (50) । सब गुरुओं को प्रणाम किया। सेवक भी भक्तिपूर्वक दिनम्र और आनन्दित हुए (51) ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
48
अन्तर्द्वन्द्रों के पार भद्रबाहु ने सबको धर्मलाभ दिया (52)। सम्राट चन्द्रगुप्त और महारानी ने मुनिसंघ से आहार ग्रहण करने के लिए निवेदन किया (53)। चन्द्रगुप्त ने राजपुरुषों को साथ ले मुनियों को आहार दिया (54)। इसी अवसर पर वहां एक अन्य मुनिसंघ आ पहुँचा और दोनों संघों का मिलन हुआ (55)। सेवकों सहित चन्द्रगुप्त और सम्राज्ञी ने आचार्य भद्रबाहु के चरणों की अर्चना की (56) । सम्राट चन्द्रगुप्त भद्रबाहु की तपस्या और उनके ज्ञान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भद्रबाहु को अपना गुरु मान लिया। ____एक दिन आचार्य भद्रबाहु आहार के लिए निकले और जब एक भवन के द्वार में प्रवेश किया तो उन्होंने एक शिशु को चिल्लाते हुए सुना-"जाओ, जाओ"। आचार्य भद्रबाहु ने निमित्त-ज्ञान से विचार किया कि बालक की बात का अर्थ है कि उन्हें यह क्षेत्र छोड़ देना चाहिए। उन्होंने सोचा जब यह बालक बोल ही रहा • है तो उससे प्रश्न भी किया जा सकता है। प्रश्न का उत्तर मिला-बारह वर्ष, और आचार्य भद्रबाहु के निमित्त-ज्ञान में अर्थ स्पष्ट हुआ कि बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ने वाला है। वे निराहार लौट गये। ___ निमित्त-ज्ञान के इस निष्कर्ष के साथ जुड़ी है एक अन्य घटना जिसने भद्रबाहु के इस निर्णय की सम्पुष्टि दी। यह घटना भी पाषाण-फलकों में चन्द्रगुप्त बसदि में उत्तीर्ण है :
एक रात चन्द्रगुप्त वात-पित्त-कफ आदि रोगों से रहित स्वस्थ अवस्था में सोये हुए थे कि रात्रि के पिछले पहर में उन्होंने मोलह स्वप्न देखे । स्वप्नक्रम इस प्रकार है___1. सूर्यास्त, 2. कल्पवृक्ष की शाखा का टूटना, 3. चन्द्रमा का उदय जिसमें छलनी की तरह छेद थे, 4. भयंकर सर्प जिसके बारह फण थे, 5. देवताओं का विमान जो नीचे उतरकर वापस चला गया, 6. मलिन स्थान में उत्पन्न कमल, 7. भूतप्रेतों का नृत्य, 8. जुगनुओं का प्रकाश, 9. जलरहित सरोवर किन्तु कहींकहीं थोड़ा-सा जल, 10. सोने की थाली में खीर खाता हुआ कुत्ता, 11. ऊँचे हाथी पर बैठा बन्दर, 12. तट की मर्यादा भंग करता समुद्र, 13. रथ को खींचते हुए बछड़े, 14. ऊँट पर सवार राजपुत्र, 15. धूल से आच्छादित रत्नराशि और 16. काले हाथियों का युद्ध । (फलक 57)। ____इन सोलह स्वप्नों के अभिप्राय के सम्बन्ध में सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपनी महारानी से, ज्योतिषियों और मंत्रियों से परामर्श किया (58) । अभिप्राय के सम्बन्ध में आश्वस्त होने के लिए वे आचार्य भद्रबाहु के पास गये (59) । स्वप्नों की बात सम्राट् के सेवकों को मालूम हुई। वे सम्राट के अश्व के पास बैठे उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे (60)।
सम्राट चन्द्रगुप्त ने जाकर आचार्य भद्रबाहु को प्रणाम किया। अपने स्वप्न
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन संस्कृति की सार्वभौमिकता के संवाहक
. 49 सुनाये और प्रार्थना की कि इन स्वप्नों का फल बताने की कृपा करें। आचार्य भद्रबाहु बोले-"ये स्वप्न अच्छे नहीं हैं ! ये सूचित करते हैं कि भविष्य खोटा होगा। किन्तु इसी स्थिति का चिन्तन अच्छे पुरुषों में वैराग्य उत्पन्न करेगा। स्वप्नों का फल क्रम से इस प्रकार है :
1. डूबते हुए सूर्य का अर्थ है कि पंचम काल में श्रुतज्ञान अस्त होता चला __ जायेगा। 2. कल्पवृक्ष की शाखा टूटने का अर्थ है कि आगे से राजपुरुष संयम को ग्रहण
नहीं करेंगे। 3. चन्द्र-मण्डल में अनेक छेदों का अर्थ यह है कि धर्म के शुद्ध मार्ग को दूसरे
वादी-प्रतिवादी छिन्न-विच्छिन्न करने का प्रयत्न करेंगे। 4. बारह फण वाले सर्प का अर्थ है कि बारह वर्ष तक भयंकर दुर्भिक्ष पड़ेगा। 5. वापस लौटते हुए विमान का अर्थ है कि पंचम काल में देवता, विद्याधर ___ और चारणमुनि पृथ्वी पर नहीं आयेंगे। 6. कमल दूषित स्थान में खिला है, इसका अर्थ है कि उत्तम कुल के लोग
अधर्म को अपनायेंगे। 7. भूतों के नृत्य का अर्थ कि लोगों के मन पर भूत-प्रेतों की और अनिष्ट की __छाया रहेगी। 8 जुगनुओं के चमकने का अर्थ है कि धर्म के प्रकाश से रहित व्यक्ति ही उप
देशक होंगे। 9. सूखे किन्तु कहीं-कहीं जल सहित सरोवर का अर्थ है कि भगवान की वाणी
का तीर्थ प्रायः सूख जायेगा, फिर भी कहीं-कहीं धर्म का अस्तित्व दिखायी
देगा। 10. सोने की थाली में खीर खाते हुए कुत्ते का अर्थ है कि नीच वृत्ति के पुरुष
लक्ष्मी का उपभोग करेंगे, मनस्वी पुरुषों को वह प्राप्त नहीं होगी। !1, ऊँचे हाथी पर बैठे हुए बन्दर का अर्थ है कि राजशासन ऐसे लोगों के हाथ
में आयेगा जो चंचल-मति के होंगे। 12. समुद्र मर्यादा उल्लंघन कर रहा है, इसका अर्थ है कि शासक प्रजा की ___ लक्ष्मी का हरण करेंगे और न्याय-मार्ग का उल्लंघन करेंगे। 13. रथ को वहन करने वाले बछड़ों का अर्थ है कि यौवन की अवस्था में लोग
संयम ग्रहण करने की शक्ति रखेंगे, किन्तु वृद्धावस्था में यह शक्ति क्षीण
हो जायेगी। 14. ऊँट पर चढ़े हुए राजपुत्र का अर्थ है कि नृप-गण निर्मल धर्म छोड़कर ऊट__पटांग हिंसा का मार्ग अपनायेंगे। 15. धूल से आच्छादित रत्नराशि का अर्थ है कि निर्ग्रन्थ साधु भी एक दूसरे की
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
निन्दा करने लगेंगे। 16. काले हाथियों का युद्ध यह व्यक्त करता है कि मेघ आशानुकूल वर्षा नहीं __ करेंगे।" (61)
स्वप्नों की यह अशुभ एवं दुःखद भविष्य-वाणी सुनकर सम्राट चन्द्रगुप्त अत्यन्त चिन्तित होते हुए, राजप्रासाद लौट आये (62)। चन्द्रगुप्त ने विरक्त होकर राजपाट त्यागने का निश्चय किया। इस समाचार से महारानी दुखी हुई, राजपुरुष उदास हुए। सबने सम्राट् से प्रार्थना की कि वे राजपाट न छोड़ें किन्तु सम्राट अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। उन्होंने महारानी और सेवकों का समाधान करने का प्रयत्न किया (63) । अन्त में चन्द्रगुप्त ने आचार्य भद्रबाहु से दीक्षा ले ली। कुछ महिलाओं ने भी दीक्षा ली और केशलोंच किया (64-65) । चन्द्रगुप्त ने मुनिसंघ में सम्मिलित होकर (66) मुनियों के साथ वन-प्रान्तरों में आत्म-ध्यान का अभ्यास किया (67)। मुनिसंघ के शील स्वभाव से प्रभावित होकर वनदेवी संघ की सेवा में उपस्थित हुई और उसने अपना प्रणाम निवेदन किया (68)। मुनि चन्द्रगुप्त का ध्यान-अभ्यास बढ़ता गया और वे आचार्य की उपस्थिति में कार्योत्सर्ग मुद्रा के अभ्यस्त हो गये (69) । संघ के अन्य मुनियों के साथ वे ध्यानमग्न रहते (70) और, सुदूर वन के एकान्त में भी वे एकाकी ध्यानस्थ होते (79)। उनके आसपास वन-पशु निर्मय विचरण करते (72) । चन्द्रगुप्त मुनि जहाँ-जहाँ विहार करते, वनदेवता उनकी सेवा में उपस्थित रहते (73) । चन्द्रगुप्त को आचार्य भद्रबाहु ने उस शिशु की कथा भी सुनायी, जिसने उनसे 'जाओ, जाओ' कहकर और बारह की संख्या का संकेत देकर बारह वर्ष के अकाल की चेतावनी । दी थी। (74-75-76)।
. आचार्य भद्रबाहु निर्णय कर चुके थे कि दुष्काल में संघ की रक्षा के लिए, धर्म के प्रचार के लिए और चारित्र को अक्षुण्ण रखने के लिए दक्षिण जाना आव.श्यक है । अन्त में एक दिन प्रस्थान की घोषणा हो गयी (77)। ___ आचार्य भद्रबाहु का यह अभिप्राय जानकर अनेक राज-महिलाएँ (78) एवं समृद्ध श्रेष्ठी एकत्रित हुए और उनसे निवेदन किया कि वे यह प्रदेश छोड़कर न जायें, यहीं ठहरें (79) । उत्तरापथ में रह जाने वाले मुनियों ने भी ऐसी ही प्रार्थना की (81)। जब भद्रबाहु ने स्वीकृति नहीं दी तो भक्तों ने अन्य मुनियों से ठहरने का निवेदन किया। इस प्रकार की प्रार्थना करने वालों के अनेक नाम 'भद्रबाहु-चरित्र' में आते हैं। जैसे-कुवेर, मित्र, जिनदास, माधवदत्त, बन्धुदत्त आदि । प्रत्येक ने कहा-'हमारे पास धन-धान्य की कमी नहीं है। हम अपनी सम्पदा को धर्म के कार्यों में लगाना चाहते हैं। आप यहीं निश्चिन्त होकर ठहरें। मुनिसंघ को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा' (81)।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन संस्कृति की सार्वभौमिकता के संवाहक
51
आचार्य भद्रबाहु ने कहा
संघोऽयं सुरवृक्षाम: समर्थः सर्वकर्मस् । तथापि नात्र योग्यास्था चारुचारित्रधारिणाम् ।। पतिष्यति तरां रौद्रं दुभिक्षं दुःखदं नृणाम् । धान्यवदुर्लभो भावी संयमः संयमर्षिणाम् ।। स्थास्यन्ति योगिनो येऽत्र ते त्यक्ष्यन्ति संयमम् ।
ततोऽस्मान् विहरिष्यामोऽवश्यं कर्णाटनीवृतम् ॥ “यद्यपि कल्पवृक्ष के समान सब प्रकार के साधन आप लोगों के पास हैं और आप समर्थ हैं किन्तु चारित्र की रक्षा करने के लिए तत्पर साधुओं को यहां ठहरना उचित नहीं है। जिस प्रकार यहाँ धान्य दुर्लभ होने वाला है, उसी प्रकार संयम भी दुर्लभ हो जायेगा । यहाँ रहने वाले साधु संयम को त्याग देंगे। इसलिए हमारा निर्णय है कि हम यहाँ से कर्नाटक देश की ओर जायेंगे।"
आचार्य भद्रबाहु का यह निर्णय सुनकर श्रावकों को अब कुछ कहने के लिए नहीं रह गया था। वे चिन्तामग्न हुए (82), फिर उनमें ऐसी चेतना आयी
यद्देशे विचरन्ति चारुचरिता निर्ग्रन्थयोगीश्वराः।।
पग्रिन्योऽपि च राजहंसविहगास्तत्रैव भाग्योदयः॥ -वास्तव में भाग्यशाली है वह देश (कर्नाटक) जिसमें निर्मल-चारित्र-धारक निर्ग्रन्थ साधु विहार करते हैं; जहाँ के श्वेत सरोवरों में कमलिनियां शोभित होती हैं, जहाँ राजहंस विचरते हैं । अतः निमित्त-ज्ञानियों ने जो कहा है वह ठीक ही है।
आहार के उपरान्त (83), मुनिसंघ के विहार से पहले आचार्य भद्रबाहु ध्यानमग्न हुए (84) । संघ ने प्रस्थान किया (85), आचार्य ने पुनः धर्मोपदेश दिया (86) । राजपुरुषों, श्रेष्ठियों, गण-नायकों और जनसामान्य ने आचार्य भद्रबाहु और मुनिसंघ को श्रद्धापूर्ण विदाई दी तथा उनके धर्म-मंगल की कामना की (87-90)।
m. श्रीकलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर
श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा (गांधीनगर) पि ३८२001
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड : तीन
धर्मचक्र की धुरी पर मूर्तिमती दिगम्बर साधना की इतिहास - यात्रा
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचार्य भद्रबाहु का धर्मचक्र
. और दिगम्बरत्व की विराटता के बिम्ब बाहुबली
श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु मुनि-धर्म और श्रावक-धर्म की श्रेष्ठ सांस्कृतिक परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए कृतसंकल्प थे। उन्हें पता था कि मुनिधर्म के अनुरूप संयम का आचरण वे साधु नहीं कर पायेंगे जो दुभिक्ष-ग्रस्त क्षेत्र में रहेंगे । आचार्य भद्रबाहु महामात्य चाणक्य की बुद्धि का चमत्कार, उनका नीतिकौशल और उनके द्वारा चन्द्रगुप्त के विशाल साम्राज्य की यशस्वी स्थापना देख चके थे। उस राजनीति का सफल नायक सम्राट चन्द्रगुप्त अब उनका साक्षात् शिष्य था। आचार्य को यह अवसर अनुकूल लगा कि मानव-कल्याणकारी जिनधर्म के अहिंसा और विश्वमंत्री के सिद्धान्तों के आधार पर धर्म-साम्राज्य विस्तृत हो। . आचार्य भद्रबाहु ने संघ-सहित दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान करने का निर्णय ले लिया था। ____ आचार्य भद्रबाहु ने जब यह संकल्प किया तब कितनी अदम्य साहसिक दृढ़ता रही होगी उनके मन में ! साम्राज्य-त्यागी सम्राट चन्द्रगुप्त साथ थे, यह तथ्य अपनी जगह महत्त्वपूर्ण है किन्तु इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि आचार्य भद्रबाहु के संघ में बारह हजार साधु थे। कितना बड़ा संघ! कितनी लम्बी यात्रा : कितने नगर, ग्राम, जनपद, पहाड़ और घने जंगल ! इतने बड़े संघ के साधुओं के आहार-विहार की क्या व्यवस्था रही होगी, यह सोच पाना कठिन है । किन्तु जो आचार्य अपने शिष्यों को इसलिए दक्षिण की ओर ले चले कि उनका संयम और आचरण स्थिर रहे, उनका पूरा प्रयत्न यही रहा होगा कि यात्राकाल में सारे संघ का आचार-विचार शुद्ध रहे। कितने दिन संघ निराहार रहा होगा! कैसे धीरे-धीरे संघ की यात्रा आगे बढ़ी होगी ! किन्तु, किसी भी भय की कल्पना करना शायद उचित नहीं है, क्योंकि धर्मप्रधान भारतवर्ष की जनता साधुत्व और त्याग को समझती आयी है, और इसीलिए त्यागी-विरागी साधुओं के प्रति उसके हृदय में सदा सहज विनम्रता जगती रही है। आचार्य भद्रबाहु के संचालन में इतना बड़ा
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
56
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
संघ जहाँ-जहाँ पहुँचता होगा, किस प्रकार ये बारह हजार साधु पहाड़ों की घाटियों
और जंगलों के सुनसान प्रदेशों में दिन-रात तपस्या में लीन रहते होंगे। अञ्चलवासी जनता के लिए यह अद्भुत चमत्कारी अनुभव रहा होगा। जिस धर्म में समवसरण और दिव्यम्वनि की संकल्पना है, उस धर्म की पताका के धारक आचार्य भद्रबाहु अच्छी तरह समझते थे कि जो बात मात्र वाणी के उपदेश से नहीं सध सकती, वह तपस्या और संयम के प्रत्यक्ष उदाहरण से कहीं अधिक गहराई के साथ जनमानस में प्रविष्ट हो जाती है। सहनों दिगम्बर मुनि अलग-अलग या समूह रूप में जब कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होते होंगे तो स्वभावतः इन साधुओं की खड्गासन या पद्मासन मुद्रा को तीर्थंकर-धर्म से संदर्भित करके लोगों ने दिगम्बरत्व की कल्पना को प्रत्यक्ष आत्मसात् कर लिया होगा।
[जैन संस्कृति की रूपरेखा प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ ने चित्रित की। उनके पुत्र भरत ने उसकी संवर्धना की, और बाहुबली ने तो जीवन की यथार्थता में उस संस्कृति के अनेक आयाम खोल दिये । वह तमोगुण में व्याप्त अंधकार से रजोगुण की ओर बढ़े और अन्त में उन्होंने निर्वाण की शुद्ध सात्त्विक स्थिति का साक्षात्कार किया।
भगवान आदिनाथ से भी पहले बाहुबली को मोक्ष प्राप्त हुआ, यह घटना बड़ी चमत्कारी और महत्त्वपूर्ण है । इस काल के वह पहले मोक्षगामी जीव हैं और पहले कामदेव हैं । स्वयं भरत ने पोदनपुर में तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति न बवा. कर बाहुबली की अत्यन्त ऊंची, 527 धनुष प्रमाण पन्ने की मूर्ति बनवाई ! • विशालता का ध्यान करते हैं तो लगता है कि बाहुबली ही ऐसे महिमामय
महापुरुष हैं, जिनकी मूर्ति सार्थक रूप में बड़ी-से-बड़ी बनाई जा सकती है। • वे अपराजेय हैं। उनकी कथा में युद्ध की चुनौती है। सेनापतियों और योद्धाओं
के लिए वे प्रमाण-पुरुष हैं। • उन्होंने जीवन में जो देखा, सहा और भोगा उसमें क्रोध, मान, माया और
लोभ, चारों कषायों की तीव्रतम अभिव्यक्ति है :
भरत चक्रवर्ती द्वारा अपने भाई बाहुबली के शिरच्छेद के लिए चलाया गया चक्र माया और छल का चरम उदाहरण है क्योंकि तीन प्रकार के युद्धों की निश्चित प्रक्रिया के विरुद्ध उन्होंने यह हेय कार्य किया। चक्रवर्ती का लोभ ऐसा कि शेष सम्पूर्ण संसार को जीतकर भी राज्य-विस्तार की लालसा में अपने छोटे भाई को अति-सीमित भूमि को भी वह छोड़ नहीं सका। मान और अहंकार का प्रत्यक्ष दर्शन तो बाहुबली ने अपने ही जीवन में किया । स्वयं गुरु से दीक्षा नहीं ली; भरत को पृथ्वी पर संचरण न करना पड़े इसलिए एक वर्ष तक एक ही स्थान पर मात्र दो तलवों पर खड़े हुए उन्हें कठिन कायोत्सर्ग तपस्या में भी अहंकार का शल्य चुभता रहा।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिगम्बरत्व की विराटता के बिम्ब बाहुबली
57 . • बाहुबली जनता के मन में शौर्य और तपस्या की संतुलित मूर्ति के रूप में
प्रतिष्ठित हैं। राजाओं के लिए वे धीर-गम्भीर-वीरत्व के आदर्श हैं। साधुओं के लिए उनकी अदम्य कायोत्सर्ग मुद्रा अनुकरणीय है। शिल्पियों के लिए उनकी विशालता, उनका औदार्य और उनकी आध्यात्मिक दिव्यता हृदय में उतारने की वस्तु है। कोमल माधवी लताओं या पिप्पलीलतिकाओं द्वारा शरीर का आच्छादन, कुक्कुट सर्पो की बाँबियाँ और वन के समस्त प्राणियों का आसपास निर्भय संचरण-सब कुछ, जो कला के लिए वांछनीय है, बाहुबली-मूर्ति की कल्पना में समाहित है। साहित्यकारों के लिए इससे अधिक मनोरम कथानक, इससे बड़ा रोमांच, ,:नाटकीय तत्त्वों का इतना गहन समावेश, भावनाओं का घात-प्रतिघात और रसों का परिपाक अन्यत्र कहाँ मिलेगा? बाहुबली संसार के उन आदिपुरुषों में हैं जिन्होंने आत्मगौरव के लिए, अपनी भूमि की स्वतन्त्रता के लिए, संग्राम किया और युग-युगान्तर के लिए
स्वाधीनता के महत्त्व को स्थापित किया। • बाहुबली प्रतीक हैं आध्यात्मिकता के उन बहुरंगी रूपों के, जो स्थूल के
माध्यम से सूक्ष्म की ओर, गोचर से अगोचर की ओर, और इन्द्रियों के संयम से इन्द्रियातीत आत्मा के दर्शन की ओर अग्रसर होते हैं। )
दिगम्बरत्व की इतनी बड़ी साहसिक कल्पना इन्हीं भगवान बाहुबली के चरित्र के माध्यम से जन-जन में प्रतिष्ठित हो पाई । और, बाहुबली की ऐसी विशाल दिगम्बर मूर्ति का निर्माण करना दसवीं शताब्दी के प्रतापी महापुरुष सेनापति और अमात्य चामुण्डराय के लिए सम्भव हुआ, जिसे जैन तथा जैनेतर जनता में, जनजन में आदर-सम्मान प्राप्त था।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
2
श्रवणबेलगोल में बाहुबली की मूर्ति प्रतिष्ठापना
चामुण्डराय का आध्यात्मिक रोमांच
सम्राट् भरत से लेकर सम्राट् चन्द्रगुप्त तक के प्राचीन इतिहास को भगवान आदिनाथ के धर्मचक्र की जो जय-यात्रा निरन्तरता प्रदान करती है, उसके गमनचिह्नों की लीक श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी के शिखर तक पहुँची । वहाँ चन्द्रगिरि के सामने ही हैं विन्ध्यगिरि । लगभग तेरह शताब्दियों बाद कर्णाटक के परम तेजस्वी राज - पुरुष महामात्य चामुण्डराय ने विन्ध्यगिरि को विश्व का धर्मतीर्थ बना दिया - भगवान बाहुबली की विशाल और अनुपम मूर्ति की प्रतिष्ठापना द्वारा ।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' की मन्दप्रबोधिनी टीका की उत्थानिका में उल्लेख है और इतिहास साक्षी है कि चामुण्डराय ने अपनी वीरता और प्रतिपक्षी नरेशों से सफलता पूर्वक लोहा लेने के कारण अनेक उपाधियाँ प्राप्त कीं। उनमें से तीन का उल्लेख दुर्गों पर चढ़ाई करके शत्रु को समूल उखाड़ फेंकने के यश से सम्बन्धित है : 'रणरङ्गसिंह', 'वीर-कुल-कालदण्ड' तथा 'भुज - विक्रम' ।
युद्ध के मैदान में रणकौशल दिखाकर नोलम्ब नरेश को पराजित करके 'वीरमार्तण्ड' की उपाधि प्राप्त की ।
पराक्रमी शत्रु बज्जल को खेड़क-युद्ध में हराकर 'समर - धुरन्धर' की पदवी अति की । इसी प्रकार 'समर - परशुराम', प्रतिपक्ष - राक्षस', 'भटमारि', असहायपराक्रम', आदि अनेक उपाधियों की पृष्ठभूमि में चामुण्डराय के पराक्रम, शौर्य, रणनीति और मित्र-नरेशों की तत्पर सहायता की कथा गुम्फित है । महाबलय्य का यह पुत्र अपने वंश की परम्परा की कीर्ति को चार चाँद लगा गया ।
लंबो, चालुक्यों और बज्जलों की लोभ-लालसा की दृष्टि जैन धर्मावलम्बी गंग-नरेशों के राज्य पर सदा लगी रहती थी । यह चामुण्डराय के शौर्य और रण-कौशल का प्रताप था कि विरोधियों को बारबार पराजय सहनी पड़ी ।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेलगोल में बाहुबली की मूर्ति-प्रतिष्ठापना
59 चामुण्डराय ने धर्म-पताका को सदा ऊँचा रखा।
चामुण्डराय ने अपनी भक्ति, धर्मभावना, सत्यनिष्ठा, जैनधर्म के प्रति अट्ट श्रद्धान और जिनशासन-प्रभावना के कारण जो उपाधियाँ प्राप्त की, वे हैं : सम्यक्त्वरत्नाकर, शौचाभरण, गुणरत्नभूषण, देवराज।
चामुण्डराय के गुरु नेमिचन्द्र परम तपस्वी और अगाध ज्ञानी थे। उनकी कृपा से ही चामुण्डराय को गुल्किकायज्जी के दर्शन हुए। गोम्मटेश्वर की प्रतिमा का अभिषेक सम्पन्न हुआ और चामुण्डराय अहंकार के कषाय-भाव से बच गये। यह कथा आगे दी है। ___ उत्कट शौर्य के साथ मृदुता और निरभिमानता के समागम का पाठ गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने चामुण्डराय को शास्त्रज्ञान के साथ-साथ पढ़ाया।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती एक दिन जब कर्मसिद्धान्त के प्राचीन ग्रन्थ धवला का अध्ययन कर रहे थे तो चामुण्डराय गुरु के दर्शनों को उनके पास पहुँचे। गुरु ने चामुण्डराय को देखते ही उस ग्रन्थ को बन्द करके एक ओर रख दिया। चामुण्डराय को शास्त्रज्ञान में गहरी रुचि थी। उन्होंने गुरु से पूछा
"मुनिवर ! आपकप्त शास्त्र का अध्ययन कर रहे थे ? आपने उसे उठाकर रख दिया। कृपा करके मुझे बतायें इसका विषय क्या है।" ___गुरु ने कहा, "चामुण्डराय, यह इतना कठिन विषय है, इसका इतना विस्तार है कि तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा। अभी तुम इस ज्ञान के अधिकारी नहीं .
