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प्रस्थापना (प्रथम संस्करण से)
इतिहास की दृष्टि मूलत: घटनाओं पर जाती है। जो घटित हो गया वही परम्परा से जानकर और मानकर कि यह 'इति-ह-आस'-'यह ऐसा हुआ'लिपिबद्ध कर दिया गया। आज इतिहास की यह दृष्टि विकसित होकर घटनाओं की पृष्ठभूमि का भी आकलन करती है। घटनाएँ जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित होती हैं उनके आचार-विचार और उनकी प्रेरक भावनाओं के उत्स की खोज करती हैं। तब व्यक्तियों का परिवेश और उनका मनो. जगत् इतिहास के अंग बन जाते हैं। इस प्रकार इतिहास रोमांचक हो जाता है, 'रोमांस' बन जाता है । वास्तव में हमारा प्राचीन पुराणकार इसी प्रकार के इतिहास का सर्जक है। इसी प्रकार के आधार पर जब कोई कवि महाकाव्य की रचना करता है तो उसकी कल्पना के पंख प्रसार पाकर इन्द्रधनुषी रंगों से रंजित हो जाते हैं। कवि और साहित्यकार के मन में जब इन रंगों की छटा बस जाती है तो वह मूल वस्तु के सार-तत्व को रंगों का संस्पर्श देकर कहानी, उपन्यास और नाटक लिखता है। कोरे तथ्य तब प्रीतिकर और प्रतीतिकर सत्य बन जाते हैं । अतीत के विषय में अन्तः अनुभूति प्रमाण बन जाती है। - प्रत्येक अतीत से वर्तमान उपजता है, और प्रत्येक वर्तमान भविष्य का सर्जक है। इतिहास का यह चक्र काल की ध्रुवता की धुरी पर घूमता है। दर्शन की भाष में सत् के अस्तित्व अर्थात् 'सत्य' का यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-मय रूप है।
अतीत के किस काल-खण्ड के छोर पर प्रारम्भ हुआ होगा वह ध्रुव जिसके चौदहवें मनु या कुलकर नाभिराय थे ? स्वयं नाभिराय के पुत्र, प्रथम तीर्थकर आदिनाथ, युग-प्रणेता पुराण-पुरुष हैं। उनके छोटे पुत्र बाहुबली की कथा इतिहास के सैकड़ों-हजारों युगों को पार करती हुई, और उत्तर-दक्षिण के भूमि-खण्डों के प्राचीरों को लांघती हुई, एक दिन आ पहुंची दक्षिण कर्नाटक के कलबप्पु (कटवप्र) पर्वत के मनोरम शिखर पर, एक विशालकाय प्रस्तर-प्रतिमा के रूप में जिसकी मुख-छवि घाटी के कल्याणी तीर्थ, धवल सरोवर (बेलगोल) में प्रतिबिम्बित हो गई।