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स्मारक चतुष्टय
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होयसल नरेश नरसिंह प्रथम के भण्डारि हुल्ल ने इसका निर्माण कराया था। गर्मगृह में सुन्दर चित्रमय वेदी पर चौबीस तीर्थंकरों की तीन-तीन फुट ऊंची मूर्तियां हैं। तीन दरवाजों पर जालियां बनी हैं। सुखनासि में पद्मावती और ब्रह्म की मूर्तियाँ हैं । नवरंग के चार खम्भों के बीच जमीन पर 10 फुट के चौकोर पत्थर जड़े हैं । आगे के भाग और बरामदे में भी इतने बड़े पत्थर लगे हुए हैं। ये भारीभारी पत्थर कैसे लाये गये, देखकर आश्चर्य होता है। नवरंग की चित्रकारी में सुन्दर लताएँ, मनुष्य, पशु उत्कीर्ण हैं। बरामदा मुख्य भवन के चारों ओर है। मन्दिर के सामने मानस्तम्भ है। शक संवत् 1081 के लेख (ऋ० 476) में मन्दिर के निर्माता हुल्ल और मन्दिर का वर्णन है।
अक्कन बसदि
होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय के ब्राह्मण मन्त्री चन्द्रमौलि की जैन धर्मावलम्बिनी भार्या आचियक्क ने शक संवत् 1103 में इस मन्दिर का निर्माण कराया, यह इसके लेख क्र० 444 से ज्ञात होता है। गर्भगृह में फणावलि सहित पार्दनाथ की 5 फुट ऊँची भव्य मूर्ति है। सुखनासि में आमने-सामने पंचफणी धरणेन्द्र तथा पद्मावती की साढ़े तीन फुट ऊँची मूर्तियां हैं। द्वार के आस-पास जालियां हैं। नवरंग के काले पाषाण के, आइने के सदृश चमकीले, चार स्तम्भ
और कुशल कारीगरी-पूर्ण नवछत्र हैं। गुम्मट में अनेक जिनमूर्तियां चित्रित हैं। शिखर पर सिंह-ललाट है। यह होयसल कला का अनुपम नमूना है।
सिद्धान्त बसदि
___ कहा जाता है कि जैन वाङ्मय की निधि सिद्धान्त-ग्रन्थ यहाँ एक बन्द कमरे में सुरक्षित रखे जाते थे। यहाँ से ही ये धबल, महावल, आदि ग्रन्थ मूडबिद्री गये हैं । मन्दिर के बीच में पार्श्वनाथ-मूर्ति है। उसके आस-पास शेष 23 तीर्थकरों की मूर्तियां हैं ! लेख क्र. 454 से ज्ञात होता है कि शक संवत् 1620 में उत्तर भारत के किसी यात्री द्वारा यह चतुर्विंशति तीर्थकर-मूर्ति प्रतिष्ठित की गई थी।
दानशाले बसदि
यह छोटा-सा देवालय है। इसमें तीन फुट ऊँचे पाषाण पर पंचपरमेष्ठी की प्रतिमाएं हैं । जैसा कि नाम से ज्ञात होता है पहले यहाँ दान दिया जाता रहा होगा। इस बसदि के लिए मदनेय नामक ग्राम दान में दिये जाने का उल्लेख भी मिलता है।