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अनुगा
श्रुतज्ञ
अनुमा
श्रुतज्ञ
अन्तर्द्वन्द्वों के पार
को मैंने अपने आधुनिक शैली के खण्ड-काव्य में इस प्रकार निबद्ध
किया है
कटवप्र के उत्तुंग शिखर पर
आ रुके हैं त्रिकालदर्शी आचार्य भद्रबाहु ।
जान गये हैं निमित्त - ज्ञान से वह
कि अल्प रह गई है आयु शेष, समय है निकट, कर्मों की निर्जरा का, समाधि में तल्लीनता का ।
छोड़ दिया उन्होंने संघ को,
कर दिया विदा समग्र शिष्यमंडली को
कि बढ़ जाये वह आगे,
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नये आचार्य की अनुज्ञा में साथ रह गया है केवल एक शिष्य
दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र,
( इतिहास- नाम सम्राट् चन्द्रगुप्त ) 1.. गुरु की सेवा का एकाकी पुण्य अवसर छोड़ा नहीं उस साम्राज्य - त्यागी ने । सम्यक् चारित्र की आराधना से सदा पवित्र
बैठ गये गुरु, विस्तीर्ण शिलाओं के
शीतल पटल पर, संन्यास धारण कर,
समाधिमरण हेतु ।
कालान्तर में इसी कटवत्र से
समाधि प्राप्त की सात सौ ऋषियों ने ।
: कितना पवित्र है गिरिशृंग ! बार-बार नमस्कार करने को मन होता
है ।
: मेरा मन अटक गया है शिलालेख की पहली पंक्ति पर,
दो शब्दों पर :
'सिद्ध स्वस्ति' ।
: दोनों शब्द कितने अर्थपूर्ण हैं । 'सिद्धं, अर्थात् सब कार्य सिद्ध हों और 'स्वस्ति' अर्थात् सबका कल्याण हो ।
: इसको यों समझना चाहिए कि 'सिद्ध' अर्थात् सिद्ध भगवान को नमस्कार हो । सिद्ध का अर्थ सिद्ध परमेष्ठी । जैन-धर्म की परम्परा का है यह शब्द ।
शिलालेख का पहला श्लोक भगवान महावीर की श्रद्धा-स्मृति में है ।
उसके पहले