चाशुण्डराय ने गुरु से प्रार्थना की कि सिद्धान्त के गहन विषयों की उसे शिक्षा दें। उसके लिए सिद्धान्त-विषयों का सार इस प्रकार लिख दें कि विषय मंक्षेप में समझ में आ जाये । गुरु ने चामुण्डराय के लिए 'पंचसंग्रह' नाम का ग्रन्थ प्राकृत भाषा में रच दिया। वह षट्खण्डागम के छह खण्डों का संग्रह है, उनका सार दिया गया है। गुरु की अपने इस शिष्य गोम्मट पर इतनी कृपा थी कि उक्त ग्रन्थ का नाम ही उन्होंने 'गोम्मटसार' रख दिया। ग्रन्थ की अनेक गाथाओं में गोम्मट शब्द का प्रयोग किया, जहां उसके अर्थ का संकेत गोम्मटराय अर्थात् चामुण्डराय की ओर है
गोम्मटसंगहसुत्तं, गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य। गोम्मटरायविणिम्मिय, दक्खिणकुक्कुटजिणो जयउ॥
कर्मकाण्ड, 968 चामुण्डराय स्वयं शास्त्रज्ञानी हो गये, उनके अपने रचे ग्रन्थों के नाम भी प्रचलित हैं : (1) वीरमातण्डी-गोम्मटसार की कन्नड में टीका जो अभी तक अनुप
लब्ध है । इस प्रकार की एक टीका केशव वर्णी द्वारा भी रची गई है।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
60
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
( 2 ) चारित्रसार |
( 3 ) त्रिशष्ठिशलाकापुरुषचरित ( 63 महापुरुषों की जीवन-गाथा जिसमें 24 तीर्थंकर भी सम्मिलित हैं ।) कन्नड गद्य का यह प्राचीन नमूना है । कन्नड भाषा को आधुनिक आधार देने वाले साहित्यकार चामुण्डराय हैं ।
गोम्मटेश्वर की मूर्ति निर्माण की कथा
• भगवान बाहुबली की मूर्ति के निर्माण की कथा अत्यन्त चमत्कारी है । कहते हैं कि चामुण्डराय की माता कालला देवी ने मुनियों से सुन रखा था कि उत्तर भारत में तक्षशिला के समीप पोदनपुर में भगवान बाहुबली की विशाल मूर्ति है, जिसके पवित्र दर्शन आत्मा को परम शान्ति देते हैं । किन्तु उस मूर्ति के दर्शन बड़े भाग्य से होते हैं । न मालूम माता के हृदय में क्या भावना हुई कि उन्होंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह पोदनपुर की उस मूर्ति का दर्शन अवश्य करेंगी। उन्होंने अपने पुत्र चामुण्डराय और पुत्रवधू अजिता देवी के समक्ष यह भावना प्रकट की । आज्ञाकारी पुत्र ने तत्काल निर्णय किया कि वह जल्दी ही प्रबन्ध करेंगे कि माता को पोदनपुर ले जायें और भगवान बाहुबली की उस अद्भुत विशाल प्रतिमा का दर्शन करायें, स्वयं भी कृतकृत्य हो । तत्काल ही यात्रा का प्रबन्ध करना इसलिए और भी आवश्यक हो गया कि माता की प्रतिज्ञा थी कि जब तक वे उस मूर्ति के दर्शन नहीं करेंगी तब तक दूध का आहार ग्रहण नहीं करेंगी ।
भक्ति भाव से गद्गद माता, पुत्र और पुत्रवधू भगवान बाहुबली की यात्रा के लिए निकल पड़े। साथ में गुरु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचवर्ती थे । अपनी राजधानी तलक्काड से चलकर कई दिन की यात्रा के उपरान्त श्रवणबेलगोल के स्थान पर पहुँचे और वहाँ विश्राम किया । वहीं एकाएक रात को चामुण्डराय को स्वप्न हुआ । स्वप्न में कूष्माण्डिनी देवी ने, जो बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन- देवी हैं, दर्शन दिया और कहा
"व्यर्थ होगी तुम्हारी पोदनपुर की यात्रा, वत्स ! क्योंकि वहाँ बाहुबली मूर्ति के दर्शन नहीं हो सकेंगे । उसे तो कुक्कुट सर्पों ने पूरी तरह से आच्छादित कर रखा है ।"
स्वप्न में ही चामुण्डराय अधीर हो गये। देवी ने उन्हें आश्वासन दिया और
कहा
"तुम्हारी मातृ-भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें और तुम्हारी माता को यहीं बाहुबली की विशाल मूर्ति के दर्शन करवा दूंगी। ध्यानपूर्वक विधि सुनो। प्रातः सूर्योदय होते ही स्नान-ध्यान करके तुम यहाँ जिस पहाड़ी के तल में विश्राम कर रहे हो, उसके शिखर पर चढ़ो और वहाँ से सामने की बड़ी पहाड़ी के शिखर पर
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल में बाहुबली की मूर्ति प्रतिष्ठापना
61 भक्तिभाव से सोने का एक तीर छोड़ो और देखो कि क्या होता है।" ___ अन्तर की निर्मल भावनाओं का यह सुयोग और यह प्रताप कि यही स्वप्न चामुण्डराय की माता को भी हुआ और उनके गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को भी।
अगले दिन प्रातःकाल चामुण्डराय ने जब विधिवत् विनम्र भाव से तीर छोड़ा तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि सामनेवाली पहाड़ी की चट्टान की परतें गिरने लगीं और भगवान बाहुबली की मूर्ति का मस्तक-भाग स्वतः स्पष्ट होने लगा। अब प्रश्न उठा कि पर्वत-पाषाण की परतों को हटाकर मूर्ति को आकार देने वाला शिल्पी कौन हो?
शिल्पी की खोज : त्यागद ब्रह्मदेव ___ कहा जाता है कि चामुण्डराय ने राज्य के प्रधान शिल्पी अरिष्टनेमि को बुलाकर अपना अभिप्राय बताया कि भगवान बाहुबली की विशाल प्रतिमा का निर्माण कराना है जिसके लिए सहायक कुशल शिल्पियों की खोज आवश्यक होगी। मूर्ति की विशालता की कल्पना देने के लिए चामुण्डराय ने शिल्पी को अपनी माता के मन में उत्पन्न बाहुबली-दर्शन की उत्कट अभिलाषा का प्रसंग बतलाया और कहा कि उत्तर भारत में तक्षशिला के निकट प्राचीन पोदनपुर नगर में महाराज भरत ने जो पन्ने की प्रतिमा निर्मित करायी थी, वैसी विशाल मूर्ति यहाँ विन्ध्यगिरि पर निर्माण करनी है। . चाण्डराय ने शिल्पी को वह पाषाण-शिखर भी दिखलाया जहां स्वप्न-निर्दिष्ट विधि से छोड़ा गया तीर पहुंचा था। शिल्पी ने विन्ध्यगिरि के उस शिखर को
आँखों-ही-आँखों में नाप लिया और मूर्ति की विशालता का अनुमान मन में बैठा लिया।
"इतनी विशाल मूर्ति के निर्माण में तो बहुत समय लग जायेगा", शिल्पी ने मन-ही-मन सोचा। "और, इतने महान् उपक्रम का पारिश्रमिक चामुण्डराय क्या देंगे?" यह प्रश्न भी उसके अन्तस् में बार-बार उठ रहा था। • "क्या सोच रहे हो, अरिष्टनेमि," चामुण्डराय ने अधीर होकर पूछा । "क्या यह निर्माण तुमसे हो नहीं पायेगा? या सोचते हो कि इसका पारिश्रमिक क्या होगा ?"
"हो क्यों नहीं पायेगा, स्वामी ! किन्तु सचमुच, पारिश्रमिक की राशि बता पाना इतना कठिन लगता है कि मन में दुविधा उत्पन्न होती है,' शिल्पी ने अपनी कठिनाई स्पष्ट कर दी।
"दुविधा छोड़ो, शिल्पी ! कहो क्या चाहते हो?"
शिल्पी ने निःशंक होकर कहा--"इस शिला में से मूर्ति का स्थूल आकार छांट लूंगा। फिर मूर्ति के निर्माण में जितना पाषाण उँटता जायेगा, जितने पाषाण
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
खण्ड गिरते जायेंगे, और मूर्ति की भव्यता को उकेरने में छैनियों से जो शिला कण और चूर्ण बिखरते जायेंगे, उन सबको इकट्ठे करते जाना होगा और जिस मात्रा में पाषाण खण्ड और क्षरण इकट्ठा हो जायें, उतनी तौल का स्वर्ण मुझे प्राप्त हो ।"
62
चामुण्डराय आश्वत हुए। प्रसन्न मन बोले - " स्वीकार है ।"
बात पक्की हो गई और प्रधान-शिल्पी ने अपने अधीन अनेक शिल्पियों तथा श्रमिकों को काम पर लगा दिया । चामुण्डराय पहाड़ों की ऊपरी ढलान पर प्रतिदिन एक निश्चित स्थान पर आकर बैठते और शिला से काटे-छांटे गए पाषाणखण्डों की तौल करवाकर लिखवाते जाते । धीरे-धीरे इतना ढेर इकट्ठा हो गया कि चामुण्डराय को शिल्पी से कहना पड़ा कि अभी जितना ढेर इकट्ठा हो गया है, उतने का स्वर्ण वह ले जाये । आगे भी जैसे-जैसे काम बढ़ता जाये वह हाथके हाथ अपना पारिश्रमिक लेता रहे ।
पहली पारी के सोने का ढेर लदवा कर शिल्पी अपने गाँव आया और जैसे ही दोनों हाथों में उठाये पहले ढेर को अपनी माँ के आगे रखने लगा, . कि उसके हाथ
हो गये, जकड़ गये, और सोने के ढेर से अलग न हो पाये। शिल्पी पर आतंक छा गया, वह पीड़ा से कराहने लगा। माँ आचार्य महाराज के पास दौड़ी गई, दर्शन किये, समाधान मांगा, और घर वापिस आकर बेटे से कहा- "बेटा, यह सोना तुम्हारे हाथों से नहीं चिपका है, यह भार तुम्हारे मन और हृदय पर जड़ हो गया है | तू देखता नहीं कि एक बेटा अपनी माँ की भक्ति भावना से हर्षित होकर परम पूज्य भगवान बाहुबली की विशाल मूर्ति बनवा रहा है, सोने-चांदी के संग्रह की भावना से अपने मन को मुक्त कर रहा है; और एक तू है कि लोभ-भरे मन से अपनी माँ को भगवान की मूर्ति बनाने की मजदूरी सोने के रूप में दे रहा है। तेरा मन पड़ा हुआ है आगे आने वाले सोने के ढेरों में। बेटा ! तू ही बता, तेरा उद्धार कैसे होगा ?"
की वाणी की पवित्र भाव-धारा ने शिल्पी के मन को एक क्षण में झकझोर कर निर्मल कर दिया । उसके अश्रु बहने लगे। दोनों हाथ सोने से मुक्त हो ये और हृदय लोभ से मुक्त हुआ । चामुण्डराय तो सोना देते ही रहे, किन्तु शिल्पी अब पत्थर नहीं तराश रहा था, भगवान बाहुबली की मूर्ति रच रहा था। यही क्षण था जब उसे गोम्मटेश्वर के मुख, होंठ, नेत्र और उनकी उस दिव्य मुस्कान को रूप देना था जो करुणा, आशीष और कल्याण की निर्झरिणी है। पवित्र मन ने उसके शिल्प को दिव्य आभा से मण्डित कर दिया । हृदय में बसी भक्ति ने पाषाण पर चलने वाली हथौड़ी और छेनी के उकेरों को कमल दल की कोमलता सुरभित कर दिया।
धन्य हो गया शिल्पी, धन्य हो गये चामुण्डराय, और युग-युग के लिए कृतार्थ हो गया भारत का शिल्प-वैभव जो दर्शनार्थियों को अमरत्व का बोध देता आ
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल में बाहुबली की मूर्ति-प्रतिष्ठापमा
रहा है।
जिस स्थान पर बैठकर चामुण्डराय शिल्पियों को पारिश्रमिक और अभावग्रस्त व्यक्तियों को दान दिया करते थे, जिस स्थान पर जैन धर्म की उदार संस्कृति ने कर्नाटक की जनता में प्रचलित ब्रह्मदेव की उपासना को अपनत्व ही नहीं दिया, उसे जिन-शासन की रक्षा के दायित्व का देवता बनाकर स्तम्भ-शीर्ष पर आसन भी दिया, वह स्थान आज 'त्यागद ब्रह्मदेव' के नाम से प्रसिद्ध है । वहाँ स्वयं चामुण्डराय ने ब्रह्म-स्तम्भ का निर्माण करा दिया था। इस स्तम्भ को आचार्य भद्रबाहु द्वारा दक्षिण प्रान्त में लायी गयी सार्वभौम जैन संस्कृति की सामथ्यं प्राप्त हुई। यही कारण है कि यह स्तम्भ अलौकिक चमत्कार का साक्षी हो गया । यह अधर में स्थित है। एक समय था जब तीर्थयात्री स्तम्भ के नीचे से आर-पार रूमाल निकालकर चमत्कार का प्रत्यक्ष दर्शन करते थे। आज भी इस स्तम्भ के तीन कोने प्रायः अधर में स्थित हैं।
जैन आचार्यों की इस दूरदर्शिता के लिए, उनकी समन्वय भावना के लिए हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि अहिंसा और अनेकान्त के सिद्धान्त के बल पर उन्होंने जैन स्थापत्य में ब्रह्मदेव को समाविष्ट कर लिया। कर्नाटक में प्राय: प्रत्येक बड़ी जिन बसदि, प्रत्येक बड़े मन्दिर, के सामने मानस्तम्भ है, मानस्तम्भ पर ब्रह्मदेव की मूर्ति निर्मित है । ब्रह्मदेव घोड़े पर विराजमान हैं। उनके दायें हाथ में फल है जो उनकी कृपा-भावना का प्रतीक है। उनके बायें हाथ में चाबुक है जो धर्म से विमुख होने वालों के लिए दण्ड-विधान का प्रतीक है। उनके पांव में खड़ाऊँ हैं . जिसका अभिप्राय है कि मन्दिर की पवित्रता का वह आदर करते हैं। कर्नाटक की जनता जब अपने इस देवता को मानस्तम्भों पर देखती है-एक-से-एक बड़े और ऊँचे मानस्तम्भों पर, जिन्हें जैन राजपुरुषों, सेट्टियों (श्रेष्ठियों) और धनवानों ने स्थान-स्थान पर बनवाया है—तब वह जैन मन्दिरों को अपना समझती है और सोचती है कि जिस तीर्थंकर-धर्म की रक्षा ब्रह्मदेवता घोड़े पर चढ़कर स्वयं करते हैं, जो अत्याचारियों को दण्ड देने के लिए चाबुक हाथ में लिये हुए हैं; उन धर्मस्थानों को सुरक्षित रखना, उन्हें संकट से बचाना प्रत्येक स्त्री-पुरुष का कर्तव्य है । ___ यही कारण है कि कर्नाटक के जैन मन्दिरों को समय की लीला ने कितनी ही क्षति पहुँचायी हो, धार्मिक सहिष्णुता ने उन्हें सुरक्षित रखा। __ त्यागद ब्रह्मदेव विन्ध्यगिरि के शिखर पर निर्मित गोम्मटेश्वर की मूर्ति का मुखमण्डल आज एक हजार साल से निहार रहे हैं। कैसी अनुपम है वह मूर्ति !
भगवान बाहुबली के दर्शन : साक्षात्कार का पुलक
प्रकृति की भरपूर गरिमा और क्षेत्रीय सुषमा के लावण्य से मनोरम श्रवण. बेल्गोल का परिवेश इतना मोहक है कि यात्री मन्त्रमुग्ध सा बढ़े चला जाता है ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
64
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
नीलगिरि के वृक्षों की झूमती कतारें, हरे-भरे खेत, श्यामल-श्वेत मेघ, घने जंगल, नारियल और सुपारी के पेड़, लौंग और चन्दन को सुरभि से महकते वन-प्रान्तर अन्यत्र कहाँ हैं ?
श्रवणबेल्गोल की इस विन्ध्यगिरि पहाड़ी का स्थानीय नाम दोडबेट्टा है जिसका अर्थ होता है बड़ी पहाड़ी। यह समुद्रतल से 3347 फुट ऊपर है और नीचे के मैदान से 470 फुट ऊंची है । शिखर पर पहुंचने के लिए लगभग 650 सीढ़ियां हैं। ऊपर समतल चौक घेरे से घिरा है। घेरे के बीच में छोटे-छोटे तलघर हैं जिनमें अनेक जिन प्रतिमाएं सुरक्षित हैं । घेरे के चारों ओर कुछ दूरी पर भारी दीवार है जिसमें कहीं-कहीं प्राकृतिक शिलाएँ भी उसका भाग बन गई हैं।
चौक के ठीक बीचों-बीच उत्तरमुख स्थित है भगवान बाहुबली की विश्व-वन्द्य विशाल मूर्ति-दिगम्बर, निर्विकार, कायोत्सर्ग मुद्रा में। श्रवणबेल्गोल की ओर बढ़ते हुए 15 मील की दूरी से ही यह मूर्ति दिखाई देने लगती है और जल्दी से जल्दी पहुंच जाने की भावना हृदय को आनन्द-विभोर किये रहती है । मूर्ति की विशालता का अकन पुराने ग्रन्थों में हाथ और अंगुलियों के माप से दिया हुआ है।
पूरे पर्वत-खण्ड में से इतनी विशाल मूर्ति का आकार कल्पना में उतारने और भारी हथौड़ी तथा छैनियों की नाजुक तराश से मूर्ति का अंग-अंग उकेरने का काम जितनी एकाग्रता और संयम-साधना से हुआ होगा, इसकी कल्पना करने पर रोमांच हो उठता है। नुकीली और संवेदनशील नाक, अर्धनिमीलित ध्यानमग्न नेन्द्र, सौम्य स्मित ओष्ठ, किंचित् बाहर को निकली हुई ठोडी, सुपुष्ट कपोल, पिण्डयुक्त कान, मस्तक तक छाये हुए धुंघराले केश आदि, इन सभी से दिव्य आभा वाले मुख-मण्डल का निर्माण हुआ है। बलिष्ठ विस्तृत पृष्ठभाग का कलात्मक निर्माण, आठ मीटर चौड़े बलशाली कन्धे, चढाव-उतार रहित कुहनी और घुटनों के जोड़, संकीर्ण नितम्ब जिनकी चौड़ाई सामने से तीन मीटर है और अत्यधिक गोल है, ऐसे प्रतीत होते हैं मानो मूर्ति को संतुलन प्रदान कर रहे हों। भीतर की और उकेरी गई नालीदार रीढ़, सुदृढ़ और अडिग चरण, सभी उचित अनुपात में मूर्ति-कला की उन अप्रतिम परम्पराओं की ओर संकेत करते हैं जिनका शारीरिक प्रस्तुति से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि तीर्थंकर या साधु का अलौकिक व्यक्तित्व केवल भौतिक जगत् की कोई सत्ता नहीं, उसका निजत्व तो आध्यात्मिक तल्लीनता के आनन्द में है। त्याग की परिपूर्णता निरावरण नग्नता में है। सुदृढ़ निश्चय, कठोर साधना और आत्म नियन्त्रण की परिचायक है खड्गासन-मुद्रा। ___इस दिगम्बर मूर्ति की नग्नता के सम्बन्ध में गाँधीयुग के चिन्तक और साहित्य-सर्जक काका कालेलकर के मार्मिक उद्गार हैं : ___ "सांसारिक शिष्टाचार में फंसे हुए हम उस मूर्ति की ओर देखते ही सोचने लगते हैं कि यह मूर्ति नग्न है । लेकिन क्या नग्नता वास्तव में हेय है ? अत्यन्त
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
கைக
2. चन्द्रगुप्त बसदि में, जाली पर, श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ सम्राट् चन्द्रगुप्त के दक्षिण की ओर विहार का अंकन
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
3. चन्द्रगुप्त बसदि में, जाली पर, भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त के
दक्षिण की ओर विहार का अंकन (परिवधित चित्र)
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
4. कूष्माण्डिनी देवी (चन्द्रगिरि पर)
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
5. त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ (बाच में स्थित)
[भा० पु० स०, नई दिल्ली]
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
6. विन्ध्यगिरि और कल्याणी सरोवर का
विहंगम दृश्य [भा० पु० स०, मैसूर]
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
7. गोम्मटेश्वर बाहुबली
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
BAPPA
Hautari
LEO
AUTTRA
-AUPTA
attaiaadimaanna
RAHAMIRPUR
areeveerarh
CONNEFTIPPEmaitra
Nan
WHEETA
Trai
u:
8. गुल्लिकायज्जी, एक रेखांकन
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
9. चँवरधारी यक्ष (बाहुबली-मूर्ति के पाद-पार्श्व में)
[भा० पु० स०, नई दिल्ली]
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेलगोल में बाहुबली की मूर्ति प्रतिष्ठापना
अशोभन है ? यदि ऐसा होता तो प्रकृति को भी इसके लिए लज्जा आती । फूल नंगे रहते हैं; पशु-पक्षी भी नंगे ही रहते हैं; प्रकृति के साथ जिनकी एकता बनी हुई है वे शिशु भी नंगे रहते हैं । उनको अपनी नग्नता में लज्जा नहीं लगती । उनकी ऐसी स्वाभाविकता के कारण ही हमें भी उनमें लज्जा जैसी कोई चीज़ नहीं दिखाई देती । लज्जा की बात जाने दीजिए। इस मूर्ति में कुछ भी अश्लील, बीभत्स, जुगुप्सित, अशोभन और अनुचित लगता है - ऐसा किसी भी मनुष्य का अनुभव नहीं । इसका कारण क्या है ? यही कि नग्नता एक प्राकृतिक स्थिति है । मनुष्य ने विकारों को आत्मसात् करते-करते अपने मन को इतना अधिक विकृत कर लिया है कि स्वभाव से सुन्दर नग्नता उससे सहन नहीं होती । दोष नग्नता का नहीं, अपने कृत्रिम जीवन का है। बीमार मनुष्य के आगे पके फल, पौष्टिक मेवे या सात्विक आहार स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं रखा जा सकता। यह दोष खाद्य पदार्थ का नहीं, बीमार की बीमारी का है । यदि हम नग्नता को छिपाते हैं तो नग्नता के दोष के कारण नहीं बल्कि मनुष्य के मानसिक रोग के कारण । नग्नता छिपाने में नग्नता की लज्जा नहीं है। वरन् उसके मूल में विकारी मनुष्य के प्रति दयाभाव है, उसके प्रति संरक्षण-वृत्ति है। ऐसा करने में जहाँ ऐसी श्रेष्ठ भावना नहीं होती, वहाँ कोरा दम्भ है ।
65
परन्तु जैसे बालक के सामने नराधम भी शान्त और पवित्र हो जाता है, वैसे ही पुण्यात्माओं तथा वीतरागों के सम्मुख भी मनुष्य, शान्त और गम्भीर हो है । जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ ही मनुष्य विनम्र होकर शुद्ध हो जाता है । यदि मूर्तिकार चाहते तो माधवी लता की एक शाखा को लिंग के ऊपर से कमर तक ले जाते और नग्नता को ढकना असंभव न होता। लेकिन तब तो बाहुबली भी स्वयं अपने जीवन-दर्शन के प्रति विद्रोह करते प्रतीत होते । जब बालक सामने आकर नंगे खड़े हो जाते हैं, तब वे कात्यायनी व्रत करती मूर्तियों की तरह अपनी नग्नता छिपाने का प्रयत्न नहीं करते। उनकी निरावरणता ही जब उन्हें पवित्र करती है, तब दूसरा आवरण उनके लिए किस काम का ?"
[ ध्यानमग्न होते हुए भी मुखमण्डल पर झलकते स्मित के अंकन में मूर्तिकार की महत् परिकल्पना और उसके कला-कौशल की चरम श्रेष्ठता के दर्शन होते हैं ।] सिर और मुखाकृति के अतिरिक्त, हाथों, उंगलियों, नखों, पैरों तथा एड़ियों का अंकन इस कठोर दुर्गम चट्टान पर जिस दक्षता के साथ किया गया है, वह आश्चर्यं की वस्तु है । सम्पूर्ण प्रतिमा को वास्तव में पहाड़ी की ऊँचाई और उसके आकारप्रकार से संतुलित किया है। परम्परागत मान्यता के अनुसार, पर्वत की जिस चोटी पर बाहुबली ने तपश्चरण किया था वह पीछे की ओर विद्यमान है, और आज भी इस विशाल प्रतिमा के पैरों और पार्श्वों के निकट आधार प्रदान किये हुए है, अन्यथा यह प्रतिमा और भी ऊँची होती ।,
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
शिलाखण्डों में चीटियों आदि की बांबियाँ अंकित की गयी हैं और कुछेक में से सर्पों को निकलते हुए अंकित किया गया है। इसी प्रकार दोनों ही ओर से freeती हुई माधवी लताओं को पाँव और जाँघों से लिपटती और कन्धों तक बढ़ती हुई अंकित किया गया है, जिनका अन्त पुष्पों या बेरियों के बौर- गुच्छों के रूप में होता है । गोम्मेटश्वर के चरण जिस पादपीठ पर हैं वह पूर्ण विकसित कमल-रूप में है । कायोत्सर्ग-मुद्रा में गोम्मटेश्वर की इस विशाल वक्षयुक्त भव्य प्रतिमा के दोनों हाथ घुटनों तक लटके हुए हैं। दोनों हाथों के अंगूठे भीतर की ओर मुड़े हुए हैं मानो सब कुछ अन्तनिष्ठ है, सब कुछ सहज-स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त है ।
66
विस्मयकारी है समूचे शरीर पर दर्पण की भाँति चमकती पॉलिश, जिससे भूरे-श्वेत ग्रेनाइट प्रस्तर के दाने आलोकित हो उठे हैं। ऊँचे पहाड़ी शिखर पर खुले आकाश में स्थित प्रतिमा को धूप, ताप, शीत, वर्षा, धूल, और आँधी के थपेड़ों से बचाने में इस पॉलिश ने रक्षा कवच का कार्य किया है। यह ऐसा तथ्य है जिसे इस प्रतिमा के निर्माताओं ने भलीभांति समझ लिया था । ऐलोरा और अन्य स्थानों की गोम्मट प्रतिमाओं से भिन्न, इस मूर्ति की देह के चारों ओर सर्पिल लताएँ बड़े ही सधे कोशल के साथ अंकित की गयी हैं। उनके पल्लव एक-दूसरे से उचित आनुपातिक दूरी पर इस प्रकार अंकित किये गये हैं कि उनसे प्रतिमा की भव्यता कम न हो ।
किन्तु शिल्पी का मानव - प्रयत्न कभी भी परिपूर्ण नहीं हो सका, अतः अहंकार के उच्छेद के लिए कलाकार ने मूर्ति की एक अंगुली को उसके अनुपात से छोटा बनाकर जानबूझकर ही अपनी लघुता का परिचय दिया है।
गोम्मटेश्वर द्वार की बाईं ओर एक पाषाण पर शक संवत् 1102 का शिलालेख है जिसमें कन्नड़ कवि बोप्पण पण्डित ने मूर्ति की कला पर मुग्ध होकर कहा है : अतितुंगाकृतियादोडा गदद रोल्सोन्दय्र्यमौन्नत्यभुं नुतसीन्दय्र्यमुमागे मत्ततिशयंतानागदौन्नत्यमुं । नुतसौन्दर्य मुमूर्जितातिशयतुं तन्नल्लि निन्दिर्द्धवें क्षितिसम्पूज्यमो गोटेश्वरजिनश्रीरूपमात्मोपमं ॥
"जब मूर्ति आकार में बहुत ऊँची और बड़ी होती है तब उसमें प्राय: सौन्दर्य का अभाव रहता है । यदि बड़ी भी हुई और सौन्दर्य बोध भी हो तो उसमें देवी प्रभाव का अभाव खटकता है। लेकिन यहाँ तीनों के मेल से संसार द्वारा पूजित गोम्मटेश्वर की छटा अपूर्व हो गई ।”
मूर्ति के दर्शनों का सौभाग्य जिसे भी मिलता है वह अलौकिक पावनता के प्रभाव से पवित्र हो जाता है । आँखें टकटकी बाँधे स्तम्भित, हृदय गद्गद, शरीर रोमांचित और भावनाएँ शान्ति के अजस्र गंगाजल से प्रक्षालित हो जाती हैं ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल में बाहुबली की मूर्ति-प्रतिष्ठापना
सोलहवीं सदी का एक दूसरा शिलालेख क्रमांक 516 दर्शनार्थी की भावविभोर स्थिति का वर्णन इस रूप में करता है
आदि तीर्थद कोलविदु, हालगोलनो, इतु अमृतगोलनो, इबु गंगे नदियो, तुंगभद्रेओ, इदु मंगलगोरियो, इद् मंदावनो, इदु शृंगारतोटमो अयि, अयि या अयि, अयिये
वले, तीर्थ बले तीर्थ जया जया जया जया॥ अर्थात् यह क्या कोई पावन सरोवर है, दूध से भरा कुण्ड है, या परिपूर्ण अमृतकुण्ड है ? क्या यह गंगा है ? तुंगभद्र है ? मंगलागोरी है ? इसे वृन्दावन कहें या श्रृंगार विहार ? सदा सर्वदा जय हो इसकी, चिर जयवन्त हो तुम ! अभिषेक की अन्तःकथा __ मूर्ति-निर्माण के उपरान्त स्वभावतः चामुण्डराय के मन में मूर्ति के अभिषेक को भावना जागी। ऊँचा मचान बनवाया। दूध के सहस्रों कलश मंगवाये गये। चामुण्डराय का प्रभाव, अधिकार और साधन असीम थे । एक बुढ़िया जो प्रति दिन मूर्ति का निर्माण देखती थी और गोम्मटेश्वर को नमस्कार करती रहती थी, उसके मन में भी इच्छा जागी कि वह भी भगवान के अभिषेक का पुण्य प्राप्त करे। फल की एक छोटी कटोरी (गुल्लिका) में इस बुढ़िया माई (अज्जी) ने दूध भरा और चल पड़ी अपनी मनोकामना पूरी करने । मूर्ति के पास पहुंच तो नहीं पाई पर उसने लोगों से बहुत अनुनय-विनय की कि थोड़ा-सा ही तो दूध है, जल्दी से चढ़ा देगी। लेकिन किसी ने उसकी बात न सुनी। वह कई दिन इसी तरह आती और निराश लौट जाती। ___ अभिषेक के लिए चामुण्डराग पहाड़ी की चोटी पर पहुँचे और दूध के कलशों से अभिषेक करना प्रारम्भ किया। जय-जय की व्वनि के बीच वे कलश पर कलश भगवान बाहुबली की मूर्ति पर ढालने लगे। न जाने कितने कितने कलश मूर्ति पर ढाले गये, किन्तु सारा दूध मूर्ति की नाभि तक ही पहुँच पाया। नीचे तक पांव का प्रक्षालन नहीं हो पाया। प्रयत्न करके जब चामुण्डराय अधीर हो गये, तो उन्होंने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से परामर्श माँगा। गुरु ने कहा-"देखो, यहाँ यह क्षीणग्य बुढ़िया प्रकट हुई है। उसके हाथ में दूध से भरी हुई छोटी-सी एक कलशी है (जो वास्तव में श्वेत गुल्लकेय फल का खोखला भाग है)। उसे भी अभिषेक करने दो।"
भला, क्या तो वह पात्र और कितना सा वह दूध ! किन्तु जब बुढ़िया की ओर से अभिषेक प्रारम्भ हुआ तो दूध मूर्ति के सारे शरीर को प्रक्षालता हाअ
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
68
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
पादतल तक पहुँच गया। चामुण्डराय के लिए यह पहले से भी अधिक आश्चर्य की बात थी । लेकिन क्षणान्तर में उनकी स्वयं ही समझ में आ गया कि बात क्या हुई । बुढ़िया के रूप में शायद कोई देवी है जो कहना चाहती है :
"चामुण्डराय, इतनी बड़ी मूर्ति का आविष्कार, उसका निर्माण तुमने अपने पराक्रम से किया। दूध के सहस्रों कलशों से प्रक्षालन किया है। अपने यश की कामना तुम्हारे मन में है । किन्तु भक्ति के इस सारे वातावरण में तुम्हारे मन में यह अहंकार आ गया है कि तुमने कितना बड़ा काम किया है! अतः यह सब निष्फल है। भक्ति की सफलता के लिए तो बुढ़िया की यह छोटी सी फल की कलशी पर्याप्त थी । जिसकी दृष्टि भगवान बाहुबली के चरणों की ओर है उस गुल्लिका का दूध तो चरणों तक पहुँचना ही था। भगवान बाहुबली के मस्तकाभिषेक का पुण्य फल सदा से यही रहा है कि मन में संयम की भावना आये, मंद और अहंकार गलित हों, और आडम्बररहित एकाग्रता में भक्ति सार्थक हो ! अहंकार रूपी शल्य का उच्छेद किये बिना स्वयं बाहुबली को भी केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सका ।"
गोम्मटेश्वर मूर्ति का माप
सन् 1871 में मस्तकाभिषक के समय मंसूर शासन की ओर से मूर्ति का ठीक-ठाक नाप लिया गया था। वह इस प्रकार है
चरण से कर्ज के अधोभाग तक
कर्ण के अधोभाग से मस्तक तक (लगभग)
चरण की लम्बाई
चरण के अग्रभाग की चौड़ाई
चरण का अंगुष्ठ
पादपृष्ठ की ऊपर की गोलाई
जंघा की अर्ध गोलाई
नितम्ब से कर्ण तक
पृष्ठ- अस्थि के अधोभाग से कर्ण तक
नाभि के नीचे ऊपर की चौड़ाई कटि की चौड़ाई
और टेहनी से कर्ण तक
बाहुमूल से कणं तक वक्षस्थल की चौड़ाई
ग्रीवा के अधोभाग से कर्ण तक
फुट
50
6
9
4
2
6
10
24
20
13
10
17
7
26
2
इंच
0
6
0
6
9
4
0
6
0
0
0
9006
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल में बाहुबली की मूर्ति-प्रतिष्ठापना
तर्जनी की लम्बाई मध्यमा की लम्बाई अनामिका की लम्बाई कनिष्ठिका की लम्बाई
53
4.
