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संस्कृति के शिलापट पर
श्रुतज्ञ : जैन-तत्त्वज्ञान के मर्मज्ञ । अनुगा : शोध-कार्य में रुचि लेने वाली एक विश्वविद्यालयीय छात्रा।
जैसाकि इनके परिचय से स्पष्ट है, हम मान लेते हैं कि इस दल के काल्पनिक सदस्यों ने अपने-अपने विषय के दृष्टिकोण से कर्नाटक के साहित्य, इतिहास, कलापुरातत्त्व और सामाजिक मान्यताओं का अध्ययन पुस्तकों के माध्यम से कर लिया है। वे जानते हैं कि : • कर्नाटक का प्राचीन साहित्य श्रमण मुनियों और जैन धर्मानुयायी पण्डितों की
देन है। ० उन्हें मालूम है कि कन्नड़ भाषा और व्याकरण का प्राथमिक स्वरूप प्राचीन
जैन विद्वानों ने निश्चित किया है। ० वे पढ़ चुके हैं कन्नड़ का वह अधिकांश पुराण और कथा-साहित्य, जो जैन
तीर्थंकरों, आचार्यों और धार्मिक पुरुषों के कथानकों पर निर्मित हुआ है। ० जैन तत्त्वझान के मूल सिद्धान्त तथा श्रावकों और श्रमणों के आचार का
उन्हें बोध है।
यह दल अब प्रत्यक्ष देखना चाहता है इतिहास के जीवन्त प्रमाण जो कर्नाटक के पर्वतों, गुफाओं, शिलालेखों, मन्दिरों, मानस्तम्भों तथा भण्डारों में सुरक्षित ताड़पत्रों पर लिखे प्राचीन शास्त्रों के रूप में उपलब्ध हैं। अब हम स्वयं भी कल्पना में इस दल के साथ हैं।
[श्रवणबेल्गोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर पार्श्वनाथ बसदि के दक्षिण को ओर स्थित एक शिलालेख 'फ्लैश लाइट' (आलोक-संपात) में स्पष्ट
दिखाई दे रहा है। पण्डित वाग्मी उसका एक अंश पढ़ रहे हैं] वाग्मी : 'विविध-तरुवर-कुसुमदलावलि-विरचना-शबल-विपुल- सजल - जलद
निवह-नीलोत्पल-तले, वराह-द्वीपि-व्याघ्र-ऋक्ष-तरा-व्याल-मगकुलउपचित-उपत्यक-कन्दर-दरी - महागुहा - गहनाभोगवति समुत्तुंगशृंगे
शिखरिणि...' अनुगा : पण्डितजी, कितना सुन्दर पढ़ते हैं आप, इस प्राचीन कन्नड़ लिपि को। वाग्मी : बिटिया, मेरा पढ़ना क्या ? सुन्दर तो है इस शिलालेख का काव्य,
इसकी सरस, सरल, प्रवाहमय भाषा, जो सुन्दरतम शब्दावलि में चित्र
पर चित्र बनाती चलती है। पुराविद् : सच बात तो यह है कि इस ललित पदावलि में कर्नाटक का समूचा
प्राकृतिक वैभव बोल रहा है । ये सब विविध प्रकार के सुन्दर वृक्ष, ये झूमती हुई फूलों भरी डालियाँ (रुककर, वाग्मी से) वाग्मीजी,
यह क्या वर्णन है ? 'शबल-विपुल-सजल-जलद नीलोत्पल-तले...' श्रुतज्ञ : अर्थ स्पष्ट होगा यदि ऊपर की पंक्ति भी पढ़ लें और उसे इसके साथ