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अन्तर्द्वन्द्वों के पार
मिला लें--'अवनितल-ललामभूते अस्मिन् कटवप्र-नामक-उपलक्षिते' अर्थात् समस्त पृथ्वी तल का श्रृंगार है यह कटवप्र पर्वत । कटवप्र नाम है इस चन्द्रगिरि पहाड़ी का जिसे चिक्कबेट्ट (छोटी पहाड़ी) भी कहते
हैं। इसे ही कहते हैं, तीर्थगिरि और ऋषिगिरि। वाग्मी : निःसन्देह । आपने अच्छा संकेत दिया, श्रुतज्ञजी। आलेख में वर्णन है
कटवप्र की इन शिलाओं का। देखिए, कैसी सुन्दर उपमा है-शिलाएँ श्यामल हो गई हैं, विपुल जल से भरे बादलों की भांति । नाना प्रकार के वृक्षों पर खिले फूलों और पत्तों की पंक्ति-रचना ने इन्हें रंगबिरंगा बना दिया है। फैले हुए हैं पठार और घाटियां, जिनमें हैंकन्दराएँ, बड़ी-बड़ी गुफाएँ। दुर्गम स्थान पर विचर रहे हैं वराह,
चीते, शेर, रीछ, भालू, सांप और मृग-दल । अनुगा : बहुत सुन्दर ! पण्डितजी, और पढ़ियेगा! यह हुआ प्रकृति का चित्रण।
ग्राम, नगर और जन-गण के विषय में भी कुछ कहा है ? पुराविद् : वाग्मीजी, अनुगा को बीच में से यह पंक्ति सुनाइये । (संकेत से बताते
वाग्मी : हाँ, यह है-'क्रमेणव जनपदम्, अनेक-ग्राम-शत-संख्यम्, मुदित-जन
धन-कनक-सस्य-गौ-महिषा-जावि-कुल-समाकीर्णम् ।' अर्थ है-कर्नाटक का यह जनपद जिसके सैकड़ों गांवों में रहते हैं प्रसन्न मन वाले मनुष्य, जिनके पास धन है, धान्य है, सोना है, गाय
और मैंसों का दल है; बकरियां हैं, भेड़ें हैं। अनुगा : गाय, भैंस, सोना! और, भेड़-बकरियाँ भी! श्रुतज्ञ : पुराविद्जी, आपने ध्यान दिया होगा, यह वर्णन किस शब्द से प्रारम्भ
होता है ? "क्रमेणैव जनपदम् ..' और वाग्मीजी ने जो अन्तिम शब्द अभी नहीं पढ़ा-वह है, 'प्राप्तवान्' अर्थात् क्रम-क्रम से जनपद, नगर
ग्राम होते हुए इस कटवप्र स्थान पर पहुँचे । प्रश्न है, कौन पहुँचे ? अनुगा : अच्छा, यह तो कोई कथा उभर आयी इस शिलालेख में ? पुराविद् : हाँ अनुगा, यह ऐसी कथा है जो भारतीय इतिहास का स्वणिम अध्याय
है। मैं इस कथा को जानता हूँ किन्तु इसका प्रमाण देखना चाहता था, सो यहां आकर मिल गया। वाग्मीजी, जरा पढ़िये तो ऊपर का यह
अंश जिसका सम्बन्ध 'प्राप्तवान्' से है-कि 'वह यहाँ पहुँचे।' वाग्मी : 'सर्वसंघ उत्तरापथात् दक्षिणापथं प्रस्थितः क्रमेणव जनपदम् अनेक
प्राम'.. इत्यादि यह मैं पढ़ चुका हूँ। 'समाकीर्णे प्राप्तवान् ।' पुराविद् : मिल गया कथा का मूल सूत्र-'उत्तरापथ से दक्षिण की ओर बढ़ते
हुए क्रम-क्रम से जनपद, नगर, ग्राम पार करते हुए यहाँ इस कटवप्र