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श्रवणबेल्गोल के शिलालेख... पुराविद् : आचार्य समन्तभद्र का समय ईस्वी सन् की दूसरी शती का उत्तरार्ध
है। हां, श्रुतज्ञजी आप सल्लेखना या समाधिमरण के विषय में बता
रहे थे न ? श्रुतज्ञ : श्रावकाचार में लिखा है
उपसर्गे दुभि जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे ।
धर्माय तनु-विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ अर्थात् जब उपसर्ग हो जाए, दुभिक्ष पड़ जाए, बुढ़ापा आ जाए या स्थिति ऐसी लगे कि अब इसका कोई प्रतिकार नहीं-जीवनलीला तो समाप्त होनी ही है—तब धर्म-भावना को अन्तरंग में सुरक्षित रखने लिए व्यक्ति संयम और साधनापूर्वक शरीर का विमोचन करे, उसे समाप्त हो जाने दे, आचार्यों ने इसे सल्लेखना कहा है। यही समाधिमरण है । अर्थात् व्यक्ति आत्म-धर्म (निज-स्वाभाव) में लीन रहे, और शरीर छूट जाए। कितनी बड़ी समता और संयम आवश्यक है
इस विधि के लिए! अनुगा : ठीक है, आत्म-हत्या तो एक आवेग है। उसमें भावनाओं की शान्ति
नहीं, वह तो घोर आत्म-हनन है। श्रतज्ञ : शास्त्रो में सल्लेखना की विधि की पूरी चर्चा है । सल्लेखना धारण करने
से पूर्व श्रावक स्नेह और वैर दोनों भावों का त्याग करके वीतराग हो जाए, परिग्रह का त्याग करके मन को शुद्ध करे, अपने बन्धु-बान्धवों से प्रियवचन कहकर क्षमा मांगे, उन्हें क्षमा करे। शास्त्र के वचनों द्वारा अपने मन को प्रसन्न और उत्साहित करे । उत्तरोत्तर अन्न का आहार छोड़कर दूध लेना प्रारम्भ करे । दूध छोड़कर मट्ठा, उसे भी
छोड़कर गर्म जल, फिर वह भी छोड़ दे। उपवास करे। पुराविद् : वास्तव में हिन्दू समाज में काशी-वास की भावना भी मोटे रूप से
यही है । जैन संस्कृति में इसे अध्यात्म और साधना की कोटि में रख
कर निश्चित पद्धति का निर्देशन किया गया है। अनुगा : क्षमा कीजिए, यह तो प्रसंगवश मैंने प्रश्न कर लिया । वास्तव में तो
हम शिलालेखों की चर्चा लिये बैठे हैं। बाग्मी : यह चर्चा भी शिलालेखों की ही है। मैं कुछ उदाहरण देता हूँ जिन
लेखों में उल्लेख है कि कितने दिन के व्रत-उपवास या तपस्या के उपरान्त किसका समाधिमरण हुआ । शिलालेख क्रमांक 1 पढ़ ही धुके हैं। शिलालेख क्रमांक 23 उदाहरणार्थ लें : "अदेयरेनाड चितूर मौनिगुरवडिगल शिषित्तियर् नागमतिगन्तियर् मूरु तिगल नोन्तु मुडिप्पिदर्।"