7
.28
अहंकार को त्यागने और विनय की शिक्षा देने वाले गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने बाहुबली की मूर्ति का सफल अभिषेक करने वाली वृद्धा की मूर्ति स्थापित करने का परामर्श चामुण्डराय को दिया था। फलस्वरूप श्रवणबेल्गोल में भगवान बाहुवली की मूर्ति के चरणों के पास जो आंगन है, उसके बाहर गुल्लिकायज्जी की मूर्ति भी चामुण्डराय ने स्थापित करवायी ।।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड : चार
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख __ध्वनि और प्रतिध्वनि
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख इतिहास और संस्कृति के संवाद-स्वर
[कर्नाटक में बनधर्म और संस्कृति का ऐतिहासिक अध्ययन करने के
लिए आए हुए चार सदस्यों का पूर्व-परिचित काल्पनिक बल]
पुराविद् : हमने जिन महत्वपूर्ण शिलालेखों का चन्द्रगिरि पर्वत पर अध्ययन
किया है उनके सम्बन्ध में चर्चा कर लेना आवश्यक है ताकि हम अपने
ज्ञान को क्रम-बद्ध लड़ी में पिरोते चलें। वाग्मी : मैंने प्रयत्न किया है कि शिलालेख जो अनेक भाषाओं में हैं प्राचीन
तमिल और कन्नड, तेलगु, मराठी और मलयालम में...... अनुगा : और, अनेक लिपियों में भी। तमिल की प्राचीन लिपि-ग्रंथ-तमिल,
कन्नडलिपि में संस्कृत भाषा और मराठी भाषा, तथा मलयालम लिपि
और नागरी लिपि में ऐसे सभी शिलालेख हम लोगों ने यहां देखे हैं। . पुराविद : लिपि के आधार पर लेखों का विश्लेषण करके देखा गया है। कन्नड,
मलयालम, तमिल व तेलगु लिपि के लेखों को छोड़कर 36 लेखों की लिपि देवनागरी है और 17 लेखों की महाजनी या मुण्डी लिपि है जिसमें मात्राएं नहीं होती। केवल अ और इ की मात्रामों से काम चलाया जाता है और ज-स, ट-ड, ड-ण तथा ब-भ में कोई भेद व्यक्त
नहीं होता। यह व्यापारियों की कामचलाऊ लिपि होती है। माग्मी : कुछ लेखों में पंजाब प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों की टीकरी लिपि भी पाई
जाती है। भूतन : इसका अर्थ यह है कि श्रवणबेल्गोल सारे भारत का पवित्र तीर्थ था,
और जैन संस्कृति भारत-व्यापी थी। वाग्मीजी ने बहुत परिश्रमपूर्वक इन शिलालेखों को पड़ा है और अनुगा, फोटो द्वारा उनकी प्रतिकृति ले ली, इससे अध्ययन में सुविधा हो गई।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
अनुगा : मैंने प्रयत्न तो किया है, किन्तु अनेक चित्र साफ नहीं आये, क्योंकि शिलालेख पुराने पड़ गये हैं, अक्षर घिस गये हैं, यहाँ तक कि मिट भी गये हैं ।
पुराविद् : जो लेख टूट गये, इधर-उधर फेंक दिये गये, या अज्ञानतावश यहाँ के जड़ दिये गये या विलुप्त हो गये - हमारी वह ऐतिहासिक सम्पदा, सांस्कृतिक जानकारी का वह कोष सदा के लिए क्षय हो गया, या फिर क्षत-विक्षत हो गया ।
74
वाग्मी : यही कारण है कि अनेक शिलालेखों को ठीक-ठीक पढ़ना कठिन हो जाता है। कई खण्डित नाम इसीलिए पढ़े जा सके या पूरे किये जा सके क्योंकि वे इतिहास प्रसिद्ध नाम हैं जिनका ज्ञान पुराविद्जी को है । कई नाम आचार्यों के हैं जिनका परिचय अन्य स्रोतों से श्रुतज्ञजी को है ।
1
श्रुतज्ञ : एक बात जो विशेष सहायक हुई है, वह यह कि श्रवणबेलगोल का पूरा परिवेश धार्मिक और सांस्कृतिक रहा है, अतः जहाँ कुछ थोड़ा-सा भी पढ़ा गया और आगे-पीछे के शब्दों के कुछ अक्षर भी स्पष्ट हुए तो पूरे प्रसंग को समझने का प्रयत्न सम्भव हो जाता है कि किस राजा या सेनापति के काल में कोन आचार्य थे और कौन किसका शिष्य था । आचार्यो और साधुओं की गुरु-शिष्य पट्टावली शास्त्रों में दी ही है । समाधिमरण, सल्लेखना और संन्यास सैकड़ों-हजारों मुनियों, राजाओं, सेनापतियों, श्रावक-श्राविकाओं के जीवन की साध रहे हैं । व्रत-उपवास करते हुए, तपस्या करते हुए, आध्यात्मिक चिन्तन में लीन रहकर गुरु के सान्निध्य में शान्ति और समता पूर्वक जिन्होंने जीवन की दैहिक लीला समाप्त की उन भव्यजनों के धार्मिक प्रसंग शिलालेखों के अनेक संदर्भों को सार्थक कर देते हैं ।
अनुगा
: पुराविद्जी, हमने जिस शिलालेख क्रमांक 1 का अध्ययन किया, उसमें उल्लेख था कि इस कटवत्र पर्वत अर्थात् इस चन्द्रगिरि पर्वत पर सात सौ ऋषियों ने समाधि प्राप्त की । आचार्य भद्रबाहु के देहत्याग के लिए संन्यास शब्द का प्रयोग हुआ है । यह समाधिमरण, सल्लेखना, संन्यास क्या है ? इसे कुछ लोग आत्म हत्या क्यों मान लेते हैं ?
पुराविद् : समाधिमरण को आत्म हत्या मानना बहुत बड़ा अज्ञान है। श्रुतज्ञजी, आप बताते थे कि समाधिमरण तो एक विधान है, उसकी एक विशेष विधि है ?
: हाँ, आचार्य समन्तभद्र कृत 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में इस विधि के सम्बन्ध में पर्याप्त लिखा गया है ।
श्रुतज्ञ
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख... पुराविद् : आचार्य समन्तभद्र का समय ईस्वी सन् की दूसरी शती का उत्तरार्ध
है। हां, श्रुतज्ञजी आप सल्लेखना या समाधिमरण के विषय में बता
रहे थे न ? श्रुतज्ञ : श्रावकाचार में लिखा है
उपसर्गे दुभि जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे ।
धर्माय तनु-विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ अर्थात् जब उपसर्ग हो जाए, दुभिक्ष पड़ जाए, बुढ़ापा आ जाए या स्थिति ऐसी लगे कि अब इसका कोई प्रतिकार नहीं-जीवनलीला तो समाप्त होनी ही है—तब धर्म-भावना को अन्तरंग में सुरक्षित रखने लिए व्यक्ति संयम और साधनापूर्वक शरीर का विमोचन करे, उसे समाप्त हो जाने दे, आचार्यों ने इसे सल्लेखना कहा है। यही समाधिमरण है । अर्थात् व्यक्ति आत्म-धर्म (निज-स्वाभाव) में लीन रहे, और शरीर छूट जाए। कितनी बड़ी समता और संयम आवश्यक है
इस विधि के लिए! अनुगा : ठीक है, आत्म-हत्या तो एक आवेग है। उसमें भावनाओं की शान्ति
नहीं, वह तो घोर आत्म-हनन है। श्रतज्ञ : शास्त्रो में सल्लेखना की विधि की पूरी चर्चा है । सल्लेखना धारण करने
से पूर्व श्रावक स्नेह और वैर दोनों भावों का त्याग करके वीतराग हो जाए, परिग्रह का त्याग करके मन को शुद्ध करे, अपने बन्धु-बान्धवों से प्रियवचन कहकर क्षमा मांगे, उन्हें क्षमा करे। शास्त्र के वचनों द्वारा अपने मन को प्रसन्न और उत्साहित करे । उत्तरोत्तर अन्न का आहार छोड़कर दूध लेना प्रारम्भ करे । दूध छोड़कर मट्ठा, उसे भी
छोड़कर गर्म जल, फिर वह भी छोड़ दे। उपवास करे। पुराविद् : वास्तव में हिन्दू समाज में काशी-वास की भावना भी मोटे रूप से
यही है । जैन संस्कृति में इसे अध्यात्म और साधना की कोटि में रख
कर निश्चित पद्धति का निर्देशन किया गया है। अनुगा : क्षमा कीजिए, यह तो प्रसंगवश मैंने प्रश्न कर लिया । वास्तव में तो
हम शिलालेखों की चर्चा लिये बैठे हैं। बाग्मी : यह चर्चा भी शिलालेखों की ही है। मैं कुछ उदाहरण देता हूँ जिन
लेखों में उल्लेख है कि कितने दिन के व्रत-उपवास या तपस्या के उपरान्त किसका समाधिमरण हुआ । शिलालेख क्रमांक 1 पढ़ ही धुके हैं। शिलालेख क्रमांक 23 उदाहरणार्थ लें : "अदेयरेनाड चितूर मौनिगुरवडिगल शिषित्तियर् नागमतिगन्तियर् मूरु तिगल नोन्तु मुडिप्पिदर्।"
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
अर्थात् अदेयर राष्ट्र के चित्तूर स्थान के मौनि गुरु की शिष्या नागमति गन्तियर् (साध्वी) ने तीन मास के व्रत के पश्चात् शरीरान्त किया। सबसे आश्चर्य का शिलालेख क्रमांक 25 (पाश्र्वनाथ बसदि के दक्षिणपश्चिम में) है
"बाला मेल्सिखि मेले सर्पद महादन्तापदुल सल्ववोल् सालाम्बाल-तपोगविन्तु नब्दों नूरेण्ट-संवत्सरं केलोपिन्कटवप्रलिमडनम्मा कलन्तूरन
बाले पेग्डैरवं समाषि-नेरेदोन नोन्तेखिदौरं सिद्धियान्" -बाले ! कलन्तूर के उन महामुनि की बात सुनो जिन्होंने पहले पवित्र कटवप्र पर्वत पर आरोहण किया, और फिर 108 वर्षों तक घोर तपस्यारत रहे—जो इतनी कठिन थी कि मानो तलवार की तेज धार पर चल रहे हों, या अग्नि की शिखा पर या महाविषधर नाग के फण पर चल रहे हों। इन महान् गुरु ने व्रत धारण किए, समाधि में
स्थित हुए और सिद्धपद प्राप्त किया। श्रुतज्ञ : समाधिमरण के प्रसंग में यह बात बहुत महत्त्व की है कि यदि हम श्रवण
बेल्गोल के लगभग 573 शिलालेखों की विषय-वस्तु का विश्लेषण करें तो उनमें 100 लेख मुनियों, आयिकाओं और श्रावक-श्राविकाओं के समाधिमरण से सम्बन्धित हैं। ये शिलालेख इतने पुराने हैं कि चन्द्रगिरि के 54 लेखों में से 41 जो सातवीं शताब्दी के हैं, और 20 में से 10 जो आठवीं शताब्दी के हैं, सब समाधिमरण और संन्यास की
प्रभावना से सम्बद्ध हैं। अनुगा : पुराविद्जी, आपने इतिहास की दृष्टि से जो लेख पढ़े हैं वे किस प्रकार
पुराविद : अच्छा हुआ कि मैंने यह विश्लेषण कर लिया था अन्यथा संख्या न बता
पाता। 40 लेख ऐसे हैं जिनमें योद्धाओं की स्तुति है, या आचार्यों की प्रशस्ति है, या स्थान विशेष के नामों का उल्लेख है। 160 लेख संघों और यात्रियों की याद के हैं जिन्होंने चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि पर्वतों की तीर्थयात्रा की । यह भी बता दूं कि 107 लेख दक्षिण से आए
हुए संघों या यात्रियों के हैं और 53 उत्तर भारत के। अनुगा : फिर एक प्रमाण सामने आया कि श्रवणबेलगोल सारे भारत की
सांस्कृतिक आस्था का प्रतीक है। वाग्मी : अन्तरंग महानता और पावन प्रयत्नों का परिचय मैं दे दूं? पुराविद् : आपका अभिप्राय ? बाग्मी : यह कि शेष 200 शिलालेखों की विषयवस्तु में 100 शिलालेख मन्दिरों
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेलगोल के शिलालेख...
के निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, दानशाला, वाचनालय, रंगशालाएँ, तालाब, कुआ, कुण्ड, उद्यान आदि के निर्माण और जीर्णोद्वार से सम्बन्धित हैं, और 100 शिलालेख दान और उन दाताओं के स्मारक हैं जिनके द्वारा पूजा, अभिषेक, आहारदान, मन्दिरों की सुरक्षा के लिए व्यय आदि का प्रबन्ध, दिये गये ग्राम, भूमि और धन के दान से सम्पन्न हुआ । : ओह, यह तो श्रवणबेलगोल की सांस्कृतिक विभूति का और इसके प्रभाव का एक पूरा चित्र ही उभर आया !
पुराविद् : (मुझे तो यह भी लगता है कि धर्म और संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करने वाले ये शिलालेख इतिहास की जानकारी की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं । एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि जिस प्रदेश में बारह हजार मुनियों का संघ आया, जहाँ इतने मन्दिर बने, जहाँ बाहुवली की . विशाल प्रतिमाएँ स्थापित हुईं, दीर्घकाल तक आचार्यो, साधुओं और श्रावकों का समाधिमरण सम्भव हुआ, वहीं के राजा, नरेश, सेनापति और उन सबके वंशज अवश्य इन प्रवृत्तियों के समर्थक थे । वास्तव में अनेक नरेश और राज-पुरुष स्वयं जैन थे, जैनाचार्यों के शिष्य थे | D : आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त जिस संस्कार को जमा गए, वह कालान्तर में बराबर पुष्ट होता रहा ।
1
वाग्मी
: भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की स्मृति चन्द्रगिरि पर्वत के जिस शिलालेख क्रमांक 1 से स्पष्ट होती है, उसके अर्थ के सम्बन्ध में अर्थात् भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो शंकाएँ उठायी जाती हैं, उस विषय में क्या कोई अन्य प्रमाण यहाँ नहीं हैं ?
अनुगा
श्रुतज्ञ
पुराविद् : अवश्य हैं। देखिए, शिलालेख क्रमांक 34 (शक संo 572 का) :
भद्रबाहु सचन्द्रगुप्त-मुनीन्द्रयुग्मदिनोप्पेवल् । भवमागिद धर्ममन्दु वलिक्केवन्दिनिसल्कलो ॥ विद्रुमाघर शान्तिसेन - मुनीशनाक्किए वेल्गोल । अद्रिमेलशनादि विट्टपुनर्भवक्केरे आगि...॥
77
वाग्मी
अर्थात् जो जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धिको प्राप्त हुआ था, उसके किंचित् क्षीण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनरुत्थापित किया । इन मुनियों ने बेल्गोल पर्वत पर अशन आदि का त्याग कर पुनर्जन्म को जीत लिया ।
: पार्श्वनाथ बसदि के एक स्तम्भ पर लेख क्रमांक 77 भी दर्शनीय हैवन्य: कथन्नु महिमा भण भद्रबाहोर् म्मोहोर - मल्ल-मद-मर्द्दन- वृत्तबाहोः ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ अन्तद्वन्द्वों के पार यच्छिष्यताप्तसुकृतेन स चन्द्रगुप्त:
शुश्रुष्यतेस्म सुचिरं वन-देवताभिः ॥ अर्थात् उन महान् भद्रबाहु की महिमा का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है, जिनकी भुजाएँ मोहरूपी मल्ल के मद का मर्दन करने के कारण बलिष्ठ हो गई हैं, जिनका शिष्य बनने के कारण चन्द्रगुप्त की इतनी पुण्य-महिमा हुई कि वनदेवता उसकी सेवा-सुश्रुषा करने
लगे। श्रुतज्ञ
: इसी शिलालेख में तो है न, पहली शताब्दी के महान् दिगम्बर आचार्य
समन्तभद्र की वह उक्ति जिसका आशय है-"पहले मैंने पाटलिपुत्र में शास्त्रार्थ की भेरी बजायी, फिर मालव, सिन्धु और ठक्कप्रदेश में, फिर कांचीपुर और विदिशा में । अब मैं करहाटक प्रदेश में आया हूँ जहाँ विद्या धारण करनेवाले योद्धाओं की भीड है। हे राजन, मैं शास्त्रार्थ करने का अभिलाषी हूँ और दिखाना चाहता हूं कि इस भीड़ में शार्दूल (सिंह) कैसे विनोदपूर्वक क्रीड़ा करता है ?" हां, यह है बह उक्ति --
पूर्व पाटलिपुत्र-मध्य-नगरे मेरी मया ताडिता पश्चानमालव-सिन्धु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं
वादार्थी विचराम्यहन्नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ वाग्मीजी, इसके आगे का श्लोक आप पढ़ दीजिए । संस्कृत समासों की
छटा आपके मुख से अधिक शोभा देगी। वाग्मी : नहीं, शोभा तो आप ही के मुख से देगी, फिर भी मैं पढ़ देता हूँ। (कुछ
रुककर) नहीं नहीं, इस सुन्दर श्लोक को अनु बिटिया पढ़कर सुनाए। अनुगा : आपकी आज्ञा । करती हूँ प्रयत्न ।
अवटु-तटमटति झटिति स्फुट-पटु-वाचाटधूर्जटेरपि जिह्वा।
वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप कास्थान्येषाम् ।। वाग्मी : सुन्दर ! सारांश यह कि जब समन्तभद्र शास्त्रार्थ के लिए सामने खड़े
हो जाते हैं तब बड़े-से-बड़े धूर्जटि की जिह्वा तालु के पीछे लग जाती
पुराविद् : धूर्जटि शब्द टकार की श्रृंखला के प्रयोग द्वारा काव्य के चमत्कार के
लिए ही प्रयुक्त है। किन्तु यह तो हम काव्य की माधुरी में भटक गए !
इतिहास की बात तो बीच में ही रह गई। श्रुतज्ञ : अच्छा है, इतिहास-रस के साथ काव्य-रस भी चलता रहे। पुराविद् : बहुत अच्छा कहा आपने । मैं तो मानता हूँ कि नव रसों के साथ-साथ
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख...
एक दसवां रस 'इतिहास-रस' भी होना चाहिए । भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की चर्चा में एक शिलालेख का संदर्भ में श्रवणवेल्गोल से
बाहर का, किन्तु फिर भी श्रवणबेल्गोल के अन्दर का, देना चाहता हूँ। अनुगा : पुराविद्जी , यह कैसे संभव है कि बाहर का भी है और भीतर का भी ? पुराविद : अभिप्राय यह है कि वह शिलालेख है तो श्रीरंगपट्टन का, ई० सन्
900 का, किन्तु उसका संदर्भ है श्रवणबेल्गोल का । उसमें कहा गया है कि कलबप्पु शिखर (चन्द्रगिरि) पर महामुनि भद्रबाहु और चन्द्र
गुप्त के चरण-चिह्न हैं। वाग्मी : इतिहास के अध्येताओं में लेख क्रमांक 1 को लेकर जो विवाद है
और जिन-जिन विद्वानों ने भद्रबाहु, प्रभाचन्द्र और चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में मन्तव्य दिए हैं उनका निष्कर्ष कहीं आया होगा । वह
क्या है ? पुराविद् : पुरातत्त्व के धुरन्धर विद्वान् रायबहादुर नरसिंहाचार्य ने, जिन्होंने
अपना सारा जीवन लगाकर श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है, उनका पाठ और अर्थ निश्चित किया है, वे इन शिलालेखों के संग्रह के संपादक भी हैं। अतएव उनके द्वारा निकाला गया निष्कर्ष ही प्रमाण है। यह लेख ऋ० 251 (11वीं शती) जो भद्रबाहु गुफा में उत्कीर्ण है
'श्रीभद्रबाह स्वामिय पादमं जिनचन्द्र प्रणमतां।" अर्थात् जिनचन्द्र ने भद्रबाहु स्वामी के चरणों को नमस्कार किया। इसी प्रकार लेख क्र० 254 (13वीं शती) में-चिक्कबेट्ट (चन्द्रगिरि) के शिखर पर जो चरण-चिह्न अंकित हैं, उनके सम्बन्ध में लिखा है कि ये भद्रबाहु स्वामीके चरण हैं : ___भद्र बाहु-भलि-स्वामिय पाद।" लेख क्र० 564 (ई० सन् 1432) में विन्ध्यगिरि पर्वत पर स्थित सिद्धरबसदि के स्तम्भ पर श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी और चन्द्रगुप्त का उल्लेख है :
"यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता सर्व-श्रुतार्थप्रतिपादनेन । तदीय-शिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः ।
विवेश यत्तीव्रतपःप्रभाव-प्रभूत-कोतिर्भुवनान्तराणि ॥" लेख ऋ० 71 (सन् 1163) में भद्रबाहु को श्रुतकेवली कहा गया है और चन्द्रगुप्त को उनका शिष्य
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
80
अन्तर्द्वन्द्रों के पार
(बी) भवस्सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः श्रुतकेवलिनायेषु चरमपरमो मुनिः। चन्द्र-प्रकाशोज्जवल-सान्द्र-कीतिः
श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः॥ लेख क्र. 77 (सन् 1129) में भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का जो उल्लेख मिलता है उसके सम्बन्ध में अभी-अभी वाग्मीजी ने बताया भी है कि उनकी सेवा वनदेवताओं द्वारा निरन्तर की जाती
रही है- "शुश्रूयेस्म सुचिरं वन-देवताभिः ।" अनुगा : इस सम्बन्ध में मैंने जो पढ़ा है वह बिन्सेंट स्मिथ का मत है। मैंने नोट
किया है : "चन्द्रगुप्त मौर्य का घटनापूर्ण राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इस पर ठीक प्रकाश एकमात्र जैन कथाओं से ही पड़ता है । जैनियों ने सदैव उसे मगध सम्राट् बिम्बसार के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है-इसे झूठ कहने का कोई उपयुक्त कारण नहीं। शेषनाग, नन्द और मौर्यकाल में मगध में जैनधर्म जोर-शोर पर था। चन्द्रगुप्त ने राजगद्दी एक कुशल ब्राह्मण की सहायता से प्राप्त की यह चन्द्रगुप्त के जैन होने के विरुद्ध नहीं पड़ती। 'मुद्राराक्षस' नाटक में उल्लेख है कि एक जैन साधु नन्द नरेश का और बाद में मौर्य सम्राट के मन्त्री राक्षस का घनिष्ठ मित्र था । एक बार जब चन्द्रगुप्त को जैनधर्मावलम्बी मान लिया तो फिर बारह वर्ष का दुभिक्ष, भद्रबाहु से जिनदीक्षा, दक्षिण की ओर गए संघ का श्रवणबेल्गोल पहुंचना, भद्रबाहु के द्वारा वहाँ शरीर का त्याग, बारह वर्ष पश्चात् राजर्षि चन्द्रगुप्त द्वारा समाधिमरण किया जाना 'सब मान्य हो जाता है। इसका समर्थन श्रवगबेल्गोल के मन्दिरों, सातवीं शती के शिलालेखों तथा दसवीं शती के ग्रन्थों से होता है..." "ईसापूर्व 322 में जब चन्द्रगुप्त सिंहासनारूढ़ हुए तो तरुण थे । जब 24 वर्ष पश्चात् उनके राज्य का अन्त हुआ, तब उसकी अवस्था 50 वर्ष से कम रही होगी। अतः उनका राजपाट त्याग देना, उनके इतनी कम अवस्था में मौर्यवंश के इतिहास से लुप्त हो जाने का उपयुक्त कारण प्रतीत होता है । राजाओं के इस प्रकार विरक्त हो जाने के अन्य भी अनेक उदाहरण हैं, और बारहवर्ष का दुष्काल भी अविश्वसनीय नहीं । संक्षेपतः अन्य कोई वृत्तान्त उपलब्ध न होने के कारण जन कथा ही सर्वोपरि प्रमाण है।"
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख...
