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श्रवणबेलगोल के शिलालेख...
के निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, दानशाला, वाचनालय, रंगशालाएँ, तालाब, कुआ, कुण्ड, उद्यान आदि के निर्माण और जीर्णोद्वार से सम्बन्धित हैं, और 100 शिलालेख दान और उन दाताओं के स्मारक हैं जिनके द्वारा पूजा, अभिषेक, आहारदान, मन्दिरों की सुरक्षा के लिए व्यय आदि का प्रबन्ध, दिये गये ग्राम, भूमि और धन के दान से सम्पन्न हुआ । : ओह, यह तो श्रवणबेलगोल की सांस्कृतिक विभूति का और इसके प्रभाव का एक पूरा चित्र ही उभर आया !
पुराविद् : (मुझे तो यह भी लगता है कि धर्म और संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करने वाले ये शिलालेख इतिहास की जानकारी की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं । एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि जिस प्रदेश में बारह हजार मुनियों का संघ आया, जहाँ इतने मन्दिर बने, जहाँ बाहुवली की . विशाल प्रतिमाएँ स्थापित हुईं, दीर्घकाल तक आचार्यो, साधुओं और श्रावकों का समाधिमरण सम्भव हुआ, वहीं के राजा, नरेश, सेनापति और उन सबके वंशज अवश्य इन प्रवृत्तियों के समर्थक थे । वास्तव में अनेक नरेश और राज-पुरुष स्वयं जैन थे, जैनाचार्यों के शिष्य थे | D : आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त जिस संस्कार को जमा गए, वह कालान्तर में बराबर पुष्ट होता रहा ।
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वाग्मी
: भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की स्मृति चन्द्रगिरि पर्वत के जिस शिलालेख क्रमांक 1 से स्पष्ट होती है, उसके अर्थ के सम्बन्ध में अर्थात् भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो शंकाएँ उठायी जाती हैं, उस विषय में क्या कोई अन्य प्रमाण यहाँ नहीं हैं ?
अनुगा
श्रुतज्ञ
पुराविद् : अवश्य हैं। देखिए, शिलालेख क्रमांक 34 (शक संo 572 का) :
भद्रबाहु सचन्द्रगुप्त-मुनीन्द्रयुग्मदिनोप्पेवल् । भवमागिद धर्ममन्दु वलिक्केवन्दिनिसल्कलो ॥ विद्रुमाघर शान्तिसेन - मुनीशनाक्किए वेल्गोल । अद्रिमेलशनादि विट्टपुनर्भवक्केरे आगि...॥
77
वाग्मी
अर्थात् जो जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धिको प्राप्त हुआ था, उसके किंचित् क्षीण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनरुत्थापित किया । इन मुनियों ने बेल्गोल पर्वत पर अशन आदि का त्याग कर पुनर्जन्म को जीत लिया ।
: पार्श्वनाथ बसदि के एक स्तम्भ पर लेख क्रमांक 77 भी दर्शनीय हैवन्य: कथन्नु महिमा भण भद्रबाहोर् म्मोहोर - मल्ल-मद-मर्द्दन- वृत्तबाहोः ।