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अन्तर्द्वन्द्रों के पार
केवलज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त, अनुभूत धर्म का उपदेश देने के लिए तीर्थकर ऋषभदेव दूर-दूर तक विहार करने लगे। उनका धर्मचक्र प्रवर्तित हुआ।
धर्मचक्र को रूपाकार देने की कथा ऋषभ-पुत्र बाहुबली के जीवन के साथ सम्बद्ध है। भारतीय पुरातत्त्व के इतिहासकार जॉन मार्शल ने अपनी पुस्तक-- 'गाइड टु तक्षशिला' में लिखा है : ___ "धर्म का उपदेश देते, विहार करते हुए भगवान ऋषभदेव जब तक्षशिला (पोदनपुर) पहुँचे, उस समय वहाँ भगवान के छोटे पुत्र बाहुबली राज्य करते थे। भगवान ऋषभदेव संध्या समय तक्षशिला पहुंचे और उसी समय ध्यान में लीन हो गये । बाहुबली को उनके आगमन की सूचना देर से मिली। प्रातःकाल जब बाहुबली अपने राजसी दलबल से सुसज्जित हो भगवान की वन्दना के लिए वहां पहुंचे तो देखा कि वीतराग, मोहमुक्त भगवान वहाँ नहीं थे। बहुत पश्चात्ताप हुआ बाहुबली को। तीर्थंकर भगवान के पधारने की याद में, उनके धर्म के उपकारी 'तीर्थ' को प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित करने के विचार से, बाहुबली ने 'धर्मचक्र' पहली बार तक्षशिला में स्थापित किया।" ।
यह है चरित उन तीर्थंकर आदिनाथ का जो पुरुषार्थ के आदिजनक हैं, जो प्रथम तीर्थंकर जिनेश हैं, जिन्होंने पहली बार सामाजिक व्यवस्था के विधि-विधान निर्धारित किये, जो धर्म के संचालक हैं, और जो इस युग में अवतरित होकर संसार का कल्याण करने वाले परम गुरु हैं ।
आदि पुरुष, आदीश जिन, आदि सु-विधि करतार । धरम-धुरन्धर, परमगुरु, नमो आदि-अवतार ॥