उत्तरकालीन इतिहास पुराविद् : उत्तरकालीन इतिहास की दृष्टि से श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों का
बहुत महत्त्व है। यदि सबसे पहले किसी शिलालेख पर ध्यान जाता है
तो.. लेकिन, श्रुतज्ञजी आप बतायेंधुता : राज्य की रक्षा, युद्धों में शत्रुओं का मान-मर्दन, उनकी पराजय,
शूरवीरता के उच्चतम मानदण्ड और इतने सब विजयोल्लास के उपरान्त धर्माचार्य की शरण में जाकर समाधिमरण द्वारा समताभाव से शरीर-त्याग का सबसे प्रभावकारी उदाहरण श्रवणबेल्गोल के समीप कांचिनदोणे के कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ के दसवीं शताब्दी के शिलालेख (क्र०64) में है जिसमें गंगवंश के राजा मारसिंह का वर्णन है। शिलालेख प्रारम्भ होता है मंत्री के संदर्भ से कि मासिंह ने : • राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज तृतीय के लिए गुर्जर देश को विजय किया, • कृष्णराज के विपक्षी अल्ल का मद चूर किया, • विन्ध्यपर्वत की तराई में रहने वाले किरातों के समूहों को जीता, ० मान्यखेट में कृष्णराज की सेना की रक्षा की, ० इन्द्रराज चतुर्थ का अभिषेक कराया, • पातालमल्ल के छोटे भाई वज्जल को पराजित किया, ० वनवासी-नरेश की धन-सम्पत्ति का हरण किया, • माटूरवंश को पराभूत किया, ० नोलम्ब कुल के नरेशों का सर्वनाश किया, ० काडुवट्टि जिस दुर्ग को नहीं जीत सका था, उस उच्चङ्गि दुर्ग को
स्वाधीन किया, ० शबराधिपति नरग का संहार किया, ० चालुक्य नरेश राजादित्य को जीता, ० तापी-तट, मान्यखेट, गोनूर, उच्चङ्गि, बनवासि व पाभसे के युद्ध
जीते; तथा चेर, चोल, पाण्ड्य और पल्लव नरेशों को परास्त किया। इस लेख की अन्तिम पंक्तियों में राजा के द्वारा 'धर्म' पुरुषार्थ की साधना का उल्लेख इन शब्दों में मिलता है :
..."पलवेडे-गलोलं बसदिगुलं मानस्तंभंगलुवं माडिसिदं । मंगलं । धर्ममंगलं नमस्यं नडयिसिबलियमोन्दुवर्ष राज्यमं पत्तुविट्ट बंकापुरदोल् अजितसेनभट्टारकर श्रीपादसन्निधियोल् आराधनाविधियि मूरखे
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
82
- अन्तर्द्वन्द्वों के पार
(व) सं नोन्तु समाधियं साधिसिवं।" . .
अर्थात् उसने जैनधर्म का प्रतिपालन किया, अनेक जिनमन्दिर और मानस्तम्भ बनवाये, इन सब धार्मिक कार्यों को करने के उपरान्त एक वर्ष बाद राज्य-त्याग किया। तीन दिन की व्रत-साधना के उपरान्त बंकापुर में अजितसेन भट्टारक के श्रीचरणों के समीप समाधि-साधना की। ऐसे प्रतापी नरेश की जिन उपाधियों की छटा इस शिलालेख में है, वे इस वीर के अनुकूल ही हैं—गंगचूड़ामणि, गंगवज्र, नोलम्बान्तक, गुत्तिय-गंग, मण्डलिकत्रिनेत्र, गंगविद्याधर, गंगकन्दर्प, गंगसिंह,
सत्यवाक्य, कोंकणवर्म-धर्म-महाराजाधिराज आदि । पुराविद् : इस शिलालेख से और इतिहास के अनेक संदर्भो से यह स्पष्ट है कि
गंगवंश और राष्ट्रकूट वंशों में मैत्री थी, और इस मैत्री का आधार प्रमुख रूप से जैनधर्म था। चोल-नरेश शव थे, अतः उनकी पक्षधरता
जैनेतर धर्म के प्रति अधिक रही। अनुगा : अनेक शिलालेखों में जैनाचार्यों के सम्बन्ध में ऐसा वर्णन आता है कि
वे शास्त्रार्थ में धुरन्धर थे, प्रतिवादियों को उन्होंने बारबार हराया।
यह बात क्या मुख्य रूप से ठीक है ? वाग्मी : हाँ, अनेक शिलालेख यहां मैंने पढ़े हैं। और, आचार्यों के जीवन
वृतान्त में, प्रशस्तियों में इस प्रकार की अनेक घटनाएँ हैं। श्रुतज्ञ : शिलालेख क्रमांक 70 में उल्लेख है कि बारहवीं शताब्दी में महा
मण्डलाचार्य देवकीति पण्डित ने चार्वाक्, बौद्ध, नैयायिक, कापालिक
और वैशेषिकों को शास्त्रार्थ में हराया। वाग्मी : यह लेख पढ़ने-सुनने योग्य है । सुनिए,
"जितवृजिनजिनपतिमतपयर्पयोधिलीलासुधा कररु। चार्वाकाखर्चगर्वदुर्वारोर्वीधरोत्पाटनपटिष्ठनिष्ठुरोपालम्भदमोलिदण्डर अकुण्ठकण्ठ-कण्ठीरव-गंभीर-भूरि-भीम-ध्वान-निईलितदुईमेद्धबौद्धमदवेदण्डरु। अप्रतिहत-प्रसरदसम-लसदुपन्यसननित्यनैसित्व-पान-दानदलितनैयायिकनयनिकरलरु । चपलकपिलविपुलविपिनदहन-दावानलरु । शुम्भदम्भोद-नाद-नोदितविततवैशेषिकप्रकरमदमरालरु । शरदमलशशधर-करनिकर-नीहारहाराकारानुवति-कीर्तिवल्लीवेल्लिलतदिगन्तरालरुमप्पश्रीमन्महामण्डलाचार्यरु श्रीमद्देवकोतिपण्डितदेवरु ।
कुनमः कपिल-वादि-वनोग्र-वह नये चार्वाक्-वादि-मकराकर-वाडवाग्नये ।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेलगोल के शिलालेख...
83
श्रुतज्ञ
बौद्धग्रवादितिमिरप्रविभेदभानवे श्रीदेवकीतिमुनये कविवादिवाग्मिने ॥"
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के निर्मल ज्ञान का गुणगान सारे संसार में हो रहा है। उस ( ज्ञान - सागर ) के लिए जो चन्द्रमा के समान है; प्रतिवादी के परिहार के लिए बच्च है, चार्वाक् के अभिमान पर्वत को चूर करने वाले, अपराजेय बौद्धगज के मद को सिंह-गर्जना के भयंकर प्रहार से पराभूत करने वाले, नैयायिकों के गर्व के सरकण्डों को तीक्ष्ण बुद्धि के हँसिये से नष्ट करने वाले, अपनी अनुपम वाणी के धारावाही चमत्कार से चंचल-मति कपिल - सिद्धान्त को इस प्रकार दहन कर देने वाले जैसे दावानल; चारों ओर व्याप्त वैशेषकों के हंस-दल को अपनी गम्भीर वाणी की गर्जना से पलायन-प्रवृत्त करने वाले आदि ।
: आपने देखा होगा वाग्मीजी, लेख क्रमांक 77 में मुनि महेश्वर के विषय में कहा गया है कि उन्होंने 70 शास्त्रार्थों में प्रसिद्ध प्रतिद्वन्द्वियों को जीता। इसी प्रकार शत्रु-भयंकर के विशाल महल पर विज्ञप्ति लगा दी गई थी कि मुनि विमलचन्द्र ने पाशुपत, बौद्ध, कापालिक और कपिल - सिद्धान्त के मानने वालों को जब चुनौती दी, तो सब उद्विग्न हो गये ।
पुराविद् : यह तो वही लेख है जिसमें समन्तभद्र की शास्त्रार्थ विजय का उल्लेख है जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।
वाग्मी : मुझे एक दूसरे लेख का ध्यान आ रहा है । वह है लेख क्रमांक 360 जिसमें कहा गया है कि चारुकीर्ति का यश इतना प्रशस्त था, कि चार्वाकों को अपना अभिमान, सांख्य को अपनी उपाधियाँ, भट्ट को अपने सब साधन और कणाद को अपना छल छोड़ना पड़ा । कत्तले बसदि के लेख क्रमांक 79 में बड़े रोचक ढंग से गोपनन्दि आचार्य की शास्त्रार्थ - प्रतिभा का वर्णन है :
"मलेयदे शांख्य मट्टविरु भौतिक पोंगि कडंगि वागदि तोलतोलबुद्ध बौद्ध तले-दोरदे वैष्णववडंगडंगु वाग्बलद पोड वेड गड चार्व्वक चार्व्वक निम्म दर्पमं सलिपने गोपणन्दि - मुनिपुंगवनेम्ब मदान्ध सिन्धुरं ॥"
• अर्थात् 'सांख्यगणो ! विरोध न करो, चुप हो जाओ । भौतिक अहंकार से फूल न जाओ । बुद्धमान बौद्धो, अपना शीष न दिखाओ, जाओ, जाओ । ओ वैष्णवो अपने आपको छुपा लो, छुपा लो । ओ मृदुभाषी
,
चार्वाको, अपनी वाणी की शक्ति का अहंकार छोड़ दो। भला मुनि
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्रों के पार पुंगव गोपनन्दि, जो मत्त गज की भांति हैं, तुम्हारे दर्प को सहन करेंगे? आगे लिखा है : "षड्दर्शन के मार्ग पर चलने वाले विरोधी हाथियों को इस एक गज ने खदेड़कर भगा दिया। जैमिनी आतंकित हो गये, सुगत रुक गये और पराजय की मोहर लगा दी, अक्षपाद ने झट से चूड़ियां पहन लीं,
लोकायतों का गर्व खर्व हो गया और सांख्य प्राण बचाकर भागे।" पुराविद् : किन्तु यह लेख सन् 1398 का है। चौदहवीं शताब्दी के अन्त तक,
विशेषकर 11-12वीं शताब्दी में जैनाचार्यों का इतना अधिक प्रतिवाद हुआ और जैनधर्म पर इतने अत्याचार हुए कि आचार्यों और गुरुओं को अपने सिद्धान्त की श्रेष्ठता के लिए शास्त्रार्थ करने पड़े। जैन ज्ञान का तर्क और सिद्धान्तपक्ष बहुत प्रबल रहा आया और उसकी पृष्ठभूमि में इन आचार्यों का ज्ञान-बल ही उनका एकमात्र सहायक
था। शास्त्राचार्य का गर्व भी कितना वाचाल था! अनुज्ञा : कहते हैं जैन साधुओं में तप की सिद्धि के कारण अलौकिक चमत्कार
भी उत्पन्न हो जाते थे? वाग्मी : हाँ, ऐसे प्रसंग भी हैं कि किस प्रकार किसी मुनि ने किसी राजा के
सर्पदंश का विष दूर कर दिया। सिद्धर बसदि के स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख क्रमांक 360 में कहा गया है कि चारुकीति पाण्डित ने युद्ध क्षेत्र में मृतप्राय राजा बल्लाल को तत्काल स्वस्थ कर दिया था। उनके सम्बन्ध में एक दूसरे शिलालेख, क्रमांक 364 में कहा गया है कि चारुकीर्ति मुनि के शरीर को छूकर जो वायु प्रवाहित होती थी वह
रोगों को शान्त कर देती थी। भ्रतज्ञ : लेकिन, जैन मुनियों ने मन्त्र-तन्त्र और चमत्कार को धर्म-प्रचार का
साधन नहीं बनाया । बल्कि विचित्र बात तो यह है कि जैन शासन के पराभव की दुःखद घटना उक्त राजा बल्लाल के बाद सन् 1109 में विष्णुवर्धन बिट्टिगदेव के गद्दी पर बैठने के उपरान्त घटी। जैन सेनापतियों ने सहायता करके बिट्टिगदेव के राज्य को चोलों की अधीनता से मुक्त करवा दिया था। वह जैन धर्मावलम्बी था। किन्तु एक बार उसकी कन्या को किसी पिशाच ने ग्रस्त कर लिया। जैन आचार्य
और पण्डितों ने प्रयत्न किया, किन्तु कन्या पिशाच-मुक्त न हो पाई । तभी रामानुज आचार्य ने उसे स्वस्थ कर दिया । और भी अनेक चमत्कार उन्होंने किये । परिणाम यह हुआ कि विष्णुवर्धन बिट्ठिगदेव ने जैनधर्म का परित्याग कर दिया। इतना ही नहीं, उसने जैनियों
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेलगोल के शिलालेख...
को कोल्हू में पिलवा दिया।
पुराविद् : यह बात प्रचलित तो है, लेकिन ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि यद्यपि विष्णुवर्धन ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया था, किन्तु उसकी रानी शान्तलदेवी जैनधर्म की कट्टर भक्त थी । उसके पिता शेव थे, उसकी माता जिन भक्त थी । शान्तलदेवी ने अपने गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव की प्रेरणा से जैनधर्म की उन्नति के अनेक कार्य किये । उसने सन् 1123 में श्रवणबेलगोल में शान्तिनाथ भगवान की मूर्ति स्थापित की । शान्तलदेवी ने श्रवणबेलगोल का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया । मन्दिर का नाम भी विशेष - सर्वातिगन्धवारण, अर्थात् सोत रूपी हाथी के मद को चूर करने वाला, अथवा उच्छृंखल सौतों का गर्व चूर-चूर कर देने वाला मत्तहाथी ।
अनुगा : कोई रूपवती एवं गर्विता नारी ही ऐसा करेगी । पुराविद् : इसमें सन्देह नहीं कि शान्तल अत्यन्त रूपवती थी, गायन और नृत्य में कुशल | पति विष्णुवर्धन उसके दश में। साथ ही शिलालेख क्रमांक 176 और 162 में उसकी धार्मिकता की जो प्रशंसा लिखी है, वह भी उसके लिए गर्व की बात है । उनमें उसके पातिव्रत और धर्मपरायणता की भूरि-भूरि प्रशंसा है । उसे रुक्मिणी, सत्यभामा और सीता के समान कहा गया है । और, उसके वैराग्य की पराकाष्ठा यह कि 1131 ई० में उसने शिवगंग स्थान में सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण किया !
वाग्मी
त
85
वाग्मी
श्रुतज्ञ
: बार-बार कैसे यह तथ्य सामने आ जाता है कि अनेक सांसारिक उपलब्धियों - यश, मान-मर्यादा, रूप और गुण के गौरव के भोग के बीच के सांस्कृतिक प्रभाव में व्यक्ति अपने अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति से नहीं जैन धर्म चूकता वहाँ सब कुछ त्याग, संयम और प्राणीमात्र के लिए समभाव में समाविष्ट हो जाता है ।
: यह तीर्थंकरों की परम्परा का प्रताप है; गौतम गणधर और भद्रबाहु स्वामी जैसे निर्ग्रन्थ महामुनियों का प्रभाव है ।
: आचार्यों के इस प्रसंग में हम कुन्दकुदाचार्य का उल्लेख कैसे भूल गये ?
: उनका नाम मैं तो नहीं भूला । कैसे भूल सकते हैं उन्हें जो जैनधर्म के मंगल-स्मरण में भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद हृदय में विराजमान रहते हैं । प्रत्येक शास्त्र - सभा जिनके स्मरण से प्रारम्भ होती है । प्रत्येक गुरु-शिष्य-पट्टावली में जिनका नाम प्रमुख है। जैन सिद्धान्त के जो अद्वितीय आदि व्याख्याताओं में हैं । जो शौरसेनी
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पारं प्राकृत में 'समयसार' जैसे श्रेष्ठ सिद्धान्त-ग्रन्थों के रचनाकार हैं। मथुरा प्रदेश की शौरसेनी प्राकृत को अपनी भाषा का आधार बनाकर जिन्होंने उत्तर की भावधारा को दक्षिण में और दक्षिण की विचार
धारा को उत्तर में प्रवाहित किया। पुराविद् : श्रवणबेल्गोल के शिलालेख इनके पुण्य-स्मरण से पूरित हैं। श्रुतज्ञ : मूल संघ और कुन्दकुन्द-आम्नाय के आचार्यों की पट्टावली श्रवण
बेल्गोल के शिलालेखों के आधार पर ही तो तैयार की गई है। उसे देखें तो सही-कितनी विशाल और समर्थ ज्ञान-परम्परा है यह ! आचार्य
पदावली का प्रदर्शन] अनुगा : मेरा प्रश्न अधूरा रह गया। क्या जैनधर्म को विरोधियों का आक्रमण
सहन नहीं करना पड़ा ? इस बात का क्या आधार कि तन्त्र-मन्त्र के
चमत्कारों के कारण अन्य धर्मावलम्बी बांजी ले गये ? पुराविद : दसवीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रकूट और गंगराज वंश एक साथ
पतनोन्मुख हो गये । और, उनके साथ ही जैनधर्म का प्रभाव क्षीण होता गया। उधर वीरशैवों के प्रति जैन मान्यतावालों का उपेक्षा भाव रहा। जब बसवेश्वर ने शव धर्म का पुनरुद्धार किया और जैनियों का राज्यसंरक्षण प्रभावहीन हो गया तो बसव के उत्तराधिकारियों ने शान्तरों, चंगाल्वों और कारकल के भैरव ओडयरों, कुर्ग के राजाओं तथा अन्य छोटे-मोटे राज्यों के शासकों को जैनधर्म से पराङ्मुख बनाकर शवधर्म में दीक्षित कर लिया। यह इतिहास की स्वाभाविक गति थी। सन् 1195 के एक शिलालेख का उल्लेख 'मेडिवल जैनिज्म' के पृष्ठ 281 पर मिलता है जिसमें कहा गया है : "शिवभक्त एकान्त रामय्य समस्त शैव तीर्थों का दर्शन करने के पश्चात् पुलिगेरे आया। वहाँ के स्थानीय देवता सोमनाथ ने उसे जनों के विरुद्ध धर्मयुद्ध करने के लिए प्रेरित किया। अतः रामय्य जनों के एक प्रमुख केन्द्र अव्वलूर नामक स्थान में गया और उसने अपना प्रभुत्व प्रमाणित करने के लिए जैनों को चुनौती दी। उसने कहा कि वह अपने धर्म का महत्त्व प्रमाणित करने के लिए अपनी गरदन काट देगा और फिर शिव के प्रभाव से उसकी गरदन जुड़ जायेगी। यह सुन कर जैनों ने वचन दिया कि यदि वह ऐसा कर सकेगा तो हम लोग शवधर्म स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने एक ताड़पत्र पर इसको लिख भी दिया। रामय्य ने अपनी गरदन काटकर शिव को चढ़ा दी और सात दिन बाद उसकी गरदन पुनः जुड़ गयी। पश्चात रामय्य ने जैनों को सताया और उनकी मूर्तियां तोड़ डालीं। जैनों ने राजा विज्जल (1156
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख...
1167 ई०)से शिकायत की। राजा ने रामय्य को बुलाया। रामय्य ने वह ताड़पत्र दिखलाया जिस पर जैनों ने अपना वचन लिखा था। उसने पुनः जैनों को चुनौती दी कि वे अपने सात सौ मन्दिरों को ध्वंस कर दें तो वह पुनः अपना सिर काटकर सात दिन में उसे जोड़ सकता है। किन्तु जनों को उसकी चुनौती स्वीकार करने का साहस नहीं हुआ। राजा विज्जल ने रामय्य को विजयपत्र दिया और उसके देवता सोम
नाथ के नाम कई गांव दिये। वाग्मी : किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैनधर्म का प्रभाव इन घटनाओं के
कारण कर्नाटक प्रान्त से समाप्त हो गया। इतिहास की घटनाएँ आती और जाती हैं, किन्तु संस्कृति का वह प्रभाव जो जन-मानस में गहरे पैठ जाता है, जो भाषा, साहित्य और कला के माध्यम से स्थायी रूपाकार ले लेता है, वह समय के थपेड़ों को सहकर भी अक्षुण्ण
रहता है। श्रुतज्ञ : एक बात और भी है। यदि जैनधर्म और जैन धर्मायतनों के प्रति जनता
की सद्भावना न होती तो उसकी सुरक्षा ही नहीं हो सकती थी। वैष्णव और जैनियों के अनेक विवादों को शासकों ने समाप्त किया और सद्भाव बढ़ाया। शिलालेख क्र. 475 (शक सं० 1290) इस विषय में विशेष महत्त्व रखता है। यह लेख विजयनगर-काल के बुक्कराय प्रथम का है। लेख का प्रारम्भ रामानुज की स्तुति से होता
"रामानुजो विजयते यति राज-राज" फिर जो कहा गया है उसका अर्थ है : "वीर बुक्कराय के राज्य-काल में जैनियों और वैष्णवों में झगड़ा हो गया। तब जैनियों में से आनेयगोण्डि आदि नाडुओं ने बुक्कराय से प्रार्थना की। राजा ने जनियों और वैष्णवों के हाथ से हाथ मिला दिये और कहा कि जैन और वैष्णव दर्शनों में कोई भेद नहीं है। जैनदर्शन को पूर्ववत् ही पंच महावाद्य और कलश का अधिकार है । यदि जैनदर्शन को हानि या वृद्धि हुई तो वैष्णवों को इसे अपनी ही हानि या वृद्धि समझना चाहिये। श्रीवैष्णवों को इस विषय के शासन (आदेश) समस्त राज्य की बसदियों में लगा देना चाहिये। जैन और वैष्णव एक हैं, वे कभी दो न समझे जावें।" और भी, "श्रवणबेलगोल में वैष्णव अंग-रक्षकों की नियुक्ति के लिए राज्य भर में जैनियों से प्रत्येक घर के द्वार पीछे प्रतिवर्ष जो एक 'हण' लिया
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
80
अन्तर्द्वन्द्वी के पार जाता है उसमें से तिरुमल के तातय्य देव की रक्षा के लिए बीस रक्षक नियुक्त होंगे और शेष द्रव्य जैन मन्दिरों के जीपोंद्धार, पुताई आदि में खर्च किया जायेगा। यह नियम प्रतिवर्ष जब तक सूर्य-चन्द्र हैं तब तक रहेगा। जो कोई इसका उल्लंघन करे वह राज्य का, संघ का और समुदाय का द्रोही ठहरेगा। यदि कोई तपस्वी या ग्रामाधिकारी इस धर्म में प्रतिघात करेगा तो वह गंगातट पर एक कपिला गौ और
ब्राह्मण की हत्या का दोषी होगा।" वाग्मी : देखने की बात यह है कि कर्नाटक के शासकों ने किस प्रकार विभिन्न
धर्म के अनुयायियों से सद्भाव बनाये रखने का प्रयत्न किया। जैनियों के अधिकार की रक्षा का निर्णय, वैष्णवों के धर्म की शब्दावलि में इस प्रकार किया गया कि जनेतर व्यक्ति अपने वचन की रक्षा अपनी इष्ट-मान्यता की सौगन्ध खाकर करें।जनों या वैष्णवों के लिए इससे बड़ा अभिशाप और क्या होगा कि यदि वह वचनभंग करते हैं तो ब्राह्मण की हत्या और गौवध के दोषी होंगे। इस खोटे कर्म की जघन्यता पर जोर देने के लिए एक श्लोक भी अन्त में खुदवा दिया :
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेति वसुन्धराम् ।
षष्टिवर्ष-सहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ॥ .. अर्थात् भूमि (धर्म कार्य के लिए) स्वयं दी हो या उसे किसी अन्य ने दिया हो, जो उसका हरण करेगा वह छह हजार वर्ष तक विष्टा का
कीड़ा बना रहेगा। पुराविद् : कर्नाटक में यह विवाद जैनों और वैष्णवों का ही नहीं था, शैवों और
वैष्णवों में भी दार्शनिक सिद्धान्तों को लेकर भेद रहा-मूर्तियों और
उपासना की पद्धतियों के कारण विवाद बढ़ा। श्रतज्ञ : किन्तु प्रत्येक विवाद का हल समता-भाव के कारण निकलता गया।
शैव-वैष्णव विवाद का हल 'हरिहर' की संयुक्त मूर्ति की कल्पना द्वारा
कर लिया गया। वाग्मी : एक अर्थ में वीर-शैव धर्म के समर्थक गुरुओं ने समय को देखते हुए
सामाजिक और धार्मिक सुधार के आन्दोलन चलाये। जनता उनकी ओर आकृष्ट हुई। तब वैष्णवों और जैनों को भी सावधान होना पड़ा। सबने अपने अपने धर्म और दर्शन का प्रचार जोर-शोर से प्रारम्भ किया। बड़ी हलचल का समय था वह । यही कारण है कि इन शताब्दियों में अनेक आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। श्रुतज्ञ
जी, है न यह बात ! कुछ नाम बताइये। श्रुतज्ञ : अवश्य । कुछ आचार्यों के और उनके ग्रन्थों के नाम गिनवाता हूँ ।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
89
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख...
इनका उल्लेख शिलालेखों में है। ० लेख क्र. 360 के अनुसार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र की प्रति को शिवकोटि सूरि ने अलंकृत किया। लेख क्र. 77 (सन् 1129) में कतिपय शास्त्रकारों और उनकी रचनाओं का उल्लेख इस प्रकार है: वज्रनन्दि मुनि---नवस्तोत्र सुमतिदेव ------सुमतिशप्तक चिन्तामणि ---चिन्तामणि श्रीवर्द्धदेव ----चूड़ामणि चन्द्रकीति गणि-.-श्रुतबिन्दु
दयालपाल मुनि---रूपसिद्धि • लेख क्र. 71 (सन् 1163) के अनुसार पूज्यपाद देवनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक तथा समाधिशतक की, और
श्रुत-कीर्ति विद्य ने राघव-पांडवीय की रचना की। • लेख क्र. 569 के अनुसार श्रीपाल विद्यदेव ने विजयविलास तथा .. लेख क्र. 364(सन् 1432) के अनुसार चारुकीर्ति मुनि ने सारत्रय
और सिद्धान्तयोगी ने सिद्ध शास्त्र का प्रणयन किया। . लेख क्र. 360 में कुन्दकुन्दाचार्य के सम्बध में उनके इस अतिशय
का उल्लेख है कि वह आकाश-गमन कर सकते थे और पृथ्वी से
चार अंगुल ऊपर तो चलते ही थे। पुराविद् : हो सकता है, अलंकारिक भाषा में यह कहने का तात्पर्य हो कि वह
अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से अछूते रहते थे। श्रुतज्ञ : सचमुच, यही वाक्य ज्यों का त्यों वहां आया है। अनगा : महिलाओं के समाधिमरण के तो अनेक उल्लेख आपने बताये, किन्तु
उनके कृतित्व के कोई अन्य आयाम भी हैं ? श्रतज्ञ : वास्तव में श्रवणबेल्गोल के सारे परिवेश में महिलाओं की भक्ति, त्याग,
व्रतसाधना, सल्लेखना ही प्रमुख हैं। राज्य व्यवस्था में किसी महिला
का हाथ रहा हो, ऐसा कहीं मेरे देखने में नहीं आया। पुराविद : नहीं, ऐसा नहीं । इतिहास में उल्लेख है कि सन् 911 में जब नागर
खण्ड के अधिकारी सत्तरस नागार्जुन का देहान्त हो गया तो राजकाज का दायित्व उसकी पत्नी जाविकयब्बे को संभालना पड़ा। उसने बड़ी दक्षता के साथ राज्य-संचालन किया। बड़ी वीरांगना थी वह । और, जब उसका अन्त समय समीप आया तो उसने वन्दनि नामक स्थान पर समाधिमरण पूर्वक शरीर त्यागा।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
90
अन्तर्द्वन्द्वों के पार वाग्मी : रानियों और राजघरानों से सम्बन्धित महिलाओं के धार्मिक कार्यों का
प्रचुरता से उल्लेख है : (1) दसवीं शताब्दी की अत्तिमव्वे ने, जो सेनापति मल्लप की पुत्री और नागदेव की पत्नी थी, पोन्नकवि के शान्तिपुराण की एक हजार प्रतियां लिखवाकर शास्त्र-भण्डारों में भेजीं। पन्द्रह हजार मूर्तियां सोने और रत्नों की बनवायीं। (2) इसी काल की पामब्वे ने, जो राजा भूतुंग की बड़ी बहिन थी, तीस वर्ष तक तपस्या की । पोचव्वरसी, भाललदेवी, चट्टलदेवी,
महादेवी, पम्पादेवी आदि अनेक महिलाओं के नाम भी आते हैं। अनुगा : क्या कर्नाटक का कोई ऐसा राजवंश भी है जिसके प्रताप के साथ
महिलाओं की कीर्ति सबसे अधिक जुड़ी हुई है ? श्रुतज्ञ : क्या समझते हैं, पुराविद्जी ? पुराविद् : इस श्रेणी में मुझे तो होयसल वंश सर्वोपरि लगता है। सबसे अधिक
शिलालेख भी इसी वंश के व्यक्तियों के हैं । कालक्रम से विष्णुवर्धन के 10, नरसिंह प्रथम के 3, बल्लाल द्वितीय के 4, नरसिंहदेव द्वितीय के 3। फिर 12वीं शताब्दी के 19 और तेरहवीं के 4। विष्णुवर्धन के समय में पोयसल सेट्टि और नेमि सेट्टि की माताओं मच्चिकन्वे
और शान्तिकव्वे ने चन्द्रगिरि के तेरिन बसदि का निर्माण कराया और
फिर भानुकीर्ति मुनि से दीक्षा ले ली। (लेख 229, शक सं. 1039)। वाग्मी : शिलालेखों के अनुसार गंगराज का कृतित्व बहुत विशिष्ट है ! पुराविद् : अवश्य । वह विष्णुवर्द्धन नरेश के सहायक राजपुरुष थे। लेखों में
गंगराज की वंशावलि और उनकी उपलब्धियां विस्तार से दी गई हैं। लिखा है"जिस प्रकार इन्द्र का बज्र, बलराम का हल, विष्णु का चक्र, शक्तिधर की शक्ति और अर्जुन का गांडीव सहायक हैं उसी प्रकार विष्णुवर्द्धन के गंगराज सहायक थे।" कन्नेगल के युद्ध में गंगराज ने विष्णुवर्द्धन की ओर से चालुक्यों को
जीत लिया था और विष्णुवर्द्धन अत्यन्त प्रसन्न हुए थे। श्रुतज्ञ : आप तो जानते ही हैं पुराविद्जी, कि नरेश ने प्रसन्न होकर गंगराज
से कहा, 'आपकी जो मनोकामना हो कहें, मैं पूरी करूँगा।' और इस धर्मात्मा सेनापति ने विष्णुवर्द्धन से परम नामक गाँव मांगकर उन मन्दिरों को अर्पित कर दिया जो उसकी माता ने बनवाए थे। इसी प्रकार विजय के उपलक्ष्य में उसने राजा से गोविन्दगडि ग्राम मांगा और उसे गोम्मटेश्वर को अर्पित कर दिया।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल के शिलालेख...
