________________
( xi )
बाहुबली-आख्यान तो इस कृति का एक पक्ष है- पौराणिक पक्ष । किन्तु श्रवणबेलगोल में भगवान बाहुबली की मूर्ति को शीर्षस्थ करनेवाला पर्वत विषयगिरि, और इस मूर्ति के निर्माण की संभावना को उद्घाटित करने वाला पर्वत चन्द्रगिरि – पौराणिक आख्यान को उस कालखण्ड से जोड़ते हैं जिसे इतिहासकार भारतीय इतिहास के विधिवत् आकलन का प्रामाणिक प्रस्थान-बिन्दु मानते हैं । वह बिन्दु है, भारत के एकछत्र साम्राज्य के विधायक सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य का काल और कूटनीति के सिद्धान्तों के विचक्षण प्रतिपादक आचार्य चाणक्य का सहवर्ती समय । चन्द्रगुप्त मौर्य, मुनिव्रत धारण करने के उपरान्त, आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में उत्तर भारत से दक्षिण भारत जाने वाले सहस्रों मुनियों के संघ में सम्मिलित हो गए | श्रवणबेलगोल का 'चन्द्रगिरि पर्वत' और पर्वत पर का मन्दिर 'चन्द्रगुप्त बसदि आपने नाम की सार्थकता को इन्हीं चन्द्रगुप्त मौर्य के अस्तित्व में प्रतिफलित पाते हैं ।
इस प्रमाण की आधार शिला छठी-सातवीं शताब्दी का वह लेख भी है जो चन्द्रगिरि पर्वत पर निर्मित पार्श्वनाथ बसदि (मन्दिर) के दक्षिण की ओर वाली शिला पर अंकित है । इस शिलालेख की महत्ता को देखते हुए मैंने आवश्यक समझा कि पाठक इसकी शब्दावली, इसके अर्थ और इसके भाव को हृदयंगम करें। इस उद्देश्य की सिद्ध के लिए मैंने जो साहित्यिक विधा अपनायी है, वह एक ऐसा प्रयोग है जिसमें वार्तालाप, नाटकीय उत्कण्ठा, विवेचन और कविता का सम्पुट प्रतिलक्षित है | श्रवणबेलगोल के शिलालेखों के अध्ययन से प्राप्त तथ्य और निष्कर्ष मैंने सम्बन्धित दो अध्यायों में इसी शैली में गूंथे हैं । मेरा विश्वास है, इतिहास के अध्येता इन शिलालेखों की सामग्री को आधार बनाकर शोध-खोज करेंगे जिससे अनेक ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक, साहित्यिक और भाषा-शास्त्रीय तथ्य उद्घाटित होंगे। इसी दृष्टि से इस पुस्तक में मैंने अनेक परिशिष्ट नियोजित किये हैं और प्रत्येक विषय से सम्बन्धित शिलालेखों का सन्दर्भ दिया है। भट्टारक श्री चारुकीर्ति स्वामीजी ने इन परिशिष्टों के महत्त्व को मान दिया है ।
अभी तक की खोजों के अनुसार श्रवणबेलगोल और उस के अंचल में लगभग 575 शिलालेख उपलब्ध हैं। पहली बार सन् 1889 में 144 शिलालेखों के संग्रह का सम्पादन मैसूर पुरातत्त्व विभाग के तत्कालीन अधिकारी लेविस राइस ने किया था। 34 वर्ष बाद, सन् 1923 में जो नया संस्करण प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता और संस्कृत-कन्नड के प्रकाण्ड विद्वान नरसिंहाचार ने सम्पादित किया उसके शिलालेखों की संख्या 500 तक पहुँच गई। श्री नरसिंहाचार की प्रतिभा, क्षमता, दूरदर्शिता, श्रम और अध्ययन की व्यापकता का ध्यान करता हूँ तो श्रद्धानत हो जाता हूँ । पं० नाथूरामजी प्रेमी की प्रेरणा से डा० हीरालाल जैन ने सन् 1928 में इन