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संस्कृति के शिनापट पर
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पर्वत पर आ पहुँचे । अब, वाग्मीजी जरा और ऊपर से इस लेख को पढ़ लें- यहाँ पहुँचने वाले महापुरुष का नाम स्पष्ट हो जायेगा।
कथा का संकेत भी मिल जायेगा। बाग्मी : 'गुरु-परम्परीण-क्रमाभ्यागत महापुरुष - सन्तति - समवयोतित-अन्वय
भद्रबाहु-स्वामिना उज्जयन्याम् अष्टांग - महानिमित्त - तत्वज्ञेन, त्रैकाल्य-दशिना निमित्तेन द्वादश-संवत्सर-कालवैषम्यम् उपलभ्य
कथिते सर्वस्संघ उत्तरापथाद् दक्षिणापथम् प्रस्थितः।' श्रुतज्ञ : हां, यही कथा है जैन शास्त्रों और पुराणों में। पुराविद् : श्रुतज्ञजी, यहाँ तो वह पौराणिक कथा इतिहास के स्वरों में पर्वत के
हृदय से बोल रही है। अनुगा : इसका अर्थ तो बताइये, वाग्मीजी । वाग्मी : सुनो। "प्राचीन गुरु-परम्परा के क्रम में जिन महापुरुष का नाम
आचार्यों की नामावलि में आता है उन त्रिकालदर्शी अष्टांग महानिमित्त के ज्ञानी आचार्य भद्रबाहु स्वामी के निमित्त-ज्ञान में यह सूचना प्रकट हुई कि'उज्जयिनी में, (जहाँ वह धर्मोपदेश कर रहे थे, और समस्त उत्तरांचल में), बारह वर्ष का वैषम्य अर्थात् अकाल पड़ने वाला है। इसलिए वे अपने संघ को उत्तरापथ से दक्षिण की ओर ले गये, क्रम-क्रम से यात्रा
करते हुए यहाँ पहुँचे।" अनुगा : सारा संघ यहाँ आकर रुक गया ? पुराविद् : नहीं। कथा का वह अंश भी इसी शिलालेख में होना चाहिए।
शिलालेख के अन्त में क्या लिखा है, वाग्मीजी ? । 'वाग्मी : समुत्तुंगशृंगे शिखरिणि जीवित-शेषम् अल्पतरं कालम् अवबुध्य,
आत्मनः सुचरित-तपस्समाधिम् आराधयितुम् आपृच्छ्य, निरवशेषेण संघ विसृज्य शिष्येण एकेन, प्रथलतर-आस्तीर्ण-तलासु शिलासु शीतलासु स्वदेहं संन्यस्य आराधितवान्, क्रमेण सप्त-सतम् ऋषीणाम् आराधितम् इति । यहाँ पर यह स्पष्ट कर दूं कि 'शिष्येण एकेन' का संदर्भ है उस पंक्ति में जो प्रारम्भ होती है अतः आचार्यः प्रभाचन्द्रो नाम अवनितले
ललामभूते. 'आदि जो कह चुका हूँ।" श्रुतज्ञ : यह सुनकर तो मेरा हृदय गद्गद हो गया है । वाग्मीजी, इसका अर्थ
___ मैं बता दं अनुगा को ? वाग्मी : अवश्य, आपकी तो भावनाओं में यह कथा रसी-बसी है। श्रृतज्ञ : मैं विशेष रूप से इसलिए यह सब कह रहा हूँ कि इस कथा के इस अंश