वाग्गी : इस वंश के राजपुरुष और महिलाएं शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे।
सारा परिवार धर्म-रत था। गंगराज की भार्या लक्ष्मी ने अपने भाई बूच और बहिन देमेति की मृत्यु की स्मृति में शिलालेख लिखवाया, जैनाचार्य मेघचन्द्र की स्मृति में लेख उत्कीर्ण करवाया। इसी महिला ने एरडुकट्टे बसादि का निर्माण कराया। गंगराज की माता पोचब्बे की स्मृति में कत्तले बसदि नामक मन्दिर का निर्माण करवाया, शासन बसदि (इन्द्रकुलगृह) बनवाई। गंगराज ने अपनी बड़ी भाभी जक्कमब्बे (बम्मदेव की भार्या) की स्मृति में उसके सत्कार्यों का उल्लेख करने वाला लेख उत्कीर्ण करवाया । गोम्मटेश्वर का परकोटा
बनवाया । प्रत्येक कार्य का उल्लेख अलग-अलग शिलालेखों में है। अनुगा : किसी शिलालेख की कोई मनोरंजक बात? वाग्मी : श्रुतज्ञजी, बतायें, या पुराविद्जी ! पुराविद् : फिर तो सन् 982 के शिलालेख क्रमांक 163 की बात करनी होगी,
जिसमें राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र चतुर्थ की दक्षता का वर्णन है। अनुगा : युद्ध में वीरता का? पुराविद् : नहीं, 'पोलो' के खेल का-उसे पोलो ही कहना चाहिये । लिखा है :
"श्रीगे विजयक्के विद्देगे। चागक्कटिंगे जसके पेम्पिगि नित
गिरमिदेन्दु कन्दुकदागमदोले नेगल्गुमलते बीरर बीर । ओलगं दक्षिण सुकरदुष्करमं पोरगण सुकरदुष्करभेदमं ओलगे वामदविषममनल्लिय विषमदुष्करम निन्नदर पोरगग्गलिके येनिपति विषममनदरतिविषम दुष्करमेम्ब दुष्कर्म
एलेयोलोने चारिसल्बल्लंनाल्कुप्रकरणमुमनिन्द्रिराजं ।"... अर्थात् यह वीरों में वीर इन्द्रराज कन्दुक (गेंद) का खेल खेलता है, क्योंकि वह मानता है कि इस क्रीड़ा में श्रीवृद्धि है, विजय है, विद्याबुद्धि है, उदारता है, वीरता है, यश है, महानता है—सभी बातें हैं। संसार में इन्द्रराज ही एक ऐसा व्यक्ति है जो सभी प्रकार की कन्दुककला में दक्ष है। सुकर, दुष्कर, विषम और विषम-दुष्कर गति की गेंद वह चारों ओर फेंक सकता है। अन्दर, बाहर, दायें, बायें। चारों ओर फेंके जाने पर 338 चक्र बनते हैं। गेंद पर आघात लगाने के तो एक करोड़ तरीके हैं. और गेंद पर बल्ले का आघात इस तरह लगे कि ठीक निशाने पर जाये-न आगे बढ़ने पाए, न ओछी रह जाये । 'गेंद चाहे काली मिर्च से भी छोटी हो, स्टिक चार अंगुल से भी
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
छोटी हो, घोड़ा पर्वत से भी विशाल हो, घेरा पृथ्वी जैसा बड़ा ही क्यों न हो, इन्द्रराज को सन्तोष नहीं होगा तब तक जब तक वह
आठ या दस चक्र पूरे न कर ले। श्रुतज्ञ : आश्चर्य है ! वाग्मी : वास्तव में शिलालेख में तो कन्दुक-क्रीड़ा का वर्णन और भी विस्तार
से है-चौदहवें पद्य से चौबीसवें पद्य तक । पुराविद : सच बात तो यह है कि श्रवणबेल्गोल के शिलालेख ही इतने महत्त्वपूर्ण
हैं, सभी दृष्टियों से-धर्म, दर्शन, इतिहास, कला, साहित्य, आचारव्यवहार, सामाजिक दिग्दर्शन, काव्यमाधुरी, भाषाओं का समागम, कि अनेक विद्वान् वर्षों तक इनका अध्ययन करें तो अनेक-अनेक शोध
ग्रन्थ तैयार हो जायें। श्रुतज्ञ : हमने कितनी बातों की चर्चा की । मन होता है कि इस चर्चा के समा
हार में हम सब शिलालेखों में से एक-एक श्लोक का पाठ करें। पहले मैं पढ़ता हूँ
नागसेनमनघं गुणाधिकं नागनायकजितारिमण्डलम् ।
राजपूज्यममलश्रीयान्पवं कामदं हतमदं नमाम्यह ॥ वाग्मी : यवत्पदाम्बुजनतावनिपालमौलि
रत्नांशवोऽनिशममु विदषुः सरागम् । यवन्न वस्तु न वधून च वस्त्रजातं
नो यौवनं न च बलं न च भाग्यमितम् ॥ अनुगा : श्रीमत्परमगम्भीर-स्याबावामोघलांछने ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ पुराविद् : संसारवनमध्येऽस्मिनस्तदगान् जन-अमान् ।
आलोक्यालोक्य सद्वृत्तान् छिनत्ति यमतक्षकः॥
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड : पाँच
श्रवणबेल्गोल : तीर्थवन्दना
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
श्रवणबेल्गोल के परिवेश में जो महत्त्वपूर्ण स्थान तथा मन्दिर और स्मारक हैं उनका विभाजन और वर्णन इन चार शीर्षकों के अन्तर्गत हो सकता है :
(1) चन्द्रगिरि पहाड़ी (2) विध्यगिरि पहाड़ी (3) नगर-स्मारक (4) आस-पास के ग्राम।
चारों स्थानों में अनेक बसदियां (मन्दिर) हैं, स्मारक हैं, शिलालेख हैं, भव्य मूर्तियाँ हैं और वे गुफाएँ-कन्दराएँ हैं जहाँ सहस्रों मुनियों ने तपस्या की, सल्लेखना या समाधिमरण किया और अपने संयम का प्रभाव एवं जन-कल्याण के लिए धर्मोपदेश तथा मोक्ष-साधना का प्रमाण प्रस्तुत किया। श्रवणबेल्गोल की ऐतिहासिक महत्ता विशेष रूप से इस तथ्य में भी है, जैसा कि हम पिछले अध्याय में देख चुके हैं, कि वहां के इन स्मारकों और शिलालेखों में गुम्फित हैं उन राजारानियों, मन्त्रियों, सेनापतियों, श्रेष्ठियों और भक्त-जनों के नाम, जिनका सम्बन्ध कर्नाटक-इतिहास के गंग, राष्ट्रकूट, चालुक्य और होयसल आदि राजवंशों से था। संयम, भक्ति और योगसाधना का तथा जैनधर्म के प्रवक्ता और साधक दिगम्बर जैन मुनियों का ऐसा जीवन्त एवं प्रामाणिक इतिहास अन्यन्न दुर्लभ है। यही कारण है कि श्रवणबेल्गोल को पवित्रता और सांस्कृतिक भव्यता के प्रतीक-रूप में 'जैन काशी' या 'जन बद्री' का नाम दिया गया है।
1. चन्द्रगिरि चन्द्रगिरि का प्राचीन नाम कटवप्र (संस्कृत) और कल्बप्पु (कन्नड़) है । लोकभाषा में उसे तीर्थगिरि और ऋषिगिरि भी कहते हैं।
चन्द्रगिरि समुद्र तल से 3053 फुट ऊँची है। नीचे के मैदान से यह मात्र
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
75 फुट की ऊंचाई पर है । विन्ध्यगिरि की अपेक्षा यह पहाड़ी 274 फुट नीची है। तीर्थयात्रा के पवित्र संकल्प से जब हम चन्द्रगिरि की प्रदक्षिणा करने के लिए निकलते हैं तो प्रदक्षिणा का अर्थ है उन 12 बसदियों ( मन्दिरों) के दर्शन जो दीवार के 500 फुट लम्बाई और 225 फुट चौड़ाई के एक घेरे में प्रतिष्ठित हैं ।
96
पार्श्वनाथ बसदि
सबसे पहले हमें पार्श्वनाथ बसदि (मन्दिर) के दर्शन होते हैं । यह मन्दिर दक्षिण की द्राविडी शैली में निर्मित है ।
निर्माण की द्राविडी शैली का अर्थ है, स्थापत्य की एक विशेष शैली जिसमें निर्माण के कुछ अंग स्पष्ट दिखाई देते हैं । जैसे,
गर्भगृह - जिसमें तीर्थंकर की मूर्ति मूलनायक प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित होती है। गर्भगृह के अतिरिक्त कुछ अन्य पारिभाषिक शब्द जो इन मन्दिरों की नाव का वर्णन करते हुए प्रायः प्रयोग में आते हैं, ये हैं :
सुखनासिया शुकनासिका - शिखर के सामने वाले भाग से जुड़ा हुआ बाहर निकला भाग जिसमें कभी-कभी मन्दिर के गवाक्ष या झरोखों का भी प्रबन्ध होता है ।
मुखमण्डप - सामने का या प्रवेशद्वार का मण्डप |
नवरंग - वह महामण्डप जिसमें बीच में चार और बारह स्तम्भों की ऐसी संयोजना होती है कि उससे नौ खाँचे बन जाते हैं !
रंगमण्डप – खम्भों पर आधारित मण्डप जो चारों ओर से खुला हुआ होता है । इसे सभा मण्डप भी कहते हैं ।
पार्श्वनाथ बसदि की लम्बाई 59 फीट और चौड़ाई 29 फीट है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, मन्दिर की मुख्य मूर्ति तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है । यह 15 फुट ऊँची है और इसके मस्तक पर सात फणों वाले नाग की छाया है। मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है । मन्दिर के सामने बहुत बड़ा मानस्तम्भ है जिसके चारों मुखों पर यक्ष और यक्षियों की मूर्तियाँ खुदी हैं। नवरंग में जो लेख खुदा हुआ है उससे मालूम होता है कि मानस्तम्भ का निर्माण एक पुट्टेय सेठ द्वारा शक संवत् 1672 के आसपास हुआ होगा। नवरंग में एक विशाल लेख ( क्र. 77 ) खुदा है जो शक संवत् 1050 का है जिसमें मल्लिषेण मलधारि देव के समाधिमरण का संवाद है ।
कत्तले बसदि
कन्नड़ में कत्तले का अर्थ है अँधेरा । मन्दिर में पहले प्राय: अँधेरा ही रहता था । मन्दिर विशाल है - लम्बाई - घोड़ाई 124 X 40 फुट । मन्दिर पर शिखर नहीं है किन्तु लगता है कि पहले शिखर था जो मन्दिर के खुदे हुए मानचित्र में दिखाया
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
.. దందా జగత్తం ఆరుగురు సంతకాలం Fముదంతయపలందము
సుగుల సరసన దురందరు అంజనము డయుందురి
సదన మందులు ఉరటురామయ్య అది రజముంటుందో సమస్యత చదవడుగుతనం
10. TraffT IT ATHĀIITE T+~+ TT FTERAT TT ऊपरी भाग प्राचार्य मल्लिषेण की सल्लेखना का दृश्य
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
सा
11. गोम्मटेश्वर-मूर्ति के निकट एक शिलालेख का ऊपरी भाग
[भा० पु० स०, मैसूर]
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
12. चन्द्रगिरि का विहंगम दृश्य
[भा० पु० स०, नई दिल्ली]
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
13. चन्द्रगिरि पर कतिपय देवालय तथा प्राकृतिक पृष्ठभूमि
FTTTTT टिलती1
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
14. चन्द्रगिरि पर चामुण्डराय बसदि
[भा० पु० स०, मैसूर]
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
नि
15. चन्द्रगिरि पर पार्श्वनाथ बसदि और मानस्तम्भ
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
16. चन्द्रगिरि पर श्रुत केवली भद्रबाहु के चरण चिह्न
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
17. सर्वाह्ण यक्ष (चामुण्डराय बसदि)
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
गया है। इस विशाल भवन में कहीं कोई खिड़की नहीं, कोई दरवाजा नहीं। ऊपर से चारों ओर ऊंची दीवार है जो प्रकाश रोकती है। मन्दिर की मुख्य मूर्ति तीर्थंकर आदिनाथ की है, छह फुट ऊँची पद्मासन, मनमोहक । इसके दोनों ओर चौरीवाहक हैं। केवल यही एक मन्दिर है जिसके गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ है। 1118 ई. के एक लेख (क्र० 80) से स्पष्ट है कि इस मन्दिर का निर्माण होयसल नरेश विष्णुवर्धन के सेनापति गंगराज ने अपनी माता पोचब्बे के हेतु कराया था। महिलाओं की भक्ति की गाथा इस मन्दिर के साथ जुड़ी हुई है । एक तो पोचब्बे की भक्ति-भावना मन्दिर के निर्माण का प्रमुख कारण थी; साथ ही, सौ वर्ष बाद अन्य दो महिलाओं-देवी रुक्मिणी और केम्पम्मणि ने इसका जीर्णोद्धार कराया था।
चन्द गुप्त बसदि
यह मन्दिर स्वयं सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा निर्मित बताया जाता है। यह चन्द्रगिरि का सबसे छोटा जिनालय है। इसके तीन कोठों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ, पद्मावती और कूष्माण्डिनी की मूर्तियाँ हैं। बीच के कोठे के सामने सभाभवन है जिसमें क्षेत्रपाल की मूर्ति है। बरामदे के दायें छोर पर धरणेन्द्र यक्ष और बायें छोर पर सर्वाङ्ग यक्ष निर्मित हैं। बरामदे के सामने जो दरवाजा है, उसका कलाकौशल मनोहारी है। ____ चन्द्रगुप्त बसदि में जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है, वह है मण्डप की दीवार पर उकेरा गया जाली का काम, जिसमें 90 फलक या चित्रखण्ड हैं । इन फलकों में श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के जीवन के दृश्य अंकित हैं। यह फलक-समूह अपूर्व कौशल का नमूना है। फलकों का वर्णन पहले आ ही चुका है। इस जाली पर कलाकार का नाम 'दासोजः' लिखा है । मन्दिर के दोनों बाजुओं पर छोटे खुदावदार शिखर भी हैं।
शान्तिनाथ वसदि इसकी लम्बाई-चौड़ाई 24X16 फुट है। इसमें तीर्थंकर शान्तिनाथ की 11 फुट ऊँची मनोज्ञ खड्गासन प्रतिमा है। किंवदन्ती है कि श्री रामचन्द्रजी अपने दल-बल के साथ जिन दिनों यहां विश्राम कर रहे थे उस समय मन्दोदरी ने इस मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी थी। सुपार्श्वनाथ बसदि इसका आकार 25X14 फुट है। इसमें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की तीन फुट ऊंची पद्मासन प्रतिमा है जो सप्तनागफणी की छाया में विराजमान है।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
98
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
चन्द्रप्रभ बसदि
इस बसदि में चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की तीन फुट ऊंची मूल प्रतिमा प्रतिष्ठित है । सुखनासि में तीर्थंकर के यक्ष-यक्षी श्याम और ज्वालामालिनी प्रतिष्ठित हैं । मन्दिर के सामने की शिला पर लेख क्रमांक 140 में 'सिवमारन बसदि' अंकित है । इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण गंग-नरेश शिवमार द्वितीय ( लगभग 800 ई०) ने कराया ।
चामुण्डराय बसदि
विशाल भवन । आकार 69 X36 फुट । बनावट और सजावट में चन्द्रगिरि पर सबसे सुन्दर । शिल्पकला का एक अनूठा नमूना । इसके ऊपर दूसरा खण्ड और एक गुम्मद भी है।
मन्दिर में तीर्थंकर नेमिनाथ की 5 फुट ऊँची, मनोज्ञ मूर्ति विराजमान है । गर्भगृह के दरवाजे पर बाजुओं में यक्ष सर्वा और यक्षिणी कूष्माण्डिनी उत्कीर्ण हैं । इसकी बाहरी दीवारों, स्तम्भों, आलों में भी उकेरी हुई मूर्तियाँ हैं। बाहरी दरवाजे के दोनों बाजुओं पर नीचे की ओर लेख ( क्र० 151 ) है— 'श्री चामुन्डरायं माडिसिवं ।' तदनुसार इसे स्वयं चामुण्डराय ने 982 ई० के आसपास
बनवाया ।
मन्दिर के ऊपर के खण्ड में पार्श्वनाथ की तीन प्रतिमाएँ हैं। सिंहासन पर लेख (क्र० 150 ) है कि चामुण्डराय के पुत्र जिनदेव ने बेल्गोल में जिनमन्दिर निर्माण कराया । अर्थात् यह खण्ड पीछे बना ।
विशालता और कलात्मकता के साथ-साथ इस मन्दिर का अपना एक अन्य गौरव भी है। कहा जाता है कि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इसी मन्दिर में बैठकर जैन सिद्धान्त के महान् ग्रन्थ 'गोम्मटसार' की रचना की थी । शासन बसदि
इसका आकार 55X26 फुट है। शासन मन्दिर के दरवाजे पर एक लेख ( ० 82 ) है । लेख को ही 'शासन' कहते हैं। इसी से इसका नाम शासन बसदि पड़ा। इसके गर्भगृह में आदिनाथ की 5 फुट ऊँची मूर्ति है। उसके दोनों ओर चौरीवाहक हैं। शुकनासिका में गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी हैं । बाहरी दीवारों में स्तम्भों और आलों की सजावट है । उनके बीच-बीच में प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं । तीर्थंकर आदिनाथ के सिंहासन पर लेख ( क्र० 84 ) है जिसका अभिप्राय है कि गंगराज सेनापति ने 'इन्दिरा कुलगृह' नाम से इसे बनवाया था !
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
मज्जिगण बसवि ___ इस मन्दिर का आकार 32X19 फुट है । सम्भवतः किसी मज्जिगण नामक व्यक्ति ने इसका निर्माण कराया था। इसमें तीर्थंकर अनन्तनाथ की साढ़े तीन फुट ऊंची मूर्ति है। एरडकट्टे बसदि
इसका अर्थ है-उभयवेदिका मन्दिर । सीढ़ियों के दोनों ओर दो चबूतरे हैं। इसी कारण इस बसदि का यह नाम पड़ गया। इसका आकार 55X26 फुट है। इसमें तीर्थंकर आदिनाथ की प्रभावलि से अलंकृत 5 फुट ऊँची मूर्ति है। यहां पर उत्कीर्ण लेख (क्र० 160) के अनुसार, गंगराज सेनापति की भार्या लक्ष्मी ने इस बसदि का निर्माण कराया।
सवतिगन्धवारण बसदि
सतिगन्धवारण बसदि का अर्थ है-सौतों (सवति) के लिए मत्त हाथी। होयसल नरेश विष्णुवर्धन की रानी शान्तलदेवी का यह उपनाम है। मन्दिर विशाल है । आकार 69X35 फुट है। इसमें तीर्थंकर शान्तिनाथ की 5 फुट ऊंची मूर्ति है जिसके दोनों ओर चौरीवाहक हैं । शुकनासिका में यक्ष किम्पुरुष और यक्षिणी महामानसी चित्रित हैं । सिंहासन पर लेख (क्र० 161) शक संवत् 1144 का है । शान्तलदेवी के संबंध में पहले लिखा जा चुका है। तेरिन बसदि
सामने तेरु (रथ) के आकार का भवन है। आकार 70X26 फुट है । इसमें बाहुबली स्वामी की 5 फुट ऊँची मूर्ति है। सामने के नन्दीश्वर मन्दिर पर चारों
ओर 52 जिनमूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इसके शक संवत् 1038 के लेख (क्र. 170) से ज्ञात होता है कि पोयसल सेठ की माता माचिकब्बे और नेमि सेठ की माता शान्तिकब्बे ने इसे बनवाया था।
शान्तीश्वर बसदि ___ इसका आकार 56X30 फुट का है। इसमें तीर्थंकर शान्तिनाथ की मूर्ति है । यक्ष-यक्षी हैं। गुम्मट पर कारीगरी है । मन्दिर कुछ ऊंची सतह पर बना है। कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ
चन्द्रगिरि पर्वत के घेरे के दक्षिणी दरवाजे पर प्रतिष्ठित यह एक विशाल
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
100
अन्तद्वन्द्वों के पार
स्तम्भ है। इसके शिखर पर पूर्वमुखी ब्रह्मदेव की छोटी-सी पद्मासन मूति है। स्तम्भ की पीठिका आठ दिशाओं में आठ हाथियों पर आधारित थी। अब थोड़े से हाथी रह गये हैं। इसके चारों ओर लेख (ऋ० 64) है, जो गंगनरेश मारसिंह द्वितीय की मृत्यु (974 ई०) का स्मारक है। इससे ज्ञात होता है कि यह स्तम्भ इससे भी पहले बना होगा।
महानवमी मण्डप __नार स्तम्भों वाले दो मण्डप हैं। दोनों मण्डपों के मध्य में स्थित एक स्तम्भ के लेख (क्रमांक 73) में अंकित है कि यहां नयकीर्ति आचार्य का समाधिमरण हुआ और उनके श्रावक शिष्य नागदेव मन्त्री ने मण्डप का निर्माण करवाया।
ऐसे ही और भी अनेक मण्डप इस पर्वत पर विद्यमान हैं और उनमें लेखयुक्त स्तम्भ प्रतिष्ठित हैं।
भरतेश्वर ___ महानवमी भण्डप के पश्चिम की ओर एक भवन है। इसके समीप 9 फुट ऊंची मूर्ति है जो बाहुबली के भाई भरतेश्वर की बताई जाती है। एक भारी चट्टान में यह मूर्ति घुटनों तक बनाई जाकर अपूर्ण छोड़ दी गई है। वर्तमान अवस्था में यह समभंग मुद्रा में अवस्थित है। संभवतः इसे चन्द्रगिरि पहाड़ी के पश्चिमी परिसर में पड़े हए विशाल शिलाखण्ड को काटकर बनाया गया है । सम्बन्धित शिलालेख का कुछ भाग पढ़ा गया, जिससे अनुमान होता है कि इसे गुरु अरिष्टनेमि ने बनवाया था।
इरुवे ब्रह्मदेव मन्दिर
सारी पहाड़ी पर मेरे से बाहर केवल यही एक मन्दिर है। इसमें ब्रह्मदेव की मति है । इस मन्दिर के सामने एक बृहत् चट्टान है जिस पर जिन-प्रतिमाएँ, हाथी, स्तम्भ खुदे हुए हैं। खोदने वालों के नाम भी अंकित हैं। मन्दिर के दरवाजे पर लेख (क्र० 186) है जिसके अनुसार इस मन्दिर का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुमा था। ___ एक विशेष अतिशय इस मन्दिर का यह प्रचलित है कि लोग यहां आकर दही द्वारा अभिषेक की मनौती पूरी करते हैं तो उनके घर से चींटियां चली जाती हैं। कञ्चिन दोणे
'कञ्चिन' का अर्थ है 'कांसा', जिस धातु से घण्टा आदि बनाये जाते हैं और 'दोण' का अर्थ है-कुण्ड। किन्तु इसका आशय पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता है । यहाँ
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
101
चौकोर घेरे के भीतर चट्टान में एक कुण्ड है। कुण्ड के भीतर स्तम्भ है जिस पर लेख (क्र. 211) में लिखा है -"मानभ आनन्द-संवच्छदल्लि कट्टिसिब दोगेयु अर्थात् मानव ने आनन्द संवत्सर (शक संवत् 1116) में इसे बनवाया। लक्कि दोणे ___ इसका अर्थ है लक्कि नामक महिला द्वारा निर्मित कुण्ड । कुण्ड से पश्चिम की ओर एक चट्टान है जिस पर 31 छोटे-छोटे लेख (क्रमांक 219 से 249) हैं जिनमें यात्रियों, आचार्यों, कवियों तथा राजपुरुषों के नाम अंकित हैं।
भद्रबाहु गुफा
अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने यहां शरीर त्याग किया था। यहां पर उनके चरण अंकित हैं। एक लेख (क्र. 251) यहां पाया गया था, किन्तु अब वह यहाँ नहीं है । कहा जाता है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य अपनी मुनि-अवस्था में यहीं पर तपश्चरण करते हुए आचार्य भद्रबाहु की उनके अन्तिम समय तक सेवा-सुश्रुषा करते रहे। यह भी मान्यता है कि लगातार 48 दिनों तक इन चरणों की पूजा करने से भक्त की मनोकामना पूरी हो जाती है।
चामुण्डराय को शिला
चन्द्रगिरि के नीचे एक चट्टान इस नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है, चामुण्डराय ने इसी शिला पर खड़े होकर विन्ध्यगिरि पर सोने का बाण छोड़ा था, जिसके फलस्वरूप विश्ववन्ध गोम्मटेश्वर मूर्ति का ऊपरी भाग प्रकट हुआ था। शिला पर कई जैन गुरुओं के आकार और उनके नाम भी उत्कीर्ण हैं।
2. विन्ध्यगिरि विन्ध्यगिरि को 'दोड्ड बेट्ट' (बड़ी पहाड़ी) या 'इन्द्रगिरि' भी कहते हैं। यह समुद्रतल से 3347 फुट और नीचे मैदान से 470 फुट ऊँची है। शिखर पर पहुंचने के लिए 650 सीढ़ियां पत्थरों को काटकर बनाई गई हैं। ऊपर समतल चौक एक घेरे से घिरा है। घेरे में बीच-बीच में तलघर हैं जिनमें जिन-प्रतिमाएं विराजमान हैं। घेरे के चारों ओर कुछ दूरी पर भारी दीवार है जो कहीं-कहीं प्राकृतिक शिलाओं से बनी है। चौक के ठीक बीचों-बीच गोम्मटेश्वर की विशाल खड्गासन मूर्ति है जो अपनी दिव्यता से स सारे भूभाग को अलंकृत कर रही है । गोम्मटेश्वर को इस विश्ववन्द्य प्रतिमा का वर्णन हम कर चुके हैं।
