________________
(xiii)
से पढ़ा और सुझाव दिये। सबके प्रति मेरी विनम्र कृतज्ञता।
भारतीय ज्ञानपीठ के साथियों ने भरपूर सहयोग दिया। पुस्तक का शीर्षक क्या हो इसके विषय में सबसे अधिक चिन्तन किया श्री साहू श्रेयांसप्रसादजी ने। कथा के मनोवैज्ञानिक पक्ष को उभारने वाले शीर्षक की कल्पनाएँ उन्होंने की और उनका मन टिका चामुण्डराय द्वारा आयोजित गोम्मटेश्वर के प्रथम अभिषेक को सार्थक बनाने वाली अकिंचन बुढ़िया गुल्लिका-अज्जी पर । बाहुबली तो सबके हैं,
और सबका, जन-जन का, प्रतिनिधित्व करने वाली है अज्जी (दादी-मां) गुल्लिका। ज्ञानपीठ में हम लोगों ने-जगदीशजी, विमलप्रकाशजी, अमरजी, गुलाबचन्द्रजी और मैंने अलग-अलग शीर्षक सूचियां बनाईं, और धीरे-धीरे प्रत्येक शीर्षक को अस्वीकारते गये क्योंकि पूरी बात को, बात के विविध आयामों को, समेटने में शीर्षक लम्बे हुए चले जा रहे थे। समझ लीजिये कि ये सारे शीर्षक इस कृति के नगीने में प्रतिबिम्बित हैं—'अन्तर्द्वन्द्व', 'भँवर-जाल', 'भंवरों के पार', 'संतरण और संतीर्थ', 'गुल्लिकायज्जी के विश्व-वन्द्य भगवान्' 'परमचेता बाहुबली' आदिआदि । जो भी भाव वर्तमान शीर्षक में नहीं आ पाये, यहाँ लिख दिये हैं।
प्रत्येक विषय से संदर्भित शिलालेखों का ठीक-ठीक क्रमांक देना बड़े झमेले का काम निकला। प्राक्तन विचक्षण श्री नरसिंहाचार ने दो संस्करण प्रकाशित किये, दोनों में बहुत से शिलालेख-क्रमांक भिन्न-भिन्न हो गए। डा० हीरालालजी ने हिन्दी में शिलालेख उद्धृत किये तो साथ-साथ दो क्रमांक दिये। किन्तु अब जब 'एपीग्राफिया कर्नाटिका' का तीसरा नया संस्करण प्रकाशित हुआ तो क्रमांक पुनः बदल गए। अन्तिम परिशिष्ट को छोड़कर बाकी सभी स्थलों पर मैंने इसी नये संस्करण के क्रमांक उद्धृत किये हैं, क्योंकि अब अंग्रेजी का यही संस्करण उपलब्ध है। कठिनाई यह है कि इसमें बहुत से शिलालेख कन्नड लिपि में हैं, या फिर रोमन लिपि में। श्रवणबेल्गोल के समग्र शिलालेखों का एक हिन्दी संस्करण अपेक्षित है। डा० हीरालालजी वाला अप्रतिम संस्करण बिलकुल ही अप्राप्य है।
पूज्य ऐलाचार्य विद्यानन्दजी महाराज ने 'आशीर्वाद' के रूप में जो सारगभित भूमिका लिख दी है, उसके लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञतापूर्वक प्रणत हूँ। श्रवणबेल्गोल की तीर्थयात्रा में श्रद्धेय भट्टारक श्री चारुकीर्ति स्वामीजी ने तथ्यों के संकलन में और फिर पाण्डुलिपि के संशोधन में जो सहायता की वह कृतज्ञता की शब्दावलि में सीमित नहीं की जा सकती। मूडबिद्री मठ के युवा और तेजस्वी भट्टारक पण्डिताचार्य श्री चारुकीति पी० स्वामीजी ने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि के प्रारम्भिक अंशों को तन्मयता से सुना और महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी नवयुगीन सांस्कृतिक जागरण के प्रेरणा-स्रोत हैं। उसकी धारा को प्रवहमान करने वाले आज तीन तरुण भट्टारक (श्रवणबेल्गोल, मूडबिद्री और हुम्मच के) धर्म-साधना के क्षेत्रों में क्रियाशील हैं।