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कुलकरों की भोगभूमि से... जीवन का यथार्थ ? चरम आनन्द के क्षण में कंचन-सी काया की यह क्षणभंगुरता ? इस प्रकार आयु पूरी होने का क्षण जब अचानक आ जाता है तो जीवन में फिर उस तपस्या, त्याग, साधना और आत्मध्यान का अवसर कहाँ रह जाता है जो निर्वाण का अनन्त और अमर सुख देता है ?"
___ महाराज ऋषभदेव सिंहासन से उठे तो राज्य-त्याग का संकल्प कर चुके थे। फिर अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य-भार संभलवाया, बाहुबली को युवराज के रूप में पोदनपुर का राज्य दिया, अन्य 99 पुत्रों में राज्य की सीमाएं बांट दी और स्वयं सब कुछ छोड़कर, वस्त्र और आभूषण त्यागकर, निर्ग्रन्थ होकर, वन में संयम और तपस्या की साधना के लिए निकल पड़े।
तीर्थंकर ऋषभदेव ने कठिन तप के द्वारा आत्मिक बल प्राप्त करने के लिए कई-कई महीने उपवास किये, निराहार रहे। गृह-त्याग के बाद और स्वयं प्रवजित होने के उपरान्त एक वर्ष तक वे भोजन नहीं कर पाये क्योंकि जिस प्रकार का, जिस विधि से, आहार प्राप्त होने पर उसे ग्रहण करने का संकल्प वह ले चुके थे वह पूरा नहीं हो पा रहा था। मुनि ऋषभ प्रतिदिन आहार के लिए मौन भाव से निकलते और निराहार लौट जाते । लोगों ने विविध प्रकार का भोजन उनके सामने प्रस्तुत किया, किन्तु उनका संकल्प किया हुआ आहार नहीं मिला। इस प्रकार एक वर्ष तक उनके निराहार रहने के उपरान्त इक्ष्वाकुवंश के राजकुमार श्रेयांस, पूर्वभव के स्मरण द्वारा, जब गन्ने का रस लेकर खड़े हुए और आहार के लिए ऋषभदेव का आवाहन किया, उन्हें पड़गाहा, तब इच्छित विधि पूरी होने पर उन्होंने आहार लिया। इस मधुर पेय इक्षुरस के लेने की पुण्यतिथि 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रचलित है। इस विकट तपस्या का लक्ष्य था दृढव्रती, आत्मजयी बनकर वह ज्ञान प्राप्त करना जिससे आत्मा, परमात्मा, जीवन और जगत् के सारे रहस्य खुल जाते हैं, जिससे भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी अवस्थाओं का, सभी पदार्थों का, एक साथ वह पूर्णज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिसे 'केवलज्ञान' कहते हैं। उन्होंने अनुभव किया कि संयम और योग की साधना से कर्मों के बन्ध कटते हैं। अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करने से संसार के सभी प्राणियों की रक्षा होती है, समाज का कल्याण होता है । त्याग और तपस्या में रत होकर आत्मध्यान करने से प्रत्येक मनुष्य को निर्वाण की वह अवस्था प्राप्त हो सकती है जहां आत्मा शुद्ध रूप में अनन्त सुख और अनन्त ज्ञान की दशा में अजर-अमर हो जाती है। ___ ध्यान, तपस्या और योग-साधना के अन्तिम चरण में भगवान् आदिनाथ कैलाश पर्वत पर विराजमान थे । वहाँ से ही उन्होंने समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया-जीवन और मरण की परम्परा को सदा के लिए काट दिया। संसार-सागर को पार करके उन्होंने दूसरों को भी अध्यात्म-साधना और मोक्षप्राप्ति का मार्ग दिखा दिया। इसीलिए तो वह आदि तीर्थकर कहलाए।