मूर्ति-विवरण एक लेख (ऋ० 336) में दिया है। यह लेख एक छोटा-सा कन्नड़ काव्य है। यह 1180 ई. के लगभग वोप्पण कवि द्वारा रचा गया है।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
102
अन्तर्द्वन्द्रों के पार
गोम्मटेश्वर मूर्ति के दोनों बाजुओं पर यक्ष-यक्षिणी की भूतियां हैं जिनके एक हाथ में चोरी और दूसरे में कोई फल है। गोम्मटेश्वर मूर्ति की बायीं ओर गोल पाषाण का पात्र है जिसमें मूर्ति के अभिषेक का जल एकत्र होता है । इस पर 'ललित सरोवर' नाम खुदा है। पाषाण-पत्र भर जाने पर अभिषेक का जल एक नाली द्वारा मूर्ति के सम्मुख कुएँ में पहुँचता है, वहाँ से मन्दिर की सरहद के बाहर 'गुल्लकायज्जि बागिलु' नाम कन्दरा में पहुंचा दिया जाता है । मूर्ति के सम्मुख का मण्डप सुन्दर खचित नव छत्रों से सजा हुआ है । आठ छत्रों पर आष्ट दिक्पाल की मूर्तियां हैं। बीच की नौवीं छत पर गोम्मटेश्वर के अभिषेक के लिए हाथ में कलश लिये इन्द्र की मूर्ति है। इसकी छत में उत्कीर्ण शिलालेख क्र० 322 से अनुमान होता है कि बलदेव' मन्त्री ने 12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह मण्डप, और लेख ऋ० 373 के अनुसार सेनापति भरतमय्य ने इस मण्डप का कठघरा (हप्पलिगे) निर्माण कराया था। ___ और भी अनेक लेख हैं जिनसे पता चलता है कि कठघरे की दीवार और चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य बसविसेट्टि ने निर्माण करायीं तथा उनके पुत्रों ने प्रतिमाओं के सम्मुख जालीदार खिड़कियां बनवायीं। इसी प्रकार चंगाल्वनरेश महादेव के प्रधान सचिव केशवनाथ के पुत्र चन्न बोम्मरस और नंजरायपट्टन के श्रावकों ने गोम्मटेश्वर-मण्डप के ऊपर के खण्ड का जीर्णोद्धार कराया।
परकोटा
इसका निर्माण होयसल नरेश विष्णुवर्धन के सेनापति गंगराज ने शक सं० 1039 के आसपास कराया । यह विवरण लेख क्र० 276, 272-74, 154, 158, 342, 547 में मिलता है । परकोटे के भीतर मण्डपों में अगल-बगल 43 जिनमर्तियां प्रतिष्ठित हैं। अधिकांश मूर्तियाँ चार फुट ऊँची हैं। इनमें पद्मप्रभु तीर्थंकर की मूर्ति नहीं है। एक अज्ञात मूर्ति डेढ़ फुट ऊँची है। परकोटे के द्वार के दोनों बाजुओं पर छह-छह फुट ऊंचे द्वारपाल हैं। परकोटे की दीवार पर तीन ओर देवी-देवताओं और पशु-पक्षियों के विविध मुद्राओं में ऐसे अद्भुत और मनोवैज्ञानिक चित्र उकेरे गये हैं कि सारी प्रकृति मानव की सहचरी हो गई है।
। गोम्मटेश्वर देव के ठीक सामने छह फुट ऊँचाई पर ब्रह्मदेव स्तम्भ है । यहाँ ब्रह्मदेव की पद्मासन मूर्ति है। स्तम्भ के नीचे पाँच फुट ऊँची गुल्लकायज्जी की मूर्ति है जिसके हाथ में गुल्लकायि (फल) है। यह स्तम्भ और मूर्ति स्वयं चामुण्डराय द्वारा निर्मित बताई जाती है।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
103
सिद्धर बसदि
यह छोटा-सा मन्दिर है । इसमें सिद्ध भगवान की 3 फुट ऊंची मूर्ति विराजमान है । मूर्ति के दोनों ओर 6-6 खचित कलात्मक स्तम्भ हैं। दायीं ओर के स्तम्भ पर अर्हद्दास कवि का पण्डितार्य की प्रशस्ति वाला लेख (क्र. 360) है। इस स्तम्भ में पीठिका पर विराजमान एक आचार्य अपने शिष्य को उपदेश देते दिखाए गए हैं। दूसरे चित्र में जिनमूर्ति उत्कीर्ण है।
प्रखण्ड बागिलु
यह द्वार का नाम है । पूरा दरवाजा अखण्ड शिला को काटकर बनाया गया है। द्वार के ऊपरी भाग में लक्ष्मी की पद्मासन मूर्ति का दोनों ओर से हाथी अभिषेक कर रहे हैं । दरवाजे की दायीं ओर बाहुबली और बायीं ओर भरत की मूर्तियां हैं जो दण्डनायक भरतेश्वर द्वारा शक संवत् 1052 के आसपास प्रतिष्ठित की गई थीं।
सिद्धरगुण्ड
यह एक शिला है जिस पर अनेक लेख हैं। ऊपरी भाग की कई पंक्तियों में जैनाचार्यों के चित्र हैं, उनके नाम भी हैं । भरत-बाहुबली, उनके निन्यानवे भाई तथा ब्राह्मी और सुन्दरी की मूर्तियां भी यहां दर्शायी गई हैं। गुल्लिकायज्जि बागिलु ___ यह दूसरे द्वार का नाम है। द्वार के दाहिनी ओर एक शिला पर एक स्त्री बैठी है जिसका चित्र भी खुदा है। सम्भवतया इसे गलत नाम दे दिया गया है। लेख (क्र० 358) के अनुसार यह मल्लिसेट्टि की पुत्री का चित्र होना चाहिये।
त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ
यह 'चागद कम्ब' भी कहलाता है। यहां दान दिया जाता था अतः त्यागद नाम पड़ा। अद्भुत शिल्प है इस स्तम्भ का। यह मानो अधर में स्थित है और इसके नीचे से रुमाल निकाला जा सकता है। स्तम्भ के एक कोने का अंश मात्र पीठिका का स्पर्श करता है। लेख क्र. 388 के अनुसार यह चामुण्डराय द्वारा स्थापित है। लेख में उनके प्रताप का वर्णन है। यह लेख पूरा नहीं मिलता। पूरा होता तो बहुत से तथ्य प्रमाणित रूप से विदित हो जाते। शायद हेग्गडे कण्न ने अपना छोटा-सा लेख (क्र. 389) लिखाने के लिए चामुण्डराय का लेख घिसवा डाला। यह तथ्य बड़ा दारुण है।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
104
अन्तद्वंन्द्रों के पार __ स्तम्भ की पीठिका के दक्षिण बाजू पर दो मूर्तियां खुदी हैं । एक मूर्ति, जिसके दोनों ओर चंवरवाही खड़े हुए हैं, चामुण्डराय की है और सामने वाली मूर्ति उनके गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रदर्ती की कही जाती है।
चेन्नग्ण बसदि
इसमें चन्द्रप्रभु की ढाई फुट ऊँची मूर्ति है । बसदि के सामने मानस्तम्भ है। लेख क्र० 540 के अनुसार इसे चेन्नण्ण और उसकी धर्मपत्नी ने शक संवत् 1596 में बनवाया था। इस दम्पती की मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण हैं। यह बसदि त्यागद स्तम्भ की पश्चिम दिशा में है।
मोदेगल बसवि
इसे त्रिकूट बसदि भी कहते हैं, क्योंकि इसमें तीन गर्भगृह हैं। मन्दिर ऊँची सतह पर है, सीढ़ियों से जाना पड़ता है। ओदेगल से तात्पर्य है कि पाषाणों का आधार देकर इस बसदि की दीवारों को मजबूत किया गया है। तीन गुफाओं में पद्मासन तीन मूर्तियां--तीर्थकर नेमिनाथ, आदिनाथ और शान्तिनाथ की हैं। पश्चिम की ओर चट्टान पर नागरी अक्षरों में 27 लेख (क्र. 391-417) उत्कीर्ण हैं जिसमें अधिकतर तीर्थयात्रियों के नाम हैं । बीच में पत्थर का कमल निर्मित है। चौबीस तीर्थकर बसदि
यह छोटा-सा देवालय है । यहां डेढ़ फुट ऊँचे एक पाषाण पर चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । नीचे एक पंक्ति में तीन बड़ी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। लेख क्र० 422 के अनुसार चौबीसी की स्थापना चारुकीति पण्डित धर्मचन्द्र आदि द्वारा शक संवत् 1570 में कराई गई थी। ब्रह्मदेव मन्दिर
विन्ध्यगिरि की नीचे की सीढ़ियों के पास एक छोटा-सा मन्दिर है। इसमें सिन्दूर से रंगा हुआ एक पाषाण है जिसको लोग 'जारुगुप्पे अप्प' या 'ब्रह्म' कहते हैं। लेख क्र. 439 के अनुसार शक संवत् 1600 में इसका निर्माण हिरिसालि निवासी गिरिगौड के छोटे भाई रंगय्य ने कराया था।
3. नगर-स्मारक
भण्डारि बसदि
यह नगर का सबसे बड़ा मन्दिर है। इसका आकार 266x58 फुट है।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
(AL
18. जिननाथपुर में शान्तिनाथ मन्दिर की बाह्य-भिति का कलावैभव
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
105
होयसल नरेश नरसिंह प्रथम के भण्डारि हुल्ल ने इसका निर्माण कराया था। गर्मगृह में सुन्दर चित्रमय वेदी पर चौबीस तीर्थंकरों की तीन-तीन फुट ऊंची मूर्तियां हैं। तीन दरवाजों पर जालियां बनी हैं। सुखनासि में पद्मावती और ब्रह्म की मूर्तियाँ हैं । नवरंग के चार खम्भों के बीच जमीन पर 10 फुट के चौकोर पत्थर जड़े हैं । आगे के भाग और बरामदे में भी इतने बड़े पत्थर लगे हुए हैं। ये भारीभारी पत्थर कैसे लाये गये, देखकर आश्चर्य होता है। नवरंग की चित्रकारी में सुन्दर लताएँ, मनुष्य, पशु उत्कीर्ण हैं। बरामदा मुख्य भवन के चारों ओर है। मन्दिर के सामने मानस्तम्भ है। शक संवत् 1081 के लेख (ऋ० 476) में मन्दिर के निर्माता हुल्ल और मन्दिर का वर्णन है।
अक्कन बसदि
होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय के ब्राह्मण मन्त्री चन्द्रमौलि की जैन धर्मावलम्बिनी भार्या आचियक्क ने शक संवत् 1103 में इस मन्दिर का निर्माण कराया, यह इसके लेख क्र० 444 से ज्ञात होता है। गर्भगृह में फणावलि सहित पार्दनाथ की 5 फुट ऊँची भव्य मूर्ति है। सुखनासि में आमने-सामने पंचफणी धरणेन्द्र तथा पद्मावती की साढ़े तीन फुट ऊँची मूर्तियां हैं। द्वार के आस-पास जालियां हैं। नवरंग के काले पाषाण के, आइने के सदृश चमकीले, चार स्तम्भ
और कुशल कारीगरी-पूर्ण नवछत्र हैं। गुम्मट में अनेक जिनमूर्तियां चित्रित हैं। शिखर पर सिंह-ललाट है। यह होयसल कला का अनुपम नमूना है।
सिद्धान्त बसदि
___ कहा जाता है कि जैन वाङ्मय की निधि सिद्धान्त-ग्रन्थ यहाँ एक बन्द कमरे में सुरक्षित रखे जाते थे। यहाँ से ही ये धबल, महावल, आदि ग्रन्थ मूडबिद्री गये हैं । मन्दिर के बीच में पार्श्वनाथ-मूर्ति है। उसके आस-पास शेष 23 तीर्थकरों की मूर्तियां हैं ! लेख क्र. 454 से ज्ञात होता है कि शक संवत् 1620 में उत्तर भारत के किसी यात्री द्वारा यह चतुर्विंशति तीर्थकर-मूर्ति प्रतिष्ठित की गई थी।
दानशाले बसदि
यह छोटा-सा देवालय है। इसमें तीन फुट ऊँचे पाषाण पर पंचपरमेष्ठी की प्रतिमाएं हैं । जैसा कि नाम से ज्ञात होता है पहले यहाँ दान दिया जाता रहा होगा। इस बसदि के लिए मदनेय नामक ग्राम दान में दिये जाने का उल्लेख भी मिलता है।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
106
अन्तर्द्वन्द्रों के पार
नगर जिनालय
यह नगर के महाजनों के द्वारा रक्षित था। इसका एक अन्य नाम 'श्रीनिलय' भी रहा आया। इसमें आदिनाथ की ढाई फुट ऊँची मूर्ति है। नवरंग के बाईं ओर एक गुफा में ब्रह्मदेव की दो फुट ऊँची मूर्ति है जिसके दायें हाथ में फल और बायें हाथ में कोड़े जैसी कोई वस्तु है। उसके पैरों में खड़ाऊं हैं । पीठिका पर घोड़े का चिह्न है । लेख क्र० 457 के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण नागदेव मन्त्री के द्वारा शक संवत् 1118 में हुआ था। इस लेख में गुरु नयकीर्तिदेव की निषद्या तथा 'नृत्यरंग' और 'अश्मकुट्टिम' (पाषाण-भूमि) के निर्माण का उल्लेख भी है। मंगायि बसदि
त्रिभुवनचूड़ामणि मंगायि ने इस मन्दिर का निर्माण कराया था। इसमें शान्तिनाथ की साढ़े चार फुट ऊँची मति है जिसकी प्रतिष्ठा विजयनगर देवराय महाराज की रानी भीमादेवी ने करायी थी। नवरंग में वर्धमान स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठापना पण्डित देव को शिष्या वसतायि द्वारा हुई थी। मन्दिर के सम्मुख दो सुन्दर हाथी बने हैं।
जैन मठ ___ यह स्वस्ति श्री भट्टारक स्वामी का निवास-स्थान है। इसमें एक सुन्दर खुला आंगन है । मण्डप-स्तम्भों पर चित्रकारी है। तीन गर्भगृहों में पाषाण और धातु की अनेक प्रतिमाएं हैं। __ कुछ मूर्तियाँ बहुत अर्वाचीन हैं जिन पर संस्कृत व तमिल भाषा के लेख हैं। ये ग्रन्थ-लिपि में लिखे हैं। अधिकांश मतियाँ तमिलनाडु के जैन बन्धुओं द्वारा प्रतिष्ठित हैं । नवदेवता बिम्ब में पंचपरमेष्ठी, जिनधर्म,जिनागम, चैत्य, चैत्यालय आदि चित्रित हैं। मठ की दीवारों पर तीर्थंकरों और जैन राजाओं के जीवन-चित्र, दशहरा-दरबार का चित्रण, पार्श्वनाथ का समवसरण, भरत और चक्रवर्ती के जीवन-चित्र, नागकुमार के जीवन-वृतान्त और वन-दृश्य में षड्लेश्याओं का चित्रण आकर्षक हैं। __ ऊपर की मंजिल में पार्श्वनाथ मूर्ति है। काले पाषाण पर चौबीस तीर्थकर उत्कीर्ण हैं । चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर मूर्ति की स्थापना के उपरान्त अपने गुरु नेमिचन्द्र को यहाँ मठाधीश नियुक्त किया था। वैसे यह गुरु-परम्परा और भी पहले से चली आ रही थी। लेख क्र. 360 तथा 364 के अनुसार यहाँ पर आसीन गुरु चारुकीति पण्डित ने होयसल नरेश बल्लाल प्रथम (1100-1106) को व्याधिमुक्त करके 'बल्लाल-जीवरक्षक' की उपाधि प्राप्त की थी।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
107
कल्याणी सरोवर
यह नगर के बीच में है। इसके चारों ओर सीढ़ियां और शिखरबद्ध दीवार है। एक सभा-मण्डप है। उसके एक स्तम्भ पर लेख (ऋ० 501) है जिसके अनुसार इस सरोवर को चिक्कदेव राजेन्द्र ने बनवाया था। यह वही सरोवर है जिसके नाम पर बेल्गोल का नामकरण हुआ। एक समय सरोवर के चारों ओर प्राकृतिक सुषमा का विस्तार था। किन्हीं अर्थों में आज भी है। अब नयी निर्माण-पद्धतियों द्वारा इस सरोवर का परिष्कार किया गया है।
जक्कि कट्टे
यह दूसरा सरोवर है। पास की दो चट्टानों पर जैन मूर्तियों के लेख (क्र. 503-504) से ज्ञात होता है कि वोप्पदेव की माता, गंगराज के बड़े भाई की पत्नी, शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या जक्किमब्वे ने इन मूर्तियों और इस सरोवर का निर्माण कराया था।
चेन्नण कुण्ड
चेन्नण्ण कुण्ड के निर्माता वही चेन्नण्ण हैं जिनकी कृतियों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में है। लेख क्र०.480 से ज्ञात होता है कि इस कुण्ड का निर्माण शक संवत् 1595 के आस-पास हुआ था।
4. आसपास के ग्राम
जिननाथपुर : शान्तिनाथ बसदि
नगर से उत्तर की ओर यह एक मील दूरी पर है । लेख क्र० 538 के अनुसार होयसल नरेश विष्णुवर्धन के सेनापति गंगराज ने शक संवत् 1040 के आसपास इसे बसाया था। मैसूर राज्य के समस्त मन्दिरों में सबसे अधिक आभूषित है यह बसदि, और है यह होयसल शिल्पकारी का सबसे सुन्दर नमूना। इसमें शान्तिनाथ भगवान की साढ़े पांच फुट ऊंची भव्य एवं दर्शनीय मूर्ति है। यह प्रभावली से और दोनों ओर चमरवाहियों से सुसज्जित है। नवरंग के चार स्तम्भ मूंगे की कारीगरी के नमूने हैं। सुन्दर नवछत है तथा बाहरी दीवारी पर तीर्थकर, यक्ष, यक्षी, ब्रह्म, सरस्वती, मन्मथ, मोहिनी, नृत्यकारिणी, गायक, वादित्रवाही आदि के चित्र हैं। इसका लेख (क्र. 526) शक संवत् 1120 (जीर्णोद्धार 1553 में) इस मन्दिर का निर्माण-काल दर्शाता है। तदनुसार इस मन्दिर को 'वसुधकबान्धव' रेचिमय्य सेनापति ने बनवाकर सागरनन्दि सिद्धान्तदेव के अधिकार में दे दिया था। रेचिमस्य
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
कलचुरिनरेश के मन्त्री थे । बाद में उन्होंने होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय (1173-1220 ) का आश्रय ले लिया था ।
108
जिननाथपुर : अरेगल्लु बसदि
यह अरेगल्लु (चट्टान) पर स्थित है । शान्तिनाथ मन्दिर से भी यह पुराना है। इसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की 5 फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति है । सुखनासि में धरणेन्द्र पद्मावती के सुन्दर चित्र हैं । मूर्ति की पीठिका पर के लेख (क्र० 530 ) से ज्ञात होता है कि शक संवत् 1812 में इसे बेल्गुल के मुजबलेय्य ने प्रतिष्ठित कराया था । यहाँ की प्राचीन मूर्ति बहुत खण्डित हो गई थी जो आज भी पास के तालाब में पड़ी है। उसका छत्र मन्दिर के द्वार के पास रखा है । इस मन्दिर की अन्य मूर्तियां 24 तीर्थंकर, पंचपरमेष्ठी, नवदेवता, नन्दीश्वर आदि धातु-निर्मित हैं ।
समाधि मण्डप
यहाँ गाँव में एक समाधि-मण्डप है जिसे 'शिलाकूट' कहते हैं। यह 4X4 फुट का है। ऊँचाई 5 फुट है । ऊपर शिखर है । चारों ओर द्वारहीन दीवारें हैं। इसके लेख क्र० 539 से ज्ञात होता है कि यह बालचन देव के पुत्र ( मृत्यु : शक संवत् 1136 ) की निषद्या है । कालब्बे नामक एक साध्वी स्त्री द्वारा भी यहाँ सल्लेखना - विधि से शरीर त्याग किये जाने का उल्लेख है ।
ऐसा एक समाधि - मण्डप तावरेकेरे सरोवार के समीप भी है । लेख क्र० 497 के अनुसार यह चारुकीर्ति पण्डित की निषद्या है जिनकी मृत्यु शक संवत् 1565 में हुई।
जिननाथपुर में एक दानशाला भी थी जिसे लेख क्र० 71 के अनुसार देवकीर्ति पण्डित ( मृत्यु : शक संवत् 1085 ) ने इसे बनवाया था ।
हले बेलगोल
I
यह श्रवणबेलगोल से 4 मील उत्तर की ओर है। यहां का जैन मन्दिर होयसल शिल्पकारी का नमूना है। यह अब ध्वंस अवस्था में है। गर्भगृह में ढाई फुट ऊँची खड्गासन मूर्ति है । सुखनासि में 5 फुट ऊँची सप्तफणी पार्श्वनाथ खण्डित मूर्ति है | नवरंग में अच्छी चित्रकारी है । बीच की छत पर देवियों सहित रथारूढ अष्टदिक्पालों के चित्र अंकित हैं । बीच में धरणेन्द्र का सप्तफणी चित्र है जिसके बायें हाथ में धनुष और दाहिने हाथ में सम्भवतः शंख है । द्वार पर आकर्षक कारीगरी हैं । इसके लेख ( ० 568) से ज्ञात होता है कि विष्णुवर्धन के पिता होयसल एरेयंग ने गुरु गोपनन्दि को बेल्गोल के मन्दिरों के जीर्णोद्धार के
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारक चतुष्टय
109
के लिए राचनहल्ल ग्राम का दान दिया था। मन्दिर का निर्माण-काल 1016 है। इस ग्राम में एक शव और एक वैष्णव मन्दिर भी है। यहां के तालाब की नहर में टूटे हुए मन्दिरों का मसाला लगाया गया है। यह इस बात का संकेत करता है कि यहाँ और अधिक मन्दिर रहे होंगे।
ग्राम साहल्लि
यह श्रवणबेल्गोल से 3 मील दूर है। यहाँ एक ध्वस्त जैन मन्दिर है । लेख क्र० 550 के अनुसार इसे गंगराज की भावज जविकमव्वे ने बनवाया था। (संदर्भ ऊपर भी आ चुका है।)
कम्बदहल्ली
श्रवणबेल्गोल से यह स्थान 11 मील दूर है। यहां एक कलापूर्ण स्तम्भ है जिसके ऊपर ब्रह्मयक्ष की मूर्ति है। इसके समीप ही सात पाषाण-निर्मित जैन मन्दिर हैं। यहां के एक शान्तिनाथ मन्दिर में तीर्थंकर शान्तिनाथ की 12 फुट उत्तुंग मनोज मूर्ति है। सेनापति गंगराज के पुत्र बोप्पण ने इसका निर्माण कराया था । कम्बदहली का शिल्प और कलाकौशल इतना अद्भुत है कि जिसे देखकर आज का कलाकार या स्थपति चकित-सा रह जाता है।
COM
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाहुबली-मूर्तियों की परम्परा
वीर-मार्तण्ड चामुण्डराय ने भगवान् बाहुबली की विश्व-वन्द्य मूर्ति की प्रतिष्ठपना करके जिस विशालता, भव्यता और वीतरागता को अलौकिक कला में रूपान्तरित किया, उसने आगे की शताब्दियों के श्रीमन्तों और कलावन्तों को इतना अधिक प्रभावित किया कि बाहुबली की विशाल मूर्ति का नव-निर्माण उनके जीवन की साध बन गयी । बाहुबली यद्यपि तीर्थंकर नहीं थे, किन्तु उपासकों ने उन्हें तीर्थंकर के समकक्ष पद दिया। ऐसा ही अनुपम रहा है उनका कृतित्व जिसे हम पिछले अध्यायों में देख चुके हैं। कर्नाटक में जन-सामान्य के लिए तो वह मात्र देवता हैं-तीर्थंकर, जिन, कामदेव के नामों और उपाधियों से परे।)
। दक्षिण कर्नाटक में, मूडबिद्रि से उत्तर में 15 कि० मी० की दूरी पर स्थित कारकल में सन् 1432 में लगभग 41-1/2 फुट ऊंची प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई जिसे राजपुरुष वीरपांड्य ने जैनाचार्य ललितकीर्ति की प्रेरणा से निर्मित कराया।
2. एक मूर्ति मूडबिद्री से लगभग 12 मील दूर वेणूर में चामुण्डवंशीय तिम्मराज ने सन् 1604 में स्थापित की, जिसकी ऊंचाई 35 फुट है। इसके प्रेरणास्रोत भी चारुकीर्ति पण्डित माने जाते हैं।
3. कुछ वर्ष पहले मैसूर के पास वाले एक घने उजाड़ स्थान के ऊँचे टीले का उत्खनन करने पर बाहुबली की 18 फुट ऊंची मूर्ति प्राप्त हुई थी। अब उस स्थान को 'गोम्मटगिरि' कहा जाता है।
4 कर्नाटक के बीजापुर जिले के बादामि पर्वत-शिखर के उत्तरी ढाल पर जो चार शैलोत्कीर्ण जैन गुहा-मन्दिर हैं उनमें से चौथे गुहा-मन्दिर के मण्डप में कोने के एक देव-प्रकोष्ठ में विभिन्न तीर्थंकर-मूर्तियों के मध्य उत्कीर्ण मूर्ति सर्वप्रभु बाहुबलि की मूर्ति है। इस 7 फुट 6 इंच ऊँची मूति की केश-सज्जा भी दर्शनीय है जिसकी परम्परा दसवीं शती में श्रवणबेल्गोल की महामूर्ति में ऊर्णा अर्थात् धुंघराले केशों के रूप में परिणत हुई।
बादामि-बाहुबली की केश-सज्जा की परम्परा आठवीं-नौवीं शती की उस मूर्ति में विद्यमान है जो बाहुबली की प्रथम कांस्य-मूर्ति है। लगभग डेढ़ फुट ऊँचे
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाहुबली मूर्तियों की परम्परा
आकार की यह मूर्ति मूलत: श्रवणबेलगोल की है और अब प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में (क्रमांक 105) प्रदर्शित है। इसका वर्तुलाकार पादपीठ अनुपात
इससे कुछ बड़ा है और अब इससे टूट कर अलग हो गया है। स्कन्ध कुछ अधिक चौड़े हैं किन्तु शरीर का शेष भाग उचित अनुपात में है । मुख मण्डल अण्डाकार है, कपोल पुष्ट हैं और नासिका उन्नत है। ओष्ठ और भौंहें उभरी होने से अधिक आकर्षक बन पड़ी हैं। केश राशि पीछे की ओर काढ़ी गयी है किन्तु अनेक घुंघराली जटाएँ कन्धों पर लहराती दिखायी गयी हैं। लताएँ उनके पैरों से होकर हाथों तक ही पहुँची हैं । कालक्रम से यह द्वितीय मानी जा सकती है । कालक्रम से तृतीय बाहुबलि मूर्ति ऐहोल के इन्द्रसभा नामक बत्तीसवें गुहामन्दिर की अर्द्ध-निर्मित वीथि में उत्कीर्ण है। बीजापुर जिले के इस राष्ट्रकूटकालीन केन्द्र का निर्माण आठवीं नौंवी शती में हुआ था। इसी गुहा मन्दिर में नौवीं-दसवीं शती में जो विविध चित्रांकन प्रस्तुत किए गए उनमें से एक बाहुबली का भी है। बाहुबली का इस रूप में यह प्रथम और संभवत: अन्तिम चित्रांकन है ।
