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अन्तर्द्वन्द्रों के पार
(बी) भवस्सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः श्रुतकेवलिनायेषु चरमपरमो मुनिः। चन्द्र-प्रकाशोज्जवल-सान्द्र-कीतिः
श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः॥ लेख क्र. 77 (सन् 1129) में भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का जो उल्लेख मिलता है उसके सम्बन्ध में अभी-अभी वाग्मीजी ने बताया भी है कि उनकी सेवा वनदेवताओं द्वारा निरन्तर की जाती
रही है- "शुश्रूयेस्म सुचिरं वन-देवताभिः ।" अनुगा : इस सम्बन्ध में मैंने जो पढ़ा है वह बिन्सेंट स्मिथ का मत है। मैंने नोट
किया है : "चन्द्रगुप्त मौर्य का घटनापूर्ण राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इस पर ठीक प्रकाश एकमात्र जैन कथाओं से ही पड़ता है । जैनियों ने सदैव उसे मगध सम्राट् बिम्बसार के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है-इसे झूठ कहने का कोई उपयुक्त कारण नहीं। शेषनाग, नन्द और मौर्यकाल में मगध में जैनधर्म जोर-शोर पर था। चन्द्रगुप्त ने राजगद्दी एक कुशल ब्राह्मण की सहायता से प्राप्त की यह चन्द्रगुप्त के जैन होने के विरुद्ध नहीं पड़ती। 'मुद्राराक्षस' नाटक में उल्लेख है कि एक जैन साधु नन्द नरेश का और बाद में मौर्य सम्राट के मन्त्री राक्षस का घनिष्ठ मित्र था । एक बार जब चन्द्रगुप्त को जैनधर्मावलम्बी मान लिया तो फिर बारह वर्ष का दुभिक्ष, भद्रबाहु से जिनदीक्षा, दक्षिण की ओर गए संघ का श्रवणबेल्गोल पहुंचना, भद्रबाहु के द्वारा वहाँ शरीर का त्याग, बारह वर्ष पश्चात् राजर्षि चन्द्रगुप्त द्वारा समाधिमरण किया जाना 'सब मान्य हो जाता है। इसका समर्थन श्रवगबेल्गोल के मन्दिरों, सातवीं शती के शिलालेखों तथा दसवीं शती के ग्रन्थों से होता है..." "ईसापूर्व 322 में जब चन्द्रगुप्त सिंहासनारूढ़ हुए तो तरुण थे । जब 24 वर्ष पश्चात् उनके राज्य का अन्त हुआ, तब उसकी अवस्था 50 वर्ष से कम रही होगी। अतः उनका राजपाट त्याग देना, उनके इतनी कम अवस्था में मौर्यवंश के इतिहास से लुप्त हो जाने का उपयुक्त कारण प्रतीत होता है । राजाओं के इस प्रकार विरक्त हो जाने के अन्य भी अनेक उदाहरण हैं, और बारहवर्ष का दुष्काल भी अविश्वसनीय नहीं । संक्षेपतः अन्य कोई वृत्तान्त उपलब्ध न होने के कारण जन कथा ही सर्वोपरि प्रमाण है।"