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अन्तर्द्वन्द्वों के पार
खण्ड गिरते जायेंगे, और मूर्ति की भव्यता को उकेरने में छैनियों से जो शिला कण और चूर्ण बिखरते जायेंगे, उन सबको इकट्ठे करते जाना होगा और जिस मात्रा में पाषाण खण्ड और क्षरण इकट्ठा हो जायें, उतनी तौल का स्वर्ण मुझे प्राप्त हो ।"
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चामुण्डराय आश्वत हुए। प्रसन्न मन बोले - " स्वीकार है ।"
बात पक्की हो गई और प्रधान-शिल्पी ने अपने अधीन अनेक शिल्पियों तथा श्रमिकों को काम पर लगा दिया । चामुण्डराय पहाड़ों की ऊपरी ढलान पर प्रतिदिन एक निश्चित स्थान पर आकर बैठते और शिला से काटे-छांटे गए पाषाणखण्डों की तौल करवाकर लिखवाते जाते । धीरे-धीरे इतना ढेर इकट्ठा हो गया कि चामुण्डराय को शिल्पी से कहना पड़ा कि अभी जितना ढेर इकट्ठा हो गया है, उतने का स्वर्ण वह ले जाये । आगे भी जैसे-जैसे काम बढ़ता जाये वह हाथके हाथ अपना पारिश्रमिक लेता रहे ।
पहली पारी के सोने का ढेर लदवा कर शिल्पी अपने गाँव आया और जैसे ही दोनों हाथों में उठाये पहले ढेर को अपनी माँ के आगे रखने लगा, . कि उसके हाथ
हो गये, जकड़ गये, और सोने के ढेर से अलग न हो पाये। शिल्पी पर आतंक छा गया, वह पीड़ा से कराहने लगा। माँ आचार्य महाराज के पास दौड़ी गई, दर्शन किये, समाधान मांगा, और घर वापिस आकर बेटे से कहा- "बेटा, यह सोना तुम्हारे हाथों से नहीं चिपका है, यह भार तुम्हारे मन और हृदय पर जड़ हो गया है | तू देखता नहीं कि एक बेटा अपनी माँ की भक्ति भावना से हर्षित होकर परम पूज्य भगवान बाहुबली की विशाल मूर्ति बनवा रहा है, सोने-चांदी के संग्रह की भावना से अपने मन को मुक्त कर रहा है; और एक तू है कि लोभ-भरे मन से अपनी माँ को भगवान की मूर्ति बनाने की मजदूरी सोने के रूप में दे रहा है। तेरा मन पड़ा हुआ है आगे आने वाले सोने के ढेरों में। बेटा ! तू ही बता, तेरा उद्धार कैसे होगा ?"
की वाणी की पवित्र भाव-धारा ने शिल्पी के मन को एक क्षण में झकझोर कर निर्मल कर दिया । उसके अश्रु बहने लगे। दोनों हाथ सोने से मुक्त हो ये और हृदय लोभ से मुक्त हुआ । चामुण्डराय तो सोना देते ही रहे, किन्तु शिल्पी अब पत्थर नहीं तराश रहा था, भगवान बाहुबली की मूर्ति रच रहा था। यही क्षण था जब उसे गोम्मटेश्वर के मुख, होंठ, नेत्र और उनकी उस दिव्य मुस्कान को रूप देना था जो करुणा, आशीष और कल्याण की निर्झरिणी है। पवित्र मन ने उसके शिल्प को दिव्य आभा से मण्डित कर दिया । हृदय में बसी भक्ति ने पाषाण पर चलने वाली हथौड़ी और छेनी के उकेरों को कमल दल की कोमलता सुरभित कर दिया।
धन्य हो गया शिल्पी, धन्य हो गये चामुण्डराय, और युग-युग के लिए कृतार्थ हो गया भारत का शिल्प-वैभव जो दर्शनार्थियों को अमरत्व का बोध देता आ