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शिलालेखों का देवनागरी लिपि में लिप्यन्तरण करके महत्त्वपूर्ण भूमिका के साथ इन्हें माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित कराया। कतिपय शिलालेखों के तथ्य का सार भी दिया।
नरसिंहाचार की कृति का तीसरा अंग्रेजी संस्करण सन् 1971 में इन्स्टीट्यूट ऑफ कन्नड स्टडीज, मैसूर, ने प्रकाशित किया है जिसमें 573 शिलालेख संग्रहीत हैं। शिलालेखों के क्रमांक के लिए तथा उसके पाठ और अर्थ को समझने के लिए मैंने इसी संस्करण को आधार बनाया है। शिलालेख क्रमांक 1 में जिन भद्रबाहु स्वामी और उनके शिष्य (चन्द्रगुप्त) का उल्लेख है, इस सम्बन्ध में मैंने नरसिंहाचार के तर्कों और प्रमाणों को साक्ष्य माना है। यह मैं जानता हूँ कि इस सम्बन्ध में तर्क-वितर्क आज भी चल रहे हैं। किन्तु जो ठोस प्रमाण सामने हैं उन्हें नकारने की तुक मेरी समझ में नहीं आई।
वस्तुत: पुस्तक में बाहुबली-आख्यान का पौराणिक युग, श्रुतकेवली भद्रबाहु, चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य का ऐतिहासिक काल, छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर सौ-दो सौ साल पहले तक के श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों का समय-सब संकेन्द्रित होते हैं, चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोम्मटेश्वर मूर्ति की प्रतिष्ठापना के मंगलोत्सव की कथा पर । पौराणिक यूग के आख्यान के समान यह कथा भी बड़ी रोचक है । मैंने विविध अनुश्रुतियों को भी इस कथा में समाहित कर लिया है। कन्नड साहित्य की पुरानी-नयी अनेक प्रकाशित कृतियों द्वारा कथा के ये तथ्य समथित हैं। ___इस कृति का प्रणयन समग्र रूप से यदि किसी प्रेरणा-स्रोत को समर्पित किया जा सकता है तो भगवान बाहुबली गोम्मटेश्वर के उपरान्त, सौहार्द्र, स्नेह और सज्जनता की मूर्ति श्री साहू श्रेयांसप्रसादजी को। पुस्तक लिख मैं रहा था, किन्तु साथ-साथ वह इसके सृजन की प्रगति को आंकते जाते थे। उनके अनुचिन्तन का केन्द्र बन गए थे कृति में वर्णित कथा सूत्रों के विविध आयाम। जब मैंने पुस्तक के दो अध्याय लिख लिये तो साइजी ने एक अन्तरंग गोष्ठी आयोजित की । बन्धुवर अक्षयकुमारजी और भाई नेमीचन्दजी तो साथ बैठे ही, हमें विशेष उत्साह मिला भूतपूर्व संसद-सदस्य श्री गंगाशरणसिंह की उपस्थिति से जिन्होंने राष्ट्रभाषा के क्षेत्र में उत्तर और दक्षिण के अनेक सक्रिय सम्पर्क-सूत्र स्थापित किये हैं। सबने मूल्यवान सुझाव दिये और कृतित्व की सराहना द्वारा प्रोत्साहित किया। पौराणिक आख्यान, सैद्धांतिक मान्यताएं, ऐतिहासिक परिदर्शन, शिलालेखीय अध्ययन, गवेषणात्मक तथ्यों का समाहार, अनेक भाषाओं में उपलब्ध पूर्ववर्ती कवियों-लेखकों के अपने-अपने दृष्टिकोण और भावात्मक पल्लवन की विविधता-इस सबके बीच तारतम्य बैठाते हुए किसी सृजन को 'नया' बनाना दुर्गम को पार करना है। ___ पाण्डुलिपि का प्रारंभिक रूप तैयार होते ही मैंने इसे सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी, डा. ज्योतिप्रसाद जैन, श्री नीरज जैन को भेजा। सबने बहुत उत्साह