________________
आज से एक हजार वर्ष पहले कर्नाटक के महाप्रतापी, महाबलाधिप 'सत्य युधिष्ठिर' चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर बाहुबली की इस मूर्ति की स्थापना अपने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के सान्निध्य में की। प्रतिष्ठापना का सहस्राब्दि महोत्सव हमारी पीढ़ी सन् 1981 के प्रारम्भ में श्रवणबेलगोल में मना रही हैतिथि और लग्न शोध कर। इस प्रकार हमारा आधुनिकतम काल जुड़ जाता है जीवन्त इतिहास के प्राचीनतम पौराणिक काल से। अनादि-काल से जीवन-मरण और आवागमन के चक्रवात में हमने मानव के और भी अनेक अभ्युदय देखे होंगे, इतिहास-निर्माण के हम सहभागी बने होंगे, किन्तु पूर्वभव का वह सब हमें पता नहीं, याद नहीं । सौभाग्य का यह क्षण तो हमारे अपने युग की आपबीती बन रहा है। इसके स्वागत में हमने पलक-पांवड़े बिछा दिए हैं।
सहस्राब्दि समारोह के अवतरण के लिए, उसके पद-निक्षेप के लिए, भावनाओं की अनेक-अनेक रंग-बिरंगी अल्पनाएँ रची जा रही हैं। इन अल्पनाओं के सर्जक, कर्मठ नेता श्री साहू शान्तिप्रसादजी हमारे बीच नहीं रहे किन्तु धर्मगुरु उपाध्याय (अब एलाचार्य) श्री विद्यानन्दजी महाराज और श्रवणबेल्गोल के अत्यन्त निष्ठावान् और क्रियाशील भट्टारक श्री चारुकीर्तिजी स्वामी के साथ विचारविमर्श करके जिन योजनाओं का सूत्रपात वह कर गए, वे हमारी प्रेरणा-स्रोत बन गई। संयोग ऐसा बना कि भारतीय ज्ञानपीठ के वर्तमान अध्यक्ष श्री साहू श्रेयांसप्रसाद जैन ने उन अल्पनाओं के दायित्व-विभाजन में एक कूची मेरे हाथ में थमा दी और कहा कि भगवान बाहुबली की कथा के रूप में एक अल्पना की संरचना मैं करूं। उनकी भावना रही है कि यह कथा ऐसी शैली में लिखी जाए कि भगवान बाहुबली के रोमांचकारी जीवन के विभिन्न आयाम सहजता के साथ उभर कर आ जायें और आज के पाठक को आकृष्ट कर सकें। काश, ऐसी शैली मैं प्राप्त कर पाता !
लेकिन, शैली ही एक ऐसी वस्तु है जो मांगी नहीं जा सकती। वह तो लेखक की निजता की अभिव्यक्ति है। लेखक में निजता और विशिष्टता है तो है, नहीं तो नहीं है, या फिर जितनी भी है। अतः अपने निजत्व को ही पाथेय बनाकर मैं चल पड़ा। इस कथा का पूरा विस्तार आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण में उपलब्ध है-इतना व्यापक विस्तार कि संभाल पाना कठिन है। प्रतिभा के वरदान ने तपस्वी आचार्य जिनसेन के काव्य-कौशल को चमत्कारी बना दिया है। मैंने विनम्र भाव से आचार्य जिनसेन की कृति को कथा-भाग के सृजन का आधार बनाकर अपनी आवश्यकता के अनुसार एक संक्षिप्त ढांचा बना लिया था। फिर पाया कि आदिनाथ-भरत-बाहुबली की कथा के अन्य स्रोत भी हैं, विशेषकर कन्नड़ साहित्य की कृतियाँ । बाहुबली के मनोभावों के पल्लवन में मैं इन कृतियों से उपकृत हुआ हूँ।