________________
___ अन्तद्वन्द्वों के पार यच्छिष्यताप्तसुकृतेन स चन्द्रगुप्त:
शुश्रुष्यतेस्म सुचिरं वन-देवताभिः ॥ अर्थात् उन महान् भद्रबाहु की महिमा का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है, जिनकी भुजाएँ मोहरूपी मल्ल के मद का मर्दन करने के कारण बलिष्ठ हो गई हैं, जिनका शिष्य बनने के कारण चन्द्रगुप्त की इतनी पुण्य-महिमा हुई कि वनदेवता उसकी सेवा-सुश्रुषा करने
लगे। श्रुतज्ञ
: इसी शिलालेख में तो है न, पहली शताब्दी के महान् दिगम्बर आचार्य
समन्तभद्र की वह उक्ति जिसका आशय है-"पहले मैंने पाटलिपुत्र में शास्त्रार्थ की भेरी बजायी, फिर मालव, सिन्धु और ठक्कप्रदेश में, फिर कांचीपुर और विदिशा में । अब मैं करहाटक प्रदेश में आया हूँ जहाँ विद्या धारण करनेवाले योद्धाओं की भीड है। हे राजन, मैं शास्त्रार्थ करने का अभिलाषी हूँ और दिखाना चाहता हूं कि इस भीड़ में शार्दूल (सिंह) कैसे विनोदपूर्वक क्रीड़ा करता है ?" हां, यह है बह उक्ति --
पूर्व पाटलिपुत्र-मध्य-नगरे मेरी मया ताडिता पश्चानमालव-सिन्धु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं
वादार्थी विचराम्यहन्नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ वाग्मीजी, इसके आगे का श्लोक आप पढ़ दीजिए । संस्कृत समासों की
छटा आपके मुख से अधिक शोभा देगी। वाग्मी : नहीं, शोभा तो आप ही के मुख से देगी, फिर भी मैं पढ़ देता हूँ। (कुछ
रुककर) नहीं नहीं, इस सुन्दर श्लोक को अनु बिटिया पढ़कर सुनाए। अनुगा : आपकी आज्ञा । करती हूँ प्रयत्न ।
अवटु-तटमटति झटिति स्फुट-पटु-वाचाटधूर्जटेरपि जिह्वा।
वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप कास्थान्येषाम् ।। वाग्मी : सुन्दर ! सारांश यह कि जब समन्तभद्र शास्त्रार्थ के लिए सामने खड़े
हो जाते हैं तब बड़े-से-बड़े धूर्जटि की जिह्वा तालु के पीछे लग जाती
पुराविद् : धूर्जटि शब्द टकार की श्रृंखला के प्रयोग द्वारा काव्य के चमत्कार के
लिए ही प्रयुक्त है। किन्तु यह तो हम काव्य की माधुरी में भटक गए !
इतिहास की बात तो बीच में ही रह गई। श्रुतज्ञ : अच्छा है, इतिहास-रस के साथ काव्य-रस भी चलता रहे। पुराविद् : बहुत अच्छा कहा आपने । मैं तो मानता हूँ कि नव रसों के साथ-साथ