कर्नाटक में गोलकुण्डा के खजाना बिल्डिंग संग्राहलय में प्रदर्शित एक बाहुबली मूर्ति काले बेसाल्ट पाषण की है । 1.73 मीटर ऊँची यह मूर्ति कदाचित् दसवीं शती की है ।
111
पत्तनचेरुवु से प्राप्त और राज्य संग्राहलय हैदराबाद में प्रदर्शित एक बाहुबली मूर्ति राष्ट्रकूट कला का अच्छा उदाहरण है । इसमें लताएँ कन्धों से भी ऊपर मस्तक के दोनों ओर पहुँच गयीं हैं। दोनों ओर अंकित एक-एक लघु युवती - आकृति का एक हाथ लता को अलग कर रहा हैं और दूसरा कटि तक अवलम्बित मुद्रा में है । बारहवीं शती की यह मूर्ति कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है । श्रीवत्स लांछन होने से यह उत्तर और दक्षिण की श्रृंखला जोड़ती है; ऊपर स्वस्तिक और कमलाकृति प्रभामण्डल है जो अन्य बाहुबलि मूर्तियों में प्राय अप्राप्य है। कटि की त्रिवलि ने समूची मूर्ति के अनुपात को सन्तुलित किया है।
मी तालुके में ही एक गाँव है ऐहोल, जिसके पास गुफाएँ हैं । गुफाओं में पूर्व की ओर मेघुटी नामक जैन मन्दिर है । इसके पास की गुफा में बाहुबली की 7 फुट ऊँची मूर्ति उत्कीर्ण है ।
दक्षिण में ही दौलताबाद से लगभग 16 मील दूर एलोरा की गुफाएँ हैं। इन में पांच जैन- गुफाएं हैं। इनमें एक इन्द्रसभा नामक दोतल्ला सभागृह है । इसकी बाहरी दक्षिणी दीवार पर बाहुबली की एक मूर्ति उत्कीर्ण है ।
उत्तर भारत की विशिष्ट बाहुबली मूर्तियाँ
बहुत समय तक कला-विवेचकों में यह धारणा प्रचलित थी कि बाहुबली की मूर्तियाँ दक्षिण भारत में ही प्रचलित हैं। उत्तर भारत में इनके उदाहरण अत्यन्त
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
112
अन्तर्दन्द्रों के पार विरल हैं। किन्तु शोध-खोज के उपरान्त उत्तर भारत में उल्लेखनीय अनेक बाहुबली-मूर्तियों के अस्तित्त्व का पता लगा है जिनका विवरण निम्नप्रकार है____ जूनागढ़ संग्रहालय में प्रदर्शित नौंवीं शताब्दी की मूर्ति जो प्रभासपाटन से प्राप्त हुई है। __ खजुराहो में पार्श्वनाथ मन्दिर की बाहरी दक्षिणी दीवार पर उत्कीर्ण दसवीं शताब्दी की मूर्ति।
लखनऊ संग्रहालय की दसवीं शताब्दी की बाहुबली-मूर्ति जिसका मस्तक और चरण खडित हैं।
देवगढ़ में प्राप्त मूर्ति, दसवीं शताब्दी की, जो अभी वहीं के 'साहू जैन संग्रहालय' में प्रदर्शित है। इस मूर्ति का चित्र जर्मन पुरातत्त्व-वेत्ता क्लोस ब्रून ने अपनी पुस्तक में दिया है । देवगढ़ में बाहुबली की 6 मूर्तियां प्राप्त हैं।
बिलहरी, जिला जबलपुर, मध्यप्रदेश से एक शिलापट प्राप्त हुआ है जिस पर बाहुबली की प्रतिमा उत्कीर्ण है।
सवीं शताब्दी की नयी मूर्तियों में, जिन्हें ऊँचे माप पर बनाया गया है, आरा (बिहार) के जैन बालाश्रम में स्थापित मूर्ति, उत्तरप्रदेश के फिरोजाबाद नगर में कुछ वर्ष पूर्व स्थापित विशाल बाहुबली-मूर्ति और सागर, म०प्र० के वर्णी भवन में स्थापित मूर्ति उल्लेखनीय हैं।
उत्तर भारत के अन्य मन्दिरों में भी ब्रोन्ज और पीतल की अनेक बाहुबली मूर्तियां विराजमान हैं।
कतिपय त्रिमूर्तियाँ ___ बाहुबली को भरत चक्रवर्ती के साथ ऋषभनाथ की परिकर-मूर्तियों के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। बाएँ लता-वेष्टित बाहुबली की और दाएँ नव-निधि से अभिज्ञात भरत की मूर्ति से समन्वित ऋषभनाथ की जटा-मण्डित मूर्तियाँ भव्य बन पड़ी हैं। ऐसे अनेक मूत्यंकन देखे गये हैं--
जबलपुर जिले में बिलहरी ग्राम के बाहर स्थित कलचुरिकालीन, लगभग नौवीं शती, जैन मन्दिर के प्रवेश द्वार के सिरदल पर इस प्रकार का सम्भवतः प्रचीनतम मूत्यंकन है। . ___ उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ के पर्वत पर एक मन्दिर में जो ऐसा मूयंकन है वह कला की दृष्टि से सुन्दरतम है और उसका निर्माण देवगढ़ की अधिकांश कलाकृतियों के साथ लगभग दसवीं शती में हुआ होगा। __खजुराहो के केन्द्रीय संग्रहालय में एक सिरदल (क्रमांक 1724) है । उस पर विभिन्न तीर्थंकरों के साथ भरत और बाहुबली के मूयंकन भी हैं । यह दसवीं शती की चन्देल कृति है।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
113
बाहुबली-मूर्तियों की परम्परा
भरत और बाहुबली के साथ ऋषभनाथ की विशालतम मूर्ति तोमरकाल, पन्द्रहवीं शती, में ग्वालियर की गुफाओं में उत्कीर्ण की गयी।
इस प्रकार की एक पीतल की मूर्ति नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्राहलय में है। इसमें ऋषभनाथ सिंहासन पर आसीन हैं और उनकी एक ओर भरत तथा दूसरी ओर बाहुबली कायोत्सर्गस्थ हैं। यह संभवत: चौदहवीं शती की पश्चिम भारतीय कृति है। ___ इन पांचों के अतिरिक्त और भी कई मूर्तियों पर ऋषभनाथ के साथ भरत और बाहुबली की प्रस्तुति होने का संकेत मिलता है। उड़ीसा के बालासोर जिले में भद्रक रेलवे स्टेशन के समीप चरम्पा नामक ग्राम से प्राप्त और अब राज्य संग्रहालय, भुवनेश्वर में प्रदर्शित अनेक जैन मूर्तियों में से कुछेक में इस प्रकार के मूत्यंकन हैं। ___इनके अतिरिक्त एक ऐसा मूर्यंकन भी प्राप्त हुआ है जो इन सभी से प्राचीन कहा जा सकता है। उड़ीसा के क्योंझर जिले में अनन्तपुर तालुका में बौला पहाड़ियों के मध्य स्थित पोदसिंगिदि नामक ऐतिहासिक स्थान है। यहाँ ऋषभनाथ की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। उड़ीसा में प्राप्त यह प्रथम जैनमूर्ति है जिस पर लेख उत्कीर्ण है। इसमें आसन पर वृषभ लांछन के सामने दो बद्धांजलि भक्त अंकित हैं जो भरत और बाहुबली माने जा सकते हैं, और तब यह इस प्रकार की मूर्तियों में सर्वाधिक प्राचीन होगी।
एक पटली-चित्रांकन ___ बाहुबली की गृहस्थ अवस्था का, भरत से युद्ध करते समय का, मूवंकन तो नहीं किन्तु चित्रांकन अवश्य प्राप्त हुआ है। प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रों के ऊपर-नीचे जो काष्ठ-निर्मित पटलियां बाँधी जाती थीं उनमें से एक पर यह चित्रांकन है। मूलतः जैसलमेर भण्डार की यह पटली पहले साराभाई नवाब के पास थी और अब बम्बई के कुसुम और राजेय स्वाली के निजी संग्राहलय में है। बारहवीं शती की इस पटली की रचना सिद्धराज जयसिंह चालुक्य, 1094-1144 ई०, के शासनकाल में विजयसिंहाचार्य के लिए हुई थी। इसका रचनास्थल राजस्थान होना चाहिए। भरत-बाहुबली-युद्ध इस पटली के पृष्ठभाग पर प्रस्तुत है जिस पर घुमावदार लताबल्लरियों के वृत्ताकारों में हाथी, पक्षी और पौराणिक शेरों के आलंकारिक अभिप्राय अंकित हैं।
उत्तर और दक्षिण की बाहुबली-मूर्तियों में रचना-भेद बाहुबली की मूर्तियों की सामान्य विशेषता यह है कि उनकी जंघाओं, भुजाओं और वक्षस्थल पर लताएँ उत्कीर्ण रहती हैं जो इस बात की परिचायक हैं कि
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
114
अन्तर्द्वन्द्वों के पार बाहुबली ने एक स्थान पर खड़े होकर इतने दीर्घ समय तक कायोत्सर्ग ध्यान किया कि उनके शरीर पर बेलें चढ़ गयीं।
दक्षिण की मूर्तियों में चरणों के पास सांप की बबियां (बमीठे) हैं जिनमें से साँप निकलते हुए दिखाए गए हैं। किन्तु उत्तर की मतियों में, प्रभासपाटन की मूर्ति को छोड़कर संभवतः और किसी में सांप की बांबियां नहीं दिखायी गयी हैं ।
उत्तर भारत की मूर्तियों में बाहुबली की बहिनों-ब्राह्मी और सुन्दरी का अंकन नहीं है। जहाँ भी दो स्त्रियाँ दिखाई गयीं हैं वे या तो सेविकाएँ हैं, या फिर विद्याधरियां जो लता-गुच्छों का अन्तिम भाग हाथ में थामे हैं, मानो शरीर पर से लताएँ हटा रही हैं। एलोरा की गुफा की बाहुबली मूर्ति में जो दो महिलाएँ अंकित हैं, वे मुकुट और आभूषण पहने हैं । वे ब्राह्मी और सुन्दरी हो सकती हैं।
बिलहरी की दो मूर्तियों में से एक में दो सेविकाएँ, जो विद्याधरी भी हो सकती हैं, लतावृन्त थामे हुए हैं। ये त्रिमंग-मुद्रा में हैं। मूर्ति के दोनों ओर और कन्धों के ऊपर जिन-प्रतिमाएँ हैं। दूसरी मूर्ति में भक्त-सेविकाएँ प्रणाम की मुद्रा में लता-गुच्छ थामे दिखायी गयी हैं।
ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, उत्तर भारत की कायोत्सर्ग प्रतिमाओं में बाहुबली को साक्षात् तीर्थंकर की प्रतिष्ठा दर्शाने के लिए सिंहासन, धर्मचक्र, एक-दो या तीन छत्र, भामण्डल, मालाधारी, दुन्दुभिवादक और यहां तक कि यक्ष-यक्षियों का भी समावेश कर लिया गया। श्रीवत्स चिह्न तो अंकित हैं ही।
___ इसीलिए प्रथम कामदेव बाहुबली को अब सम्पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान बाहुबली कहा जाता है, और उनकी मूर्ति को तीर्थंकर-मति के समान पूजा जाता है।
धोती-पहने बाहुबली की मूर्तियाँ भी कतिपय श्वेताम्बर मन्दिरों में प्राप्त हैं। दिलवाड़ा (राजस्थान) मन्दिर की विमलवसहि, शत्रुजय (गुजरात) के आदिनाथ मन्दिर और कुम्भारिया (उत्तर गुजरात) के शान्तिनाथ मन्दिर में लगभग 11-12वीं शताब्दी की इस प्रकार की मूर्तियां प्राप्त हैं। इन मूर्तियों का यद्यपि अपना एक विशेष सौंदर्य है तथापि यह कहना अनुचित न होगा कि बाहुबली की तपस्या और उनकी कायोत्सर्ग मुद्रा का समस्त सहज प्रभाव दिगम्बरत्व में ही है।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
महामस्तकाभिषेक
वीरश्रेष्ठ चामुण्डराय ने जब दसवीं शताब्दी में गोम्मटेश्वर की मूर्ति की प्रतिष्ठापना सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र आचार्य के अनुष्ठान-संचालन में की तो उस भव्य दृश्य को जनता ने सदा के लिए हृदय में अंकित कर लिया। अवश्य ही, महामस्तकाभिषेक की परम्परा, बाद में, निश्चित विधि-विधान और मुहूर्त-शोधन द्वारा इंगित काल-अवधि के अन्तर्गत सम्पन्न होनी प्रारम्भ हुई होगी। तदुपरान्त प्रत्येक बारहवें वर्ष महामस्तकाभिषेक का अनुष्ठान, क्षेत्र के प्रथम धर्माचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य-प्रशिष्य नियोजित करवाते रहे, यह स्पष्ट प्रतीत होता है । मैसूर राज्य के नरेशों ने जनता के इस धार्मिक उल्लास में सम्मिलित होकर अपने को कृतार्थ अनुभव किया। क्षेत्र के धर्माचार्य, राज्य के नरेश और जनता के सामूहिक धार्मिक उल्लास ने, जिनकी प्रतिनिधि महिमामयी गुल्लिकाअज्जी रही आयी, देश के इस अद्भुत सांस्कृतिक तीर्थ को नये आयाम दिये। __शिलालेख क्रमांक 360 के अनुसार सन् 1398 में पण्डिताचार्य के निर्देशन में जो महामस्तकाभिषेक हुआ, उसमें उल्लेख है कि उससे पहले सात महामस्तकाभिषेक हो चुके थे। ___ यदि महामस्तकाभिषेक बारह वर्ष के अन्तराल से होने की परिपाटी बन गई थी, तो मानना चाहिये कि सन् 1314 में एक महामस्तकाभिषेक हुआ होगा।
सन 1612 के अभिषेक का उल्लेख कवि पंचबाण ने किया है। यह अभिषेक धर्माध्यक्ष श्री शान्तिवर्णी द्वारा निष्पन्न हुआ था।
इसके बाद के महामस्तकाभिषेकों की सम्पन्नता जिन मैसूर-नरेशों के द्वारा सन् !605, 1659, 1677, 1800, 1825 में हुई, उनका उल्लेख क्रमशः इस प्रकार मिलता है—चिक्क देवराज वडीयर, दोड्ड देवराज वडीयर, इनके मन्त्री विशालाक्ष, मुम्मडि कृष्णराज वडीयर और कृष्णराज वडीयर (तृतीय)।
सन 1827 के अभिषेक का वर्णन एक शिलालेख में है । सन् 1879 के महाभिषेक का वर्णन 'इन्डियन एन्टीक्वेरी' में है, जब मूर्ति का नाप लिया गया था।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
116
...- अन्तर्द्वन्द्वों के पार
सन 1887 के अभिषेक का वर्णन 'एपिग्राफिया कर्नाटिका' में रोचक ढंग से किया गया है।
सन् 1900, 1910, 1925, 1940, 1953, और 1967 के महामस्तकाभिषेक के विशद वर्णन उपलब्ध है। 1967 के महामस्तकाभिषेक के आयोजन के समय स्वर्गीय श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन ने विविध कार्यक्रमों को नियोजित करने और उन्हें सफल बनाने में जो श्रम किया तथा समाज को मार्गदर्शन दिया, वह चिरस्मरणीय रहेगा । उनके अग्रज श्री साहू श्रेयांसप्रसाद उस परम्परा को आगे बढ़ाकर 1931 के सहस्राब्दि-प्रतिष्ठान-महोत्सव को सफल बनाने के लिए जिस प्रकार दिन-रात कार्यरत हैं वह निस्संदेह स्तुत्य है। यह देश का सौभाग्य है कि परम विद्वान, तपस्वी और वर्चस्वी साधु एलाचार्य विद्यानन्द जी महाराज की प्रेरणा देश-व्यापी प्रभाव उत्पन्न कर रही है। एक मणिकांचन सुयोग यह भी हुआ कि आज श्रवणबेल्गोल की धर्मपीठ के कर्मठ, तत्वज्ञ और शान्तपरिणामी तरुण त्यागमूर्ति भट्रारक स्वस्ति श्री चारुकीर्ति जी महाराज की छत्रछाया में इस क्षेत्र का उत्तरोतर विकास हो रहा है। इस विकास के इतने नये आयाम हैं कि देखकर चमत्कृत हो जाना पड़ता है।
1981 का सहस्राब्दि-महोत्सव विश्व के धार्मिक-सांस्कृतिक इतिहास में अपना विशेष महत्त्व रखेगा इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि लाखों नर-नारी इसमें सम्मिलित होंगे और विश्व के दूरदर्शन-केन्द्र, फिल्म-निर्माता, रेडियो-स्टेशन आदि अपूर्व रुचि लेंगे।
धन्य भाग्य उनके जिनके जीवन में यह अवसर आ रहा है।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विचरित
गोमटेस - बुदि
(1)
विसट्ट - कंदोट्ट - दलाणुयारं,
सुलोयणं चंद- समाज - तुण्डं ।
घोणाजियं चम्पय- पुप्फसोहं,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्वं ॥
(2)
अच्छाय सच्छं जलकंत-गंड,
आबाहु- दोलंत सुकण्णपासं । इंद- सुण्डुज्जल- बाहुदण्ड, तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥
(3)
सुकण्ठ-सोहा-जियदिवसोक्खं, हिमालयुद्दाम-विसाल-कंबं । सुपेक्ख- णिज्जायल - सुट्ठमज्झं,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्वं ॥
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
118
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
(4) विज्झायलग्गे, पविभासमाणं,
सिंहाणि सव्व-सुचेदियाणं। तिलोय - संतोलय - पुण्णचंद,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥
(5) लयासमक्कत - महासरीरं,
भव्वावलोलद्ध-सुकप्परुक्खं । देविदविदच्चिय पायपोम्म,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥
(6)
दियंबरो यो ण च भीइजुत्तो,
चॉबरे सत्तमणो विसुद्धो। सप्पादि-जंतुप्फुसदो ण कंपो,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं॥
(7) आसांण ये पेक्खदि सच्छदिट्ठि,
सोक्खे ण बंछा हयदोसमूलं । विरागभावं भरहे विसल्लं,
तं गोमटेसं पणमामि णिचं ॥
(8) उपाहिमुत्तं घण-धाम-वज्जियं,
सुसम्मजुत्तं मय-मोहहारयं । वस्सेय पज्जतमुवास-जुत्तं,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोम्मटेश्वर-स्तुति [हिन्दी पद्यानुवाद : लक्ष्मीचन्द्र जैन)
(1)
चारु लोचन नील उत्पल-दल सदृश, चन्द्रमा के बिम्ब-सा मुख समुज्ज्वल, नासिका ज्यों फूल चम्पा का सुभग, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर को नमूं ।
(2)
स्वच्छ छाया-हीन वपु, सु-कपोल ज्यों जल-कान्ति; फैले कर्ण युग आबाहु, गजराज की सित शुण्ड-से भुज-दण्ड, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर की नम।
(3)
दिव्यता को विजित करती कण्ठ-छवि, स्कन्ध हिमगिरि सदृश तुङ्ग विशाल, दृष्टि-सुख है मध्य का कटि भाग, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर को नमूं ।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
120
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
(4) विन्ध्यगिरि के शिखर पर प्रद्योत, भव्यजन के बोध-सौध-शिखासुमणि, शान्तिदायक पूर्णचन्द्र त्रिलोक के, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर को नमूं।
(5) समाच्छादित लताओं से तुङ्ग तन, भव्य प्राणी पा गये तर कल्प, इन्द्रगण नित पूजते पद-पद्म, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर को नमूं।
जो दिगम्बर श्रमण नित भय-मुक्त, त्यक्त अम्बर, शान्त मन, परिशुद्ध, जन्तु यहि तन पर, तदपि निष्कम्प, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर को नमूं।
विगत आश-निराश, निर्मल दृष्टि, सुख अवांछित, दोष सब निर्मूल, मन विरागी, भरत-शल्य-विलीन, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर को नमूं ।
(8) धाम-धन वजित, उपाधि-विमुक्त, मोह-मद-माया रहित, सम भाव, वर्ष का उपवास धर, ध्यानस्थ, नित्य मैं उन गोम्मटेश्वर को नमूं।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 2
काल
समस्त शिलालेखों का स्थान और शताब्दी-क्रम से विश्लेषण
श्रवणबेल्गोल, उसकी दोनों पहाड़ियों तथा आसपास ले क्षेत्र में प्राप्त कुल 573 शिलालेखों में कितने शिलालेख किस शताब्दी के और किस स्थान पर हैं इसका विवरण निम्नलिखित तालिका में दिया गया है। यह विवरण 'एपिग्राफिया कर्नाटिका' के नये संस्करण के माधार पर प्रस्तुत किया गया है।
चिक्कबेट्ट दोडुबेट्ट श्रवणबेल्गोल समीप के योग
(चन्द्रगिरि) (विध्यगिरि) (नगर) प्राम 6-7वीं शताब्दी 1 7वीं शताब्दी ४वीं शताब्दी 9वीं शताब्दी 10वीं शताब्दी 11वीं शताब्दी 12वीं शताब्दी 5338 15 13वीं शताब्दी 16 16 14वीं शताब्दी 15वीं शताब्दी 16वीं शताब्दी 17वीं शताब्दी 18वीं शताब्दी 19वीं शताब्दी
____1 _ 4. 17 1 23
-
-
-
271...-172800
573
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 3
शिलालेखों में उल्लिखित प्रमुख आचार्यों, मुनियों और पण्डितों की नामावलि नामावलि में वणित आचार्य, मुनि आदि का परिचय माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित 'शिलालेख संग्रह' भाग 1 पर आधारित है, किन्तु शिलालेखों के क्रमांक 'एपिग्राफिया कर्नाटिक' के नये संस्करण के अनुसार दिये गये हैं।
संकेताक्षरों का अर्थ अ० या अनु० =अनुमामतः । कु० =कुक्कुटासन । त्रै० देव =विद्यदेव । पं० आचार्य==पंडिताचार्य । पं० देव पंडितदेव । ब्रह्म= ब्रह्मचारी। म० म० ==महामण्डलाचार्य । मू० दे० पु०=मूल संघ, देशीगण, पुस्तक-गच्छ । सि० देव सिद्धान्तदेव । सिच०= सिद्धान्त चक्रवर्ती। सि० मु० =सिद्धान्त मुनीश्वर। क्रमांक आचार्य-नाम गुरु-नाम लेख क्र० शक संवत् विशेष विवरण
1 2
बलदेव मुनि शान्तिसेन मुनि
कनकसेन
-
2 34
अ० 572 समाधिमरण ।
समाधिमरण । भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र ने जिस धर्म की उन्नति की थी उनके क्षीण होने पर इन मुनिराज ने उसे पुनरुत्थापित किया।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
अरिष्टनेमि आचार्य
13
"
परिशिष्ट
. वषभनन्दि आचार्य
मौनि गुरु
85 23
14
चरितश्री मुनि - - पानप (मौनद) बलदेव गुरु धर्मसेन गुरु
समाधिमरण। इनके अनेक शिष्य थे। समाधि के समय दिण्डिकराज' साक्षी थे। लेख क्र० 16 व 233 यद्यपि क्रमशः 8वीं व 9वीं शताब्दी के अनुमान किये जाते हैं तथापि सम्भवतः उनमें भी इन्हीं आचार्य का उल्लेख है। लेख क्र. 233 में वे 'परसमयध्वंसक' पद
से विभूषित किये गये हैं तथा 'मले गोल' कहे गये हैं। " इनके किसी शिष्य ने समाधिमरण किया। अ० 622 एक शिष्या का समाधिमरण। ये ही सम्भवतः लेख क्र० 10 के
गुणसेन गुरु के तथा लेख क्र० 121 के वृषभनन्दि गुरु के गुरु थे। __ " समाधिमरण। " समाधिमरण।
समाधिमरण। इनके गुरु 'कित्तूर' परगने में 'वेल्माद' नामक स्थान
के थे। ___ समाधिमरण। इनके गुरु 'मालनूर' के थे। उग्रसेन ने एक मास
तक अनशन किया। समाधिमरण । लेख क्र. 23 में सम्भवतः इन्हीं मौनिगुरु का उल्लेख है । गुणसेन 'कोट्टर' के थे। समाधिमरण।
11 27
१ 10
उग्रसेन गुरु गुणसेन गुरु
पट्टिनि गुरु मौनि गुरु
28 10
11 12
उल्लिक्कल गुरु कालावि (कला
पक) गुरु नागसेन गुरु ऋषभसेन गुरु
___एक शिष्य का समाधिमरण ।
समाधिमरण ।
13
37
"
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
128
15
--
32
17
120
94
क्रमांक आचार्य-नाम गुरु-नाम लेख क्र० शक संवत् विशेष विवरण 14 सिंहनन्दि गुरु वेट्टेडे गुरु 35 अ० 622 समाधिमरण । गुणभूषित
". सन्द्विगगण (?) । समाधिमरण। लेख बहुत घिसा है, इससे भाव
स्पष्ट नहीं हुआ। 16 मेल्लगवास गुरु - 31
समाधिमरण । ये गुरु 'मुंगूर' के थे। ___ नन्दिसेन मुनि
समाधिमरण। 18 गुणकीत्ति
समाधिमरण । __ वृषभनन्दि मुनि मौनिय आचार्य
नविलूर संघ । समाधिमरण । चन्द्रदेवाचार्य
समाधिमरण । ये 'नदि' राज्य के थे। मेघनन्दि मुनि - . 124
नमिलूर संघ । समाधिमरण । ___ नन्दि मुनि
126
समाधिमरण । __ महादेव मुनि
समाधिमरण । __सर्वज्ञभट्टारक
15
समाधिमरण । ये 'वेगुरा' के थे। 25 अक्षयकीत्ति
समाधिमरण। ये दक्षिण 'मदुरा' से आये थे। इन्हें सर्प ने सताया था। ____ गुणदेव सूरि - 26 " समाधिमरण !
