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जैन संस्कृति की सार्वभौमिकता के संवाहक
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आचार्य भद्रबाहु ने कहा
संघोऽयं सुरवृक्षाम: समर्थः सर्वकर्मस् । तथापि नात्र योग्यास्था चारुचारित्रधारिणाम् ।। पतिष्यति तरां रौद्रं दुभिक्षं दुःखदं नृणाम् । धान्यवदुर्लभो भावी संयमः संयमर्षिणाम् ।। स्थास्यन्ति योगिनो येऽत्र ते त्यक्ष्यन्ति संयमम् ।
ततोऽस्मान् विहरिष्यामोऽवश्यं कर्णाटनीवृतम् ॥ “यद्यपि कल्पवृक्ष के समान सब प्रकार के साधन आप लोगों के पास हैं और आप समर्थ हैं किन्तु चारित्र की रक्षा करने के लिए तत्पर साधुओं को यहां ठहरना उचित नहीं है। जिस प्रकार यहाँ धान्य दुर्लभ होने वाला है, उसी प्रकार संयम भी दुर्लभ हो जायेगा । यहाँ रहने वाले साधु संयम को त्याग देंगे। इसलिए हमारा निर्णय है कि हम यहाँ से कर्नाटक देश की ओर जायेंगे।"
आचार्य भद्रबाहु का यह निर्णय सुनकर श्रावकों को अब कुछ कहने के लिए नहीं रह गया था। वे चिन्तामग्न हुए (82), फिर उनमें ऐसी चेतना आयी
यद्देशे विचरन्ति चारुचरिता निर्ग्रन्थयोगीश्वराः।।
पग्रिन्योऽपि च राजहंसविहगास्तत्रैव भाग्योदयः॥ -वास्तव में भाग्यशाली है वह देश (कर्नाटक) जिसमें निर्मल-चारित्र-धारक निर्ग्रन्थ साधु विहार करते हैं; जहाँ के श्वेत सरोवरों में कमलिनियां शोभित होती हैं, जहाँ राजहंस विचरते हैं । अतः निमित्त-ज्ञानियों ने जो कहा है वह ठीक ही है।
आहार के उपरान्त (83), मुनिसंघ के विहार से पहले आचार्य भद्रबाहु ध्यानमग्न हुए (84) । संघ ने प्रस्थान किया (85), आचार्य ने पुनः धर्मोपदेश दिया (86) । राजपुरुषों, श्रेष्ठियों, गण-नायकों और जनसामान्य ने आचार्य भद्रबाहु और मुनिसंघ को श्रद्धापूर्ण विदाई दी तथा उनके धर्म-मंगल की कामना की (87-90)।
m. श्रीकलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर
श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा (गांधीनगर) पि ३८२001