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अन्तर्द्वन्द्वों के पार
अनुगा : मैंने प्रयत्न तो किया है, किन्तु अनेक चित्र साफ नहीं आये, क्योंकि शिलालेख पुराने पड़ गये हैं, अक्षर घिस गये हैं, यहाँ तक कि मिट भी गये हैं ।
पुराविद् : जो लेख टूट गये, इधर-उधर फेंक दिये गये, या अज्ञानतावश यहाँ के जड़ दिये गये या विलुप्त हो गये - हमारी वह ऐतिहासिक सम्पदा, सांस्कृतिक जानकारी का वह कोष सदा के लिए क्षय हो गया, या फिर क्षत-विक्षत हो गया ।
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वाग्मी : यही कारण है कि अनेक शिलालेखों को ठीक-ठीक पढ़ना कठिन हो जाता है। कई खण्डित नाम इसीलिए पढ़े जा सके या पूरे किये जा सके क्योंकि वे इतिहास प्रसिद्ध नाम हैं जिनका ज्ञान पुराविद्जी को है । कई नाम आचार्यों के हैं जिनका परिचय अन्य स्रोतों से श्रुतज्ञजी को है ।
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श्रुतज्ञ : एक बात जो विशेष सहायक हुई है, वह यह कि श्रवणबेलगोल का पूरा परिवेश धार्मिक और सांस्कृतिक रहा है, अतः जहाँ कुछ थोड़ा-सा भी पढ़ा गया और आगे-पीछे के शब्दों के कुछ अक्षर भी स्पष्ट हुए तो पूरे प्रसंग को समझने का प्रयत्न सम्भव हो जाता है कि किस राजा या सेनापति के काल में कोन आचार्य थे और कौन किसका शिष्य था । आचार्यो और साधुओं की गुरु-शिष्य पट्टावली शास्त्रों में दी ही है । समाधिमरण, सल्लेखना और संन्यास सैकड़ों-हजारों मुनियों, राजाओं, सेनापतियों, श्रावक-श्राविकाओं के जीवन की साध रहे हैं । व्रत-उपवास करते हुए, तपस्या करते हुए, आध्यात्मिक चिन्तन में लीन रहकर गुरु के सान्निध्य में शान्ति और समता पूर्वक जिन्होंने जीवन की दैहिक लीला समाप्त की उन भव्यजनों के धार्मिक प्रसंग शिलालेखों के अनेक संदर्भों को सार्थक कर देते हैं ।
अनुगा
: पुराविद्जी, हमने जिस शिलालेख क्रमांक 1 का अध्ययन किया, उसमें उल्लेख था कि इस कटवत्र पर्वत अर्थात् इस चन्द्रगिरि पर्वत पर सात सौ ऋषियों ने समाधि प्राप्त की । आचार्य भद्रबाहु के देहत्याग के लिए संन्यास शब्द का प्रयोग हुआ है । यह समाधिमरण, सल्लेखना, संन्यास क्या है ? इसे कुछ लोग आत्म हत्या क्यों मान लेते हैं ?
पुराविद् : समाधिमरण को आत्म हत्या मानना बहुत बड़ा अज्ञान है। श्रुतज्ञजी, आप बताते थे कि समाधिमरण तो एक विधान है, उसकी एक विशेष विधि है ?
: हाँ, आचार्य समन्तभद्र कृत 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में इस विधि के सम्बन्ध में पर्याप्त लिखा गया है ।
श्रुतज्ञ