मासेन (महासेन) ऋषि
समाधिमरण । __सर्वनन्दि चिकुरापरविय(?) 39
समाधिमरण । चिकुरा परविय का तात्पर्य चिकूर के परविय गुरु या चिकुरापरविय के गुरु हो सकता है। 'परवि' एक प्राचीन तालुके का नाम भी पाया जाता है।
22 23
90
24
24
27
28
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
119
29 बलदेवाचार्य
___अ० 622 समाधिमरण । पद्मनन्दि मुनि
समाधिमरण। पुष्पनन्दि - 95 " समाधिमरण। विशोक भट्टारक
" कोलातूर संघ । समाधिमरण। 33 इन्द्रनन्दि आचार्य
110
समाधिमरण । पुष्पसेनाचार्य
118
नविलूर संघ । समाधिमरण। श्रीदेवाचार्य
" समाधिमरण। - मल्लिसेन भट्टारक
5 अ० 9वीं समाधिमरण। इनके एक शिष्य ने तीर्थ-वन्दना की।
शताब्दी कुमारनंदिभट्टारक
168 " समाधिमरण । - अजितसेनभट्टारक ____64 अ० 896 लेख क्र० 64 में कहा गया है कि गङ्गनरेश मारसिंह ने इनके निकट " मुनि
150
समाधिमरण किया। लेख क्र. 150 के अनुसार इनके शिष्य
चामुण्डराय के पुत्र जिनदेवन ने जिन-मंदिर बनवाया। 39 मलधारिदेव नयनन्दि विमुक्त 240 अ० 970 नयनन्दि विमुक्त के एक शिष्य ने तीर्थ-वन्दना की। पद्मनन्दिदेव
(?) अ० 1000 महामण्डलेश्वर त्रिभुवनमल्ल कोङ्गाल्व ने कुछ भूमि का दान
किया। प्रभाचन्द्रसिद्धान्त
500 अ० 1001 चैत्यालय के हेतु कोङ्गाल्व नरेश अदटरादित्य द्वारा भूमिदान । देव
उपाधि-उभयसिद्धान्तरत्नाकर। 42 गण्डविमुक्तदेव
(?) मूलसंघ, कानूर गण, तगरिल गच्छ। कोङ्गाल्वनरेश राजेन्द्र पृथुवी
द्वारा वसदि-निर्माण और भूमिदान। 43 देवनन्दि भट्टारक - 520 अ0 1000 -
40
129
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
130
दव
क्रमांक आचार्य-नाम गुरु-नाम लेख ऋ० शक संवत् विशेष विवरण 44 गोपनन्दि पण्डित चतुर्मुखदेव 565 अ० 1015 मू० दे० पू० । पोय्सलनरेश त्रिभुवनमल्ल एरेयङ्ग ने बसदियों के
जीर्णोद्धार के हेतु ग्राम का दान किया। गोपनन्दि ने क्षीण होते हुए जैनधर्म का गङ्ग-नरेशों की सहायता से पुनरुद्धार किया। वे
षड्दर्शन के ज्ञाता थे। देवेन्द्रसिद्धान्तदेव - 565 " मू० दे० पु० । उपर्युक्त नरेश के गुरुओं में से थे। ___अकलङ्क पण्डित
46 अ० 1020 सातनन्दि देव
- 152
चरणचिह्न हैं। चन्द्रकीत्तिदेव
153 " ", अभयनन्दिपण्डित - 51 अ० 1022 एक शिष्य ने देववन्दना की। शुभचन्द्रसि०देव कु०मलधारि 155 1037 मू० दे० पु०। ये पोय्सल नरेश विष्णुवर्द्धन के मंत्री गंगराज दण्ड
देव 82 1039 नायक और उनके कुटुम्ब के गुरु थे। इन्होंने उक्त कुटुम्ब के सदस्यों 154
से कितने ही जिनालय निर्माण कराये, जीर्णोद्धार कराया, मूर्तियां 160
1040 प्रतिष्ठित कराई और कितनों ही को दीक्षा, संन्यास आदि दिये।
80
503
... - अन्तर्द्वन्द्रों के पार
504
अ० 1041
547
550)
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
1042
1044
158 1571 161 176
342 देवेन्द्र सि० देव 484
परिशिष्ट
।
दिवाकरनन्दि
1050 अ0 1100 1041 मू० दे० पु० । इस लेख से यह गुरुक्रम विदित होता है
देवेन्द्र सि० देव
दिवाकरनन्दि
52 53
भानुकीत्तिमुनि - प्रभाचन्द्रसि०देव मेषचन्द्र
० देव
मलधारिदेव शुभचन्द्र देव सि० मु० 170 __1039 मू० दे० । पोय्सल राजसेट्टि ने इनसे दीक्षा ली। 174)
1041 इनकी एक शिष्या ने पट्टशाला (वाचनालय) स्थापित कराई। ये 136 1043 विष्णुवर्धन नरेश की रानी शान्तलदेवी के गुरु थे। उनके निर्माण 162 1045 कराये हुए सवतिगन्धवारण मन्दिर के लिए इन्हें ग्राम आदि के दान
1050 दिये गये थे।
" लेख के लेखक वोकिमय्य के गुरु। 136 ____1043 ये मुल्लूर निवासी थे (मुल्लूर कुर्ग में है) । नृपकाम पोय्सल के आश्रित
एचिगात के गुरु थे।
176 176
-
54 55
चारुकीत्ति देव कनकनन्दि
131
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमांक 56 57 58
प्राचार्य-नाम गुरु-नाम लेख क्र० शक संवत् विशेष विवरण वर्धमानदेव । - 176 1050 इनकी और प्रभाचन्द्र सि० देव की साक्षी से शान्तलदेवी की माता ने रविचन्द्रदेव
संन्यास लिया था। गण्डविमुक्त सि० - 371 1050 मू० दे० पू० । इनके शिष्य दण्डनायक भरतेश्वर ने भुजबलि स्वामी का देव
204 अ० 1070 पादपीठ निर्माण कराया। नयकोत्ति
___1050 विष्णुवर्धन नरेश के राज्यकाल में नयीत्ति का स्वर्गवास हो जाने पर - कल्याणकीर्ति को जिनालय बनवाने व पूजनादि के हेतु भूमि का दान
दिया गया। कल्याणकीत्ति भानुकीतिदेव - 532 अ० 1057 माधवचन्द्रदेव शुभचन्द सि० देव 532 " मू० दे० पू०। नयकीत्तिदेव
517 अ० 1065 म०म०(हिरिय) नयकीर्ति देव (चिक्क) शुभकीतिदेव
81 अ.1067 त्रिकालयोगी - 529 10 1067 अभयदेव
529 " मूल संघ। कु० मलधारिदेव -.. 476 अ० 1080 हुल्ल मंत्री के गुरु ।
61
अन्तर्वेन्द्रों के पार
67 68
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
69
" म. 1020
मू० दे० पू० । हनसोगे शाखा। हुल्ल मंत्री ने ग्राम का दान किया।
नयकीर्ति सि० गुणचन्द्र सि० 476 देव (भ० म०) दे० 279
443 281-90
294 296
परिशिष्ट
297
1081 - 1087
अ०
1092
दामनन्दि ० )
481 देव
476 भानुकीति सि० ।
205
म०म०नय- 202 बालचन्द्रदेव कीतिदेव 565 अध्यात्मि
342 . प्रभाचन्द्रदेव
285
1092
मू० दे० पू० । हनसोगे शाखा। कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभृत-त्रय पर 1100 इनकी कन्नड़ी टीका पाई जाती है।
81
1102 1103
माघनदि भट्टारक पद्मनन्दिदेव मंत्रवादि नेमिचन्द्र पं०देव )
76
336 444 453 571 457 2931 2954 292)
1104 अ० 1118
"
1120
133
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमांक
आचार्य-नाम
गुरु-नाम
लेख क०
शक संवत् विशेष विवरण
134
455 286
अ० 1128 " 1153
देवकीति मुनि बड़े भारी कवि, तार्किक और वक्ता थे । उक्त तिथि 1085 को उनका स्वर्गवास होने पर उनके शिष्यों ने उनकी निषद्या
बनवाई।
77
70
लक्खनन्दिमुनि । माधवचन्द्रवती । देवकीर्ति त्रिभुवनमल्ल म०म० मेघयोगी चन्द्र
बालचन्द्र अध्यात्मी
(?)
1108 मू० दे० पू० । इनके एक शिष्य रामदेव विभ्र ने जिनालय बनवाया
व दान दिया। अ० 1110 -
नयकीर्तिदेव
82
83
(हिरिय) नय- 535 कीत्तिदेव
210 हिरियनय- 339-40 कीत्तिदेव
189 - 260
धनकीर्तिदेव चन्द्रप्रभदेव म. म. चन्द्रकीर्ति कनकनन्दिदेव मल्लिषण सागरनन्दि सि० देव
1112 अ0 1108
1120 अ० 1120 .
" इनकी प्रतिमा है।
84
85
86
अन्तर्द्वन्द्रों के पार
शुभचन्द्र.
"
526
81
मू० दे० पू० ।
देव
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
88
मू० दे० पु०।
परिशिष्ट
89
4.1122
शुभचन्द्र १० माघनन्दि 526
देव सि देव० वादिराज मल्लिषेण मलधारि - श्रीपालयोगीन्द्र - वादिराजदेव श्रीपाल
योगीन्द्र शान्तिसिंगपण्डित " परवादिमल्लपण्डित " नेमिचन्द्र पं० देव " म० म० राजगुरु अभयनन्दि
95
1136
अ० 1170
सुरकीत्ति
98 99
गुणचन्द्र भानुकोत्ति
1170
माघनन्दि सि.च. भानुकीत्ति
100
"
माघनन्दि भट्टारक चन्दप्रभदेव
101
अ. 1196
जयकीत्ति देव 348 म० म०
135
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमाक
आचार्य-नाम
गुरु-नाम, लेखक. शक संवत् विशेष विवरण
___136
102
अ०1197
103
104
1200
"
105 106 107
1205
चन्द्रकीत्ति
345 भट्टारक प्रभाचन्द्र
3461 भट्टारक
349 मुनिचन्द्रदेव उदयचन्द्रदेव 476
म. म. पग्रनन्दिदेव चन्द्रप्रभदेव कुमुदचन्द्र
451 माधनन्दि सि० च० बालचन्द्रदेव नेमिचन्द्र पं० देव 557 अभिनव
353 पण्डिताचार्य पद्मनन्दिदेव विद्यदेव 375 चारुकीति पं०
482 आचार्य " (अभिनव) - 472
470 मल्लिषेणदेव लक्ष्मीसेन भट्टारक 253
होयसलराय राजगुरु । सम्भवतः ये ही उस शास्रसार के कर्ता हैं जिसका उल्लेख प्रारम्भ के एक श्लोक में आया है। ० दे० । इंगिलेश्वर बलि।
108 109
अ०" अ० 1233
110 111
अ० 1238 म० दे० पु. । समाधिमरण। अ० 1239
112
अ० 1247 एक शिष्य ने मंगायि बसदि निर्माण कराई।
अन्तदन्द्रों के पार
"
113
अ० 1320 निषधा।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
377
"
"
एक शिष्य ने वन्दना की।
___"
निषद्या।
परिशिष्ट
382
114 115 116 '117 118 119
सोमसेनदेव भुवनकीत्तिदेव
378 सिंहनन्दिआचार्य
हेमचन्द्रकीतिदेव शान्तिकोत्तिदेव 379 । चन्द्रकीति
361 ' पण्डिताचार्य व - 467 पण्डितदेव
423 । श्रुतमुनि पण्डितार्यमुनि 357 : जिनसेन भट्टारक : - 354
(पट्टाचार्य) अभिनव पण्डित चारुकीत्तिपं. देव 363
निषद्या। ____1331 भूमिदान। अ० 1330 इनकी शिष्या देवराय महाराय की रानी भीमादेवी ने मूर्ति प्रतिष्ठा
कराई। 1344 इनके समक्ष दण्डनायक इरुगप ने वेल्गोल ग्राम का दान किया। अ० 1360 सं
न्दना को आये
1371
-
123
पण्डितदेव
471[
० 1420
5450 अ0 1420
124 125
126 127
__ चारुकीर्तिभट्टारक - 387 अ. 1520 चरणचिह्न। पण्डितदेव
365 अ० 1531 ब्रह्म० धर्मरुचि
अभयचन्द्रभट्टारक 304 वि० संवत् " गुणसागर -
यात्रा।
1558 चारुकत्तिपं० देव - 352 1556 इनके समक्ष मैसूर-नरेश ने मन्दिर की भूमि ऋणमुक्त कराई।
497 1565 स्वर्गवास ।
128
137
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमांक 129
आचार्य-नाम गुरु-नाम धर्मचन्द्र चारुकीर्ति
138
लेख क्र० शक संवत् विशेष विवरण 422 1570 बलात्कार गण। इनके उपदेश से वघरवालों ने चौबीसतीर्थकर
प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई। 421 1602 इनके साथ तीर्थ-यात्रा। 384 वि० सं० इनके साथ वघेरवालों ने तीर्थयात्रा की।
130 131
श्रुतसागर वर्णी | इन्द्रभूषण राजकीत्ति के
शिष्य लक्ष्मीसेन अजितकीर्ति चारुकीर्ति
1719
132
252
1731 देसी गण । एक मास के अनशन से सल्लेखना।
अजितकीर्ति
133
शान्तिकीर्ति चारुकीर्ति पं०
आचार्य सन्मतिसागरवर्णी चारुकीत्ति गुरु (?)
494 495
1732 मू० दे० पु० । मैसूर-नरेश कृष्णराज की ओर से सनदें प्राप्त की। 1752 1778 मू० दे० पु० । इनके मनोरथ से बिम्बस्थापना की गई।
134
490
1780
.......... अन्तइन्द्रों के पार
"
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 4
शिलालेखों में राज-वंश और समय
श्रवणबेल्गोल में और इसके परिवेश में पाये जाने वाले शिलालेख कर्नाटक प्रदेश के इतिहास के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं, यह निम्नलिखित सूची से स्पष्ट होगा। इसमें उन प्रमुख राजाओं, सेनापतियों और राजपुरुषों के नाम दिये हैं जिनका उल्लेख सम्बन्धित क्रमांकों के शिलालेखों में है।
शिलालेखों का पाठ और विषय एपिग्राफिया कर्नाटिका' के नये संस्करण के भाधार पर दिया है।
शासक
सन्
शिलालेख क्रमांक
राष्ट्रकूट-वंश आठवीं शताब्दी
982
कम्बय्य इन्द्र-चतुर्थ
38
163
सत्यवाक्य पेरमानडि राचमल्ल द्वितीय एड़ेगंग द्वितीय मारसिंह द्वितीय
गंग वंश
884 दसवीं शताब्दी दसवीं शताब्दी दसवीं शताब्दी दसवीं शताब्दी
544 171 186
64 40, 150, 272, 273, 276,388
कल्याण के चालुक्य
विक्रमादित्य षष्ठ ..
1079
563
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
140
शासक
विष्णुवर्धन
"1
""
नरसिंह प्रथम
"1
"1
"1
CCM faciu
"
""
सन्
1094
"
1113
1115
1118
1119
1123
1124
1131
1138
1139
1145
1159
1163
-
1173
1181
1195
होयसल वंश
नारसिंह देव द्वितीय 1231
1273
1117
1120
1122
1123
1139
1176
12वीं शताब्दी
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
शिलालेख क्रमांक
568
532
155
156
82
547
162
569
176
552
174
173
69, 161, 355, 502,
518, 538, 558, 561
476, 481
71
275,278
565
362, 444, 571
457
342, 455, 564
286
348
170
136, 158
157
135
175
73
80, 84, 149, 154, 160
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
141
शासक
शिलालेख क्रमांक 179, 274, 277, 322, 359,371-73,453,477, 503, 504, 531, 550 455, 526, 528, 573
13वीं शताब्दी
विजयनगर
बुक्कराय प्रथम हरिहर द्वितीय देवराय प्रथम देवराय द्वितीय
1368 1404 1422 1446 15वीं शताब्दी
475 446 357 445,447 467
मैसूर के ओडेयर चामराज सप्तम 1634 दोड्डदेवराज 1672 चिक्क देवराज - दोड कृष्णराज प्रथम 1723 कृष्णराज तृतीय 1827
352,485 551 501 351 324
चङ्गाल्व 1509
चङ्गाल्व महादेव
329
नुग्गेहल्लि 16वीं शताब्दी
तिरुमल-नायक
556
कदम्ब वंश 9वीं शताब्दी
कदम्ब
206
नोलम्ब व पल्लववंश नोलम्ब .. 11वीं शताब्दी ----- शंकर नायक (पल्लव) 13वीं "
388 256,257
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
142
अन्तईन्द्रों के पार
शासक
-- शिलालेख क्रमांक
सन् चोलवंश
चोल पेमडि नरसिंह वर्मा
10वीं शताब्दी 12वीं शताब्दी
524 342, 355, 547
इरंगोल
निडुगल वंश 1177 1169
13
481
इनके अतिरिक्त सैकड़ों ऐसे भी शिलालेख हैं जिनमें उपर्युक्त वंशों के साथसाथ अन्यान्य अनेक राजवंशों के राजाओं, मंत्रियों, सेनापतियों आदि के नामों का स्पष्ट उल्लेख है। विस्तार-भय से उनके नाम यहां पर देना संभव नहीं है, अतः निम्नलिखित सूची में उनका काल तथा शिलालेख क्रमांक मात्र का दिया जा रहा है
समय
शिलालेख क्रमांक 6वीं शताब्दी । 7वीं शताब्दी ___2, 13-15, 20-37, 85-87, 90, 91, 94,98, 99, 103,
___104, 108, 110-14, 116-24, 126, 129, 130, 132-34,
219 8वीं शताब्दी 6-11, 16-17,39,41,53,83,88-89,92-93,95-96,271 9वीं शताब्दी 12, 60, 67, 68, 102, 140, 192, 223, 250 10वीं शताब्दी 3-5, 18, 19, 42-45, 48, 52, 63, 78, 100, 105, 106,
115, 125, 137-139, 142, 145, 159, 165, 166, 168, 178, 180, 187, 188, 190, 191, 196, 199, 200, 214, 220-22, 224-234, 238, 239, 241-47, 249,255, 425,
43.3, 434 11वीं शताब्दी 46,47, 49-51,56-59,61, 65, 66,97,107, 109, 121,
128, 131,141, 143, 144, 146, 147, 151-53, 164, 193-95, 197, 198, 201, 203, 213, 215, 235-37, 240,
248, 251,258,426,430,431,520, 521,560 12वीं शताब्दी 54, 55, 62, 70, 77, 79,81, 148, 167, 177, 181-84,
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
143
समय
13वीं शताब्दी
14वीं शताब्दी
शिलालेख क्रमांक 189, 202, 204, 205, 207, 208-12, 216-18, 260, 27981, 287-90, 293-98, 301, 336-40, 343, 344, 356, 374, 389, 432, 443, 460, 469, 484, 523, 533, 534, 548, 549,559, 562, 566,567, 572 101, 185, 254, 259, 261-70, 285, 299, 300, 345-47, 358, 375, 419, 420, 435, 440, 441, 456, 458, 459, 478-80, 483, 505, 517, 522, 535-36, 539, 554-55, 557, 570 72, 169, 253, 353, 360, 377-380, 382, 449, 470, 472, 482, 499, 500, 506, 523, 537, 541,546 282-84, 291, 292, 303, 304, 330-34, 354, 363, 364, 381, 383, 438, 450, 473, 474, 543,545 302, 305, 323, 325-28, 376, 387, 471, 519, 527, 553 74-76, 306, 365, 370, 384-86, 390, 394-98, 400, 407-18, 421-24, 427-29, 437, 439, 442, 451, 452, 497, 498, 507-16, 525, 540, 542, 551 307-21, 341, 350, 366-69, 391-93, 401, 404, 405, 448, 454 252, 335, 402, 403, 461-66, 486-96, 530
15वीं शताब्दी
16वीं शताब्दी
17वीं शताब्दी
18वीं शताब्दी
19वी शताब्दी
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 5
.
शिलालेखों में महिलाएँ
जैन धर्म और संस्कृति का प्रभाव जीवन में कितना गहरा और व्यापक था इसका प्रमाण उन महिलाओं की नामावलि प्रस्तुत करती है जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में आया है । यह सूची अकारादि क्रम सें बनाई गई है। विशिष्ट नामों का परिचय-संकेत है। साथ में उन शिलालेखों का संदर्भ भी जिनमें प्रत्येक नाम आया है । लेख संदर्भ ‘एपिनाफिया कर्नाटिका' के नये संस्करण के आधार पर है।
महिलाएं अक्कन्वे : चन्द्रमौलि मंत्री की माता 444 अत्तिमम्बरसि, अत्तिमम्बे 82, 444, 532 आचलदेवी, आचले, आचाम्बा, माचियक्क : चन्द्रमौलि मंत्री की भार्या 362, 444,
571 आचलदेवी : हेम्माडिदेव की भार्या 444 आचाम्बिके : अरसादित्य की भार्या 322 एचम्बे 532 एचलदेवी 342, 444 एचलदेवी 444, 476. 481, 557, 569, 571 कामलदेवी : नागदेव मंत्री की भार्या 73, 457 केलियदेवी, केलेयब्बरसि : विनयादित्य होयसल नरेश की रानी 444, 476, 481,
571 गंगायी 408 गुज्जवे 356 गुणमतियम्बे 129 मोरपीकन्ति 374
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
चन्दले, चम्बाम्बिके, चन्दम्बे नागदेव की भार्या 73, 457 चान्दिब्बे 176
चागलदेवी : नारसिंह प्रथम होयसल नरेश की रानी 481 चागवे हेग्गडिति 356
eriforniaat ( ? )
चेन्दव्वे 444
चेलिनीरानी 160
जक्कणब्बे, जक्कमब्बे : गड्गराज की भावज 135, 503-4 जानकि : मंगप सेनापति की भार्या, इरुगप की माता 357
जोगब्बे, जोगाम्बा : बम्मदेव की भार्या 136, 457 देमति, बेमवति, देमियक्क, देवमति 155, 158 धनायी 384
नागले : बूचण मंत्री की माता 155, 158
नागयक्क : बलदेव के पुत्र नागदेव की भार्या 174, 175
पद्मलदेवी, पद्मावती: हुल्ल की भार्या 476, 565
पोच पोचाम्बिका, पोचिकब्बे, पोच ब्बे : गंगराज की माता 80, 82, 84,
136, 342, 355, 532, 547
बागण्णब्बे 535, 260
ated गडिति 356
भारतियक्क 476
भीमादेवी, रानी 538
मरुदेवी 356
माणब्बे : गंगराज की मातामह 82, 136, 154, 342, 355, 547
माचिकब्बे : पोयसल सेट्ठि की माता 170
माचिकब्बे : शान्तलदेवी की माता 162, 173, 176
रुक्मणीदेवी : कृष्ण की रानी 162
लक्कले, लक्कव्वे, लक्षिदेवि, लक्ष्मीदेवी : गंगराज की भार्या 82, 154, 158, 160 लक्ष्मादेवी, लक्ष्मीदेवी : विष्णुवर्धन की रानी 444, 476, 481, 571
लोकाम्बिका : हुल्ल की माता 71, 476, 481, 565
arafaraat 444, 457, 476
145
शान्तलदेवी : बूचिराज की भार्या 373
शान्तला, शान्तलदेवी : विष्णुवर्धन की रानी, 161, 162, 173, 176
शान्तिकब्बे : नेमि सेट्टि की माता 170
श्रियादेवी : सिगिमय्य की भार्या 176
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 6
शिलालेखों में वर्णित उपाधियाँ श्रवणबेल्गोल के सन्दर्भ में जैन धर्म और संस्कृति के जिस प्रभाव की चर्चा आचार्यों, मुनियों और श्रावकों के संयमित और आदर्शोन्मुख जीवन के प्रसंगों में की गयी है, उस संस्कृति ने गृहस्थ राजपुरुषों को उनके लौकिक कर्तव्य के प्रति भी सदा सचेत रखा है। शिलालेखों में उन शूरवीरों के पराक्रम का उल्लेख उनकी उपाधियों में प्रतिबिम्बित है। एक-एक रण-बांकुरे को अनेक उपाधियों से सम्मानित किया गया है। यहां पर कुछ प्रमुख उपाधियों का ही उल्लेख करना सम्भव हो पाया है। ये उपाधियां अपने अर्थ को स्वयं स्पष्ट करती हैं।
शिलालेखों के क्रमांक 'एपिग्राफिया कर्नाटिका' के नये संस्करण के अनुसार हैं। सन्दर्भ की सुविधा के लिए उपाधियां अकारादि क्रम से दी गयी हैं।
उपाधियां अप्रतिमवीर अरिराय विभाड अहित-मार्तण्ड उदय-विद्याधर कदन-कर्कश कलिगलोलगण्ड काडुवट्टि कीर्तिनारायण गङ्गकन्दर्प गङ्गगाङ्गेय गङ्गचूडामणि गङ्गमण्डलिक
लेख क्रमांक 434 (जैन शिलालेख-संग्रह भाग 1) 475 64 172 64 163 64 पल्लव नरेशों की उपाधि 163
64
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
उपाधियाँ
गङ्गरसिंग गङ्गरोगण्ड
गङ्गवञ
गङ्गविद्याधर
गडेगलाभरण
गण्ड मार्तण्ड
गण्डराभरण
गिरिदुर्गमल्ल
गुत्तियगङ्ग
चगभक्षण चक्रवर्ती
चतुस्समयसमुद्धरण
चलदग्गलि
चलदङ्कार
चलदङ्कराव
चलदुत्तरङ्ग
चालुक्याभरण
जगदेकवीर
देश कुलकण
द्रोहघरट्ट
नुडिदन्ते गण्ड नोलम्बकुलान्तक
पट्टणामि
प्रचण्डदण्डनायक
प्रताप - चक्रवति
बडवरबण्ट
बिरुदरुवारि मुखतिलक
बीररबीर
भव्यचूडामणि
भोषेगे तप्पुव रायरगण्ड
भुजबलवीर गङ्ग मण्डलिक- विनेभ
महाप्रचण्ड - दण्डनायक
लेख क्रमांक
64
64
64, 171
64
163
64
176
444
64
308
176
163
163
518
64
532, 568
64, 388
421
82, 136, 342, 355, 532, 538, 547
64, 136
48, 64
457, 547, 557
175, 176
342, 348, 455, 457
234, 257
82, 135, 136, 156, 176, 547
163
481
475
481, 518, 565, 571
64
135, 136, 156, 174, 504, 532
147
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाधियाँ
महासामन्ताधिपति माणिक्य भण्डारि
भावन गन्धहस्ति
यदुतिलक
कन्दर्प
रणरङ्गभीम
रणरङ्गसिंग
राजमार्तण्ड
ave
वसु बान्धव
वीरगङ्ग
शनिवारसिद्धि
श्रीकरमद हेगडे
श्रीबुवा वल्लभ षड्दर्शनस्थापनाचार्य
षड्धर्मचक्रेश्वर
लेख क्रमांक
135, 136, 156, 532
58,71
165
569
163
571
हिरियण्डनायक
हिरिय भण्डारि हिरिय नाणिक्य भण्डारि
388
अन्तों के पर
163
470
356, 377
64
526
82, 154, 162, 176, 342, 355, 444, 457, 476, 502, 547, 569
444, 571
71
272
352
485
156, 176, 532
संग्राम जत्तलड सत्याश्वकुलतिलक
532, 568
सममिमहाशब्द 135, 136, 156, 162, 342, 353, 374, 444
457, 476, 532, 568, 571
$38
273, 342, 481
455
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ?
432
शिलालेखों में शिल्पी और सहायक पांच सौ से अधिक शिलालेख बिना शिल्पियों के नाम के हैं, फिर भी कम से कम 12 शिल्पियों और सहायकों के नाम उपलब्ध हैं। प्रत्येक नाम के आगे शिलालेख का क्रमांक 'एपिमाफिया कर्नाटिका' के नये संस्करण के आधार पर दिया गया है। नाम अकारादिक्रम से है : शिल्पी और सहायक
शिलालेख क्रमांक कंखरी (वादित्र) कन्दाचार (सिपाही)
324 कम्मट (टकसाल का व्यक्ति) 294 चेन्नण, चेन्नण्ण-(मंदिर-शिल्पी) 516, 507, 512, 513, 515, 540 दागोदाजि (जीर्णोद्वारक) (मा. च. प. मा. से प्रकाशित शिला.
सं.भाग : 1, शिला.ऋ. 434) दासोज (मूर्तिकार)
173 देवण (कारीगर) नागवर्म (मूर्तिकार)
194 रोज (मूर्तिकार) श्रीधरवोज (मूर्तिकार)
336
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 8
शिलालेखों में वर्णित धर्मार्थ करों के नाम पिछले तेरह सौ वर्षों में श्रवणदेल्गोल की तीर्थरक्षा, जीर्णोद्धार, पूजा अर्चना, मुनियों के आहार-दान, प्रहरियों और कर्मचारियों के वेतन तथा स्थान की सुव्यवस्था के लिए जो कर राज्य ने या तीर्थ-व्यवस्थापकों ने लगाये, शिलालेखों में उनमें से कतिपय करों के नाम निम्नलिखित सूची में अकारादि क्रम से दिये गये हैं । लेखों के क्रमांक शिलालेख संग्रह भा. 1', मा. च. ग्रन्थमाला के अनुसार हैं।
पुरवर्ग
कर का नाम शिलालेख-क्रमांक अन्याय
128 अभ्यागते 137 आलेपोम्मु. 434 आलेसंक.... , 434 कटकसेसे ... 137. कब्बिणदपोम्मु 434 काडारम्भ 353 कालबाडिगे 434 खाण
137 . गाडदेरे गुरुकाणिके 434 जातिकूट 434 जातिमणिय 434 तिप्पेसंक 138
कर का नाम शिलालेख-क्रमांक
नामकाणिके 434 न्याय
128 पट्टदेसायिरु 434 पाशवार 434
434 बसदि
137
.434 मनरवत 137 मनेदेरे मलय 128, 137 येरुकाणिके 434 हत्तिपोम्मु
434 हुल्लुहण 434
बेंडिगे
138
138
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन जन्म : छतरपुर (मध्य प्रदेश) 1909 शिक्षा : एम.ए. (संस्कृत), एम.ए. (इंग्लिश), बहुभाषाविद् कार्य : आकाशवाणी के प्रारम्भिक दिनों में उसके दिल्ली केन्द्र के अनेक कार्यक्रमों के संचालक । लाहौर में भारत इन्श्योरेंस कम्पनी के प्रचार-प्रसार अधिकारी । डालमिया नगर (बिहार) में साहू शान्तिप्रसाद जी द्वारा स्थापित उद्योगों में कार्याधिकारी एवं उनके सचिव । भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना के दिन से ही लोकोदय ग्रन्थमाला के संयोजक-सम्पादक; संस्था के निदेशक । ज्ञानपीठ साहित्य पुरस्कार की योजना की कार्यविधि के संयोजक-संचालक । पूर्व-प्रकाशित 'ज्ञानोदय' और 'ज्ञानपीठ पत्रिका' के सम्पादक । विभाजनपूर्व के लाहौर, दिल्ली और कलकत्ता की अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में पदाधिकारी के रूप में सक्रिय योगदान । अखिल भारतीय हिन्दी प्रकाशक संघ के अनेक वर्षों तक अध्यक्ष । प्राकृत, जैन-शास्त्र एवं अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, तथा फैडरेशन ऑफ इण्डियन पब्लिशर्स की कार्य-समितियों के सदस्य । प्रकाशित कृतियां : 'कागज की किश्तियाँ', 'नये रंग नये ढंग', 'ग्यारह सपनों का देश' (सहयोगी उपन्यास), 'अन्तर्द्वन्द्वों के पार : गोम्मटेश्वर बाहुबली', सम्पादक–'जैन कला और स्थापत्य' (हिन्दी-संस्करण) ।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________ भारतीय ज्ञानपीठ उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोक-हितकारी मौलिक-साहित्य का निर्माण संस्थापक (स्व.) साहू शान्तिप्रसाद जैन (स्व.) श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्री अशोक कुमार जैन SHAIHE भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003