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अन्तर्द्वन्द्वों के पार
: जो कल्पवृक्ष रहने के लिए आश्रय देता था वह 'गृहांग' कहलाता था। : जो खाने के लिए आहार देता वह 'भोजनांग',
जो आसन और पात्र आदि देता वह 'पात्रांग', : पहनने के लिए जो वस्त्र देता वह 'वस्त्रांग', : श्रृंगार के लिए भूषण प्रदान करनेवाला 'भूषणांग', : जिससे सुगन्धित फूलों की मालाएं प्राप्त होती वह 'मालांग', : आनन्द के लिए सभी प्रकार के पेय देकर मस्त रखने वाला कल्पवृक्ष 'मद्यांग', : मनचाहा संगीत सुनने की इच्छा जो पूरी करता वह 'तूांग', : अंधेरे स्थानों में उजाला देने वाला 'ज्योतिरंग', : गर्मी और सर्दी की बाधाओं को दूर करने वाला कल्पवृक्ष कहलाता था
'तेजांम'। इस प्रकार आदि मानव की इच्छाएं सहज रूप से पूरी हो जाती थीं। भोग ही भोग की अवस्था थी उस भोगभूमि में। काम करने की आवश्यकता नहीं थी। प्रकृति के साथ एकरसता थी, अपनेपन का सम्बन्ध था।
किन्तु समय स्थिर नहीं रहता। काल या समय, चक्र की तरह घूमता रहता है। कालचक्र का विभाजन पहिए के आरों की तरह से होता है। चक्र के ऊपर उठते हुए आरे 'उत्सर्पिणी' कहलाते हैं और नीचे उतरते आरे 'अवसर्पिणी' कहलाते हैं। कालचक्र के छह आरे उत्सर्पिणी काल में सुख की अवस्था की ओर ऊँचे उठते हैं और फिर चक्र की दूसरी दिशा में धीरे-धीरे वही आरे अवसर्पिणी काल में सुख से दु.ख और दुःख से दुःखतर अवस्थाओं की ओर नीचे उतरते हैं। इस प्रकार कालचक्र के प्रत्येक दौर में छह आरे ऊपर उठते हैं और छह आरे नीचे उतरते हैं। ___मानव समाज जब भोगभूमि का संपूर्ण सुख पूरी तन्मयता के साथ भोग रहा था, सुख-ही-सुख की उस अवस्था को 'सुषमा-सुषमा' कहा गया है। इसी चरम सुख की अवस्था के बाद कालचक्र के आरों का उतार आरम्भ होता है। सुषमासुषमा काल की अवस्था के बाद चक्र का पहला आरा घूमा तो दूसरा आरा 'सुषमा' सामने आया। भोगभूमि का सुख अब दोहरा नहीं रहा, इकहरा हो गया। इसके बाद 'सुषमा-दुषमा' तीसरे आरे के उतार की स्थिति है। सुख के साथ दुःख की आशंका हो चली। इतना ही नहीं, इस युग के मानव-समाज के समक्ष प्रकृति के नित नये परिवर्तनों के कारण कुछ प्रश्न-चिह्न उभरने लगे।
__ यह वह काल था जब कल्पवृक्षों में फल कम होने लगे, रस सूखने लगा; इसलिए मनुष्यों का शरीर उतना पुष्ट नहीं रहा। उनके मन में लोभ आने लगा। अधिक पाने और संग्रह करने की इच्छा सबको सताने लगी। सामाजिक व्यवस्था की कोई रूप-रेखा अभी तक सामने नहीं थी।