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भरत चक्रवर्ती का साम्राज्य विस्तार नदी तक सैन्यदल पहुंचा। उपसमुद्र, समुद्रतट और लवण-समुद्र को पार कर फिर स्थल की ओर चक्र आया। विन्ध्यगिरि से विजया पर्वत तक सभी दिशाओं को दिग्विजय के तूर्यनाद से गुंजाता सैन्य-दल आगे बढ़ा जा रहा था। चक्रवर्ती के पराक्रम की शृंखला में अनेक-अनेक विजयों की कड़ी जुड़ती चली गयी, जो क्रमशः विश्व की परिधि को घेरती जा रही थी।
दिग्विजय के अन्तिम चरण में विजया पर्वत के वृषभाचल शिखर की ओर चक्र बढ़ा तो महाराज भरत के मन में विचित्र आकांक्षा जगी कि पर्वत के शिखर को घेर कर खड़ी हुई किनारे की शिलाओं पर वह अपने दिग्विजय के पराक्रम की प्रशस्ति अपने हाथ से उत्कीर्ण करें। भरत ने सोचा-"लक्ष्मी चंचल है, कालान्तर में कौन इसे देखेगा। किन्तु कीति और यश चिरस्थायी हैं। यदि इन अनन्तकाल तक अक्षय रहने वाली शिलाओं के वक्ष पर मैं अपनी कीर्ति उत्कीर्ण कर दूं तो मेरे अद्वितीय शौर्य की यह गाथा अमर हो जायेगी।" अनिर्वचनीय उत्साह से भरे भरत शिला के एक भाग तक जब पहुँचे तो देखा वहाँ कुछ लिखा हुआ है। वह किसी नरेश की प्रशस्ति थी- चक्रवर्ती नरेश की । भरत को आश्चर्य तो हुआ किन्तु सोचा कि अतीत में कोई राजा हुआ होगा जिसे चक्रवर्ती मान लिया गया होगा। शिला का विस्तार बहुत बड़ा था। सोचा-'आगे के किसी भाग में प्रशस्ति लिख दूंगा'। भरत आगे बढ़े। देखा, कुछ लिखा हुआ है—फिर किसी चक्रवर्ती का नाम । भरत तीव्र व्याकुलता की स्थिति में आगे बढ़ते गये किन्तु कहीं कोई शिला-पट ऐसा नहीं मिला जिस पर किसी चक्रवर्ती की प्रशस्ति न लिखी हो । भरत हताश हो गये। किन्तु, हारे नहीं । अपनी प्रशस्ति तो लिखनी ही थी, सो इस परम प्रतापी चक्रवर्ती ने किसी एक पूर्ववर्ती नरेश की प्रशस्ति को वज्रखण्ड से घिस-घिसकर मिटा दिया, शिला-खण्ड को चिकना कर दिया और हीरे की छैनी से अक्षर उकेरने प्रारम्भ किये। मन में तब लांछना की यह गूंज नहीं उठी होगी? - "देख तो रहा है तू भरत, कि इस धरा पर तुझसे पहले कितने असंख्यात चक्रवर्ती हो गये हैं। इनमें से प्रत्येक ने अपने अहं को तुष्ट करने के लिए अपनी प्रशस्ति यहाँ उत्कीर्ण की है । उनको तो लिखने का स्थान भी मिला है, किन्तु तू ऐसा कि दूसरे की प्रशस्ति को मिटाकर अपने अहंकार के नश्वर अक्षर उकेर रहा है !"
निःसन्देह भरत ने प्रशस्ति में मात्र वही लिखा-जो यथार्थ श। अनगिनत महान् यशस्वी यथार्थों के समुद्र के बीच में कीर्ति की छोटी-सी बूंद :
"स्वस्ति श्री। इक्ष्वाकु वंश रूपी आकाश का चन्द्रमा और चारों दिशाओं की पृथ्वी का स्वामी मैं भरत हूँ। मैं अपनी माता के सौ पुत्रों में से एक बड़ा पुत्र हूँ । श्रीमान् हूँ। मैंने समस्त विद्याधर, देव और भूमिगोचरी राजाओं को नम्रीभूत किया है। प्रजापति भगवान वृषभदेव का पुत्र हूँ, मनु हूँ, मान्य हूँ, शूरवीर हूँ, पवित्र हूँ, उत्कृष्ट बुद्धि का धारक हूँ, चरमशरीरी हूँ, वीर हूँ, इस